संग्रहनय निर्देश: Difference between revisions
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<li> <span class="HindiText" | <li> <span class="HindiText" name="III.4" id="III.4">संग्रहनय निर्देश<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" | <li> <span class="HindiText" name="III.4.1" id="III.4.1">संग्रह नय का लक्षण</span><br /> | ||
स.सि./१/३३/१४१/८ <span class="SanskritText">स्वजात्यविरोधेनैकत्वमुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषण समस्तग्रहणात्संग्रह:।</span> =<span class="HindiText">भेद सहित सब पर्यायों या विशेषों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करने वाला नय संग्रहनय है। (रा.वा.१/३३/५/९५/२६); (श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.४९/२४०); (ह.पु./५८/४४); (न.च./श्रुत/पृ.१३); (त.सा./१/४५)।</span><br /> | स.सि./१/३३/१४१/८ <span class="SanskritText">स्वजात्यविरोधेनैकत्वमुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषण समस्तग्रहणात्संग्रह:।</span> =<span class="HindiText">भेद सहित सब पर्यायों या विशेषों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करने वाला नय संग्रहनय है। (रा.वा.१/३३/५/९५/२६); (श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.४९/२४०); (ह.पु./५८/४४); (न.च./श्रुत/पृ.१३); (त.सा./१/४५)।</span><br /> | ||
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.५०/२४०<span class="SanskritText"> सममेकीभावसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते। निरुक्त्या लक्षणं तस्य तथा सति विभाव्यते।</span>=<span class="HindiText">सम्पूर्ण पदार्थों का एकीकरण और समीचीनपन इन दो अर्थों में ‘सम’ शब्द वर्तता है। उस पर से ही ‘संग्रह’ शब्द का निरुक्त्यर्थ विचारा जाता है, कि समस्त पदार्थों को सम्यक् प्रकार एकीकरण करके जो अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह संग्रहनय है।</span><br /> | श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.५०/२४०<span class="SanskritText"> सममेकीभावसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते। निरुक्त्या लक्षणं तस्य तथा सति विभाव्यते।</span>=<span class="HindiText">सम्पूर्ण पदार्थों का एकीकरण और समीचीनपन इन दो अर्थों में ‘सम’ शब्द वर्तता है। उस पर से ही ‘संग्रह’ शब्द का निरुक्त्यर्थ विचारा जाता है, कि समस्त पदार्थों को सम्यक् प्रकार एकीकरण करके जो अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह संग्रहनय है।</span><br /> | ||
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स्या.म./२८/३११/७ <span class="SanskritText">संग्रहस्तु अशेषविशेषतिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया विश्वमुपादत्ते।</span>=<span class="HindiText">विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य से जानने को संग्रह नय कहते हैं। (स्या.म./२८/३१७/६)।<br /> | स्या.म./२८/३११/७ <span class="SanskritText">संग्रहस्तु अशेषविशेषतिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया विश्वमुपादत्ते।</span>=<span class="HindiText">विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य से जानने को संग्रह नय कहते हैं। (स्या.म./२८/३१७/६)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="III.4.2" id="III.4.2"> संग्रह नय के उदाहरण</span><br /> | ||
