भावपाहुड गाथा 31: Difference between revisions
From जैनकोष
(New page: आगे यह जीव संसार में भ्रमण करता है, उस भ्रण के परावर्तन का स्वरूप मन में ध...) |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
आगे | आगे शिष्य पूछता है कि वह रत्नत्रय कैसा है ? उसका समाधान करते हैं कि रत्नत्रय इसप्रकार है -<br> | ||
<p class="PrakritGatha"> | <p class="PrakritGatha"> | ||
अप्पा अप्पम्मि रओ सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो ।<br> | |||
जाणइ तं सण्णाणं चरदिहं चारित्त मग्गो त्ति ।।३१।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p class="SanskritGatha"> | <p class="SanskritGatha"> | ||
आत्मा आत्मनि रत: सम्यग्दृष्टि: भवति स्फुटं जीव: ।<br> | |||
जानाति तत् संज्ञानं चरतीह चारित्रं मार्ग इति ।।३१।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p class="HindiGatha"> | <p class="HindiGatha"> | ||
<br> | निज आतमा को जानना सद्ज्ञान रमना चरण है ।<br> | ||
निज आतमारत जीव सम्यग्दृष्टि जिनवर कथन है ।।३१।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> अर्थ - </b> जो आत्मा आत्मा में रत होकर यथार्थरूप का अनुभव कर तद्रूप होकर श्रद्धान करे वह प्रगट सम्यग्दृष्टि होता है, उस आत्मा को जानना सम्यग्ज्ञान है, उस आत्मा में आचरण करके रागद्वेषरूप न परिणमना सम्यक्चारित्र है । इसप्रकार यह निश्चयरत्नत्रय है, मोक्षमार्ग है । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> आत्मा का श्रद्धान ज्ञान आचरण निश्चय रत्नत्रय है और बाह्य में इसका व्यवहार जीव-अजीवादि तत्त्वों का श्रद्धान तथा जानना और परद्रव्य-परभाव का त्याग करना इसप्रकार निश्चय-व्यवहारस्वरूप रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है । वहाँ निश्चय तो प्रधान है, इसके बिना व्यवहार संसारस्वरूप ही है । *व्यवहार है वह निश्चय का साधनस्वरूप है, इसके बिना निश्चय की प्राप्ति नहीं है और निश्चय की प्राप्ति हो जाने के बाद व्यवहार कुछ नहीं है, इसप्रकार जानना चाहिए ।।३१।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
[[Category:कुन्दकुन्दाचार्य]] | [[Category:कुन्दकुन्दाचार्य]] | ||
[[Category:अष्टपाहुड]] | [[Category:अष्टपाहुड]] | ||
[[Category:भावपाहुड]] | [[Category:भावपाहुड]] |
Latest revision as of 10:16, 14 December 2008
आगे शिष्य पूछता है कि वह रत्नत्रय कैसा है ? उसका समाधान करते हैं कि रत्नत्रय इसप्रकार है -
अप्पा अप्पम्मि रओ सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो ।
जाणइ तं सण्णाणं चरदिहं चारित्त मग्गो त्ति ।।३१।।
आत्मा आत्मनि रत: सम्यग्दृष्टि: भवति स्फुटं जीव: ।
जानाति तत् संज्ञानं चरतीह चारित्रं मार्ग इति ।।३१।।
निज आतमा को जानना सद्ज्ञान रमना चरण है ।
निज आतमारत जीव सम्यग्दृष्टि जिनवर कथन है ।।३१।।
अर्थ - जो आत्मा आत्मा में रत होकर यथार्थरूप का अनुभव कर तद्रूप होकर श्रद्धान करे वह प्रगट सम्यग्दृष्टि होता है, उस आत्मा को जानना सम्यग्ज्ञान है, उस आत्मा में आचरण करके रागद्वेषरूप न परिणमना सम्यक्चारित्र है । इसप्रकार यह निश्चयरत्नत्रय है, मोक्षमार्ग है ।
भावार्थ - आत्मा का श्रद्धान ज्ञान आचरण निश्चय रत्नत्रय है और बाह्य में इसका व्यवहार जीव-अजीवादि तत्त्वों का श्रद्धान तथा जानना और परद्रव्य-परभाव का त्याग करना इसप्रकार निश्चय-व्यवहारस्वरूप रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है । वहाँ निश्चय तो प्रधान है, इसके बिना व्यवहार संसारस्वरूप ही है । *व्यवहार है वह निश्चय का साधनस्वरूप है, इसके बिना निश्चय की प्राप्ति नहीं है और निश्चय की प्राप्ति हो जाने के बाद व्यवहार कुछ नहीं है, इसप्रकार जानना चाहिए ।।३१।।