द्वादश चक्रवर्ती निर्देश: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 5,480: | Line 5,480: | ||
[[शलाका पुरुष सामान्य निर्देश | Previous Page]] | [[शलाका पुरुष सामान्य निर्देश | Previous Page]] | ||
[[नव बलदेव निर्देश | Next Page]] |
Revision as of 14:15, 25 April 2016
२. द्वादश चक्रवर्ती निर्देश
१. चक्रवर्ती का लक्षण
ति.प./१/४८ छक्खंड भरहणादो बत्तीससहस्समउडबद्धपहुदीओ। होदि हु सयलं चक्की तित्थयरो सयलभुवणवई।४८। =जो छह खण्डरूप भरतक्षेत्र का स्वामी हो और बत्तीस हज़ार मुकुट बद्ध राजाओं का तेजस्वी अधिपति हो वह सकल चक्री होता है।...।४८। (ध.१/१,१,१/गा.४३/५८) (त्रि.सा./६८५)
२. नाम व पूर्वभव परिचय
|
नाम |
पूर्व भव नं. २ |
पूर्वभव |
||
म.पु./सर्ग/श्लो. |
१.ति.प/४/५१५-५१६ २.त्रि.सा./८१५ ३.प.पु./२०/१२४-१९३ ४.ह.पु./६०/२८६-२८७ ५.म.पु./पूर्ववत् |
१. प.पु./२०/१२४-१९३ २. म.पु./पूर्ववत् |
१. प.पु./२०/१२४-१९३ २. म.पु./पूर्ववत् |
||
नाम राजा |
नगर |
दीक्षागुरु |
स्वर्ग |
||
|
भरत |
पीठ |
पुण्डरीकिणी |
कुशसेन |
सर्वार्थ सिद्धि २ अच्युत |
४८/६९-७८ |
सगर |
विजय २ जयसेन |
पृथिवीपुर |
यशोधर |
विजय वि. |
६१/९१-१०१ |
मघवा |
शशिप्रभ २ नरपति |
पुण्डरीकिणी |
विमल |
ग्रैवेयक |
६२/१०१/१०६ |
सनत्कुमार |
धर्मरुचि |
महापुरी |
सुप्रभ |
माहेन्द्र २ अच्युत |
६३/३८४ |
शान्ति* |
देखें - तीर्थंकर |
|||
६४/१२-२२ |
कुन्थु* |
देखें - तीर्थंकर |
|||
६५/१४-३० |
अर* |
देखें - तीर्थंकर |
|||
६५/५६ |
सुभौम |
कनकाभ २ भूपाल |
धान्यपुर |
विचित्रगुप्त २ सम्भूत |
जयन्त वि. २ महाशुक्र |
६६/७६-८० |
पद्म• |
चिन्त २ प्रजापाल |
वीतशोका २ श्रीपुर |
सुप्रभ २ शिवगुप्त |
ब्रह्मस्वर्ग २ अच्युत |
६७/६४-६५ |
हरिषेण |
महेन्द्रदत्त |
विजय |
नन्दन |
माहेन्द्र २ सनत्कुमार |
६९/७८-८० |
जयसेन ४ जय |
अमितांग २ वसुन्धर |
राजपुर २ श्रीपुर |
सुधर्ममित्र २ वररुचि |
ब्रह्मस्वर्ग २ महाशुक्र |
७२/२८७-२८८ |
ब्रह्मदत्त |
सम्भूत |
काशी |
स्वतन्त्रलिंग |
कमलगुल्म मि. |
*शान्ति कुन्थु और अर ये तीनों चक्रवर्ती भी थे और तीर्थंकर भी। •प्रमाण नं. २,३,४ के अनुसार इनका नाम महापद्म था। यह राजा पद्म उन्हीं विष्णुकुमार मुनि के बड़े भाई थे जिन्होंने ७५० मुनियों की राजा बलि कृत उपसर्ग से रक्षा की थी। |
३. वर्तमान भव में नगर व माता पिता
क्रम |
म.पु./सर्ग/श्लो. |
वर्तमान नगर |
वर्तमान पिता |
वर्तमान माता |
तीर्थंकर |
|||
