कायक्लेश: Difference between revisions
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शरीर को जानबूझकर कठिन तपस्या की अग्नि में झोंकना कायक्लेश कहलाता है। यह सर्वथा निरर्थक नहीं है। सम्यग्दर्शन सहित किया गया यह तप अन्तरंग बल की वृद्धि, कर्मों की अनन्ती निर्जरा व मोक्ष का साक्षात् कारण है।
- कायक्लेश तप का लक्षण
मू.आ./मू./३५६ ठाणसयणासणेहिं य विविहेहिं पउग्गयेहिं बहुगेहिं। अणुविचिपरिताओ कायकिलेसो हवदि एसो। =खड़ा रहना, एक पार्श्व मृत की तरह सोना, वीरासनादि से बैठना इत्यादि अनेक तरह के कारणों से शास्त्र के अनुसार आतापन आदि योगोंकरि शरीर को क्लेश देना वह कायक्लेश तप है।
स.सि./९/१९/४३८/११ आतपस्थानं वृक्षमूलनिवासो निरावरणशयनं बहुविधप्रतिमास्थानमित्येवमादि: कायक्लेश:। =आतापनयोग, वृक्षमूल में निवास, निरावरण शयन और नानाप्रकार के प्रतिमास्थान इत्यादि करना कायक्लेश है। (रा.वा./९/१९/१३/६१९/१५), (ध.१३/५/४,२६/५८/४), (चा.सा./१३६/२), (त.सा.७/१३)
का.अ./मू./४५० दुस्सह-उवसग्गजई आतावण-सीय-वाय-खिण्णो वि। जो णवि खेदं गच्छदि कायकिलेसो तवो तस्स। =दु:सह उपसर्ग को जीतने वाला जो मुनि आतापन, शीत, वात वगैरह से पीड़ित होने पर भी खेद को प्राप्त नहीं होता, उस मुनि के कायक्लेश नाम का तप होता है।
वसु.श्रा./३५१ आयंबिल णिव्वियडी एयट्ठाणं छट्ठमाइखवणेहिं। जं कीरइ तणुतावं कायकिलेसो मुणेयव्वो।३५१।=आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान, चतुर्भक्त, (उपवास), षष्ठ भक्त (बेला), अष्टम भक्त
तेला), आदि के द्वारा जो शरीर को कृश किया जाता है उसे कायक्लेश जानना चाहिए।
भ.आ./वि./६/३२/१८ कायसुखाभिलाषत्यजनं कायक्लेश:।=शरीर को सुख मिले ऐसी भावना को त्यागना कायक्लेश है।
- कायक्लेश के भेद
अन.ध./७/३२/६८३ ऊर्ध्वार्काद्ययनै: शवादिशयनैर्वीरासनाद्यासनै:, स्थानैरेकपदाग्रगामिभिरनिष्ठीवाग्रमावग्रहै:। योगैश्चातपनादिभि: प्रशमिना संतापनं यत्तनो:, कायक्लेशमिदं तपोऽर्त्युपमतौ सद्ध्यानसिद्धयै भजेत्।३२। =यह शरीर के कदर्थनरूप तप, अनेक उपायों द्वारा सिद्ध होता है। यहाँ छ: उपायों का निर्देश किया है-अयन (सूर्यादि की गति); शयन, आसन, स्थान, अवग्रह और योग। इनके भी अनेक उत्तर भेद होते हैं (देखो आगे इन भेदों के लक्षण)।
- अयनादि कायक्लेशों के भेद व लक्षण
