एकाग्रचिंतानिरोध: Difference between revisions
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<p | <p> सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/27/444/6 अग्रं मुखम्। एकमग्रमस्येत्येकाग्रः। नानार्थावलम्बनेन चिन्ता परिस्पन्दवती, तस्या अन्याशेषमुखेभ्यो व्यावर्त्य एकस्मिनग्रे नियम एकाग्रचिन्तानिरोध इत्युच्यते।</p> | ||
<p | <p>= `अग्र' पदका अर्थ मुख है। जिसका एक अग्र होता है वह एकाग्र कहलाता है। नाना पदार्थोंका अवलम्बन लेनेसे चिन्ता परस्पिन्दवती होती है। उसे अन्य अशेष मुखोंसे लौटाकर एक अग्र अर्थात् एक विषयमें नियमित करना एकाग्रचिन्तानिरोध कहलाता है।</p> | ||
( | <p>( चारित्रसार पृष्ठ 166/6); ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 191); (तं.अनु. 57)।</p> | ||
<p>राजवार्तिक अध्याय 9/27/4-7/625/25 (1) अत्र अग्रं मुखनित्यर्थः ।3। अन्तःकरणस्य वृत्तिरर्थेषु चिंतेत्युच्यते ॥4॥....गमनभोजनशयनाध्ययनादिषु क्रियाविशेषेषु अनियमेन वर्तमानस्य एकस्याः क्रियायाः कर्तृत्वेनावस्थानं निरोध इत्यवगम्यते। एकमग्रं मुखं यस्य सोऽयमेकाग्रः, चिन्ताया निरोधः चिन्तानिरोधः, एकाग्रे चिन्तानिरोधः एकाग्रचिन्तानिरोधः। कुतः पुनरसौ एकाग्रत्वेन चिन्तानिरोधः ॥5॥ यथा प्रदीपशिखा निराबाधे प्रज्वलिता न परिस्पन्दते तथा निराकुले देशे वीर्यविशेषादवरुध्यमाना चिन्ता विना व्याक्षेपेण एकाग्रेणावतिष्ठते ॥6॥ (2) अथवा अङ्ग्यते इत्यग्रः अर्थ इत्यर्थः, एकमग्रं एकाग्रम्, एकाग्रे चिन्ताया निरोधः एकाग्रचिन्तानिरोधः। योगविभागान्मयूरव्यंसकादित्वाद्वा वृत्तिः। एकस्मिन् द्रव्यपरमाणौ भावपरमाणौ वाऽर्थे चिन्तानियम इत्यर्थः ॥7॥</p> | |||
<p | <p>राजवार्तिक अध्याय 9/27/20-21/627/1 (3) अथवा, प्राधान्यवचने एकशब्द इह गृह्यते, प्रधानस्य पुंस आभिमुख्येन चिन्तानिरोध इत्यर्थः, अस्मिन्पक्षेऽर्थो गृहीतः ॥20॥ (4) अथवा अङ्गतीत्यग्रमात्मेत्यर्थः। द्रव्यार्थतयैकस्मिन्नात्मन्यग्रे चिन्तानिरोधो ध्यानम्, ततः स्ववृत्तित्वात् बाह्यध्येयप्राधान्यापेक्षा निवर्त्तिता भवति ॥21॥</p> | ||
<p | <p>= 1. अग्र अर्थात् मुख, लक्ष्य। चिन्ता-अन्तःकरण व्यापार। गमन, भोजन, शयन और अध्ययन आदि विविध क्रियाओंमें भटकनेवाली चित्तवृत्तिका एक क्रियामें रोक देना निरोध है। जिस प्रकार वायुरहित प्रदेशमें दीपशिखा अपरिस्पन्द-स्थिर रहती है उसी तरह निराकुल देशमें एक लक्ष्यमें बुद्धि और शक्तिपूर्वक रोकी गयी चित्तवृत्ति बिना व्याक्षेपके वहीं स्थिर रहती है, अन्यत्र नहीं भटकती। ( चारित्रसार पृष्ठ 166/6); ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 196); ( तत्त्वानुशासन श्लोक 63-64);। 