१.प.पु./२०/१२५-१९३ २.म.पु./पूर्ववत् |
१.प.पु./२०/१२४-१९३ २.म.पु./पूर्ववत् |
१.प.पु./२०/१२४-१९३ २.म.पु./पूर्ववत् |
||||||
सामान्य |
विशेष |
सामान्य |
विशेष |
सामान्य |
विशेष |
|||
|
|
|
प.पु. |
|
प.पु. |
|
प.पु. |
देखें - तीर्थंकर |
१ |
|
अयोध्या |
|
ऋषभ |
|
यशस्वती |
मरुदेवी |
|
२ |
४८/६९-७८ |
अयोध्या |
|
विजय |
समुद्रविजय |
सुमंगला |
सुबाला |
|
३ |
६१/९१-१०१ |
श्रावस्ती |
अयोध्या |
सुमित्र |
|
भद्रवती |
भद्रा |
|
४ |
६१/१०४-१०६ |
हस्तिनापुर |
अयोध्या |
विजय |
अनंतवीर्य |
सहदेवी |
|
|
५ |
६३/३८४,४१३ |
― |
देखें - तीर्थंकर |
|
― |
|||
६ |
६४/१२-२२ |
― |
देखें - तीर्थंकर |
|
― |
|||
७ |
६५/१४-३० |
― |
देखें - तीर्थंकर |
|
― |
|||
८ |
६५/५६,१५२ |
दृशावती |
अयोध्या |
कीर्तिवीर्य |
सहस्रबाहु |
तारा |
चित्रमती |
|
९ |
६६/७६-८० |
हस्तिनापुर |
वाराणसी |
पद्मरथ |
पद्मनाभ |
मयूरी |
|
|
१० |
६७/६४-६५ |
काम्पिल्य |
भोगपुर |
पद्मनाभ |
हरिकेतु |
वप्रा |
एरा |
|
११ |
६९/७८-८० |
काम्पिल्य |
कौशाम्बी |
विजय |
|
यशोवती |
प्रभाकरी |
|
१२ |
७२/२८७-२८८ |
काम्पिल्य |
× |
ब्रह्मरथ |
ब्रह्मा |
चूला |
चूड़ादेवी |
४. वर्तमान भव शरीर परिचय
क्र. |
म.पु./सर्ग/श्लोक/सं. |
वर्ण |
संस्थान |
संहनन |
शरीरोत्सेध |
आयु |
||||||
|
ति.प./४/१३७१ |
१. ति.प./४/१२९२-१२९३ २. त्रि.सा./८१८-८१९ ३. ह.पु./६०/३०६-३०९ ४. म.पु./पूर्व शीर्षवत् |
१. ति.प./४/१२९५-१२९६ २. त्रि.सा./८१९-८२० ३. ह.पु./६०/४९४-५१६ ४. म.पु./पूर्व शीर्षवत् |
|||||||||
|
सामान्य |
प्रमाण नं. |
विशेष |
सामान्य |
प्रमाण नं. |
विशेष |
||||||
|
|
|
|
|
धनुष |
|
धनुष |
|
|
|
||
१ |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
५०० |
|
|
८४ लाख पूर्व |
|
|
||
२ |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
४५० |
|
|
७२ लाख पूर्व |
४ |
७० लाख पूर्व |
||
३ |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
|
|
५ लाख पूर्व |
|
|
|||
४ |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
४२ |
२ ४ |
३ लाख पूर्व |
|
|
|||
५ |
|
― |
― |
देखें - तीर्थं . |
|
(शान्ति) |
― |
― |
||||
६ |
|
― |
― |
देखें - तीर्थं . |
|
(कुन्थु) |
― |
― |
||||
७ |
|
― |
― |
देखें - तीर्थं . |
|
(अरह) |
― |
― |
||||
८ |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
२८ |
|
|
६०,००० वर्ष |
३ |
६८,००० वर्ष |
||
