इष्टोपदेश - श्लोक 19: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:16, 17 April 2020
यज्जीवस्योपकाराय तद्देहस्यापकारकम्।
यद्देहस्योपकाराय नज्जीवस्यापकारकम्।।१९।।
जीव के उपकार में देह की अपकारिता व देह के उपकार में जीव की अपकारिता—जो तत्त्व जीव के उपकार के लिए होता है वह तत्त्व देह का अपकार करने वाला होता है, और जो पदार्थ देह के उपकार के लिए होता है वह पदार्थ जीव का अपकार करने वाला होता है। अनशन आदि तप, व्रत, समिति, संयम इन चारित्रों का धारण करना जीव के उपकार के लिए है। यह चारित्र पूर्वकाल में बांधे हुए कर्मो का क्षय करने वाला है और भविष्यकाल में पाप न हो सके, यो कर्मों का आस्रव रोकने वाला है। इस कारण ये तपस्याएँ, चारित्र जीव के उपकार के लिए है, तो ये तपस्याएँ शरीर का अपकार करने वाली है, शरीर सूख जाता है, काला पड़ जाता है आदि रूप से शरीर का अपकार होने लगता है, और जो धन वैभव सम्पदा देह के उपकार के लिए है जिसके प्रसाद से खूब खाये, पिये, भोग साधन जुटायें, आराम से रहें जिससे देह कोमल, बलिष्ठ, मोटा, स्थूल हो जाय, सो ये वैभव धन आदि परिग्रह जीव के अपकार के लिए है।
पर के आश्रय में आत्मा का अपकार—इससे पूर्व श्लोक में यह प्रसंग चल रहा था कि धन आदि से शरीर का उपकार नही होता है, सो शंकाकार कहता है कि मत होवो शरीर का उपकार, किन्तु धन से व्रत, दान आदि कर लेने के कारण आत्मा का उपकार तो होता है? तो आत्मा का हित भी होगा, उसके उत्तर में कहा जा रहा है कि धन आदि परपदार्थों से कभी आत्मा का हित नही होता है। इस जीव का सबसे बड़ा बैरी मोह है, मोह का आश्रय धन वैभव है। इस मोह में आकर यह देव, शास्त्र, गुरु का विनय भी, इनकी आस्था भी योग्य रीति से करता ही नही है। जब परपदार्थों से अपने हित की श्रद्धा है तो मोक्षमार्ग के प्रयोजन भूत अथवा धर्मात्मा साधु संत जनों के प्रति आस्था कैसे हो सकती है? सबसे प्रबल बैरी मोह है। अन्य पदार्थ इस जीव के विराधक नही है। जैसे आस्तीन में घुसा हुआ सांप विनाश का कारण है इसी प्रकार आत्म क्षेत्र में बना हुआ यह मोह परिणाम इस आत्मा के ही विनाश का कारण है। जीव की बुद्धि विपरीत हो जाती है मोहभाव के कारण।
बुद्धि की मलीनता ही वास्तविक विपत्ति—इस मोह की ही प्रेरणा से विषयो में जीव प्रवृत्त होता है। ये समस्त विषय जीव का विनाश करने के कारण है। अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द, अनन्त शक्ति का निधान यह ब्रह्म परमात्मतत्त्व प्रकट नही हो पा रहा है और संसार भ्रमण में लगा हुआ है, इससे बढ़कर बरबादी और किसे कह सकते है? इस जीव को इस भव में जो कुछ मिला है यह बरबाद हो जाय तब भी जीव की बरबादी नही है, और यह जीव अपने स्वरूप का ज्ञान न कर सके, अपनी बुद्धि को पवित्र न रख सके और कितना ही करोड़ों का वैभव मिल जाये तो भी वहाँ जीव की बरबादी है। कितने ही विषय तो देह का भी अपकार करते हैं और जीव का भी अपकार करते हैं। जैसे स्पर्शन इन्द्रिय का विषय काम मैथुन, व्यभिचार, कुशील ये देह को भी बरबाद करते हैं और जीव को भी बरबाद करते हैं,बुद्धि भी हर लेते हैं। पापों का उसके प्रबल उदय शीघ्र ही आने वाला है जो अपने आचार से गिरा हुआ है, उस मोही की दृष्टि में कहा जा रहा है कि ऐसे काम आचरण को भी यह मोही जीव देह के उपकार के लिए मानता है, पर वही प्रवर्तन इस जीव का विनाश करने का कारण है
