निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग निर्देश: Difference between revisions
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Revision as of 17:20, 27 February 2015
- निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग निर्देश
- मोक्षमार्ग के दो भेद-निश्चय व व्यवहार
त. सा./९/२ निश्चयव्यवहाराभ्यां मोक्षमार्गो द्विधा स्थितः। = निश्चय और व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग दो प्रकार का है। (न. च. वृ./२८४); (त. अनु./२८)।
- व्यवहार मोक्षमार्ग का लक्षण भेदरत्नत्रय
पं. का./मू./१६० धम्मादीसद्दहणं सम्मत्तं णाणमंगपुव्वगदं। चेट्ठा तवं हि चरिया ववहारो मोक्खमग्गो त्ति।१६०। = धर्मास्तिकाय आदि का अर्थात् षट्द्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्त तत्त्व व नव पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, अंगपूर्व सम्बन्धी आगम ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और तप में चेष्टा करना सम्यक्चारित्र है। इस प्रकार व्यवहार मोक्षमार्ग है। (स. सा./मू./२७६); (त. अनु./३०)।
स. सा./मू./१५५ जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं। रायादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो।१५५। जीवादि= (नव पदार्थों का) श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, उन ही पदार्थों का अधिगम सम्यग्ज्ञान है और रागादि का परिहार सम्यक्चारित्र है। यही मोक्ष का मार्ग है। (न. च. वृ./३२१); (द्र. सं ./टी./३९/१६२/८); (प. प्र./टी./२/१४/१२८/१२)।
त. सा./९/४ श्रद्धानाधिगमोपेक्षा या पुनः स्युः परात्मना। सम्यक्त्वज्ञानवृत्तात्मा स मार्गो व्यवहारतः। = (निश्चयमोक्षमार्ग रूप से कथित अभेद) आत्मा में सम्यग्दर्शन, समयग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र यदि भेद अर्थात् विकल्प की मुख्यता से प्रगट हो रहा हो तो सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूप रत्नत्रय को व्यवहार मोक्षमार्ग समझना चाहिए।
प. प्र./टी./२/३१/१५०/१४ व्यवहारेण वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धात्मतत्त्वप्रभृतिषट्द्रव्यपंचास्तिकायसप्ततत्त्वनवपदार्थविषये सम्यक् श्रद्धानज्ञानाहिंसादिव्रतशीलपरिपालनरूपस्य भेदरत्नत्रयस्य। = व्यवहार से सर्वज्ञप्रणीत शुद्धात्मतत्त्व को आदि देकर जो षट्द्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्ततत्त्व, नवपदार्थ इनके विषय में सम्यक् श्रद्धान व ज्ञान करना तथा अहिंसादि व्रत शील आदि का पालन करना (चारित्र) ऐसा भेदरत्नत्रय का स्वरूप है।
- निश्चय मोक्षमार्ग का लक्षण अभेद रत्नत्रय
पं. का./मू./१६१ णिच्छयणयेण भणिदो तिहि समाहिदो हु जो अप्पा। ण कुणदि किं चि वि अण्णं ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति।१६१। = जो आत्मा इन तीनों (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र) द्वारा समाहित होता हुआ (अर्थात् निजात्मा में एकाग्र होता हुआ) अन्य कुछ भी न करता है और न छोड़ता है (अर्थात् करने व छोड़ने के विकल्पों से अतीत हो जाता है, वह आत्मा ही निश्चय नय से मोक्षमार्ग कहा गया है। (त. सा./९/३); (त. अनु./३१)।