९ |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
२२ |
|
|
३०,००० वर्ष |
|
|
||
१० |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
२० |
४ |
२४ |
१०,००० वर्ष |
३ |
२६,००० वर्ष |
||
११ |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
१५ |
३ |
१४ |
३,००० वर्ष |
|
|
||
१२ |
|
स्वर्ण |
समचतुरस्र |
वज्रऋषभ नाराच |
७ |
४ |
६० |
७०० वर्ष |
|
|
५. कुमारकाल आदि परिचय
ला.=लाख; पू.=पूर्व
क्रम |
कुमार काल |
मंडलीक |
दिग्विजय |
राज्य काल |
संयम काल |
मर कर कहाँ गये |
||
ति.प./४/ १२९७-१२९९ ह.पु./६०/ ४९४-५१६ |
ति.प./४/ १३००-१३०२ ह.पु./६०/ ४९४-५१६ |
ति.प./४/ १३६८-१३६९ ह.पु./६०/ ४९४-५१६ |
ति.प./४/ १४०१-१४०५ ह.पु./६०/ ४९४-५१६ |
ति.प./४/ १४०७-१४०९ ह.पु./६०/ ४९४-५१६ |
१. ति.प./४/१४१० २. त्रि.सा./८२४ ३. प.पु./२०/१२४-१९३ ४. म.पु./देखें - शीर्षक सं .२ |
|||
सामान्य |
विशेष ह.पु. |
सामान्य |
विशेष म.पु. |
|||||
१ |
७७,००० वर्ष |
१,००० वर्ष |
६०,००० वर्ष |
६ लाख पूर्व ६१००० वर्ष |
६ लाख पूर्व १ पूर्व |
१ लाख पूर्व• |
मोक्ष |
|
२ |
५०,००० वर्ष |
५०,००० वर्ष |
३०,००० वर्ष |
७०लाख पूर्व ३०००० वर्ष |
६९७००००पूर्व +९९९९९ पूर्वांग+८३ लाख वर्ष |
१ लाख पूर्व |
|
|
३ |
२५,००० वर्ष |
२५,००० वर्ष |
१०,००० वर्ष |
३९००० वर्ष |
|
५०००० वर्ष |
सनत्कुमार स्वर्ग |
मोक्ष |
४ |
५०,००० वर्ष* |
५०,००० वर्ष* |
१०,००० वर्ष |
९०००० वर्ष |
|
१ लाख वर्ष |
सनत्कुमार स्वर्ग |
मोक्ष |
५ |
|
|
|
|
|
|
|
|
६ |
|
|
|
|
|
|
|
|
७ |
|
|
|
|
|
|
|
|
८ |
५,००० वर्ष |
५,००० वर्ष** |
५०० वर्ष |
४९५०० वर्ष |
६२५०० वर्ष |
० |
७वें नरक |
|
९ |
५०० वर्ष |
५०० वर्ष |
३०० वर्ष |
१८७०० वर्ष |
|
१०००० वर्ष |
मोक्ष |
|
१० |
३२५ वर्ष |
३२५ वर्ष |
१५० वर्ष |
८८५० वर्ष |
२५१७५ वर्ष |
३५० वर्ष |
मोक्ष |
सर्वार्थ सिद्धि |
११ |
३०० वर्ष |
३०० वर्ष |
१०० वर्ष |
१९०० वर्ष |
|
४०० वर्ष |
मोक्ष |
जयन्त |
१२ |
२८ वर्ष |
५६ वर्ष |
१६ वर्ष |
६०० वर्ष |
|
० |
७वें नरक |
|
• ह.पु. में भरत का संयम काल १ लाख+(१ पूर्व–१ पूर्वांग)+८३०९०३० वर्ष दिया है। * ह.पु. व म.पु. में सगर का कुमार व मण्डलीक काल १८ लाख पूर्व दिया गया है। ** ह.पु. की अपेक्षा सुभौम चक्रवर्ती को राज्यकाल प्राप्त नहीं हुआ। |
६. वैभव परिचय
१. (ति.प./४/१३७२-१३९७); २. (त्रि.सा./६८२); ३. (ह.पु./११/१०८-१६२) ४. (म.पु./३७/२३-३७,५९-८१,१८१-१८५); ५. (ज.प./७/४३-५४,६५-६७)।
