कर्ता: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<p class="HindiText">यद्यपि लोक में ‘मैं घट, पट आदि का कर्ता हूँ’ ऐसा ही | <p class="HindiText">यद्यपि लोक में ‘मैं घट, पट आदि का कर्ता हूँ’ ऐसा ही व्यवहार प्रचलित है। परन्तु परमार्थ में प्रत्येक पदार्थ परिणमन स्वभावी होने तथा प्रतिक्षण परिणमन करते रहने के कारण वह अपनी पर्याय का ही कर्ता है। इस प्रकार का उपरोक्त भेद कर्ता कर्म भाव विकल्पात्मक होने के कारण परमार्थ में सर्वत्र निषिद्ध है। अभेद कर्ताकर्मभाव का विचार ही ज्ञाता-द्रष्टाभाव में ग्राह्य है।</p> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong>कर्ताकर्म | <li><span class="HindiText"><strong>कर्ताकर्म सामान्य निर्देश</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">निश्चय कर्ताकारक का लक्षण व निर्देश।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">निश्चय कर्मकारक का लक्षण व निर्देश।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText">क्रिया | <li class="HindiText">क्रिया सामान्य का लक्षण व निर्देश।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText">कर्मकारक के | <li class="HindiText">कर्मकारक के प्राप्य विकार्य आदि तीन भेदों का लक्षण व निर्देश।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText">आचार्य का कर्ता गुण।–देखें | <li class="HindiText">आचार्य का कर्ता गुण।–देखें [[ प्रकुर्बी ]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> | <li><span class="HindiText"><strong>निश्चय कर्ता कर्म भाव निर्देश</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">निश्चय से कर्ता कर्म व अधिकरण में अभेद है।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">निश्चय से कर्ता कर्म व करण में अभेद है।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">निश्चय से कर्ता व करण में अभेद।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">निश्चय से वस्तु का परिणामी परिणाम सम्बन्ध ही उसका कर्ता कर्म भाव है। </li> | ||
<li class="HindiText">एक ही | <li class="HindiText">एक ही वस्तु में कर्ता और कर्म दोनो बातें कैसे हो सकती हैं?</li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">व्यवहार से भिन्न वस्तुओं में भी कर्ता कर्म व्यपदेश किया जाता है। <br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText">षट्- | <li class="HindiText">षट्-द्रव्यों में परस्पर उपकार्य उपकारक भाव।–देखें [[ कारण#III 1 | कारण - III 1]]। <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText">षट्- | <li class="HindiText">षट्-द्रव्यों में कर्ता अकर्ता विभाग।–देखें [[ द्रव्य#1 | द्रव्य - 1 ]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> | <li><span class="HindiText"><strong>निश्चय व्यवहार कर्ताकर्मभाव की कथंचित् सत्यार्थता असत्यार्थता।</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">वास्तव में व्याप्यव्यापकरूप ही कर्ता कर्म भाव अध्यात्म में इष्ट हैं। <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">निश्चय से प्रत्येक पदार्थ अपने ही परिणाम का कर्ता है दूसरे का नही।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText">एक दूसरे के परिणाम का कर्ता नहीं हो सकता।<br /> | <li class="HindiText">एक दूसरे के परिणाम का कर्ता नहीं हो सकता।<br /> | ||
Line 50: | Line 50: | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText">निमित्त न दूसरे को अपने रूप परिणमन करा सकता है, न | <li class="HindiText">निमित्त न दूसरे को अपने रूप परिणमन करा सकता है, न स्वयं दूसरे रूप से परिणमन कर सकता है, न किसी में अनहोनी शक्ति उत्पन्न कर सकता है बल्कि निमित्त के सद्भाव में उपादान स्वयं परिणमन करता है।–देखें [[ कारण#II.1 | कारण - II.1 ]]।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="4"> | <ol start="4"> | ||
<li class="HindiText">एक | <li class="HindiText">एक द्रव्य दूसरे को निमित्त हो सकता है पर कर्ता नहीं।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText">निमित्त नैमित्तिक भाव ही कर्ताकर्म भाव | <li class="HindiText">निमित्त नैमित्तिक भाव ही कर्ताकर्म भाव है।–देखें [[ कारण#III.1.4 | कारण - III.1.4]]<br /> | ||
</li> | </li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="5"> | <ol start="5"> | ||
<li class="HindiText">निमित्त भी | <li class="HindiText">निमित्त भी द्रव्य रूप से कर्ता है ही नहीं, पर्याय रूप से हो तो हो।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText">निमित्त किसी के परिणामों के | <li class="HindiText">निमित्त किसी के परिणामों के उत्पादक नहीं होते।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">स्वयं परिणमन वाले द्रव्य को निमित्त बेचारा क्या परिणमावे।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText">एक को दूसरे का कर्ता कहना उपचार या | <li class="HindiText">एक को दूसरे का कर्ता कहना उपचार या व्यवहार है परमार्थ नहीं <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText">एक को दूसरे का कर्ता कहना लोकप्रसिद्ध रूढि है।<br /> | <li class="HindiText">एक को दूसरे का कर्ता कहना लोकप्रसिद्ध रूढि है।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">वास्तव में एक को दूसरे का कर्ता कहना असत्य है।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText">एक को दूसरे का कर्ता मानने में अनेक दोष आते हैं।<br /> | <li class="HindiText">एक को दूसरे का कर्ता मानने में अनेक दोष आते हैं।<br /> | ||
