दर्शनपाहुड गाथा 17: Difference between revisions
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आगे कहते हैं कि ऐसा सम्यक्त्व जिनवचन से प्राप्त होता है, इसलिए वे ही सर्व दु:खों को हरनेवाले हैं -<br> | आगे कहते हैं कि ऐसा सम्यक्त्व जिनवचन से प्राप्त होता है, इसलिए वे ही सर्व दु:खों को हरनेवाले हैं -<br> | ||
जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूदं । जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ।।१७।।<br> | <p align="center"> <b>जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूदं ।<br> | ||
जिनवचनमौषधमिदं विषयसुखविरेचनममृतभूतम् । जरामरणव्याधिहरणंक्षयकरणं सर्वदु:खानाम् ।।१७।।<br> | जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ।।१७।।<br> | ||
जिनवचनमौषधमिदं विषयसुखविरेचनममृतभूतम् ।<br> | |||
जरामरणव्याधिहरणंक्षयकरणं सर्वदु:खानाम् ।।१७।।<br> | |||
जिनवचन अमृत औषधी जरमरणव्याधि के हरण ।<br> | |||
अर विषयसुख के विरेचक हैं सर्वदु:ख के क्षयकरण ।।१७।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> यह जिनवचन हैं सो औषधि हैं । कैसी औषधि हैं ? कि इन्द्रिय विषयों में जो सुख माना है उसका विरेचन अर्थात् दूर करनेवाले हैं । पुनश्च कैसे हैं अमृतभूत अर्थात् अमृत समान हैं और इसीलिए जरामरणरूप रोग को हरनेवाले हैं तथा सर्व दु:खों का क्षय करनेवाले हैं । </p> | <p><b> अर्थ - </b> यह जिनवचन हैं सो औषधि हैं । कैसी औषधि हैं ? कि इन्द्रिय विषयों में जो सुख माना है उसका विरेचन अर्थात् दूर करनेवाले हैं । पुनश्च कैसे हैं अमृतभूत अर्थात् अमृत समान हैं और इसीलिए जरामरणरूप रोग को हरनेवाले हैं तथा सर्व दु:खों का क्षय करनेवाले हैं । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> इस संसार में प्राणी विषयसुखों को सेवन करते हैं, जिनसे कर्म बँधते हैं और उससे जन्म-जरा-मरणरूप रोगों से पीड़ित होते हैं; वहाँ जिनवचनरूप औषधि ऐसी है जो विषयसुखों से अरुचि उत्पन्न करके उसका विरेचन करती है । जैसे गरिष्ठ आहार से जब मल बढ़ता है, तब ज्वरादि रोग उत्पन्न होते हैं और तब उसके विरेचन को हरड़ आदि औषधि उपकारी होती है, उसीप्रकार उपकारी है । उन विषयों से वैराग्य होने पर कर्मबन्धन नहीं होता और तब जन्म-जरा- मरण रोग नहीं होते तथा संसार के दु:खों का अभाव होता है । इसप्रकार जिनवचनों को अमृत समान मानकर अंगीकार करना ।।१७।।<br> | <p><b> भावार्थ -</b> इस संसार में प्राणी विषयसुखों को सेवन करते हैं, जिनसे कर्म बँधते हैं और उससे जन्म-जरा-मरणरूप रोगों से पीड़ित होते हैं; वहाँ जिनवचनरूप औषधि ऐसी है जो विषयसुखों से अरुचि उत्पन्न करके उसका विरेचन करती है । जैसे गरिष्ठ आहार से जब मल बढ़ता है, तब ज्वरादि रोग उत्पन्न होते हैं और तब उसके विरेचन को हरड़ आदि औषधि उपकारी होती है, उसीप्रकार उपकारी है । उन विषयों से वैराग्य होने पर कर्मबन्धन नहीं होता और तब जन्म-जरा- मरण रोग नहीं होते तथा संसार के दु:खों का अभाव होता है । इसप्रकार जिनवचनों को अमृत समान मानकर अंगीकार करना ।।१७।।<br> |
Revision as of 05:24, 7 December 2008
आगे कहते हैं कि ऐसा सम्यक्त्व जिनवचन से प्राप्त होता है, इसलिए वे ही सर्व दु:खों को हरनेवाले हैं -
जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूदं ।
जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ।।१७।।
जिनवचनमौषधमिदं विषयसुखविरेचनममृतभूतम् ।
जरामरणव्याधिहरणंक्षयकरणं सर्वदु:खानाम् ।।१७।।
जिनवचन अमृत औषधी जरमरणव्याधि के हरण ।
अर विषयसुख के विरेचक हैं सर्वदु:ख के क्षयकरण ।।१७।।
अर्थ - यह जिनवचन हैं सो औषधि हैं । कैसी औषधि हैं ? कि इन्द्रिय विषयों में जो सुख माना है उसका विरेचन अर्थात् दूर करनेवाले हैं । पुनश्च कैसे हैं अमृतभूत अर्थात् अमृत समान हैं और इसीलिए जरामरणरूप रोग को हरनेवाले हैं तथा सर्व दु:खों का क्षय करनेवाले हैं ।
भावार्थ - इस संसार में प्राणी विषयसुखों को सेवन करते हैं, जिनसे कर्म बँधते हैं और उससे जन्म-जरा-मरणरूप रोगों से पीड़ित होते हैं; वहाँ जिनवचनरूप औषधि ऐसी है जो विषयसुखों से अरुचि उत्पन्न करके उसका विरेचन करती है । जैसे गरिष्ठ आहार से जब मल बढ़ता है, तब ज्वरादि रोग उत्पन्न होते हैं और तब उसके विरेचन को हरड़ आदि औषधि उपकारी होती है, उसीप्रकार उपकारी है । उन विषयों से वैराग्य होने पर कर्मबन्धन नहीं होता और तब जन्म-जरा- मरण रोग नहीं होते तथा संसार के दु:खों का अभाव होता है । इसप्रकार जिनवचनों को अमृत समान मानकर अंगीकार करना ।।१७।।