क्रम |
नाम |
गणना सामान्य |
प्रमाण नं. |
गणना विशेष |
१ |
रत्न |
१४ |
(देखें - आगे ) |
|
२ |
निधि |
९ |
(देखें - आगे ) |
|
३ |
रानियाँ |
|
|
|
i |
आर्य खण्ड की राजकन्याएँ |
३२,००० |
|
|
ii |
विद्याधर राजकन्याएँ |
३२,००० |
|
|
iii |
म्लेच्छ राजकन्याएँ |
३२,००० |
|
|
९६,००० |
||||
४ |
पटरानी |
१ |
|
|
५ |
पुत्र पुत्री |
संख्यात सहस्र |
३ |
भरत के ५०० पुत्र थे |
|
|
|
४ |
सगर के ६०,००० पुत्र |
|
|
|
४ |
पद्म के ८ पुत्री थीं |
६ |
गणबद्ध देव |
३२,००० |
३,४ |
१६००० |
७ |
तनुरक्षक देव |
३६० |
|
|
८ |
रसोइये |
३६० |
|
|
९ |
यक्ष |
३२ |
|
|
१० |
यक्षों का बन्धु कुल |
३५० लाख |
|
|
११ |
भेरी |
१२ |
|
|
१२ |
पटह (नगाड़े) |
१२ |
|
|
१३ |
शंख |
२४ |
|
|
१४ |
हल |
१ कोड़ाकोड़ी |
ह.पु. ४ |
१ करोड़ १ लाख करोड़ |
१५ |
गौ |
३ करोड़ |
|
|
१६ |
गौशाला |
|
४ |
३ करोड़ |
१७ |
थालियाँ |
१ करोड़ |
४ |
१ करोड़ |
१८ |
हंडे |
|
|
|
१९ |
गज |
८४ लाख |
|
|
२० |
रथ |
८४ लाख |
|
|
२१ |
अश्व |
१८ करोड़ |
|
|
२२ |
योद्धा |
८४ करोड़ |
|
|
२३ |
विद्याधर |
अनेक करोड़ |
|
|
२४ |
म्लेच्छ राजा |
८८००० |
४ |
१८००० |
२५ |
चित्रकार |
९९००० |
३ |
९९००० |
२६ |
मुकुट बद्ध राजा |
३२०० |
|
|
२७ |
नाट्यशाला |
३२००० |
|
|
२८ |
संगीतशाला |
३२००० |
|
|
२९ |
पदाति |
४८ करोड़ |
|
|
३० |
देश |
३२००० |
|
|
३१ |
ग्राम |
९६ करोड़ |
|
|
३२ |
नगर |
७५००० |
४ ५ |
७२००० २६००० |
३३ |
खेट |
१६००० |
|
|
३४ |
खर्वट |
२४००० |
५ |
३४००० |
३५ |
मटंब |
४००० |
|
|
३६ |
पट्टन |
४८००० |
|
|
३७ |
द्रोणमुख |
९९००० |
|
|
३८ |
संवाहन |
१४००० |
|
|
३९ |
अन्तर्द्वीप |
५६ |
|
|
४० |
कुक्षि निवास |
७०० |
|
|
४१ |
दुर्गादिवन |
२८००० |
|
|
४२ |
पताकाएँ |
|
४ |
४८ करोड़ |
४३ |
भोग |
१० प्रकार |
|
|
४४ |
पृथिवी |
षट् खण्ड |
|
|
७. चौदह रत्न परिचय सामान्य
क्रम |
निर्देश |
संज्ञा |
उत्पत्ति |
दृष्टि भेद |
विशेषता |
|||
१. ति.प./४/१३७६-१३८१ २. त्रि.सा./८२३ ३. ह.पु./११/१०८-१०९ ४. म.पु./८३-८६ |
१. ति.प./४/१३७७-१३८१ २. देखें - आगे शीर्षक सं .११
|
१. ति.प./४/१३७८-१३८० २. त्रि.सा./८२३ ३. म.पु./३७/८५-८६ |
||||||
नाम |
क्या है |
सामान्य |
विशेष प्रमाण नं.२ |
सामान्य |
विशेष प्रमाण नं.२ |
|||
१ |
चक्र |
आयुध |
सुदर्शन |
|
आयुधशाला |
|
ति.प./४/ १३८२ किन्हीं आचार्यों के मत से इनकी उत्पत्ति का नियम नहीं। यथायोग्य स्थानों में उत्पत्ति। |
