इष्टोपदेश - श्लोक 18: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:16, 17 April 2020
भवन्ति प्राप्य यत्सङ्गमशुचीनि शुचीन्यपि।
स कायः संततापायस्तदर्थं प्रार्थना वृथा।।१८।।
शरीरका रूपक—जिस शरीर के सम्बंधको पाकर पवित्र पदार्थ भी अपवित्र हो जाते हैं ऐसा शरीर है और यह निरन्तर विनाश की और जाने वाला है। उस शरीर के लिये आशा, प्रार्थना करना व्यर्थ की बात है। इसका नाम काय है। जो संचित किया जाय उसका नाम काय है। यह शरीर अनेक स्कंधों के मिलने से ऐसी शक्ल का बन जाता है। इसका नाम शरीर है, जो जीर्ण हो, शीर्ण हो, गले उसका नाम शरीर है। यदि व्युत्पत्ति की दृष्टि से देखा जाय तो जवानी तक तो इसका नाम काय कहो और बुढ़ापे में इसका नाम शरीर कह लो। काय उसे कहते हैं जो बढ़े, शरीर उसे कहते हैं जो गले। यह काय पुद्गलका पिंड है। यह शरीर जिन परमाणुवों से बना है वे परमाणु भी स्वयं अपवित्र नही है। फिर उन स्कंध पर जब इस जीव ने अपना कब्जा किया तब ये परमाणु स्कन्ध शरीर भी अपवित्र हो गए। जब तक जीव जन्म नही लेता, गर्भ में नही आता है तब तक ये शरीर के स्कंध यत्र तत्र बिखरे पड़े पवित्र है। जहाँ इस जीवने उन शरीर स्कंधों पर अपना कब्जा किया कि ये अपवित्र बन जाते हैं।
शरीर की अशुचिताके परिज्ञानका लाभ—लोग कहते हैं कि शरीर अपवित्र है, ठीक है, कहना चाहिए क्योंकि शरीर के मोह में आकर यह जीव अन्याय कर डालता है, खोटी वासनाएँ करता है। जिन वासनाओं में कुछ तत्त्व नही है, केवल मन की कल्पना की बात है, आत्मा की बरबादी है सो ऐसी खोटी कल्पनाएँ जिसमें शरीर का आकर्षण है, आत्मा को संकटी करने के लिए हुआ करती है, इस कारण शरीर को अपवित्र बताना बहुत आवश्यकता बात है। कहना ही चाहिए शरीर को अशुचि, किन्तु कुछ ओर प्रखर दृष्टि से निरखो तो यह शरीर स्वयं कहाँ गंदा है। यह एक पुद्गलका पिण्ड है। जो है। सो है। इस हालत मे भी जो है सो है, और जब इस शरीर को जीवने ग्रहण न किया था उस समय तो ये स्कंध बहुत पवित्र थे । हाड़ मांस रूधिररूप भी न थेलेकिन यह शरीर गंदा किस कारण बन गया है ? यह केवल रागी मोही जीव के सम्बंधका काम है। इस कारण शरीर गंदा नहीं है, यह रागी द्वेषी मोही जीव गंदा है। शरीर तो एक पुद्गल है। जैसे ये चौकी काठ वगैरह है ये भी पुद्गल यह शरीर भी पुद्गलका है, पर यह और ढंगका पुद्गल है। इस शरीर में गंदगी क्या है? जो है हमको उसके ज्ञाता है रहना है, जान लेना है।
निर्विचिकित्सा—भैया ! निर्विचिकित्सा अंग जहाँ बताया जाता है सम्यग्दर्शनके प्रकरण में वहाँ तीन बातें कही जाती है। एक तो अशुचि पदार्थ को देखकर घृणा का भाव न लाना। ज्यादा थूकाथाकी वाली चीज को निरखकर मुंहमें पानी बह आना। जैसे थूकना पड़ता है तो यह भी थूकाथाकी घृणा का रूपक है । साधु संतजन ऐसी थूकाथाकी नही किया करते हैं। अन्य अपवित्र पदार्थों को निरखकर वे घृणा ग्लानि नही करते। व्यवहार जरूर उनसे बचने का रहता है, क्योंकि स्वाध्याय करना, सामायिक करना ये सब कार्य अपवित्र हालत में नही होते हैं। लेकिन कोई घृणित वस्तु सामने आये तो उसको देखकर ज्ञानी पुरुष नाक भौंह नही सिकोड़ते हैं,योग्य उपेक्षा करते हैं। दूसरी बात यह है कि किसी धर्मात्मा पुरुष की सेवा करते हुए में तो ग्लानि रंच भी नही रहती है। यहाँ उससे भी अधिक निर्जुगुप्सा भाव रहता है। साधु धर्मात्मा जन रोगी