दर्शन उपयोग 5: Difference between revisions
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ष.खं./१/१,१/सूत्र १३१/३७८ <span class="PrakritText">दंसणाणुवादेण अत्थि चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओधिदंसणी केवलदंसणी चेदि। </span>=<span class="HindiText">दर्शनमार्गणा के अनुवाद से चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन धारण करने वाले जीव हेते हैं। (पं.का./मू./४२), (नि.सा./मू.१३/१४) (स.सि./२/९/१६३/९), (रा.वा./२/९/३/१२४/९), (द्र.सं./टी./१३/३८/४), (प.प्र./२/३४/१५५/२)</span></li> | ष.खं./१/१,१/सूत्र १३१/३७८ <span class="PrakritText">दंसणाणुवादेण अत्थि चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओधिदंसणी केवलदंसणी चेदि। </span>=<span class="HindiText">दर्शनमार्गणा के अनुवाद से चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन धारण करने वाले जीव हेते हैं। (पं.का./मू./४२), (नि.सा./मू.१३/१४) (स.सि./२/९/१६३/९), (रा.वा./२/९/३/१२४/९), (द्र.सं./टी./१३/३८/४), (प.प्र./२/३४/१५५/२)</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> चक्षु आदि दर्शनों के लक्षण</strong></span><br>पं.सं./१/१३९-१४१ <span class="PrakritGatha">चक्खूणाजं पयासइ दीसइ तं चक्खुदंसणं विंति। सेसिंदियप्पयासो णायव्वो सो अचक्खु त्ति।१३९। परमाणुआदियाइं अंतिमरखंध त्ति मुत्तदव्वाइं। तं ओहिदंसणं पुण जं पस्सइ ताइं पच्चक्खं।१४०। बहुविह बहुप्पयारा उज्जोवा परिवियम्हि खेतम्हि। लोयालोयवितिमिरो सो केवलदंसणुज्जोवो।१४१। </span>=<span class="HindiText">चक्षु इन्द्रिय के द्वारा जो पदार्थ का सामान्य अंश प्रकाशित होता है, अथवा दिखाई देता है, उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। शेष चार इन्द्रियों से और मन से जो सामान्य प्रतिभास होता है उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिए।१३९। सब लघु परमाणु से आदि लेकर सर्वमहान् अन्तिम स्कन्ध तक जितने मूर्तद्रव्य हैं, उन्हें जो प्रत्यक्ष देखता है, उसे अवधिदर्शन कहते हैं।१४०। बहुत जाति के और बहुत प्रकार के चन्द्र सूर्य आदि के उद्योत तो परिमित क्षेत्र में ही पाये जाते हैं। अर्थात् वे थोड़े से ही पदार्थों को अल्प परिमाण प्रकाशित करते हैं। किन्तु जो केवल दर्शन उद्योत है, वह लोक को और अलोक को भी प्रकाशित करता है, अर्थात् सर्व चराचर जगत् को स्पष्ट देखता है।१४१।</span> (ध.१/१,१,१३१/गा.१९५-१९७/३८२), (ध.७/५,५,५६/गा.२०-२१/१००), (गो.जी./मू./४८४-४८६/८८९)। पं.का./त.प्र./४२ <span class="SanskritText">तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुरिन्द्रियवलम्बाच्चमूर्त्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तच्चक्षुर्दर्शनम् । यत्तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुवर्जितेतरचतुरिन्द्रियानिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदचक्षुर्दर्शनम् । यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदवधिदर्शनम् । यत्सकलावरणात्यन्तक्षये केवल एव मूर्त्तामूर्त्तद्रव्यं सकलं सामान्येनावबुध्यते तत्स्वाभाविकं केवलदर्शनमिति स्वरूपाभिधानम् । </span>=<span class="HindiText">अपने आवरण के क्षयोपशम से और चक्षुइन्द्रिय के आलम्बन से मूर्त द्रव्य को विकलरूप से (एकदेश) जो सामान्यत: अवबोध करता है वह चक्षुदर्शन है। उस प्रकार के आवरण के क्षयोपशम से तथा चक्षु से अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों और मन के अवलम्बन से मूर्त अमूर्त द्रव्यों को विकलरूप से (एकदेश) जो सामान्यत: अवबोध करता है, वह अचक्षुदर्शन है। उस प्रकार के आवरण के क्षयोपशम से ही (बिना किसी इन्द्रिय के अवलम्बन के) मूर्त द्रव्य को विकलरूप से (एकदेश) जो सामान्यत: अवबोधन करता है, वह अवधिदर्शन है। समस्त आवरण के अत्यंत क्षय से केवल (आत्मा) ही मूर्त अमूर्त द्रव्य को सकलरूप से जो सामान्यत: अवबोध करता है वह स्वाभाविक केवलदर्शन है। इस प्रकार (दर्शनोपयोगों के भेदों का) स्वरूपकथन है। (नि.सा./ता.वृ./१३,१४); (द्र.सं./टी./४/१३/६)। </span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.2" id="5.2"> चक्षु आदि दर्शनों के लक्षण</strong></span><br>पं.सं./१/१३९-१४१ <span class="PrakritGatha">चक्खूणाजं पयासइ दीसइ तं चक्खुदंसणं विंति। सेसिंदियप्पयासो णायव्वो सो अचक्खु त्ति।१३९। परमाणुआदियाइं अंतिमरखंध त्ति मुत्तदव्वाइं। तं ओहिदंसणं पुण जं पस्सइ ताइं पच्चक्खं।१४०। बहुविह बहुप्पयारा उज्जोवा परिवियम्हि खेतम्हि। लोयालोयवितिमिरो सो केवलदंसणुज्जोवो।१४१। </span>=<span class="HindiText">चक्षु इन्द्रिय के द्वारा जो पदार्थ का सामान्य अंश प्रकाशित होता है, अथवा दिखाई देता है, उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। शेष चार इन्द्रियों से और मन से जो सामान्य प्रतिभास होता है उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिए।१३९। सब लघु परमाणु से आदि लेकर सर्वमहान् अन्तिम स्कन्ध तक जितने मूर्तद्रव्य हैं, उन्हें जो प्रत्यक्ष देखता है, उसे अवधिदर्शन कहते हैं।१४०। बहुत जाति के और बहुत प्रकार के चन्द्र सूर्य आदि के उद्योत तो परिमित क्षेत्र में ही पाये जाते हैं। अर्थात् वे थोड़े से ही पदार्थों को अल्प परिमाण प्रकाशित करते हैं। किन्तु जो केवल दर्शन उद्योत है, वह लोक को और अलोक को भी प्रकाशित करता है, अर्थात् सर्व चराचर जगत् को स्पष्ट देखता है।१४१।</span> (ध.१/१,१,१३१/गा.१९५-१९७/३८२), (ध.७/५,५,५६/गा.२०-२१/१००), (गो.जी./मू./४८४-४८६/८८९)। पं.का./त.प्र./४२ <span class="SanskritText">तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुरिन्द्रियवलम्बाच्चमूर्त्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तच्चक्षुर्दर्शनम् । यत्तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुवर्जितेतरचतुरिन्द्रियानिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदचक्षुर्दर्शनम् । यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदवधिदर्शनम् । यत्सकलावरणात्यन्तक्षये केवल एव मूर्त्तामूर्त्तद्रव्यं सकलं सामान्येनावबुध्यते तत्स्वाभाविकं केवलदर्शनमिति स्वरूपाभिधानम् । </span>=<span class="HindiText">अपने आवरण के क्षयोपशम से और चक्षुइन्द्रिय के आलम्बन से मूर्त द्रव्य को विकलरूप से (एकदेश) जो सामान्यत: अवबोध करता है वह चक्षुदर्शन है। उस प्रकार के आवरण के क्षयोपशम से तथा चक्षु से अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों और मन के अवलम्बन से मूर्त अमूर्त द्रव्यों को विकलरूप से (एकदेश) जो सामान्यत: अवबोध करता है, वह अचक्षुदर्शन है। उस प्रकार के आवरण के क्षयोपशम से ही (बिना किसी इन्द्रिय के अवलम्बन के) मूर्त द्रव्य को विकलरूप से (एकदेश) जो सामान्यत: अवबोधन करता है, वह अवधिदर्शन है। समस्त आवरण के अत्यंत क्षय से केवल (आत्मा) ही मूर्त अमूर्त द्रव्य को सकलरूप से जो सामान्यत: अवबोध करता है वह स्वाभाविक केवलदर्शन है। इस प्रकार (दर्शनोपयोगों के भेदों का) स्वरूपकथन है। (नि.