इष्टोपदेश - श्लोक 25: Difference between revisions
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<p style="text-align: justify;"><strong>।।इति इष्‍टोपदेश प्रवचन प्रथम भाग समाप्‍त।।</strong></p> | <p style="text-align: justify;"><strong>।।इति इष्‍टोपदेश प्रवचन प्रथम भाग समाप्‍त।।</strong></p> | ||
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Revision as of 15:22, 16 April 2020
कटस्य कर्ताहमिति सम्बन्धः स्याद्द्वयोर्द्वयोः।
ध्यानं ध्येयं यदात्मैव सम्बन्धः कीदृशस्तदा।।२५।।
अद्वैतमें सम्बन्धकी असंभावना—अध्यात्मयोग में जब वही आत्मा तो ध्यान, करने वाला है वही आत्मा ध्येयभूत है तो ऐसी स्थिति यह कैसे बताया जा सकता है कि वह योगी किसका ध्यान करता है। लोक में निमित्तनैमित्तिक प्रसंगमें कोई दो चीजें सामने है तब उनका सम्बन्ध बोल दिया जाता है। जैसे घड़ा बनाने वाला कुम्हार ऐसा संकल्प कर सकता है कि मैं घड़ेका कर्ता हूं, चटाई बनाने वाला कारीगर भी ऐसा विकल्प किया करता है कि मैं चटाई का कर्ता हूं, दो चीजें भिन्न-भिन्न है इसलिए इन दोनों का परस्पर में सम्बन्ध बताया जाता है, संयोग की बात कही जाती है और जब वह संयोग न हो तो वे अलग-अलग ही यथापूर्व बने रहते हैं परन्तु जहाँ ध्यान भी आत्मा, ध्येय भी आत्मा-आत्मा से भिन्न जहाँ ध्यान आदि कोई तत्त्व नहीं है तब उनका संयोग आदिक सम्बन्ध कैसे कहा जा सकता है?
स्वतन्त्र पदार्थमें सम्बन्धका अभाव—आत्मा एक स्वतंत्र पदार्थ है और वह प्रति समय में कुछ न कुछ रूप परिणमता ही रहता है। कुछ भी यह न परिणमें तो आत्मा का अस्तित्त्व भी नहीं रह सकता है। जगत में कौनसा पदार्थ ऐसा है कि सत्ता तो उसकी हो और कुछ परिणमन उसमें हुआ ही न करे। ऐसा लोक में कोई भी पदार्थ हो ही नहीं सकता। जो होगा वह नियम से किसी न किसी रूप अपनी परिणति रखा करेगा। तो यह आत्मा भी प्रतिसमय परिणमता रहता है कभी ये बाह्य विकल्पों का आश्रय तोड़कर अपने आपके ध्यानरूप परिणमा करते हैं। जब यह जीव समस्त बाह्यविकल्पों को तोड़कर अपने आपके ध्यानरूपसे परिणमता है तो वहाँ यह तो बताओ कि वह आत्मा किसका क्या कर रहा है? वहाँ कोई दो बातें ही नहीं है।
ज्ञानके विषयभूत परपदार्थमें भी ज्ञप्ति क्रिया का अप्रवेश—प्रथम तो जब बाह्यपदार्थों का भी चिन्तन ध्यान करना हो, उस कालमें भी यह बाह्यपदार्थों का कर्ता नहीं है। वहाँ भी वह अपने ही किसी प्रकार के ध्यानरूप परिणम रहा है। खैर, बाह्यपदार्थोंके विकल्प में तो आश्रयभूत परपदार्थ भी है किन्तु जहाँ शुद्ध आत्मतत्त्वका ध्यान चल रहा हो वहाँ दो तत्त्व कौनसे कहे जाये जिसमें यह बनाया जाए कि यह अमुक का ध्यान करता है, यह अमुक का। अपनेको ध्यानरूपसे परिणम रहा है वह ज्ञानप्रकाश, शुद्ध ज्ञानप्रकाशरूप चल रहा है यह। इस ही पदार्थ को भेदोपचार करके यों कह दिया जाता है कि आत्मा अपने स्वरूपका ध्यान करता है।