हो, मल मूत्र कर दे तो भी घृणा नही करते। जैसे माता अपने बच्चे की नाक अपनी साड़ी से ही छिनक लेती है और घृणा नही करती है। दूसरे लोग उस बच्चे से घृणा करते हैं,अरे इसके तो नाक निकली आ रही है। इसे सम्हाल लो, पर मां उसे बड़ेप्रेम से पोंछ लेती है। माँ ही बच्चें से घृणा करने लगे तो बच्चा कहाँ जाए ? यो ही धर्मात्मा जन धर्मात्माओं के प्रति माता की तरह व्यवहार रखते हैं। अगर धर्मात्मा पुरुष ही धर्मात्मा से घृणा करने लगें तो वे कहाँ जाए ? उनके कहाँ निर्जुगुप्सा रहेगी, और तीसरी बात यह है कि आत्मा में जो क्षुधा, तृषा, वेदना आदि के कोई प्रसंग आये तो भी वे ग्लान नही होते हैं,दुःखी नही होते हैं,किन्तु वहाँ भी अपने आप में प्रकाशमान शुद्ध परमात्मतत्त्वके दर्शनसे तृप्त रहा करते हैं।
वास्तवमें घृणाके योग्य—इस प्रकरण से यह बात जानना चाहिए कि घृणा के योग्य यह शरीर नही है किन्तु जिस गंदे जीव के बसने से ये पवित्र स्कंध भी हड्डी, खून आदि रूप में बन गए है वह जीव गंदा है। न आता कोई जीव तो शरीर कैसे बन जाता? शरीर की गंदगी का कारण वह अशुद्ध जीव है। अब जरा जीव में भी निरखो तो वह जीव अशुद्ध नही है किन्तु जीव की जो निजी विभावमय बात है, अशुद्ध प्रकृति है, विभाव परिणति है वह गन्दी है। जीव तो जैसा सिद्ध प्रभु है वैसा है, कोई अन्तर नही है, अन्तर मात्र परिणति का है। तो जीवमें भी जो रागद्वेष मोह की परिणति है वह घृणा के योग्य है, यह शरीर यह पुरुष घृणा के योग्य नही है, मूल बात यह है। लेकिन इस प्रकरण में परमतत्त्व ज्ञानियो की दृष्टि में आने वाली बात के लिए व्यवहारिक बात कही जा रही है।
अशुचि एवं अशुचिकर शरीर—यह शरीर अपवित्र है। इसमें चंदन लगा दो तो वह चंदन भी अपवित्र हो जाता है। दूसरा पुरुष किसी दूसरे के मस्तक पर लगे हुए चंदन को पोंछकर लगाना नही चाहता है। तेल लगा लो शरीर में, ज्यादा हो गया औरकिसी से कहो कि इस हमारे तैल को पोंछकर आप लगा लो तो कोई लगाना पसंद नही करता है। तैल में कोई गंदगी नही है, पर शरीर की गंदगी पाकर तैल अपवित्र हो गया। और तो जाने दो। कोई फूल की माला पहिन ले, फिर किसी से कहे कि लो इसे आप पहिन लो तो कोई उस फूलकी माला को पहिनना पसंद नही करता है। जिस शरीर के सम्बंधको पाकर पवित्र पदार्थ भी अपवित्र हो जाता है, उस शरीर से क्या प्रार्थनाकरना, उस शरीर की क्या आशा रखना?
रूपकी बुनियाद—एक कथानक में आया है कि एक राजपुत्र शहर में जा रहा था तो किसी महल के छज्जे पर खड़ी हुई सेठ की बहू उसकी दृष्टि में आयी तो राजपुत्र उस सेठ की बहू पर आसक्त हो गया। काम की वासना, संस्कार इतनी गंदी चीज है कि जो कामी पुरुष होते हैं उन्हें भोजन भी न सुहाये। उसने कुट्टनी को कहा कुट्टनी सेठ की बहूके पास पहुंच गयी, हाल बताया। वह सेठ की बहू बड़ी चतुर थी। उसने कहा ठीक है। १५ दिन के बाद अमुक दिन राजपुत्र आये। उस सेठ की बहू ने इस १५ दिन में क्या किया कि जुलाब की दवाई खाकर दस्त जो कुछ भी लगे वह सब एक मटके में कर दिये। १५ दिन में वह मटका दस्त से भर गया। वह बहू उन १५ दिनों में बड़ी दुर्बल हो गयी। कुछ रूप कांति न रही। राजपुत्र आया, देखकर बड़ा दंग हुआ। तो बहू कहती है कि तुम जिस पर आसक्त थे उसे चलो हम तुम्हें दिखाए फिर तुम उससे प्रेम करो। उस राजपुत्र ने उसे जाकर देखा तो सारी दुर्गन्ध छा गयी, झट वह बगल हो गया और उल्टे पैर भागा। तो जिस चीज पर यह रूप चमक दमक रहती है वह अन्य है क्या ? मल, मूत्र, खून इनका पिंड ही तो है। इनका ही एक संग्रहीत रूप-रूप कहलाता है।
