निर्यापक: Difference between revisions
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<li><strong class="HindiText" | <li><strong class="HindiText" name="1" id="1">सल्लेखना की अपेक्षा निर्यापक का स्वरूप </strong><br>भ.आ./मू./गा.<span class="PrakritGatha">संविग्गवज्जभीरुस्स पादमूलम्मि तस्सविहरंतो। जिणवयणसव्वसारस्स होदि आराधओ तादी।४००। पंचच्छसत्तजोयणसदाणि तत्तोऽहियाणि वा गंतुं। णिज्जावगण्णेसदि समाधिकामो अणुण्णादं।४०१। आयारत्थो पुण से दोसे सव्वे वि ते विवज्जेदि। तम्हा आयारत्थो णिज्जवओ होदि आयरिओ।४२७। जह पक्खुभिदुम्मीए पोदं रदणभरिदं समुद्दम्मि। णिज्जवओ घारेदि हु जिदकरणो बुद्धिसंपण्णो।५०३। तह संजमगुणभरिदं परिस्सहुम्मीहिं सुभिदमाइद्धं। णिज्जवओ धारेदि हु मुहुरिहिं हिदोवदेसेहिं।५०४। इय णिव्वओ खवयस्स होइ णिज्जावओ सदाचरिओ।५०६। इय अट्ठगुणोवेदो कसिणं आराधणं उवविधेदि।५०७। एदारिसमि थेरे असदि गणत्थे तहा उवज्झाए। होदि पवत्ती थेरो गणधरवसहो य जदणाए।६२९। जो जारिसओ कालो भरदेरवदेसु होइ वासेसु। ते तारिसया तदिया वोद्दालीसं पि णिज्जवया।६७१। </span>=<span class="HindiText">साधु संघ में उत्कृष्ट निर्यापकाचार्य का स्वरूप जो संसार से भय युक्त है, जो पापकर्मभीरु है, और जिसको जिनागम का सर्वस्वरूप मालूम है, ऐसे आचार्य के चरणमूल में वहयति समाधिमरणोद्यमी होकर आराधना की सिद्धि करता है।४००। जिसको समाधिमरण की इच्छा है ऐसा मुनि ५००, ६००, ७०० योजन अथवा उससे भी अधिक योजन तक विहार कर शास्त्रोक्त निर्यापक का शोध करे।४०१। आचारवत्त्व गुण को धारण करने वाले आचार्य सर्व दोषों का त्याग करते हैं। इसलिए गुणों में प्रवृत्त होने वाले दोषों से रहित ऐसे आचार्य निर्यापक होने लायक जानने चाहिए।४२७। (विशेष देखें - [[ आचार्य#1.2 | आचार्य / १ / २ ]]में आचार्य के ३६ गुण) जिस प्रकार नौका चलाने में अभ्यस्त बुद्धिमान् नाविक, तरंगों द्वारा अत्यन्त क्षुभित समुद्र में रत्नों से भरी हुई, नौका की डूबने से रक्षा करता है।५०३। उसी प्रकार संयम गुणों से पूर्ण यह क्षपकनौका प्यास आदिरूप तरंगों से क्षुब्ध होकर तिरछी हो रही है। ऐसे समय में निर्यापकाचार्य मधुर हितोपदेश के द्वारा उसको धारण करते हैं, अर्थात् उसका सरंक्षण करते हैं।५०४। इस प्रकार से क्षपक का मन आह्लादित करने वाले आचार्य निर्यापक हो सकते हैं। अर्थात् निर्यापकत्व गुणधारक आचार्य क्षपक का समाधिमरण साध सकते हैं।५०६। इस प्रकार आचारवत्त्व आदि आठ गुणों से पूर्ण आचार्य का ( देखें - [[ आचार्य#1.2 | आचार्य / १ / २ ]]) आश्रय करने से क्षपक को चार प्रकार की आराधना प्राप्त होती है।५०७। अल्प गुणधारी भी निर्यापक सम्भव है–उपरोक्त सर्व आचारवत्त्व आदि गुणों के धारक यदि आचार्य या उपाध्याय प्राप्त न हो तो प्रवर्तक मुनि अथवा अनुभवी वृद्ध मुनि वा बालाचार्य यत्न से व्रतों में प्रवृत्ति करते हुए क्षपक का समाधिमरण साधने के लिए निर्यापकाचार्य हो सकते हैं६२९। जैसे गुण ऊपर वर्णन कर आये हैं ऐसे ही मुनि निर्यापक होते हैं, ऐसा नहीं समझना चाहिए। परन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र में विचित्र काल का परावर्तन हुआ करता है इसलिए कालानुसार प्राणियों के गुणों में भी जघन्य मध्यमता व उत्कृष्टता आती है। जिस समय जैसे शोभन गुणों का सम्भव रहता है, उस समय वैसे गुणधारक मुनि निर्यापक व परिचारक समझकर ग्रहण करना चाहिए।६७१। </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> सल्लेखना में निर्यापक का स्थान–( | <li><span class="HindiText"><strong> सल्लेखना में निर्यापक का स्थान–( देखें - [[ सल्लेखना#5 | सल्लेखना / ५ ]])।</strong> </span></li> | ||
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Revision as of 22:20, 1 March 2015
- सल्लेखना की अपेक्षा निर्यापक का स्वरूप
