इष्टोपदेश - श्लोक 46: Difference between revisions
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Revision as of 15:22, 16 April 2020
अविद्वान पुद्गलद्रव्यं योऽभिनन्दनि तस्य तत्।
न जातु जन्तोःसामीप्यं चतुर्गतिषु मुचति।।४६।।
मोही की मान्यता—जो अविद्वान व्यवहारी पुरुष पुद्गल द्रव्य को, यह मेरा है, यह इनका है—इस प्रकार से अभिनन्दन करते हैं अर्थात् मानते हैं उन जंतुओं का इस बहिर्मुखता में भ्रमण नहीं छूटता और चारों गतियों मे पुद्गल द्रव्य उसके निकट रहते हैं। लोक में ६ जाति के पदार्थ होते है—जीव, पुद्गल, धर्म अधर्म, आकाश और काल। इनमें जीव तो अनन्तानंत है, पुद्गल जीवों से भी अनन्तगुणे है। धर्मद्रव्य एक है, अधर्मद्रव्य एक है, आकाश द्रव्य एक है और कालद्रव्य असंख्यात है, ये सभी स्वतंत्र है, किन्तु मोही जीव स्वतंत्र नहीं समझ पाता।
जीव की अनन्तानन्त गणना—जीव कैसे अनन्तानन्त है, यह बात अनुभव से भी जान रहे हैं। आपका अनुभवन, परिणमन केवल आपके आत्मा मे हो रहा है, उसका अनुभव मुझ में नहीं होता। मेरे आत्मा का जो परिणमन जो अनुभवन हो रहा है वह मुझमें हो रहा है, आप सब किसी में भी नहीं हो रहा है। यह वस्तुस्वरूप की बात कही जा रही है। ध्यानपूर्वक सुनने से सब सरल हो जाता है। अपनी बात अपनी समझ में न आए, यह कैसे हो सकता है? जब इतना क्षयोपशम पाया है कि हजारों लाखों का हिसाब किताब और अनेक जगहों के प्रबन्ध जब कर लिए जा सकते हैं इस के द्वारा तो यह ज्ञान अपने आप में बसे हुए स्वरूप को भी न जान सके, यह कैसे हो सकता है, किन्तु व्यामोह को शिथिल करके जगत की असारता सामान्य रूप से निगाह में रखकर कुछ अंतः उपयोग लगायें तो बात समझ में आ जाती है। हाँ जीव अनन्तानन्त कैसे है—इस बात को कहा जा रहा है। हमारा परिणमन, हमारा अनुभवन हम ही में है, आपका आप ही में है। इससे यह सिद्ध है कि हम आप सब एक-एक स्वतंत्र जीव है। यदि इस जगत में सर्वत्र एक ही जीव होता तो हमारा विचार हमारा अनुभवन सबमें एक साथ, एक समान अथवा वही का वही होता। यों ऐसे-ऐसे एक-एक करिके समस्त जीव अनन्तानन्त विदित कर लेना चाहिये।
एक द्रव्य का परिणमन—एक पदार्थ उतना होता है जिसमें प्रत्येक परिणमन उस पूरे में होना ही पड़े। कोई परिणमन यदि पूरे में नहीं हो रहा है तो समझो कि वह एक चीज नहीं है। अनन्तानन्त वस्तु है, जैसे कोई कपड़ा एक और से जल रहा है तो वह एक चीज नहीं जल रही है। उसमें जितने भी तंतु है वे सब एक-एक है और उन तंतुओं में जितने खंड हो सकते हैं वे एक-एक द्रव्य है। यह अनेक द्रव्यो का पिंड है इस कारण एक परिणमन उस पूरे में एक साथ नहीं हो रहा है। जिसको कल्पना में एक माना है, इस तरह हम आप सब अनन्त जीव है।
