निमित्तज्ञान: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> निमित्तज्ञान सामान्य का लक्षण</strong></span> <br> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> निमित्तज्ञान सामान्य का लक्षण</strong></span> <br> | ||
रा.वा./३/३६/३/२०२/२१ <span class="SanskritText">एतेषु महानिमित्तेषु कौशलमष्टाङ्गमहानिमित्तज्ञता।</span> =<span class="HindiText">इन (निम्न) आठ महानिमित्तों में कुशलता अष्ठांग महानिमित्तज्ञता है। </span></li> | रा.वा./३/३६/३/२०२/२१ <span class="SanskritText">एतेषु महानिमित्तेषु कौशलमष्टाङ्गमहानिमित्तज्ञता।</span> =<span class="HindiText">इन (निम्न) आठ महानिमित्तों में कुशलता अष्ठांग महानिमित्तज्ञता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> निमित्तज्ञान के भेद</strong></span><br> ति.प./४/१००२,१०१५<span class="PrakritText"> णइमित्तिका य रिद्धी णभभउमंगंसराइ वेंजणयं। लक्खणचिण्हं सउणं अट्ठवियप्पेहिं वित्थरिदं।१००२। तं चिय सउणणिमित्तं चिण्हो मालो त्ति दोभेदं।१०१५।</span> =<span class="HindiText">नैमित्तिक ऋद्धि नभ (अन्तरिक्ष), भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, चिह्न (छिन्न); और स्वप्न इन आठ भेदों से विस्तृत है।१००२। | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> निमित्तज्ञान के भेद</strong></span><br> ति.प./४/१००२,१०१५<span class="PrakritText"> णइमित्तिका य रिद्धी णभभउमंगंसराइ वेंजणयं। लक्खणचिण्हं सउणं अट्ठवियप्पेहिं वित्थरिदं।१००२। तं चिय सउणणिमित्तं चिण्हो मालो त्ति दोभेदं।१०१५।</span> =<span class="HindiText">नैमित्तिक ऋद्धि नभ (अन्तरिक्ष), भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, चिह्न (छिन्न); और स्वप्न इन आठ भेदों से विस्तृत है।१००२। तहाँ स्वप्न निमित्तज्ञान के चिह्न और मालारूप से दो भेद हैं।१०१५। (रा.वा./१/२०/१२/७६/८); (रा.वा./३/३६/३/२०२/१०); (ध.९/४,१,१४/गा.१९/७२); (ध.९/४,१,१४/७२/२;७३/६); (चा.सा./२१४/३)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> निमित्तज्ञान विशेषों के लक्षण</strong> </span><br> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> निमित्तज्ञान विशेषों के लक्षण</strong> </span><br> | ||
ति.प./४/१००३-१०१६<span class="PrakritGatha"> रविससिगहपहुदीणं उदयत्थमणादि आइं दट्ठूणं। खीणत्तं दुक्खसुहं जं जाणइ तं हि णहणिमित्तं।१००३। घणसुसिरणिद्धलुक्खप्पहुदिगुणे भाविदूण भूमीए। जं जाणइ खयवडि्ंढ तम्मयसकणयरजदपमुहाणं।१००४। दिसिविदिसअंतरेसुं चउरंगबलं ठिदं च दट्ठूणं। जं जाणइ जयमजयं तं भउमणिमित्तमुद्दिट्ठं।१००५। वातादिप्पणिदीओ रुहिरप्पहुदिस्सहावसत्ताइं। णिण्णाण उण्णयाणं अंगोवंगाण दंसणा पासा।१००६। णरतिरियाणं दट्ठुं जं जाणइ दुक्खसोक्खमरणाइं। कालत्तयणिप्पण्णं अंगणिमित्तं पसिद्धं तु।१००७। णरतिरियाणणिचित्तं सद्दं सोदूण दुक्खसोक्खाइं। कालत्तयणिप्पण्णं जं जाणइ तं सरणिमित्तं।१००८। सिरमुहकंधप्पहुदिसु तिलमसयप्पहुदिआइ दट्ठूणं। जं तियकालसुहाइं जाणइ तं वेंजणणिमित्तं।