निर्जरा: Difference between revisions
From जैनकोष
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">निर्जरा सामान्य का लक्षण</strong></span><br> भ.आ./मू./१८४७/१६५९ <span class="PrakritText">पुव्वकदकम्मसडणं तु णिज्जरा। </span>=<span class="HindiText">पूर्वबद्ध कर्मों का झड़ना निर्जरा है।</span><br> | ||
वा.अ./६६ <span class="PrakritText">बंधपदेशग्गलणं णिज्जरणं।</span> =<span class="HindiText">आत्मप्रदेशों के साथ कर्मप्रदेशों का उस आत्मा के प्रदेशों से झड़ना निर्जरा है। </span>(न.च.वृ./१५७); (भ.आ./वि./१८४७/१६५९/९)। स.सि./१/४/१४/५ <span class="SanskritText">एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा। </span>=<span class="HindiText">एकदेश रूप से कर्मों का जुदा होना निर्जरा है। (रा.वा./१/४/१९/२७/७); (भ.आ./वि./१८४७/१६५९/१०); (द्र.सं./टी./२८/८५/१३); (पं.का./ता.वृ./१४४/२०९/१७)।</span><br> | वा.अ./६६ <span class="PrakritText">बंधपदेशग्गलणं णिज्जरणं।</span> =<span class="HindiText">आत्मप्रदेशों के साथ कर्मप्रदेशों का उस आत्मा के प्रदेशों से झड़ना निर्जरा है। </span>(न.च.वृ./१५७); (भ.आ./वि./१८४७/१६५९/९)। स.सि./१/४/१४/५ <span class="SanskritText">एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा। </span>=<span class="HindiText">एकदेश रूप से कर्मों का जुदा होना निर्जरा है। (रा.वा./१/४/१९/२७/७); (भ.आ./वि./१८४७/१६५९/१०); (द्र.सं./टी./२८/८५/१३); (पं.का./ता.वृ./१४४/२०९/१७)।</span><br> | ||
स.सि./८/२३/३९९/६ <span class="SanskritText">पीडानुग्रहावात्मने प्रदायाम्यवहृतौदनादिविकारवत्पूर्वस्थितिक्षयादवस्थानाभावात्कर्मणो निवृत्तिर्निर्जरा।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार भात आदि का मल निवृत्त होकर निर्जीर्ण हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा का भला बुरा करके पूर्व प्राप्त स्थिति का नाश हो जाने के कारण कर्म की निवृत्ति का होना निर्जरा है। </span>(रा.वा./८/२३/१/५८३/३०)। रा.वा./१/सूत्र/वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति–<span class="SanskritText">निर्जीर्यते निरस्यते यथा निरसनमात्रं वा निर्जरा।</span>(४/१२/२७)। <span class="SanskritText">निर्जरेव निर्जरा। </span>क: उपमार्थ:। यथा मन्त्रौषधबलान्निर्जीर्णवीर्यविपाकं विषं न दोषप्रदं तथा ...तपोविशेषेण निर्जीणरसं कर्म न संसारफलप्रदम् । (४/१९/२७/८)। यथाविपाकात्तपसो वा उपभुक्तवीर्यं कर्म निर्जरा। (७/१४/४०/१७)। = | स.सि./८/२३/३९९/६ <span class="SanskritText">पीडानुग्रहावात्मने प्रदायाम्यवहृतौदनादिविकारवत्पूर्वस्थितिक्षयादवस्थानाभावात्कर्मणो निवृत्तिर्निर्जरा।</span> =<span class="HindiText">जिस प्रकार भात आदि का मल निवृत्त होकर निर्जीर्ण हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा का भला बुरा करके पूर्व प्राप्त स्थिति का नाश हो जाने के कारण कर्म की निवृत्ति का होना निर्जरा है। </span>(रा.वा./८/२३/१/५८३/३०)। रा.वा./१/सूत्र/वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति–<span class="SanskritText">निर्जीर्यते निरस्यते यथा निरसनमात्रं वा निर्जरा।</span>(४/१२/२७)। <span class="SanskritText">निर्जरेव निर्जरा। </span>क: उपमार्थ:। यथा मन्त्रौषधबलान्निर्जीर्णवीर्यविपाकं विषं न दोषप्रदं तथा ...तपोविशेषेण निर्जीणरसं कर्म न संसारफलप्रदम् । (४/१९/२७/८)। यथाविपाकात्तपसो वा उपभुक्तवीर्यं कर्म निर्जरा। (७/१४/४०/१७)। = | ||
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<li class="HindiText"> जिनसे कर्म झड़ें (ऐसे जीव के परिणाम) अथवा जो कर्म झड़ें वे निर्जरा हैं। (भ.आ./वि./३८/१३४/१६)</li> | <li class="HindiText"> जिनसे कर्म झड़ें (ऐसे जीव के परिणाम) अथवा जो कर्म झड़ें वे निर्जरा हैं। (भ.आ./वि./३८/१३४/१६)</li> | ||
<li class="HindiText"> निर्जरा की | <li class="HindiText"> निर्जरा की भाँति निर्जरा है। जिस प्रकार मन्त्र या औषध आदि से नि:शक्ति किया हुआ विष, दोष उत्पन्न नहीं करता; उसी प्रकार तप आदि से नीरस किये गये और नि:शक्ति हुए कर्म संसारचक्र को नहीं चला सकते। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> यथाकाल या तपोविशेष से कर्मों की फलदानशक्ति को नष्ट कर उन्हें झड़ा देना निर्जरा है। (द्र.सं./मू./३६/१५०)।</span><br>का.अ./मू./१०३ <span class="PrakritGatha">सव्वेसिं कम्माणं सत्तिविवाओ हवेइ अणुभाओ। तदणंतरं तु सडणं कम्माणं णिज्जरा जाण।१०३।</span> =<span class="HindiText">सब कर्मों की शक्ति के उदय होने को अनुभाग कहते हैं। उसके पश्चात् कर्मों के खिरने को निर्जरा कहते हैं। </span></li> | <li><span class="HindiText"> यथाकाल या तपोविशेष से कर्मों की फलदानशक्ति को नष्ट कर उन्हें झड़ा देना निर्जरा है। (द्र.सं./मू./३६/१५०)।</span><br>का.अ./मू./१०३ <span class="PrakritGatha">सव्वेसिं कम्माणं सत्तिविवाओ हवेइ अणुभाओ। तदणंतरं तु सडणं कम्माणं णिज्जरा जाण।१०३।</span> =<span class="HindiText">सब कर्मों की शक्ति के उदय होने को अनुभाग कहते हैं। उसके पश्चात् कर्मों के खिरने को निर्जरा कहते हैं। </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> सविपाक व अविपाक निर्जरा के लक्षण</strong></span><br>स.