सा./ता.वृ./१३,१४); (द्र.सं./टी./४/१३/६)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा परमार्थ से अन्तरंग विषय को ही बताती है</strong> </span><br>ध.७/२,१,५६/१००/१२ <span class="PrakritText">इदि बज्झत्थविसयदंसणपरूवणादो। ण एदाणं गाहाणं परमत्थात्थाणुवगमादो। को सो परमत्थत्थो। वुच्चदे–यत् चक्षुषां प्रकाशते चक्षुषा दृश्यते वा तत् चक्षुर्दर्शनमिति ब्रुवते। चक्खिंदियणाणादो जो पुव्वमेव सुवसत्तीए सामण्णए अणुहओ चक्खुणाणुप्पत्तिणिमित्तो तं चक्खुदंसणमिदि उत्तं होदि। गाहाए जलभंजणमकाऊण उज्जुवत्थो घेप्पदि। ण, तत्थ पुव्वुत्तासेसदोसप्पसंगादो।<br>शेषेन्द्रियै: प्रतिपन्नस्यार्थस्य यस्मात् अवगमनं ज्ञातव्यं तत् अचक्षुर्दर्शनमिति। सेसिंदियणाणुप्पत्तीदो जो पुव्वमेव सुवसत्तीए अप्पणो विसयम्मि पडिबद्धाए सामण्णेण संवेदो अचक्खुणाणुप्पत्तिणिमित्तो तमचक्खुदंसणमिदि उत्तं होदि। परमाण्वादिकानि आ पश्चिमस्कन्धादिति मूर्तिद्रव्याणि यस्मात् पश्यति जानीते तानि साक्षात् तत् अवधिदर्शनमिति द्रष्टव्यम् । परमाणुमादिं कादूण जाव पच्छिमखंधो त्ति टि्ठपोग्गलदव्वाणमवगमादो पचक्खादो जो पुव्वमेव सुवसत्तीविसयउवजोगो ओहिणाणुप्पत्तिणिमित्तो तं ओहिदंसणमिदि घेतव्वं। अण्णहा णाणदंसणाणं भेदाभावादो। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–इन सूत्रवचनों में (देखें - [[ पहिलेवाला शीर्षक नं#02 | पहिलेवाला शीर्षक नं / ०२]]) दर्शन की प्ररूपणा बाह्यार्थविषयक रूप से की गयी है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि, तुमने इन गाथाओं का परमार्थ नहीं समझा। <strong>प्रश्न</strong>–वह परमार्थ कौन-सा है ? <strong>उत्तर</strong>–कहते हैं–१. (गाथा के पूर्वार्ध का इस प्रकार है) ‘जो चक्षुओं को प्रकाशित होता अर्थात् दिखता है, अथवा | <li><span class="HindiText"><strong name="5.3" id="5.3"> बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा परमार्थ से अन्तरंग विषय को ही बताती है</strong> </span><br>ध.७/२,१,५६/१००/१२ <span class="PrakritText">इदि बज्झत्थविसयदंसणपरूवणादो। ण एदाणं गाहाणं परमत्थात्थाणुवगमादो। को सो परमत्थत्थो। वुच्चदे–यत् चक्षुषां प्रकाशते चक्षुषा दृश्यते वा तत् चक्षुर्दर्शनमिति ब्रुवते। चक्खिंदियणाणादो जो पुव्वमेव सुवसत्तीए सामण्णए अणुहओ चक्खुणाणुप्पत्तिणिमित्तो तं चक्खुदंसणमिदि उत्तं होदि। गाहाए जलभंजणमकाऊण उज्जुवत्थो घेप्पदि। ण, तत्थ पुव्वुत्तासेसदोसप्पसंगादो।<br>शेषेन्द्रियै: प्रतिपन्नस्यार्थस्य यस्मात् अवगमनं ज्ञातव्यं तत् अचक्षुर्दर्शनमिति। सेसिंदियणाणुप्पत्तीदो जो पुव्वमेव सुवसत्तीए अप्पणो विसयम्मि पडिबद्धाए सामण्णेण संवेदो अचक्खुणाणुप्पत्तिणिमित्तो तमचक्खुदंसणमिदि उत्तं होदि। परमाण्वादिकानि आ पश्चिमस्कन्धादिति मूर्तिद्रव्याणि यस्मात् पश्यति जानीते तानि साक्षात् तत् अवधिदर्शनमिति द्रष्टव्यम् । परमाणुमादिं कादूण जाव पच्छिमखंधो त्ति टि्ठपोग्गलदव्वाणमवगमादो पचक्खादो जो पुव्वमेव सुवसत्तीविसयउवजोगो ओहिणाणुप्पत्तिणिमित्तो तं ओहिदंसणमिदि घेतव्वं। अण्णहा णाणदंसणाणं भेदाभावादो। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–इन सूत्रवचनों में (देखें - [[ पहिलेवाला शीर्षक नं#02 | पहिलेवाला शीर्षक नं / ०२]]) दर्शन की प्ररूपणा बाह्यार्थविषयक रूप से की गयी है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है, क्योंकि, तुमने इन गाथाओं का परमार्थ नहीं समझा। <strong>प्रश्न</strong>–वह परमार्थ कौन-सा है ? <strong>उत्तर</strong>–कहते हैं–१. (गाथा के पूर्वार्ध का इस प्रकार है) ‘जो चक्षुओं को प्रकाशित होता अर्थात् दिखता है, अथवा आँख द्वारा देखा जाता है, वह चक्षुदर्शन है’–इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि चक्षु इन्द्रियज्ञान से जो पूर्व ही सामान्य स्वशक्ति का अनुभव होता है, जो कि चक्षु ज्ञान की उत्पत्ति में निमित्तरूप है, वह चक्षुदर्शन है। <strong>प्रश्न</strong>–गाथा का गला न घोंटकर सीधा अर्थ क्यों नहीं करते ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं करते, क्योंकि वैसा करने से पूर्वोक्त समस्त दोषों का प्रसंग आता है। २–गाथा के उत्तरार्ध का अर्थ इस प्रकार है–‘जो देखा गया है, अर्थात् जो पदार्थ शेष इन्द्रियों के द्वारा जाना गया है’ उससे जो ज्ञान होता है, उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिए। (इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि–) चक्षु इन्द्रियों को छोड़कर शेष इन्द्रियज्ञानों की उत्पत्ति से पूर्व ही अपने विषय में प्रतिबद्ध स्वशक्ति का, अचक्षुज्ञान की उत्पत्ति में निमित्तभूत जो सामान्य से संवेदन या अनुभव होता है, वह अचक्षुदर्शन है। ३–द्वितीय गाथा को अर्थ इस प्रकार है–‘परमाणु से लगाकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त जितने मूर्त द्रव्य हैं, उन्हें जिसके द्वारा साक्षात् देखता है या जानता है, वह अवधिदर्शन है।’ इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए, कि–परमाणु से लेकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त जो पुद्गलद्रव्य स्थित हैं, उनके प्रत्यक्ष ज्ञान से पूर्व ही जो अवधिज्ञान की उत्पत्ति का निमित्तभूत स्वशक्ति विषयक उपयोग होता है, वही अवधिदर्शन है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा ज्ञान और दर्शन में कोई भेद नहीं रहता। (ध.६/१,९-१,१६/३३/२); (ध.१३/५,५,८५/३५५/७)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="5.4" id="5.4">बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा का कारण</strong> </span><br>ध.१५/९/११ <span class="PrakritText">पुव्वं सव्वं पि दंसणमज्झत्थविसयमिदि परूविदं, संपहिं चक्खुदंसणस्स बज्झत्थविसत्तं परूविदं ति णेदं घडदे, पुब्वावरविरोहादो। ण एस दोसो, एवंविहेसु बज्झत्थेसु पडिबद्धसगसत्तिसंवेयणं चक्खुदंसणं ति जाणावणट्ठं बज्झत्थविसयपरूवणाकरणादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> <strong>१</strong>–सभी दर्शन अध्यात्म अर्थ को विषय करने वाले हैं, ऐसी प्ररूपणा पहिले की जा चुकी है। किन्तु इस समय बाह्यार्थ को चक्षुदर्शन का विषय कहा है, इस प्रकार यह कथन संगत नहीं है, क्योंकि इससे पूर्वापर विरोध होता है ? <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इस प्रकार के बाह्यार्थ में प्रतिबद्ध आत्म शक्ति का संवेदन करने को चक्षुदर्शन कहा जाता है, यह बतलाने के लिए उपर्युक्त बाह्यार्थ विषयता की प्ररूपणा की गई है।