भ.आ./मू./गा.संविग्गवज्जभीरुस्स पादमूलम्मि तस्सविहरंतो। जिणवयणसव्वसारस्स होदि आराधओ तादी।४००। पंचच्छसत्तजोयणसदाणि तत्तोऽहियाणि वा गंतुं। णिज्जावगण्णेसदि समाधिकामो अणुण्णादं।४०१। आयारत्थो पुण से दोसे सव्वे वि ते विवज्जेदि। तम्हा आयारत्थो णिज्जवओ होदि आयरिओ।४२७। जह पक्खुभिदुम्मीए पोदं रदणभरिदं समुद्दम्मि। णिज्जवओ घारेदि हु जिदकरणो बुद्धिसंपण्णो।५०३। तह संजमगुणभरिदं परिस्सहुम्मीहिं सुभिदमाइद्धं। णिज्जवओ धारेदि हु मुहुरिहिं हिदोवदेसेहिं।५०४। इय णिव्वओ खवयस्स होइ णिज्जावओ सदाचरिओ।५०६। इय अट्ठगुणोवेदो कसिणं आराधणं उवविधेदि।५०७। एदारिसमि थेरे असदि गणत्थे तहा उवज्झाए। होदि पवत्ती थेरो गणधरवसहो य जदणाए।६२९। जो जारिसओ कालो भरदेरवदेसु होइ वासेसु। ते तारिसया तदिया वोद्दालीसं पि णिज्जवया।६७१। =साधु संघ में उत्कृष्ट निर्यापकाचार्य का स्वरूप जो संसार से भय युक्त है, जो पापकर्मभीरु है, और जिसको जिनागम का सर्वस्वरूप मालूम है, ऐसे आचार्य के चरणमूल में वहयति समाधिमरणोद्यमी होकर आराधना की सिद्धि करता है।४००। जिसको समाधिमरण की इच्छा है ऐसा मुनि ५००, ६००, ७०० योजन अथवा उससे भी अधिक योजन तक विहार कर शास्त्रोक्त निर्यापक का शोध करे।४०१। आचारवत्त्व गुण को धारण करने वाले आचार्य सर्व दोषों का त्याग करते हैं। इसलिए गुणों में प्रवृत्त होने वाले दोषों से रहित ऐसे आचार्य निर्यापक होने लायक जानने चाहिए।४२७। (विशेष देखें - आचार्य / १ / २ में आचार्य के ३६ गुण) जिस प्रकार नौका चलाने में अभ्यस्त बुद्धिमान् नाविक, तरंगों द्वारा अत्यन्त क्षुभित समुद्र में रत्नों से भरी हुई, नौका की डूबने से रक्षा करता है।५०३। उसी प्रकार संयम गुणों से पूर्ण यह क्षपकनौका प्यास आदिरूप तरंगों से क्षुब्ध होकर तिरछी हो रही है। ऐसे समय में निर्यापकाचार्य मधुर हितोपदेश के द्वारा उसको धारण करते हैं, अर्थात् उसका सरंक्षण करते हैं।५०४। इस प्रकार से क्षपक का मन आह्लादित करने वाले आचार्य निर्यापक हो सकते हैं। अर्थात् निर्यापकत्व गुणधारक आचार्य क्षपक का समाधिमरण साध सकते हैं।५०६। इस प्रकार आचारवत्त्व आदि आठ गुणों से पूर्ण आचार्य का ( देखें - आचार्य / १ / २ ) आश्रय करने से क्षपक को चार प्रकार की आराधना प्राप्त होती है।५०७। अल्प गुणधारी भी निर्यापक सम्भव है–उपरोक्त सर्व आचारवत्त्व आदि गुणों के धारक यदि आचार्य या उपाध्याय प्राप्त न हो तो प्रवर्तक मुनि अथवा अनुभवी वृद्ध मुनि वा बालाचार्य यत्न से व्रतों में प्रवृत्ति करते हुए क्षपक का समाधिमरण साधने के लिए निर्यापकाचार्य हो सकते हैं६२९। जैसे गुण ऊपर वर्णन कर आये हैं ऐसे ही मुनि निर्यापक होते हैं, ऐसा नहीं समझना चाहिए। परन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र में विचित्र काल का परावर्तन हुआ करता है इसलिए कालानुसार प्राणियों के गुणों में भी जघन्य मध्यमता व उत्कृष्टता आती है। जिस समय जैसे शोभन गुणों का सम्भव रहता है, उस समय वैसे गुणधारक मुनि निर्यापक व परिचारक समझकर ग्रहण करना चाहिए।६७१।
- सल्लेखना में निर्यापक का स्थान–( देखें - सल्लेखना / ५ )।
- छेदोपस्थापना की अपेक्षा निर्यापक निर्देश
प्र.सा./त.प्र./२१० यतो लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन य: किलाचार्य प्रव्रज्यादायक: स गुरु:, य: पुनरनन्तरं सविकल्पच्छेदोपस्थापनसंयमप्रतिपादकत्वेन छेदं प्रत्युपस्थापक: स निर्यापक:, योऽपि छिन्नसंयमप्रतिसंधानविधानप्रतिपादकत्वेन छेदे सत्युपस्थापक: सोऽपि निर्यापक एव। ततश्छेदोपस्थापक: परोऽप्यस्ति।=जो आचार्य लिंगग्रहण के समय निर्विकल्प सामायिकसंयम के प्रतिपादक होने से प्रव्रज्यादायक हैं वे गुरु हैं; और तत्पश्चात् तत्काल ही जो (आचार्य) सविकल्प छेदोपस्थापना संयम के प्रतिपादक होने से छेद के प्रति उपस्थापक (भेद में स्थापन करने वाले) हैं वे निर्यापक हैं। उसी प्रकार जो छिन्न संयम के प्रतिसन्धानों की विधि के प्रतिपादक होने से छेद होने पर उपस्थापक (पुन: स्थापित करने वाले) हैं, वे भी निर्यापक हैं। इसलिए छेदोपस्थापक पर भी होते हैं। (यो.सा./अ./८/९)