जिन: Difference between revisions
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मू.आ./५६१<span class="PrakritText"> जिदकोहमाणमाया जिदलोहा तेण ते जिणा होंति। </span>=<span class="HindiText">क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायों को जीत लेने के कारण अर्हन्त भगवान् जिन हैं। (द्र.सं.टी./१४/४७/१०)।</span><br /> | मू.आ./५६१<span class="PrakritText"> जिदकोहमाणमाया जिदलोहा तेण ते जिणा होंति। </span>=<span class="HindiText">क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायों को जीत लेने के कारण अर्हन्त भगवान् जिन हैं। (द्र.सं.टी./१४/४७/१०)।</span><br /> | ||
भ.आ./वि./३१८/५३१/२२<span class="SanskritText"> कर्मैकदेशानां च जयात् धर्मोऽपि कर्माण्यभिभवति इति जिनशब्देनोच्यते।</span> =<span class="HindiText">धर्म भी कर्मों का पराभव करता है अत: उसको भी जिन कहते हैं।</span><br /> | भ.आ./वि./३१८/५३१/२२<span class="SanskritText"> कर्मैकदेशानां च जयात् धर्मोऽपि कर्माण्यभिभवति इति जिनशब्देनोच्यते।</span> =<span class="HindiText">धर्म भी कर्मों का पराभव करता है अत: उसको भी जिन कहते हैं।</span><br /> | ||
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ध.९/४,१,१/६-८ सारार्थ (निक्षेपों के लक्षणों के अनुरूप हैं)।<br /> | ध.९/४,१,१/६-८ सारार्थ (निक्षेपों के लक्षणों के अनुरूप हैं)।<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> | <li class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> पाँचों परमेष्ठी तथा अन्य सभी मिथ्यादृष्टियों को जिन संज्ञा प्राप्त है– देखें - [[ जिन#3 | जिन / ३ ]]।</strong></li> | ||
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Revision as of 20:20, 28 February 2015
- जिन सामान्य का लक्षण
मू.आ./५६१ जिदकोहमाणमाया जिदलोहा तेण ते जिणा होंति। =क्रोध, मान, माया, लोभ इन कषायों को जीत लेने के कारण अर्हन्त भगवान् जिन हैं। (द्र.सं.टी./१४/४७/१०)।
भ.आ./वि./३१८/५३१/२२ कर्मैकदेशानां च जयात् धर्मोऽपि कर्माण्यभिभवति इति जिनशब्देनोच्यते। =धर्म भी कर्मों का पराभव करता है अत: उसको भी जिन कहते हैं।
नि.सा./ता.वृ./१ अनेकजन्माटवीप्रापणहेतून् समस्तमोहरागद्वेषादीन् जयतीति जिन:। =अनेक जन्मरूप अटवी को प्राप्त कराने के हेतुभूत समस्त मोहरागद्वेषादिक को जो जीत लेता है वह जिन है।
पं.का./ता.वृ./१/४/१८ अनेकभवगहनविषयव्यसनप्रापणहेतून् कर्मारातीन् जयतीति जिन:।=अनेक भवों के गहन विषयोंरूप संकटों की प्राप्ति के कारणभूत कर्मरूपी शत्रुओं को जीतता है, वह जिन है। (स.श./टी./२/२२३/५)।
- जिन के भेद
- सकलजिन व देशजिन
ध.९/४,१,१/१०/७ जिणा दुविहा सयलदेसजिणभेएण। =सकलजिन देशजिन के भेद से जिन दो प्रकार हैं।
- निक्षेपोंरूप भेद
ध.९/४,१,१/६८८ (निक्षेप सामान्य के भेदों के अनुरूप है)।
- सकल व देश जिन के लक्षण
ध.९/४,१,१/१०/७ खवियघाइकम्मा सयलजिणा। के ते। अरहंत सिद्धा। अवरै आइरिय उवज्झाय साहू देसजिणा तिव्वकसाइंदिय–मोहविजयादो। =जो घातिया कर्मों का क्षय कर चुके हैं वे सकल जिन हैं। वे कौन हैं–अर्हन्त और सिद्ध। इतर आचार्य, उपाध्याय और साधु तीव्र कषाय, इन्द्रिय एवं मोह के जीत लेने के कारण देश जिन हैं।
नि.सा./ता.वृ./क.२४३,२५३ स्ववशो जीवन्मुक्त: किंचिन्न्यूनो जिनेश्वरादेष:।२४३। सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिन:। न कामपि भिदां क्वापि तां विद्मो हा जडा वयम् ।२५३।=जो जीव स्ववश हैं वे जीवन्मुक्त हैं, जिनेश्वर से किंचित् न्यून हैं।२४३। सर्वज्ञ वीतराग में और इस स्ववश योगी में कभी कुछ भी भेद नहीं है, तथापि अरेरे ! हम जड़ हैं कि उनमें भेद मानते हैं।२५३।
प्र.सा./ता.वृ./२०१/२७१/१३ सासादनादिक्षीणकषायान्ता एकदेशजिना उच्यन्ते। =सासादन गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त एकदेश जिन कहलाते हैं।
द्र.सं./टी./१/५/१० जितमिथ्यात्वरागादित्वेन एकदेशजिना: असंयतसम्यग्दृष्ट्यादय:। =मिथ्यात्व तथा रागादि को जीतने के कारण असंयत सम्यग्दृष्टि आदि (देश संयत श्रावक व सकल संयत साधु) एकदेशी जिन हैं।
- अवधि व विद्याधर जिनों के लक्षण
ध.९/४,१,१/४०/५ अवधयश्च ते जिनाश्च अवधिजिना:।
ध.९/४,१,१/७८/७ सिद्धविज्जाणं पेसणं जे ण इच्छंति केवलं धरंति चेव अण्णाणणिवित्तीए ते विज्जाहरजिणा णाम। =अवधिज्ञान स्वरूप जो जिन वे अवधि जिन हैं। जो सिद्ध हुई विद्याओं से काम लेने की इच्छा नहीं करते, केवल अज्ञान की निवृत्ति के लिए उन्हें धारण करते हैं, वे विद्याधर जिन हैं।
- निक्षेपों रूप जिनों के लक्षण
ध.९/४,१,१/६-८ सारार्थ (निक्षेपों के लक्षणों के अनुरूप हैं)।
- पाँचों परमेष्ठी तथा अन्य सभी मिथ्यादृष्टियों को जिन संज्ञा प्राप्त है– देखें - जिन / ३ ।
- सकलजिन व देशजिन