प. प्र./मू./२/१३ पेच्छइ जाणइ अणुचरइ अप्पि अप्पउ जो जि। दंसणु णाणु चरित्तु जिउ मोक्खहँ कारणु सो जि। = जो आत्मा अपने से आपको देखता है, जानता है व आचरण करता है वही विवेकी दर्शन, ज्ञान चारित्ररूप परिणत जीव मोक्ष का कारण है। (न. च. वृ./३२३); (नि. सा./ता. वृ./२); (प. प्र./टी./२/१४/१२८/१३); (पं. का./ता. वृ./१६१/२३३/८); (द्र. सं./टी./३९/ १६२/१०)।
प. प्र./टी./२/३१/१५१/१ निश्चयेन वीतरागसदानन्दैकरूपसुखसुधारसास्वादपरिणतनिजशुद्धात्मतत्त्वसम्यग्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपस्याभेदरत्नत्रयस्य......। = निश्चय से वीतराग सुखरूप परिणत जो निज शुद्धात्मतत्त्व उसी के सम्यक् श्रद्धान ज्ञान व अनुचरण रूप अभेदरत्नत्रय का स्वरूप है। (नि. सा./ता./ वृ./२); (स. सा./ता. वृ./२/८/१०); (प. प्र./टी./८७/२०६/१५); (द्र. सं./टी./अधि. २ की चूलिका/८२/७)।
- निश्चय मोक्षमार्ग का लक्षण शुद्धात्मानुभूति
यो. सा./यो./१६ अप्पादंसणु एक्कु परु अण्णु ण किं पि वियाणि। मोक्खहँ कारण जोइया णिच्छइँ एहउ जाणि।१६। = हे योगिन् ! एक परम आत्मदर्शन ही मोक्ष का कारण है, अन्य कुछ भी मोक्ष का कारण नहीं। यह तू निश्चय समझ।
न. च. वृ./३४२ की उत्थानिका में उद्धृत− ‘‘णिच्छयदो खलु मोक्खो तस्स य हेऊ हवेइ सब्भावो।’’ (सब्भावणयचक्क/३७९)। निश्चय से मोक्ष का हेतु स्वभाव है।
प्र. सा./त. प्र./२४२ एकाग्रयलक्षणश्रामण्यापरनामा मोक्षमार्ग एवावगन्तव्यः। = एकाग्रता लक्षण श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है, ऐसा मोक्षमार्ग ही है, ऐसा समझना चाहिए।
ज्ञा./१८/३२ अपास्य कल्पनाजालं चिदानन्दमये स्वयम्। यः स्वरूपे लयं प्राप्तः स स्याद्रत्नत्रयास्पदम्।३२। = जो मुनि कल्पना के जाल को दूर करके अपने चैतन्य और आनन्दमय स्वरूप में लय को प्राप्त होता है, वही निश्चयरत्नत्रय का स्थान होता है।
पं. का./ता. वृ./१५८/२२९/१२ ततः स्थितं विशुद्धज्ञानदर्शनलक्षणे जीवस्वभावे निश्चालावस्थानं मोक्षमार्ग इति। = अतः यह बात सिद्ध होती है कि विशुद्ध ज्ञान दर्शन लक्षण वाले जीवस्वभाव में निश्चल अवस्थान करना ही मोक्षमार्ग है।
- निश्चयमोक्षमार्ग के अपरनाम
द्र. सं./टी./५६/२२५/१३ तदेव निश्चयमोक्षमार्गस्वरूपम्। तच्चपर्यायनामान्तरेण किं किं भण्यते तदभिधीयते। (इन नामों का केवल भाषानुवाद ही लिख दिया है संस्कृत नहीं).......इत्यादि समस्तरागादिविकल्पोपाधिरहितमाह्लादैकसुखलक्षणध्यानरूपस्य निश्चयमोक्ष-मार्गस्य वाचकान्यन्यान्यपि पर्यायनामानि विज्ञेयानि भवन्ति परमात्मतत्त्वविद्भिरिति। = वह (वीतराग परमानन्द सुख का प्रतिभास) ही निश्चय मोक्षमार्ग का स्वरूप है। उसको पर्यायान्तर शब्दों द्वारा क्या-क्या कहते हैं, सो बताते हैं।−- १. शुद्धात्मस्वरूप,
- २. परमात्मस्वरूप,
- ३. परमहंसस्वरूप,
- ४. परमब्रह्मस्वरूप,
- ५. परमविष्णुस्वरूप,
- ६. परमनिजस्वरूप,
- ७. सिद्ध,
- ८. निरंजनरूप,
- ९. निर्मलस्वरूप,
- १०. स्वसंवेदनज्ञान,
- ११. परमतत्त्वज्ञान,
- १२. शुद्धात्मदर्शन,
- १३. परमावस्थास्वरूप,
- १४. परमात्मदर्शन,
- १५. परम तत्त्वज्ञान,
- १६. शुद्धात्मज्ञान,
- १७. ध्येय स्वरूप शुद्धपारिणामिक भाव,
- १८. ध्यानभावनारूप,
- १९. शुद्धचारित्र,
- २०. अंतरंग तत्त्व,
- २१. परमतत्त्व,
- २२. शुद्धात्मद्रव्य,
- २३. परमज्योति,
- २४. शुद्धात्मानुभूति,
- २५. आत्मद्रव्य,
- २६. आत्मप्रतीति,
- २७. आत्मसंवित्ति,
- २८. आत्मस्वरूप की प्राप्ति,
- २९. नित्यपदार्थ की प्राप्ति,
- ३०. परमसमाधि,
- ३१. परमानन्द,
- ३२. नित्यानन्द,
