अर्हत्: Difference between revisions
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<p id="2">(2) शरीर सहित जीवमुक्त प्रथम परमेष्ठी । ये दो प्रकार के होते हैं― सामान्य अर्हत् और तीर्थंकर अर्हत् । इनमें सामान्य अर्हत् पंचकल्याणक विभूति से रहित होते हैं । वृषभदेव से महावीर पर्यन्त धर्म-चक्र-प्रवर्तक चौबीस ऐसे ही तीर्थंकर है । विशेष पूजा के योग्य होने से ये अर्हत् कहलाते हैं । ये ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मों का नाश कर लेते है । इन कर्मों का क्षय हो जाने से इनके अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य प्रकट हो जाते हैं । इन्हें अष्ट प्रातिहार्य और समवसरण रूप वैभव प्राप्त हो जाता है । राग-द्वेष आदि दोषों से रहित हो जाने से ये आप्त कहलाते हैं । इनके जन्म लेने पर ओर केवलज्ञान होने पर दस-दस अतिशय होते हैं । देव भी आकर चौदह अतिशय प्रकट करते हैं । अष्ट मंगल द्रव्य इनके साथ रहते हैं । ये सभी जीवों का हित करते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 2.127-134, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 17.180-183, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 1.28, 3.10-30 </span>इसी नाम को आदि में रखकर निम्न मंत्र प्रचलित है—पीठिका मन्त्र— ‘‘अर्हज्जाताय नमः’’ तथा ‘‘अर्हत्सिद्धेभ्यो नमो नम:’’ , जाति मंत्र—‘‘अर्हन्मातु: शरणं प्रपद्यामिः’’, ‘‘अर्हस्तुतस्य शरणं प्रपद्यामि’’ तथा ‘‘अर्हज्जन्मन: शरणं प्रपद्यामि’’ और निस्तारक मंत्र― ‘‘अर्हज्जाताय स्वाहा’’ । <span class="GRef"> महापुराण 40.11, 19.27-28, 32 </span></p> | |||
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Revision as of 21:37, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
देखें अर्हन्त ।
पुराणकोष से
(1) भरतेश और सौधर्मेन्द्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 24.40, 25.112
(2) शरीर सहित जीवमुक्त प्रथम परमेष्ठी । ये दो प्रकार के होते हैं― सामान्य अर्हत् और तीर्थंकर अर्हत् । इनमें सामान्य अर्हत् पंचकल्याणक विभूति से रहित होते हैं । वृषभदेव से महावीर पर्यन्त धर्म-चक्र-प्रवर्तक चौबीस ऐसे ही तीर्थंकर है । विशेष पूजा के योग्य होने से ये अर्हत् कहलाते हैं । ये ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मों का नाश कर लेते है । इन कर्मों का क्षय हो जाने से इनके अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य प्रकट हो जाते हैं । इन्हें अष्ट प्रातिहार्य और समवसरण रूप वैभव प्राप्त हो जाता है । राग-द्वेष आदि दोषों से रहित हो जाने से ये आप्त कहलाते हैं । इनके जन्म लेने पर ओर केवलज्ञान होने पर दस-दस अतिशय होते हैं । देव भी आकर चौदह अतिशय प्रकट करते हैं । अष्ट मंगल द्रव्य इनके साथ रहते हैं । ये सभी जीवों का हित करते हैं । महापुराण 2.127-134, पद्मपुराण 17.180-183, हरिवंशपुराण 1.28, 3.10-30 इसी नाम को आदि में रखकर निम्न मंत्र प्रचलित है—पीठिका मन्त्र— ‘‘अर्हज्जाताय नमः’’ तथा ‘‘अर्हत्सिद्धेभ्यो नमो नम:’’ , जाति मंत्र—‘‘अर्हन्मातु: शरणं प्रपद्यामिः’’, ‘‘अर्हस्तुतस्य शरणं प्रपद्यामि’’ तथा ‘‘अर्हज्जन्मन: शरणं प्रपद्यामि’’ और निस्तारक मंत्र― ‘‘अर्हज्जाताय स्वाहा’’ । महापुराण 40.11, 19.27-28, 32