परमार्थमें परस्पर संबंध का अभाव—ध्यान शब्द में यह लोक अर्थ पड़ा हुआ है कि जिसका ध्यान आ जाय, जिसके द्वारा ध्यान किया जाय जो ध्यान करता है। तो इस अर्थ में जिसका ध्यान किया गया वह पदार्थ और जो ध्यान करता है वह पदार्थ कोई भिन्न-भिन्न हो तो बता भी दे कि आत्मा ने अमुक का ध्यान किया है, पर जिस समय आत्मा के ध्यान अवस्था में यह परमात्मस्वरूप स्वयं आत्मा जब ध्यान के साथ एकमेक हो जाता है, स्वयं ही स्वयं के ज्ञानरूपसे प्रकाशित हो जाता है तब वहाँ किसी परद्रव्यका संयोग ही नहीं है फिर सम्बंध क्या बताया जाय? सम्बन्ध तो बनावटी तत्त्व है। वास्तवमें तो कही भी कुछ सम्बंध नहीं है, प्रत्येक स्वतंत्र है, वह अपने आपमें अपना परिणमन करता है। वे सब अपने आपकी शक्ति का ही परिणमन करते हैं कोई पदार्थ किसी दूसरे का न परिणमन करता है, न उपभोग करता है और न कुछ संबध भी है फिर किसको किसका बताया जाय?
मूढ़ता व अशान्ति व दीठता का अभाव—भैया ! यह जीव ज्ञान वाला है, इससे कह रहा है कि मकान मेरा है, यह अमुक मेरा है। इस प्रकार मेरा-मेरा मचाता है। यदि मकान में भी जान होती तो यह भी यों कह देता कि यह पुरुष मेरा है। अरे न मकान का यह आत्मा है, न आत्मा का यह मकान है। मकान ईट भीतों का है। यह पुरुष अपने स्वरूप में है, दृष्टि देकर जरा निरख लो अपना शरण, बाह्यदृष्टि में कुछ पार न पाया जायगा। बाहर सार क्या है? जब समागम है तब भी समागम से शान्ति नहीं है और जब समागम का वियोग होगा तब तो यह मोही शान्ति ही क्या कर सकेगा? बाह्य पदार्थ है तो दो ही तो बातें है, या बाह्य पदार्थों का संयोग होगा या वियोग होगा। यह मोही जीव न संयोग में शान्ति कर सकता है और न वियोग में शान्ति कर सकता है। शांति तत्त्वज्ञान बिना त्रिकाल हो ही नहीं सकती है। यह सब कर्मशत्रुका आक्रमण है बाह्य पदार्थों की और दृष्टि लगाना यही मूढ़ता है, कलुषता है इस जीवकी। संसारभ्रमणका यही एक कारण है।
सम्बन्धकारकके अभावसे सम्बन्धकी अवास्तविकताकी सिद्धि—समस्त पदार्थ अपने आपके स्वरूप में अद्वैत है वे-वे ही के वे है, उनमें किसी दूसरे पदार्थका सम्बंध नहीं है। देखिए ! संस्कृतके जो जानने वाले हैं वे समझते हैं। संस्कृतमें कारक ६ कहे जाते है—उन ६ कारकों में कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ये ६ आये हैं। इन कारकों में सम्बन्धका नाम तक भी नहीं लिया गया है। उसका अर्थ यही है कि सम्बन्ध कोई तात्विक चीज नहीं है। सम्बंध भी यदि परमार्थ होता, कारक होता तो इसे भी इन कारकों में गिनवाया जाता। लोक प्रयोगमें भी देखलो—सांपने यदि अपने शरीरको कुण्डली रूप बना लिया तो इतना तो कहा जा सकता है कि साँपने अपनेको अपने द्वारा अपने लिए अपनेसे अपनेमें गोल बना लिया है, पर किसका गोल बना लिया है इसका उत्तर औंधा हुआ उत्तर होगा। अरे जब वही एक सांप है। और वह अपने परिणमन से परिणम रहा है तो दूसरे का किसका नाम लोगे? सांपने किसका गोल बना दिया है? कोई सम्बंध नहीं हो सकता है। जबरदस्ती की बात दूसरी है कि कुछ भी कह डाला जाय। तो कारक ६ हुआ करते हैं। सम्बंध नाम का कारक ही नहीं है। फिर जगतके पदार्थों में सम्बन्ध की खोज करके अपनी व्यग्रता क्यों लादी जा रही है?