2. अथवा अग्र शब्द `अर्थ' (पदार्थ) वाची है, अर्थात् एक द्रव्यपरमाणु या भावपरमाणु या अन्य किसी अर्थमें चित्तवृत्तिको केन्द्रित करना ध्यान है। 3. अथवा, अग्र शब्द प्राधान्यवाची है, अर्थात् प्रधान आत्माको लक्ष्य बनाकर चिन्ताका निरोध करना। ( तत्त्वानुशासन श्लोक 57-58)। 4. अथवा, `अङ्गतीति अग्रम् आत्मा' इस व्युत्पत्तिमें द्रव्यरूपसे एक आत्माको लक्ष्य बनाना स्वीकृत ही है। ध्यान स्ववृत्ति होता है; इसमें बाह्य चिन्ताओंसे निवृत्ति होती है।</p> | ||
( | <p>( भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 1699/1521/16); ( तत्त्वानुशासन श्लोक 62-65); ( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 78/226/1)।</p> | ||
<p | <p> तत्त्वानुशासन श्लोक 60-61 प्रत्याहृत्य यदा चिन्तां नानालम्बनवर्त्तिनीम्। एकालम्बन एवैनां निरुणद्धि विशुद्धधीः ॥60॥ तदास्य योगिनो योगश्चिन्तैकाग्रनिरोधनम्। प्रसंख्यानं समाधिः स्याद्ध्यानं स्वेष्टफलप्रदम् ॥61॥</p> | ||
<p | <p>= जब विशुद्ध बुद्धिका धारक योगी नाना अवलम्बनोंमें वर्तनेवाली चिन्ताको खींचकर उसे एक आलम्बनमें ही स्थिर करता है-अन्यत्र जाने नहीं देता-तब उस योगीके `चिन्ताका एकाग्र निरोधन' नामका योग होता है, जिसे प्रसंख्यान, समाधि और ध्यान भी कहते हैं और वह अपने इष्ट फलका प्रदान करनेवाला होता है। (पं. वि. 4/64)। - देखें [[ ध्यान#1.2 | ध्यान - 1.2]]-अन्य विषयोंकी अपेक्षा असत् है पर स्वविषयकी अपेक्षा सत्।</p> | ||
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Revision as of 16:58, 10 June 2020
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/27/444/6 अग्रं मुखम्। एकमग्रमस्येत्येकाग्रः। नानार्थावलम्बनेन चिन्ता परिस्पन्दवती, तस्या अन्याशेषमुखेभ्यो व्यावर्त्य एकस्मिनग्रे नियम एकाग्रचिन्तानिरोध इत्युच्यते।
= `अग्र' पदका अर्थ मुख है। जिसका एक अग्र होता है वह एकाग्र कहलाता है। नाना पदार्थोंका अवलम्बन लेनेसे चिन्ता परस्पिन्दवती होती है। उसे अन्य अशेष मुखोंसे लौटाकर एक अग्र अर्थात् एक विषयमें नियमित करना एकाग्रचिन्तानिरोध कहलाता है।
( चारित्रसार पृष्ठ 166/6); ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 191); (तं.अनु. 57)।
राजवार्तिक अध्याय 9/27/4-7/625/25 (1) अत्र अग्रं मुखनित्यर्थः ।3। अन्तःकरणस्य वृत्तिरर्थेषु चिंतेत्युच्यते ॥4॥....गमनभोजनशयनाध्ययनादिषु क्रियाविशेषेषु अनियमेन वर्तमानस्य एकस्याः क्रियायाः कर्तृत्वेनावस्थानं निरोध इत्यवगम्यते। एकमग्रं मुखं यस्य सोऽयमेकाग्रः, चिन्ताया निरोधः चिन्तानिरोधः, एकाग्रे चिन्तानिरोधः एकाग्रचिन्तानिरोधः। कुतः पुनरसौ एकाग्रत्वेन चिन्तानिरोधः ॥5॥ यथा प्रदीपशिखा निराबाधे प्रज्वलिता न परिस्पन्दते तथा निराकुले देशे वीर्यविशेषादवरुध्यमाना चिन्ता विना व्याक्षेपेण एकाग्रेणावतिष्ठते ॥6॥ (2) अथवा अङ्ग्यते इत्यग्रः अर्थ इत्यर्थः, एकमग्रं एकाग्रम्, एकाग्रे चिन्ताया निरोधः एकाग्रचिन्तानिरोधः। योगविभागान्मयूरव्यंसकादित्वाद्वा वृत्तिः। एकस्मिन् द्रव्यपरमाणौ भावपरमाणौ वाऽर्थे चिन्तानियम इत्यर्थः ॥7॥