सि./८/२३/३९९/९ <span class="SanskritText">क्रमेण परिपाककालप्राप्तस्यानुभवोदयावलिस्रोतोऽनुप्रविष्टस्यारब्धफलस्य या निवृत्ति: सा विपाकजा निजरा। यत्कर्माप्राप्तविपाककालमौपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यानुदीर्णंबलादुदीर्णोदयावलिं प्रवेश्य वेद्यते आम्रपनसादिपाकवत् सा अविपाकजा निर्जरा। चशब्दो निमित्तान्तरसमुच्चयार्थ:। </span>=<span class="HindiText">क्रम से परिपाककाल को प्राप्त हुए और अनुभवरूपी उदयावली के स्रोत में प्रविष्ट हुए ऐसे शुभाशुभ कर्म की फल देकर जो निवृत्ति होती है वह विपाकजा निर्जरा है। तथा आम और पनस (कटहल) को औपक्रमिक क्रिया विशेष के द्वारा जिस प्रकार अकाल में पका लेते हैं; उसी प्रकार जिसका विपाककाल अभी नहीं प्राप्त हुआ है तथा जो उदयावली से बाहर स्थित है, ऐसे कर्म को (तपादि) औपक्रमिक क्रिया विशेष की सामर्थ्य से उदयावली में प्रविष्ट कराके अनुभव किया जाता है। वह अविपाकजा निर्जरा है। सूत्र में च शब्द अन्य निमित्त का समुच्चय कराने के लिए दिया है। अर्थात् विपाक द्वारा भी निर्जरा होती है और तप द्वारा भी (रा.वा./८/२३/२/५८४/३); (भ.आ./वि./१८४९/१६६०/२०); (न.च.वृ./१५८) (त.सा./७/३-५); (द्र.सं./टी./३६/१५१/३)। </span>स.सि./९/७/४१७/९ <span class="SanskritText">निर्जरा वेदनाविपाक इत्युक्तम् । सा द्वेधा–अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला चेति। तत्र नरकादिषु गतिषु कर्मफलविपाकजा अबुद्धिपूर्वा सा अकुशलानुबन्धा। परिषहजये कृते कुशलमूला। सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति।</span> =<span class="HindiText">वेदना विपाक का नाम निर्जरा है। वह दो प्रकार की है–अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है वह अकुशलानुबन्धा है। तथा परिषह के जीतने पर जो निर्जरा होती है वह कुशलमूला निर्जरा है। वह भी शुभानुबन्धा और निरनुबन्धा के भेद से दो प्रकार की होती है।</span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> सविपाक व अविपाक निर्जरा के लक्षण</strong></span><br>स.सि./८/२३/३९९/९ <span class="SanskritText">क्रमेण परिपाककालप्राप्तस्यानुभवोदयावलिस्रोतोऽनुप्रविष्टस्यारब्धफलस्य या निवृत्ति: सा विपाकजा निजरा। यत्कर्माप्राप्तविपाककालमौपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यानुदीर्णंबलादुदीर्णोदयावलिं प्रवेश्य वेद्यते आम्रपनसादिपाकवत् सा अविपाकजा निर्जरा। चशब्दो निमित्तान्तरसमुच्चयार्थ:। </span>=<span class="HindiText">क्रम से परिपाककाल को प्राप्त हुए और अनुभवरूपी उदयावली के स्रोत में प्रविष्ट हुए ऐसे शुभाशुभ कर्म की फल देकर जो निवृत्ति होती है वह विपाकजा निर्जरा है। तथा आम और पनस (कटहल) को औपक्रमिक क्रिया विशेष के द्वारा जिस प्रकार अकाल में पका लेते हैं; उसी प्रकार जिसका विपाककाल अभी नहीं प्राप्त हुआ है तथा जो उदयावली से बाहर स्थित है, ऐसे कर्म को (तपादि) औपक्रमिक क्रिया विशेष की सामर्थ्य से उदयावली में प्रविष्ट कराके अनुभव किया जाता है। वह अविपाकजा निर्जरा है। सूत्र में च शब्द अन्य निमित्त का समुच्चय कराने के लिए दिया है। अर्थात् विपाक द्वारा भी निर्जरा होती है और तप द्वारा भी (रा.वा./८/२३/२/५८४/३); (भ.आ./वि./१८४९/१६६०/२०); (न.च.वृ./१५८) (त.सा./७/३-५); (द्र.सं./टी./३६/१५१/३)। </span>स.सि./९/७/४१७/९ <span class="SanskritText">निर्जरा वेदनाविपाक इत्युक्तम् । सा द्वेधा–अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला चेति। तत्र नरकादिषु गतिषु कर्मफलविपाकजा अबुद्धिपूर्वा सा अकुशलानुबन्धा। परिषहजये कृते कुशलमूला। सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति।</span> =<span class="HindiText">वेदना विपाक का नाम निर्जरा है। वह दो प्रकार की है–अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है वह अकुशलानुबन्धा है। तथा परिषह के जीतने पर जो निर्जरा होती है वह कुशलमूला निर्जरा है। वह भी शुभानुबन्धा और निरनुबन्धा के भेद से दो प्रकार की होती है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> द्रव्य भाव निर्जरा के लक्षण</strong></span><br> द्र.सं./टी./३६/१५०/१०<span class="SanskritText"> भावनिर्जरा। सा का। ...येन भावेन जीवपरिणामेन। किं भवति ‘सडदि’ विशीयते पतति गलति वियति। किं कर्तृ ‘कम्मपुग्गलं’ ...कर्म्मणो गलनं यच्च सा द्रव्यनिर्जरा।</span> =<span class="HindiText">जीव के जिन शुद्ध परिणामों से पुद्गल कर्म झड़ते हैं वे जीव के परिणाम भाव निर्जरा हैं और जो कर्म झड़ते हैं वह द्रव्य निर्जरा है।</span><br>पं.का./ता.वृ./१४४/२०९/१६ <span class="SanskritText">कर्मशक्तिनिर्मूलनसमर्थ: शुद्धोपयोगो भावनिर्जरा तस्य शुद्धोपयोगेन सामर्थ्येन नीरसीभूतानां पूर्वोपार्जितकर्मपुद्गलानां संवरपूर्वकभावेनैकदेशसंक्षयो द्रव्यनिर्जरेति सूत्रार्थ:।१४४। </span>=<span class="HindiText">कर्मशक्ति के निर्मूलन में समर्थ जीव का शुद्धोपयोग तो भाव निर्जरा है। उस शुद्धोपयोग की सामर्थ्य नीरसीभूत पूर्वोपार्जित कर्मपुद्गलों का संवरपूर्वकभाव से एकदेश क्षय होना द्रव्यनिर्जरा है। </span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> द्रव्य भाव निर्जरा के लक्षण</strong></span><br> द्र.सं./टी./३६/१५०/१०<span class="SanskritText"> भावनिर्जरा। सा का। ...येन भावेन जीवपरिणामेन। किं भवति ‘सडदि’ विशीयते पतति गलति वियति। किं कर्तृ ‘कम्मपुग्गलं’ ...कर्म्मणो गलनं यच्च सा द्रव्यनिर्जरा।</span> =<span class="HindiText">जीव के जिन शुद्ध परिणामों से पुद्गल कर्म झड़ते हैं वे जीव के परिणाम भाव निर्जरा हैं और जो कर्म झड़ते हैं वह द्रव्य निर्जरा है।</span><br>पं.का./ता.वृ./१४४/२०९/१६ <span class="SanskritText">कर्मशक्तिनिर्मूलनसमर्थ: शुद्धोपयोगो भावनिर्जरा तस्य शुद्धोपयोगेन सामर्थ्येन नीरसीभूतानां पूर्वोपार्जितकर्मपुद्गलानां संवरपूर्वकभावेनैकदेशसंक्षयो द्रव्यनिर्जरेति सूत्रार्थ:।१४४। </span>=<span class="HindiText">कर्मशक्ति के निर्मूलन में समर्थ जीव का शुद्धोपयोग तो भाव निर्जरा है। उस शुद्धोपयोग की सामर्थ्य नीरसीभूत पूर्वोपार्जित कर्मपुद्गलों का संवरपूर्वकभाव से एकदेश क्षय होना द्रव्यनिर्जरा है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> अकाम निर्जरा का लक्षण</strong></span><br>स.