योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 65: Difference between revisions
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<p><b> सरलार्थ </b>:- जो गुण-पर्यायों के द्वारा द्रवित होता है अथवा जो उन गुण-पर्यायों को द्रवित/ प्रवाहित करता है, वह द्रव्य कहा जाता है । उक्त द्रव्य जीवादि छह भेदरूप हैं, सत्तासहित हैं और अविनश्वर अर्थात् कभी नष्ट न होनेवाले हैं । </p> | <p><b> सरलार्थ </b>:- जो गुण-पर्यायों के द्वारा द्रवित होता है अथवा जो उन गुण-पर्यायों को द्रवित/ प्रवाहित करता है, वह द्रव्य कहा जाता है । उक्त द्रव्य जीवादि छह भेदरूप हैं, सत्तासहित हैं और अविनश्वर अर्थात् कभी नष्ट न होनेवाले हैं । </p> | ||
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Revision as of 22:47, 19 January 2009
द्रव्य का व्युत्पत्तिपरक लक्षण और सत्तामय स्वरूप -
द्रूयते गुणपर्यायैर्यद्यद् द्रवति तानथ ।
तद् द्रव्यं भण्यते षोढा सत्तामयमनश्वरम् ।।६४।।
अन्वय :- अथ गुणपर्यायै: यत् द्रूयते (यत्) तान् द्रवति तत् द्रव्यं भण्यते । (तत्) षोढ़ा, सत्तामयम्, अनश्वरम् ।
सरलार्थ :- जो गुण-पर्यायों के द्वारा द्रवित होता है अथवा जो उन गुण-पर्यायों को द्रवित/ प्रवाहित करता है, वह द्रव्य कहा जाता है । उक्त द्रव्य जीवादि छह भेदरूप हैं, सत्तासहित हैं और अविनश्वर अर्थात् कभी नष्ट न होनेवाले हैं ।