Line 78: | Line 78: | ||
<li class="HindiText">एक को दूसरे का कर्ता माने सो अज्ञानी है।<br /> | <li class="HindiText">एक को दूसरे का कर्ता माने सो अज्ञानी है।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText">एक को दूसरे का कर्ता माने सो | <li class="HindiText">एक को दूसरे का कर्ता माने सो मिथ्यादृष्टि है। <br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText">एक को दूसरे का कर्ता माने सो | <li class="HindiText">एक को दूसरे का कर्ता माने सो अन्यमती है।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText">एक को दूसरे का कर्ता माने सो सर्वज्ञ के मत से बाहर है।<br /> | <li class="HindiText">एक को दूसरे का कर्ता माने सो सर्वज्ञ के मत से बाहर है।<br /> | ||
Line 86: | Line 86: | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong> | <li><span class="HindiText"><strong>निश्चय व्यवहार कर्ता कर्म भाव का समन्वय </strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">व्यवहार से ही निमित्त को कर्ता कहा जाता है निश्चय से नहीं।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">व्यवहार से ही कर्ता व कर्म भिन्न दिखते हैं, निश्चय से दोनों अभिन्न हैं।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">निश्चय से अपने परिणामों का कर्ता है पर निमित्त की अपेक्षा पर पदार्थों का भी कहा जाता है।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">भिन्न कर्ताकर्म भाव के निषेध का कारण।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">भिन्न कर्ताकर्म भाव के निषेध का प्रयोजन।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">भिन्न कर्ता कर्म व्यपदेश का कारण।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">भिन्न कर्ता कर्म व्यपदेश का प्रयोजन।<br /> | ||
</li> | </li> | ||
<li class="HindiText">कर्ता कर्म भाव निर्देश का नयार्थ व मतार्थ।<br /> | <li class="HindiText">कर्ता कर्म भाव निर्देश का नयार्थ व मतार्थ।<br /> | ||
Line 107: | Line 107: | ||
</ol> | </ol> | ||
<ul> | <ul> | ||
<li class="HindiText">जीव ज्ञान व कर्म चेतना के कारण ही अकर्ता या कर्ता होता है।- | <li class="HindiText">जीव ज्ञान व कर्म चेतना के कारण ही अकर्ता या कर्ता होता है।- देखें [[ चेतना#3 | चेतना - 3]]।</li> | ||
</ul> | </ul> | ||
</li> | </li> | ||
Line 113: | Line 113: | ||
<p> </p> | <p> </p> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> कर्ता व कर्म | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> कर्ता व कर्म सामान्य निर्देश</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> निश्चय कर्ता कारक निर्देश</strong></span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./86/क.51<span class="SanskritText"> य: परिणमति स कर्ता।</span>=<span class="HindiText">जो परिणमन करता है, वही अपने परिणमन का कर्ता होता है।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./184 <span class="SanskritText">स तं च–स्वतन्त्र: कुर्वाणस्तस्य कर्ताऽवश्यं स्यात्।</span>=<span class="HindiText">वह (आत्मा) उसको (स्व-भाव को) स्वतन्त्रतया करता हुआ उसका कर्ता अवश्य है।</span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./16<span class="SanskritText"> अभिन्नकारकचिदानन्दैकस्वभावेन स्वतन्त्रत्वात् कर्ता भवति।</span>=<span class="HindiText">अभिन्नकारक भाव को प्राप्त चिदानन्दरूप चैतन्य स्व-स्वभाव के द्वारा स्वतंत्र होने से अपने आनन्द का कर्ता होता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> निश्चय कर्मकारक निर्देश</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./6/1/318/4<span class="SanskritText"> कर्म क्रिया इत्यनर्थान्तरम्।</span>=<span class="HindiText">कर्म और क्रिया ये एकार्थवाची नाम हैं।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./6/1/4/504/16 <span class="SanskritText">कर्तु: क्रियया आप्तुमिष्टतमं कर्म।</span> =<span class="HindiText">कर्ता को क्रिया के द्वारा जो प्राप्त करने योग्य इष्ट होता है उसे कर्म कहते हैं।<br /> | ||
(स.सा./परि/शक्ति नं. | (स.सा./परि/शक्ति नं.41)।</span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./20/71/9 <span class="SanskritText">कर्तु: क्रियाया व्याप्यत्वेन विवक्षितमपि कर्म, यथा कर्मणि द्वितीयेति। तथा क्रिया वचनोऽपि अस्ति, किं कर्म करोषि। कां क्रियामित्यर्थ:। इह क्रियावाची गृहीत:।</span> =<span class="HindiText">कर्ता की होनेवाली क्रिया के द्वारा जो व्याप्त होता है, उसको कर्मकारक कहते हैं। कर्म की व्याकरण शास्त्र में द्वितीया (विभक्ति) होती है। जैसे ‘कर्मणि द्वितीया’ यह सूत्र है। कर्म शब्द का ‘क्रिया’ ऐसा भी अर्थ है। यहाँ कर्म शब्द क्रियावाची समझना।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./86/क. 51 <span class="SanskritText">य: परिणामी भवेत्तु तत्कर्म।</span>=<span class="HindiText">(परिणमित होने वाले कर्ता रूप द्रव्यका) जो परिणाम है सो उसका कर्म है।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./16 <span class="SanskritText">शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् कर्मत्वं कलयन्।</span> =<span class="HindiText">शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव के कारण स्वयं ही प्राप्य होने से (आत्मा) कर्मत्व का अनुभव करता है।