इष्टोपदेश - श्लोक 9: Difference between revisions
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Revision as of 15:22, 16 April 2020
दिग्देशेभ्यः खगा एत्य संवसंति नगे नगे।
स्वस्वकार्यवशाद्यांति देशे दिक्षु प्रगे प्रगे।।९।।
क्षण संयोग का पक्षियों के दृष्टान्तपूर्वक समर्थन—जैसे पक्षीगण नाना देशों से उड़ करके शाम के समय पेड़ पर बैठ जाते हैं,रात्रिभर वहाँ बसते हैं,फिर वे अपने-अपने कार्य के वश से अपने कार्य के लिए प्रभात होते ही चले जाते हैं इस ही प्रकार ये संसार के प्राणी, हम और आप अपने-अपने कर्मोदय के वश से नाना गतियों से आकर एक स्थान पर, एक घर में इकट्ठे हुए है, कुछ समय को इकट्ठे होकर रहते हैं,पश्चात् जैसी करनी है, जैसा उदय है उसके अनुसार भिन्न-भिन्न गतियों में चले जाते हैं।
क्षण संयोग पर यात्रियों का दृष्टान्त—ऐसी स्थिति है इस संसार की जैसे यात्री गण किसी चौराहे पर कोई किसी दिशा से आकर कोई किसी दिशा से आकर मेले हो जायें तो वे कितने समय को मेले रहते हैं। बस थोड़ी कुशलक्षेम पूछी, राम-राम किया, फिर तुरन्त ही अपना रास्ता नाप लेते हैं। ऐसे ही भिन्न-भिन्न गतियों से हम और आप आये हैं,एक महल में जुड़ गये हैं,कोई कही से आया कोई कही से, कुछ समय को इकट्ठे है जितने समय का संयोग है उतना समय भी क्या समय है? इस अनन्तकाल के सामने इतना समय न कुछ समय है। ऐसे कुछ समय रहकर फिर बिछुड़ जाना है फिर किसी से राग करने में क्या हित है?
क्षण भंगुर जीवन में वास्तविक कर्तव्य—भैया ! थोड़े अपने जीवन में भी देख लो। जो समय अब तक गुजर गया है सुख में, मौज में वह समय आज भी ऐसा लग रहा कि कैसे गुजर गया? सारा समय यों निकल गया कि कुछ पता ही नही पडा़। तो रही सही जिन्दगी यों ही निकल जायगी कि कुछ पता ही न रहेगा। ऐसी परिस्थिति में हम और आपका कर्तव्य क्या है? क्या धन के मोह मे; परिवार के मोह में पड़े रहना ही अपना काम है? धन का मोह धन के मोह के लिये नहीं है, अपने नाम के मोह के लिये हैं इसीलिये तो लोग धन का मोह रखते हैं कि यह बहुत जुड़ जाय तो हम दुनिया के बीच में कुछ बड़े कहलाएं। अरे पर वस्तु के संचय कोई बड़ा नही कहलाता है। मान लो क इस अज्ञानमय दुनिया ने थोड़ा बड़ा कह दिया, पर करनी है खोटी कर्म बंध होता है खोटा, तो मरने के बाद एकदम कीड़ा हो गया, पेड़ बन गया तो अब कहां बड़प्पन रहा अथवा बड़प्पन तो इस जीवन में भी नही है। काहे के लिए धन का मोह करना, उससे शान्ति और संतोष नही मिलता और किसलिए परिजन से मोह करना? कौन सा पुरुष अथवा स्त्री कुटुम्बी हमारा सहायक हो सकता है? सबका अपना-अपना भाग्य है, सबकी अपनी-अपनी करनी है, जुदी-जुदी कषायें है, सब अपने ही सुख तन्मय रहते हैं। परिजन में भी क्या मोह करना? ठीक स्वरूप का भान करलें यही वास्तविक कर्तव्य है।
