दशानन: Difference between revisions
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''' लंका का स्वामी । आठवां प्रतिनारायण । ''' | |||
यह अलंकारपुर नगर के निवासी सुमाली का पौत्र तथा रत्नश्रवा और रानी केकसी का पुत्र था । ''(पद्मपुराण 7.133, 164-165, 209, 837-40, 20. 242-244)'' | |||
आचार्य जिनसेन के अनुसार विजयार्ध की दक्षिणश्रेणी में मेघकूट नगर के राजा पुलस्त्य और रानी मेघषी इसके पिता-माता थे ।''(महापुराण 68.11-12)'' | |||
इसके गर्भ में आते ही इसकी माता की चेष्टाएँ क्रूर हो गयी थी । वह खून की कीचड़ से लिप्त तथा छटपटाते हुए शत्रुओं के मस्तकों पर पैर रखने की इच्छा करने लगी थी । इन्द्र को भी आधीन करने का दोहद होने लगा था, वाणी कर्कश तथा घर्घर स्वर से युक्त हो गयी थी और दर्पण में मुख न देखकर कृपाण में मुख देखती थी । वह गुरुजनों की बड़ी ही कठिनाई से वन्दना करती थी । हजार नागकुमारों से रक्षित राक्सेन्द्र भीम से प्राप्त मेघवाहन के हार को इसने बाल्यावस्था में सहज में ही हाथ से खींच लिया था । हार पहिनाये जाने पर उसमें गुथे रत्नों में मुख्य मुख के सिवाय नौ मुख और भी प्रतिबिम्बित होने लगे थे इस प्रकार दश मुख दिखाई देने से इस नाम से सम्बोधित किया गया । भानुकर्ण और विभीषण इसके दो भाई तथा चन्द्रनखा एक बहिन थी । इसने चोटी धारण कर रखी थी । | |||
इसके बाबा के भाई माली को मारकर तथा बाबा को लंका से हटाकर इन्द्र विद्याधर ने लंका इसके मौसेरे भाई वैश्रवण को दे दी थी । वैश्रवण को जीतने के लिए इन तीनों भाइयों ने कामानन्दा-आठ अक्षरों वाली विद्या की एक लाख जप करके सिद्धि की थी । इसे अन्य जो विद्याएँ प्राप्त हुई थीं वे है― नभ: संचारिणो, कामदायिनी, कामगामिनी, दुर्निवारा, जगत्कम्पा, प्रज्ञप्ति भानुमालिनी, अणिमा, लघिमा, क्षोभ्या, मन:स्तम्भनकारिणी, संवाहिनी, सुरध्वंसी, कौमारी, वधकारिणी, सुविघाना, तपोरूपा, दहनी, विपुलोदरी, शुभप्रदा, रजोरूपा, दिनरात्रविधायिनो, वज्रोदरी, समाकृष्टि, अदर्शनी, अजरा, अमरा, अनल, स्तम्भिनी, तोयस्तम्भिनी, गिरिदारणी, अवलोकिनी, अरिध्वंसी, घोरा, घीरा, भुजंगिनी, वारुणी, भुवना, अवध्या, दारुणा, मदनाशिनी, भास्करी, भयसंभूति, ऐशानी, विजया, जया, बन्धनी, मोचनी, वाराही, कुटिलाकृति, चितोद््भवकारी, शान्ति, कौबेरी, वशकारिणी, योगेश्वरी, बलोत्सादी, चण्डा, भीति और प्रहर्षिणी । इन विद्याओं के प्रभाव से इसने स्वयंप्रभ नामक एक नगर बसाया था । जम्बूद्वीप के अधिपति अनावृत यक्ष ने जम्बूद्वीप में इच्छानुसार रहने का इसे वर दिया था । ''(पद्मपुराण 7.204-343)'' | |||
इसे चन्द्रहास खड्ग की सिद्धि थी । विजयार्ध की दक्षिणश्रेणी में असुरसंगीत नगर के राजा मय (दैत्य) विद्याधर की पुत्री मन्दोदरी से इसने विवाह किया था । इसके अतिरिक्त इसने राजा बुध की पुत्री अशोकलता, राजा सुरसुन्दर की कन्या पद्मवती, राजा कनक की पुत्री विद्युत्प्रभा तथा अन्य अनेक कन्याओं को गन्धर्व विधि से विवाहा था । ''(पद्मपुराण 8. 1-3, 103-108)'' | |||
