आकिंचन्य धर्म: Difference between revisions
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बा.आ.७९ होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहितु सुहदुहदं। णिछंदेण दु वट्टदि अणयारो तस्स किंचण्णह ।।७९।।<br>= जो मुनि सर्व प्रकारके परिग्रहोंसे रहित होकर और सुख-दुःखके देनेवाले कर्म जनित निजभावोंको रोककर निर्द्वन्द्वतासे अर्थात् निश्चितन्ततासे आचरण करना है उसके आकिंचन्य धर्म होता है।<br>([[पद्मनन्दि पंचविंशतिका]] अधिकार संख्या १/१०१-१०२)<br>[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ९/६/४१३ उपात्तेष्वपिशरीरदिषु संस्कारापोहाय ममेंदमित्यभिसन्धिनिवृत्तिराकिञ्चन्यम्। नास्य किञ्चनास्तीत्यकिञ्चनः। तस्य भावः कर्मवा आकिञ्चन्यम्<br>= जो शरीरादि उपात्त हैं उनमें भी संस्कारका त्याग करनेके लिए `यह मेरा है' इस प्रकारके अभिप्रायका त्याग करना आकिञ्चन्य है। जिसका कुछ नहीं है वह अकिञ्चन है, और उसका भाव या कर्म आकिञ्चन्य है।<br>([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/६/२१/५९८/१४) ([[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या ६/२०) ([[अनगार धर्मामृत]] अधिकार संख्या ६/५४/६०७)<br>[[भगवती आराधना]] / [[विजयोदयी टीका]]/ गाथा संख्या ४६/१५४/१६ अकिंचनतासकलग्रन्थत्यागः<br>= सम्पूर्ण परिग्रहका त्याग करना यह आकिंचन्य धर्म है।<br>([[कार्तिकेयानुप्रेक्षा]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४०२)<br>२. आकिंचन्यधर्म पालानार्थ विशेष भावनाएँ<br>[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/६/२७/५९९/२६ परिग्रहाशा बलवती सर्वदोषप्रसवयोनिः। न तस्या उपाधिभिः तृप्तिरस्ति सलिलैरिव सलिलनिधेरिह बडवायाः। अपि च, कः पूरयति दुःपूमाशागर्तम्। दिने दिने यत्रास्तमस्तमाधेयमाधारत्वाय कल्पते। शरीरादीषु निर्ममत्वः परमनिवृत्तिमवाप्नोति। शरीरादिषु कृताभिष्वङ्गस्य सर्वकालभिष्वङ्ग एव संसारे।<br>= परिग्रहकी आशा बड़ी बलवती है वह समस्त दोषोंकी उत्पत्तिका स्थान है जैसे-पानीसे समुद्रकाबड़वानल शान्त नहीं होता उसी तरह परिग्रहसे आशासमुद्रकी तृप्ति नहीं हो सकती। यह आशाका गड्ढा दुष्पूर है इसका भरना बहुत कठिन है। प्रतिदिन जो उसमें डाला जाता है वही समा कर मुँह बाने लगता है। शरीरादिसे ममत्व शून्य व्यक्ति परम सन्तोषको प्राप्त होता है। शरीरादिमें राग करनेवाले सदा संसार परिभ्रमण सुनिश्चित है।<br>([[पद्मनन्दि पंचविंशतिका]] अधिकार संख्या १/८२-१०५)<br>[[राजवार्तिक हिन्दी| राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/६/६६६ का सारार्थ (जाकै शरीरादि विषै ममत्व नाहीं होय सो परम सुख कूं पावे है।)<br>• दश धर्मोंकी विशेषताएँ - | बा.आ.७९ होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहितु सुहदुहदं। णिछंदेण दु वट्टदि अणयारो तस्स किंचण्णह ।।७९।।<br>= जो मुनि सर्व प्रकारके परिग्रहोंसे रहित होकर और सुख-दुःखके देनेवाले कर्म जनित निजभावोंको रोककर निर्द्वन्द्वतासे अर्थात् निश्चितन्ततासे आचरण करना है उसके आकिंचन्य धर्म होता है।<br>([[पद्मनन्दि पंचविंशतिका]] अधिकार संख्या १/१०१-१०२)<br>[[सर्वार्थसिद्धि]] अध्याय संख्या ९/६/४१३ उपात्तेष्वपिशरीरदिषु संस्कारापोहाय ममेंदमित्यभिसन्धिनिवृत्तिराकिञ्चन्यम्। नास्य किञ्चनास्तीत्यकिञ्चनः। तस्य भावः कर्मवा आकिञ्चन्यम्<br>= जो शरीरादि उपात्त हैं उनमें भी संस्कारका त्याग करनेके लिए `यह मेरा है' इस प्रकारके अभिप्रायका त्याग करना आकिञ्चन्य है। जिसका कुछ नहीं है वह अकिञ्चन है, और उसका भाव या कर्म आकिञ्चन्य है।<br>([[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/६/२१/५९८/१४) ([[तत्त्वार्थसार]] अधिकार संख्या ६/२०) ([[अनगार धर्मामृत]] अधिकार संख्या ६/५४/६०७)<br>[[भगवती आराधना]] / [[विजयोदयी टीका]]/ गाथा संख्या ४६/१५४/१६ अकिंचनतासकलग्रन्थत्यागः<br>= सम्पूर्ण परिग्रहका त्याग करना यह आकिंचन्य धर्म है।