</span><br>ध.७/२,१,५६/१०१/४ <span class="PrakritText">कधमंतरंगाए चक्खिंदियविसयपडिबद्धाए सत्तीए चक्खिंदियस्स पउत्ती। ण अंतरंगे बहिरंगत्थोवयारेण बालजणबोहणट्ठं चक्खूणं च दिस्सदि तं चक्खूदंसणमिदि परूवणादो। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> <strong>२</strong>–उस चक्षु इन्द्रिय से प्रतिबद्ध अन्तरंग शक्ति में चक्षु इन्द्रिय की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, यथार्थ में तो चक्षु इन्द्रिय की अन्तरंग में ही प्रवृत्ति होती है, किन्तु बालकजनों के ज्ञान कराने के लिए अन्तरंग में बाह्यर्थ के उपचार से ‘चक्षुओं को जो दिखता है, वही चक्षुदर्शन है, ऐसा प्ररूपण किया गया है। </span>क.पा.१/१-२०/३५५/३५७/३ <span class="PrakritText">इदि बज्झत्थणिद्देसादो ण दंसणमंतरगत्थविसयमिदि णासंकणिज्जं, विसयणिद्देसदुवारेण विसयिणिद्देसादो अण्णेण पयारेण अंतरंगविसयणिरूवणाणुववत्तीदो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न ३</strong>–इसमें (पूर्वोक्त अवधिदर्शन की व्याख्या में) दर्शन का विषय बाह्य पदार्थ बतलाया है, अत: दर्शन अन्तरंग पदार्थ को विषय करता है, यह कहना ठीक नहीं है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि गाथा में विषय के निर्देश द्वारा विषयी का निर्देश किया गया है। क्योंकि अन्तरंग विषय का निरूपण अन्य प्रकार से किया नहीं जा सकता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="5.5" id="5.5">चक्षुदर्शन सिद्धि</strong> </span><br>ध.१/१,१,१३१/३७९/१ <span class="SanskritText">अथ स्याद्विषयविषयिसंपातसमनन्तरमाद्यग्रहणं अवग्रह:। न तेन बाह्यार्थगतविधिसामान्यं परिच्छिद्यते तस्यावस्तुन: कर्मत्वाभावात् ।...तस्माद्विधिनिषेधात्मकबाह्यार्थग्रहणमवग्रह:। न स दर्शनं सामान्यग्रहणस्य दर्शनव्यपदेशात् । ततो न चक्षुदर्शनमिति। अत्र प्रतिविधीयते, नैते दोषा: दर्शनमाढौकन्ते तस्यान्तरङ्गार्थविषयत्वात् ।...सामान्यविशेषात्मकस्यात्मन: सामान्यशब्दवाच्यत्वेनोपादानात् । तस्य कथं सामान्यतेति चेदुच्यते। चक्षुरिन्द्रियक्षयोपशमो हि नाम रूप एव नियमितस्ततो रूपविशिष्टस्यैवार्थग्रहणस्योपलम्भात् । तत्रापि रूपसामान्य एव नियमितस्ततो नीलादिष्वेकरूपेणैव विशिष्टवस्त्वनुपलम्भात् । तस्माच्चक्षुरिन्द्रियक्षयोपशमो रूपविशिष्टार्थं प्रति समान: आत्मव्यतिरिक्तक्षयोपशमाभावादात्मापि तद्द्वारेण समान:। तस्य भाव: सामान्यं तद्दर्शनस्य विषय इति स्थितम् ।<br> | ||
अथ स्याच्चक्षुषा यत्प्रकाशते तद्दर्शनम् । न चात्मा चक्षुषा प्रकाशते तथानुपलम्भात् । प्रकाशते च रूपसामान्यविशेषविशिष्टार्थ:। न स दर्शनमर्थस्योपयोगरूपत्वविरोधात् । न तस्योपयोगोऽपि दर्शनं तस्य ज्ञानरूपत्वात् । ततो न चक्षुर्दर्शनमिति, न चक्षुर्दर्शनावरणीयस्य कर्मणोऽस्तित्वान्यथानुपपत्तेराधार्याभावे आधारकस्याप्यभावात् । तस्माच्चक्षुर्दर्शनमन्तरङ्गविषयमित्यङ्गीकर्तव्यम् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न १</strong>–विषय और विषयी के योग्य सम्बन्ध के अनन्तर प्रथम ग्रहण को जो अवग्रह कहा है। सो उस अवग्रह के द्वारा बाह्य अर्थ में रहने वाले विधिसामान्य का ज्ञान तो हो नहीं सकता है, क्योंकि, बाह्य अर्थ में रहने वाला विधि सामान्य अवस्तु है। इसलिए वह कर्म अर्थात् ज्ञान का विषय नहीं हो सकता है। इसलिए विधिनिषेधात्मक बाह्यपदार्थ को अवग्रह मानना चाहिए। परन्तु वह अवग्रह दर्शनरूप तो हो नहीं सकता, क्योंकि जो सामान्य को ग्रहण करता है उसे दर्शन कहा है ( देखें - [[ दर्शन#1.3.2 | दर्शन / १ / ३ / २ ]]) अत: चक्षुदर्शन नहीं बनता है ? <strong>उत्तर</strong>–ऊपर दिये गये ये सब दोष (चक्षु) दर्शन को नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि वह अन्तरंग पदार्थ को विषय करता है। और अन्तरंग पदार्थ भी सामान्य विशेषात्मक होता है। ...( देखें - [[ दर्शन#2.4 | दर्शन / २ / ४ ]])। और वह उस सामान्यविशेषात्मक आत्मा का ही ‘सामान्य’ शब्द के वाच्यरूप में ग्रहण किया है। <strong>प्रश्न २</strong>–उस (आत्मा) को सामान्यपना कैसे है ? <strong>उत्तर</strong>–चक्षुइन्द्रियावरण का क्षयोपशम रूप में ही नियमित है। इसलिए उससे रूपविशिष्ट ही पदार्थ का ग्रहण पाया जाता है। | अथ स्याच्चक्षुषा यत्प्रकाशते तद्दर्शनम् । न चात्मा चक्षुषा प्रकाशते तथानुपलम्भात् । प्रकाशते च रूपसामान्यविशेषविशिष्टार्थ:। न स दर्शनमर्थस्योपयोगरूपत्वविरोधात् । न तस्योपयोगोऽपि दर्शनं तस्य ज्ञानरूपत्वात् । ततो न चक्षुर्दर्शनमिति, न चक्षुर्दर्शनावरणीयस्य कर्मणोऽस्तित्वान्यथानुपपत्तेराधार्याभावे आधारकस्याप्यभावात् । तस्माच्चक्षुर्दर्शनमन्तरङ्गविषयमित्यङ्गीकर्तव्यम् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न १</strong>–विषय और विषयी के योग्य सम्बन्ध के अनन्तर प्रथम ग्रहण को जो अवग्रह कहा है। सो उस अवग्रह के द्वारा बाह्य अर्थ में रहने वाले विधिसामान्य का ज्ञान तो हो नहीं सकता है, क्योंकि, बाह्य अर्थ में रहने वाला विधि सामान्य अवस्तु है। इसलिए वह कर्म अर्थात् ज्ञान का विषय नहीं हो सकता है। इसलिए विधिनिषेधात्मक बाह्यपदार्थ को अवग्रह मानना चाहिए। परन्तु वह अवग्रह दर्शनरूप तो हो नहीं सकता, क्योंकि जो सामान्य को ग्रहण करता है उसे दर्शन कहा है ( देखें - [[ दर्शन#1.3.2 | दर्शन / १ / ३ / २ ]]) अत: चक्षुदर्शन नहीं बनता है ? <strong>उत्तर</strong>–ऊपर दिये गये ये सब दोष (चक्षु) दर्शन को नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि वह अन्तरंग पदार्थ को विषय करता है। और अन्तरंग पदार्थ भी सामान्य विशेषात्मक होता है। ...