वैश्रवण को जीतकर इसने उसका पुष्पक विमान प्राप्त किया । सम्मेदाचल के पास संस्थलि नामक पर्वत पर इसने त्रिलोकमण्डन हाथी पर विजय प्राप्त कर अपना अभूतपूर्व पौरुष प्रदर्शित किया था । ''(पद्मपुराण 8.237-239,253, 426-432)'' | |||
खरदूषण के द्वारा अपनी बहिन चन्द्रनखा का अपहरण होने पर भी बहिन के भविष्य का विचार कर यह शान्त रहा और इसने खरदूषण से युद्ध नहीं किया । इसने बाली को अपने आधीन करना चाहा था किन्तु बाली ने जिनेन्द्र के सिवाय किसी अन्य को नमन न करने की प्रतिज्ञा कर ली थी । प्रतिज्ञा-भंग न हो और हिंसा भी न हो एतदर्थ वह मुनि जगचन्द्र के पास दीक्षित हो गया था । बाली के भाई सुग्रीव ने अपनी श्रीप्रभा बहिन देकर इससे सन्धि कर ली थी । इसने नित्यालोक नगर के राजा की पुत्री रत्नावली से भी विवाह किया था । अपने पुष्पक विमान की गति रुकने का कारण बाली को जानकर यह क्रोधाग्नि से जल उठा था । इसने बाली सहित कैलास पर्वत को उठाकर समुद्र मे फेंकना चाहा था, कैलास इसके बल से चलायमान भी हो गया था । जिनमन्दिरों की सुरक्षा हेतु कैलास को सुस्थिर रखने के लिए बाली ने अँगूठे से पर्वत को दबाया था । इससे उत्पन्न कष्ट से इसने इतना चीत्कार किया था कि समस्त नगर चीत्कार के उस महाशब्द से रोने लगा कालान्तर में जगत् को रुला देने वाले इसी चीत्कार के कारण उसे रावण इस नाम से अभिहित किया जाने लगा । यह शत्रुओं को रुलाता था इसलिए भी रावण कहलाया मन्दोदरी द्वारा पति-भिक्षा की याचना करने पर मुनि ने दयावश पैर का अंगूठा ढीला किया था । तब इसने मुनि बाली से क्षमा-याचना की थी । इसने भक्ति विभोर होकर सैकड़ों स्तुतियों से जिनेन्द्र का गुणगान किया था । इससे प्रसन्न होकर नागराज ने इससे वर माँगने के लिए कहा किन्तु जिन-वन्दना से अन्य कोई उत्कृष्ट वस्तु माँगने के लिए इसे इष्ट न हुई । अत इसने पहले तो मना किया किन्तु बाद में विशेष आग्रह पर नागराज द्वारा दी अमोघ विजया शक्ति ग्रहण की थी । ''(महापुराण 68.85, पद्मपुराण 9.25-215)'' | |||
सहस्ररश्मि को पकड़कर उसके पिता शतबाहु के निवेदन पर उसे इसने छोड़ दिया था । ''(पद्मपुराण 10. 130-131, 139-157)'' राजा मरुत् की कन्या कनकप्रभा इसी ने विवाही थी । ''(पद्मपुराण 11. 307)'' मथुरा के राजा मधु के साथ अपनी पुत्री कृतचित्रा का विवाह कर इसने नलकूबर की पत्नी उपरम्भा से आशालिका नामक विद्या प्राप्त की थी । नलकूबर को जीत कर इसने उससे सुदर्शन नामक चक्ररत्न प्राप्त किया था । ''(पद्मपुराण 12.16-18, 136-137, 145)'' इसने अनन्तबल केवली से ‘‘जो पर स्त्री मुझे नहीं चाहेगी मैं उसे ग्रहण नहीं करूँगा’’ यह नियम लिया था । ''(पद्मपुराण 14.371)'' | |||