अशुचि अजंगम शरीर—इस शरीर को पाकर पवित्र से भी पवित्र वस्तु अपवित्र हो जाती है। किसी की पहिनी हुई कमीज भी कोई भी दूसरा नही पहिनना चाहता। अब बतलावो देह से सम्बद्ध उपभोग वाली वस्तु भी दूसरे ग्रहण नही कर सकते हैं,ऐसा यह अपवित्र शरीर है। यह शरीर अजंगम है, स्वयं नही चलता। न जीव हो शरीर में तो क्या शरीर चल देगा? जीव की प्रेरणा नही होती शरीर में तो देह तो न चल सकेगा। जैसे अजंगम यंत्र मोटर साइकिल ये किसी जंगम ड्राइवर के द्वारा चलाये जाते हैं,स्वयं तो नही चलते, ऐसे ही यह थूलमथूल शरीर भी स्वयं नही चल सकता है। मुर्दा तो कही चल नही पाता। जो मुर्देमें है ऐसा ही इसमें है, फर्क यह है कि तैजस और कार्माण सहित जीव इसमें बसा हुआ है इससे इसमें चमकदमक तेज है और चलने फिरनेकी क्रिया होती है। यह शरीर अजंगम है। किसी जंगम शरीरके द्वारा चलाया जा रहा है
भयानक और संतापक शरीर—यह शरीर भयानक है। यही शरीर रागी पुरुष को प्रिय लगता है और विरागी पुरुष को यही शरीर यथार्थ स्वरूप में दिखता है और वृद्धावस्था हा जाय तब तो शरीर की स्थिति स्पष्ट भयानक हो जाती है। कोई अंधेरे उजेले में बच्चा निरखले बूढ़े के शरीर को तो वह डर जाय ऐसा भयानक हो जाता है। यो यह अपवित्र शरीर भयानक भी है। कोई कहे कि रहने दो भयानक, रहने दो अपवित्र, फिर भी हमें इस शरीर से प्रीति है। तो भाई यह शरीर प्रीति करने लायक रंच नही है क्योंकि यह शरीर संताप को ही उत्पन्न करता है। इसमें स्नेह करना व्यर्थ है।
मोहियों द्वारा अलौकिक वैभवकी उपेक्षा—भैया ! सबसे अलौकिक वैभव है शरीर पर भी दृष्टि न रखकर, किसी भी परपदार्थ का विकल्प न करके केवल ज्ञानानन्दस्वभावी आत्मतत्त्वको निरखे तो वहाँ जो आनन्द प्रकट होता है वही अद्भुत आनन्द है, उसमें ही कर्मों को जलाकर भस्म कर देने की सामर्थ्य है। वह आनन्द जिनकी दृष्टि में आया है उनका मनुष्य होना सार्थक है और जीवों को अपने आत्मा का शुद्ध आनन्द अनुभव में नहीं आया है वे विषयों के प्रार्थी बनते हैं,देहकी प्रार्थना करते हैं,शरीर की आशा रखते हैं और कामादिक विकारों में उलझ कर अपना जीवन गंवा देते हैं। इस जीव की प्रकृति तो आनन्द पाने के लिए उत्सुक रहती है। यह आनन्द पाये, इसे शुद्ध आनन्द मिले तो कल्पित सुख या दुःख की और कौन झुकेगा? पर जब शुद्ध आनन्द ही नही मिलता, सो कल्पित सुखकी ओर लगना पड़ता है।
शरीर की अशुचिताका संक्षिप्त विवरण—छहढालामें कहा है—‘पल रुधिर राधमल थैली, कीकश वसादितै मैली। नवद्वार बहैं घिनकारी, अस दैह करै किम यारी।’ मांस, रूधिर, खून, मल इत्यादि से भरा हुआ यह शरीर एक थैली है जिसमें ९ घिनावने द्वार बहते रहते है—कान से कर्ण मैल, आंखों से कीचड़, नाक से नाक, मुख से लार, और मलमूत्र के स्थानों से मलमूत्र, ये जहाँ बहते रहते हैं ऐसा यह घिनावना शरीर है। अरे, इसमें प्राकृतिक बात देखो कि ऊपर से नीचे के द्वार से बहने वाली वस्तु अधिक घिनावनी है। कान से जो कनेऊ निकलता है उस पर लोग घृणा का अधिक ख्याल नही करते। इस कनेऊ को कीचड़ से ज्यादा गंदा नही समझा जाता है। लोग अंगुली से कर्ण मल निकालकर फेंक देते हैं,हाथ को कपड़े से नही पोंछते। अगर आंख से कीचड़ निकालते हैं तो फिर अपने हाथ को कपड़े से पोंछते हैं,और नाक से नाक निकाला तो हाथ कपड़े से पोंछ लेते हैं और पानी से भी धो लेते हैं। आंख के मलसे नाक का मल अधिक गंदा है। नाक से ज्यादा थूक और लार आदि गंदे है। थूक और खखार से ज्यादा मूल मल गंदे है। ऊपर की इन्द्रियोंसे नीचे की इन्द्रियाँ अधिक गंदी मानी जाती है।