( देखें - [[ दर्शन#2.4 | दर्शन / २ / ४ ]])। और वह उस सामान्यविशेषात्मक आत्मा का ही ‘सामान्य’ शब्द के वाच्यरूप में ग्रहण किया है। <strong>प्रश्न २</strong>–उस (आत्मा) को सामान्यपना कैसे है ? <strong>उत्तर</strong>–चक्षुइन्द्रियावरण का क्षयोपशम रूप में ही नियमित है। इसलिए उससे रूपविशिष्ट ही पदार्थ का ग्रहण पाया जाता है। वहाँ पर भी चक्षुदर्शन में रूपसामान्य ही नियमित है, इसलिए उससे नीलादिक में किसी एक रूप के द्वारा ही विशिष्ट वस्तु की उपलब्धि नहीं होती है। अत: चक्षुइन्द्रियावरण का क्षयोपशम रूपविशिष्ट अर्थ के प्रति समान हैं। आत्मा को छोड़कर क्षयोपशम पाया नहीं जाता है, इसलिए आत्मा भी क्षयोपशम की अपेक्षा समान है। उस समान के भाव को सामान्य कहते हैं। वह दर्शन का विषय है। <strong>प्रश्न ३</strong>–चक्षु इन्द्रिय से जो प्रकाशित होता है उसे दर्शन कहते हैं। परन्तु आत्मा तो चक्षु इन्द्रिय से प्रकाशित होता नहीं है, क्योंकि, चक्षु इन्द्रिय से आत्मा की उपलब्धि होती हुई नहीं देखी जाती है। ४. चक्षु इन्द्रिय से रूप सामान्य और रूपविशेष से युक्त पदार्थ प्रकाशित होता है। परन्तु पदार्थ तो उपयोगरूप हो नहीं सकता, क्योंकि, पदार्थ को उपयोगरूप मानने में विरोध आता है। ५. पदार्थ का उपयोग भी दर्शन नहीं हो सकता है, क्योंकि उपयोग ज्ञानरूप पड़ता है। इसलिए चक्षुदर्शन का अस्तित्व नहीं बनता है। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यदि चक्षुदर्शन नहीं हो तो चक्षुदर्शनावरण कर्म नहीं बन सकता है, क्योंकि, आधार्य के अभाव में आधारक का भी अभाव हो जाता है। इसलिए अन्तरंग पदार्थ को विषय करने वाला चक्षुदर्शन है, यह बात स्वीकार कर लेना चाहिए। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6"> दृष्ट की स्मृति का नाम अचक्षुदर्शन नहीं है</strong></span><br>ध.१/१,१,१३३/३८३/८ <span class="SanskritText">दृष्टान्तस्मरणमचक्षुर्दर्शनमिति केचिदाचक्षते तन्न घटते एकेन्द्रियेषु चक्षुरभावतोऽचक्षुदर्शनस्याभावासंजननात् । दृष्टशब्दउपलंभवाचक इति चेन्न उपलब्धार्थविषयस्मृतेर्दर्शनत्वेङ्गीक्रियमाणे मनसो निर्विषयतापत्ते:। तत: स्वरूपसंवेदनं दर्शनमित्यङ्गीकर्तव्यम् ।</span>=<span class="HindiText">दृष्टान्त अर्थात् देखे हुए पदार्थ का स्मरण करना अचक्षुदर्शन है, इस प्रकार कितने ही पुरुष कहते हैं, परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि, ऐसा मानने पर एकेन्द्रियजीवों में चक्षुइन्द्रिय का अभाव होने से (पदार्थ को पहिले देखना ही असम्भव होने के कारण) उनके अचक्षुदर्शन के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। <strong>प्रश्न</strong>–दृष्टान्त में ‘दृष्ट‘ शब्द उपलम्भवाचक ग्रहण करना चाहिए? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, उपलब्ध पदार्थ को विषय करने वाली स्मृति को दर्शन स्वीकार कर लेने पर मन को विषय रहितपने की आपत्ति आ जाती है। इसलिए स्वरूपसंवेदन (अचक्षु) दर्शन है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए। </span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.6" id="5.6"> दृष्ट की स्मृति का नाम अचक्षुदर्शन नहीं है</strong></span><br>ध.१/१,१,१३३/३८३/८ <span class="SanskritText">दृष्टान्तस्मरणमचक्षुर्दर्शनमिति केचिदाचक्षते तन्न घटते एकेन्द्रियेषु चक्षुरभावतोऽचक्षुदर्शनस्याभावासंजननात् । दृष्टशब्दउपलंभवाचक इति चेन्न उपलब्धार्थविषयस्मृतेर्दर्शनत्वेङ्गीक्रियमाणे मनसो निर्विषयतापत्ते:। तत: स्वरूपसंवेदनं दर्शनमित्यङ्गीकर्तव्यम् ।</span>=<span class="HindiText">दृष्टान्त अर्थात् देखे हुए पदार्थ का स्मरण करना अचक्षुदर्शन है, इस प्रकार कितने ही पुरुष कहते हैं, परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि, ऐसा मानने पर एकेन्द्रियजीवों में चक्षुइन्द्रिय का अभाव होने से (पदार्थ को पहिले देखना ही असम्भव होने के कारण) उनके अचक्षुदर्शन के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। <strong>प्रश्न</strong>–दृष्टान्त में ‘दृष्ट‘ शब्द उपलम्भवाचक ग्रहण करना चाहिए? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, उपलब्ध पदार्थ को विषय करने वाली स्मृति को दर्शन स्वीकार कर लेने पर मन को विषय रहितपने की आपत्ति आ जाती है। इसलिए स्वरूपसंवेदन (अचक्षु) दर्शन है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.7" id="5.7"> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.7" id="5.7"> पाँच दर्शनों के लिए एक अचक्षुदर्शन नाम क्यों</strong> </span><br>ध.१५/१०/२ <span class="PrakritText">पंचण्णं दंसणाणमचक्खुदंसणमिदि एगणिद्देसो किमट्ठं कदो। तेसिं पच्चासत्ती अत्थि त्ति जाणावणट्ठं कदो। कधं तेसिं पच्चासत्ती। विसईदो पुथभूदस्स अक्कमेण सग-परपच्चक्खस्स चक्खुदंसणविसयस्सेव तेसिं विसयस्स परेसिं जाणावणोवायाभावं पडिसमाणत्तादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–(चक्षु इन्द्रिय से अतिरिक्त चार इन्द्रिय व मन विषयक) पाँच दर्शनों के लिए अचक्षुदर्शन ऐसा एक निर्देश किस लिए किया। (अर्थात् चक्षुदर्शनवत् इनका भी रसना दर्शन आदि रूप से पृथक्-पृथक् व्यपदेश क्यों न किया)? <strong>उत्तर–</strong>उनकी परस्पर में प्रत्यासत्ति है, इस बात के जतलाने के लिए वैसा निर्देश किया गया है। <strong>प्रश्न</strong>–उनकी परस्पर में प्रत्यासत्ति कैसे है ? <strong>उत्तर</strong>–विषयी से पृथग्भूत अतएव युगपत् स्व और पर को प्रत्यक्ष होने वाले ऐसे चक्षुदर्शन के विषय के समान उन पाँचों दर्शनों के विषय का दूसरों के लिए ज्ञान कराने का कोई उपाय नहीं हे। इसकी समानता पाँचों की दर्शनों में है। यही उनमें प्रत्यासत्ति है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="5.8" id="5.8">केवल ज्ञान व दर्शन दोनों कथंचित् एक हैं</strong> </span><br>क.पा.१/१-२०/गा.१४३/३५७ <span class="PrakritGatha">मणपज्जवणाणंतो णाणस्स य दंसणस्स य विसेसो। केवलियं णाणं पुण णाणं त्ति य दंसणं त्ति य समाणं।१४३।</span> =<span class="HindiText">मन:पर्यय ज्ञानपर्यन्त ज्ञान और दर्शन इन दोनों में विशेष अर्थात् भेद है, परन्तु केवलज्ञान की अपेक्षा से तो ज्ञान और दर्शन दोनों समान हैं। नोट–यद्यपि अगले शीर्षक नं०९ के अनुसार इनकी एकता को स्वीकार नहीं किया जाता है और उपरोक्त गाथा का भी खण्डन किया गया है, परन्तु ध./१ में इसी बात की पुष्टि की है। यथा–)।</span> (ध.६/३४/२)। ध.१/१,१,१३५/३८५/६ <span class="SanskritText">अनन्तत्रिकालगोचरबाह्येऽर्थें प्रवृत्तं केवलज्ञानं (स्वतोऽभिन्नवस्तुपरिच्छेदकं च दर्शनमिति) कथमनयो: समानतेति चेत्कथ्यते। ज्ञानप्रमाणमात्मा ज्ञानं च त्रिकालगोचरानन्तद्रव्यपर्यायपरिमाणं ततो ज्ञानदर्शनयो: समानत्वमिति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–त्रिकालगोचर अनन्त बाह्यपदार्थों में प्रवृत्ति करने वाला ज्ञान है और स्वरूप मात्र में प्रवृत्ति करने वाला दर्शन है, इसलिए इन दोनों में समानता कैसे हो सकती है? <strong>उत्तर</strong>–आत्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान त्रिकाल के विषयभूत द्रव्यों की अनन्त पर्यायों को जानने वाला होने से तत्परिमाण है, इसलिए ज्ञान और दर्शन में समानता है। (ध.७/२,१,५६/१०२/६) (ध.६/१,९-१,१७/३४/६) (और भी देखें - [[ दर्शन#2.7 | दर्शन / २ / ७ ]])।<br> | ||