देखें - पृ . अगला शीर्षक। |
२ |
छत्र |
छतरी |
सूर्यप्रभ |
|
आयुधशाला |
|
||
३ |
खड्ग |
आयुध |
भद्रमुख |
सौनन्दक |
आयुधशाला |
|
||
४ |
दण्ड |
अस्त्र |
प्रवृद्धवेग |
चण्डवेग |
आयुधशाला |
|
||
५ |
काकिणी |
अस्त्र |
चिन्ता जननी |
|
श्री गृह |
|
||
६ |
मणि |
रत्न |
चूड़ामणि |
|
श्री गृह |
|
||
७ |
चर्म |
तम्बू |
|
|
श्री गृह |
|
||
८ |
सेनापति |
|
आयोध्य |
|
राजधानी |
विजयार्ध |
||
९ |
गृहपति |
भण्डारी |
भद्रमुख |
कामवृष्टि (ह.पु./११/१२३) |
राजधानी |
विजयार्ध |
||
१० |
गज |
हाथी |
विजयगिरि |
|
विजयार्ध |
विजयार्ध |
||
११ |
अश्व |
|
पवनंजय |
|
विजयार्ध |
विजयार्ध |
||
१२ |
पुरोहित |
|
बुद्धिसागर |
|
राजधानी |
विजयार्ध |
||
१३ |
स्थपति |
तक्षक(बढ़ई) |
कामवृष्टि |
|
राजधानी |
विजयार्ध |
||
१४ |
युवती |
पटरानी |
सुभद्रा |
|
विजयार्ध |
विजयार्ध |
८. चौदह रत्न परिचय विशेष
क्रम |
|
जीव अजीव |
काहे से बने |
विशेषताएँ |
१.ति.प./४/१३७७-१३७९ २. म.पु./३७/८४ |
ति.प./४/१३८१ |
१. ति.प./४/गा.; २. त्रि.सा./८२३; ३. म.पु./३७/श्लो.; ४.ज.प./७/गा. |
||
१ |
चक्र |
अजीव |
वज्र |
शत्रु संहार |
२ |
छत्र |
अजीव |
वज्र |
१२ योजन लम्बा और इतना ही चौड़ा है। वर्षा से कटक की रक्षा करता है।४/१४०-१४१। |
३ |
खड्ग |
अजीव |
वज्र |
शत्रु संहार |
४ |
दण्ड |
अजीव |
वज्र |
विजयार्ध गुफा द्वार उद्धाटन।१/१३३०; २/४/१२४। गुफा के कांटों आदि का शोधन।३/१७०। वृषभाचल पर चक्रवर्ती का नाम लिखना।१/१३५४। |
५ |
काकिणी |
अजीव |
वज्र |
विजयार्ध की गुफाओं का अन्धकार दूर करना।१/१३३९;३/१७३। वृषभाचल पर नाम लिखना।२। |
६ |
मणि |
अजीव |
वज्र |
विजयार्ध की गुफा में उजाला करना। |
७ |
चर्म |
अजीव |
वज्र म.पु./३७/१७१ |
म्लेच्छ राजा कृत जल के ऊपर तैरकर अपने ऊपर सारे कटक को आश्रय देता है। (२;३/१७१;४/१४०) |
८ |
सेनापति |
जीव |
|
|
९ |
गृहपति |
जीव |
|
हिसाब किताब आदि रखना।३/१७६। |
१० |
गज |
जीव |
|
|
११ |
अश्व |
जीव |
|
|
१२ |
पुरोहित |
जीव |
|
दैवी उपद्रवों की शान्ति के अर्थ अनुष्ठान करना। (३/१७५) |
१३ |
स्थपति |
जीव |
|
नदी पर पुल बनाना। (१/१३४२;४/१३१) मकान आदि बनाना।३/१७७। |
१४ |
युवती |
जीव |
|
नोट–ह.पु.११/१०९। इन रत्नों में से प्रत्येक की एक-एक हजार देव रक्षा करते थे। |
९. नव निधि परिचय
क्रम |
१. निर्देश |
२. उत्पत्ति |
३. क्या प्रदान करती है |
विशेष |
|||