जीवों से अनन्तगुणे पुद्गलों का निरूपण—जीव से अनन्तगुणे पुद्गल है। ये कैसे माना जाय ? यों देखिए—इन संसारी जीवों में एक जीव को ले लीजिए—एक जीव के साथ जो शरीर लगा है उस शरीर में अनन्त परमाणु है और उस शरीर के भी अनन्तगुणे परमाणु इस जीव के साथ लगे हुए तैजस शरीर में है और उससे भी अनन्तगुणे परमाणु जीव के साथ के साथ लगे हुए कार्माण शरीर में है। एक जीव के साथ अनन्त पुद्गल लगे हुए है और जीव है अनन्तानंत तो पुद्गल समझ जाइये कितने है। यद्यपि सिद्ध भगवान स्वतंत्र एक-एक है और वे भी अनन्त है, किन्तु सिद्ध से अनन्तानन्त गुणे ये संसारी प्राणी है, इसलिए उससे भी हिसाब में बाधा नहीं आती है। अब आपके ये अणु-अणु एक-एक है, हम आप सभी जीव एक-एक अलग-अलग है। तो यह निर्णय कर लो कि मेरा करना जो कुछ हो सकता है वह मुझमें ही हो सकता है, मैं किसी दूसरे में कुछ करने में समर्थ नहीं हूं। केवल कल्पना करके मैं अपने को विकल्प ग्रस्त बनाये रहता हूं किसी दूसरे का कुछ करता नहीं हूँ। सुख दुःख जीवन मरण सब कुछ इस जीव के अकेले ही अकेले चलते हैं। कोई किसी का शरण अथवा साथी नहीं है। जब वस्तु में इतनी स्वतंत्रता पड़ी हुई है फिर भी कोई व्यामोही पुरुष माने कि शरीर मेरा है, यह मेरा है, इस प्रकार का भिन्न द्रव्य स्वामित्व माने तो उसके साथ यह शरीर सदा लगा रहेगा अर्थात् वह संसार में भ्रमण करता रहेगा। जीव के प्रतिबोध के लिए प्रत्येक मिथ्या वासनाएँ हट जानी चाहिये।
क्लेशमूल तीन अवगुण—एक तो परपदार्थ में अपना स्वामित्व मानना और दूसरे परपदार्थों का आपको कर्त्ता समझना, अपने आपको परपदार्थों को भोगने वाला समझना। देखिये ये तीनों ऐब संसारी प्राणी में भरे पडे़ हुए है। इन तीनों में से एक भी कम हो तो वे तीनों ही कम हो जायेंगे। मोह में परजीवों के प्रति कितना तीव्र स्वामित्व का भाव लगा है, ये ही मेरे है। जो कुछ कमाना है, जो कुछ श्रम करना है केवल इनके खातिर करना है। बाकी जगत के अन्य जीवों के प्रति कुछ भी सोच विचार नहीं है। कर्तृत्व बुद्धि भी ऐसी लगी है कि इन बच्चों को मैने ही पाला, मैने ही अमुक काम किया, ऐसी कर्तृत्वबुद्धि भी लगी है, पर परमार्थतः कोई जीव दूसरे पदार्थ का कुछ कर सकने वाला नहीं है। यह मिथ्या भ्रम है कि कोई अन्य किसी का कुछ कर सके, अथवा किसी की गल्ती से किसी दूसरे को नुकसान सहना पड़ता है। जो भी जीव दुःखी होते हैं वे अपनी कल्पना से दुःखी होते हैं,किसी को दुःखी करने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं है।
कर्तृत्व के भ्रम पर एक दृष्टान्त—एक सेठ था, उसके चार लड़के थे। बड़ा लड़का कमाऊ था, उससे छोटा जुवारी था, उससे छोटा अंधा और सबसे छोटा पुजारी था। बडे़ लड़के की स्त्री रोज-रोज हैरान करे कि देखो तुम सारी कमाई करते हो, दुकान चलाते हो और ये सब खाते हैं। तुम न्यारे हो जावो तो जितना कमाते हो सब अपने घर में रहेगा। बहुत दिनों तक कहासुनी चलती रही। एक बार सेठ से बोला बड़ा लड़का कि पिताजी अब हम न्यारे होना चाहते हैं। तो सेठ बोला कि कुछ हर्ज नहीं बेटा, न्यारे हो जाना, पर एक बार सब लोग मिलकर तीर्थयात्रा कर लो। न्यारे हो जाने पर न जाने किसका कैसा भाग्य है? सो चले सब यात्रा के लिए। रास्ते में एक नगर बगीचे में अपना डेरा डाल दिया और चार पांच दिन के लिए बस गए। पहिले दिन सेठ ने बडे़ लड़के को १० रु० देकर कहा कि जावो सबके खाने के लिए सामान ले आवो। वह सोचता है कि १० रु० में हम तीस, बत्तीस आदमियों के खाने को क्या लाएँ, सो उसने किसी बाजार से कोई चीज खरीदी और पास के बाजार में जाकर बेच दी तो १ ) मुनाफा मिला। अब ११) का सामान लेकर वह आया और सबको भोजन कराया। दूसरे