१००९। करचरणतलप्पहुदिसु पंकयकुलिसादिमाणि दट्ठूणं। जं तियकालसुहाइं लक्खइ तं लक्खणणिमित्तं।१०१०। सुरदाणवरक्खसणरतिरिरगहिं छिण्णसत्थवत्थाणि। पासादणयरदेसादियाणि चिण्हाणि दट्ठूणं।१०११। कालत्तयसंभूदं सुहासुहं मरणविविहदव्वं च। सुहदुक्खाइं लक्खइ चिण्हणिमित्तं ति तं जाणइ।१०१२। वातादिदोसचत्तो पच्छिमरत्ते मुयंकरवियहुदिं। णियमुहकमलपविट्ठं देक्खिय सउणम्मि सुहसउणं।१०१३। घडतेल्लब्भंगादिं रासहकरभादिएसु आरुहणं। परदेसगमणसव्वं जं देक्खइ असुहसउणं तं।१०१४। जं भासइ दुक्खसुहप्पमुहं कालत्तए वि संजादं। तं चिय सउणणिमित्तं चिण्हो मालो त्ति दो भेदं।१०१५। करिकेसरिपहुदीणं दंसणमेत्तादि चिण्हसउणं तं। पुव्वावरसंबधं सउणं तं मालसउणो त्ति।१०१६।</span>=<span class="HindiText">सूर्य चन्द्र और ग्रह इत्यादि के उदय व अस्तमन आदिकों को देखकर जो क्षीणता और दु:ख-सुख (अथवा जन्म-मरण) का जानना है, वह नभ या अन्तरिक्ष निमित्तज्ञान है।१००३। पृथिवी के घन, सुषिर (पीलापन), स्निग्धता और रूक्षताप्रभृति गुणों को विचारकर जो | ति.प./४/१००३-१०१६<span class="PrakritGatha"> रविससिगहपहुदीणं उदयत्थमणादि आइं दट्ठूणं। खीणत्तं दुक्खसुहं जं जाणइ तं हि णहणिमित्तं।१००३। घणसुसिरणिद्धलुक्खप्पहुदिगुणे भाविदूण भूमीए। जं जाणइ खयवडि्ंढ तम्मयसकणयरजदपमुहाणं।१००४। दिसिविदिसअंतरेसुं चउरंगबलं ठिदं च दट्ठूणं। जं जाणइ जयमजयं तं भउमणिमित्तमुद्दिट्ठं।१००५। वातादिप्पणिदीओ रुहिरप्पहुदिस्सहावसत्ताइं। णिण्णाण उण्णयाणं अंगोवंगाण दंसणा पासा।१००६। णरतिरियाणं दट्ठुं जं जाणइ दुक्खसोक्खमरणाइं। कालत्तयणिप्पण्णं अंगणिमित्तं पसिद्धं तु।१००७। णरतिरियाणणिचित्तं सद्दं सोदूण दुक्खसोक्खाइं। कालत्तयणिप्पण्णं जं जाणइ तं सरणिमित्तं।१००८। सिरमुहकंधप्पहुदिसु तिलमसयप्पहुदिआइ दट्ठूणं। जं तियकालसुहाइं जाणइ तं वेंजणणिमित्तं।१००९। करचरणतलप्पहुदिसु पंकयकुलिसादिमाणि दट्ठूणं। जं तियकालसुहाइं लक्खइ तं लक्खणणिमित्तं।१०१०। सुरदाणवरक्खसणरतिरिरगहिं छिण्णसत्थवत्थाणि। पासादणयरदेसादियाणि चिण्हाणि दट्ठूणं।१०११। कालत्तयसंभूदं सुहासुहं मरणविविहदव्वं च। सुहदुक्खाइं लक्खइ चिण्हणिमित्तं ति तं जाणइ।१०१२। वातादिदोसचत्तो पच्छिमरत्ते मुयंकरवियहुदिं। णियमुहकमलपविट्ठं देक्खिय सउणम्मि सुहसउणं।१०१३। घडतेल्लब्भंगादिं रासहकरभादिएसु आरुहणं। परदेसगमणसव्वं जं देक्खइ असुहसउणं तं।१०१४। जं भासइ दुक्खसुहप्पमुहं कालत्तए वि संजादं। तं चिय सउणणिमित्तं चिण्हो मालो त्ति दो भेदं।१०१५। करिकेसरिपहुदीणं दंसणमेत्तादि चिण्हसउणं तं। पुव्वावरसंबधं सउणं तं मालसउणो त्ति।१०१६।</span>=<span class="HindiText">सूर्य चन्द्र और ग्रह इत्यादि के उदय व अस्तमन आदिकों को देखकर जो क्षीणता और दु:ख-सुख (अथवा जन्म-मरण) का जानना है, वह नभ या अन्तरिक्ष निमित्तज्ञान है।१००३। पृथिवी के घन, सुषिर (पीलापन), स्निग्धता और रूक्षताप्रभृति गुणों को विचारकर जो ताँबा, लोहा, सुवर्ण और चाँदी आदि धातुओं की हानि वृद्धि को तथा दिशा-विदिशाओं के अन्तराल में स्थित चतुरंगबल को देखकर जो जय-पराजय को भी जानना है उसे भौम निमित्तज्ञान कहा गया है।