योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 85: Difference between revisions
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<p><b> सरलार्थ </b>:- | <p><b> सरलार्थ </b>:- जिसप्रकार पुद्गल स्वयं अनेक प्रकार के स्कन्धरूप बन जाते हैं, उसीप्रकार अनेक प्रकार के कर्मो की निष्पत्ति भी दूसरों के द्वारा किये बिना ही अर्थात् स्वत: ही होती है । </p> | ||
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Revision as of 23:05, 19 January 2009
कर्मों की विभिन्नता पुद्गलकृत हैं -
विविधा: पुद्गला: स्कन्धा: संपद्यन्ते यथा स्वय म् ।
कर्मणामपि निष्पत्तिरपरैरकृता तथा ।।८५।।
अन्वय :- यथा विविधा: पुद्गला: स्वयं स्कन्धा: संपद्यन्ते तथा (एव) कर्मणां अपि निष्पत्ति: अपरै: अकृता (भवति) ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार पुद्गल स्वयं अनेक प्रकार के स्कन्धरूप बन जाते हैं, उसीप्रकार अनेक प्रकार के कर्मो की निष्पत्ति भी दूसरों के द्वारा किये बिना ही अर्थात् स्वत: ही होती है ।