संग समान से जीव का अपकार—परिजन मे रहना मित्र मंडली मे रहना इनको यह मोही जीव उपकार करने वाला है पर वस्तुत ये सर्व समागम जीव के अपकार के लिए है, बरबादी के लिए है। इस जीव का केवल अपना स्वरूप ही इसका है। चैतन्य स्वभाव के अतिरिक्त अणु मात्र भी अन्य पदार्थ इस आत्मा का कुछ नही लगता। इस आत्मा के लिए जैसे विदेश के लोग भिन्न है अथवा पड़ौस के लोग भिन्न है। उतने ही भिन्न, पूरे ही भिन्न घर में पैदा हुए मनुष्य भी है, अथवा जिनमें यश इज्जत चाहा है वे पुरुष भी उतने ही भिन्न है, फिर भी उनमें से यह छंटनी कर लेगा कि यह मेरा साधक है, यह मेरा बाधक है, यह उन्मत दशा है। ये मनचाही बातें, मनको प्रसन्न करने वाली घटनाएँ ये देह का भले ही उपकार करे, देह स्वस्थ रह, प्रसन्न रहे मौज में रहे, परन्तु इन सब बातो से जीव का अपकार है, विनाश है।
तपश्चरण से जीव काउपकार एवं देह का अपकार—अपने मन को नियंत्रित रखना, अपने आप में समता परिणाम से रह सकना, ऐसा उपयोग का केन्द्रीकरण करना, तपश्चरण करना, अनशन, ऊनोदर व्रतपरिसंख्यान, विविक्त शय्यासन और नाना कार्य क्लेश—ये सब तपश्चरण पापकर्म के विनाश के कारण भूत है। इन प्रवृत्तियों से आत्मा मे निर्भयता आती है। ये सब चारित्र जीव के भले के लिए है, परन्तु इन तपस्याओं से देह का अपकार होता है। भूख से कम खाये, पूरा रस न खाये, बहुत से अनशन करे तो शरीर का बल भी घटने लगता, इन्द्रियाँ भी दुर्बल हो जाये, आँखों से कम दिखने लगे, अनेक रोग पैदा हो जाते हैं। देह का विनाश हो जाता है और अनन्त काल के लिये भी देह का अभाव हो सकता है। दो बातें सामने है। एक ऐसी चीज है जो देह की बरबादी करे और आत्मा का भला करे और एक ऐसी दशा है जो देह को अत्यन्त पुष्ट करे और आत्मा की बरबादी करे। कौन सा तत्त्व उपादेय है? विवेकी तो उस तत्त्व को उपादेय मानता है जो जीव का उपकार कर सकने वाला है।
ज्ञानी का विवेकपूर्ण चिन्तन—भैया ! यह देह न रहेगा। अच्छा सुभग सुडौल सबल पुष्ट हो तो भी न रहेगा, दुर्बल, अपुष्ट हो तो भी न रहेगा, परन्तु जीव का भाव, जीव का संस्कार इस शरीर के छोड़ने पर भी रहेगा। तो जैसे कुटुम्ब के लोग मेहमान में वैसी प्रीति नही करते हैं जैसी कि अपने पुत्र में करते हैं।क्योंकि जानते हैं कि यह मेहमान हमारे घर का नही है, आया है जायगा और ये पुत्रादिक मेरे उत्तराधिकारी है, मेरे है, यो समझते हैं इसीलिए मानो मेहमान नाम रखा है महिमान। जिसके प्रति घर वालों की बड़प्पन की बुद्धि नही है, प्रियता की बुद्धि नही है वे सब महिमान कहलाते हैं। तो जैसे कुछ समय टिकने वाले के प्रति, अपने घर में न रह सकें ऐसे लोगों के प्रति ये स्नेह नही बढ़ाते अपना वैभव नही सौंप देते, ऐसे ही यह विवेकी कुछ दिन रहने वाले इस शरीर के लिए अपना दुर्भाव नही बनता है, खोटा परिणाम नही करता है, उसकी ही सेवा किया करें ऐसा संकल्प नही होता, अपने उद्धार की चिन्ता होती है उसको जो ऐसा ज्ञानी हो, विवेकी हो।
आत्मनिधि की रक्षा का विवेक—जैसे घर की कुटी में आग लग जाय तो जब तक कोई धन बचाया जा सकता है तब तक यह प्रयत्न करता है कि धन वैभव की रक्षा कर ले। जब आग तेज लग गयी, ज्वाला निकलने लगी तो फिर वहाँ अपने प्राणों का भी खतरा रहता है, उस समय धन सम्पदा को छोड़ दिया जाता है और अपने प्राणों को बचा लिया जाता है। ऐसे ही यह शरीर जब क्षीण हो रहा है, दुर्बल हो रहा है, रोगी हो रहा है तो कोशिश करें कि यह ठीक हो जाय जिससे हम अपने धर्म पालन में समर्थ हो सके, पर जब ज्वाला इतनी बढ़ जाय, शरीर की जीर्णता इतनी अधिक हो जाय, रोग बढ़ जाय कि शरीर अब टिकने का नही है तो क्या विवेकी उस शरीर के लिए रोये? हाय अब मैं न रहूंगा, अब मैं मरने वाला हूं। अरे यह शरीर तो इसीलिए उत्पन्न हुआ है। यह शरीर सदा नही रह सकता।