पदार्थों की गणना—जगत में अनन्तानन्त जीव है जिनकी हद नहीं है। कबसे जीव मोक्ष चले जा रहे हैं,कोई दिन मुकर्रर करके कोई नहीं बता सकता है। अगर कोई दिन मुकर्रर कर दे तो यह प्रश्न होगा कि क्या उस दिनसे पहिले कोई मोक्ष न गया था? अगर कह दे कि हाँ इस दिन से पहिले कोई मोक्ष नहीं गया तो जब तक कोई मोक्ष न जा सका ऐसा संसार कितने दिनों तक रहा? उसका उत्तर दो। उसकी भी सीमा बनानी होगी। तो उससे पहिले संसार ही न था अभाव हो गया, फिर जब कुछ न था तो कुछ बन भी नहीं सकता है। अनन्त जीव समझ लीजिए मोक्ष चले गए और फिर भी अनन्तानन्त राशि बची हुई है, इसमें अनन्त मोक्ष चले जायेंगे, फिर भी जीव अनन्त ही बचे रहेंगे। कितनी अनन्तानन्त जीव राशि है। जीवराशि से अनन्तानन्तगुणे पुद्गल है। एक चौकी में कितने परमाणु है बताओ? हजार, लाख, करोड़,असंख्यात, अनगिनते, कुछ भी तो बताओ। अरे असंख्यात, अनगिनते से भी ज्यादा। अनन्तानन्त। अनगिनतें और अनन्तानन्तमें फर्क है। अनगिनतेंका अर्थ यह कि गिनती न की जा सके परन्तु उनका अंत होगा, किन्तु अनन्तानंत का अर्थ है कि उनका कभी अन्त न हो सके। तो अनन्तानंत जीव अनन्तानन्त पुद्गल है, धर्मद्रव्य एक है, अधर्मद्रव्य भी एक है, आकाश भी एक है और कालद्रव्य असंख्यात है।
शांति में वस्तुस्वातंत्र्य के परिज्ञान का अनिवार्य सहयोग—ये समस्त द्रव्य पूर्ण स्वतंत्र है अर्थात् अपने ही स्वरूप को लिए हुए है। समस्त पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में ही परिणमते हैं,कोई किसी अन्य में त्रिकाल भी नहीं परिणम सकता। अब समझ लीजिए कि कोई प्रतिकूल चल रहा है तो वह प्रतिकूल नहीं चल रहा है। यह तो अपनी कषायके अनुसार अपनी कषायकी वेदना को मिटाने के लिए प्रयत्न कर रहा है। यहाँ यह मोही जीव अपने कल्पित स्वार्थमय अवसर में विघ्न जानकर खेदखिन्न होता है, मैं कितना दुःखी हूं? मेरे अनुकूल ये लोग नहीं परिणमते बल्कि प्रतिकूल परिणम रहे हैं। अरे जो जैसा परिणमता है परिणमने दो, तुम तो भेदविज्ञान करो। सुख, साता व शान्ति भेदविज्ञानके बिना कभी न मिलेगी। कुछ दिनों का संयोग है। घर अच्छा है, समागम अच्छा है, आर्थिक समस्या भी अच्छी है, तो क्या करोगे इन सबका? कब तक पूरा पड़ेगा इन बाह्यपदार्थों से? भेदविज्ञान करो। मैं आत्मा जगतके समस्त पदार्थों से न्यारा हूं, ऐसा उपयोग बनाकर अपने को न्यारा समझ लो तो शान्ति मिलेगी अन्यथा परकी और आकर्षण होने से कभी शान्ति न मिल सकेगी।