सागरबुद्धि निमित्तज्ञानी से दशरथ के पुत्र और जनक की पुत्री को अपने मरण का हेतु ज्ञातकर रावण ने दशरथ और जनक को मारने के लिए विभीषण को आज्ञा दी थी । नारद से यह समाचार जानकर दशरथ और जनक नगर से बाहर चले गये थे । इधर समुद्रहृदय मंत्री ने दशरथ की मूर्ति बनवाकर सिंहासन पर रख दी थी । विभीषण के भेजे वीरों ने इस मूर्ति को दशरथ समझकर उसका शिरच्छेद कर दिया था । विभीषण ने शिर को पाकर सन्तोष कर लिया था । ''(पद्मपुराण 23-25-27, 40-43, 54-56)'' | |||
एक समय यह अमितवेग की पुत्री मणिमती को देखकर कामासक्त हो गया था । मणिमती विद्या सिद्ध कर रही थी । इसके विघ्न उत्पन्न करने पर उसने निदान किया था कि इसी की पुत्री होकर वह इसके वध का कारण बनेगी । फलस्वरूप वह मन्दोदरी के गर्भ में आयी । जन्मते ही एक संदूकची मे बंद कर मिथिला के निकट किसी प्रकट स्थान में जमीन के भीतर छोड़ी गयी जो राजा जनक को प्राप्त हुई । इसके पालन पोषण के समाचार इसे प्राप्त नहीं हो सके थे । इसका नाम सीता रखा गया था । ''(महापुराण 68.13-28)'' | |||
स्वयंवर में सीता ने राम का वरण किया था । ''(पद्मपुराण 28.236, 243-244)'' | |||
नारद से इसने सीता की प्रशंसा सुनकर उसे अपने पास लाने का निश्चय किया था । पहले तो सीता को लाने के लिए इसने शूर्पणखा को उसके पास भेजा था किन्तु उसके विफल होने पर यह स्वयं गया । इसने मारीच को हरिण-शिशु के रूप में सीता के पास भेजा, सीता के कहने पर राम हरिण को पकड़ने चले गये इधर राम का रूप धरकर यह सीता के पास आया और उसके मन में व्यामोह उत्पन्न करके उसे हर ले गया । ''(महापुराण 68.89-104, 178, 193, 197-199,204-209)'' | |||
जटायु ने शक्तिभर विरोध किया था किन्तु उसे मारकर यह सीता को हरने में सफल रहा साधु से लिए नियम का इसने पालन किया था । सीता के न चाहने पर बलपूर्वक इसने उसे ग्रहण नहीं किया । ''(पद्मपुराण 44.78-100)'' अर्कजटी के पुत्र रत्नजटी के विरोध करने पर इसने उसकी आकाशगामिनी विद्या छीन ली थी । ''(पद्मपुराण 45.58-67)'' मन्दोदरी ने इसे समझाया था किन्तु इसने नियम का ध्यान दिलाकर सीता को समझाने के लिए उसे ही प्रेरित किया था । ''(पद्मपुराण 46.50-69)'' विभीषण ने इससे सीता लौटाने के लिए निवेदन किया जिससे वह विभीषण को भी मारने के लिए तलवार निकाल खड़ा हो गया था । अन्त में विभीषण राम से जा मिला । ''(महापुराण 55.10-11, 31, 71-72)'' | |||
युद्ध में इसने शक्ति के द्वारा लक्ष्मण का वक्षस्थल खण्डित किया था । इससे दु:खी होकर राम ने इसे छ: बार रथ रहित तो किया किन्तु इसे वे जीत नहीं सके थे । (पद्मपुराण 62.81-82,90) द्रुपद की पुत्री विशल्या को बुलवाया गया । विशल्या के समीप पहुंचते ही लक्ष्मण से शक्ति हट गयी थी । ''(पद्मपुराण 65.38-39)'' अजेय होने के लिए चौबीस दिन में सिद्ध होने वाली बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने हेतु इसे ध्यानस्थ देखकर राम के सैनिक इसे क्रोधित करना चाहते थे । राम के निषेध पर नृप-कुमारों ने लंका के निवासियों को भयभीत कर दिया । ''(पद्मपुराण 70.105, 11.36-43)'' | |||