सि./६/२०/३३५/१० <span class="SanskritText">अकामनिर्जरा अकामश्चारकनिरोधबन्धनबद्धेषु क्षुत्तृष्णानिरोधब्रह्मचर्यभूशय्यामलधारणपरितापादि:। अकामेन निर्जरा अकामनिर्जरा।</span> =<span class="HindiText">चारक में रोक रखने पर या रस्सी, आदिसे | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> अकाम निर्जरा का लक्षण</strong></span><br>स.सि./६/२०/३३५/१० <span class="SanskritText">अकामनिर्जरा अकामश्चारकनिरोधबन्धनबद्धेषु क्षुत्तृष्णानिरोधब्रह्मचर्यभूशय्यामलधारणपरितापादि:। अकामेन निर्जरा अकामनिर्जरा।</span> =<span class="HindiText">चारक में रोक रखने पर या रस्सी, आदिसे बाँध रखने पर जो भूख-प्यास सहनी पड़ती है, ब्रह्मचर्य पालना पड़ता है, भूमि पर सोना पड़ता है, मल-मूत्र को रोकना पड़ता है और सन्ताप आदि होता है, ये सब अकाम हैं और इससे जो निर्जरा होती है वह अकामनिर्जरा है। (रा.वा./६/२०/१/५२७/१९)</span> रा.वा./६/१२/७/५२२/२८ <span class="SanskritText">विषयानर्थनिवृत्तिं चात्माभिप्रायेणाकुर्वत: पारतन्त्र्याद्भोगोपभोगनिरोधोऽकामनिर्जरा। </span>=<span class="HindiText">अपने अभिप्राय से न किया गया भी विषयों की निवृत्ति या त्याग तथा परतन्त्रता के कारण भोग-उपभोग का निरोध होने पर उसे शान्ति से सह जाना अकाम निर्जरा है। (गो.क./जी.प्र./५४८/७१७/२३)</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"> चतुर्गति के सर्व ही जीवों की पहिली अर्थात् सविपाक निर्जरा होती है, और सम्यग्दृष्टि व्रतधारियों की दूसरी अर्थात् अविपाक निर्जरा होती है। (त.सा./७/६); (और भी देखें - [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि / ४ ]]निर्जरा/३/१)<br> | <li><span class="HindiText"> चतुर्गति के सर्व ही जीवों की पहिली अर्थात् सविपाक निर्जरा होती है, और सम्यग्दृष्टि व्रतधारियों की दूसरी अर्थात् अविपाक निर्जरा होती है। (त.सा./७/६); (और भी देखें - [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि / ४ ]]निर्जरा/३/१)<br> | ||
देखें - [[ निर्जरा#1.3 | निर्जरा / १ / ३ ]] </span></li> | देखें - [[ निर्जरा#1.3 | निर्जरा / १ / ३ ]] </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> सविपाक निर्जरा अकुशलानुबन्धा है और अविपाक निर्जरा कुशलमूला है। | <li><span class="HindiText"> सविपाक निर्जरा अकुशलानुबन्धा है और अविपाक निर्जरा कुशलमूला है। तहाँ भी मिथ्यादृष्टियों की अविपाक निर्जरा इच्छा निरोध न होने के कारण शुभानुबन्धा है और सम्यग्दृष्टियों की अविपाक निर्जरा इच्छा निरोध होने के कारण निरबनुबन्धा है। देखें - [[ निर्जरा#3.1.4 | निर्जरा / ३ / १ / ४ ]], अविपाक निर्जरा ही मोक्ष की कारण है सविपाक निर्जरा नहीं। </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> कर्मों की निर्जरा क्रमपूर्वक ही होती है</strong></span><br>ध.१३/५,४,२४/५२/५<span class="PrakritText"> जणि तिणसंतकम्मं पदमाणं तो अक्कमेण णिवददे। ण, दोत्तडीणं व वज्झकम्मक्खंधपदणमवेक्खिय णिवदंताणमक्कमेण पदणविरोहादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि जिन भगवान् के सत्कर्म का पतन हो रहा है, तो उसका युगपत् पतन क्यों नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, पुष्ट नदियों के समान | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> कर्मों की निर्जरा क्रमपूर्वक ही होती है</strong></span><br>ध.१३/५,४,२४/५२/५<span class="PrakritText"> जणि तिणसंतकम्मं पदमाणं तो अक्कमेण णिवददे। ण, दोत्तडीणं व वज्झकम्मक्खंधपदणमवेक्खिय णिवदंताणमक्कमेण पदणविरोहादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–यदि जिन भगवान् के सत्कर्म का पतन हो रहा है, तो उसका युगपत् पतन क्यों नहीं होता ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, पुष्ट नदियों के समान बँधे हुए कर्मस्कन्धों के पतन को देखते हुए पतन को प्राप्त होने वाले उनका अक्रम से पतन मानने में विरोध आता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> निर्जरा में तप की प्रधानता</strong></span><br>भ.आ./मू./१८४६/१६५८<span class="PrakritGatha"> तवसा विणा ण मोक्खो संवरमित्तेण होइ कम्मस्स। उवभोगादीहिं विणा धणं ण हु खीयदि सुगुत्तं।१८४६।</span> =<span class="HindiText">तप के बिना, केवल कर्म के संवर से मोक्ष नहीं होता है। जिस धन का संरक्षण किया है वह धन यदि उपभोग में नहीं लिया तो समाप्त नहीं होगा। इसलिए कर्म की निर्जरा होने के लिए तप करना चाहिए। </span>मू.आ./२४२ <span class="PrakritGatha">जमजोगे जुत्तो जो तवसा चेट्ठदे अणेगविधं। सो कम्मणिज्जराए विउलाए वट्टदे जीवो।२४२। </span>=<span class="HindiText">इन्द्रियादि संयम व योग से सहित भी जो मनुष्य अनेक भेदरूप तप में वर्तता है, वह जीव बहुत से कर्मों की निर्जरा करता है।</span><br>रा.वा./८/२३/७/५८४/२५ पर उद्धृत–<span class="PrakritGatha">कायमणोवचिगुत्तो जो तवसा चेट्टदे अणेयविहं। सो कम्मणिज्जराए विपुलए वट्टदे मणुस्सो त्ति।</span> =<span class="HindiText">काय, मन और वचन गुप्ति से युक्त होकर जो अनेक प्रकार के तप करता है वह मनुष्य विपुल कर्म निर्जरा को करता है। नोट–निश्चय व व्यवहारचारित्रादि द्वारा कर्मों की निर्जरा का निर्देश–( देखें - [[ चारित्र#2.2 | चारित्र / २ / २ ]];धर्म/७/९;धर्मध्यान/६/३)।</span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> निर्जरा में तप की प्रधानता</strong></span><br>भ.आ./मू./१८४६/१६५८<span class="PrakritGatha"> तवसा विणा ण मोक्खो संवरमित्तेण होइ कम्मस्स। उवभोगादीहिं विणा धणं ण हु खीयदि सुगुत्तं।१८४६।