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र. | प्र.सा./त.प्र. 117 <span class="SanskritText">क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात्कर्म।</span> =<span class="HindiText">क्रिया वास्तव में आत्मा के द्वारा प्राप्त होने से कर्म है। (प्र.सा./त.प्र./184)</span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./16 <span class="SanskritText">नित्यानन्दैकस्वभावेन स्वयं प्राप्यत्वात् कर्मकारकं भवति।</span>=<span class="HindiText">नित्यानन्दरूप एक स्वभाव के द्वारा स्वयं प्राप्य होने से (आत्मा ही) कर्म कारक होता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> क्रिया | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> क्रिया सामान्य निर्देश</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./6/1/318/4 <span class="SanskritText">कर्म क्रिया इत्यनर्थान्तरम्।</span>=<span class="HindiText">कर्म और क्रिया एकार्थवाची नाम हैं।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./86/क. 51 <span class="SanskritText">या परिणति: क्रिया।</span> =<span class="HindiText">(परिणमित होनेवाले कर्ता रूप द्रव्यकी) जो परिणति है सो उसकी क्रिया है।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./122 <span class="SanskritText">यश्च तस्य तथाविधपरिणाम: सा जीवमय्येव क्रिया सर्वद्रव्याणां परिणामलक्षणं क्रियाया आत्ममयत्वाभ्युपगमात्।</span>=<span class="HindiText">जो उस (आत्मा) का तथाविध परिणाम है वह जीवमयी ही क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्यों की परिणाम लक्षण क्रिया आत्ममयता से स्वीकार की गयी है।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./1962<span class="SanskritText"> क्रिया हि तावच्चेतनस्य पूर्वोत्तरदशाविशिष्टचैतन्यपरिणामात्मिका।</span> =<span class="HindiText">(आत्माकी) क्रिया चेतन की पूर्वोत्तर दशा से विशिष्ट चैतन्य परिणाम स्वरूप होती है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> कर्म कारक के | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> कर्म कारक के प्राप्य विकार्य आदि तीन भेदों का निर्देश</strong></span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./6/1/4/504/17 <span class="SanskritText">तत्त्रिविधं निर्वर्त्यं विकार्यं प्राप्यं चेति। तत् त्रितयमपि कर्तुरन्यत्।</span>=<span class="HindiText">यह कर्म कारक निर्वर्त्य, विकार्य और प्राप्य तीन प्रकार का होता है। ये तीनों कर्म कर्ता से भिन्न होते हैं।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./76<span class="SanskritText"> यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं पुद्गलपरिणामं कर्मपुद्गलद्रव्येण स्वयमन्तर्व्यापकेन भूत्वादिमध्यान्तेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं...।</span> =<span class="HindiText">प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा, व्याप्यलक्षणवाला पुद्गल का परिणाम स्वरूप कर्म (कर्ता का कार्य) उसमें पुद्गल द्रव्य स्वयं अन्तर्व्यापक होकर, आदि मध्य और अन्त में व्याप्त होकर उसे ग्रहण करता हुआ, उस रूप परिणमन करता हुआ, और उस रूप उत्पन्न होता हुआ, उस पुद्गल परिणाम को करता है। <strong>भावार्थ पं. जयचन्द्र―</strong>सामान्यतया कर्ता का कर्म तीन प्रकार का कहा गया है – निर्वर्त्य, विकार्य और प्राप्य। कर्ता के द्वारा जो पहिले न हो ऐसा नवीन कुछ उत्पन्न किया जाये सो कर्ता का निर्वर्त्य कर्म है (जैसे घट बनाना) कर्ता के द्वारा, पदार्थ में विकार (परिवर्तन) करके जो कुछ किया जाये वह कर्ता का विकार्य कार्य है (जैसे दूध से दही बनाना) कर्ता जो नया उत्पन्न नहीं करता, तथा विकार करके भी नहीं करता, मात्र जिसे प्राप्त करता है (अर्थात् स्वयं उसकी पर्याय) वह कर्ता का प्राप्य कर्म है।<br /> | ||
टिप्पणी–अन्य प्रकार से भी इन तीनों का अर्थ भासित होता है–द्रव्य की पर्याय दो प्रकार की होती है –स्वाभाविक व विभाविक। विभाविक भी दो प्रकार की होती है–प्रदेशात्म द्रव्यपर्याय तथा भावात्मक गुणपर्याय। स्वाभाविक एक ही प्रकार की होती है–षट्गुण हानिवृद्धिरूपा तहाँ प्रदेशात्म विभावद्रप्स पर्याय द्रव्य का निर्वर्त्य कर्म है, क्योंकि निर्वर्तना का व्यवहार पदार्थ के आकार व संस्थान आदि बनाने में होता है जैसे घट बनाना। विभाव गुण पर्याय द्रव्य का विकार्य कर्म है, क्योंकि अन्य द्रव्य के साथ संयोग होनेपर गुण जो अपने स्वभाव से च्युत हो जाते हैं उसे ही विकार कहा गया है –जैसे दूध से दही बनाना। और स्वभाव पर्याय को प्राप्य कर्म कहते हैं, क्योंकि प्रतिक्षण वे स्वत: द्रव्य को प्राप्त होती रहती हैं। न उनमें कुछ प्रदेशात्मक परिस्पन्दन की आवश्यकता होती है और न अन्य द्रव्यों के संयोग की अपेक्षा होती है।</span></li> | |||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> निश्चय व व्यवहार कर्ता कर्म भाव निर्देश</strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> निश्चय से कर्ता कर्म व अधिकरण में अभेद</strong></span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./85 <span class="SanskritText">इह खलु क्रिया हि तावदखिलापि परिणामलक्षणतया न परिणामतोऽस्ति भिन्ना, परिणामोऽपि परिणामपरिणामिनोरभिन्नवस्तुत्वात्परिणामिनो न भिन्नस्ततो या काचन क्रिया किल सकलापि सा क्रियावती न भिन्नेति।</span>=<span class="HindiText">जगत् में जो क्रिया है सो सब ही परिणामस्वरूप होने से वास्तव में परिणाम से भिन्न नहीं है। परिणाम भी परिणामी से भिन्न नहीं है, क्योंकि, परिणाम और परिणामी अभिन्न वस्तु हैं, इसलिए जो कुछ क्रिया है वह सब ही क्रियावान से भिन्न नहीं है।