शरीर की अशुचिता वैराग्यकी प्रयोजिका—भैया ! क्या भरा है इस देह में, कुछ निगाह तो कीजिए। इसकी निगाह करने से मनुष्यो की खोटी वासना नही रह सकती है, पर मोही जीव कहाँ निरखता है इस शरीर की गंदगी को? विधि ने मानो इस शरीर को गंदा इसलिए बनाया है कि ये मनुष्य गंदे शरीर को पाकर विरक्त रहा करे, परंतु यह मोह ऐसा प्रबल बना हुआ है कि विरक्ति की बात तो दूर रही, यह नाना कलाओंसे इस शरीर से अनुराग करता है। यह शरीर अपवित्र और भयानक तो है ही साथ ही यह निरन्तर विनाश की और जा रहा है।
जीवनका निर्गमन—बचपन बड़ी अच्छी उम्र हे, पर वहाँ अज्ञान छाया है। बचपन कितना निश्चित जीवन है, कितना अधिक बुद्धि का यहाँ बल है, जिस ग्रन्थ को पढ़ वह तुरन्त याद हो जाए, कितना सरल व निष्कपट भाव है, निश्चिन्तता है पर वहाँ अज्ञान बसा है सो अपना कल्याण नही कर पाते। जवान हुआ तो अब भी इसमें प्रभाव अधिक है, लेकिन कामरत होकर यह जवानी को भी व्यर्थ गवां देता है। अब वृद्धावस्था आयी तो जिसने बचपन में भी कल्याण का काम नही किया, जवानी में भी कल्याण का काम नही किया तो बुढ़ापा में अब क्या करेगा? उसकी स्थिति बड़ी दयनीय हो जाती है। यह शरीर निरन्तर विनाश की और है जितनी घड़ियां निकलती जा रही है उतना ही आयु का विनाश हो रहा है। लोग कहते हैं कि मेरा लल्ला ८ वर्ष का हो गया, यह बढ़ गया। अरे उसका अर्थ है कि ८ वर्ष उसके मर चुके। ८ वर्ष उसकी उम्र कम हो गयी है। जिसको मानो ७० वर्ष जीना है उसकी अवस्था अब ६२ वर्षकी रह गयी है, लोगों की इस और दृष्टि नही है, उसके विनाश के दिन अब निकट आ गए है। विनाश के दिन निकट आने का नाम है बुजुर्ग हो जाना। यह शरीर निरन्तर विनाश की और है, ऐसे शरीर से स्नेह करना व्यर्थ है।
ज्ञानी का चिन्तन—एक दोहा में कहा है—विषै चाम चादर मढ़ी हाड़ पींजरा देह। भीतर या सम जगत में और नही छिन गेह।। यह हाड़ मांस का पिंड है। कोई पुरुष अत्यन्त दुर्बल हो तो यह पींजड़ा बिल्कुल स्पष्ट समझ में आता है। कोई वैद्य लोग अत्यन्त दुर्बल शरीर का चित्र छपवाते हैं,उसमें देखो तो शरीर का पिंजरा स्पष्ट दीखता है। ऐसा ही पींजड़ा संग्रहालय में देखने को मिलेगा या मरघट में वहाँ ऐसा ही पींजड़ा देखने को मिल जायगा, वही पींजड़ा हम आपके शरीर में है। फर्क इतना है कि हम आपके शरीर पर चाम चादर मढ़ी हुई है, किन्तु भीतर तो इसमें सभी अपवित्र चीजें है। यह शरीर इतना अपवित्र है कि कितना पवित्र पदार्थ हो इसका स्पर्श करने से वह भी अपवित्र हो जाता है, फिर भी इन मोही जीवों ने यह शरीर बड़ा प्रिय माना है, इस शरीर की प्रतिष्ठा से ही निरन्तर संतुष्ट रहते हैं। किन्तु ज्ञानी जीव शरीर के यथार्थ स्वरूप को समझते हैं,उन्हें इस शरीर से अन्तरंग में राग नही होता है। अनादि काल से भटकते हुए आज हमें यह दुर्लभ मनुष्य जन्म मिला है, ये जिनेन्द्र वचन मिले हैं तो हम इनका लाभ उठायें, मायामय चीजों में आसक्त होकर आत्मकल्याण करे। इसके लिए ही ज्ञानी अपना जीवन समझता है।