स.सि./१/३३/१४१/९ <span class="SanskritText">सत् द्रव्यं, घट इत्यादि। सदित्युक्ते सदिति वाग्विज्ञानानुप्रवृत्तिलिङ्गानुमितसत्ताधारभूतानामविशेषेण सर्वेषां संग्रह:। द्रव्यमित्युक्तेऽपि द्रवति गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्युपलक्षितानां जीवाजीवतद्भेदप्रभेदानां संग्रह:। तथा ‘घट’ इत्युक्तेऽपि घटबुद्ध्यभिधानानुगमलिङ्गानुमितसकलार्थसंग्रह:। एवंप्रकारोऽन्योऽपि संग्रहनयस्य विषय:। </span>=<span class="HindiText">यथा‒ सत्, द्रव्य और घट आदि। ‘सत्’ ऐसा कहने पर ‘सत्’ इस प्रकार के वचन और विज्ञान की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित सत्ता के आधारभूत पदार्थों का सामान्यरूप से संग्रह हो जाता है। ‘द्रव्य’ ऐसा कहने पर भी ‘उन-उन पर्यायों को द्रवता है अर्थात् प्राप्त होता है’ इस प्रकार इस व्युत्पत्ति से युक्त जीव, अजीव और उनके सब भेद-प्रभेदों का संग्रह हो जाता है। तथा ‘घट’ ऐसा कहने पर भी ‘घट’ इस प्रकार की बुद्धि और ‘घट’ इस प्रकार के शब्द की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित (मृद्घट सुवर्णघट आदि) सब घट पदार्थों का संग्रह हो जाता है। इस प्रकार अन्य भी संग्रहनय का विषय समझ लेना। (रा.वा./१/३३/५/९५/३०)।</span><br /> | स.सि./१/३३/१४१/९ <span class="SanskritText">सत् द्रव्यं, घट इत्यादि। सदित्युक्ते सदिति वाग्विज्ञानानुप्रवृत्तिलिङ्गानुमितसत्ताधारभूतानामविशेषेण सर्वेषां संग्रह:। द्रव्यमित्युक्तेऽपि द्रवति गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्युपलक्षितानां जीवाजीवतद्भेदप्रभेदानां संग्रह:। तथा ‘घट’ इत्युक्तेऽपि घटबुद्ध्यभिधानानुगमलिङ्गानुमितसकलार्थसंग्रह:। एवंप्रकारोऽन्योऽपि संग्रहनयस्य विषय:। </span>=<span class="HindiText">यथा‒ सत्, द्रव्य और घट आदि। ‘सत्’ ऐसा कहने पर ‘सत्’ इस प्रकार के वचन और विज्ञान की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित सत्ता के आधारभूत पदार्थों का सामान्यरूप से संग्रह हो जाता है। ‘द्रव्य’ ऐसा कहने पर भी ‘उन-उन पर्यायों को द्रवता है अर्थात् प्राप्त होता है’ इस प्रकार इस व्युत्पत्ति से युक्त जीव, अजीव और उनके सब भेद-प्रभेदों का संग्रह हो जाता है। तथा ‘घट’ ऐसा कहने पर भी ‘घट’ इस प्रकार की बुद्धि और ‘घट’ इस प्रकार के शब्द की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित (मृद्घट सुवर्णघट आदि) सब घट पदार्थों का संग्रह हो जाता है। इस प्रकार अन्य भी संग्रहनय का विषय समझ लेना। (रा.वा./१/३३/५/९५/३०)।</span><br /> | ||
स्या.म./२८/३१५/ में उद्धृत श्लोक नं.२ <span class="SanskritGatha">सद्रूपतानतिक्रान्तं स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्वं संगृह्णन् संग्रहो मत:।२। </span>=<span class="HindiText">अस्तित्वधर्म को न छोड़कर सम्पूर्ण पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में अवस्थित है। इसलिए सम्पूर्ण पदार्थों के सामान्यरूप से ज्ञान करने को संग्रहनय कहते हैं। (रा.वा./४/४२/१७/२६१/४)।<br /> | स्या.म./२८/३१५/ में उद्धृत श्लोक नं.२ <span class="SanskritGatha">सद्रूपतानतिक्रान्तं स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्वं संगृह्णन् संग्रहो मत:।२। </span>=<span class="HindiText">अस्तित्वधर्म को न छोड़कर सम्पूर्ण पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में अवस्थित है। इसलिए सम्पूर्ण पदार्थों के सामान्यरूप से ज्ञान करने को संग्रहनय कहते हैं। (रा.वा./४/४२/१७/२६१/४)।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" | <li> <span class="HindiText" name="III.4.3" id="III.4.3">संग्रहनय के भेद <br /> | ||
