अस्तित्व: Difference between revisions
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<p>= अस्तित्व छहों द्रव्योंमें पाया जाता है अतः साधारण है। कर्मोदय क्षयक्षयोपशम व उपशमसे निरपेक्ष होनेके कारण यह पारिणामिक है।</p> | <p>= अस्तित्व छहों द्रव्योंमें पाया जाता है अतः साधारण है। कर्मोदय क्षयक्षयोपशम व उपशमसे निरपेक्ष होनेके कारण यह पारिणामिक है।</p> | ||
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<p> आलापपद्धति अधिकार 6 अस्तीत्येतस्य भावोऽस्तित्वं सद्रूपत्वम्।</p> | <p> आलापपद्धति अधिकार 6 अस्तीत्येतस्य भावोऽस्तित्वं सद्रूपत्वम्।</p> | ||
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Revision as of 21:38, 5 July 2020
1. `अस्तित्व' शब्दके अनेक अर्थ
1. सामान्य सत्ताके अर्थमें अस्तित्व
राजवार्तिक अध्याय 2/7/13/111/32 अस्तित्व तावत् साधारणं षड्द्रव्यविषयत्त्वात्। तत् कर्मोदयक्षयक्षयोपशमोपशमानपेक्षत्वात् पारिणामिकम्।
= अस्तित्व छहों द्रव्योंमें पाया जाता है अतः साधारण है। कर्मोदय क्षयक्षयोपशम व उपशमसे निरपेक्ष होनेके कारण यह पारिणामिक है।
नयचक्रवृहद् गाथा 61 अस्थिसहावे सत्ता।
= अस्तित्व स्वभावको ही सत्ता कहते हैं।
आलापपद्धति अधिकार 6 अस्तीत्येतस्य भावोऽस्तित्वं सद्रूपत्वम्।
= अस्ति अर्थात् है पने के भावको अस्तित्व कहते हैं। अस्तित्व अर्थात् सद्रूपत्व।
( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 24) ( नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 34)
2. अवस्थान अर्थमें अस्तित्व
राजवार्तिक अध्याय 4/42/4/250/17 आयुरादिनिमित्तवशादवस्थानमस्तित्वम्।
= आयु आदि निमित्तोंके अनुसार उस पर्यायमें बने रहना सद्भाव या स्थिति है।
3. उत्पाद व्यय ध्रौव्यस्वभाव अर्थमें अस्तित्व
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5/30 उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥30॥
= जो उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन तीनोंसे मुक्त अर्थात् इन तीनों रूप है वह सत् है।
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 96 सब्भावो हि सहावो गुणेहिं सगपज्जएहिं चित्तेहिं। दव्वस्स सव्वकालं उप्पादव्वयधुवत्तेहिं ॥96॥
= सर्वकालमें गुणों तथा अनेक प्रकारकी अपनी पर्यायोंसे और उत्पादव्ययध्रौव्यसे द्रव्यका जो अस्तित्व है वह वास्तवमें स्वभाव है।
पं.का./त.प.5/14 एकेण पर्यायेण प्रलीपयमानस्यान्येनोपजायमानस्यान्वयिना गुणेन ध्रौव्यं बिभ्राणस्यैकस्यापि वस्तुनः समुच्छेदोत्पादध्रौव्यलक्षणमस्तित्वमुपपद्यत् एव।
= जिसमें एक पर्याय का विनाश होता है, अन्य पर्यायकी उत्पत्ति होती है तथा उसी समय अन्वयी गुणके द्वारा जो ध्रुव है ऐसी एक वस्तुका उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप लक्षण ही अस्तित्व है।
2. अस्तित्वके भेद
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 95 अस्तित्वं हि वक्ष्यति द्विविधं-स्वरूपास्तित्वं सादृश्यास्तित्वं चेति।
= अस्तित्व दो प्रकारका कहेंगे-स्वरूपपास्तित्व और सादृश्यास्तित्व।
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 34 अस्तित्वं नाम सत्ता। सा किंविशिष्टा। सप्रतिपक्षा अवान्तरसत्ता माहसत्तेति। अस्तित्व अर्थात् सत्ता। वह कैसी है? महासत्ता और अवान्तर सत्ता।
3. स्वरूपास्तित्व या अवान्तर सत्ता
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 96 इदं स्वरूपास्तित्वाभिधानम् ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / उत्थानिका) सब्भावो हि सहावो गुणेहिं सगपज्जए हि। चत्तेहिं। दव्वस्स सव्वकालं उप्पादव्वयधुवत्तेहिं ॥96॥