देखें - [[ दर्शन#2.8 | दर्शन / २ / ८ ]](यद्यपि स्वकीय पर्यायों की अपेक्षा दर्शन का विषय ज्ञान से अधिक है, फिर भी एक दूसरे की अपेक्षा करने के कारण उनमें समानता बन जाती है)। </span></li> | देखें - [[ दर्शन#2.8 | दर्शन / २ / ८ ]](यद्यपि स्वकीय पर्यायों की अपेक्षा दर्शन का विषय ज्ञान से अधिक है, फिर भी एक दूसरे की अपेक्षा करने के कारण उनमें समानता बन जाती है)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.9" id="5.9"> केवलज्ञान से भिन्न केवल दर्शन की सिद्धि</strong> </span><br>क.पा.१/१-२०/प्रकरण/पृष्ठ/पंक्ति <span class="PrakritText">जेण केवलणाणं सपरपयासयं, तेण केवलदंसणं णत्थि त्ति के वि भणंति। एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ–‘‘मणपज्जवणाणंतो–’’ (३२५/३५७/४)। एदं पि ण घडदे; केवलणाणस्स पज्जायस्स पज्जायाभावादो। ण पज्जायस्स पज्जाया अत्थि अणवत्थाभावप्पसंगादो। ण केवलणाणं जाणइ पस्सइ वा; तस्स कत्तारत्ताभावादो। तम्हा सपरप्पयासओ जीवो त्ति इच्छियव्वं। ण च दोण्हं पयासाणमेयत्तं; बज्झं तरंगत्थविसयाणं सायार-अणायारणमे-यत्तविरोहादो। (३२६/३५७/८)। केवलणाणादो केवलदंसणमभिण्णमिदि केवलदंसणस्स केवलणाणत्तं किण्ण होज्ज। ण एवं संते विसेसाभावेण णाणस्स वि दंसणप्पसंगादो (३२७/३५८/४)।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.9" id="5.9"> केवलज्ञान से भिन्न केवल दर्शन की सिद्धि</strong> </span><br>क.पा.१/१-२०/प्रकरण/पृष्ठ/पंक्ति <span class="PrakritText">जेण केवलणाणं सपरपयासयं, तेण केवलदंसणं णत्थि त्ति के वि भणंति। एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ–‘‘मणपज्जवणाणंतो–’’ (३२५/३५७/४)। एदं पि ण घडदे; केवलणाणस्स पज्जायस्स पज्जायाभावादो। ण पज्जायस्स पज्जाया अत्थि अणवत्थाभावप्पसंगादो। ण केवलणाणं जाणइ पस्सइ वा; तस्स कत्तारत्ताभावादो। तम्हा सपरप्पयासओ जीवो त्ति इच्छियव्वं। ण च दोण्हं पयासाणमेयत्तं; बज्झं तरंगत्थविसयाणं सायार-अणायारणमे-यत्तविरोहादो। (३२६/३५७/८)। केवलणाणादो केवलदंसणमभिण्णमिदि केवलदंसणस्स केवलणाणत्तं किण्ण होज्ज। ण एवं संते विसेसाभावेण णाणस्स वि दंसणप्पसंगादो (३२७/३५८/४)।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–चूँकि केवलज्ञान स्व और पर दोनों का प्रकाशक है, इसलिए केवलदर्शन नहीं है, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। और इस विषय की उपयुक्त गाथा देते हैं–मन:पर्ययज्ञानपर्यन्त ...( देखें - [[ दर्शन#5.8 | दर्शन / ५ / ८ ]]) <strong>उत्तर</strong>–परन्तु उनका ऐसा कहना भी नहीं बनता है। १. क्योंकि केवलज्ञान स्वयं पर्याय है, इसलिए उसकी दूसरी पर्याय नहीं हो सकती है। पर्याय की पर्याय नहीं होती, क्योंकि, ऐसा मानने पर अनवस्था दोष आता है। (ध.६/१,९-१,१७/३४/२)। (ध.७/२,१,५६/९९/८)। २. केवलज्ञान स्वयं तो न जानता ही है और न देखता ही है, क्योंकि वह स्वयं जानने व देखने का कर्ता नहीं है (आत्मा ही उसके द्वारा जानता है।) इसलिए ज्ञान को अन्तरंग व बहिरंग दोनों का प्रकाशक न मानकर जीव स्व व पर का प्रकाशक है, ऐसा मानना चाहिए। (विशेष देखें - [[ दर्शन#2.6 | दर्शन / २ / ६ ]])। ३–केवलदर्शन व केवलज्ञान ये दोनों प्रकाश एक हैं, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाह्य पदार्थों को विषय करने वाले साकार उपयोग और अन्तरंग पदार्थ को विषय करने वाले अनाकार उपयोग को एक मानने में विरोध आता है। (ध.१/१,१,१३३/३८३/११); (ध.७/२,१,५६/९९/९)। <strong>४.</strong> <strong>प्रश्न</strong>–केवलज्ञान से केवलदर्शन अभिन्न है, इसलिए केवलदर्शन केवलज्ञान क्यों नहीं हो जाता ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, ऐसा होने पर ज्ञान और दर्शन इन दोनों में कोई विशेषता नहीं रहती है, इसलिए ज्ञान को भी दर्शनपने का प्रसंग प्राप्त होता है। (विशेष देखें - [[ दर्शन#2 | दर्शन / २ ]])। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5.10" id="5.10"> आवरण कर्म के अभाव से केवलदर्शन का अभाव नहीं होता</strong> </span><br>क.पा.१/१-२०/३२८-३२९/३५९/२<span class="PrakritText"> मइणाणं व जेण दंसणमावरणणिबंधणं तेण खीणावरणिज्जे ण दंसणमिदि के वि भणंति। एत्थुवउज्जंती गाहा–‘भण्णइ खीणावरणे...’ (३२८)। एदं पि ण घडदे; आवरणकयस्स मइणाणस्सेव होउ णाम आवरणकयचक्खुअचक्खुओहिदंसणाणमावरणाभावेण अभावो ण केवलदंसणस्स तस्स कम्मेण अजणिदत्तादो। ण कम्मजणिदं केवलदंसणं, सगसरूवपयासेण विणा णिच्चेयणस्स जीवस्स णाणस्स वि अभावप्पसंगादो। </span>=<span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"><strong name="5.10" id="5.10"> आवरण कर्म के अभाव से केवलदर्शन का अभाव नहीं होता</strong> </span><br>क.पा.१/१-२०/३२८-३२९/३५९/२<span class="PrakritText"> मइणाणं व जेण दंसणमावरणणिबंधणं तेण खीणावरणिज्जे ण दंसणमिदि के वि भणंति। एत्थुवउज्जंती गाहा–‘भण्णइ खीणावरणे...’ (३२८)। एदं पि ण घडदे; आवरणकयस्स मइणाणस्सेव होउ णाम आवरणकयचक्खुअचक्खुओहिदंसणाणमावरणाभावेण अभावो ण केवलदंसणस्स तस्स कम्मेण अजणिदत्तादो। ण कम्मजणिदं केवलदंसणं, सगसरूवपयासेण विणा णिच्चेयणस्स जीवस्स णाणस्स वि अभावप्पसंगादो। </span>=<span class="HindiText">चूँकि दर्शन मतिज्ञान के समान आवरण के निमित्त से होता है, इसलिए आवरण के नष्ट हो जाने पर दर्शन नहीं रहता है, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। इस विषय से उपयुक्त गाथा इस प्रकार है–‘जिस प्रकार ज्ञानावरण से रहित जिनभगवान् में ...इत्यादि’...पर उनका ऐसा कहना भी नहीं बनता है, क्योंकि जिस प्रकार मतिज्ञान आवरण का कार्य है, इसलिए अवरण के नष्ट हो जाने पर मतिज्ञान का अभाव हो जाता है। उसी प्रकार आवरण का अभाव होने से आवरण के कार्य चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन का भी अभाव होता है तो होओ पर इससे केवल दर्शन का अभाव नहीं हो सकता है, क्योंकि केवलदर्शन कर्मजनित नहीं है। उसे कर्मजनित मानना भी ठीक नहीं है, ऐसा मानने से, दर्शनावरण का अभाव हो जाने से भगवान् को केवलदर्शन की उत्पत्ति नहीं होगी, और उसकी उत्पत्ति न होने से वे अपने स्वरूप को न जान सकेंगे, जिससे वे अचेतन हो जायेंगे और ऐसी अवस्था में उसके ज्ञान का भी अभाव प्राप्त होगा।</span></li> | ||
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Revision as of 21:20, 28 February 2015