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./96 <span class="SanskritText">यथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा कार्तस्वरात् पृथगनुपलभ्यमानै: कर्तृकरणाधिकरणरूपेण पीततादिगुणानां कुण्डलादिपर्यायाणां च स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य यदस्तित्वं कार्तस्वरस्य स स्वभाव: तथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा द्रव्यात्पृथगनुपलभ्यमानै: कर्तृकरणाधिकरणरूपेण गुणानां पर्यायाणां च स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य...यदस्तित्वं द्रव्यस्य स स्वभाव:।</span>=<span class="HindiText">जैसे द्रव्य क्षेत्र काल या भाव से स्वर्ण से जो पृथक् दिखाई नहीं देते; कर्ता-करण अधिकरण रूप से पीतत्वादि गुणों के और कुण्डलादि पर्यायों के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान सुवर्ण का जो अस्तित्व है वह उसका स्वभाव है; इसी प्रकार द्रव्यसे, क्षेत्रसे, काल से या भाव से जो द्रव्य से पृथक् दिखाई नहीं देते, कर्ताकरण अधिकरण रूप से गुणों के और पर्यायों के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान जो द्रव्य का अस्तित्व है। वह स्वभाव है।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./113 <span class="SanskritText">तत: परिणामान्यत्वेन निश्चीयते पर्यायस्वरूपकर्तृकरणाधिकरणभूतत्वेन पर्यायेभ्योऽपृथग्भूतस्य द्रव्यस्यासदुत्पाद:।</span>=<span class="HindiText">इसलिए पर्यायों के (व्यतिरेकी रूप) अन्यता के द्वारा द्रव्य का – जो कि पर्यायों के स्वरूप का कर्ता, करण और अधिकरण होने से अपृथक् है, असत् उत्पाद निश्चित होता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> निश्चय से कर्ता कर्म व करण में अभेद</strong></span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./126<span class="PrakritGatha"> कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो। परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं।126।</span>=<span class="HindiText">यदि श्रमण ‘कर्ता, कर्म, करण और फल आत्मा है’ ऐसा निश्चय वाला होता हुआ, अन्य रूप परिणमित नहीं ही हो तो वह शुद्ध आत्मा को उपलब्ध करता है।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./15<span class="SanskritText"> समस्तज्ञेयान्तर्वर्तिज्ञानस्वभावमात्मानमात्मा शुद्धोपयोगप्रसादादेवासादयति।</span>=<span class="HindiText">समस्त ज्ञेयों के भीतर प्रवेश को प्राप्त ज्ञान जिसका स्वभाव है, ऐसे आत्मा को आत्मा शुद्धोपयोग के ही (आत्मा के ही) प्रसाद से प्राप्त करता है।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./30<span class="SanskritText"> संवेदनमप्यात्मनोऽभिन्नत्वात् कर्त्रंशेनात्मतामापन्नं करणांशेन ज्ञानतामापन्नेन करणभूतानामर्थानां कार्यभूतान् समस्तज्ञेयाकारानभिव्याप्य वर्तमानं कार्यकारणत्वेनोपचर्यं ज्ञानमर्थानभिभूय वर्तत इत्युच्यमानं न विप्रतिषिध्यते।</span>=<span class="HindiText">संवेदन (शुद्धोपयोग) भी आत्मा से अभिन्न होने से कर्ता अंश से आत्मता को प्राप्त होता हुआ ज्ञानरूप करण अंश के द्वारा कारणभूत पदार्थों के कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारों में व्याप्त हुआ वर्तता है, इसलिए कार्य में कारण का (ज्ञेयाकारों में पदार्थोंका) उपचार करके यह कहने में विरोध नहीं आता कि ज्ञान पदार्थों में व्याप्त होकर वर्तता है।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./294 <span class="SanskritText">आत्मबन्धयोर्द्विधाकरणे कार्ये कर्तुरात्मन: करणमीमांसायां निश्चयत: स्वतो भिन्नकरणासंभवात् भगवती प्रज्ञैव छेदनात्मकं करणं।</span>=<span class="HindiText">आत्मा और बन्ध के द्विधा करनेरूप कार्य में कर्ता जो आत्मा उसकी करण सम्बन्धी मीमांसा करनेपर, निश्चयत: अपने से भिन्न करण का अभाव होने से भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> निश्चय से कर्ता व करण में अभेद</strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/1/5/4/26 <span class="SanskritText">कर्तृकरणयोरन्यत्वादन्यत्वमात्मज्ञानादीनां परश्वादिवदिति चेत्; न; तत्परिणामादग्निवत्।</span><span class="HindiText">=<strong>प्रश्न</strong>–कर्ता व करण तो देवदत्त व परशु की भाँति अन्य होते हैं। इसी प्रकार आत्मा व ज्ञान आदि में अन्यत्व सिद्ध होता है। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, जैसे अग्नि से उसका परिणाम अभिन्न है उसी प्रकार आत्मा से उसका परिणाम जो ज्ञानादि वे भी अभिन्न हैं।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./35 <span class="SanskritText">अपृथग्भूतकर्तृकरणत्वशक्तिपारमैश्वर्ययोगित्वादात्मनो य एव स्वयमेव जानाति स एव ज्ञानमन्तर्लीनसाधकतयोष्णत्वशक्ते: स्वतन्त्रस्य जातवेदसो दहनक्रियाप्रसिद्धेरुष्णव्यपदेशवत्।</span> =<span class="HindiText">आत्मा अपृथग्भूत कर्तृत्व और करणत्व की शक्तिरूप पारमैश्वर्यवान है, इसलिए जो स्वयमेव जानता है (ज्ञायक है) वही ज्ञान है। जैसे –जिसमें साधकतम (करणरूप) उष्णत्व शक्ति अन्तर्लीन है ऐसी स्वतन्त्र अग्नि के दहनक्रिया की प्रसिद्धि होने से उष्णता कही जाती है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> निश्चय से वस्तु का परिणामी परिणाम सम्बन्ध ही उसका कर्ता कर्म भाव है</strong></span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./2/7/13/112/3 <span class="SanskritText">कर्तृत्वमपि साधारणं क्रियानिष्पत्तौ सर्वेषां स्वातन्त्र्यात्। ननु च जीवपुद्गलानां क्रियापरिणामयुक्तानां कर्तृत्वं युक्तम्, धर्मादीनां कथम्।