= सर्वकालमें गुण तथा अनेक प्रकारकी अपनी पर्यायोंसे और उत्पादव्ययध्रौव्यसे द्रव्यका जो अस्तित्व है वह वास्तवमें स्वभाव है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 97 प्रतिद्रव्यं सीमानमासूत्रयता विशेषलक्षणभ्रतेन च स्वरूपास्तित्वेन लक्ष्यमाणानामपि।
= प्रत्येक द्रव्यकी सीमाको बाँधते हुए ऐस विशेषलक्षणभूत स्वरूपास्तित्वसे लक्षित होते हैं।
पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 8 प्रतिनियतवस्तुवर्तिनी स्वरूपास्तित्वसूचिकाऽवान्तरसत्ता।
= प्रतिनियतवस्तुवर्ती तथा स्वरूपस्तित्वकी सूचना देनेवाली (अर्थात् पृथक्-पृथक् पदार्थका पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र अस्तित्व बतानेवाली) अवान्तरसत्ता है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 34 प्रतिनियतवस्तुव्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता...प्रतिनियतैकरूपव्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता, ...प्रतिनियतैकपर्यायव्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता।
= प्रतिनियत वस्तु (द्रव्य) में व्यापनेवाली या प्रतिनियत एक रूप (गुण) में व्यापनेवाली या प्रतिनियत एक पर्यायमें व्यापनेवाली अवान्तर सत्ता है।
प्र.सा./ता.96/129/17 मुक्तात्मद्रव्यस्य स्वकीयगुणपर्यायोत्पादव्ययध्रौव्यैः सहस्वरूपास्तित्वाभिधानमवान्तरास्तित्वभिन्नं व्यवस्थापितं।
= सुक्तात्मद्रव्यके स्वकीय गुणपर्यायोंका उत्पादव्ययध्रौव्यताके जो स्वरूपास्तित्वका अभिधान या निर्देश है वही अभिन्न रूपसे अवान्तर सत्ता स्थापित की गयी है।
पंचाध्यायी / श्लोक 1/266 अपि चावान्तरसत्ता सद्द्रव्यं सद्गुणश्च पर्यायः सच्चोत्पादध्वंसौ सदिति ध्रौव्यं किलेति विस्तारः ॥266॥
= तथा सत् द्रव्य है, सत् गुण है और सत् पर्याय है। तथा सत् ही उत्पाद व्यय है, सत् ही ध्रौव्य है, इस प्रकारके विस्तारका नाम ही निश्चयसे अवान्तर सत्ता है।
4. सादृश्य अस्तित्व या महासत्ता
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 97 इदं तु सादृश्यास्तित्वाभिधानमस्तीति कथयति - (उत्थानिका)। इह विविहलक्खणाणं लक्खणमेगं सदिति सव्वगयं। उवदिसदा खलु धम्मं जिणवरवसहेण पण्णत्तं।
= यह सादृश्यास्तित्वका कथन है - धर्मका वासत्वमें उपदेश करते हुए जिनवरवृषभने इस विश्वमें विविध लक्षणवाले (भिन्न-भिन्न स्वरूपास्तित्ववाले) सर्वद्रव्योंका `सत्' ऐसा सर्वगत एक लक्षण कहा है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 97 स्वरूपास्तित्वेन लक्ष्यमाणानामपि सर्वद्रव्याणामस्तमितवैचित्र्यप्रपञ्चं प्रवृत्त्य वृतं प्रतिद्रव्यमासूत्रितं सीमानं भिन्दत्सदिति सर्वगतं सामान्यलक्षणभूतं सादृश्यास्तित्वमेकं खल्ववबोधव्यम्।
= (यद्यपि सर्व द्रव्य) स्वरूपास्तित्वसे लक्षित होते हैं, फिर भी सर्वद्रव्योंका विचित्रता के विस्तारको अस्त करता हुआ, सर्व द्रव्यों में प्रवृत्त होकर रहनेवाला, और प्रत्येक द्रव्यकी बन्धी हुई सीमाकी अवगणना करता हुआ `सत्' ऐसा जो सर्वगत सामान्यलक्षणभूत सादृश्य अस्तित्व है वह वास्तवमें एक ही जानना चाहिए।
पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 8 सर्वपदार्थसार्थव्यापिनी सादृश्यास्तित्वसूचिका महासत्ता प्रौक्तैव।
= सर्वपदार्थ समूहमें व्याप्त होनेवाली सादृश्य अस्तित्वको सूचित करनेवाली महासत्ता कही जा चुकी है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 34 समस्तव्सतुविस्तारव्यापिनी महासत्ता, ...समस्तव्यापकरूपव्यापिनी महासत्ता,...अनन्तपर्यायव्यव्यापिनी महासत्ता।
= समस्तवस्तुविस्तारमें व्यापनेवाली, अर्थात् छहों द्रव्यों व उनके समस्त भेद प्रभेदोंमें व्यापनेवाली तथा समस्त व्यापक रूपों (गुणों) में व्यापनेवाली तथा अनन्त पर्यायोंमें व्यापनेवाली महासत्ता है।
( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 97/130/14)