१.ति.प./४/१३८४ २.त्रि.सा./८२१ ३.ह.पु./११/१- ११०-१११ ४.म.पु./३७/७५-८२ |
१. ति.प./४/१३८४ २. ति.प./४/१३८५
|
१. ति.प./४/१३८६ २. त्रि.सा./८२२ ३. ह.पु./११/११४-१२२ ४. म.पु./३७/७५-८२ |
|||||
|
दृष्टि सं.१ |
दृष्टि सं.२ |
सामान्य |
प्रमाण सं. |
विशेष |
||
१ |
काल |
श्रीपुर |
नदीमुख |
ऋतु के अनुसार पुष्प फल आदि |
३,४ |
निमित्त, न्याय, व्याकरण आदि विषयक अनेक प्रकार के शास्त्र |
देखें - नीचे |
|
|
|
|
|
४ |
बाँसुरी, नगाड़े आदि पंचेन्द्रिय के मनोज्ञ विषय |
|
२ |
महाकाल |
श्रीपुर |
नदीमुख |
भाजन |
३ |
पंचलोह आदि धातुएँ |
|
|
|
|
|
|
४ |
असि, मसि आदि के साधनभूत द्रव्य |
|
३ |
पाण्डु |
श्रीपुर |
नदीमुख |
धान्य |
४ |
धान्य तथा गट्रस |
|
४ |
मानव |
श्रीपुर |
नदीमुख |
आयुध |
४ |
नीति व अन्य अनेक विषयों के शास्त्र |
|
५ |
शंख |
श्रीपुर |
नदीमुख |
वादित्र |
|
|
|
६ |
पद्म |
श्रीपुर |
नदीमुख |
वस्त्र |
|
|
|
७ |
नैसर्प |
श्रीपुर |
नदीमुख |
हर्म्य (भवन) |
३, ४ |
शय्या, आसन, भाजन आदि उपभोग्य वस्तुएँ |
|
८ |
पिंगल |
श्रीपुर |
नदीमुख |
आभरण |
|
|
|
९ |
नानारत्न |
श्रीपुर |
नदीमुख |
अनेक प्रकार के रत्न आदि |
|
|
४. विशेषताएँ
ह.पु./११/१११-११३,१२३ अमी...निधयोऽनिधना नव। पालिता निधिपालाख्यै: सुरैर्लोकोपयोगिन:।१११। शकटाकृतय: सर्वे चतुरक्षाष्टचक्रका:। नवयोजनविस्तीर्णा द्वादशायामसंमिता:।११२। ते चाष्टयोजनागाधा बहुवक्षारकुक्षय:। नित्यं यक्षसहस्रेण प्रत्येकं रक्षितेक्षिता:।११३। कामवृष्टिवशास्तेऽमी नवापि निधय: सदा। निष्पादयन्ति नि:शेषं चक्रवर्तिमनीषितम् ।१२३। =ये सभी निधियाँ अविनाशी थीं। निधिपाल नाम के देवों द्वारा सुरक्षित थीं। और निरन्तर लोगों के उपकार में आती थीं।१११। ये गाड़ी के आकार की थीं। ९ योजन चौड़ी, १२ योजन लम्बी, ८ योजन गहरी और वक्षार गिरि के समान विशाल कुक्षि से सहित थीं। प्रत्येक की एक-एक हज़ार यक्ष निरन्तर देखरेख रखते थे।११२-११३। ये नौ की नो निधियाँ कामवृष्टि नामक गृहपति (९वाँ रत्न) के अधीन थीं। और सदा चक्रवर्ती के समस्त मनोरथों को पूर्ण करती थीं।१२३।
१०. दश प्रकार भोग परिचय
ति.प./४/१३९७–दिव्वपुरं रयणणिहिं चमुभायण भोयणाइं सयणिज्जं। आसणवाहणणट्टा दसंग भोग इमे ताणं।१३९७। =दिव्वपुर (नगर), रत्न, निधि, चमू (सैन्य) भाजन, भोजन, शय्या, आसन, वाहन, और नाट्य ये उन चक्रवर्तियों के दशांग भोग होते हैं।१३९७। (ह.पु./११/१३१); (म.पु./३७/१४३)।
११. भरत चक्रवर्ती की विभूतियों के नाम
म.पु./३७/श्लोक सं.