अंगद के विविध उपसर्ग करने पर भी यह ध्यानस्थ रहा, विद्या सिद्ध हुई । ''(पद्मपुराण 71.52-86)'' मन्दोदरी के समझाने पर इसने अपनी निन्दा तो अवश्य की किन्तु वह सीता को वापिस नहीं करना चाहता था । ''(पद्मपुराण 73. 82-84, 93-95)'' अन्त में इसका लक्ष्मण के साथ दस दिन तक युद्ध होने के बाद इसे बहुरूपिणी विद्या का प्रयोग करना पड़ा । इसमें भी जब वह सफल नहीं हुआ तब इसने चक्ररत्न लक्ष्मण पर चलाया, लक्ष्मण अबाधित रहा । ''(पद्मपुराण 75. 5, 22,52-53, 60)'' चक्ररत्न प्राप्त कर लक्ष्मण ने मधुर शब्दों में इससे कहा था कि वह सीता को वापिस कर दे और अपने पद पर आरूढ़ होकर लक्ष्मी का उपभोग करे, पर यह मान वश ऐंठता रहा । अन्त में लक्ष्मण ने इसे चक्र चलाकर मार डाला था । ''(पद्मपुराण 76.17-19, 28-34)'' मरकर यह नरक गया । सीतेन्द्र ने इसे नरक में जाकर समझाया था । ''(महापुराण 68.630, पद्मपुराण 123.16)'' | |||
तीसरे पूर्वभव मे यह सारसमुच्चय दश में नरदेव नाम का नृप था । दूसरे पूर्वभव में सौधर्म स्वर्ग मे देव हुआ और वहाँ से च्युत होकर राजा विनमि विद्याधर के वश में रावण नाम से प्रसिद्ध हुआ । ''(महापुराण 68.728)'' दशास्य और दशकन्धर नामों से भी इसे सम्बोधित किया गया है । ''(महापुराण 68. 93, 425)'' | |||
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Revision as of 16:49, 21 June 2020
लंका का स्वामी । आठवां प्रतिनारायण ।
यह अलंकारपुर नगर के निवासी सुमाली का पौत्र तथा रत्नश्रवा और रानी केकसी का पुत्र था । (पद्मपुराण 7.133, 164-165, 209, 837-40, 20. 242-244) आचार्य जिनसेन के अनुसार विजयार्ध की दक्षिणश्रेणी में मेघकूट नगर के राजा पुलस्त्य और रानी मेघषी इसके पिता-माता थे ।(महापुराण 68.11-12)
इसके गर्भ में आते ही इसकी माता की चेष्टाएँ क्रूर हो गयी थी । वह खून की कीचड़ से लिप्त तथा छटपटाते हुए शत्रुओं के मस्तकों पर पैर रखने की इच्छा करने लगी थी । इन्द्र को भी आधीन करने का दोहद होने लगा था, वाणी कर्कश तथा घर्घर स्वर से युक्त हो गयी थी और दर्पण में मुख न देखकर कृपाण में मुख देखती थी । वह गुरुजनों की बड़ी ही कठिनाई से वन्दना करती थी । हजार नागकुमारों से रक्षित राक्सेन्द्र भीम से प्राप्त मेघवाहन के हार को इसने बाल्यावस्था में सहज में ही हाथ से खींच लिया था । हार पहिनाये जाने पर उसमें गुथे रत्नों में मुख्य मुख के सिवाय नौ मुख और भी प्रतिबिम्बित होने लगे थे इस प्रकार दश मुख दिखाई देने से इस नाम से सम्बोधित किया गया । भानुकर्ण और विभीषण इसके दो भाई तथा चन्द्रनखा एक बहिन थी । इसने चोटी धारण कर रखी थी ।
