भावपाहुड गाथा 138: Difference between revisions
From जैनकोष
(New page: आगे कहते हैं कि ऐसे मिथ्यात्व के निमित्त से दुर्गति का पात्र होता है -<br> <p ...) |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
आगे कहते हैं कि | आगे कहते हैं कि अभव्यजीव अपनी प्रकृति को नहीं छोड़ता है, उसका मिथ्यात्व नहीं मिटता है -<br> | ||
<p class="PrakritGatha"> | <p class="PrakritGatha"> | ||
ण मुयइ पयडि अभव्वो सुट्ठु वि आयण्णिऊण जिणधम्मं ।<br> | |||
गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होंति ।।१३८।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p class="SanskritGatha"> | <p class="SanskritGatha"> | ||
न मुंचति प्रकृतिमभव्य: सुष्ठु अपि आकर्ण्य जिनधर्म् ।<br> | |||
गुडदुग्धमपि पिबंत: न पन्नगा: निर्विषा: भवंति ।।१३८।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p class="HindiGatha"> | <p class="HindiGatha"> | ||
गुड़-दूध पीकर सर्प ज्यों विषरहित होता है नहीं ।<br> | |||
अभव्य त्यों जिनधर्म सुन अपना स्वभाव तजे नहीं ।।१३८।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
<p><b> अर्थ - </b> | <p><b> अर्थ - </b> अभव्य जीव भलेप्रकार जिनधर्म को सुनकर भी अपनी प्रकृति को नहीं छोड़ता है । यहाँ दृष्टान्त है कि सर्प गुड़सहित दूध को पीते रहने पर भी विषरहित नहीं होता है । </p> | ||
<p><b> भावार्थ -</b> जो कारण पाकर भी नहीं छूटता है उसे `प्रकृति' या `स्वभाव' कहते हैं । अभव्य का यह स्वभाव है कि जिसमें अनेकान्त तत्त्वस्वरूप है - ऐसा वीतरागविज्ञानस्वरूप जिनधर्म मिथ्यात्व को मिटानेवाला है, उसका भलेप्रकार स्वरूप सुनकर भी जिसका मिथ्यात्वस्वरूप भाव नहीं बदलता है, यह वस्तु का स्वरूप है, किसी का नहीं किया हुआ है । यहाँ उपदेश-अपेक्षा इसप्रकार जानना कि जो अभव्यरूप प्रकृति तो सर्वज्ञगम्य है, तो भी अभव्य की प्रकृति के समान अपनी प्रकृति न रखना, मिथ्यात्व को छोड़ना यह उपदेश है ।।१३८।।<br> | |||
</p> | </p> | ||
[[Category:कुन्दकुन्दाचार्य]] | [[Category:कुन्दकुन्दाचार्य]] | ||
[[Category:अष्टपाहुड]] | [[Category:अष्टपाहुड]] | ||
[[Category:भावपाहुड]] | [[Category:भावपाहुड]] |
Latest revision as of 11:41, 14 December 2008
आगे कहते हैं कि अभव्यजीव अपनी प्रकृति को नहीं छोड़ता है, उसका मिथ्यात्व नहीं मिटता है -
ण मुयइ पयडि अभव्वो सुट्ठु वि आयण्णिऊण जिणधम्मं ।
गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिव्विसा होंति ।।१३८।।
न मुंचति प्रकृतिमभव्य: सुष्ठु अपि आकर्ण्य जिनधर्म् ।
गुडदुग्धमपि पिबंत: न पन्नगा: निर्विषा: भवंति ।।१३८।।
गुड़-दूध पीकर सर्प ज्यों विषरहित होता है नहीं ।
अभव्य त्यों जिनधर्म सुन अपना स्वभाव तजे नहीं ।।१३८।।
अर्थ - अभव्य जीव भलेप्रकार जिनधर्म को सुनकर भी अपनी प्रकृति को नहीं छोड़ता है । यहाँ दृष्टान्त है कि सर्प गुड़सहित दूध को पीते रहने पर भी विषरहित नहीं होता है ।
भावार्थ - जो कारण पाकर भी नहीं छूटता है उसे `प्रकृति' या `स्वभाव' कहते हैं । अभव्य का यह स्वभाव है कि जिसमें अनेकान्त तत्त्वस्वरूप है - ऐसा वीतरागविज्ञानस्वरूप जिनधर्म मिथ्यात्व को मिटानेवाला है, उसका भलेप्रकार स्वरूप सुनकर भी जिसका मिथ्यात्वस्वरूप भाव नहीं बदलता है, यह वस्तु का स्वरूप है, किसी का नहीं किया हुआ है । यहाँ उपदेश-अपेक्षा इसप्रकार जानना कि जो अभव्यरूप प्रकृति तो सर्वज्ञगम्य है, तो भी अभव्य की प्रकृति के समान अपनी प्रकृति न रखना, मिथ्यात्व को छोड़ना यह उपदेश है ।।१३८।।