भावपाहुड गाथा 127: Difference between revisions
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भावसवणो वि पावइ सुक्खाइं दुहाइं दव्वसवणो य ।<br> | |||
इय णाउं गुणदोसे भावेण य संजुदो होह ।।१२७।।<br> | |||
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भावश्रमण: अपि प्राप्नोति सुखानि दु:खानि द्रव्यश्रमणश्च ।<br> | |||
इति ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संयुत: भव ।।१२७।।<br> | |||
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<p class="HindiGatha"> | <p class="HindiGatha"> | ||
भावलिंगी सुखी होते द्रव्यलिंगी दु:ख लहें ।<br> | |||
गुण-दोष को पहिचानकर सब भाव से मुनिपद गहें ।।१२७।।<br> | |||
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<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> भावश्रमण तो सुखों को पाता है और द्रव्यश्रमण दु:खों को पाता है इसप्रकार गुण दोषों को जानकर हे जीव ! तू भाव सहित संयमी बन । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> | <p><b> भावार्थ -</b> सम्यग्दर्शनसहित भावश्रमण होता है, वह संसार का अभाव करके सुखों को पाता है और मिथ्यात्वसहित द्रव्यश्रमण भेषमात्र होता है, यह संसार का अभाव नहीं कर सकता है, इसलिए दु:खों को पाता है । अत: उपदेश करते हैं कि दोनों के गुण-दोष जानकर भावसंयमी होना योग्य है, यह सब उपदेश का सार है ।।१२७।।<br> | ||
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Latest revision as of 11:33, 14 December 2008
आगे संक्षेप से उपदेश करते हैं -
भावसवणो वि पावइ सुक्खाइं दुहाइं दव्वसवणो य ।
इय णाउं गुणदोसे भावेण य संजुदो होह ।।१२७।।
भावश्रमण: अपि प्राप्नोति सुखानि दु:खानि द्रव्यश्रमणश्च ।
इति ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संयुत: भव ।।१२७।।
भावलिंगी सुखी होते द्रव्यलिंगी दु:ख लहें ।
गुण-दोष को पहिचानकर सब भाव से मुनिपद गहें ।।१२७।।
अर्थ - भावश्रमण तो सुखों को पाता है और द्रव्यश्रमण दु:खों को पाता है इसप्रकार गुण दोषों को जानकर हे जीव ! तू भाव सहित संयमी बन ।
भावार्थ - सम्यग्दर्शनसहित भावश्रमण होता है, वह संसार का अभाव करके सुखों को पाता है और मिथ्यात्वसहित द्रव्यश्रमण भेषमात्र होता है, यह संसार का अभाव नहीं कर सकता है, इसलिए दु:खों को पाता है । अत: उपदेश करते हैं कि दोनों के गुण-दोष जानकर भावसंयमी होना योग्य है, यह सब उपदेश का सार है ।।१२७।।