</span> =<span class="HindiText">तप के बिना, केवल कर्म के संवर से मोक्ष नहीं होता है। जिस धन का संरक्षण किया है वह धन यदि उपभोग में नहीं लिया तो समाप्त नहीं होगा। इसलिए कर्म की निर्जरा होने के लिए तप करना चाहिए। </span>मू.आ./२४२ <span class="PrakritGatha">जमजोगे जुत्तो जो तवसा चेट्ठदे अणेगविधं। सो कम्मणिज्जराए विउलाए वट्टदे जीवो।२४२। </span>=<span class="HindiText">इन्द्रियादि संयम व योग से सहित भी जो मनुष्य अनेक भेदरूप तप में वर्तता है, वह जीव बहुत से कर्मों की निर्जरा करता है।</span><br>रा.वा./८/२३/७/५८४/२५ पर उद्धृत–<span class="PrakritGatha">कायमणोवचिगुत्तो जो तवसा चेट्टदे अणेयविहं। सो कम्मणिज्जराए विपुलए वट्टदे मणुस्सो त्ति।</span> =<span class="HindiText">काय, मन और वचन गुप्ति से युक्त होकर जो अनेक प्रकार के तप करता है वह मनुष्य विपुल कर्म निर्जरा को करता है। नोट–निश्चय व व्यवहारचारित्रादि द्वारा कर्मों की निर्जरा का निर्देश–( देखें - [[ चारित्र#2.2 | चारित्र / २ / २ ]];धर्म/७/९;धर्मध्यान/६/३)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> निर्जरा व संवर का सामानाधिकरण्य</strong></span><br> त.सू./९/३ <span class="SanskritText">तपसा निर्जराश्च।३।</span> =<span class="HindiText">तप के द्वारा संवर व निर्जरा दोनों होते हैं।</span><br> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> निर्जरा व संवर का सामानाधिकरण्य</strong></span><br> त.सू./९/३ <span class="SanskritText">तपसा निर्जराश्च।३।</span> =<span class="HindiText">तप के द्वारा संवर व निर्जरा दोनों होते हैं।</span><br> | ||
बा.अ./६६ <span class="PrakritText">जेण हवे संवरणं तेण दु णिज्जरणमिदि जाणे।६६।</span> =<span class="HindiText">जिन परिणामों से संवर होता है, उनसे ही निर्जरा भी होती है।</span> स.सि./९/३/४१०/६ <span class="SanskritText">तपो धर्मेऽन्तर्भूतमपि पृथगुच्यते उभयसाधनत्वख्यापनार्थं संवरं प्रति प्राधान्यप्रतिपादनार्थं च।</span>=<span class="HindiText">तप का धर्म में (१० धर्मों में) अन्तर्भाव होता है, फिर भी संवर और निर्जरा इन दोनों का कारण है, और संवर का प्रमुख कारण है, यह बताने के लिए उसका अलग से कथन किया है। (रा.वा./९/३/१-२/५९२/२७)।</span><br>प.प्र./मू./२/३८ <span class="PrakritGatha">अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्पसरूवि णिलीणु। संवर णिज्जर जाणि तुहुं सयल वियप्प विहीणु।३८। </span>=<span class="HindiText">मुनिराज जब तक आत्मस्वरूप में लीन हुआ ठहरता है, तब तक सकल विकल्प समूह से रहित उसको तू संवर व निर्जरा स्वरूप जान। (और भी | बा.अ./६६ <span class="PrakritText">जेण हवे संवरणं तेण दु णिज्जरणमिदि जाणे।६६।</span> =<span class="HindiText">जिन परिणामों से संवर होता है, उनसे ही निर्जरा भी होती है।</span> स.सि./९/३/४१०/६ <span class="SanskritText">तपो धर्मेऽन्तर्भूतमपि पृथगुच्यते उभयसाधनत्वख्यापनार्थं संवरं प्रति प्राधान्यप्रतिपादनार्थं च।</span>=<span class="HindiText">तप का धर्म में (१० धर्मों में) अन्तर्भाव होता है, फिर भी संवर और निर्जरा इन दोनों का कारण है, और संवर का प्रमुख कारण है, यह बताने के लिए उसका अलग से कथन किया है। (रा.वा./९/३/१-२/५९२/२७)।</span><br>प.प्र./मू./२/३८ <span class="PrakritGatha">अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्पसरूवि णिलीणु। संवर णिज्जर जाणि तुहुं सयल वियप्प विहीणु।३८। </span>=<span class="HindiText">मुनिराज जब तक आत्मस्वरूप में लीन हुआ ठहरता है, तब तक सकल विकल्प समूह से रहित उसको तू संवर व निर्जरा स्वरूप जान। (और भी देखें - [[ चारित्र#2.2 | चारित्र / २ / २ ]]; धर्म/७/९; धर्मध्याना०६/३ आदि)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> संवर सहित ही यथार्थ निर्जरा होती है उससे रहित नहीं</strong></span><br>पं.का./मू./१४५ <span class="PrakritText">जो संवरेण जुत्तो अप्पट्ठपसाधगो हि अप्पाणं। मुणिऊण झादि णियदं णाणं सो संधुणोदि कम्मरयं।</span> =<span class="HindiText">संवर से युक्त ऐसा जो जीव, वास्तव में आत्मप्रसाधक वर्तता हुआ, आत्मा का अनुभव करके ज्ञान को निश्चल रूप से ध्याता है, वह कर्मरज को खिरा देता है।</span> भ.आ./मू./१८५४/१६६४ <span class="PrakritGatha">तवसा चेव ण मोक्खो संवरहीणस्स होइ जिणवयणे। ण हु सोत्ते पविसंते किसिणं परिसुस्सदि तलायं।१८५४।</span> =<span class="HindiText">जो मुनि संवर रहित है, केवल तपश्चरण से ही उसके कर्म का नाश नहीं हो सकता है, ऐसा जिनवचन में कहा है। यदि जलप्रवाह आता ही रहेगा तो तालाब कब सूखेगा ? (यो.सा./६/६) विशेष– देखें - [[ निर्जरा#3.1 | निर्जरा / ३ / १ ]]।</span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> संवर सहित ही यथार्थ निर्जरा होती है उससे रहित नहीं</strong></span><br>पं.का./मू./१४५ <span class="PrakritText">जो संवरेण जुत्तो अप्पट्ठपसाधगो हि अप्पाणं। मुणिऊण झादि णियदं णाणं सो संधुणोदि कम्मरयं।</span> =<span class="HindiText">संवर से युक्त ऐसा जो जीव, वास्तव में आत्मप्रसाधक वर्तता हुआ, आत्मा का अनुभव करके ज्ञान को निश्चल रूप से ध्याता है, वह कर्मरज को खिरा देता है।</span> भ.आ./मू./१८५४/१६६४ <span class="PrakritGatha">तवसा चेव ण मोक्खो संवरहीणस्स होइ जिणवयणे। ण हु सोत्ते पविसंते किसिणं परिसुस्सदि तलायं।१८५४।</span> =<span class="HindiText">जो मुनि संवर रहित है, केवल तपश्चरण से ही उसके कर्म का नाश नहीं हो सकता है, ऐसा जिनवचन में कहा है। यदि जलप्रवाह आता ही रहेगा तो तालाब कब सूखेगा ? (यो.सा./६/६) विशेष– देखें - [[ निर्जरा#3.1 | निर्जरा / ३ / १ ]]।