इसके बाबा के भाई माली को मारकर तथा बाबा को लंका से हटाकर इन्द्र विद्याधर ने लंका इसके मौसेरे भाई वैश्रवण को दे दी थी । वैश्रवण को जीतने के लिए इन तीनों भाइयों ने कामानन्दा-आठ अक्षरों वाली विद्या की एक लाख जप करके सिद्धि की थी । इसे अन्य जो विद्याएँ प्राप्त हुई थीं वे है― नभ: संचारिणो, कामदायिनी, कामगामिनी, दुर्निवारा, जगत्कम्पा, प्रज्ञप्ति भानुमालिनी, अणिमा, लघिमा, क्षोभ्या, मन:स्तम्भनकारिणी, संवाहिनी, सुरध्वंसी, कौमारी, वधकारिणी, सुविघाना, तपोरूपा, दहनी, विपुलोदरी, शुभप्रदा, रजोरूपा, दिनरात्रविधायिनो, वज्रोदरी, समाकृष्टि, अदर्शनी, अजरा, अमरा, अनल, स्तम्भिनी, तोयस्तम्भिनी, गिरिदारणी, अवलोकिनी, अरिध्वंसी, घोरा, घीरा, भुजंगिनी, वारुणी, भुवना, अवध्या, दारुणा, मदनाशिनी, भास्करी, भयसंभूति, ऐशानी, विजया, जया, बन्धनी, मोचनी, वाराही, कुटिलाकृति, चितोद््भवकारी, शान्ति, कौबेरी, वशकारिणी, योगेश्वरी, बलोत्सादी, चण्डा, भीति और प्रहर्षिणी । इन विद्याओं के प्रभाव से इसने स्वयंप्रभ नामक एक नगर बसाया था । जम्बूद्वीप के अधिपति अनावृत यक्ष ने जम्बूद्वीप में इच्छानुसार रहने का इसे वर दिया था । (पद्मपुराण 7.204-343)
इसे चन्द्रहास खड्ग की सिद्धि थी । विजयार्ध की दक्षिणश्रेणी में असुरसंगीत नगर के राजा मय (दैत्य) विद्याधर की पुत्री मन्दोदरी से इसने विवाह किया था । इसके अतिरिक्त इसने राजा बुध की पुत्री अशोकलता, राजा सुरसुन्दर की कन्या पद्मवती, राजा कनक की पुत्री विद्युत्प्रभा तथा अन्य अनेक कन्याओं को गन्धर्व विधि से विवाहा था । (पद्मपुराण 8. 1-3, 103-108)
वैश्रवण को जीतकर इसने उसका पुष्पक विमान प्राप्त किया । सम्मेदाचल के पास संस्थलि नामक पर्वत पर इसने त्रिलोकमण्डन हाथी पर विजय प्राप्त कर अपना अभूतपूर्व पौरुष प्रदर्शित किया था । (पद्मपुराण 8.237-239,253, 426-432)
खरदूषण के द्वारा अपनी बहिन चन्द्रनखा का अपहरण होने पर भी बहिन के भविष्य का विचार कर यह शान्त रहा और इसने खरदूषण से युद्ध नहीं किया । इसने बाली को अपने आधीन करना चाहा था किन्तु बाली ने जिनेन्द्र के सिवाय किसी अन्य को नमन न करने की प्रतिज्ञा कर ली थी । प्रतिज्ञा-भंग न हो और हिंसा भी न हो एतदर्थ वह मुनि जगचन्द्र के पास दीक्षित हो गया था । बाली के भाई सुग्रीव ने अपनी श्रीप्रभा बहिन देकर इससे सन्धि कर ली थी । इसने नित्यालोक नगर के राजा की पुत्री रत्नावली से भी विवाह किया था । अपने पुष्पक विमान की गति रुकने का कारण बाली को जानकर यह क्रोधाग्नि से जल उठा था । इसने बाली सहित कैलास पर्वत को उठाकर समुद्र मे फेंकना चाहा था, कैलास इसके बल से चलायमान भी हो गया था । जिनमन्दिरों की सुरक्षा हेतु कैलास को सुस्थिर रखने के लिए बाली ने अँगूठे से पर्वत को दबाया था । इससे उत्पन्न कष्ट से इसने