| [[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या /९/९/४२७ अज्ञोअयं न वेत्ति पशुसम इत्येवमाद्यधिक्षेपवचनं सहमानस्य परमदुश्चरतपोअनुष्ठायिनो नित्यमप्रमत्तचेतसो मेअद्यापि ज्ञानातिशयो नोत्पद्यत इति अनभिसंदधतोअज्ञानपरिषहजयोअवगन्तव्यः। <br>= "यह मूर्ख है, कुछ नहीं जानता, पशु के समान है" इत्यादि तिरस्कार के वचनों को मैं सहन करता हूँ, मैंने परम दुश्चर तप का अनुष्ठान किया है, मेरा चित्त निरन्तर अप्रमत्त रहता है, तो भी मेरे अभी तक भी ज्ञान का अतिशय नहीं उत्पन्न हुआ है, इस प्रकार विचार नहीं करनेवाले के अज्ञान परिषहजय जानना चाहिए <br>([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/९/२७,६१२/१३); ([[चारित्रसार]] पृष्ठ संख्या १२२/१)।<br>• प्रज्ञा व अज्ञान परिषह में भेदाभेद – दे. प्रज्ञा परिषह १।<br>अज्ञानवाद -<br>१. अज्ञानवाद का इतिहास<br>[[दर्शनसार]] गाथा संख्या २० सिरिवीरणाहतित्थे बहुस्सुदो पाससधगणिसीसो। मक्कडिपूरणसाहू अण्णाणं भासए लोए।२०। <br>= महावीर भगवान्के तीर्थ में पार्श्वनाथ तीर्थंकर के संघ के किसी गणी का शिष्य मस्करी पूरन नाम का साधु था। उसने लोक में अज्ञान मिथ्यात्व का उपदेश दिया <br>([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या १६)।<br>२. अज्ञानवाद का स्वरूप<br>[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या /पं. जगरूप सहाय /८/१/पृ.५ की टिप्पणी – "कुत्सितज्ञानमज्ञान तद्येषामस्ति ते अज्ञानिकाः। ते च वादिनश्च इति अज्ञानिकवादिनः। ते च अज्ञानमेव श्रेयः असच्चिन्त्यकृतकर्मबन्धवै फल्यात्, तथा न ज्ञानं कस्यापि क्वचिदपि वस्तुन्यस्ति प्रमाणमसंर्ण्ण वस्तुविषयत्वादित्याद्यभ्युपगन्तव्यः। <br>= कुत्सित या खोटे ज्ञानको अज्ञान कहते हैं। वह जिनमें पाया जाये सो अज्ञानिक हैं। उन अज्ञानियों का जो वाद या मत सो अज्ञानवाद है। उसे माननेवाले अज्ञानवादी हैं। उनकी मान्यता ऐसी है कि अज्ञान ही प्रेय है, क्योंकि असत् की चिन्ता करके किया गया कर्मोंका बन्ध विफल है, तथा किसी को भी, कभी भी, किसी भी वस्तु में ज्ञान नहीं होता, क्योंकि प्रमाण के द्वारा असम्पूर्ण ही वस्तु को विषय करने में आता है। इस प्रकार जानना चाहिए। <br>(स्थानांग सूत्र/अभयदेव टी./४/४/३४५) (सूत्रकृतांग/शीलांक टी./१/१२) (नन्दिसूत्र/हरिभद्र टीका सू. ४६) (षड्दर्शनसमुच्चय/बृहद्वृत्ति/श्लो.१)।<br>[[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या ८८६-८८७/१०६९ को जाणइ णव भावे सत्तमसत्तं दयं अवच्चमिदि। अवयणजुदसत्ततयं इदि भंगा होंति तेसट्ठी ।।८८६।। = को जाणइ सत्तचऊ भावं सुद्धं खु दोण्णिपंतिभवा। चत्तारि होंति एवं अण्णाणीणं तु सत्तट्ठी ।।८८७।। <br>= जीवादिक नवपदार्थ निविषैं एक एक को सप्तभंग अपेक्षा जानना। जीव अस्ति ऐसा कौन जानै है। जीव नास्ति ऐसा कौन जानै है। जीव अस्ति नास्ति ऐसा कौन जानै है। जीव अवक्तव्य ऐसा कौन जानै है। जीव अस्ति अव्यक्तव्य ऐसा कौन जानै है। जीव नास्ति अवक्तव्य ऐसा कौन जानै है। जीव अस्ति नास्ति अवक्तव्य ऐसा कौन जानै है। ऐसे ही जीव की जायगां अजीवादिक कहैं तरेसठि भेद ही हैं ।।