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> निर्जरा सम्बन्धी नियम व | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> निर्जरा सम्बन्धी नियम व शंकाएँ</strong> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> ज्ञानी को ही निर्जरा होती है, ऐसा क्यों</strong></span><br>द्र.सं./टी./३६/१५२/१ <span class="SanskritText">अत्राह शिष्य:–सविपाकनिर्जरा नरकादि गतिष्वज्ञानिनामपि दृश्यते संज्ञानिनामेवेति नियमो नास्ति। तत्रोत्तरम् –अत्रैव मोक्षकारणं या संवरपूर्विका निर्जरा सैव ग्राह्या। या पुनरज्ञानिनां निर्जरा सा गजस्नानवन्निष्फला। यत: स्तोकं कर्म निर्जरयति बहुतरं बध्नाति तेन कारणेन सा न ग्राह्या। या तु सरागसद्दृष्टानां निर्जरा सा यद्यप्यशुभकर्मविनाशं करोति तथापि संसारस्थितिं स्तोकं कुरुते। तद्भवे तीर्थकरप्रकृत्यादि विशिष्टपुण्यबन्धकारणं भवति पारम्पर्येण मुक्तिकारणं चेति। वीतरागसद्दृष्टीनां पुन: पुण्यपापद्वयविनाशे तद्भवेऽपि मुक्तिकारणमिति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जो सविपाक निर्जरा है वह तो नरक आदि गतियों में अज्ञानियों के भी होती हुई देखी जाती है। इसलिए सम्यग्ज्ञानियों के ही निर्जरा होती है, ऐसा नियम क्यों ? <strong>उत्तर</strong> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> ज्ञानी को ही निर्जरा होती है, ऐसा क्यों</strong></span><br>द्र.सं./टी./३६/१५२/१ <span class="SanskritText">अत्राह शिष्य:–सविपाकनिर्जरा नरकादि गतिष्वज्ञानिनामपि दृश्यते संज्ञानिनामेवेति नियमो नास्ति। तत्रोत्तरम् –अत्रैव मोक्षकारणं या संवरपूर्विका निर्जरा सैव ग्राह्या। या पुनरज्ञानिनां निर्जरा सा गजस्नानवन्निष्फला। यत: स्तोकं कर्म निर्जरयति बहुतरं बध्नाति तेन कारणेन सा न ग्राह्या। या तु सरागसद्दृष्टानां निर्जरा सा यद्यप्यशुभकर्मविनाशं करोति तथापि संसारस्थितिं स्तोकं कुरुते। तद्भवे तीर्थकरप्रकृत्यादि विशिष्टपुण्यबन्धकारणं भवति पारम्पर्येण मुक्तिकारणं चेति। वीतरागसद्दृष्टीनां पुन: पुण्यपापद्वयविनाशे तद्भवेऽपि मुक्तिकारणमिति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जो सविपाक निर्जरा है वह तो नरक आदि गतियों में अज्ञानियों के भी होती हुई देखी जाती है। इसलिए सम्यग्ज्ञानियों के ही निर्जरा होती है, ऐसा नियम क्यों ? <strong>उत्तर</strong>–यहाँ जो संवर पूर्वक निर्जरा होती है उसी को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, वही मोक्षकारण है। और जो अज्ञानियों के निर्जरा होती है वह तो गजस्नान के समान निष्फल है। क्योंकि अज्ञानी जीव थोड़े कर्मों की तो निर्जरा करता है और बहुत से कर्मों को बाँधता है। इस कारण अज्ञानियों की सविपाक निर्जरा का यहाँ ग्रहण नहीं करना चाहिए। तथा (ज्ञानी जीवों में भी) जो सरागसम्यग्दृष्टियों के निर्जरा है, वह यद्यपि अशुभ कर्मों का नाश करती है, शुभ कर्मों का नाश नहीं करती है, ( देखें - [[ संवर#2.4 | संवर / २ / ४ ]]) फिर भी संसार की स्थिति को थोड़ा करती है, और उसी भव में तीर्थंकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्यबन्ध का कारण हो जाती है। वह परम्परा मोक्ष का कारण है। वीतराग सम्यग्दृष्टियों के पुण्य तथा पाप दोनों का नाश होने पर उसी भव में वह अविपाक निर्जरा मोक्ष का कारण हो जाती है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> प्रदेश गलना से स्थिति व अनुभाग नहीं गलते</strong></span><br>ध.१२/४,२,१३,१६२/४३१/१२ <span class="PrakritText">खवगसेडीए पत्तघादस्स भावस्स कधमणंतगुणत्तं। ण, आउअस्स खवगसेडीए पदेसस्स गुणसेडिणिज्जराभावो व टि्ठदि-अणुभागाणं घादाभावादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–क्षपक श्रेणी में घात को प्राप्त हुआ (कर्म का) अनुभाग अनन्तगुणा कैसे हो सकता है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, क्षपकश्रेणी में आयुकर्म के प्रदेश की गुणश्रेणी निर्जरा के अभाव के समान स्थिति व अनुभाग के घात का अभाव है।</span> क.पा./५/४-२२/५७२/३३७/११<span class="PrakritText"> टि्ठदीए इव पदेसगलणाए अणुभागघादो णत्थि त्ति।</span> =<span class="HindiText">प्रदेशों के गलने से, जैसे स्थितिघात होता है वैसे अनुभाग का घात नहीं होता। (और भी देखें - [[ अनुभाग#2.5 | अनुभाग / २ / ५ ]])।</span></li> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> प्रदेश गलना से स्थिति व अनुभाग नहीं गलते</strong></span><br>ध.१२/४,२,१३,१६२/४३१/१२ <span class="PrakritText">खवगसेडीए पत्तघादस्स भावस्स कधमणंतगुणत्तं। ण, आउअस्स खवगसेडीए पदेसस्स गुणसेडिणिज्जराभावो व टि्ठदि-अणुभागाणं घादाभावादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–क्षपक श्रेणी में घात को प्राप्त हुआ (कर्म का) अनुभाग अनन्तगुणा कैसे हो सकता है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, क्षपकश्रेणी में आयुकर्म के प्रदेश की गुणश्रेणी निर्जरा के अभाव के समान स्थिति व अनुभाग के घात का अभाव है।</span> क.पा./५/४-२२/५७२/३३७/११<span class="PrakritText"> टि्ठदीए इव पदेसगलणाए अणुभागघादो णत्थि त्ति।</span> =<span class="HindiText">प्रदेशों के गलने से, जैसे स्थितिघात होता है वैसे अनुभाग का घात नहीं होता। (और भी देखें - [[ अनुभाग#2.5 | अनुभाग / २ / ५ ]])।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> अन्य सम्बन्धित विषय</strong> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> अन्य सम्बन्धित विषय</strong> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञानी व अज्ञानी की कर्म क्षपणा में अन्तर– देखें - [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि / ४ ]]।</li> | <li class="HindiText"> ज्ञानी व अज्ञानी की कर्म क्षपणा में अन्तर– देखें - [[ मिथ्यादृष्टि#4 | मिथ्यादृष्टि / ४ ]]।</li> | ||
