भावपाहुड गाथा 53: Difference between revisions
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तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य ।<br> | |||
णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडं जाओ ।।५३।।<br> | |||
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तुषमाषं घोषयन् भावविशुद्ध: महानुभावश्च ।<br> | |||
नाम्ना च शिवभूति: केवलज्ञानी स्फुटं जात: ।।५३।।<br> | |||
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कहाँ तक बतावें अरे महिमा तुम्हें भावविशुद्धि की ।<br> | |||
तुषमास पद को घोखते शिवभूति केवलि हो गये ।।५३।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> आचार्य कहते हैं कि शिवभूति मुनि ने शास्त्र नहीं पढ़े थे, परन्तु तुषमाष ऐसे शब्द को रटते हुए भावों की विशुद्धता से महानुभाव होकर केवलज्ञान पाया, यह प्रकट है । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> कोई जानेगा कि शास्त्र पढ़ने से ही सिद्धि है तो इसप्रकार भी नहीं है । शिवभूति मुनि ने तुषमाष ऐसा शब्दमात्र रटने से ही भावों की विशुद्धता से केवलज्ञान पाया । इसकी कथा इसप्रकार है - कोई शिवभूति नामक मुनि था । उसने गुरु के पास शास्त्र पढ़े, परन्तु धारणा नहीं हुई । तब गुरु ने यह शब्द पढ़ाया कि `मा रुष मा तुष' सो इस शब्द को घोखने लगा । इसका अर्थ यह है कि रोष मत करो और तोष मत करे अर्थात् राग-द्वेष मत करो, इससे सर्वसिद्धि है । फिर यह भी शुद्ध याद न रहा तब `तुषमास' ऐसा पाठ घोखने लगा, दोनों पदों के `रुकार और१ तुकार' भूल गये और `तुष माष' इसप्रकार याद रह गया । उसको घोखते हुए विचरने लगे । तब कोई एक स्त्री उड़द की दाल धो रही थी उसको किसी ने पूछा, तू क्या कर रही है ? उसने कहा - तुष और माष भिन्न-भिन्न कर रही हूँ । तब यह सुनकर मुनि ने `तुष माष' शब्द का भावार्थ यह जाना कि यह शरीर तो तुष है और यह आत्मा माष है, दोनों भिन्न-भिन्न हैं । इसप्रकार भाव जानकर आत्मा का अनुभव करने लगा । चिन्मात्र शुद्ध आत्मा को जानकर उसमें लीन हुआ, तब घाति कर्म का नाशकर केवलज्ञान प्राप्त किया । इसप्रकार भावों की विशुद्धता से सिद्धि हुई यह जानकर भाव शुद्ध करना, यह उपदेश है ।।५३।।<br> | ||
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Latest revision as of 10:34, 14 December 2008
आगे शास्त्र पढ़े बिना शिवभूति मुनि ने तुषमाष को घोखते ही भाव की विशुद्धि को पाकर मोक्ष प्राप्त किया । उसका उदाहरण कहते हैं -
तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य ।
णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुडं जाओ ।।५३।।
तुषमाषं घोषयन् भावविशुद्ध: महानुभावश्च ।
नाम्ना च शिवभूति: केवलज्ञानी स्फुटं जात: ।।५३।।
कहाँ तक बतावें अरे महिमा तुम्हें भावविशुद्धि की ।
तुषमास पद को घोखते शिवभूति केवलि हो गये ।।५३।।
अर्थ - आचार्य कहते हैं कि शिवभूति मुनि ने शास्त्र नहीं पढ़े थे, परन्तु तुषमाष ऐसे शब्द को रटते हुए भावों की विशुद्धता से महानुभाव होकर केवलज्ञान पाया, यह प्रकट है ।
भावार्थ - कोई जानेगा कि शास्त्र पढ़ने से ही सिद्धि है तो इसप्रकार भी नहीं है । शिवभूति मुनि ने तुषमाष ऐसा शब्दमात्र रटने से ही भावों की विशुद्धता से केवलज्ञान पाया । इसकी कथा इसप्रकार है - कोई शिवभूति नामक मुनि था । उसने गुरु के पास शास्त्र पढ़े, परन्तु धारणा नहीं हुई । तब गुरु ने यह शब्द पढ़ाया कि `मा रुष मा तुष' सो इस शब्द को घोखने लगा । इसका अर्थ यह है कि रोष मत करो और तोष मत करे अर्थात् राग-द्वेष मत करो, इससे सर्वसिद्धि है । फिर यह भी शुद्ध याद न रहा तब `तुषमास' ऐसा पाठ घोखने लगा, दोनों पदों के `रुकार और१ तुकार' भूल गये और `तुष माष' इसप्रकार याद रह गया । उसको घोखते हुए विचरने लगे । तब कोई एक स्त्री उड़द की दाल धो रही थी उसको किसी ने पूछा, तू क्या कर रही है ? उसने कहा - तुष और माष भिन्न-भिन्न कर रही हूँ । तब यह सुनकर मुनि ने `तुष माष' शब्द का भावार्थ यह जाना कि यह शरीर तो तुष है और यह आत्मा माष है, दोनों भिन्न-भिन्न हैं । इसप्रकार भाव जानकर आत्मा का अनुभव करने लगा । चिन्मात्र शुद्ध आत्मा को जानकर उसमें लीन हुआ, तब घाति कर्म का नाशकर केवलज्ञान प्राप्त किया । इसप्रकार भावों की विशुद्धता से सिद्धि हुई यह जानकर भाव शुद्ध करना, यह उपदेश है ।।५३।।