दिन दूसरे, जुवारी लड़के को १०) देकर भेजा, कहा बाजार से १०) की भोजन सामग्री ले आवो। वह चला १०) लेकर। सोचता है कि इतने का क्या लाएँ? तीस बत्तीस आदमियों के खाने के लिए, सो वह जुवारियों के पास पहुंचा और एक दाव में १०) लगा दिए, समय की बात कि वह जीत गया, अब २०) हो गए, सो २०) की भोजन सामग्री लेकर सबको खिलाया। तीसरे दिन अंधा लड़का १०) लेकर भोजन सामग्री लेने के लिए चला। उसे रास्ते में एक पत्थर में ठोकर लग गयी। सो सोचा कि इसे निकाल फेंके, नहीं तो किसी दूसरे के लग जायगा। सो निकालने लगा। वह पत्थर काफी गहरा गड़ा था सो उसके खोदने में विलंब लग गया। जब वह पत्थर खोद डालना तो उसमें एक अशर्फियाँ का हंडा मिला। उन अशर्फियों से उसने भोजन सामग्री खरीदी और सब अशर्फियों को लेकर घर पहुंचा।
चौथे दिन उस सेठ ने अपने लड़के पुजारी को १०) देकर भोजन सामग्री लाने के लिए भेजा। उसे नगर में मिला एक मन्दिर। उसने क्या किया कि एक चाँदी का कटोरा खरीदा, घी खरीदा और रुई की बाती बनाई। आरती धरकर मंदिर में भजन करने लगा। भजन करते-करते जब शाम के चार बज गये तो मंदिर का अधिष्ठाता देव सोचता है कि इसके घर में भूखे पड़े है, इसमें तो धर्म की अप्रभावना होगी, सो उस लड़के का रूप बनाकर बहुत-सी भोजन सामग्री गाड़ियों में लादकर सेठ के यहाँ ले गया। सबने खूब भोजन किया और सारे नगर के लोगो को खिलाया। अब रात के ७-८ बजे वह लड़का सोचता है कि अब घर चलना चाहिए। पहुंचा घर रोनी सी सूरत लेकर, कहा पिता जी मैने १०) की सामग्री लेकर मंदिर में चढ़ा दिया। पिताजी हमसे अपराध हुआ, आज तो सब लोग भूखे रह गए होगे। तो पिता जी बोले- बेटा यह तुम क्या कह रहे हो? तुम तो इतना सामान लाए कि सारे नगर के लोगो को खिलाया और खुद खाया। तो पुजारी ने अपना सारा वृतान्त सुनाया। मैं तो मंदिर में आरती कर रहा था। तो फिर मैने सोचा कि इस कटोरे को भी कौन ले जाय सो उसे भी छोड़कर चला आया। चार-पांच दिन व्यतीत होने पर एकांत स्थान में बडे़ लड़के को बुलाकर सेठ पूछता है—कहो भाई यह तो बताओ कि तुम्हारी तकदीर कितनी है? तो वह बोला कि मेरी तकदीर एक रुपये की है, और जुवारी की तकदीर है उससे दस गुना, और अंधे की तकदीर हजार गुना और पुजारी के गुणों का तो कोई हिसाब ही नहीं है। जिसकी देवता तक भी मदद करें उसकी तकदीर का क्या गुना निकाला जा सकता है? जब उस बड़े लड़के की समझ में आया, और बोला—पिता जी मैं व्यर्थ ही कर्तृत्व बुद्धि का अहंकार कर रहा था। मैं नहीं समझता था कि सब का भाग्य अपने-अपने साथ है। अब मैं अलग न होऊँगा।
परकी अपनायत में विडम्बना—यह जीव भ्रमवश कर्तृत्व बुद्धि का अहंकार करता है। इस जीव का तो अकर्त्ता स्वरूप है, केवल ज्ञाताद्रष्टा ज्ञानानन्दका पुज चित्स्वभाव मात्र अपने आप विश्वास बनावो। भ्रमवश यह जिस भव में गया उस ही पर्यायरूप यह अपने को मान रहा है। पशु हुआ तो पशु माना, पक्षी हुआ तो पक्षी माना। जैसे कि आजकल हम आप मनुष्य है तो ऐसी श्रद्धा बैठाए है कि हम मनुष्य है, इंसान है। बहुत बड़ी उदारता दिखाई तो जाति का भेद मिटा दो, कुलका भेद मिटावो, एक मनुष्य-मनुष्य मान लो सबको। इतना तक ही विचार पहुंचता है अथवा इतनी भी उदारता का भाव चित्त में नहीं आता। अरे इससे अधिक उदारता यह है कि यह मान लो कि हम मनुष्य ही नहीं है। मैं तो एक चैतन्य तत्त्व हूं। आज मनुष्य देह में फंस गया हूँ,कभी किसी देह में था। मैं कहाँ मनुष्य हूं, मनुष्य भव से गुजर रहा हूं। अपने आपको विशुद्ध ज्ञानानन्दस्वरूप इस जीव ने नहीं माना। इसके फल में परिणाम यह निकला कि इस जीव के साथ सारी विडम्बनाएँ साथ-साथ चल रही है, जन्म मरण की संतति बनती चली जा रही है।