<li class="HindiText"> अविरत सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में निर्जरा का अल्पबहुत्व तथा तद्गत | <li class="HindiText"> अविरत सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में निर्जरा का अल्पबहुत्व तथा तद्गत शंकाएँ।–देखें - [[ अल्पबहुत्व | अल्पबहुत्व। ]]</li> | ||
<li class="HindiText"> संयतासंयत की अपेक्षा संयत की निर्जरा अधिक क्यों ? – देखें - [[ अल्पबहुत्व#1.3 | अल्पबहुत्व / १ / ३ ]]।</li> | <li class="HindiText"> संयतासंयत की अपेक्षा संयत की निर्जरा अधिक क्यों ? – देखें - [[ अल्पबहुत्व#1.3 | अल्पबहुत्व / १ / ३ ]]।</li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> पाँचों शरीरों के स्कन्धों की निर्जरा के जघन्योत्कृष्ट स्वामित्व सम्बन्धी प्ररूपणा।–देखें - [[ ष | ष ]].ख.९/४,१/सूत्र ६९-७१/३२६-३५४। </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> पाँचों शरीरों की जघन्योत्कृष्ट परिशातन कृति सम्बन्धी प्ररूपणाएँ।–देखें - [[ ध | ध ]].९/४,१,७१/३२९-४३८।६</li> | ||
<li class="HindiText"> कर्मों की निर्जरा अवधि व मन:पर्यय ज्ञानियों के प्रत्यक्ष है।– देखें - [[ स्वाध्याय#1 | स्वाध्याय / १ ]]। </li> | <li class="HindiText"> कर्मों की निर्जरा अवधि व मन:पर्यय ज्ञानियों के प्रत्यक्ष है।– देखें - [[ स्वाध्याय#1 | स्वाध्याय / १ ]]। </li> | ||
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Revision as of 22:20, 1 March 2015
कर्मों के झड़ने का नाम निर्जरा है। वह दो प्रकार की है–सविपाक व अविपाक। अपने समय स्वयं कर्मों का उदय में आ आकर झड़ते रहना सविपाक तथा तप द्वारा समय से पहले ही उनका झड़ना अविपाक निर्जरा है। तिनमें सविपाक सभी जीवों को सदा निरन्तर होती रहती है, पर अविपाक निर्जरा केवल तपस्वियों को ही होती है। वह भी मिथ्या व सम्यक् दो प्रकार की है। इच्छा निरोध के बिना केवल बाह्य तप द्वारा की गयी मिथ्या व साम्यता की वृद्धि सहित कायक्लेशादि द्वारा की गयी सम्यक् है। पहली में नवीन कर्मों का आगमन रूप संवर नहीं रुक पाता और दूसरी में रुक जाता है। इसलिए मोक्षमार्ग में केवल यह अन्तिम सम्यक् अविपाक निर्जरा का ही निर्देश होता है पहली सविपाक या मिथ्या अविपाक का नहीं।
- निर्जरा के भेद व लक्षण
- निर्जरा सामान्य का लक्षण
भ.आ./मू./१८४७/१६५९ पुव्वकदकम्मसडणं तु णिज्जरा। =पूर्वबद्ध कर्मों का झड़ना निर्जरा है।
वा.अ./६६ बंधपदेशग्गलणं णिज्जरणं। =आत्मप्रदेशों के साथ कर्मप्रदेशों का उस आत्मा के प्रदेशों से झड़ना निर्जरा है। (न.च.वृ./१५७); (भ.आ./वि./१८४७/१६५९/९)। स.सि./१/४/१४/५ एकदेशकर्मसंक्षयलक्षणा निर्जरा। =एकदेश रूप से कर्मों का जुदा होना निर्जरा है। (रा.वा./१/४/१९/२७/७); (भ.आ./वि./१८४७/१६५९/१०); (द्र.सं./टी./२८/८५/१३); (पं.का./ता.वृ./१४४/२०९/१७)।
स.सि./८/२३/३९९/६ पीडानुग्रहावात्मने प्रदायाम्यवहृतौदनादिविकारवत्पूर्वस्थितिक्षयादवस्थानाभावात्कर्मणो निवृत्तिर्निर्जरा। =जिस प्रकार भात आदि का मल निवृत्त होकर निर्जीर्ण हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा का भला बुरा करके पूर्व प्राप्त स्थिति का नाश हो जाने के कारण कर्म की निवृत्ति का होना निर्जरा है। (रा.वा./८/२३/१/५८३/३०)। रा.वा./१/सूत्र/वार्तिक/पृष्ठ/पंक्ति–निर्जीर्यते निरस्यते यथा निरसनमात्रं वा निर्जरा।(४/१२/२७)। निर्जरेव निर्जरा। क: उपमार्थ:। यथा मन्त्रौषधबलान्निर्जीर्णवीर्यविपाकं विषं न दोषप्रदं तथा ...तपोविशेषेण निर्जीणरसं कर्म न संसारफलप्रदम् । (४/१९/२७/८)। यथाविपाकात्तपसो वा उपभुक्तवीर्यं कर्म निर्जरा। (७/१४/४०/१७)। =- जिनसे कर्म झड़ें (ऐसे जीव के परिणाम) अथवा जो कर्म झड़ें वे निर्जरा हैं। (भ.आ./वि./३८/१३४/१६)
- निर्जरा की भाँति निर्जरा है। जिस प्रकार मन्त्र या औषध आदि से नि:शक्ति किया हुआ विष, दोष उत्पन्न नहीं करता; उसी प्रकार तप आदि से नीरस किये गये और नि:शक्ति हुए कर्म संसारचक्र को नहीं चला सकते।
- यथाकाल या तपोविशेष से कर्मों की फलदानशक्ति को नष्ट कर उन्हें झड़ा देना निर्जरा है। (द्र.सं./मू./३६/१५०)।
का.अ./मू./१०३ सव्वेसिं कम्माणं सत्तिविवाओ हवेइ अणुभाओ। तदणंतरं तु सडणं कम्माणं णिज्जरा जाण।१०३। =सब कर्मों की शक्ति के उदय होने को अनुभाग कहते हैं। उसके पश्चात् कर्मों के खिरने को निर्जरा कहते हैं।
- निर्जरा के भेद
भ.आ./मू./१८४७-१८४८/१६५९ सा पुणो हवेइ दुविहा। पढमा विवागजादा विदिया अविवागजाया य ।१८४७। तहकालेण तवेण य पच्चंति कदाणि कम्माणि।१८४८। =- वह दो प्रकार की होती है–विपाकज व अविपाकज। (स.सि./८/२३/३९९/८); (रा.वा./१/४/१९/२७/९; १/७/१४/४०/१८; ८/२३/२/५८४/१); (न.च.वृ./१५७); (त.सा./७/२)
- अथवा वह दो प्रकार की है–स्वकालपक्व और तपद्वारा कर्मों को पकाकर की गयी। (बा.अ./६७); (त.सू./८/२१-२३+९/३); (द्र.सं./मू./३६/१५०); (का.अ./मू./१०४)। रा.वा./१/७/१४/४०/१९ सामान्यादेका निर्जरा, द्विविधा यथाकालौपक्रमिकभेदात्, अष्टधा मूलकर्मप्रकृतिभेदात् । एवं संख्येयासंख्येयानन्तविकल्पा भवति कर्मरसनिर्हरणभेदात् । =सामान्य से निर्जरा एक प्रकार की है। यथाकाल व औपक्रमिक के भेद से दो प्रकार की है। मूल कर्मप्रकृतियों की दृष्टि से आठ प्रकार की है। इसी प्रकार कर्मों के रस को क्षीण करने के विभिन्न प्रकारों की अपेक्षा संख्यात असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं।
द्र.सं./टी./३६/१५०,१५१ भाव निर्जरा...द्रव्यनिर्जरा। =भाव निर्जरा व द्रव्यनिर्जरा के भेद से दो प्रकार हैं।
- सविपाक व अविपाक निर्जरा के लक्षण