मोहियों की घुटना टेक हैरानी—दो बातों पर इस मनुष्य का वश नही चल रहा है—एक तो मृत्यु पर दूसरे कोई भी चीज मेरे साथ न जायगी इस बात पर। यदि इसकी दोनों बातो पर वश चलता होता तो यह स्वच्छन्द होकर न जाने कितना अनर्थ ढाता? जब देखा कि अब यह शरीर की व्याधि की ज्वाला बढ़ गयी है तो इस शरीर को वह विवेकी छोड़ देता है और अपने ज्ञानस्वरूप को बचाने के लिए शरीर के अनुराग से और प्रवृत्ति से दूर हो जाता है। जो बात जीव का उपकार कर सकती है वह बात देह का विनाश करती है। यह तो लौकिक विनाश की बात है, पर जीव का जिस रत्नत्रय भाव से भला है, वीतराग सर्वज्ञता प्रकट हुई है, परमात्मापद मिलता है, अपने स्वरूप का परिपूर्ण विकास होता है तो उस रत्नत्रय से देखो तो जीव का तो कल्याण हुआ, पर देह का विनाश हुआ कि भविष्य में कभी भी त्रिकाल भी आगे भी अब शरीर न मिल सकेगा। ऐसा शरीर का खातमा हो जाता है।
अन्य पदार्थ से स्वके श्रेय का अभाव—भैया! तुम जीव हो या शरीर, अपने आप में निर्णय करो? तुम रंग वाले हो या रंग रहित, अपने आपका निश्चय करिये। तुम ज्ञानस्वरूप हो या ऐसा थूलमथूल शरीर रूप। यदि तुम जड़ शरीररूप हो तो तुझे समझाये ही क्या? जब चेतना ही तुममें नही है तो समझाने का सब उद्यम व्यर्थ है फिर बोलना चालना समझना ये सब व्यर्थ के भाव ही तो हुए ना। ....नही-नही, मैं अचेतन नही हूं, मैं अपने आप में रह रहा हूं, जान रहा हूं, समझ रहा हूं, कोई ऐसा ज्ञानमात्र अपने आपको जो निहारता है ऐसा यह जीव यदि तुम हो तो अपने स्वरूप का विकास करो अर्थात् कल्याण करो। जिन बातो से इस आत्मा का उपकार होगा उन बातों पर दृष्टि दो, उन्हें प्रधान महत्व भूत समझो। देखो भोजन आदि पदार्थों से उपभोगों से शरीर पुष्ट होता है ना, बल बढ़ता है, क्रान्ति बढ़ती है। मलाई खावे, रस खावे तो शरीर पुष्ट होगा, ऐसा उपदेश भी देते हैं एक दूसरे को कि इन भोजनादि से शरीर की पुष्टि होती है। होती है पुष्टि पर उन्ही पदार्थों के विकल्प से आत्मा का विनाश होता है, प्रमाद की वृद्धि होती है, कर्मों का आस्रव होता है, मलिन परिणाम होते हैं और मलिन परिणामों से दुर्गति में जन्म लेना होता है। आत्मस्वरूप से अतिरिक्त अन्य पदार्थों से इसका कुछ भी कल्याण नही है।
देहादिक परिग्रह की अपकारिता—ये धन वैभव आदि आत्मा के उपकारी होते तो महापुरुष इन पदार्थों को त्यागकर अकिञ्चन न बनते, दिगम्बर न बनते, इनका परित्याग न करते। इससे यह समझना चाहिए कि परिग्रह आत्मा का उपकार करने वाला नही है। परिग्रह में रह रहे हे, पर रहते हुए भी बात तो यथार्थ ही जानना चाहिए। अहो ! अनादि काल से इस देह के सम्बन्ध से ही मैं संतप्त रहा । जैसे अग्नि के सम्बन्ध से पानी तप जाता है, खौल जाता है ऐसे ही इस देह के सम्बन्ध से शान्त स्वभावी होकर भी यह आत्मा यह उपयोग संतप्त बना रहा। कहीं भी कभी भी विश्राम न ले सका।