सांसरिक सुखों के अनुपात से दुःखों के उद्गम की अधिकता—भैया ! ये संसार के सुख जितने ज्यादा मिलेंगे उतना ही ज्यादा दुःख के करण है, खूब सोच लो। किसी को स्त्रीका समागम है, वह स्त्री आज्ञाकारिणी हो, रूपवान हो और भी अनेक कलाएँ हो, उसके मन को रमाने वाली हो तो जब उसका वियोग होगा तो कितना क्लेश होगा? जितना राग किया है उसके अनुपात से हिसाब लगा लो, ज्यादा क्लेश होगा, और किसी को अपनी स्त्रीसे अनुराग नहीं है अथवा किसी कारण से स्त्री कलाहीन है, लड़ने वाली है, आज्ञा नहीं मानती है तो उससे तो पहिले से ही दिल हटा हुआ है उसका वियोग होने पर उसको क्लेश उसके राग के अनुपात से होगा। जो पुरूष बाह्य पदार्थों को जितना अधिक प्यारा मानता हो वह उतना ही अधिक दुःख पायगा। जो विवेकी पुरूष है, जिन्हें सम्यग्ज्ञानका उदय हुआ है वे पाये हुए समागम में हर्ष नहीं मानते हैं,उसके ज्ञाताद्रष्टा रहते हैं।
ज्ञानीकी दृष्टिमें सम्पदा व विपदाकी समानता—ज्ञानी पुरुष जानता है कि यह भी कर्मों का एक उदय है। नाम दो है- सम्पदा और विपदा, पर कष्ट के कारण दोनों ही है। जैसे नाम दो हो नागनाथ और सांपनाथ मगर विष के करने वाले दोनों ही है। सांपनाथको नागनाथ कह देने से कही वह सांप निर्विष न हो जायगा, उसके संकट तो झेलना ही पड़ेगा, ऐसे ही ये लोक की सम्पदा और विपदा है, इनमें मोही जीव सम्पदाको भला मानता है, यह बहुत भला है, इससे बड़ा सुख है, पर ज्ञानी जानता है कि सम्पदा और विपदा दोनों ही दुःख के कारण है। पुण्य और पाप दोनों ही ज्ञानी के लिए मात्र ज्ञेय रहते हैं,वह पुण्य के फल में हर्ष नहीं मानता है और पाप के फल में विषाद नहीं करता है। समता बुद्धि रखता है। ज्ञानी की धुन तो अलौकिक अध्यात्मरस के पान की और लगी हुई है। जिसने अद्वैत निज आत्मतत्त्व का अनुभव किया है उसे संकट कैसे सता सकेंगे?
सर्व स्थितियों में परमार्थतः पदार्थ की स्वतंत्रता—ये समस्त पदार्थ स्वतंत्र है, अपने स्वरूप से है पर के स्वरूप से नहीं है। अशुद्ध अवस्था में पर का निमित्त पाकर अशुद्ध परिणत हो जाते हैं तिस पर भी यह जीव अशुद्ध होता है अपनी ही शक्ति के परिणमन से, दूसरे पदार्थ ने उसे अशुद्ध नहीं कर दिया। प्रत्येक पदार्थ अद्वैत है, अपने ही परिणमनरूप परिणमता है। हम दुःखी होते हैं तो अपने आप में कल्पनाएँ रचाते हैं और उन कल्पनाओं से दुःखी हुआ करते हैं और हम सुखी होते हैं तो अपनी कल्पनाएँ बनाकर ही सुखी होते हैं। कोई पदार्थ किसी अन्य पदार्थ को सुखी दुःखी करने में समर्थ नहीं है। जो घर मोह अवस्था में प्रिय लगता था वही घर आज वैराग्य जगने पर प्रिय नहीं लगता है। ये सारी सृष्टियाँ, सुख, दुःख, संकल्प, विकल्प भोग, उपभोग आदि समस्त सृष्टियाँ इस आत्मा से ही उठकर चला करती है।