राजवार्तिक अध्याय 9/27/20-21/627/1 (3) अथवा, प्राधान्यवचने एकशब्द इह गृह्यते, प्रधानस्य पुंस आभिमुख्येन चिन्तानिरोध इत्यर्थः, अस्मिन्पक्षेऽर्थो गृहीतः ॥20॥ (4) अथवा अङ्गतीत्यग्रमात्मेत्यर्थः। द्रव्यार्थतयैकस्मिन्नात्मन्यग्रे चिन्तानिरोधो ध्यानम्, ततः स्ववृत्तित्वात् बाह्यध्येयप्राधान्यापेक्षा निवर्त्तिता भवति ॥21॥
= 1. अग्र अर्थात् मुख, लक्ष्य। चिन्ता-अन्तःकरण व्यापार। गमन, भोजन, शयन और अध्ययन आदि विविध क्रियाओंमें भटकनेवाली चित्तवृत्तिका एक क्रियामें रोक देना निरोध है। जिस प्रकार वायुरहित प्रदेशमें दीपशिखा अपरिस्पन्द-स्थिर रहती है उसी तरह निराकुल देशमें एक लक्ष्यमें बुद्धि और शक्तिपूर्वक रोकी गयी चित्तवृत्ति बिना व्याक्षेपके वहीं स्थिर रहती है, अन्यत्र नहीं भटकती। ( चारित्रसार पृष्ठ 166/6); ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 196); ( तत्त्वानुशासन श्लोक 63-64);। 2. अथवा अग्र शब्द `अर्थ' (पदार्थ) वाची है, अर्थात् एक द्रव्यपरमाणु या भावपरमाणु या अन्य किसी अर्थमें चित्तवृत्तिको केन्द्रित करना ध्यान है। 3. अथवा, अग्र शब्द प्राधान्यवाची है, अर्थात् प्रधान आत्माको लक्ष्य बनाकर चिन्ताका निरोध करना। ( तत्त्वानुशासन श्लोक 57-58)। 4. अथवा, `अङ्गतीति अग्रम् आत्मा' इस व्युत्पत्तिमें द्रव्यरूपसे एक आत्माको लक्ष्य बनाना स्वीकृत ही है। ध्यान स्ववृत्ति होता है; इसमें बाह्य चिन्ताओंसे निवृत्ति होती है।
( भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 1699/1521/16); ( तत्त्वानुशासन श्लोक 62-65); ( भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 78/226/1)।
तत्त्वानुशासन श्लोक 60-61 प्रत्याहृत्य यदा चिन्तां नानालम्बनवर्त्तिनीम्। एकालम्बन एवैनां निरुणद्धि विशुद्धधीः ॥60॥ तदास्य योगिनो योगश्चिन्तैकाग्रनिरोधनम्। प्रसंख्यानं समाधिः स्याद्ध्यानं स्वेष्टफलप्रदम् ॥61॥
= जब विशुद्ध बुद्धिका धारक योगी नाना अवलम्बनोंमें वर्तनेवाली चिन्ताको खींचकर उसे एक आलम्बनमें ही स्थिर करता है-अन्यत्र जाने नहीं देता-तब उस योगीके `चिन्ताका एकाग्र निरोधन' नामका योग होता है, जिसे प्रसंख्यान, समाधि और ध्यान भी कहते हैं और वह अपने इष्ट फलका प्रदान करनेवाला होता है। (पं. वि. 4/64)। - देखें ध्यान - 1.2-अन्य विषयोंकी अपेक्षा असत् है पर स्वविषयकी अपेक्षा सत्।
• एकाग्र चिन्तानिरोधके अपर नाम-देखें मोक्षमार्ग - 2.5।