इन्द्रियों की अपकारिता—यह शरीर मेरे संताप के लिए ही है और शरीर के अंग इन्द्रिय, इन्द्रिय की प्रवृत्ति, कर्म इन्द्रिय और ज्ञान इन्द्रिय अर्थात् द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय ये सब मेरे संताप के ही कारण है। इनकी रति से, प्रेम से मेरा आत्मा दुःखी होता है। यह मोही जानता है कि आंखों से यह पहिले कुछ जाना करता है रसना से, कर्ण से इन सभी इन्द्रियों से यह जाना करता है, सो ये इन्द्रियाँ ज्ञान की साधन है। हाथ से छूने पर ठंडा गरम का बोध होता है, रसना के द्वारा खट्टा-मीठा आदि का ज्ञान किया जाता है। इन इन्द्रियों से ज्ञान बनता है ऐसी भ्रमबुद्धि है अज्ञानी की। सो चूँकि ज्ञान से बढ़कर तो सभी के लिए कुछ वैभव नही है, अतः यह अज्ञानी भी ज्ञान का साधन इन्द्रियों को जानकर और इन्द्रियों का आश्रय देह को जानकर इस देह को और इन्द्रिय को पुष्ट करता है। उनकी और ही इसका ध्यान है। परन्तु यह विदित नही है कि ये इन्द्रियाँ ज्ञान के कारण नही है, किन्तु वास्तव में हमारे ज्ञान में ये बाधक है।
इन्द्रिय विषयों के मोह मे मूलनिधि के विलय पर एक दृष्टान्त—जैसे किसी बालक का पिता मर जाये तो सरकार उसकी जायदाद को नियंत्रित कर लेती है और उस लाख दो लाख की जायदाद के एवज में उस बालक को दो चार सौ रूपया माहवार सरकार बाँध देती है। पहिले तो वह बालक सरकार के गुण गाता है, वाह बड़ी दयालु है सरकार, हमें घर बैठे इतना रूपया देती है, पर जब उसे अपनी सम्पत्ति का पता लग जाता है तो वह उन दो चार सौ रूपया माहवार लेने से अपनी प्रीति हटा लेता है। वह उन रुपयों को लेने से मना कर देता है। आगे पुरुषार्थ करता है तो उसकी जायदाद मिल जाती है।
इन्द्रियविषयों के मोह में मूलनिधि का विलय—इसी तरह ये इन्द्रियाँ हमारा मूल धन नही है, ज्ञान की कारण भूत नही है, किन्तु जैसे मकान में खिड़कियाँ खुल जाने से बाहर की चीजें दिखती है, वह पुरुष उन खिड़कियों के गुण गाता है, यह खिड़की बड़ा उपकार करती है, मुझे बाहरी चीजों का ज्ञान करा देती है, सड़क पर कौन आ रहा है, कौन जा रहा है इन सब बातों का ज्ञान यह खिड़की हमें करा देती है। इस तरह के वह खिड़की के गुण गाता है किन्तु जब वह जान जाता है कि अपना ज्ञानबल ही सब कुछ जान रहा है पर यह ज्ञान, इन दीवालों से दबा हुआ है। जानने वाला तो अपने ज्ञान से जान लेता है, इस खिड़की से नही जान लेता है। ऐसे ही यह मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा इस शरीर की भीत में दबा हुआ हूं। इस भींत में ये चार-पांच खिड़कियां मिल गयी है, आँख, कान, नाक, मुहँ रसना वगैरह, तो हम इस मलिन कायर अवस्था में इन खिड़कियों से थोड़ा बहुत बोध करते हैं,पर यहाँ भी बोध कराने वाली ये इन्द्रियां नही है। यह ज्ञानस्वरूप आत्मा स्वयं है।
परतत्त्व की प्रीति के परिहार का विवेक—इस ज्ञानानन्दमय आत्मनिधि को परखें और इन्द्रियों की प्रीति तजें, आत्महित की साधना है। इससे देह का अपकार होता है, इस पर ध्यान न दे, किन्तु जिन बातो से इस जीव का अपकार होता है उनको मिटाएँ, यो हम विवेकी कहे जा सकते हैं। पुराण मोक्षार्थी पुरुषों ने भी इस धन वैभव का व अन्त में देह का भी परित्याग करके शान्त और निराकुल अवस्था को प्राप्त किया है, उन्होने निर्वाण का आनंद पाया है उन पुरुषों के उपदेश में यह बात कही गयी है कि इन्द्रिय भोग चाहे देह के उपकारक है, परन्तु आत्मा का तो अपकार ही करने वाले हैं। इसलिए आत्मातिरिक्त अन्य पदार्थों का मोह त्यागना ही श्रेयस्कर है।