आत्मा के एकत्व चिन्तन में शान्ति समृद्धि का अभ्युदय—इस आत्मा के ध्यान मे आत्मा अद्वैतरूप रहती है, अब किसका ध्यान करे, जब यह जीव संसार अवस्था में है, कर्म आदिक का संयोग चल रहा है तब भी यह जीव वस्तुतः अपना परिणमन कर रहा है। इस अशुद्ध निश्चय की दृष्टि से भी अपने आपके एकत्व को सम्हाले तो इस अशुद्ध निश्चयनय से आगे चल कर केवल निश्चयनय में आ सकते हैं। अपने आपको जितना भी अकेला चिन्तन किया जाये सबसे न्यारा केवल ज्ञानानन्दस्वरूप मात्र हूँ—इस प्रकार का अपना अकेलापन चिन्तन किया जाए, तो उस जीव में शान्ति का उदय होगा। किसी दूसरे पर दृष्टि रखकर शान्ति कभी आ ही नहीं सकती है।
मोक्षमार्ग में सम्यक्त्व का आद्यस्थान—मोक्ष मार्ग में सम्यक्त्व का प्रथम स्थान है। जो जैसा पदार्थ है उस पदार्थ को वैसा समझ लेना यही सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व के बिना इस जीव ने इतने मुनिपद धारण किए होंगे कि एक-एक मुनि अवस्था का एक-एक कमंडल जोड़ा जाय तो अनेक मेरू पर्वत बराबर ढेर लग जायगा। भेष रखने में अथवा अपनी कपोल कल्पित मान्यता के द्वारा क्रियायें करने में कौन सा बड़प्पन है? केवल एक संयोग में रूप बदल गया है। अज्ञानदशा में गृहस्थ रहता हुआ गृहस्थ के योग्य विकल्प मचाने का काम करता था, अब अज्ञान दशा में मुनि का रूप रखकर अब मुनि की चर्या जैसा विकल्प का काम करता है, पर अज्ञानदशा तो बदल नहीं सकती देह के कुछ भी कार्य बनाने से। यह अज्ञानदशा भी ज्ञान का उदय होने से ही दूर की जा सकती है। ज्ञान बिना सम्यक्त्व नहीं, ज्ञान बिना ध्यान, तप, व्रत, संयम नहीं, ज्ञान बिना आत्मा के उद्धार का कभी उपाय नहीं बन सकता। इस कारण अपने आप पर यदि दया आती है, तरस आती है, अनन्तकाल से भटकते हुए इस आत्मप्रभु की और यदि कुछ करुणा जगती है तो सर्वप्रथम तत्त्वज्ञान का अभ्यास बनावे। धन वैभव पुद्गल ढेर का संचय—इसमें आस्था बुद्धि न रक्खें, ये शान्ति के कारण न कभी हुए है और न हो सकते हैं।
प्रत्येक पदार्थ के अद्वैतता के निर्णय में मुक्ति का आरम्भ—भैया ! जब यह जीव ही बाह्य विकल्पों को तोड़कर अपने आपके सहजस्वरूप में मग्न होगा तब उसे शान्ति प्राप्त होगी। यों अद्वैत स्वरूप के ध्यान के लिए यह निर्णय दिया है कि जब तुम कुछ देते ही नहीं, तुम किसी दूसरे में कुछ कर सकते ही नहीं तो तुम्हारा परपदार्थों से क्या सम्बंध है? तुम्हारे प्रत्येक परिणमन में तुम ही परिणमन वाले हो और तुम्हारा ही वह परिणमन है। फिर सम्बंध क्या किसी अन्य पदार्थ से? जब यह आत्मा ही ध्यान है, आत्मा ही ध्याता है तो फिर इसका किसी भी पदार्थ से रंच सम्बंध नहीं है। एक निज ज्ञानानन्दस्वरूप ही जो ध्यान करता है वह शीघ्र ही निकट काल में मोक्षपद प्राप्त करता है।
।।इति इष्टोपदेश प्रवचन प्रथम भाग समाप्त।।