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.५१,५५/२४० (दो प्रकार के संग्रह नय के लक्षण किये हैं‒पर संग्रह और अपर संग्रह)। (स्या.म./२८/३१७/७)।</span><br /> | श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.५१,५५/२४० (दो प्रकार के संग्रह नय के लक्षण किये हैं‒पर संग्रह और अपर संग्रह)। (स्या.म./२८/३१७/७)।</span><br /> | ||
आ.प./५ <span class="SanskritText">संग्रहो द्विविध:। सामान्यसंग्रहो...विशेषसंग्रहो।</span>=<span class="HindiText">संग्रह दो प्रकार का है‒सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह। (न.च./श्रुत/पृ.१३)।</span><br /> | आ.प./५ <span class="SanskritText">संग्रहो द्विविध:। सामान्यसंग्रहो...विशेषसंग्रहो।</span>=<span class="HindiText">संग्रह दो प्रकार का है‒सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह। (न.च./श्रुत/पृ.१३)।</span><br /> | ||
न.च.वृ./१८६,२०९ <span class="SanskritText">दुविहं पुण संगहं तत्थ।१८६। सुद्धसंगहेण...।२०९।</span>=<span class="HindiText">संग्रहनय दो प्रकार का है‒शुद्ध संग्रह और अशुद्धसंग्रह। नोट‒पर, सामान्य व शुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं और अपर, विशेष व अशुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं।<br /> | न.च.वृ./१८६,२०९ <span class="SanskritText">दुविहं पुण संगहं तत्थ।१८६। सुद्धसंगहेण...।२०९।</span>=<span class="HindiText">संग्रहनय दो प्रकार का है‒शुद्ध संग्रह और अशुद्धसंग्रह। नोट‒पर, सामान्य व शुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं और अपर, विशेष व अशुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" | <li> <span class="HindiText" name="III.4.4" id="III.4.4">पर अपर तथा सामान्य व विशेष संग्रहनय के लक्षण व उदाहरण </span><br /> | ||
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.५१,५५,५६ <span class="SanskritGatha">शुद्धद्रव्यमभिप्रैति सन्मात्रं संग्रह: पर:। स चाशेषविशेषेषु सदौदासीन्यभागिह।५१। द्रव्यत्वं सकलद्रव्यव्याप्यभिप्रैति चापर:। पर्यायत्वं च नि:शेषपर्यायव्यापिसंग्रह:।५५। तथैवावान्तरान् भेदान् संगृह्यैकत्वतो बहु:। वर्ततेयं नय: सम्यक् प्रतिपक्षानिराकृते:।५६।</span>=<span class="HindiText">सम्पूर्ण जीवादि विशेष पदार्थों में उदासीनता धारण करके जो सबको ‘सत्’ है ऐसा एकपने रूप से (अर्थात् महासत्ता मात्र को) ग्रहण करता है वह पर संग्रह (शुद्ध संग्रह) है।५१। अपने से प्रतिकूल पक्ष का निराकरण न करते हुए जो परसंग्रह के व्याप्य–भूत सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायों को द्रव्यत्व व पर्यायत्वरूप सामान्य धर्मों द्वारा, और इसी प्रकार उनके भी व्याप्यभूत अवान्तर भेदों का एकपने से संग्रह करता है वह अपर संग्रह नय है (जैसे नारक मनुष्यादिकों का एक ‘जीव’ शब्द द्वारा; और ‘खट्टा’, ‘मीठा’ आदिका एक ‘रस’ शब्द ग्रहण करना‒); (न.च.वृ./२०९); (स्या.म./२८/३१७/७)।</span><br /> | श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.५१,५५,५६ <span class="SanskritGatha">शुद्धद्रव्यमभिप्रैति सन्मात्रं संग्रह: पर:। स चाशेषविशेषेषु सदौदासीन्यभागिह।५१। द्रव्यत्वं सकलद्रव्यव्याप्यभिप्रैति चापर:। पर्यायत्वं च नि:शेषपर्यायव्यापिसंग्रह:।५५। तथैवावान्तरान् भेदान् संगृह्यैकत्वतो बहु:। वर्ततेयं नय: सम्यक् प्रतिपक्षानिराकृते:।५६।</span>=<span class="HindiText">सम्पूर्ण जीवादि विशेष पदार्थों में उदासीनता धारण करके जो सबको ‘सत्’ है ऐसा एकपने रूप से (अर्थात् महासत्ता मात्र को) ग्रहण करता है वह पर संग्रह (शुद्ध संग्रह) है।५१। अपने से प्रतिकूल पक्ष का निराकरण न करते हुए जो परसंग्रह के व्याप्य–भूत सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायों को द्रव्यत्व व पर्यायत्वरूप सामान्य धर्मों द्वारा, और इसी प्रकार उनके भी व्याप्यभूत अवान्तर भेदों का एकपने से संग्रह करता है वह अपर संग्रह नय है (जैसे नारक मनुष्यादिकों का एक ‘जीव’ शब्द द्वारा; और ‘खट्टा’, ‘मीठा’ आदिका एक ‘रस’ शब्द ग्रहण करना‒); (न.च.वृ./२०९); (स्या.म./२८/३१७/७)।</span><br /> | ||