१००४-१००५। मनुष्य और तिर्यंचों के निम्न व उन्नत अंगोपांगों के दर्शन व स्पर्श से वात, पित्त, कफरूप तीन प्रकृतियों और रुधिरादि सात धातुओं को देखकर तीनों कालों में उत्पन्न होने वाले सुख-दु:ख या मरणादि को जानना, यह अंगनिमित्त नाम से प्रसिद्ध है।१००६-१००७। मनुष्य और तिर्यंचों के विचित्र शब्दों को सुनकर कालत्रय में होने वाले दुख-सु:ख को जानना, यह स्वर निमित्तज्ञान है।१००८। सिर मुख और कन्धे आदि पर तिल एवं मशे आदि को देखकर तीनों काल के सुखादिक को जानना, यह व्यञ्जन निमित्तज्ञान है।१००९। हाथ, पाँव के नीचे की रेखाएँ, तिल आदि देखकर त्रिकाल सम्बन्धी सुख दु:खादि को जानना सो लक्षण निमित्त है।१०१०। देव, दानव, राक्षस, मनुष्य, मनुष्य और तिर्यंचों के द्वारा छेदे गये शस्त्र एवं वस्त्रादिक तथा प्रासाद, नगर और देशादिक चिन्हों को देखकर त्रिकालभावी शुभ, अशुभ, मरण विविध प्रकार के द्रव्य और सुख-दु:ख को जानना, यह चिन्ह या छिन्न निमित्तज्ञान है।१०११-१०१२। वात-पित्तादि दोषों से रहित व्यक्ति, सोते हुए रात्रि के पश्चिम भाग में अपने मुखकमल में प्रविष्ट चन्द्र-सूर्यादिरूप शुभस्वप्न को और घृत व तैल की मालिश आदि, गर्दभ व ऊँट आदि पर चढ़ना, तथा परदेश गमन आदि रूप जो अशुभ स्वप्न को देखता है, इसके फलस्वरूप तीन काल में होने वाले दु:ख-सुखादिक को बतलाना यह स्वप्ननिमित्त है। इसके चिन्ह और मालारूप दो भेद हैं। इनमें से स्वप्न में हाथी, सिंहादिक के दर्शनमात्र आदिक को चिन्हस्वप्न और पूर्वा पर सम्बन्ध रखने वाले स्वप्न को माला स्वप्न कहते हैं।१०१३-१०१६। (रा.वा./३/३६/३/२०२/११); (ध.९/४,१,१४/७२/६); (चा.सा./२१४/३)।</span></li> | ||
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Revision as of 22:20, 1 March 2015
- निमित्तज्ञान सामान्य का लक्षण
रा.वा./३/३६/३/२०२/२१ एतेषु महानिमित्तेषु कौशलमष्टाङ्गमहानिमित्तज्ञता। =इन (निम्न) आठ महानिमित्तों में कुशलता अष्ठांग महानिमित्तज्ञता है। - निमित्तज्ञान के भेद
ति.प./४/१००२,१०१५ णइमित्तिका य रिद्धी णभभउमंगंसराइ वेंजणयं। लक्खणचिण्हं सउणं अट्ठवियप्पेहिं वित्थरिदं।१००२। तं चिय सउणणिमित्तं चिण्हो मालो त्ति दोभेदं।१०१५। =नैमित्तिक ऋद्धि नभ (अन्तरिक्ष), भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, चिह्न (छिन्न); और स्वप्न इन आठ भेदों से विस्तृत है।१००२। तहाँ स्वप्न निमित्तज्ञान के चिह्न और मालारूप से दो भेद हैं।१०१५। (रा.वा./१/२०/१२/७६/८); (रा.वा./३/३६/३/२०२/१०); (ध.९/४,१,१४/गा.१९/७२); (ध.९/४,१,१४/७२/२;७३/६); (चा.सा./२१४/३)। - निमित्तज्ञान विशेषों के लक्षण
ति.प./४/१००३-१०१६ रविससिगहपहुदीणं उदयत्थमणादि आइं दट्ठूणं। खीणत्तं दुक्खसुहं जं जाणइ तं हि णहणिमित्तं।१००३। घणसुसिरणिद्धलुक्खप्पहुदिगुणे भाविदूण भूमीए। जं जाणइ खयवडि्ंढ तम्मयसकणयरजदपमुहाणं।१००४। दिसिविदिसअंतरेसुं चउरंगबलं ठिदं च दट्ठूणं। जं जाणइ जयमजयं तं भउमणिमित्तमुद्दिट्ठं।१००५। वातादिप्पणिदीओ रुहिरप्पहुदिस्सहावसत्ताइं। णिण्णाण उण्णयाणं अंगोवंगाण दंसणा पासा।१००६। णरतिरियाणं दट्ठुं जं जाणइ दुक्खसोक्खमरणाइं। कालत्तयणिप्पण्णं अंगणिमित्तं पसिद्धं तु।