- दर्शनोपयोग के भेदों का निर्देश
- दर्शन के भेदों के नाम निर्देश
ष.खं./१/१,१/सूत्र १३१/३७८ दंसणाणुवादेण अत्थि चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी ओधिदंसणी केवलदंसणी चेदि। =दर्शनमार्गणा के अनुवाद से चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन धारण करने वाले जीव हेते हैं। (पं.का./मू./४२), (नि.सा./मू.१३/१४) (स.सि./२/९/१६३/९), (रा.वा./२/९/३/१२४/९), (द्र.सं./टी./१३/३८/४), (प.प्र./२/३४/१५५/२) - चक्षु आदि दर्शनों के लक्षण
पं.सं./१/१३९-१४१ चक्खूणाजं पयासइ दीसइ तं चक्खुदंसणं विंति। सेसिंदियप्पयासो णायव्वो सो अचक्खु त्ति।१३९। परमाणुआदियाइं अंतिमरखंध त्ति मुत्तदव्वाइं। तं ओहिदंसणं पुण जं पस्सइ ताइं पच्चक्खं।१४०। बहुविह बहुप्पयारा उज्जोवा परिवियम्हि खेतम्हि। लोयालोयवितिमिरो सो केवलदंसणुज्जोवो।१४१। =चक्षु इन्द्रिय के द्वारा जो पदार्थ का सामान्य अंश प्रकाशित होता है, अथवा दिखाई देता है, उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। शेष चार इन्द्रियों से और मन से जो सामान्य प्रतिभास होता है उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिए।१३९। सब लघु परमाणु से आदि लेकर सर्वमहान् अन्तिम स्कन्ध तक जितने मूर्तद्रव्य हैं, उन्हें जो प्रत्यक्ष देखता है, उसे अवधिदर्शन कहते हैं।१४०। बहुत जाति के और बहुत प्रकार के चन्द्र सूर्य आदि के उद्योत तो परिमित क्षेत्र में ही पाये जाते हैं। अर्थात् वे थोड़े से ही पदार्थों को अल्प परिमाण प्रकाशित करते हैं। किन्तु जो केवल दर्शन उद्योत है, वह लोक को और अलोक को भी प्रकाशित करता है, अर्थात् सर्व चराचर जगत् को स्पष्ट देखता है।१४१। (ध.१/१,१,१३१/गा.१९५-१९७/३८२), (ध.७/५,५,५६/गा.२०-२१/१००), (गो.जी./मू./४८४-४८६/८८९)। पं.का./त.प्र./४२ तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुरिन्द्रियवलम्बाच्चमूर्त्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तच्चक्षुर्दर्शनम् । यत्तदावरणक्षयोपशमाच्चक्षुवर्जितेतरचतुरिन्द्रियानिन्द्रियावलम्बाच्च मूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदचक्षुर्दर्शनम् । यत्तदावरणक्षयोपशमादेव मूर्तद्रव्यं विकलं सामान्येनावबुध्यते तदवधिदर्शनम् । यत्सकलावरणात्यन्तक्षये केवल एव मूर्त्तामूर्त्तद्रव्यं सकलं सामान्येनावबुध्यते तत्स्वाभाविकं केवलदर्शनमिति स्वरूपाभिधानम् । =अपने आवरण के क्षयोपशम से और चक्षुइन्द्रिय के आलम्बन से मूर्त द्रव्य को विकलरूप से (एकदेश) जो सामान्यत: अवबोध करता है वह चक्षुदर्शन है। उस प्रकार के आवरण के क्षयोपशम से तथा चक्षु से अतिरिक्त शेष चार इन्द्रियों और मन के अवलम्बन से मूर्त अमूर्त द्रव्यों को विकलरूप से (एकदेश) जो सामान्यत: अवबोध करता है, वह अचक्षुदर्शन है। उस प्रकार के आवरण के क्षयोपशम से ही (बिना किसी इन्द्रिय के अवलम्बन के) मूर्त द्रव्य को विकलरूप से (एकदेश) जो सामान्यत: अवबोधन करता है, वह अवधिदर्शन है। समस्त आवरण के अत्यंत क्षय से केवल (आत्मा) ही मूर्त अमूर्त द्रव्य को सकलरूप से जो सामान्यत: अवबोध करता है वह स्वाभाविक केवलदर्शन है। इस प्रकार (दर्शनोपयोगों के भेदों का) स्वरूपकथन है। (नि.सा./ता.वृ./१३,१४); (द्र.सं./टी./४/१३/६)। - बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा परमार्थ से अन्तरंग विषय को ही बताती है
ध.७/२,१,५६/१००/१२ इदि बज्झत्थविसयदंसणपरूवणादो। ण एदाणं गाहाणं परमत्थात्थाणुवगमादो। को सो परमत्थत्थो। वुच्चदे–यत् चक्षुषां प्रकाशते चक्षुषा दृश्यते वा तत् चक्षुर्दर्शनमिति ब्रुवते। चक्खिंदियणाणादो जो पुव्वमेव सुवसत्तीए सामण्णए अणुहओ चक्खुणाणुप्पत्तिणिमित्तो तं चक्खुदंसणमिदि उत्तं होदि। गाहाए जलभंजणमकाऊण उज्जुवत्थो घेप्पदि। ण, तत्थ पुव्वुत्तासेसदोसप्पसंगादो।
शेषेन्द्रियै: प्रतिपन्नस्यार्थस्य यस्मात् अवगमनं ज्ञातव्यं तत् अचक्षुर्दर्शनमिति। सेसिंदियणाणुप्पत्तीदो जो पुव्वमेव सुवसत्तीए अप्पणो विसयम्मि पडिबद्धाए सामण्णेण संवेदो अचक्खुणाणुप्पत्तिणिमित्तो तमचक्खुदंसणमिदि उत्तं होदि। परमाण्वादिकानि आ पश्चिमस्कन्धादिति मूर्तिद्रव्याणि यस्मात् पश्यति जानीते तानि साक्षात् तत् अवधिदर्शनमिति द्रष्टव्यम् । परमाणुमादिं कादूण जाव पच्छिमखंधो त्ति टि्ठपोग्गलदव्वाणमवगमादो पचक्खादो जो पुव्वमेव सुवसत्तीविसयउवजोगो ओहिणाणुप्पत्तिणिमित्तो तं ओहिदंसणमिदि घेतव्वं। अण्णहा णाणदंसणाणं भेदाभावादो। =प्रश्न–इन सूत्रवचनों में (देखें - पहिलेवाला शीर्षक नं / ०२) दर्शन की प्ररूपणा बाह्यार्थविषयक रूप से की गयी है ? उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि, तुमने इन गाथाओं का परमार्थ नहीं समझा। प्रश्न–वह परमार्थ कौन-सा है ? उत्तर–कहते हैं–१. (गाथा के पूर्वार्ध का इस प्रकार है) ‘जो चक्षुओं को प्रकाशित होता अर्थात् दिखता है, अथवा आँख द्वारा देखा जाता है, वह चक्षुदर्शन है’–इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि चक्षु इन्द्रियज्ञान से जो पूर्व ही सामान्य स्वशक्ति का अनुभव होता है, जो कि चक्षु ज्ञान की उत्पत्ति में निमित्तरूप है, वह चक्षुदर्शन है। प्रश्न–गाथा का गला न घोंटकर सीधा अर्थ क्यों नहीं करते ? उत्तर–नहीं करते, क्योंकि वैसा करने से पूर्वोक्त समस्त दोषों का प्रसंग आता है। २–गाथा के उत्तरार्ध का अर्थ इस प्रकार है–‘जो देखा गया है, अर्थात् जो पदार्थ शेष इन्द्रियों के द्वारा जाना गया है’ उससे जो ज्ञान होता है, उसे अचक्षुदर्शन जानना चाहिए। (इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि–) चक्षु इन्द्रियों को छोड़कर शेष इन्द्रियज्ञानों की उत्पत्ति से पूर्व ही अपने विषय में प्रतिबद्ध स्वशक्ति का, अचक्षुज्ञान की उत्पत्ति में निमित्तभूत जो सामान्य से संवेदन या अनुभव होता है, वह अचक्षुदर्शन है। ३–द्वितीय गाथा को अर्थ इस प्रकार है–‘परमाणु से लगाकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त जितने मूर्त द्रव्य हैं, उन्हें जिसके द्वारा साक्षात् देखता है या जानता है, वह अवधिदर्शन है।’ इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए, कि–परमाणु से लेकर अन्तिम स्कन्ध पर्यन्त जो पुद्गलद्रव्य स्थित हैं, उनके प्रत्यक्ष ज्ञान से पूर्व ही जो अवधिज्ञान की उत्पत्ति का निमित्तभूत स्वशक्ति विषयक उपयोग होता है, वही अवधिदर्शन है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा ज्ञान और दर्शन में कोई भेद नहीं रहता। (ध.६/१,९-१,१६/३३/२); (ध.१३/५,५,८५/३५५/७)। - बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा का कारण