न.च./श्रुत/पृ.१३ <span class="SanskritText">परस्पराविरोधेन समस्तपदार्थसंग्रहैकवचनप्रयोगचातुर्येण कथ्यमानं सर्वं सदित्येतत् सेना वनं नगरमित्येतत् प्रभृत्यनेकजातिनिश्चयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं सामान्यसंग्रहनय: जीवनिचयाजीवनिचयहस्तिनिचयतुरगनिचयरथनिचयपदातिनिचय इति निम्बुजंबीरजंबूमाकंदनालिकेरनिचय इति। द्विजवर, वणिग्वर, तलवराद्यष्टादशश्रेणीनिचय इत्यादि दृष्टान्तै: प्रत्येकजातिनिचयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं विशेषसंग्रहनय:। तथा चोक्त‒‘यदन्योऽन्याविरोधेन सर्वं सर्वस्य वक्ति य:। सामान्यसंग्रह: प्रोक्तचैकजातिविशेषक:।’</span> =<span class="HindiText">परस्पर अविरोधरूप से सम्पूर्ण पदार्थों के संग्रहरूप एकवचन के प्रयोग के चातुर्य से कहा जाने वाला ‘सर्व सत् स्वरूप है’, इस प्रकार सेना-समूह, वन, नगर वगैरह को आदि लेकर अनेक जाति के समूह को एकवचनरूप से स्वीकार करके, कथन करने को सामान्य संग्रह नय कहते हैं। जीवसमूह, अजीवसमूह; हाथियों का झुण्ड, घोड़ों का झुण्ड, रथों का समूह, पियादे सिपाहियों का समूह; निंबू, जामुन, आम, वा नारियल का समूह, इसी प्रकार द्विजवर, वणिक्श्रेष्ठ, कोटपाल वगैरह अठारह श्रेणि का समूह इत्यादिक दृष्टान्तों के द्वारा प्रत्येक जाति के समूह को नियम से एकवचन के द्वारा स्वीकार करके कथन करने को विशेष संग्रह नय कहते हैं। कहा भी है‒ <br /> | न.च./श्रुत/पृ.१३ <span class="SanskritText">परस्पराविरोधेन समस्तपदार्थसंग्रहैकवचनप्रयोगचातुर्येण कथ्यमानं सर्वं सदित्येतत् सेना वनं नगरमित्येतत् प्रभृत्यनेकजातिनिश्चयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं सामान्यसंग्रहनय: जीवनिचयाजीवनिचयहस्तिनिचयतुरगनिचयरथनिचयपदातिनिचय इति निम्बुजंबीरजंबूमाकंदनालिकेरनिचय इति। द्विजवर, वणिग्वर, तलवराद्यष्टादशश्रेणीनिचय इत्यादि दृष्टान्तै: प्रत्येकजातिनिचयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं विशेषसंग्रहनय:। तथा चोक्त‒‘यदन्योऽन्याविरोधेन सर्वं सर्वस्य वक्ति य:। सामान्यसंग्रह: प्रोक्तचैकजातिविशेषक:।’</span> =<span class="HindiText">परस्पर अविरोधरूप से सम्पूर्ण पदार्थों के संग्रहरूप एकवचन के प्रयोग के चातुर्य से कहा जाने वाला ‘सर्व सत् स्वरूप है’, इस प्रकार सेना-समूह, वन, नगर वगैरह को आदि लेकर अनेक जाति के समूह को एकवचनरूप से स्वीकार करके, कथन करने को सामान्य संग्रह नय कहते हैं। जीवसमूह, अजीवसमूह; हाथियों का झुण्ड, घोड़ों का झुण्ड, रथों का समूह, पियादे सिपाहियों का समूह; निंबू, जामुन, आम, वा नारियल का समूह, इसी प्रकार द्विजवर, वणिक्श्रेष्ठ, कोटपाल वगैरह अठारह श्रेणि का समूह इत्यादिक दृष्टान्तों के द्वारा प्रत्येक जाति के समूह को नियम से एकवचन के द्वारा स्वीकार करके कथन करने को विशेष संग्रह नय कहते हैं। कहा भी है‒ <br /> | ||
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पं.का./ता.वृ./७१/१२३/१९ सर्वजीवसाधारणकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणसमूहेन शुद्धजीवजातिरूपेण संग्रहनयेनैकश्चैव महात्मा।=सर्व जीवसामान्य, केवलज्ञानादि अनन्तगुणसमूह के द्वारा शुद्ध जीव जातिरूप से देखे जायें तो संग्रहनय की अपेक्षा एक महात्मा ही दिखाई देता है।<br /> | पं.का./ता.वृ./७१/१२३/१९ सर्वजीवसाधारणकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणसमूहेन शुद्धजीवजातिरूपेण संग्रहनयेनैकश्चैव महात्मा।=सर्व जीवसामान्य, केवलज्ञानादि अनन्तगुणसमूह के द्वारा शुद्ध जीव जातिरूप से देखे जायें तो संग्रहनय की अपेक्षा एक महात्मा ही दिखाई देता है।<br /> | ||