ज्ञानामृत—भेदविज्ञान ही एक अमृत है। उस अमृत को कैसे पकड़ोगे, अमृत कोई पानी जैसा नहीं होता अमृत कोई फल जैसा नहीं होता। अमृत क्या चीज है जिसका पान करने से यह आत्मा अमर हो जाता है? जरा बुद्धि में तो लावो। अमृत का अर्थ क्या है? अ मायने नहीं, मृत मायने मरे, जो मरे नहीं सो अमृत है। जो स्वयं कभी मरे नहीं अर्थात् नष्ट न हो उसे अमृत कहते हैं। जो कभी नष्ट न हो ऐसी वस्तु मेरे लिए है ज्ञान। ज्ञानस्वभाव कभी नष्ट नहीं होता। इस अविनाशी ज्ञानस्वभाव को जो लक्ष्य में लेता है अर्थात् इस ज्ञानामृत का पान करता है वह आत्मा अमर हो जाता है। अमर तो है ही यह, पर कल्पना में जो यह आया कि मैं मनुष्य हूँ, अब तक जीवित हूँ, अब मर रहा हूं, ऐसी जो बुद्धि आयी उसके कारण संसार में रुलना पड़ रहा है। मोह का माहात्म्य तो देखा—यह जीव विषय-विषरस को तो दौड़ दौड़कर भटक भटककर पीता है और इस ज्ञानामृत का इसने निरादर कर दिया है, उसकी और तो यह देखता भी नहीं है। जो-जो जन्तु पुद्गलद्रव्य को अपना मानते हैं उनके साथ ये पुद्गल के सम्बन्ध की विडम्बनाएं चारों गतियों में साथ नहीं छोड़ती है।
पुद्गलों का मुझमें अत्यन्ताभाव—इन पुद्गलों का मुझ में अत्यन्ताभाव है। मेरा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव किसी भी अणु में नहीं पहुंच सकता है । किसी अणु का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मुझ में नहीं आ सकता है। जैसे घर में बसने वाले १० पुरुषों में परस्पर में एक दूसरे से मन न मिलता हो तो लोग कहते हैं कि एक घर में रहते हुए भी वे बिल्कुल न्यारे-न्यारे रहते हैं। वहाँ तो फिर भी क्षेत्र जुदा है, किन्तु यहाँ शरीर है वहाँ ही जीव है, एक क्षेत्रावगाह सम्बंध है, फिर भी जीव का कोई अंश इस शरीर में नहीं जाता, शरीर का कोई अंश इस जीव में नहीं आता। एक क्षेत्रावगाही होकर भी शरीर-शरीर में परिणम रहा है और जीव-जीव में परिणम रहा है। यों सर्वथा भिन्न है ये बाह्य समागम, ये आत्मा के न कभी हुए और न कभी हो सकते हैं,किन्तु मिथ्या आशय जब पड़ा हुआ है, अपने आपके सुख स्वरूप का परिचय नहीं पाया है तो भेदविज्ञान का विवेक नहीं हो पाता है। इस जगत में रहकर मौज मानने का काम नहीं हे। कितनी विडम्बना हम आपके साथ लगी है उस पर दृष्टिपात करे उन विपत्तियों से छूटने का यथार्थ उपाय बनाये।