तेषामपि अस्त्यादिक्रियाविषयमस्ति कर्तृत्वम्।</span>=<span class="HindiText">कर्तृत्व नाम का धर्म भी साधारण है क्योंकि क्रिया की निष्पत्ति में सभी द्रव्य स्वतन्त्र हैं। <strong>प्रश्न</strong>–क्रिया परिणाम युक्त होने के कारण जीव व पुद्गल में कर्तृत्व धर्म कहना युक्त है, परन्तु धर्मादि द्रव्यों में वह कैसे घटित होता है ? <strong>उत्तर</strong>–उनमें भी अस्ति आदि क्रियाओं का (अर्थात् षट्गुणहानि वृद्धिरूप उत्पाद व्यय का) अस्तित्व है ही।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./86/क. 51 <span class="SanskritGatha">य: परिणमति स कर्ता य: परिणामो भवेत्तु तत्कर्म। या परिणति: क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया।51।</span>=<span class="HindiText">जो परिणमित होता है सो कर्ता है, (परिणमित होने वाले का) जो परिणाम है सो कर्म है और जो परिणति है सो क्रिया है। ये तीनों वस्तुरूप से भिन्न नहीं हैं।</span><br /> | ||
स.सा./आ. | स.सा./आ. 311 <span class="SanskritText">सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामै: सह तादात्म्यात् कङ्कणादिपरिणामै: काञ्चनवत्।...सर्वद्रव्याणां द्रव्यान्तरेण सहोत्पाद्योत्पादकभावाभावात्-कर्तृकर्मणोरनन्यापेक्षसिद्धत्वात् जीवस्याजीवकर्तृत्वं न सिंध्यति।</span>=<span class="HindiText">जैसे सुवर्ण का कंकण आदि पर्यायों के साथ तादात्म्य है उसी प्रकार सर्व द्रव्यों का अपने परिणामों के साथ तादात्म्य है। क्योंकि सर्व द्रव्यों का अन्य द्रव्य के साथ उत्पाद्य-उत्पादक भाव का अभाव है, इसलिए कर्ता कर्म की अन्य निरपेक्षता सिद्ध होने से जीव के अजीव का कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता है।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./349-355 <span class="SanskritText">तत: परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चय:।</span>=<span class="HindiText">इसलिए परिणाम-परिणामीभाव से वही (एक ही द्रव्यमें) कर्ताकर्मपन का और भोक्तृभोग्यपन का निश्चय है। </span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./27/चूलिका/57।17 <span class="SanskritText">अशुद्धनिश्चयेन...शुभाशुभपरिणामानां परिणमनमेव कर्तृत्वं सर्वत्र ज्ञातव्यमिति। पुद्गलादीनां पञ्चद्रव्याणां च स्वकीयस्वकीयपरिणामेन परिणमनमेव कर्तृत्वं। वस्तुवृत्त्या पुन: पुण्यपापादिरूपेणाकर्तृत्वमेव।</span>=<span class="HindiText">अशुद्ध निश्चय नय से शुभाशुभ परिणामों का परिणमन ही कर्तापना है। सर्वत्र ऐसा ही जानना चाहिए। पुद्गलादि पाँच द्रव्यों के भी अपने-अपने परिणामों के द्वारा परिणमन करना ही कर्तृत्व है। वस्तुवृत्ति से अर्थात् शुद्ध निश्चय नय से तो पुण्यपाप का अकर्तापना ही है। (द्र.सं./अधिकार 2 की चूलिका/78/9)।</span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./152 <span class="SanskritGatha">तद्यथा नव तत्त्वानि केवलं जीवपुद्गलौ। स्वद्रव्याद्यैरनन्यत्वाद्वस्तुत: कर्तृकर्मणो:।152।</span>=<span class="HindiText">ये नव तत्त्व केवल जीव व पुद्गल रूप हैं, क्योंकि वास्तव में अपने द्रव्य क्षेत्रादि के द्वारा कर्ता तथा कर्म में अनन्यत्व होता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> एक ही | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> एक ही वस्तु में कर्ता व कर्म दोनों बातें कैसे हो सकती है </strong>? </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/1/6/2 <span class="SanskritText">नन्वेवं स एव कर्ता स एव करणमित्यायातम्। तच्च विरुद्धम्। सत्यं स्वपरिणामपरिणामिनोर्भेदविवक्षायां तथाभिधानात्। यथाग्निर्दहतीन्धनं दाहपरिणामेन।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–दर्शन आदि शब्दों की इसप्रकार व्युत्पत्ति करनेपर कर्त्ता और करण एक हो जाता है। किन्तु यह बात विरुद्ध है ?= <strong>उत्तर</strong>–यद्यपि यह कहना सही है, तथापि स्वपरिणाम और परिणामी में भेद की विवक्षा होनेपर उक्त प्रकार से कथन किया गया है। जैसे ‘अग्नि दाह परिणाम के द्वारा ईंधन को जलाती है’। यह कथन भेद-विवक्षा के होने पर बनता है।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/29/2/88/30<span class="SanskritText"> द्रव्यस्य पर्यायाणां च कथंचिद्भेदे सति उक्त: कर्तृकर्मव्यपदेश: सिद्ध्यति।</span>=<span class="HindiText">एक ही द्रव्य स्वयं कर्ता भी होता है और कर्म भी, क्योंकि उसका अपनी पर्यायों के साथ कथंचित् भेद है।</span><br /> | ||
श्लो.वा. 2/1/6/28-29/378/3 <span class="SanskritText">ननु यदेवार्थस्य ज्ञानक्रियायां ज्ञानं करणं सैव ज्ञानक्रिया, तत्र कथं क्रियाकरणव्यवहार: प्रातीतिक: स्याद्विरोधादिति चेन्न, कथंचिद्भेदात्। प्रमातुरात्मनो हि वस्तुपरिच्छित्तौ साधकतमत्वेन व्यापृतं रूपं करणम्, निर्व्यापारं तु क्रियोच्यते, स्वातन्त्र्येण पुनर्व्याप्रियमाण: कर्तात्मेति निर्णीतप्रायम्। तेन ज्ञानात्मक एवात्मा ज्ञानात्मनार्थं जानातीति कर्तृकरणक्रियाविकल्प: प्रतीतिसिद्ध एव। तद्वत्तत्र कर्मव्यवहारोऽपि ज्ञानात्मात्मानमात्मना जानीतीति घटते। सर्वथा कर्तृकरणकर्मक्रियानामभेदानभ्युपगमात्, तासां कर्तृत्वादिशक्तिनिमित्तत्वात् कथंचिद्भेदसिद्धे:।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जो ही अर्थ की ज्ञान क्रिया करने में करण है वही तो ज्ञान क्रिया है। फिर उसमें क्रियापने और करणपने का व्यवहार कैसे प्रतीत हो सकता है। इसमें तो विरोध दीख रहा है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, इन दोनों में कथंचित् भेद है। प्रमिति को करनेवाले आत्मा के वस्तु की ज्ञप्ति करने में साधकतमरूप से व्यापृत को करणज्ञान कहते हैं।और व्यापार रहित शुद्ध ज्ञानरूप धात्वर्थ को ज्ञप्ति क्रिया कहते हैं। स्वतन्त्रता से व्यापार करने में लगा हुआ आत्मा कर्ता है। इस प्रकार ज्ञानात्मक ही आत्मा अपने ज्ञानस्वभाव करके अर्थ को ज्ञानस्वरूपपने जानता है। इस प्रकार कर्ता कर्म और क्रिया के आकारों का विकल्प करना प्रतीतियों से सिद्ध ही है। तिनही के समान उस ज्ञान में कर्मपने का व्यवहार भी प्रतीतिसिद्ध समझ लेना चाहिए। सर्वथा कर्ता करण कर्म और क्रियापन का अभेद हम स्वीकार नहीं करते हैं, क्योंकि उनका न्यारी-न्यारी कर्तृत्वादि शक्तियों के निमित्त से किसी अपेक्षा भेद भी सिद्ध हो रहा है।</span><br /> | |||