भ.आ./मू./२२२-२२७ अणुसुरी पडिसूरी पउड्ढसूरी य तिरियसूरी य। उब्भागमेण य गमणं पडिआगमणं च गंतूणं।२२२। साधारणं सवीचारं सणिरुद्धं तहेव वोसट्ठं। समपादमेगपादं गिद्धोलोणं च ठाणाणि।२२३। समपलियंक णिसेज्जा समपदगोदो हिया य उक्कुडिया। मगरमुह हत्थिसुंडी गोणणिसेज्जद्धपलियंका।२२४। वीरासण च दंडा य उड्ढसाई य लगडसाई य। उत्ताणो मच्छिय एगपाससाई य मडयसाई य।२२५। अब्भावगाससयणं अणिट्ठवणा अकंडुगं चेव। तणफलयसिलाभूमी सेज्जा तह केसलोचे य।२२६। अब्भुट्ठणं च रादो अण्हाणमदंतधोवणं चेव। कायकिलेसो एसो सीदुण्हादावणादी य।२२७।=अयन—कड़ी धूपवाले दिन पूर्व से पश्चिम की ओर चलना अनुसूर्य है—पश्चिम से पूर्व की ओर चलना प्रतिसूर्य है–सूर्य जब मस्तक पर चढ़ता है ऐसे समय में गमन करना ऊर्ध्वसूर्य है, सूर्य को तिर्यंक् (अर्थात् दायें-बायें) करके गमन करना तिर्यक्सूर्य है—स्वयं ठहरे हुए ग्राम से दूसरे गाँव को विश्रान्ति न लेकर गमन करना और स्वस्थान लौट आना या तीर्थादि स्थान को जाकर लगे हाथ लौट आना गमनागमन है। इस तरह अयन के अनेक भेद होते हैं। स्थान—कायोत्सर्ग करना स्थान कहलाता है। जिसमें स्तम्भादि का आश्रय लेना पड़े उसे साधार; जिसमें संक्रमण पाया जाये उसको सविचार; जो निश्चलरूप से धारण किया जाय उसको ससन्निरोध, जिसमें सम्पूर्ण शरीर ढीला छोड़ दिया जाय उसको विसृष्टांग; जिसमें दोनों पैर समान रखे जायें उसको समपाद; एक पैर से खड़ा होना एकपाद, दोनों बाहू ऊपर करके खड़े होना प्रसारितबाहू। इस तरह स्थान के भी अनेक भेद हैं। आसन—जिसमें पिंडलियाँ और स्फिक बराबर मिल जायें वह समपर्यंकासन है; उससे उलटा असमपर्यंकासन है; गौ को दुहने की भाँति बैठना गोदोहन है; ऊपर को संकुचित होकर बैठना उत्करिकासन है; मकरमुखवत् दोनों पैरों को करके बैठना मकरमुखासन है; हाथी की सूंड की तरह हाथ या पाँव को फैलाकर बैठना हस्तिसूंडासन है; गौ के बैठने की भाँति बैठना गोशय्यासन है; अर्धपर्यंकासन, दोनों जंघाओं को दूरवर्ती रखकर बैठना वीरासन है; दण्ड के समान सीधा बैठना दण्डासन है। इस प्रकार आसन के अनेक भेद है। शयन—शरीर को संकुचित करके सोना लगडशय्या है; ऊपर को मुख करके सोना उत्तानशय्या है; नीचे को मुख करके सोना अवाक्शय्या है। शव की तरह निश्चेष्ट सोना शवशय्या है; किसी एक करवट से सोना एकपार्श्वशय्या है; बाहर खुले आकाश में सोना अभ्रावकाशशय्या है। इस प्रकार शयन के भी अनेक भेद हैं। अवग्रह—अनेक प्रकार की बाधाओं को जीतना अवग्रह है। थूकने, खाँसने की बाधा; छींक व जँभाई को रोकना; खाज होने पर न खुजाना; काँटा आदि लग जाने पर खिन्न न होना; फोड़ा, फुंसी आदि होने पर दुःखी न होना; पत्थर आदि लग जाने पर या ऊँची-नीची धरती आ जाने पर खेद न मानना; यथा समय केशलौंच करना; रात्रि को भी न सोना; कभी स्नान न करना; कभी दाँतों को न माँजना; इत्यादि अवग्रह के अनेक भेद हैं। योग—ग्रीष्म ऋतु में पर्वत के शिखर पर सूर्य के सम्मुख खड़ा होना आतापन है; वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे बैठना वृक्षमूल योग है; शीतकाल में चौराहे पर नदी किनारे ध्यान लगाना शीत योग है। इत्यादि अनेक प्रकार योग होता है। (अन.ध./७/३२/६८३ में उद्धृत)
