दर्शनपाहुड गाथा 14: Difference between revisions
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दुविंह पि गंथचायं तीसु वि जोएसु संजमो ठादि । णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणं होदि ।।१४।।<br> | <p align="center"> <b><br>दुविंह पि गंथचायं तीसु वि जोएसु संजमो ठादि ।<br> | ||
द्विविध: अपि ग्रन्थत्याग: त्रिषु अपि योगेषु संयम: तिष्ठति । ज्ञाने करणशुद्धे उद्भभोजने दर्शनं भवति ।।१४।।<br> | <br>णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणं होदि ।।१४।।<br> | ||
<br>द्विविध: अपि ग्रन्थत्याग: त्रिषु अपि योगेषु संयम: तिष्ठति ।<br> | |||
<br>ज्ञाने करणशुद्धे उद्भभोजने दर्शनं भवति ।।१४।।<br> | |||
<br>त्रैयोग से हों संयमी निर्ग्रन्थ अन्तर-बाह्य से ।<br> | |||
<br>त्रिकरण शुध अर पाणिपात्री मुनीन्द्रजन दर्शन कहें ।।१४।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> जहाँ बाह्याभ्यंतर भेद से दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग हो और मन-वचन-काय ऐसे तीनों योगों में संयम हो तथा कृत-कारित-अनु्मोदना ऐसे तीन करण जिसमें शुद्ध हों वह ज्ञान हो तथा निर्दोष जिसमें कृत, कारित, अनु्मोदना अपने को न लगे, ऐसे खड़े रहकर पाणिपात्र में आहार करे, इसप्रकार मूर्तिन्त दर्शन होता है । </p> | <p><b> अर्थ - </b> जहाँ बाह्याभ्यंतर भेद से दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग हो और मन-वचन-काय ऐसे तीनों योगों में संयम हो तथा कृत-कारित-अनु्मोदना ऐसे तीन करण जिसमें शुद्ध हों वह ज्ञान हो तथा निर्दोष जिसमें कृत, कारित, अनु्मोदना अपने को न लगे, ऐसे खड़े रहकर पाणिपात्र में आहार करे, इसप्रकार मूर्तिन्त दर्शन होता है । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> यहाँ दर्शन अर्थात् मत है; वहाँ बाह्य वेष शुद्ध दिखाई दे वह दर्शन; वही उसके अंतरंगभाव को बतलाता है । वहाँ बाह्य परिग्रह अर्थात् धन-धान्यादिक और अंतरंग परिग्रह मिथ्यात्व-कषायादिक, वे जहाँ नहीं हों, यथाजात दिगम्बर मूर्ति हो तथा इन्द्रिय-मन को वश में करना, त्रस-स्थावर जीवों की दया करना, ऐसे संयम का मन-वचन-काय द्वारा शुद्ध पालन हो और ज्ञान में विकार करना, कराना, अनुमोदन करना - ऐसे तीन कारणों से विकार न हो और निर्दोष पाणिपात्र में खड़े रहकर आहार लेना - इसप्रकार दर्शन की मूर्ति है, वह जिनदेव का मत है, वही वंदन-पूजनयोग्य है, अन्य पाखंड वेष वंदना-पूजा योग्य नहीं है ।।१४।।<br> | <p><b> भावार्थ -</b> यहाँ दर्शन अर्थात् मत है; वहाँ बाह्य वेष शुद्ध दिखाई दे वह दर्शन; वही उसके अंतरंगभाव को बतलाता है । वहाँ बाह्य परिग्रह अर्थात् धन-धान्यादिक और अंतरंग परिग्रह मिथ्यात्व-कषायादिक, वे जहाँ नहीं हों, यथाजात दिगम्बर मूर्ति हो तथा इन्द्रिय-मन को वश में करना, त्रस-स्थावर जीवों की दया करना, ऐसे संयम का मन-वचन-काय द्वारा शुद्ध पालन हो और ज्ञान में विकार करना, कराना, अनुमोदन करना - ऐसे तीन कारणों से विकार न हो और निर्दोष पाणिपात्र में खड़े रहकर आहार लेना - इसप्रकार दर्शन की मूर्ति है, वह जिनदेव का मत है, वही वंदन-पूजनयोग्य है, अन्य पाखंड वेष वंदना-पूजा योग्य नहीं है ।।१४।।<br> | ||
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Revision as of 05:22, 7 December 2008
दुविंह पि गंथचायं तीसु वि जोएसु संजमो ठादि ।
णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणं होदि ।।१४।।
द्विविध: अपि ग्रन्थत्याग: त्रिषु अपि योगेषु संयम: तिष्ठति ।
ज्ञाने करणशुद्धे उद्भभोजने दर्शनं भवति ।।१४।।
त्रैयोग से हों संयमी निर्ग्रन्थ अन्तर-बाह्य से ।
त्रिकरण शुध अर पाणिपात्री मुनीन्द्रजन दर्शन कहें ।।१४।।
अर्थ - जहाँ बाह्याभ्यंतर भेद से दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग हो और मन-वचन-काय ऐसे तीनों योगों में संयम हो तथा कृत-कारित-अनु्मोदना ऐसे तीन करण जिसमें शुद्ध हों वह ज्ञान हो तथा निर्दोष जिसमें कृत, कारित, अनु्मोदना अपने को न लगे, ऐसे खड़े रहकर पाणिपात्र में आहार करे, इसप्रकार मूर्तिन्त दर्शन होता है ।
भावार्थ - यहाँ दर्शन अर्थात् मत है; वहाँ बाह्य वेष शुद्ध दिखाई दे वह दर्शन; वही उसके अंतरंगभाव को बतलाता है । वहाँ बाह्य परिग्रह अर्थात् धन-धान्यादिक और अंतरंग परिग्रह मिथ्यात्व-कषायादिक, वे जहाँ नहीं हों, यथाजात दिगम्बर मूर्ति हो तथा इन्द्रिय-मन को वश में करना, त्रस-स्थावर जीवों की दया करना, ऐसे संयम का मन-वचन-काय द्वारा शुद्ध पालन हो और ज्ञान में विकार करना, कराना, अनुमोदन करना - ऐसे तीन कारणों से विकार न हो और निर्दोष पाणिपात्र में खड़े रहकर आहार लेना - इसप्रकार दर्शन की मूर्ति है, वह जिनदेव का मत है, वही वंदन-पूजनयोग्य है, अन्य पाखंड वेष वंदना-पूजा योग्य नहीं है ।।१४।।