- ३३. स्वाभाविक आनन्द,
- ३४. सदानन्द,
- ३५. शुद्धात्मपठन,
- ३६. परमस्वाध्याय,
- ३७. निश्चय मोक्ष का उपाय,
- ३८. एकाग्रचिन्ता निरोध,
- ३९. परमज्ञान,
- ४०. शुद्धोपयोग,
- ४१. भूतार्थ,
- ४२. परमार्थ,
- ४३. पंचाचारस्वरूप,
- ४४. समयसार,
- ४५. निश्चय षडावश्यक स्वरूप,
- ४६. केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण,
- ४७. समस्त कर्मों के क्षय का कारण, ४८. निश्चय चार आराधना स्वरूप, ४९. परमात्मभावनारूप, ५०. सुखानुभूतिरूप परमकला, ५१. दिव्यकला, ५२. परम अद्वैत, ५३. परमधर्मध्यान, ५४. शुक्लध्यान, ५५. निर्विकल्पध्यान, ५६. निष्कलध्यान, ५७. परमस्वास्थ्य, ५८. परमवीतरागता, ५९. परम समता, ६०. परम एकत्व, ६१. परम भेदज्ञान, ६२. परम समरसी भाव−इत्यादि समस्त रागादि विकल्पोपाधि रहित परमाह्लादक सुखलक्षणवाले ध्यानस्वरूप ऐसे निश्चय मोक्षमार्ग को कहने वाले अन्य भी बहुत से पर्यायनाम जान लेने चाहिए।
- निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्ग के लक्षणों का समन्वय
प. प्र./मू./२/४० दंसणु णाणु चरित्तु तसु जो सपभाउ करेइ। एयरहँ एक्कु वि अत्थि णवि जिणवरु एउ भणेइ।४०। = दर्शन ज्ञान चारित्र वास्तव में उसी के होते हैं, जो समभाव करता है। अन्य किसी के इन तीनों में से एक भी नहीं होता, इस प्रकार जिनेन्द्र देव कहते हैं।
प्र. सा./त. प्र./२४० यः खलु....सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदैकज्ञानाकारमात्मानं श्रद्धानोऽभवंश्चात्मन्येव नित्यनिश्चलां वृत्तिमिच्छन्...‘यमसाधनीकृतशरीरपात्र:....समुपरतकायवाङ्मनोव्यापारो भूत्वा चित्तवृत्तेः......निष्पीडय निष्पीडय कषायचक्रमक्रमेण जीवं त्याजयति खलु सकलपरद्रव्यशून्योऽपि विशुद्धदृशिज्ञप्तिमात्रस्वभावभूतावस्थापितात्मतत्त्वोपजातनित्यनिश्चलवृत्तितया साक्षात् संयत एवं स्यात्। तस्यैव चागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यात्मज्ञानयौगपद्यं सिद्ध्यति। = जो पुरुष सकल ज्ञेयाकारों से प्रतिबिम्बित विशद एक ज्ञानाकार रूप आत्मा का श्रद्धान और अनुभव (ज्ञान) करता हुआ, आत्मा में ही नित्य निश्चल वृत्ति को (निश्चय चारित्र को) इच्छता हुआ, संयम के साधनीभूत शरीर मात्र को पंच समिति आदि (व्यवहार चारित्र) के द्वारा तथा पंचेन्द्रियों के निरोध द्वारा मनवचनकाय के व्यापार को रोकता है। तथा ऐसा होकर चित्तवृत्ति में से कषायसमूह को अत्यन्त मर्दन कर-कर के अक्रम से मार डालता है, वह व्यक्ति वास्तव में समल परद्रव्य से शून्य होने पर भी विशुद्ध दर्शनज्ञानमात्र स्वभावरूप से रहने वाले आत्मतत्त्व में नित्य निश्चय परिणति (अभेद रत्नत्रय) उत्पन्न होने से साक्षात् संयत ही है। और उसे ही आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयतत्व (भेदरत्नत्रय) की युगपतता के साथ आत्मज्ञान (निश्चय मोक्षमार्ग) की युगपतता सिद्ध होती है।
प्र. सा./त. प्र./२४२ ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथानुभूतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण श्रेयज्ञातृक्रिडयान्तरनिवृत्तिसूत्र्यमाणद्रष्टृज्ञातृतत्त्ववृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च त्रिभिरपि यौगपद्येन....