८८६।। प्रथम शुद्ध पदार्थ ऐसा लिखिए ताकै उपरि अस्ति आदि च्यारि लिखिए। इन दोऊ पंक्तिनिकरि उपजे च्यारि भंग हो हैं। शुद्ध पदार्थ अस्ति ऐसा कौन जानै है। शुद्ध पदार्थ नास्ति ऐसा कौन जानै है। शुद्ध पदार्थ अस्ति नास्ति ऐसा कौन जानै है। शुद्ध पदार्थ अवक्तव्य ऐसा कौन जानै है। ऐसे च्यारि तो ए अर पूर्वोक्त तरेसठि मिलिकरि अज्ञानवाद सड़सठि हो हैं। भावार्थ - अज्ञानवाद वाले वस्तु का न जानना ही मानै हैं। <br>([[भावपाहुड़]] / पं. जयचन्द /१३७)।<br>[[भावपाहुड़]] / मूल व टीका गाथा संख्या १३५ "सत्तट्ठी अण्णाणी...।।१३५।। सप्तषष्टि - ज्ञानेन मोक्षं मन्वानां मस्करपूरणमतानुसारिणां भवति। <br>= सड़सठ प्रकार के अज्ञान-द्वारा मोक्ष माननेवाले मस्करपूरण मतानुसारी को अज्ञान मिथ्यात्व होता है। <br>(वि.दे.-मस्करी पूरन)<br>३. अज्ञानवाद के ६७ भेद<br>[[धवला]] पुस्तक संख्या १/१,१,२/१०८/२ शाकल्य-वल्कल-कुथुमि-सात्यमुग्रि-नारायण-कण्व-माध्यंदिन-मोद-पैप्पलाद-बादरायण-स्वेष्टकृदैतिकायन-वसु-जैमिन्यादीनामज्ञानिकदृष्टीनां सप्तषष्टिः। <br>= दृष्टिवाद अंग में - शाकल्य, वल्कल, कुथुमि, सात्यमुग्रि, नारायण, कण्व, माध्यंदिन, मोद, पैप्पलाद, बादरायण, स्वेष्टकृत्, ऐतिकायन, वसु और जैमिनि आदि अज्ञानवादियों के सड़सठ मतों का.....वर्णन और निराकरण किया गया है। <br>([[धवला]] पुस्तक संख्या १/४,१,४५/२०३/५) ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या १/२०/१२/७४/५) ([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ८/१/११/५६२/७) ([[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] / [[गोम्मट्टसार जीवकाण्ड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका ]] टीका गाथा संख्या ३६०/७७०/१३)।<br>[[गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] / मूल गाथा संख्या/८८६-८८७/१०६९ नव पदार्थXसप्तभंग = ६३+(शुद्धपदार्थ) X (आस्ति, नास्ति, अस्ति-नास्ति, अव्यक्त = ४ मिलिकरि अज्ञानवाद सड़सठ हो है। (मूलके लिए दे. शीर्षक सं. २)<br>[[Category:अ]] <br>[[Category:सर्वार्थसिद्धि]] <br>[[Category:चारित्रसार]] <br>[[Category:राजवार्तिक]] <br>[[Category:दर्शनसार]] <br>[[Category:गोम्मट्टसार जीवकाण्ड]] <br>[[Category:गोम्मट्टसार कर्मकाण्ड]] <br>[[Category:भावपाहुड़]] <br>[[Category:धवला]] <br> | | [[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या /९/९/४२७ अज्ञोअयं न वेत्ति पशुसम इत्येवमाद्यधिक्षेपवचनं सहमानस्य परमदुश्चरतपोअनुष्ठायिनो नित्यमप्रमत्तचेतसो मेअद्यापि ज्ञानातिशयो नोत्पद्यत इति अनभिसंदधतोअज्ञानपरिषहजयोअवगन्तव्यः। <br>= "यह मूर्ख है, कुछ नहीं जानता, पशु के समान है" इत्यादि तिरस्कार के वचनों को मैं सहन करता हूँ, मैंने परम दुश्चर तप का अनुष्ठान किया है, मेरा चित्त निरन्तर अप्रमत्त रहता है, तो भी मेरे अभी तक भी ज्ञान का अतिशय नहीं उत्पन्न हुआ है, इस प्रकार विचार नहीं करनेवाले के अज्ञान परिषहजय जानना चाहिए <br>([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/९/२७,६१२/१३); ([[चारित्रसार]] पृष्ठ संख्या १२२/१)।<br>• प्रज्ञा व अज्ञान परिषह में भेदाभेद – <b>देखे </b>[[प्रज्ञा परिषह]] १।<br>[[Category:अ]] <br>[[Category:सर्वार्थसिद्धि]] <br>[[Category:चारित्रसार]] <br>[[Category:राजवार्तिक]] <br> |