इतना चीत्कार किया था कि समस्त नगर चीत्कार के उस महाशब्द से रोने लगा कालान्तर में जगत् को रुला देने वाले इसी चीत्कार के कारण उसे रावण इस नाम से अभिहित किया जाने लगा । यह शत्रुओं को रुलाता था इसलिए भी रावण कहलाया मन्दोदरी द्वारा पति-भिक्षा की याचना करने पर मुनि ने दयावश पैर का अंगूठा ढीला किया था । तब इसने मुनि बाली से क्षमा-याचना की थी । इसने भक्ति विभोर होकर सैकड़ों स्तुतियों से जिनेन्द्र का गुणगान किया था । इससे प्रसन्न होकर नागराज ने इससे वर माँगने के लिए कहा किन्तु जिन-वन्दना से अन्य कोई उत्कृष्ट वस्तु माँगने के लिए इसे इष्ट न हुई । अत इसने पहले तो मना किया किन्तु बाद में विशेष आग्रह पर नागराज द्वारा दी अमोघ विजया शक्ति ग्रहण की थी । (महापुराण 68.85, पद्मपुराण 9.25-215)
सहस्ररश्मि को पकड़कर उसके पिता शतबाहु के निवेदन पर उसे इसने छोड़ दिया था । (पद्मपुराण 10. 130-131, 139-157) राजा मरुत् की कन्या कनकप्रभा इसी ने विवाही थी । (पद्मपुराण 11. 307) मथुरा के राजा मधु के साथ अपनी पुत्री कृतचित्रा का विवाह कर इसने नलकूबर की पत्नी उपरम्भा से आशालिका नामक विद्या प्राप्त की थी । नलकूबर को जीत कर इसने उससे सुदर्शन नामक चक्ररत्न प्राप्त किया था । (पद्मपुराण 12.16-18, 136-137, 145) इसने अनन्तबल केवली से ‘‘जो पर स्त्री मुझे नहीं चाहेगी मैं उसे ग्रहण नहीं करूँगा’’ यह नियम लिया था । (पद्मपुराण 14.371)
सागरबुद्धि निमित्तज्ञानी से दशरथ के पुत्र और जनक की पुत्री को अपने मरण का हेतु ज्ञातकर रावण ने दशरथ और जनक को मारने के लिए विभीषण को आज्ञा दी थी । नारद से यह समाचार जानकर दशरथ और जनक नगर से बाहर चले गये थे । इधर समुद्रहृदय मंत्री ने दशरथ की मूर्ति बनवाकर सिंहासन पर रख दी थी । विभीषण के भेजे वीरों ने इस मूर्ति को दशरथ समझकर उसका शिरच्छेद कर दिया था । विभीषण ने शिर को पाकर सन्तोष कर लिया था । (पद्मपुराण 23-25-27, 40-43, 54-56)
एक समय यह अमितवेग की पुत्री मणिमती को देखकर कामासक्त हो गया था । मणिमती विद्या सिद्ध कर रही थी । इसके विघ्न उत्पन्न करने पर उसने निदान किया था कि इसी की पुत्री होकर वह इसके वध का कारण बनेगी । फलस्वरूप वह मन्दोदरी के गर्भ में आयी । जन्मते ही एक संदूकची मे बंद कर मिथिला के निकट किसी प्रकट स्थान में जमीन के भीतर छोड़ी गयी जो राजा जनक को प्राप्त हुई । इसके पालन पोषण के समाचार इसे प्राप्त नहीं हो सके थे । इसका नाम सीता रखा गया था । (महापुराण 68.13-28) स्वयंवर में सीता ने राम का वरण किया था । (पद्मपुराण 28.236, 243-244) नारद से इसने सीता की प्रशंसा सुनकर उसे अपने पास लाने का निश्चय किया था । पहले तो सीता को लाने के लिए इसने शूर्पणखा को उसके पास भेजा था किन्तु उसके विफल होने पर यह स्वयं गया । इसने मारीच को हरिण-शिशु के रूप में सीता के पास भेजा, सीता के कहने पर राम हरिण को पकड़ने चले गये इधर राम का रूप धरकर यह सीता के पास आया और उसके मन में व्यामोह उत्पन्न करके उसे हर ले गया । (महापुराण 68.89-104, 178, 193, 197-199,204-209)