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<li> <span class="HindiText" | <li> <span class="HindiText" name="III.4.5" id="III.4.5">संग्रहाभास के लक्षण व उदाहरण</span><br /> | ||
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.५२-५७ <span class="SanskritGatha">निराकृतविशेषस्तु सत्ताद्वैतपरायण:। तदाभास: समाख्यात: सद्भिर्दृष्टेष्टबाधनात् ।५२। अभिन्नं व्यक्तिभेदेभ्य: सर्वथां बहुधानकम् । महासामान्यमित्युक्ति: केषांचिद्दुर्नयस्तथा।५३। शब्दब्रह्मेति चान्येषां पुरुषाद्वैतमित्यपि। संवेदनाद्वयं चेति प्रायशोऽन्यत्र दर्शितम् ।५४। स्वव्यक्त्यात्मकतैकान्तस्तदाभासोऽप्यनेकधा। प्रतीतिबाधितो बोध्यो नि:शेषोऽप्यनया दिशा।५७।</span>=<span class="HindiText">सम्पूर्ण विशेषों का निराकरण करते हुए जो सत्ताद्वैतवादियों का ‘केवल सत् है,’ अन्य कुछ नहीं, ऐसा कहना; अथवा सांख्य मत का अहंकार तन्मात्रा आदि से सर्वथा अभिन्न प्रधान नामक महासामान्य है’ ऐसा कहना; अथवा शब्दाद्वैतवादी वैयाकरणियों का केवल शब्द है’, पुरुषाद्वैतवादियों का ‘केवल ब्रह्म है’, संविदाद्वैतवादी बौद्धों का ‘केवल संवेदन है’ ऐसा कहना, सब परसंग्रहाभास है। (स्या.म./२८/३१६/९ तथा ३१७/९)। अपनी व्यक्ति व जाति से सर्वथा एकात्मकपने का एकान्त करना अपर संग्रहाभास है, क्योंकि वह प्रतीतियों से बाधित है।</span><br /> | श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.५२-५७ <span class="SanskritGatha">निराकृतविशेषस्तु सत्ताद्वैतपरायण:। तदाभास: समाख्यात: सद्भिर्दृष्टेष्टबाधनात् ।५२। अभिन्नं व्यक्तिभेदेभ्य: सर्वथां बहुधानकम् । महासामान्यमित्युक्ति: केषांचिद्दुर्नयस्तथा।५३। शब्दब्रह्मेति चान्येषां पुरुषाद्वैतमित्यपि। संवेदनाद्वयं चेति प्रायशोऽन्यत्र दर्शितम् ।५४। स्वव्यक्त्यात्मकतैकान्तस्तदाभासोऽप्यनेकधा। प्रतीतिबाधितो बोध्यो नि:शेषोऽप्यनया दिशा।५७।</span>=<span class="HindiText">सम्पूर्ण विशेषों का निराकरण करते हुए जो सत्ताद्वैतवादियों का ‘केवल सत् है,’ अन्य कुछ नहीं, ऐसा कहना; अथवा सांख्य मत का अहंकार तन्मात्रा आदि से सर्वथा अभिन्न प्रधान नामक महासामान्य है’ ऐसा कहना; अथवा शब्दाद्वैतवादी वैयाकरणियों का केवल शब्द है’, पुरुषाद्वैतवादियों का ‘केवल ब्रह्म है’, संविदाद्वैतवादी बौद्धों का ‘केवल संवेदन है’ ऐसा कहना, सब परसंग्रहाभास है। (स्या.म./२८/३१६/९ तथा ३१७/९)। अपनी व्यक्ति व जाति से सर्वथा एकात्मकपने का एकान्त करना अपर संग्रहाभास है, क्योंकि वह प्रतीतियों से बाधित है।</span><br /> | ||
स्या.म./२८/३१७/१२ <span class="SanskritText">तद्द्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्विशेषान्निह्नुवानस्तदाभास:।</span>=<span class="HindiText">धर्म अधर्म आदिकों को केवल द्रव्यत्व रूप से स्वीकार करके उनके विशेषों के निषेध करने को अपर संग्रहाभास कहते हैं।<br /> | स्या.म./२८/३१७/१२ <span class="SanskritText">तद्द्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्विशेषान्निह्नुवानस्तदाभास:।</span>=<span class="HindiText">धर्म अधर्म आदिकों को केवल द्रव्यत्व रूप से स्वीकार करके उनके विशेषों के निषेध करने को अपर संग्रहाभास कहते हैं।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" | <li><span class="HindiText" name="III.4.6" id="III.4.6"> संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक नय है </span><br /> | ||
