दर्शनपाहुड गाथा 14: Difference between revisions
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(New page: दुविंह पि गंथचायं तीसु वि जोएसु संजमो ठादि । णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे...) |
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आगे कहते हैं कि जो दर्शन से भ्रष्ट हैं, उनके लज्जादिक से भी पैरों पड़ते हैं, वे भी उन्हीं जैसे ही हैं -<br> | |||
जे वि पडंति य तेसिं जाणंता लज्जागारवभयेण । तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणु ोयमाणाणं ।।१३।।<br> | |||
येsपि पतन्ति च तेषां जानंत: लज्जागारवभयेन । तेषामपि नास्ति बोधि: पापं अनुन्यमानानाम् ।।१३।।<br> | |||
<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> जो पुरुष दर्शन सहित हैं वे भी जो दर्शन भ्रष्ट हैं उन्हें मिथ्यादृष्टि जानते हुए भी उनके पैरों पड़ते हैं, उनकी लज्जा, भय, गारव से विनयादि करते हैं, उनके भी बोधि अर्थात् दर्शन-ज्ञानचािरत्र की प्राप्ति नहीं है, क्योंकि वे भी मिथ्यात्व जो कि पाप है उसका अनुमोदन करते हैं । करना, कराना, अनु्मोदन करना समान कहे हैं । यहाँ लज्जा तो इसप्रकार है कि हम किसी की विनय नहीं करेंगे तो लोग कहेंगे यह उद्धत है, मानी है, इसलिए हमें तो सर्व का साधन करना है । इसप्रकार लज्जा से दर्शनभ्रष्ट के भी विनयादिक करते हैं तथा भय इसप्रकार है कि यह राज्यमान्य है और मंत्र, विद्यादिक की सामर्थ्ययुक्त है, जो लाज गारव और भयवश पूजते दृगभ्रष्ट को । की पाप की अनु्मोदना ना बोधि उनको प्राप्त हो ।।१३।।<br> | ||
इसकी विनय नहीं करेंगे तो कुछ हमारे ऊपर उपद्रव करेगा; इसप्रकार भय से विनय करते हैं तथा गारव तीन प्रकार कहा है; रसगारव, ऋद्धिगारव, सातगारव । वहाँ रसगारव तो ऐसा है कि मिष्ट, इष्ट, पुष्ट भोजनादि मिलता रहे, तब उससे प्रमादी रहता है तथा ऋद्धिगारव ऐसा है कि कुछ तप के प्रभाव आदि से ऋद्धि की प्राप्ति हो उसका गौरव आ जाता है, उससे उद्धत, प्रमादी रहता है तथा सातगारव ऐसा है कि शरीर निरोग हो, कुछ क्लेश का कारण न आये तब सुखीपना आ जाता है, उससे मग्न रहते हैं - इत्यादिक गारवभाव की मस्ती से भले-बुरे का कुछ विचार नहीं करता, तब दर्शनभ्रष्ट की भी विनय करने लग जाता है । इत्यादि निमित्त से दर्शन-भ्रष्ट की विनय करे तो उसमें मिथ्यात्व का अनु्मोदन आता है; उसे भला जाने तो आप भी उसी समान हुआ, तब उसके बोधि कैसे कही जाये ? ऐसा जानना ।।१३।।<br> | |||
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Revision as of 05:01, 24 November 2008
आगे कहते हैं कि जो दर्शन से भ्रष्ट हैं, उनके लज्जादिक से भी पैरों पड़ते हैं, वे भी उन्हीं जैसे ही हैं -
जे वि पडंति य तेसिं जाणंता लज्जागारवभयेण । तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणु ोयमाणाणं ।।१३।।
येsपि पतन्ति च तेषां जानंत: लज्जागारवभयेन । तेषामपि नास्ति बोधि: पापं अनुन्यमानानाम् ।।१३।।
अर्थ - जो पुरुष दर्शन सहित हैं वे भी जो दर्शन भ्रष्ट हैं उन्हें मिथ्यादृष्टि जानते हुए भी उनके पैरों पड़ते हैं, उनकी लज्जा, भय, गारव से विनयादि करते हैं, उनके भी बोधि अर्थात् दर्शन-ज्ञानचािरत्र की प्राप्ति नहीं है, क्योंकि वे भी मिथ्यात्व जो कि पाप है उसका अनुमोदन करते हैं । करना, कराना, अनु्मोदन करना समान कहे हैं । यहाँ लज्जा तो इसप्रकार है कि हम किसी की विनय नहीं करेंगे तो लोग कहेंगे यह उद्धत है, मानी है, इसलिए हमें तो सर्व का साधन करना है । इसप्रकार लज्जा से दर्शनभ्रष्ट के भी विनयादिक करते हैं तथा भय इसप्रकार है कि यह राज्यमान्य है और मंत्र, विद्यादिक की सामर्थ्ययुक्त है, जो लाज गारव और भयवश पूजते दृगभ्रष्ट को । की पाप की अनु्मोदना ना बोधि उनको प्राप्त हो ।।१३।।
इसकी विनय नहीं करेंगे तो कुछ हमारे ऊपर उपद्रव करेगा; इसप्रकार भय से विनय करते हैं तथा गारव तीन प्रकार कहा है; रसगारव, ऋद्धिगारव, सातगारव । वहाँ रसगारव तो ऐसा है कि मिष्ट, इष्ट, पुष्ट भोजनादि मिलता रहे, तब उससे प्रमादी रहता है तथा ऋद्धिगारव ऐसा है कि कुछ तप के प्रभाव आदि से ऋद्धि की प्राप्ति हो उसका गौरव आ जाता है, उससे उद्धत, प्रमादी रहता है तथा सातगारव ऐसा है कि शरीर निरोग हो, कुछ क्लेश का कारण न आये तब सुखीपना आ जाता है, उससे मग्न रहते हैं - इत्यादिक गारवभाव की मस्ती से भले-बुरे का कुछ विचार नहीं करता, तब दर्शनभ्रष्ट की भी विनय करने लग जाता है । इत्यादि निमित्त से दर्शन-भ्रष्ट की विनय करे तो उसमें मिथ्यात्व का अनु्मोदन आता है; उसे भला जाने तो आप भी उसी समान हुआ, तब उसके बोधि कैसे कही जाये ? ऐसा जानना ।।१३।।