क्रम |
श्लोक सं. |
विभूति |
नाम |
१ |
१४६ |
घर का कोट |
क्षितिसार |
२ |
१४६ |
गौशाला |
सर्वतोभद्र |
३ |
१४७ |
छावनी |
नन्द्यावर्त |
४ |
१४७ |
ऋतुओं के लिए महल |
वैजयन्त |
५ |
१४७ |
सभाभूमि |
दिग्वसतिका |
६ |
१४८ |
टहलने की लकड़ी |
सुविधि |
७ |
१४९ |
दिशा प्रेक्षण भवन |
गिरि कूटक |
८ |
१४९ |
नृत्यशाला |
वर्धमानक |
९ |
१५० |
शीतगृह |
धारागृह |
१० |
१५० |
वर्षा ऋतु निवास |
गृहकूटक |
११ |
१५१ |
निवास भवन |
पुष्करावती |
१२ |
१५१ |
भण्डार गृह |
कुबेरकान्त |
१३ |
१५२ |
कोठार |
वसुधारक |
१४ |
१५२ |
स्नानगृह |
जीमूत |
१५ |
१५३ |
रत्नमाला |
अवतंसिका |
१६ |
१५३ |
चाँदनी |
देवरम्या |
१७ |
१५४ |
शय्या |
सिंहवाहिनी |
१८ |
१५५ |
चमर |
अनुपमान |
१९ |
१५६ |
छत्र |
सूर्यप्रभ |
२० |
१५७ |
कुण्डल |
विद्युत्प्रभ |
२१ |
१५८ |
खड़ाऊँ |
विषमोचिका |
२२ |
१५९ |
कवच |
अभेद्य |
२३ |
१६० |
रथ |
अजितंजय |
२४ |
१६१ |
धनुष |
वज्रकाण्ड |
२५ |
१६२ |
बाण |
अमोघ |
२६ |
१६३ |
शक्ति |
वज्रतुण्डा |
२७ |
१६४ |
माला |
सिंघाटक |
२८ |
१६५ |
छुरी |
लोह वाहिनी |
२९ |
१६६ |
कणप (अस्त्र विशेष) |
मनोवेग |
३० |
१६७ |
तलवार |
सौनन्दक |
३१ |
१६८ |
खेट (अस्त्र विशेष) |
भूतमुख |
३२ |
१६९ |
चक्र |
सुदर्शन |
३३ |
१७० |
दण्ड |
चण्डवेग |
३४ |
१७२ |
चिन्तामणि रत्न |
चूड़ामणि |
३५ |
१७३ |
काकिणी (दीपिका) |
चिन्ताजननी |
३६ |
१७४ |
सेनापति |
अयोघ्य |
३७ |
१७५ |
पुरोहित |
बुद्धिसागर |
३८ |
१७६ |
गृहपति |
कामवृष्टि |
३९ |
१७७ |
शिलावट (स्थपित) |
भद्रमुख |
४० |
१७८ |
गज |
विजयगिरि (धवल वर्ण) |
४१ |
१७९ |
अश्व |
पवनंजय |
४२ |
१८० |
स्त्री |
सुभद्रा |
४३ |
१८२ |
भेरी |
आनन्दिनी (१२ योजन शब्द) (म.पु./३७/१८२) |
४४ |
१८४ |
शंख |
गम्भीरावर्त |
४५ |
१८५ |
कड़े |
वीरानन्द |
४६ |
१८७ |
भोजन |
महाकल्याण |
४७ |
१८८ |
खाद्य पदार्थ |
अमृतगर्भ |
४८ |
१८९ |
स्वाद्यपदार्थ |
अमृतकल्प |
४९ |
१८९ |
पेय पदार्थ |
अमृत |
१२. दिग्विजय का स्वरूप
ति.प./४/१३०३-१३६९ का भावार्थ ―
आयुधशाला में चक्र की उत्पत्ति हो जाने पर चक्रवर्ती जिनेन्द्र पूजन पूर्वक दिग्विजय के लिए प्रयाण करता है।१३०३-१३०४।
पहले पूर्व दिशा की ओर जाकर गंगा के किनारे-किनारे उपसमुद्र पर्यन्त जाता है।१३०५।
रथ पर चढ़कर १२ योजन पर्यन्त समुद्र तट पर प्रवेश करके वहाँ से अमोघ नामा बाण फेंकता है, जिसे देखकर मागध देव चक्रवर्ती की अधीनता स्वीकार कर लेता है।१३०६-१३१४।
यहाँ से जम्बूद्वीप की वेदी के साथ-साथ उसके वैजयन्त नामा दक्षिण द्वार पर पहुँचकर पूर्व की भाँति ही वहाँ रहने वाले वरतनुदेव को वश करता है।१३१५-१३१६।
यहाँ से वह पश्चिम दिशा की ओर जाता है और सिन्धु नदी के द्वार में स्थित प्रभासदेव को पूर्ववत् ही वश करता है।१३१७-१३१८।
तत्पश्चात् नदी के तट से उत्तर मुख होकर विजयार्ध पर्वत तक जाता है। और पर्वत के रक्षक वैताढ्य नामा देव को वश करता है।१३१९-१३२३।