ध.१/१,१,१/गा.६/१२ <span class="PrakritText">दव्वटि्ठय-णय-पवई सुद्धा संगह परूवणा विसयो। </span>=<span class="HindiText">संग्रहनय की प्ररूपणा को विषय करना द्रव्यार्थिक नय की शुद्ध प्रकृति है। (श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.३७/२३६); (क.पा.१/१३-१४/गा.८९/२२०); (विशेष दे०/नय/IV/१)।<br /> | ध.१/१,१,१/गा.६/१२ <span class="PrakritText">दव्वटि्ठय-णय-पवई सुद्धा संगह परूवणा विसयो। </span>=<span class="HindiText">संग्रहनय की प्ररूपणा को विषय करना द्रव्यार्थिक नय की शुद्ध प्रकृति है। (श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.३७/२३६); (क.पा.१/१३-१४/गा.८९/२२०); (विशेष दे०/नय/IV/१)।<br /> | ||
और भी देखें - [[ नय#III.1.1 | नय / III / १ / १ ]]-२ यह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> | और भी देखें - [[ नय#III.1.1 | नय / III / १ / १ ]]-२ यह द्रव्यार्थिकनय है।<br /> |
Revision as of 23:20, 1 March 2015
- संग्रह नय का लक्षण
स.सि./१/३३/१४१/८ स्वजात्यविरोधेनैकत्वमुपानीय पर्यायानाक्रान्तभेदानविशेषण समस्तग्रहणात्संग्रह:। =भेद सहित सब पर्यायों या विशेषों को अपनी जाति के अविरोध द्वारा एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करने वाला नय संग्रहनय है। (रा.वा.१/३३/५/९५/२६); (श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.४९/२४०); (ह.पु./५८/४४); (न.च./श्रुत/पृ.१३); (त.सा./१/४५)।
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.५०/२४० सममेकीभावसम्यक्त्वे वर्तमानो हि गृह्यते। निरुक्त्या लक्षणं तस्य तथा सति विभाव्यते।=सम्पूर्ण पदार्थों का एकीकरण और समीचीनपन इन दो अर्थों में ‘सम’ शब्द वर्तता है। उस पर से ही ‘संग्रह’ शब्द का निरुक्त्यर्थ विचारा जाता है, कि समस्त पदार्थों को सम्यक् प्रकार एकीकरण करके जो अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह संग्रहनय है।
ध.९/४,१,४५/१७०/५ सत्तादिना य: सर्वस्य पर्यायकलङ्कभावेन अद्वैतमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिक: स: संग्रह:।=जो सत्ता आदि की अपेक्षा से पर्यायरूप कलंक का अभाव होने के कारण सबकी एकता को विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। (क.पा.१/१३-१४/१८२/२१९/१)।
ध.१३/५,५,७/१९९/२ व्यवहारमनपेक्ष्य सत्तादिरूपेण सकलवस्तुसंग्राहक: संग्रहनय:।=व्यवहार की अपेक्षा न करके जो सत्तादिरूप से सकल पदार्थों का संग्रह करता है वह संग्रहनय है। (ध.१/१,१,१/८४/३)।
आ.प./९ अभेदरूपतया वस्तुजातं संगृह्णातीति संग्रह:।=अभेद रूप से समस्त वस्तुओं को जो संग्रह करके, जो कथन करता है, वह संग्रह नय है।
का.अ./मू./२७२ जो संगहेदि सव्वं देसं वा विविहदव्वपज्जायं। अणुगमलिंगविसिट्ठं सो वि णओ संगहो होदि।२७२।=जो नय समस्त वस्तु का अथवा उसके देश का अनेक द्रव्यपर्यायसहित अन्वयलिंगविशिष्ट संग्रह करता है, उसे संग्रहनय कहते हैं।
स्या.म./२८/३११/७ संग्रहस्तु अशेषविशेषतिरोधानद्वारेण सामान्यरूपतया विश्वमुपादत्ते।=विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य से जानने को संग्रह नय कहते हैं। (स्या.म./२८/३१७/६)।
- संग्रह नय के उदाहरण