ध. | ध.13/6,3,9/1<span class="PrakritText"> कधमेक्कम्हि कम्म-कत्तारभावो जुज्जदे। ण सुज्जेदुखज्जोअ-जलण-मणि-णक्खतादिसु उभयभाबुवलंभादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–एक ही स्पर्श शब्द में कर्मत्व व कर्तृत्व दोनों कैसे बन सकते हैं ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, लोक में सूर्य, चन्द्र, खद्योत, अग्नि, मणि और नक्षत्र आदि ऐसे अनेक पदार्थ हैं जिनमें उभय भाव देखा है। उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> व्यवहार से भिन्न वस्तुओं में भी कर्ता कर्म व्यपदेश किया जाता है</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./98 <span class="PrakritGatha">ववहारेण दु आदा करेदि घडपडरथाणि दव्वाणि। करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीहि विविहाणि।98।</span>=<span class="HindiText">व्यवहार से अर्थात् लोक में आत्मा घट, पट, रथ इत्यादि वस्तुओं को, इन्द्रियों को, अनेक प्रकार के क्रोधादि द्रव्य कर्मों को और शरीरादि नोकर्मों को करता है। (द्र.सं./मू./8)।</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./124-125 <span class="PrakritGatha">देहजुदो सो भुत्ता भुत्ता सो चेव होइ इह कत्ता। कत्ता पुण कम्मजुदो जीओ संसारिओ भणिओ।124। कम्मं दुविहवियप्पं भावसहावं च दव्वसब्भावं। भावे सो णिच्छयदो कत्ता ववहारदो दव्वे।125। </span>=<span class="HindiText">देहधारी जीव भोक्ता होता है और जो भोक्ता होता है वही कर्ता भी होता है। जो कर्ता होता है वह कर्म संयुक्त होता है। ऐसे जीव को संसारी कहा जाता है।124। वह कर्म दो प्रकार का है – भाव-कर्म और द्रव्यकर्म। निश्चय से वह भावकर्म का कर्ता है और व्यवहार से द्रव्यकर्मका/125/(द्र.सं./मू./8) (और भी देखो कारण/III/5)।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./30 <span class="SanskritText">संवेदनमपि...कारणभूतानामर्थानां कार्यभूतान् समस्तज्ञेयाकारानभिव्याप्य वर्तमानं कार्यकारणत्वेनोपचर्य ज्ञानमर्थानभिभूय वर्तत इत्युच्यमानं न विप्रतिषिध्यते।</span>=<span class="HindiText">संवेदन (ज्ञान) भी कारणभूत पदार्थों के कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारों में व्याप्त हुआ वर्तता है, इसलिए कार्य में कारण का उपचार करके यह कहने में विरोध नहीं आता कि ज्ञान पदार्थों में व्याप्त होकर वर्तता है।</span><br /> | ||
पं.का./त.प्र./ | पं.का./त.प्र./27/58<span class="SanskritText"> व्यवहारेणात्मपरिणामनिमित्तपौद्गलिककर्मणां कर्तृत्वात्कर्ता।</span>=<span class="HindiText">व्यवहार से जीव आत्मपरिणामों के निमित्त से होनेवाले कर्मों को करने से कर्ता है।</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> निश्चय व्यवहार कर्ता कर्म भाव की कथंचित् सत्यार्थता असत्यार्थता</strong><br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> वास्तव में व्याप्यव्यापकरूप ही कर्ता कर्म भाव अध्यात्म में इष्ट है</strong></span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./75/क79 <span class="SanskritText">व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृकर्मस्थिति:।</span>=<span class="HindiText">व्याप्यव्यापकभाव के अभाव में कर्ता कर्म की स्थिति कैसी ?</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./185 <span class="SanskritText">यो हि यस्य परिणामयिता दृष्ट: स न तदुपादानहानशून्यो दृष्ट:, यथाग्निरय:पिण्डस्य।</span>=<span class="HindiText">जो जिसका परिणमन करनेवाला देखा जाता है, वह उसके ग्रहण त्याग से रहित नहीं देखा जाता है। जैसे–अग्नि लोहे के गोले में ग्रहण त्याग रहित होती है। (और भी देखें [[ कर्ता#2.4 | कर्ता - 2.4]])</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> निश्चय से प्रत्येक पदार्थ अपने ही परिणाम का कर्ता है दूसरे का नहीं―</strong></span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./184 <span class="PrakritGatha">कुव्वं सभावमादा हवदि कित्ता सगस्स भावस्स। पोग्गलदव्वमयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाण।184।</span>=<span class="HindiText">अपने भाव को करता हुआ आत्मा वास्तव में अपने भाव का कर्ता है, परन्तु पुद्गलद्रव्यमय सर्व भावों का कर्ता नहीं है।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./122 <span class="SanskritText">ततस्तस्य परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्म ण एव कर्ता, न तु पुद्गलपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण:।...परमार्थात् पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण एव कर्ता न तु आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण:।</span>=<span class="HindiText">इसलिए (अर्थात् अपने परिणामोंरूप कर्म से अभिन्न होने के कारण) आत्मा परमार्थत: अपने परिणामस्वरूप भावकर्म का ही कर्ता है, किन्तु पुद्गलपरिणामात्मक द्रव्य कर्म का नहीं। इसी प्रकार परमार्थ से पुद्गल अपने परिणामस्वरूप द्रव्यकर्म का ही कर्ता है किन्तु आत्मा के परिणामस्वरूप भावकर्म का नहीं।</span><br /> | ||