तब सेनापति दण्ड रत्न से उस पर्वत की खण्डप्रपात नामक पश्चिम गुफा को खोलता है।१३२५-१३३०।
गुफा में से गर्म हवा निकलने के कारण वह पश्चिम के म्लेच्छ राजाओं को वश करने के लिए चला जाता है। छह महीने में उन्हें वश करके जब वह अपने कटक में लौट आता है तब तक उस गुफा की वायु भी शुद्ध हो चुकती है।१३३१-१३३६।
अब सर्व सैन्य को साथ लेकर वह गुफा में प्रवेश करता है, और काकिणी रत्न से गुफा के अन्धकार को दूर करता है। और स्थपति रत्न गुफा में स्थित उन्मग्नजला नदी पर पुल बाँधता है। जिसके द्वारा सर्व सैन्य गुफा से पार हो जाती है।१३३७-१३४१।
यहाँ पर सेना को ठहराकर पहले सेनापति पश्चिम खण्ड के म्लेच्छ राजाओं को जीतता है।१३४५-१३४८।
तत्पश्चात् हिमवान पर्वत पर स्थित हिमवानदेव से युद्ध करता है। देव के द्वारा अतिघोर वृष्टि की जाने पर छत्र रत्न व चर्म रत्न से सैन्य की रक्षा करता हुआ उस देव को भी जीत लेता है।१३४९-१३५०।
अब वृषभगिरि पर्वत के निकट आता है। और दण्डरत्न द्वारा अन्य चक्रवर्ती का नाम मिटाकर वहाँ अपना नाम लिखता है।१३५१-१३५५।
यहाँ से पुन: पूर्व में गंगा नदी के तट पर आता है, जहाँ पूर्ववत् सेनापति दण्ड रत्न द्वारा तमिस्रा गुफा के द्वार को खोलकर छह महीने में पूर्वखण्ड के म्लेच्छ राजाओं को जीतता है।१३५६-१३५८।
विजयार्ध की उत्तर श्रेणी के ६० विद्याधरों को जीतने के पश्चात् पूर्ववत् गुफा द्वार से पर्वत को पार करता है।१३५९-१३६५।
यहाँ से पूर्वखण्ड के म्लेच्छ राजाओं को छह महीने में जीतकर पुन: कटक में लौट आता है।१३६६।
इस प्रकार छह खण्डों को जीतकर अपनी राजधानी में लौट आता है। (ह.पु./११/१-५६); (म.पु./२६-३६ पर्व/पृ.१-२२०); (ज.प./७/११५-१५१)।
१३. राजधानी का स्वरूप
ति.सा./७१६-७१७ रयणकवाडवरावर सहस्सदलदार हेमपायारा। बारसहस्सा वीही तत्थ चउप्पह सहस्सेक्कं।७१६। णयराण बहिं परिदो वणाणि तिसद ससट्ठि पुरमज्झे। जिणभवणा णरवइ जणगेहा सोहंति रयणमया।७१७।
राजधानी में स्थित नगरों के ( देखें - मनुष्य / ४ ) रत्नमयी किवाड़ हैं। उनमें बड़े द्वारों की संख्या १००० है और छोटे ५०० द्वार हैं। सुवर्णमयी कोट है। नगर के मध्य में १२००० वीथी और १००० चौपथ हैं।७१६। नगरों के बाह्य चौगिर्द ३६० बाग हैं। और नगर के मध्य जिनमन्दिर, राजमन्दिर व अन्य लोगों के मन्दिर रत्नमयी शोभते हैं।...।७१७।
१४. हुंडावसर्पिणी में चक्रवर्ती के उत्पत्ति काल में कुछ अपवाद
ति.प./४/१६१६-१६१८...सुसमदुस्समकालस्स ठिदिम्मि थोअवसेसे।१६१६। तक्काले जायते...पढमचक्की य।१६१७। चक्किस्सविजयभंगो।
हुण्डावसर्पिणी काल में कुछ विशेषता है। वह यह कि इस काल में चौथा काल शेष रहते ही प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न हो जाता है। (यद्यपि चक्रवर्ती की विजय कभी भंग नहीं होती। परन्तु इस काल में उसकी विजय भी भंग होती है।)