- कायक्लेश तप के अतिचार
भ.आ./वि./४८७/७०७/११ कायक्लेशस्यातापनस्यातिचार: उष्णदितस्यशीतलद्रव्यसमागमेच्छा, संतापापायो मम कथं स्यादिति चिन्ता, पूर्वानुभूतशीतलद्रव्यप्रदेशानां स्मरणं, कठोरातपस्य द्वेष:, शीतलाद्देशादकृतगात्रप्रमार्जनस्य आतपप्रवेश:। आतपसंतप्तशरीरस्य वा अप्रमृष्टगात्रस्य छायानुप्रवेश: इत्यादिक:। वृक्षस्य मूलमुगतस्यापि हस्तेन, पादेन, शरीरेण वाप्कायानां पीडा। कथं। शरीरावलग्नजलकणप्रमार्जनं, हस्तेन पादेन वा शिलाफलकादिगतोदकापनयनं। मृत्तिकार्द्रायां भूमौ शयनं। निम्नेन जलप्रवाहागमनदेशे वा अवस्थानम्। अवग्राहे वर्षापात: कदा स्यादिति चिन्ता। वर्षति देवे कदास्योपरम: स्यादिति वा। छत्रकटकादिधारणं वर्षानिवारणायेत्यादिक:।–तथा अभ्रावकाशस्यातिचार:। सचित्तायां भूमौ त्रससहितहरितसमुत्थितायां विवरवत्यां शयनं। अकृतभूमिशरीरप्रमार्जनस्य हस्तपादसंकोचप्रसारणं पार्श्वान्तरसंचरणं, कण्डूयनं वा। हिमसमीरणाभ्यां हतस्य कदैतदुपशमो भवतीति चिन्ता, वंशदलादिभिरुपरिनिपतितहिमापकर्षणं, अवश्यायघट्टना वा। प्रचुरवातापातदेशोऽयमिति संक्लेश:। अग्निप्रावरणादीनां स्मरणमित्यादिक:।=आतापन योग के अतिचार–ऊष्ण से पीड़ित होने पर ठंडे पदार्थों के संयोग की इच्छा करना, ‘यह मेरा संताप कैसे नष्ट होगा’ ऐसी चिन्ता करना, पूर्व में अनुभव किये गये शीतल पदार्थों का स्मरण होना, कठोर धूप से द्वेष करना, शरीर को बिना झाड़े ही शीतलता से एकदम गर्मी में प्रवेश करना तथा शरीर को पिच्छी से न स्पर्श करके ही धूप से शरीर संताप होने पर छाया में प्रवेश करना इत्यादि अतिचार आतापन योग के हैं। वृक्षमूल योग के अतिचार–इस योग को धारण करने पर भी अपने हाथ से, पाँव से और शरीर से जलकायिक जीवों को दुःख देना अर्थात् शरीर से लगे हुए जल-कण हाथ से पोंछना, अथवा पाँव से शिला या फलक पर संचित हुआ जल अलग करना, गीली मिट्टी की जमीन पर सोना, जहाँ जलप्रवाह बहता है ऐसे स्थान में अथवा खोल प्रदेशों में बैठना, वृष्टि प्रतिबन्ध होने पर ‘कब वृष्टि होगी’ ऐसी चिन्ता करना; और वृष्टि होने पर उसके उपशम की चिन्ता करना, अथवा वर्षा का निवारण करने के लिए छत्र चटाई वगैरह धारण करना। अभ्रावकाश या शीतयोग के अतिचार–सचित्त जमीन पर, त्रससहित हरितवनस्पति जहाँ उत्पन्न हुई है ऐसी जमीन पर, छिद्र सहित जमीन पर, शयन करना। जमीन और शरीर को पिच्छिका से स्वच्छ किये बिना हाथ और पाँव संकुचित करके अथवा फैला करके सोना; एक करवट से दूसरे करवट पर सोना अर्थात् करवट बदलना; अपना अंग खुजलाना; हवा और ठंडी से पीड़ित होने पर इनका कब उपशम होगा’ ऐसा मन में संकल्प करना; शरीर पर यदि बर्फ गिरा होगा तो बाँस के टुकड़े से उसको हटाना; अथवा जल के तुषारों को मर्दन करना, ‘इस प्रदेश में धूप और हवा बहुत है’ ऐसा विचारकर संक्लेश परिणाम से युक्त होना, अग्नि और आच्छादन वस्त्रों का स्मरण करना। ये सब अभ्रावकाश के अतिचार हैं।