ध.१५/९/११ पुव्वं सव्वं पि दंसणमज्झत्थविसयमिदि परूविदं, संपहिं चक्खुदंसणस्स बज्झत्थविसत्तं परूविदं ति णेदं घडदे, पुब्वावरविरोहादो। ण एस दोसो, एवंविहेसु बज्झत्थेसु पडिबद्धसगसत्तिसंवेयणं चक्खुदंसणं ति जाणावणट्ठं बज्झत्थविसयपरूवणाकरणादो। =प्रश्न १–सभी दर्शन अध्यात्म अर्थ को विषय करने वाले हैं, ऐसी प्ररूपणा पहिले की जा चुकी है। किन्तु इस समय बाह्यार्थ को चक्षुदर्शन का विषय कहा है, इस प्रकार यह कथन संगत नहीं है, क्योंकि इससे पूर्वापर विरोध होता है ? उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि इस प्रकार के बाह्यार्थ में प्रतिबद्ध आत्म शक्ति का संवेदन करने को चक्षुदर्शन कहा जाता है, यह बतलाने के लिए उपर्युक्त बाह्यार्थ विषयता की प्ररूपणा की गई है।
ध.७/२,१,५६/१०१/४ कधमंतरंगाए चक्खिंदियविसयपडिबद्धाए सत्तीए चक्खिंदियस्स पउत्ती। ण अंतरंगे बहिरंगत्थोवयारेण बालजणबोहणट्ठं चक्खूणं च दिस्सदि तं चक्खूदंसणमिदि परूवणादो। =प्रश्न २–उस चक्षु इन्द्रिय से प्रतिबद्ध अन्तरंग शक्ति में चक्षु इन्द्रिय की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? उत्तर–नहीं, यथार्थ में तो चक्षु इन्द्रिय की अन्तरंग में ही प्रवृत्ति होती है, किन्तु बालकजनों के ज्ञान कराने के लिए अन्तरंग में बाह्यर्थ के उपचार से ‘चक्षुओं को जो दिखता है, वही चक्षुदर्शन है, ऐसा प्ररूपण किया गया है। क.पा.१/१-२०/३५५/३५७/३ इदि बज्झत्थणिद्देसादो ण दंसणमंतरगत्थविसयमिदि णासंकणिज्जं, विसयणिद्देसदुवारेण विसयिणिद्देसादो अण्णेण पयारेण अंतरंगविसयणिरूवणाणुववत्तीदो। =प्रश्न ३–इसमें (पूर्वोक्त अवधिदर्शन की व्याख्या में) दर्शन का विषय बाह्य पदार्थ बतलाया है, अत: दर्शन अन्तरंग पदार्थ को विषय करता है, यह कहना ठीक नहीं है ? उत्तर–ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि गाथा में विषय के निर्देश द्वारा विषयी का निर्देश किया गया है। क्योंकि अन्तरंग विषय का निरूपण अन्य प्रकार से किया नहीं जा सकता है। - चक्षुदर्शन सिद्धि
ध.१/१,१,१३१/३७९/१ अथ स्याद्विषयविषयिसंपातसमनन्तरमाद्यग्रहणं अवग्रह:। न तेन बाह्यार्थगतविधिसामान्यं परिच्छिद्यते तस्यावस्तुन: कर्मत्वाभावात् ।...तस्माद्विधिनिषेधात्मकबाह्यार्थग्रहणमवग्रह:। न स दर्शनं सामान्यग्रहणस्य दर्शनव्यपदेशात् । ततो न चक्षुदर्शनमिति। अत्र प्रतिविधीयते, नैते दोषा: दर्शनमाढौकन्ते तस्यान्तरङ्गार्थविषयत्वात् ।...सामान्यविशेषात्मकस्यात्मन: सामान्यशब्दवाच्यत्वेनोपादानात् । तस्य कथं सामान्यतेति चेदुच्यते। चक्षुरिन्द्रियक्षयोपशमो हि नाम रूप एव नियमितस्ततो रूपविशिष्टस्यैवार्थग्रहणस्योपलम्भात् । तत्रापि रूपसामान्य एव नियमितस्ततो नीलादिष्वेकरूपेणैव विशिष्टवस्त्वनुपलम्भात् । तस्माच्चक्षुरिन्द्रियक्षयोपशमो रूपविशिष्टार्थं प्रति समान: आत्मव्यतिरिक्तक्षयोपशमाभावादात्मापि तद्द्वारेण समान:। तस्य भाव: सामान्यं तद्दर्शनस्य विषय इति स्थितम् ।
अथ स्याच्चक्षुषा यत्प्रकाशते तद्दर्शनम् । न चात्मा चक्षुषा प्रकाशते तथानुपलम्भात् । प्रकाशते च रूपसामान्यविशेषविशिष्टार्थ:। न स दर्शनमर्थस्योपयोगरूपत्वविरोधात् । न तस्योपयोगोऽपि दर्शनं तस्य ज्ञानरूपत्वात् । ततो न चक्षुर्दर्शनमिति, न चक्षुर्दर्शनावरणीयस्य कर्मणोऽस्तित्वान्यथानुपपत्तेराधार्याभावे आधारकस्याप्यभावात् । तस्माच्चक्षुर्दर्शनमन्तरङ्गविषयमित्यङ्गीकर्तव्यम् ।=प्रश्न १–विषय और विषयी के योग्य सम्बन्ध के अनन्तर प्रथम ग्रहण को जो अवग्रह कहा है। सो उस अवग्रह के द्वारा बाह्य अर्थ में रहने वाले विधिसामान्य का ज्ञान तो हो नहीं सकता है, क्योंकि, बाह्य अर्थ में रहने वाला विधि सामान्य अवस्तु है। इसलिए वह कर्म अर्थात् ज्ञान का विषय नहीं हो सकता है। इसलिए विधिनिषेधात्मक बाह्यपदार्थ को अवग्रह मानना चाहिए। परन्तु वह अवग्रह दर्शनरूप तो हो नहीं सकता, क्योंकि जो सामान्य को ग्रहण करता है उसे दर्शन कहा है ( देखें - दर्शन / १ / ३ / २ ) अत: चक्षुदर्शन नहीं बनता है ? उत्तर–ऊपर दिये गये ये सब दोष (चक्षु) दर्शन को नहीं प्राप्त होते हैं, क्योंकि वह अन्तरंग पदार्थ को विषय करता है। और अन्तरंग पदार्थ भी सामान्य विशेषात्मक होता है। ...( देखें - दर्शन / २ / ४ )। और वह उस सामान्यविशेषात्मक आत्मा का ही ‘सामान्य’ शब्द के वाच्यरूप में ग्रहण किया है। प्रश्न २–उस (आत्मा) को सामान्यपना कैसे है ? उत्तर–चक्षुइन्द्रियावरण का क्षयोपशम रूप में ही नियमित है। इसलिए उससे रूपविशिष्ट ही पदार्थ का ग्रहण पाया जाता है। वहाँ पर भी चक्षुदर्शन में रूपसामान्य ही नियमित है, इसलिए उससे नीलादिक में किसी एक रूप के द्वारा ही विशिष्ट वस्तु की उपलब्धि नहीं होती है। अत: चक्षुइन्द्रियावरण का क्षयोपशम रूपविशिष्ट अर्थ के प्रति समान हैं। आत्मा को छोड़कर क्षयोपशम पाया नहीं जाता है, इसलिए आत्मा भी क्षयोपशम की अपेक्षा समान है। उस समान के भाव को सामान्य कहते हैं। वह दर्शन का विषय है। प्रश्न ३–चक्षु इन्द्रिय से जो प्रकाशित होता है उसे दर्शन कहते हैं। परन्तु आत्मा तो चक्षु इन्द्रिय से प्रकाशित होता नहीं है, क्योंकि, चक्षु इन्द्रिय से आत्मा की उपलब्धि होती हुई नहीं देखी जाती है। ४. चक्षु इन्द्रिय से रूप सामान्य और रूपविशेष से युक्त पदार्थ प्रकाशित होता है। परन्तु पदार्थ तो उपयोगरूप हो नहीं सकता, क्योंकि, पदार्थ को उपयोगरूप मानने में विरोध आता है। ५. पदार्थ का उपयोग भी दर्शन नहीं हो सकता है, क्योंकि उपयोग ज्ञानरूप पड़ता है। इसलिए चक्षुदर्शन का अस्तित्व नहीं बनता है। उत्तर–नहीं, क्योंकि, यदि चक्षुदर्शन नहीं हो तो चक्षुदर्शनावरण कर्म नहीं बन सकता है, क्योंकि, आधार्य के अभाव में आधारक का भी अभाव हो जाता है। इसलिए अन्तरंग पदार्थ को विषय करने वाला चक्षुदर्शन है, यह बात स्वीकार कर लेना चाहिए। - दृष्ट की स्मृति का नाम अचक्षुदर्शन नहीं है
ध.१/१,१,१३३/३८३/८ दृष्टान्तस्मरणमचक्षुर्दर्शनमिति केचिदाचक्षते तन्न घटते एकेन्द्रियेषु चक्षुरभावतोऽचक्षुदर्शनस्याभावासंजननात् । दृष्टशब्दउपलंभवाचक इति चेन्न उपलब्धार्थविषयस्मृतेर्दर्शनत्वेङ्गीक्रियमाणे मनसो निर्विषयतापत्ते:। तत: स्वरूपसंवेदनं दर्शनमित्यङ्गीकर्तव्यम् ।=दृष्टान्त अर्थात् देखे हुए पदार्थ का स्मरण करना अचक्षुदर्शन है, इस प्रकार कितने ही पुरुष कहते हैं, परन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि, ऐसा मानने पर एकेन्द्रियजीवों में चक्षुइन्द्रिय का अभाव होने से (पदार्थ को पहिले देखना ही असम्भव होने के कारण) उनके अचक्षुदर्शन के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। प्रश्न–दृष्टान्त में ‘दृष्ट‘ शब्द उपलम्भवाचक ग्रहण करना चाहिए? उत्तर–नहीं, क्योंकि, उपलब्ध पदार्थ को विषय करने वाली स्मृति को दर्शन स्वीकार कर लेने पर मन को विषय रहितपने की आपत्ति आ जाती है। इसलिए स्वरूपसंवेदन (अचक्षु) दर्शन है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए। - पाँच दर्शनों के लिए एक अचक्षुदर्शन नाम क्यों