परिणतस्यात्मनो यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतत्वं तत्पानकवदनेकात्मकस्यैकस्यानुभूयमानतायामपि समस्तपरद्रव्यपरावृत्तत्वादभिव्यक्तैकाग्रयलक्षणश्रामण्यापरनामा मोक्षमार्ग एवावगन्तव्यः। तस्य तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात्पर्यायप्रधानेन व्यवहारनयेनैकाग्रयं मोक्षमार्ग इत्यभेदात्मकत्वाद्द्रव्यप्रधानेन निश्चयनयेन विश्वस्यापि भेदाभेदात्मकत्वात्तदुभयमिति प्रमाणेन प्रज्ञप्तिः। = ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की (अर्थात् स्व व पर की) यथावस्थित प्रतीतिरूप तो सम्यग्दर्शन पर्याय तथा उसी स्व पर तत्त्व की यथावस्थिति अनुभूति रूप ज्ञानपर्याय तथा उसी की क्रियान्तर से निवृत्ति के द्वारा (अर्थात् ज्ञेयों का आश्रय लेकर क्रमपूर्वक जानने की निवृत्ति के द्वारा (अर्थात् ज्ञेयों का आश्रय लेकर क्रमपूर्वक जानने की निवृत्ति करके) एक दृष्टिज्ञातृतत्त्व (निजात्मा) में परिणतिरूप चारित्र पर्याय है। इन तीनों पर्यायों रूप युगपत् परिणत आत्मा के आत्मनिष्ठता होने पर संयतत्व होता है। वह संयतत्व ही एकाग्रयलक्षण वाला श्रामण्य या मोक्षमार्ग है। क्योंकि वहाँ पानकवत् अनेकात्मक एक (विशद ज्ञानाकार) का अनुभव होने पर भी समस्त परद्रव्यों से निवृत्ति होने के कारण एकाग्र्यता अभिव्यक्त है। वह संयतत्त्व भेदात्मक है, इसलिए उसे ही पर्यायप्रधान व्यवहारनय से ‘सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है’ ऐसा कहते हैं। वह अभेदात्मक भी है, इसलिए द्रव्यप्रधान निश्चयनय से ‘एकाग्रता मोक्षमार्ग है’ ऐसा कहते हैं। समस्त ही पदार्थ भेदाभेदात्मक हैं, इसलिए उभयग्राही प्रमाण से ‘वे दोनों अर्थात् रत्नत्रय व एकाग्रता) मोक्षमार्ग हैं, ऐसा कहते हैं। (त. सा./९/२१)।
प. प्रा./टी./९६/९१/४ यथा द्राक्षाकर्पूरश्रीखण्डादिबहुद्रव्यैर्निष्पन्नमपि पानकमभेदविवक्षया कृत्वैकं भण्यते, तथा शुद्धात्मानुभूतिलक्षणैकनिश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैर्बहुभिः परिणतो अनेकोऽप्यात्मा त्वभेदविवक्षया एकोऽपि भण्यत इति भावार्थः। = जिस प्रकार द्राक्षा कपूर व खाण्ड आदि बहुत से द्रव्यों से बना हुआ भी पानक अभेद विवक्षा से एक कहा जाता है, उसी प्रकार शुद्धात्मानुभूति लक्षण वाले निश्चय सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र इन तीनों के द्वारा परिणत अनेक रूप वाला भी आत्मा अभेद विवक्षा से एक भी कहा जाता है, ऐसा भावार्थ है।
प. ध./उ./७६६ सत्यं सद्दर्शनं ज्ञानं चारित्रान्तर्गतं मिथः। त्रयाणामविनाभावदिदं त्रयमखण्डितं।७६६। = सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान चारित्र में अन्तर्भूत हो जाते हैं, क्योंकि तीनों अविनाभावी हैं। इसलिए ये तीनों अखण्डित रूप से एक ही हैं।
- अभेद मार्ग में भेद करने का कारण
स. सा./मू./१७-१८ जह णामको वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि। तोतुं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पणत्तेण।१७। एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहेदव्वो। अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण।१८। = जैसे कोई धन का अर्थी पुरुष राजा को जानकर श्रद्धा करता है और फिर उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है, इसी प्रकार मोक्ष के इच्छुक पुरुष को जीवरूपी राजा को जानना चाहिए और फिर इसी प्रकार उसका श्रद्धान करना चाहिए और तत्पश्चात् उसी का अनुचरण करना चाहिए और अनुभव द्वारा उसमें लय हो जाना चाहिए।
- मोक्षमार्ग के दो भेद-निश्चय व व्यवहार