<br>([[कार्तिकेयानुप्रेक्षा]] / मूल या टीका गाथा संख्या ४०२)<br>२. आकिंचन्यधर्म पालानार्थ विशेष भावनाएँ<br>[[राजवार्तिक | राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/६/२७/५९९/२६ परिग्रहाशा बलवती सर्वदोषप्रसवयोनिः। न तस्या उपाधिभिः तृप्तिरस्ति सलिलैरिव सलिलनिधेरिह बडवायाः। अपि च, कः पूरयति दुःपूमाशागर्तम्। दिने दिने यत्रास्तमस्तमाधेयमाधारत्वाय कल्पते। शरीरादीषु निर्ममत्वः परमनिवृत्तिमवाप्नोति। शरीरादिषु कृताभिष्वङ्गस्य सर्वकालभिष्वङ्ग एव संसारे।<br>= परिग्रहकी आशा बड़ी बलवती है वह समस्त दोषोंकी उत्पत्तिका स्थान है जैसे-पानीसे समुद्रकाबड़वानल शान्त नहीं होता उसी तरह परिग्रहसे आशासमुद्रकी तृप्ति नहीं हो सकती। यह आशाका गड्ढा दुष्पूर है इसका भरना बहुत कठिन है। प्रतिदिन जो उसमें डाला जाता है वही समा कर मुँह बाने लगता है। शरीरादिसे ममत्व शून्य व्यक्ति परम सन्तोषको प्राप्त होता है। शरीरादिमें राग करनेवाले सदा संसार परिभ्रमण सुनिश्चित है।<br>([[पद्मनन्दि पंचविंशतिका]] अधिकार संख्या १/८२-१०५)<br>[[राजवार्तिक हिन्दी| राजवार्तिक]] अध्याय संख्या ९/६/६६६ का सारार्थ (जाकै शरीरादि विषै ममत्व नाहीं होय सो परम सुख कूं पावे है।)<br>• दश धर्मोंकी विशेषताएँ - <b>देखे </b>[[धर्म]] /८<br>• आकिंचन्य व शौचधर्ममें अन्तर - <b>देखे </b>[[शौच]] <br>[[Category:आ]] <br>[[Category:पद्मनन्दि पंचविंशतिका]] <br>[[Category:सर्वार्थसिद्धि]] <br>[[Category:अनगार धर्मामृत]] <br>[[Category:तत्त्वार्थसार]] <br>[[Category:राजवार्तिक]] <br>[[Category:भगवती आराधना]] <br>[[Category:कार्तिकेयानुप्रेक्षा]] <br>[[Category:राजवार्तिक हिन्दी]] <br> |
Revision as of 07:51, 2 September 2008
बा.आ.७९ होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहितु सुहदुहदं। णिछंदेण दु वट्टदि अणयारो तस्स किंचण्णह ।।७९।।
= जो मुनि सर्व प्रकारके परिग्रहोंसे रहित होकर और सुख-दुःखके देनेवाले कर्म जनित निजभावोंको रोककर निर्द्वन्द्वतासे अर्थात् निश्चितन्ततासे आचरण करना है उसके आकिंचन्य धर्म होता है।
(पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार संख्या १/१०१-१०२)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय संख्या ९/६/४१३ उपात्तेष्वपिशरीरदिषु संस्कारापोहाय ममेंदमित्यभिसन्धिनिवृत्तिराकिञ्चन्यम्। नास्य किञ्चनास्तीत्यकिञ्चनः। तस्य भावः कर्मवा आकिञ्चन्यम्
= जो शरीरादि उपात्त हैं उनमें भी संस्कारका त्याग करनेके लिए `यह मेरा है' इस प्रकारके अभिप्रायका त्याग करना आकिञ्चन्य है। जिसका कुछ नहीं है वह अकिञ्चन है, और उसका भाव या कर्म आकिञ्चन्य है।
( राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/६/२१/५९८/१४) (तत्त्वार्थसार अधिकार संख्या ६/२०) (अनगार धर्मामृत अधिकार संख्या ६/५४/६०७)
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका/ गाथा संख्या ४६/१५४/१६ अकिंचनतासकलग्रन्थत्यागः
= सम्पूर्ण परिग्रहका त्याग करना यह आकिंचन्य धर्म है।
(कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा संख्या ४०२)
२. आकिंचन्यधर्म पालानार्थ विशेष भावनाएँ
राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/६/२७/५९९/२६ परिग्रहाशा बलवती सर्वदोषप्रसवयोनिः। न तस्या उपाधिभिः तृप्तिरस्ति सलिलैरिव सलिलनिधेरिह बडवायाः। अपि च, कः पूरयति दुःपूमाशागर्तम्। दिने दिने यत्रास्तमस्तमाधेयमाधारत्वाय कल्पते। शरीरादीषु निर्ममत्वः परमनिवृत्तिमवाप्नोति। शरीरादिषु कृताभिष्वङ्गस्य सर्वकालभिष्वङ्ग एव संसारे।
= परिग्रहकी आशा बड़ी बलवती है वह समस्त दोषोंकी उत्पत्तिका स्थान है जैसे-पानीसे समुद्रकाबड़वानल शान्त नहीं होता उसी तरह परिग्रहसे आशासमुद्रकी तृप्ति नहीं हो सकती। यह आशाका गड्ढा दुष्पूर है इसका भरना बहुत कठिन है। प्रतिदिन जो उसमें डाला जाता है वही समा कर मुँह बाने लगता है। शरीरादिसे ममत्व शून्य व्यक्ति परम सन्तोषको प्राप्त होता है। शरीरादिमें राग करनेवाले सदा संसार परिभ्रमण सुनिश्चित है।
(पद्मनन्दि पंचविंशतिका अधिकार संख्या १/८२-१०५)
राजवार्तिक अध्याय संख्या ९/६/६६६ का सारार्थ (जाकै शरीरादि विषै ममत्व नाहीं होय सो परम सुख कूं पावे है।)
• दश धर्मोंकी विशेषताएँ - देखे धर्म /८
• आकिंचन्य व शौचधर्ममें अन्तर - देखे शौच