स.सि./१/३३/१४१/९ सत् द्रव्यं, घट इत्यादि। सदित्युक्ते सदिति वाग्विज्ञानानुप्रवृत्तिलिङ्गानुमितसत्ताधारभूतानामविशेषेण सर्वेषां संग्रह:। द्रव्यमित्युक्तेऽपि द्रवति गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्युपलक्षितानां जीवाजीवतद्भेदप्रभेदानां संग्रह:। तथा ‘घट’ इत्युक्तेऽपि घटबुद्ध्यभिधानानुगमलिङ्गानुमितसकलार्थसंग्रह:। एवंप्रकारोऽन्योऽपि संग्रहनयस्य विषय:। =यथा‒ सत्, द्रव्य और घट आदि। ‘सत्’ ऐसा कहने पर ‘सत्’ इस प्रकार के वचन और विज्ञान की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित सत्ता के आधारभूत पदार्थों का सामान्यरूप से संग्रह हो जाता है। ‘द्रव्य’ ऐसा कहने पर भी ‘उन-उन पर्यायों को द्रवता है अर्थात् प्राप्त होता है’ इस प्रकार इस व्युत्पत्ति से युक्त जीव, अजीव और उनके सब भेद-प्रभेदों का संग्रह हो जाता है। तथा ‘घट’ ऐसा कहने पर भी ‘घट’ इस प्रकार की बुद्धि और ‘घट’ इस प्रकार के शब्द की अनुवृत्तिरूप लिंग से अनुमित (मृद्घट सुवर्णघट आदि) सब घट पदार्थों का संग्रह हो जाता है। इस प्रकार अन्य भी संग्रहनय का विषय समझ लेना। (रा.वा./१/३३/५/९५/३०)।
स्या.म./२८/३१५/ में उद्धृत श्लोक नं.२ सद्रूपतानतिक्रान्तं स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्वं संगृह्णन् संग्रहो मत:।२। =अस्तित्वधर्म को न छोड़कर सम्पूर्ण पदार्थ अपने-अपने स्वभाव में अवस्थित है। इसलिए सम्पूर्ण पदार्थों के सामान्यरूप से ज्ञान करने को संग्रहनय कहते हैं। (रा.वा./४/४२/१७/२६१/४)।
- संग्रहनय के भेद
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.५१,५५/२४० (दो प्रकार के संग्रह नय के लक्षण किये हैं‒पर संग्रह और अपर संग्रह)। (स्या.म./२८/३१७/७)।
आ.प./५ संग्रहो द्विविध:। सामान्यसंग्रहो...विशेषसंग्रहो।=संग्रह दो प्रकार का है‒सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह। (न.च./श्रुत/पृ.१३)।
न.च.वृ./१८६,२०९ दुविहं पुण संगहं तत्थ।१८६। सुद्धसंगहेण...।२०९।=संग्रहनय दो प्रकार का है‒शुद्ध संग्रह और अशुद्धसंग्रह। नोट‒पर, सामान्य व शुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं और अपर, विशेष व अशुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं।
- पर अपर तथा सामान्य व विशेष संग्रहनय के लक्षण व उदाहरण
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.५१,५५,५६ शुद्धद्रव्यमभिप्रैति सन्मात्रं संग्रह: पर:। स चाशेषविशेषेषु सदौदासीन्यभागिह।५१। द्रव्यत्वं सकलद्रव्यव्याप्यभिप्रैति चापर:। पर्यायत्वं च नि:शेषपर्यायव्यापिसंग्रह:।५५। तथैवावान्तरान् भेदान् संगृह्यैकत्वतो बहु:। वर्ततेयं नय: सम्यक् प्रतिपक्षानिराकृते:।५६।=सम्पूर्ण जीवादि विशेष पदार्थों में उदासीनता धारण करके जो सबको ‘सत्’ है ऐसा एकपने रूप से (अर्थात् महासत्ता मात्र को) ग्रहण करता है वह पर संग्रह (शुद्ध संग्रह) है।५१। अपने से प्रतिकूल पक्ष का निराकरण न करते हुए जो परसंग्रह के व्याप्य–भूत सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायों को द्रव्यत्व व पर्यायत्वरूप सामान्य धर्मों द्वारा, और इसी प्रकार उनके भी व्याप्यभूत अवान्तर भेदों का एकपने से संग्रह करता है वह अपर संग्रह नय है (जैसे नारक मनुष्यादिकों का एक ‘जीव’ शब्द द्वारा; और ‘खट्टा’, ‘मीठा’ आदिका एक ‘रस’ शब्द ग्रहण करना‒); (न.च.वृ./२०९); (स्या.म./२८/३१७/७)।
न.च./श्रुत/पृ.१३ परस्पराविरोधेन समस्तपदार्थसंग्रहैकवचनप्रयोगचातुर्येण कथ्यमानं सर्वं सदित्येतत् सेना वनं नगरमित्येतत् प्रभृत्यनेकजातिनिश्चयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं सामान्यसंग्रहनय: जीवनिचयाजीवनिचयहस्तिनिचयतुरगनिचयरथनिचयपदातिनिचय इति निम्बुजंबीरजंबूमाकंदनालिकेरनिचय इति। द्विजवर, वणिग्वर, तलवराद्यष्टादशश्रेणीनिचय इत्यादि दृष्टान्तै: प्रत्येकजातिनिचयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं विशेषसंग्रहनय:। तथा चोक्त‒‘यदन्योऽन्याविरोधेन सर्वं सर्वस्य वक्ति य:। सामान्यसंग्रह: प्रोक्तचैकजातिविशेषक:।’ =परस्पर अविरोधरूप से सम्पूर्ण पदार्थों के संग्रहरूप एकवचन के प्रयोग के चातुर्य से कहा जाने वाला ‘सर्व सत् स्वरूप है’, इस प्रकार सेना-समूह, वन, नगर वगैरह को आदि लेकर अनेक जाति के समूह को एकवचनरूप से स्वीकार करके, कथन करने को सामान्य संग्रह नय कहते हैं। जीवसमूह, अजीवसमूह; हाथियों का झुण्ड, घोड़ों का झुण्ड, रथों का समूह, पियादे सिपाहियों का समूह; निंबू, जामुन, आम, वा नारियल का समूह, इसी प्रकार द्विजवर, वणिक्श्रेष्ठ, कोटपाल वगैरह अठारह श्रेणि का समूह इत्यादिक दृष्टान्तों के द्वारा प्रत्येक जाति के समूह को नियम से एकवचन के द्वारा स्वीकार करके कथन करने को विशेष संग्रह नय कहते हैं। कहा भी है‒
जो परस्पर अविरोधरूप से सबके सबको कहता है वह सामान्य संग्रहनय बतलाया गया है, और जो एक जातिविशेष का ग्राहक अभिप्रायवाला है वह विशेष संग्रहनय है।
ध.१२/४,२,९,११/२९९-३०० संगहणयस्स णाणावरणीयवेयणा जीवस्स। (मूल सू.११)।...एदं सुद्धसंगहणयवयणं, जीवाणं तेहिं सह णोजीवाणं च एयत्तब्भुवगमादो।...संपहि असुद्धसंगहविसए सामित्तपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि। ‘जीवाणं’ वा। (मू.सू.१२)। संगहिय णोजीव-जीवबहुत्तब्भुवगमादो। एदमसुद्धसंगहणयवयणं। =‘संग्रहनय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना जीव के होती है। सू.११।’’ यह कथन शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा है, क्योंकि जीवों के और उनके साथ नोजीवों की एकता स्वीकार की गयी है।...अथवा जीवों के होती है। सू.१२। कारण कि संग्रह अपेक्षा नोजीव और जीव बहुत स्वीकार किये गये हैं। यह अशुद्ध संग्रह नय की अपेक्षा कथन है।
पं.का./ता.वृ./७१/१२३/१९ सर्वजीवसाधारणकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणसमूहेन शुद्धजीवजातिरूपेण संग्रहनयेनैकश्चैव महात्मा।=सर्व जीवसामान्य, केवलज्ञानादि अनन्तगुणसमूह के द्वारा शुद्ध जीव जातिरूप से देखे जायें तो संग्रहनय की अपेक्षा एक महात्मा ही दिखाई देता है।
- संग्रहाभास के लक्षण व उदाहरण
श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.५२-५७ निराकृतविशेषस्तु सत्ताद्वैतपरायण:। तदाभास: समाख्यात: सद्भिर्दृष्टेष्टबाधनात् ।५२। अभिन्नं व्यक्तिभेदेभ्य: सर्वथां बहुधानकम् । महासामान्यमित्युक्ति: केषांचिद्दुर्नयस्तथा।५३। शब्दब्रह्मेति चान्येषां पुरुषाद्वैतमित्यपि। संवेदनाद्वयं चेति प्रायशोऽन्यत्र दर्शितम् ।५४। स्वव्यक्त्यात्मकतैकान्तस्तदाभासोऽप्यनेकधा। प्रतीतिबाधितो बोध्यो नि:शेषोऽप्यनया दिशा।५७।=सम्पूर्ण विशेषों का निराकरण करते हुए जो सत्ताद्वैतवादियों का ‘केवल सत् है,’ अन्य कुछ नहीं, ऐसा कहना; अथवा सांख्य मत का अहंकार तन्मात्रा आदि से सर्वथा अभिन्न प्रधान नामक महासामान्य है’ ऐसा कहना; अथवा शब्दाद्वैतवादी वैयाकरणियों का केवल शब्द है’, पुरुषाद्वैतवादियों का ‘केवल ब्रह्म है’, संविदाद्वैतवादी बौद्धों का ‘केवल संवेदन है’ ऐसा कहना, सब परसंग्रहाभास है। (स्या.म./२८/३१६/९ तथा ३१७/९)। अपनी व्यक्ति व जाति से सर्वथा एकात्मकपने का एकान्त करना अपर संग्रहाभास है, क्योंकि वह प्रतीतियों से बाधित है।
स्या.म./२८/३१७/१२ तद्द्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तद्विशेषान्निह्नुवानस्तदाभास:।=धर्म अधर्म आदिकों को केवल द्रव्यत्व रूप से स्वीकार करके उनके विशेषों के निषेध करने को अपर संग्रहाभास कहते हैं।
- संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक नय है
ध.१/१,१,१/गा.६/१२ दव्वटि्ठय-णय-पवई सुद्धा संगह परूवणा विसयो। =संग्रहनय की प्ररूपणा को विषय करना द्रव्यार्थिक नय की शुद्ध प्रकृति है। (श्लो.वा./४/१/३३/श्लो.३७/२३६); (क.पा.१/१३-१४/गा.८९/२२०); (विशेष दे०/नय/IV/१)।
और भी देखें - नय / III / १ / १ -२ यह द्रव्यार्थिकनय है।
- व्यवहारनय निर्देश—देखें - पृ / ०५५६