ध.१५/१०/२ पंचण्णं दंसणाणमचक्खुदंसणमिदि एगणिद्देसो किमट्ठं कदो। तेसिं पच्चासत्ती अत्थि त्ति जाणावणट्ठं कदो। कधं तेसिं पच्चासत्ती। विसईदो पुथभूदस्स अक्कमेण सग-परपच्चक्खस्स चक्खुदंसणविसयस्सेव तेसिं विसयस्स परेसिं जाणावणोवायाभावं पडिसमाणत्तादो। =प्रश्न–(चक्षु इन्द्रिय से अतिरिक्त चार इन्द्रिय व मन विषयक) पाँच दर्शनों के लिए अचक्षुदर्शन ऐसा एक निर्देश किस लिए किया। (अर्थात् चक्षुदर्शनवत् इनका भी रसना दर्शन आदि रूप से पृथक्-पृथक् व्यपदेश क्यों न किया)? उत्तर–उनकी परस्पर में प्रत्यासत्ति है, इस बात के जतलाने के लिए वैसा निर्देश किया गया है। प्रश्न–उनकी परस्पर में प्रत्यासत्ति कैसे है ? उत्तर–विषयी से पृथग्भूत अतएव युगपत् स्व और पर को प्रत्यक्ष होने वाले ऐसे चक्षुदर्शन के विषय के समान उन पाँचों दर्शनों के विषय का दूसरों के लिए ज्ञान कराने का कोई उपाय नहीं हे। इसकी समानता पाँचों की दर्शनों में है। यही उनमें प्रत्यासत्ति है। - केवल ज्ञान व दर्शन दोनों कथंचित् एक हैं
क.पा.१/१-२०/गा.१४३/३५७ मणपज्जवणाणंतो णाणस्स य दंसणस्स य विसेसो। केवलियं णाणं पुण णाणं त्ति य दंसणं त्ति य समाणं।१४३। =मन:पर्यय ज्ञानपर्यन्त ज्ञान और दर्शन इन दोनों में विशेष अर्थात् भेद है, परन्तु केवलज्ञान की अपेक्षा से तो ज्ञान और दर्शन दोनों समान हैं। नोट–यद्यपि अगले शीर्षक नं०९ के अनुसार इनकी एकता को स्वीकार नहीं किया जाता है और उपरोक्त गाथा का भी खण्डन किया गया है, परन्तु ध./१ में इसी बात की पुष्टि की है। यथा–)। (ध.६/३४/२)। ध.१/१,१,१३५/३८५/६ अनन्तत्रिकालगोचरबाह्येऽर्थें प्रवृत्तं केवलज्ञानं (स्वतोऽभिन्नवस्तुपरिच्छेदकं च दर्शनमिति) कथमनयो: समानतेति चेत्कथ्यते। ज्ञानप्रमाणमात्मा ज्ञानं च त्रिकालगोचरानन्तद्रव्यपर्यायपरिमाणं ततो ज्ञानदर्शनयो: समानत्वमिति। =प्रश्न–त्रिकालगोचर अनन्त बाह्यपदार्थों में प्रवृत्ति करने वाला ज्ञान है और स्वरूप मात्र में प्रवृत्ति करने वाला दर्शन है, इसलिए इन दोनों में समानता कैसे हो सकती है? उत्तर–आत्मा ज्ञानप्रमाण है और ज्ञान त्रिकाल के विषयभूत द्रव्यों की अनन्त पर्यायों को जानने वाला होने से तत्परिमाण है, इसलिए ज्ञान और दर्शन में समानता है। (ध.७/२,१,५६/१०२/६) (ध.६/१,९-१,१७/३४/६) (और भी देखें - दर्शन / २ / ७ )।
देखें - दर्शन / २ / ८ (यद्यपि स्वकीय पर्यायों की अपेक्षा दर्शन का विषय ज्ञान से अधिक है, फिर भी एक दूसरे की अपेक्षा करने के कारण उनमें समानता बन जाती है)। - केवलज्ञान से भिन्न केवल दर्शन की सिद्धि
क.पा.१/१-२०/प्रकरण/पृष्ठ/पंक्ति जेण केवलणाणं सपरपयासयं, तेण केवलदंसणं णत्थि त्ति के वि भणंति। एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ–‘‘मणपज्जवणाणंतो–’’ (३२५/३५७/४)। एदं पि ण घडदे; केवलणाणस्स पज्जायस्स पज्जायाभावादो। ण पज्जायस्स पज्जाया अत्थि अणवत्थाभावप्पसंगादो। ण केवलणाणं जाणइ पस्सइ वा; तस्स कत्तारत्ताभावादो। तम्हा सपरप्पयासओ जीवो त्ति इच्छियव्वं। ण च दोण्हं पयासाणमेयत्तं; बज्झं तरंगत्थविसयाणं सायार-अणायारणमे-यत्तविरोहादो। (३२६/३५७/८)। केवलणाणादो केवलदंसणमभिण्णमिदि केवलदंसणस्स केवलणाणत्तं किण्ण होज्ज। ण एवं संते विसेसाभावेण णाणस्स वि दंसणप्पसंगादो (३२७/३५८/४)।=प्रश्न–चूँकि केवलज्ञान स्व और पर दोनों का प्रकाशक है, इसलिए केवलदर्शन नहीं है, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। और इस विषय की उपयुक्त गाथा देते हैं–मन:पर्ययज्ञानपर्यन्त ...( देखें - दर्शन / ५ / ८ ) उत्तर–परन्तु उनका ऐसा कहना भी नहीं बनता है। १. क्योंकि केवलज्ञान स्वयं पर्याय है, इसलिए उसकी दूसरी पर्याय नहीं हो सकती है। पर्याय की पर्याय नहीं होती, क्योंकि, ऐसा मानने पर अनवस्था दोष आता है। (ध.६/१,९-१,१७/३४/२)। (ध.७/२,१,५६/९९/८)। २. केवलज्ञान स्वयं तो न जानता ही है और न देखता ही है, क्योंकि वह स्वयं जानने व देखने का कर्ता नहीं है (आत्मा ही उसके द्वारा जानता है।) इसलिए ज्ञान को अन्तरंग व बहिरंग दोनों का प्रकाशक न मानकर जीव स्व व पर का प्रकाशक है, ऐसा मानना चाहिए। (विशेष देखें - दर्शन / २ / ६ )। ३–केवलदर्शन व केवलज्ञान ये दोनों प्रकाश एक हैं, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाह्य पदार्थों को विषय करने वाले साकार उपयोग और अन्तरंग पदार्थ को विषय करने वाले अनाकार उपयोग को एक मानने में विरोध आता है। (ध.१/१,१,१३३/३८३/११); (ध.७/२,१,५६/९९/९)। ४. प्रश्न–केवलज्ञान से केवलदर्शन अभिन्न है, इसलिए केवलदर्शन केवलज्ञान क्यों नहीं हो जाता ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, ऐसा होने पर ज्ञान और दर्शन इन दोनों में कोई विशेषता नहीं रहती है, इसलिए ज्ञान को भी दर्शनपने का प्रसंग प्राप्त होता है। (विशेष देखें - दर्शन / २ )। - आवरण कर्म के अभाव से केवलदर्शन का अभाव नहीं होता
क.पा.१/१-२०/३२८-३२९/३५९/२ मइणाणं व जेण दंसणमावरणणिबंधणं तेण खीणावरणिज्जे ण दंसणमिदि के वि भणंति। एत्थुवउज्जंती गाहा–‘भण्णइ खीणावरणे...’ (३२८)। एदं पि ण घडदे; आवरणकयस्स मइणाणस्सेव होउ णाम आवरणकयचक्खुअचक्खुओहिदंसणाणमावरणाभावेण अभावो ण केवलदंसणस्स तस्स कम्मेण अजणिदत्तादो। ण कम्मजणिदं केवलदंसणं, सगसरूवपयासेण विणा णिच्चेयणस्स जीवस्स णाणस्स वि अभावप्पसंगादो। =चूँकि दर्शन मतिज्ञान के समान आवरण के निमित्त से होता है, इसलिए आवरण के नष्ट हो जाने पर दर्शन नहीं रहता है, ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। इस विषय से उपयुक्त गाथा इस प्रकार है–‘जिस प्रकार ज्ञानावरण से रहित जिनभगवान् में ...इत्यादि’...पर उनका ऐसा कहना भी नहीं बनता है, क्योंकि जिस प्रकार मतिज्ञान आवरण का कार्य है, इसलिए अवरण के नष्ट हो जाने पर मतिज्ञान का अभाव हो जाता है। उसी प्रकार आवरण का अभाव होने से आवरण के कार्य चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन का भी अभाव होता है तो होओ पर इससे केवल दर्शन का अभाव नहीं हो सकता है, क्योंकि केवलदर्शन कर्मजनित नहीं है। उसे कर्मजनित मानना भी ठीक नहीं है, ऐसा मानने से, दर्शनावरण का अभाव हो जाने से भगवान् को केवलदर्शन की उत्पत्ति नहीं होगी, और उसकी उत्पत्ति न होने से वे अपने स्वरूप को न जान सकेंगे, जिससे वे अचेतन हो जायेंगे और ऐसी अवस्था में उसके ज्ञान का भी अभाव प्राप्त होगा।
- दर्शन के भेदों के नाम निर्देश