माया की वाञ्छा अनर्थ का मूल—इस मायामय जगत में मायामय लोगो को निरखकर मायामय यश की मायामय चाह करना यह अनर्थ का मूल है। एक आनन्दधाम अपने आपके परमार्थ ब्रह्मस्वरूप का दर्शन करे, आनन्द वही से निकलकर आ रहा है, विषय सुख भी जब भोगा जाता है वहाँ भी आनन्द विषयों से नहीं आ रहा है किन्तु आनन्द का धाम यह स्वयं आत्मा है और उस विकृत अवस्था में भी इस ही से सुख के रूप में यह आनन्द प्रकट हो रहा है। जो बात जहाँ नहीं है। वहाँ से कैसे प्रकट हो सकती है? जैसे यह कहना मिथ्या है कि मैं तुम पर प्रेम करता हूं, अरे मुझ में प्रेम पर्याय उत्पन्न होती है वह मेरे में ही होती है, मेरे से बाहर किसी दूसरे जीव पर वह प्रेमपर्याय नहीं उतर सकती है। जैसे यह कहना मिथ्या है ऐसे ही यह कहना भी मिथ्या है कि मैने भोग भोगा, मैंने अमुक पदार्थ का सेवन किया। यह मैं न किसी पर को कर सकता हूँ और न कोई भोग-भोग सकता हूँ, किन्तु केवल अपने आप में अपने ज्ञानादिक गुणों का परिणमन ही कर सकता हूँ। चाहे मिथ्या विपरीत परिणमन करूँ और चाहे स्वभाव के अनुरूप परिणमन करूँ, पर मैं अपने आपको करने और भोगने के सिवाय और कुछ नहीं करता हूं और न भोगता हूं। यह वस्तु की स्वतंत्रता जब ज्ञान में उतर जाती है तो मोह दूर हो जाता है।
मोहविनाश का उपाय भेदविज्ञान—भैया ! प्रभु की भक्ति से, प्रभु से भिक्षा मांगने से या अन्य प्रकार के तप करने से मोह नहीं गलता। मोह गलने का मूल मंत्र तो भेदविज्ञान है। ये भक्ति, तप, व्रत संयम कहाँ तक काम देता है, इसको भी सुनिये। यह जीव अनादि से विषय वासना में जुटा हुआ है। इसका उपयोग विषयवासना में न रहे और उसमें इतनी पात्रता आए कि यह ज्ञानस्वरूप का दर्शन कर सकेगा, उसके लिए पूजन, भक्ति, तप, संयम, व्रत ये सब व्यवहार धर्म है, पर मोह के विनाश की समस्या तो केवल भेदविज्ञान से ही सुलझती है, क्योंकि किसी पदार्थ में कर्तृत्व और भोक्तृत्व की बुद्धि मानने से ही तो अज्ञानरूप यह मोह हुआ। परपदार्थ की भिन्नता न जान सके और उसे एक दूसरे का स्वामी मान ले, इसी मानने का ही तो नाम मोह है। जैसे कोई पुरुष अपने परिजनों में मोह करता है तो उसका अर्थ ही यह हे कि इन परिजनों को आपा माना है, आत्मा समझा है। यह आत्मीयता का जो भ्रम है इसके मिट जाने का ही नाम मोह का विनाश है। यह ज्ञान से ही मिटेगा। भगवान की पूजा करते हुए में भी हम अपने ज्ञान पर बल दे तो मोह मिटेगा, पर अन्य उपायों से यह मोह नहीं मिट सकता है।
सद्विेवेक—जब विवेक बनेगा तभी तो यह समझेगा कि यह हेय है और यह उपादेय है। जब तक विवेक नहीं जगता, तब तक मोह रागद्वेष की संतति चलती ही रहती है और उससे नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव इन चारों गतियों में जन्म मरण करना ही पड़ता हे। वैसे कहाँ दुःख है, शारीरिक मानसिक कहाँ क्लेश है? इससे तो थोड़े ही खोटे मनुष्य, पशु, पक्षी, कीड़ा, मकोड़ा इनको देखकर जाना जा सकता है कि संसार में कैसे क्लेश होते हैं,इन सब क्लेशो को सहता हुआ भी यह मोही जीव परद्रव्यों के मोह को नहीं त्यागना चाहता और उनसे विरक्त होकर अपने आप में वह नहीं आना चाहता है, यह दशा इस व्यामोही जीव की हो रही है कर्तव्य यह है विरक्त होकर अपने आप में वह नहीं आना चाहता है, यह दशा इस व्यामोही जीव की हो रही है। कर्तव्य यह है कि वस्तुस्वरूप का यथार्थ बोध करें और इस मोहपरिणाम को मिटा दे, जिससे इस ही समय क्लेशो का बोझ हट जाये, यही एक उपाय है इस मनुष्यजन्म को सफल करने का कि हम सच्चा बोध पायें और संकटो से छूटने का मार्ग प्राप्त करे।