स.सि./८/२३/३९९/९ क्रमेण परिपाककालप्राप्तस्यानुभवोदयावलिस्रोतोऽनुप्रविष्टस्यारब्धफलस्य या निवृत्ति: सा विपाकजा निजरा। यत्कर्माप्राप्तविपाककालमौपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यानुदीर्णंबलादुदीर्णोदयावलिं प्रवेश्य वेद्यते आम्रपनसादिपाकवत् सा अविपाकजा निर्जरा। चशब्दो निमित्तान्तरसमुच्चयार्थ:। =क्रम से परिपाककाल को प्राप्त हुए और अनुभवरूपी उदयावली के स्रोत में प्रविष्ट हुए ऐसे शुभाशुभ कर्म की फल देकर जो निवृत्ति होती है वह विपाकजा निर्जरा है। तथा आम और पनस (कटहल) को औपक्रमिक क्रिया विशेष के द्वारा जिस प्रकार अकाल में पका लेते हैं; उसी प्रकार जिसका विपाककाल अभी नहीं प्राप्त हुआ है तथा जो उदयावली से बाहर स्थित है, ऐसे कर्म को (तपादि) औपक्रमिक क्रिया विशेष की सामर्थ्य से उदयावली में प्रविष्ट कराके अनुभव किया जाता है। वह अविपाकजा निर्जरा है। सूत्र में च शब्द अन्य निमित्त का समुच्चय कराने के लिए दिया है। अर्थात् विपाक द्वारा भी निर्जरा होती है और तप द्वारा भी (रा.वा./८/२३/२/५८४/३); (भ.आ./वि./१८४९/१६६०/२०); (न.च.वृ./१५८) (त.सा./७/३-५); (द्र.सं./टी./३६/१५१/३)। स.सि./९/७/४१७/९ निर्जरा वेदनाविपाक इत्युक्तम् । सा द्वेधा–अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला चेति। तत्र नरकादिषु गतिषु कर्मफलविपाकजा अबुद्धिपूर्वा सा अकुशलानुबन्धा। परिषहजये कृते कुशलमूला। सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति। =वेदना विपाक का नाम निर्जरा है। वह दो प्रकार की है–अबुद्धिपूर्वा और कुशलमूला। नरकादि गतियों में कर्मफल के विपाक से जायमान जो अबुद्धिपूर्वा निर्जरा होती है वह अकुशलानुबन्धा है। तथा परिषह के जीतने पर जो निर्जरा होती है वह कुशलमूला निर्जरा है। वह भी शुभानुबन्धा और निरनुबन्धा के भेद से दो प्रकार की होती है। - द्रव्य भाव निर्जरा के लक्षण
द्र.सं./टी./३६/१५०/१० भावनिर्जरा। सा का। ...येन भावेन जीवपरिणामेन। किं भवति ‘सडदि’ विशीयते पतति गलति वियति। किं कर्तृ ‘कम्मपुग्गलं’ ...कर्म्मणो गलनं यच्च सा द्रव्यनिर्जरा। =जीव के जिन शुद्ध परिणामों से पुद्गल कर्म झड़ते हैं वे जीव के परिणाम भाव निर्जरा हैं और जो कर्म झड़ते हैं वह द्रव्य निर्जरा है।
पं.का./ता.वृ./१४४/२०९/१६ कर्मशक्तिनिर्मूलनसमर्थ: शुद्धोपयोगो भावनिर्जरा तस्य शुद्धोपयोगेन सामर्थ्येन नीरसीभूतानां पूर्वोपार्जितकर्मपुद्गलानां संवरपूर्वकभावेनैकदेशसंक्षयो द्रव्यनिर्जरेति सूत्रार्थ:।१४४। =कर्मशक्ति के निर्मूलन में समर्थ जीव का शुद्धोपयोग तो भाव निर्जरा है। उस शुद्धोपयोग की सामर्थ्य नीरसीभूत पूर्वोपार्जित कर्मपुद्गलों का संवरपूर्वकभाव से एकदेश क्षय होना द्रव्यनिर्जरा है। - अकाम निर्जरा का लक्षण
स.सि./६/२०/३३५/१० अकामनिर्जरा अकामश्चारकनिरोधबन्धनबद्धेषु क्षुत्तृष्णानिरोधब्रह्मचर्यभूशय्यामलधारणपरितापादि:। अकामेन निर्जरा अकामनिर्जरा। =चारक में रोक रखने पर या रस्सी, आदिसे बाँध रखने पर जो भूख-प्यास सहनी पड़ती है, ब्रह्मचर्य पालना पड़ता है, भूमि पर सोना पड़ता है, मल-मूत्र को रोकना पड़ता है और सन्ताप आदि होता है, ये सब अकाम हैं और इससे जो निर्जरा होती है वह अकामनिर्जरा है। (रा.वा./६/२०/१/५२७/१९) रा.वा./६/१२/७/५२२/२८ विषयानर्थनिवृत्तिं चात्माभिप्रायेणाकुर्वत: पारतन्त्र्याद्भोगोपभोगनिरोधोऽकामनिर्जरा। =अपने अभिप्राय से न किया गया भी विषयों की निवृत्ति या त्याग तथा परतन्त्रता के कारण भोग-उपभोग का निरोध होने पर उसे शान्ति से सह जाना अकाम निर्जरा है। (गो.क./जी.प्र./५४८/७१७/२३)
- गुणश्रेणी निर्जरा— देखें - संक्रमण / ८ ।
- काण्डक घात— देखें - अपकर्षण / ४ ।
- निर्जरा सामान्य का लक्षण
- निर्जरा निर्देश
- सविपाक व अविपाक में अन्तर
भ.आ./मू./१८४९/१६६० सव्वेसिं उदयसमागदस्स कम्मस्स णिज्जरा होइ। कम्मस्स तवेण पुणो सव्वस्स वि णिज्जरा होइ। =- सविपाक निर्जरा तो केवल सर्व उदयागत कर्मों की ही होती है, परन्तु तप के द्वारा अर्थात् अविपाक निर्जरा सर्व कर्म की अर्थात् पक्व व अपक्व सभी कर्मों की होती है। (यो.सा./अ./६/२-३); ( देखें - निर्जरा / १ / ३ )। बा.अ./६७ चादुगदीणं पढमा वयजुत्ताणं हवे विदिया।६७। =
- चतुर्गति के सर्व ही जीवों की पहिली अर्थात् सविपाक निर्जरा होती है, और सम्यग्दृष्टि व्रतधारियों की दूसरी अर्थात् अविपाक निर्जरा होती है। (त.सा./७/६); (और भी देखें - मिथ्यादृष्टि / ४ निर्जरा/३/१)
देखें - निर्जरा / १ / ३ - सविपाक निर्जरा अकुशलानुबन्धा है और अविपाक निर्जरा कुशलमूला है। तहाँ भी मिथ्यादृष्टियों की अविपाक निर्जरा इच्छा निरोध न होने के कारण शुभानुबन्धा है और सम्यग्दृष्टियों की अविपाक निर्जरा इच्छा निरोध होने के कारण निरबनुबन्धा है। देखें - निर्जरा / ३ / १ / ४ , अविपाक निर्जरा ही मोक्ष की कारण है सविपाक निर्जरा नहीं।
- निश्चय धर्म व चारित्र आदि में निर्जरा का कारणपना–दे०वह वह नाम।
- व्यवहार धर्म आदि में कथंचित् निर्जरा का कारणपना– देखें - धर्म / ७ / ९ ।
- व्यवहार धर्म में बन्ध के साथ निर्जरा का अंश– देखें - संवर / २ ।
- व्यवहार समिति आदि से केवल पाप की निर्जरा होती है पुण्य की नहीं– देखें - संवर / २ ।
- कर्मों की निर्जरा क्रमपूर्वक ही होती है
ध.१३/५,४,२४/५२/५ जणि तिणसंतकम्मं पदमाणं तो अक्कमेण णिवददे। ण, दोत्तडीणं व वज्झकम्मक्खंधपदणमवेक्खिय णिवदंताणमक्कमेण पदणविरोहादो। =प्रश्न–यदि जिन भगवान् के सत्कर्म का पतन हो रहा है, तो उसका युगपत् पतन क्यों नहीं होता ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, पुष्ट नदियों के समान बँधे हुए कर्मस्कन्धों के पतन को देखते हुए पतन को प्राप्त होने वाले उनका अक्रम से पतन मानने में विरोध आता है। - निर्जरा में तप की प्रधानता
भ.आ./मू./१८४६/१६५८ तवसा विणा ण मोक्खो संवरमित्तेण होइ कम्मस्स। उवभोगादीहिं विणा धणं ण हु खीयदि सुगुत्तं।१८४६। =तप के बिना, केवल कर्म के संवर से मोक्ष नहीं होता है। जिस धन का संरक्षण किया है वह धन यदि उपभोग में नहीं लिया तो समाप्त नहीं होगा। इसलिए कर्म की निर्जरा होने के लिए तप करना चाहिए। मू.आ./२४२ जमजोगे जुत्तो जो तवसा चेट्ठदे अणेगविधं। सो कम्मणिज्जराए विउलाए वट्टदे जीवो।२४२। =इन्द्रियादि संयम व योग से सहित भी जो मनुष्य अनेक भेदरूप तप में वर्तता है, वह जीव बहुत से कर्मों की निर्जरा करता है।