१००७। णरतिरियाणणिचित्तं सद्दं सोदूण दुक्खसोक्खाइं। कालत्तयणिप्पण्णं जं जाणइ तं सरणिमित्तं।१००८। सिरमुहकंधप्पहुदिसु तिलमसयप्पहुदिआइ दट्ठूणं। जं तियकालसुहाइं जाणइ तं वेंजणणिमित्तं।१००९। करचरणतलप्पहुदिसु पंकयकुलिसादिमाणि दट्ठूणं। जं तियकालसुहाइं लक्खइ तं लक्खणणिमित्तं।१०१०। सुरदाणवरक्खसणरतिरिरगहिं छिण्णसत्थवत्थाणि। पासादणयरदेसादियाणि चिण्हाणि दट्ठूणं।१०११। कालत्तयसंभूदं सुहासुहं मरणविविहदव्वं च। सुहदुक्खाइं लक्खइ चिण्हणिमित्तं ति तं जाणइ।१०१२। वातादिदोसचत्तो पच्छिमरत्ते मुयंकरवियहुदिं। णियमुहकमलपविट्ठं देक्खिय सउणम्मि सुहसउणं।१०१३। घडतेल्लब्भंगादिं रासहकरभादिएसु आरुहणं। परदेसगमणसव्वं जं देक्खइ असुहसउणं तं।१०१४। जं भासइ दुक्खसुहप्पमुहं कालत्तए वि संजादं। तं चिय सउणणिमित्तं चिण्हो मालो त्ति दो भेदं।१०१५। करिकेसरिपहुदीणं दंसणमेत्तादि चिण्हसउणं तं। पुव्वावरसंबधं सउणं तं मालसउणो त्ति।१०१६।=सूर्य चन्द्र और ग्रह इत्यादि के उदय व अस्तमन आदिकों को देखकर जो क्षीणता और दु:ख-सुख (अथवा जन्म-मरण) का जानना है, वह नभ या अन्तरिक्ष निमित्तज्ञान है।१००३। पृथिवी के घन, सुषिर (पीलापन), स्निग्धता और रूक्षताप्रभृति गुणों को विचारकर जो ताँबा, लोहा, सुवर्ण और चाँदी आदि धातुओं की हानि वृद्धि को तथा दिशा-विदिशाओं के अन्तराल में स्थित चतुरंगबल को देखकर जो जय-पराजय को भी जानना है उसे भौम निमित्तज्ञान कहा गया है।१००४-१००५। मनुष्य और तिर्यंचों के निम्न व उन्नत अंगोपांगों के दर्शन व स्पर्श से वात, पित्त, कफरूप तीन प्रकृतियों और रुधिरादि सात धातुओं को देखकर तीनों कालों में उत्पन्न होने वाले सुख-दु:ख या मरणादि को जानना, यह अंगनिमित्त नाम से प्रसिद्ध है।१००६-१००७। मनुष्य और तिर्यंचों के विचित्र शब्दों को सुनकर कालत्रय में होने वाले दुख-सु:ख को जानना, यह स्वर निमित्तज्ञान है।१००८। सिर मुख और कन्धे आदि पर तिल एवं मशे आदि को देखकर तीनों काल के सुखादिक को जानना, यह व्यञ्जन निमित्तज्ञान है।१००९। हाथ, पाँव के नीचे की रेखाएँ, तिल आदि देखकर त्रिकाल सम्बन्धी सुख दु:खादि को जानना सो लक्षण निमित्त है।१०१०। देव, दानव, राक्षस, मनुष्य, मनुष्य और तिर्यंचों के द्वारा छेदे गये शस्त्र एवं वस्त्रादिक तथा प्रासाद, नगर और देशादिक चिन्हों को देखकर त्रिकालभावी शुभ, अशुभ, मरण विविध प्रकार के द्रव्य और सुख-दु:ख को जानना, यह चिन्ह या छिन्न निमित्तज्ञान है।१०११-१०१२। वात-पित्तादि दोषों से रहित व्यक्ति, सोते हुए रात्रि के पश्चिम भाग में अपने मुखकमल में प्रविष्ट चन्द्र-सूर्यादिरूप शुभस्वप्न को और घृत व तैल की मालिश आदि, गर्दभ व ऊँट आदि पर चढ़ना, तथा परदेश गमन आदि रूप जो अशुभ स्वप्न को देखता है, इसके फलस्वरूप तीन काल में होने वाले दु:ख-सुखादिक को बतलाना यह स्वप्ननिमित्त है। इसके चिन्ह और मालारूप दो भेद हैं। इनमें से स्वप्न में हाथी, सिंहादिक के दर्शनमात्र आदिक को चिन्हस्वप्न और पूर्वा पर सम्बन्ध रखने वाले स्वप्न को माला स्वप्न कहते हैं।१०१३-१०१६। (रा.वा./३/३६/३/२०२/११); (ध.९/४,१,१४/७२/६); (चा.सा./२१४/३)।