संसार में संयोग वियोग की रीति—गृहस्थी में जो कर्तव्य है ऐसे गृहस्थी के कार्य करे, पर ज्ञानप्रकाश तो यथार्थ होना चाहिए। यह दुनिया ऐसी आनी-जानी की चीज है। जैसा एक अलंकार में कथन है जब पत्ता पेड़ से टूटता है तो उस समय पत्ता पेड़ से कहता है—पत्ता पूछे वृक्ष से कहो वृक्ष बनराय। अबके बिछुड़े कब मिले दूर पड़ेगे जाये।। पत्ता पूछता है कि है वृक्षराज! अब हम आपसे बिछुड़ रहे हैं अब कब मिलेंगे? तब वृक्ष यो बोलियो—सुन पत्ता एक बात। या घर याही रीति है इक आवत इक जात।। पेड़ कहता है कि ऐ पत्ते! इस संसार की यही रीति है कि एक आता है और एक जाता है। तुम गिर रहे हो तो नये पत्ते आ जायेंगे। ऐसा ही यहाँ का संयोग है, कोई आता है कोई बिछुड़ता है। जो आता है वह अवश्य बिछुड़ता है।
तृष्णा का गोरखधंधा—भैया ! बड़ा गोरखधंधा है यहाँ का रहना। मन नही मानता है, इस दुनिया मे अपनी पोजीशन बढ़ाना, और बाह्य में दृष्टि देना, इससे तो आत्मा का सारा बिगाड़ हो रहा है, न धर्म रहे, न संतोष से रहे, न सुख रहे। तृष्णा के वश होकर जो सम्पदा पास में है उसका भी सुख नही लूट सकते। जो कुछ उसमें अच्छी प्रकार से तो गुजारा चला जा रहा है, सब ठीक है, पर अपने चित्त मे यदि तृष्णा हो जाए तो वर्तमान में जो कुछ है उसका भी सुख नही मिल पाता। इस संसार के समागम में कहीं भी सार नही है।
सचेतन संग का कड़ा उत्तर—और भी देखो कि अचेतन पदार्थ कितने ही सुहावने हो, किन्तु अचेतन पदार्थ कुछ उसे मोह पैदा कराने की चेष्टा नही करते हैं,क्योंकि वे न बोलना जानते हैं,न उनमें कोई ऐसा कार्य होता है जो उसके मोह की वृद्धि के कारण बने। ये चेतन पदार्थ मित्र, स्त्री आदि ऐसी चेष्टा दिखाते हैं,ऐसा स्नेह जताते हैं कि कोई विरक्त भी हो रहा हो तो भी आत्मकार्य से विमुख होकर उनके स्नेह में आ जाता है। तब जानो कि ये चेतन परिग्रह एक विकट परिग्रह है, ये सब जीव नाना दिशावों से आये हैं,नाना गतियों से चले जायेंगे। इन पाये हुए समागमों में हित का विश्वास नही करना है। मेरा हित हो सकता है तो यथार्थ ज्ञान से ही हो सकता है। सम्यग्ज्ञान के बिना कितने भी यत्न कर लो संतोष व शान्ति प्रकट न हो सकेगी। यहाँ रहकर जो इष्ट पदार्थ मिले हैं उनमें हर्ष मत मानो, और कभी अनिष्ट पदार्थ मिलते हैं तो उनमें द्वेष मत मानो।
अपने बचाव का कर्तव्य—भैया ! ये इष्ट अनिष्ट पदार्थ तो न रहेंगे साथ, किन्तु जो हर्ष और विषाद किया है उसका संस्कार इसके साथ रहेगा, अभी और परभव में क्लेश पैदा करेगा। इस कारण इष्ट वस्तु पर राग मत करो और जो कोई अनिष्ट पदार्थ है उनसे व जो प्राणी विराधक है, अपमान करने वाले हैं या अपना घात करने वाले हैं,बरबादी करने वाले हैं,ऐसे प्राणियों से भी अन्तर में द्वेष मत करो। बचाव करना भले ही किन्ही परिस्थितियों मे आवश्यक हो, पर अंतरंग में द्वेष मत लावो। मेरे लिए कोई जीव मुझे बुरा नही करता है क्योंकि कोई कुछ मुझे कर ही नही सकता है। कोई दुष्ट भी हो तो वह अपन परिणाम भर ही तो बनायेगा, मेरा क्या करेगा ? मैं ही अपने परिणामों से जब खोटा बनता हूँ तो मेरे को मुझसे ही नुक्सान पहुँचता है तो इष्ट पदार्थ में न राग करो और न अनिष्ट पदार्थ में द्वेष करो।