जटायु ने शक्तिभर विरोध किया था किन्तु उसे मारकर यह सीता को हरने में सफल रहा साधु से लिए नियम का इसने पालन किया था । सीता के न चाहने पर बलपूर्वक इसने उसे ग्रहण नहीं किया । (पद्मपुराण 44.78-100) अर्कजटी के पुत्र रत्नजटी के विरोध करने पर इसने उसकी आकाशगामिनी विद्या छीन ली थी । (पद्मपुराण 45.58-67) मन्दोदरी ने इसे समझाया था किन्तु इसने नियम का ध्यान दिलाकर सीता को समझाने के लिए उसे ही प्रेरित किया था । (पद्मपुराण 46.50-69) विभीषण ने इससे सीता लौटाने के लिए निवेदन किया जिससे वह विभीषण को भी मारने के लिए तलवार निकाल खड़ा हो गया था । अन्त में विभीषण राम से जा मिला । (महापुराण 55.10-11, 31, 71-72)
युद्ध में इसने शक्ति के द्वारा लक्ष्मण का वक्षस्थल खण्डित किया था । इससे दु:खी होकर राम ने इसे छ: बार रथ रहित तो किया किन्तु इसे वे जीत नहीं सके थे । (पद्मपुराण 62.81-82,90) द्रुपद की पुत्री विशल्या को बुलवाया गया । विशल्या के समीप पहुंचते ही लक्ष्मण से शक्ति हट गयी थी । (पद्मपुराण 65.38-39) अजेय होने के लिए चौबीस दिन में सिद्ध होने वाली बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने हेतु इसे ध्यानस्थ देखकर राम के सैनिक इसे क्रोधित करना चाहते थे । राम के निषेध पर नृप-कुमारों ने लंका के निवासियों को भयभीत कर दिया । (पद्मपुराण 70.105, 11.36-43)
अंगद के विविध उपसर्ग करने पर भी यह ध्यानस्थ रहा, विद्या सिद्ध हुई । (पद्मपुराण 71.52-86) मन्दोदरी के समझाने पर इसने अपनी निन्दा तो अवश्य की किन्तु वह सीता को वापिस नहीं करना चाहता था । (पद्मपुराण 73. 82-84, 93-95) अन्त में इसका लक्ष्मण के साथ दस दिन तक युद्ध होने के बाद इसे बहुरूपिणी विद्या का प्रयोग करना पड़ा । इसमें भी जब वह सफल नहीं हुआ तब इसने चक्ररत्न लक्ष्मण पर चलाया, लक्ष्मण अबाधित रहा । (पद्मपुराण 75. 5, 22,52-53, 60) चक्ररत्न प्राप्त कर लक्ष्मण ने मधुर शब्दों में इससे कहा था कि वह सीता को वापिस कर दे और अपने पद पर आरूढ़ होकर लक्ष्मी का उपभोग करे, पर यह मान वश ऐंठता रहा । अन्त में लक्ष्मण ने इसे चक्र चलाकर मार डाला था । (पद्मपुराण 76.17-19, 28-34) मरकर यह नरक गया । सीतेन्द्र ने इसे नरक में जाकर समझाया था । (महापुराण 68.630, पद्मपुराण 123.16)
तीसरे पूर्वभव मे यह सारसमुच्चय दश में नरदेव नाम का नृप था । दूसरे पूर्वभव में सौधर्म स्वर्ग मे देव हुआ और वहाँ से च्युत होकर राजा विनमि विद्याधर के वश में रावण नाम से प्रसिद्ध हुआ । (महापुराण 68.728) दशास्य और दशकन्धर नामों से भी इसे सम्बोधित किया गया है । (महापुराण 68. 93, 425)