रा.वा./८/२३/७/५८४/२५ पर उद्धृत–कायमणोवचिगुत्तो जो तवसा चेट्टदे अणेयविहं। सो कम्मणिज्जराए विपुलए वट्टदे मणुस्सो त्ति। =काय, मन और वचन गुप्ति से युक्त होकर जो अनेक प्रकार के तप करता है वह मनुष्य विपुल कर्म निर्जरा को करता है। नोट–निश्चय व व्यवहारचारित्रादि द्वारा कर्मों की निर्जरा का निर्देश–( देखें - चारित्र / २ / २ ;धर्म/७/९;धर्मध्यान/६/३)। - निर्जरा व संवर का सामानाधिकरण्य
त.सू./९/३ तपसा निर्जराश्च।३। =तप के द्वारा संवर व निर्जरा दोनों होते हैं।
बा.अ./६६ जेण हवे संवरणं तेण दु णिज्जरणमिदि जाणे।६६। =जिन परिणामों से संवर होता है, उनसे ही निर्जरा भी होती है। स.सि./९/३/४१०/६ तपो धर्मेऽन्तर्भूतमपि पृथगुच्यते उभयसाधनत्वख्यापनार्थं संवरं प्रति प्राधान्यप्रतिपादनार्थं च।=तप का धर्म में (१० धर्मों में) अन्तर्भाव होता है, फिर भी संवर और निर्जरा इन दोनों का कारण है, और संवर का प्रमुख कारण है, यह बताने के लिए उसका अलग से कथन किया है। (रा.वा./९/३/१-२/५९२/२७)।
प.प्र./मू./२/३८ अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्पसरूवि णिलीणु। संवर णिज्जर जाणि तुहुं सयल वियप्प विहीणु।३८। =मुनिराज जब तक आत्मस्वरूप में लीन हुआ ठहरता है, तब तक सकल विकल्प समूह से रहित उसको तू संवर व निर्जरा स्वरूप जान। (और भी देखें - चारित्र / २ / २ ; धर्म/७/९; धर्मध्याना०६/३ आदि)। - संवर सहित ही यथार्थ निर्जरा होती है उससे रहित नहीं
पं.का./मू./१४५ जो संवरेण जुत्तो अप्पट्ठपसाधगो हि अप्पाणं। मुणिऊण झादि णियदं णाणं सो संधुणोदि कम्मरयं। =संवर से युक्त ऐसा जो जीव, वास्तव में आत्मप्रसाधक वर्तता हुआ, आत्मा का अनुभव करके ज्ञान को निश्चल रूप से ध्याता है, वह कर्मरज को खिरा देता है। भ.आ./मू./१८५४/१६६४ तवसा चेव ण मोक्खो संवरहीणस्स होइ जिणवयणे। ण हु सोत्ते पविसंते किसिणं परिसुस्सदि तलायं।१८५४। =जो मुनि संवर रहित है, केवल तपश्चरण से ही उसके कर्म का नाश नहीं हो सकता है, ऐसा जिनवचन में कहा है। यदि जलप्रवाह आता ही रहेगा तो तालाब कब सूखेगा ? (यो.सा./६/६) विशेष– देखें - निर्जरा / ३ / १ ।
- मोक्षमार्ग में संवरयुक्त अविपाक निर्जरा ही इष्ट है, सविपाक नहीं– देखें - निर्जरा / ३ / १ ।
- सम्यग्दृष्टि को ही यथार्थ निर्जरा होती है– देखें - निर्जरा / २ / १ ;३/१।
- सविपाक व अविपाक में अन्तर
- निर्जरा सम्बन्धी नियम व शंकाएँ
- ज्ञानी को ही निर्जरा होती है, ऐसा क्यों
द्र.सं./टी./३६/१५२/१ अत्राह शिष्य:–सविपाकनिर्जरा नरकादि गतिष्वज्ञानिनामपि दृश्यते संज्ञानिनामेवेति नियमो नास्ति। तत्रोत्तरम् –अत्रैव मोक्षकारणं या संवरपूर्विका निर्जरा सैव ग्राह्या। या पुनरज्ञानिनां निर्जरा सा गजस्नानवन्निष्फला। यत: स्तोकं कर्म निर्जरयति बहुतरं बध्नाति तेन कारणेन सा न ग्राह्या। या तु सरागसद्दृष्टानां निर्जरा सा यद्यप्यशुभकर्मविनाशं करोति तथापि संसारस्थितिं स्तोकं कुरुते। तद्भवे तीर्थकरप्रकृत्यादि विशिष्टपुण्यबन्धकारणं भवति पारम्पर्येण मुक्तिकारणं चेति। वीतरागसद्दृष्टीनां पुन: पुण्यपापद्वयविनाशे तद्भवेऽपि मुक्तिकारणमिति। =प्रश्न–जो सविपाक निर्जरा है वह तो नरक आदि गतियों में अज्ञानियों के भी होती हुई देखी जाती है। इसलिए सम्यग्ज्ञानियों के ही निर्जरा होती है, ऐसा नियम क्यों ? उत्तर–यहाँ जो संवर पूर्वक निर्जरा होती है उसी को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, वही मोक्षकारण है। और जो अज्ञानियों के निर्जरा होती है वह तो गजस्नान के समान निष्फल है। क्योंकि अज्ञानी जीव थोड़े कर्मों की तो निर्जरा करता है और बहुत से कर्मों को बाँधता है। इस कारण अज्ञानियों की सविपाक निर्जरा का यहाँ ग्रहण नहीं करना चाहिए। तथा (ज्ञानी जीवों में भी) जो सरागसम्यग्दृष्टियों के निर्जरा है, वह यद्यपि अशुभ कर्मों का नाश करती है, शुभ कर्मों का नाश नहीं करती है, ( देखें - संवर / २ / ४ ) फिर भी संसार की स्थिति को थोड़ा करती है, और उसी भव में तीर्थंकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्यबन्ध का कारण हो जाती है। वह परम्परा मोक्ष का कारण है। वीतराग सम्यग्दृष्टियों के पुण्य तथा पाप दोनों का नाश होने पर उसी भव में वह अविपाक निर्जरा मोक्ष का कारण हो जाती है। - प्रदेश गलना से स्थिति व अनुभाग नहीं गलते
ध.१२/४,२,१३,१६२/४३१/१२ खवगसेडीए पत्तघादस्स भावस्स कधमणंतगुणत्तं। ण, आउअस्स खवगसेडीए पदेसस्स गुणसेडिणिज्जराभावो व टि्ठदि-अणुभागाणं घादाभावादो। =प्रश्न–क्षपक श्रेणी में घात को प्राप्त हुआ (कर्म का) अनुभाग अनन्तगुणा कैसे हो सकता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, क्षपकश्रेणी में आयुकर्म के प्रदेश की गुणश्रेणी निर्जरा के अभाव के समान स्थिति व अनुभाग के घात का अभाव है। क.पा./५/४-२२/५७२/३३७/११ टि्ठदीए इव पदेसगलणाए अणुभागघादो णत्थि त्ति। =प्रदेशों के गलने से, जैसे स्थितिघात होता है वैसे अनुभाग का घात नहीं होता। (और भी देखें - अनुभाग / २ / ५ )। - अन्य सम्बन्धित विषय
- ज्ञानी व अज्ञानी की कर्म क्षपणा में अन्तर– देखें - मिथ्यादृष्टि / ४ ।
- अविरत सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में निर्जरा का अल्पबहुत्व तथा तद्गत शंकाएँ।–देखें - अल्पबहुत्व।
- संयतासंयत की अपेक्षा संयत की निर्जरा अधिक क्यों ? – देखें - अल्पबहुत्व / १ / ३ ।
- पाँचों शरीरों के स्कन्धों की निर्जरा के जघन्योत्कृष्ट स्वामित्व सम्बन्धी प्ररूपणा।–देखें - ष .ख.९/४,१/सूत्र ६९-७१/३२६-३५४।
- पाँचों शरीरों की जघन्योत्कृष्ट परिशातन कृति सम्बन्धी प्ररूपणाएँ।–देखें - ध .९/४,१,७१/३२९-४३८।६
- कर्मों की निर्जरा अवधि व मन:पर्यय ज्ञानियों के प्रत्यक्ष है।– देखें - स्वाध्याय / १ ।
- ज्ञानी को ही निर्जरा होती है, ऐसा क्यों