- कायक्लेश तप गृहस्थ के लिए नहीं है
सा.ध./७/५० श्रावको वीरचर्याह: प्रतिमातापनादिषु। स्यान्नाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च।५०। =श्रावक को वीरचर्या अर्थात् स्वयं भ्रामरी वृत्ति से भोजन करना, दिनप्रतिमा, आतापन योग, आदि धारण करने का तथा सिद्धान्तशास्त्रों के अध्ययन का अधिकार नहीं है।
- कायक्लेश व परिषहजय भी आवश्यक हैं
चा.सा./१०७ पर उद्धृत–परीषोढव्या नित्येदर्शनचारित्ररक्षणे विरतै:। संयमतपोविशेषास्तदेकदेशा: परीषहाख्या: स्यु:।=दर्शन और चारित्र की रक्षा के लिए तत्पर रहने वाले मुनियों को सदा परिषहों को सहन करना चाहिए। क्योंकि ये परिषहें संयम और तप दोनों का विशेष रूप हैं, तथा उन्हीं दोनों का एकदेश (अंग) हैं।
अन.ध./७/३२/६८२ कायक्लेशमिदं तपोऽर्त्युपनतौ सद्ध्यानसिद्ध्यै भजेत्।३२। =यह तप भी मुमुक्षुओं के लिए आवश्यक है अतएव प्रशान्त तपस्वियों को ध्यान की सिद्धि के लिए इसका नित्य ही सेवन करना चाहिए।
- कायक्लेश व परिषह में अन्तर
स.सि./९/१९/४३९/१ परिषहस्यास्य च को विशेष:। यदृच्छयोपनिपतित: परिषह: स्वयंकृत: कायक्लेश:। =प्रश्न–परिषह और काय क्लेश में क्या अन्तर है? उत्तर—अपने आप प्राप्त हुआ परिषह और स्वयं किया गया कायक्लेश है। यही दोनों में अन्तर है। (रा.वा/९/१९/१५/६१९/२०) - कायक्लेश तप का प्रयोजन स.सि./९/१९/४३९/१ तत्किमर्थम्। देहदु:खतितिक्षासुखानभिष्वङ्गप्रवचनप्रभावनाद्यर्थम्।=प्रश्न—यह किसलिए किया जाता है? उत्तर—यह देहदुःख को सहन करने के लिए, सुखविषयक आसक्ति को कम करने के लिए और प्रवचन की प्रभावना करने के लिए किया जाता है। (रा.वा./९/१९/१४/६१९/१७) (चा.सा./१३६/४) ध.१३/५,४,२६/५८/५ किमट्ठमेसो करिदे। सदि-वादादवेहि बहुदोववासेहि तिसा-छुहादिबाहाहि विसंठुलासणेहि य ज्झाणपरिचयट्ठं, अभावियसदिबाधादिउववासादिबाहस्स मारणं तियअसादेण ओत्थअस्सज्झाणाणुत्तीदो।=प्रश्न–यह (कायक्लेश तप) किसलिए किया जाता है? उत्तर–शीत, वात और आतप के द्वारा; बहुत उपवासों के द्वारा; तृषा क्षुधा आदि बाधाओं द्वारा और विसंस्थुल आसनों द्वारा ध्यान का अभ्यास करने के लिए किया जाता है; क्योंकि जिसने शीतबाधा आदि और उपवास आदि की बाधा का अभ्यास नहीं किया है और जो मारणान्तिक असाता से खिन्न हुआ है, उसके ध्यान नहीं बन सकता। (चा.सा./१३६/३), (अन.ध./७/३२/६८२)।