स./सा./आ./ | स./सा./आ./86 <span class="SanskritText">यथा किल कुलाल: कलशसंभवानुकूलमात्मव्यापारपरिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्तम्...क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभाति, न पुन: कलशकरणाहंकारनिर्भरोऽपि...कलश-परिणामं मृत्तिकाया: अव्यतिरिक्तं...क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभाति; तथात्मापि पुद्गलकर्मपरिणामानुकूलमज्ञानादात्मपरिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्तम्...क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभातु, मा पुन: पुद्गलपरिणामकरणाहंकारनिर्भरोऽपि स्वपरिणामानुरूपं पुद्गलस्य परिणामं पुद्गलादव्यतिरिक्तं क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभातु।</span>=<span class="HindiText">जैसे कुम्हार घड़े की उत्पत्ति में अनुकूल अपने व्यापार परिणाम को जो कि अपने से अभिन्न है, करता हुआ प्रतिभासित होता है, परन्तु घड़ा बनाने के अहंकार से भरा हुआ होने पर भी अपने व्यापार के अनुरूप मिट्टी से अभिन्न मिट्टी के घट परिणाम को करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता; उसी प्रकार आत्मा भी अज्ञान के कारण पुद्गल कर्मरूप परिणाम के अनुकूल, अपने से अभिन्न, अपने परिणाम को करता हुआ प्रतिभासित हो, परन्तु पुद्गल के परिणाम को करने के अहंकार से भरा हुआ होते हुए भी, अपने परिणाम के अनुरूप पुद्गल के परिणाम को जो कि पुद्गल से अभिन्न है, करता हुआ प्रतिभासित न हो। (स.सा./आ./82)</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./86/क 53-54 <span class="SanskritGatha">नोभौ परिणामत: खलु परिणामो नोभयो: प्रजायेत। उभयोर्न परिणति: स्याद्यदनेकमनेकमेव सदा।53। नैकस्य हि कर्तारौ द्वौ स्तो द्वे कर्मणी न चैकस्य। नैकस्य च क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात्।54।</span>=<span class="HindiText">जो दो वस्तुएँ हैं वे सर्वथा भिन्न ही हैं, प्रदेश भेद वाली ही हैं; दोनों एक होकर परिणमित नहीं होतीं, एक परिणाम को उत्पन्न नहीं करतीं और उनकी एक क्रिया नहीं होती, ऐसा नियम है। यदि दो द्रव्य एक होकर परिणमित हों तो सर्व द्रव्यों का लोप हो जाये।53। एक द्रव्य के दो कर्ता नहीं होते और एक द्रव्य के दो कर्म नहीं होते, तथा एक द्रव्य की दो क्रियाएँ नहीं होतीं, क्योंकि एक द्रव्य अनेक द्रव्यरूप नहीं होता।54।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> एक | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> एक द्रव्य दूसरे के परिणामों का कर्ता नहीं हो सकता </strong></span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./103 <span class="PrakritGatha">जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दव्वे। सो अण्णमसंकंतो कह तं परिणामए दव्वं।103।</span>=<span class="HindiText">जो वस्तु जिस द्रव्य में और गुण में वर्तती है वह अन्य द्रव्य में तथा गुण में संक्रमण को प्राप्त नहीं होती (बदलकर उसमें नहीं मिल जाती)। और अन्य रूप से संक्रमण को प्राप्त न होती हुई वह अन्य वस्तु को कैसे परिणमन करा सकती है।103। (स.सा./आ/104)</span><br /> | ||
क.पा./ | क.पा./1/283/318/4 <span class="PrakritText">तिण्हं सद्दणयाणं...ण कारणस्स होदि; सगसरूवादो उप्पण्णस्स अण्णेहिंतो उप्पत्तिविरोहादो।</span>=<span class="HindiText">तीनों शब्द नयों की अपेक्षा कषायरूप कार्य कारण का नहीं होता, अर्थात् कार्यरूप भाव-कषाय के स्वामी उसके कारण जीवद्रव्य और कर्मद्रव्य कहे जा सकते हैं, सो भी बात नहीं है, क्योंकि कोई भी कार्य अपने स्वरूप से उत्पन्न होता है। इसलिए उसकी अन्य से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। </span><br /> | ||
यो.सा./अ./ | यो.सा./अ./2/18 <span class="SanskritText">पदार्थानां निमग्नानां स्वरूपं परमार्थत:। करोति कोऽपि, कस्यापि न किंचन कदाचन।18।</span><br /> | ||
यो.सा./अ./ | यो.सा./अ./3/16 <span class="SanskritGatha">नान्यद्रव्यपरिणाममन्यद्रव्यं प्रपद्यते। स्वान्यद्रव्यव्यवस्थेयं परस्य घटते कथम्।16।</span>=<span class="HindiText">संसार में समस्त पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में मग्न हैं। निश्चयनय से कोई भी कभी कुछ भी उनके स्वरूप को नवीन नहीं बना सकता।18। जो परिणाम एक द्रव्य का है वह दूसरे द्रव्य का परिणाम नहीं हो सकता। अन्यथा संकर दोष आ जाने से निजद्रव्य और अन्य द्रव्य की व्यवस्था ही न बन सकेगी।16।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./104 <span class="SanskritText">यथा...कलशकार:, द्रव्यान्तरसंक्रममन्तरेणान्यस्य वस्तुन: परिणमयितुमशक्यत्वात् तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानो न तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभाति तथा पुद्गलमयज्ञानावरणादौ कर्मणि...वात्मा न खल्वाधत्ते-द्रव्यान्तरसंक्रममन्तरेणान्यस्य वस्तुन: परिणमयितुमशक्यत्वादुभयं तु तस्मिन्ननादधान: कथं नु तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभायात्। तत: स्थितं खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता।</span>=<span class="HindiText">जैसे कुम्हार द्रव्यान्तर रूप में संक्रमण प्राप्त किये बिना अन्य वस्तु को परिणमन करना अशक्य होने से अपने द्रव्य और गुण दोनों को उस घटरूपी कर्म में न डालता हुआ परमार्थ से उसका कर्ता प्रतिभासित नहीं होता। इसीप्रकार पुद्गलमयी ज्ञानावरणादि कर्मोंका, द्रव्यान्तररूप में संक्रमण किये बिना अन्य वस्तु को परिणमित करना अशक्य होने से अपने द्रव्य और गुण दोनों को उन ज्ञानावरणादि कर्मों में न डालता हुआ वह आत्मा परमार्थ से उसका कर्ता कैसे हो सकता है ? इसलिए आत्मा पुद्गल कर्मों का अकर्ता सिद्ध हुआ (स.सा./आ./75, 83 )</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./372<span class="SanskritText"> एवं च सति मृत्तिकाया,स्वस्वभावानतिक्रमान्न कुम्भकार: कुम्भस्योत्पादक एव; मृत्तिकैव कुम्भकारस्वभावमस्पृशन्ती स्वस्वभावेन कुम्भभावेनोत्पद्यते।..एवं च सति सर्वद्रव्याणां न निमित्तभूतद्रव्यान्तराणि स्वपरिणामस्योत्पादकान्येव; सर्वद्रव्याण्येव निमित्तभूतद्रव्यान्तरस्वभावमस्पृशन्ति स्वस्वभावेन स्वपरिणामभावेनोत्पद्यन्ते। अतो न परद्रव्यं जीवस्य रागादीनामुत्पादकमुत्पश्यामो यस्मै कुप्याम:।</span> =<span class="HindiText">मिट्टी अपने स्वभाव को उल्लंघन नहीं करती इसलिए कुम्हार घड़े का उत्पादक है ही नहीं; मिट्टी ही कुम्हार के स्वभाव को स्पर्श न करती हुई अपने स्वभाव से कुम्भभाव से उत्पन्न हुई। इसीप्रकार सर्वद्रव्यों के निमित्तभूत अन्यद्रव्य अपने परिणामों के (अर्थात् उन सर्व द्रव्यों के परिणामोंके) उत्पादक हैं ही नहीं; सर्वद्रव्य ही निमित्तभूत अन्यद्रव्य के स्वभाव को स्पर्श न करते हुए अपने स्वभाव से अपने परिणामभाव से उत्पन्न होते हैं। इसलिए हम जीव के रागादि का उत्पादक परद्रव्य को नहीं देखते, कि जिस पर कोप करें।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./262<span class="SanskritText"> य एव हिनस्मीत्यहकाररसनिर्भरो हिंसायामध्यवसाय: स एव निश्चयतस्तस्य बन्धहेतु:, निश्चयेन परभावस्य प्राणव्यपरोपस्य परेण कर्तुमशक्यत्वात्।</span>=<span class="HindiText"> ‘मैं मारता हूँ’ ऐसा अहंकार रस से भरा हुआ हिंसा का अध्यवसाय ही निश्चय से उसके बन्ध का कारण है, क्योंकि निश्चय से पर का भाव जो प्राणों का व्यपरोप वह दूसरे से किया जाना अशक्य है।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./355/क 213<span class="SanskritText"> वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो, येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत्। निश्चयोऽयमपरो परस्य क:, किं करोति हि बहिर्लुठन्नपि।213।</span>=<span class="HindiText">इस लोक में एक वस्तु अन्य वस्तु की नहीं है, इसलिए वास्तव में वस्तु वस्तु ही है – यह निश्चय है। ऐसा होने से कोईअन्य वस्तु अन्य वस्तु के बाहर लोटती हुई भी उसका क्या कर सकती है।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./78-79 <span class="SanskritText">प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य सुखदु:खादिरूपं पुद्गलकर्मफलं जानतोऽपि ज्ञानिन: पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभाव:।78।...जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाजानत: पुद्गलद्रव्यस्य जीवेन सह न कर्तृकर्मभाव:।79।</span>=<span class="HindiText">प्राप्य विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्य लक्षणवाला परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करनेवाले उस ज्ञानीका, पुद्गलकर्म के फल को जानते हुए भी कर्ताकर्मभाव नहीं है।78। (और इसीप्रकार) अपने परिणामको, जीव के परिणाम को तथा अपने परिणाम के फल को नहीं जानते हुए भी पुद्गल द्रव्य का जीव के साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है।79।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./323/क 200 <span class="SanskritGatha">नास्ति सर्वोऽपि संबन्ध: परद्रव्यात्मतत्त्वयो:। कर्तृकर्मत्वसंबन्धाभावे तत्कर्तृता कुत:।200।</span>=<span class="HindiText">परद्रव्य और आत्मद्रव्य का (कोई भी) सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार कर्तृकर्मत्व के सम्बन्ध का अभाव होने से आत्मा के परद्रव्य का कर्तृत्व कहाँ से हो सकता है ?</span><br /> | ||
पं./का./त.प्र./ | पं./का./त.प्र./62 <span class="SanskritText">कर्म खलु...स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानं न कारकान्तरमपेक्षते। एवं जीवोऽपि...स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकान्तरमपेक्षते। अत: कर्मण: कर्तुर्नास्ति जीव: कर्ता, जीवस्य कर्तुर्नास्ति कर्मकर्तृनिश्चयेनेति।</span>=<span class="HindiText">कर्म वास्तव में षट्कारकी रूप से वर्तता हुआ अन्य कारक की अपेक्षा नहीं रखता। उसी प्रकार जीव भी स्वयमेव षट्कारक रूप से वर्तता हुआ अन्य कारक की अपेक्षा नहीं रखता। इसलिए निश्चय से कर्मरूप कर्ता को जीवकर्ता नहीं है और जीवरूप कर्ता को कर्मकर्ता नहीं है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> एक | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> एक द्रव्य दूसरे को निमित्त हो सकता है पर कर्ता नहीं</strong> </span><br /> | ||
पं.का./मू./ | पं.का./मू./60 <span class="PrakritGatha">भावो कम्मणिमित्तो कम्मं पुण भवकारणं भवदि। ण दु तेसिं खलु कत्ताण विणा भूदा दु कत्तारं।60। </span>=<span class="HindiText">जीवभाव का कर्म निमित्त है और कर्म का जीव भाव निमित्त है। परन्तु वास्तव में एक दूसरे के कर्ता नहीं हैं। कर्ता के बिना होते हों ऐसा भी नहीं है। (क्योंकि आत्मा स्वयं अपने भाव का कर्ता है और पुद्गल कर्म स्वयं अपने भाव का 61-62)।</span><br /> | ||
गो.जी./मू./ | गो.जी./मू./570/1015/1 <span class="PrakritGatha">ण य परिणमदि सयं सो ण या परिणामेइ अण्णमण्णेहिं। विविहपरिणामियाणं हवदि हु कालो सयं हेदू।570।</span>=<span class="HindiText">काल द्रव्य स्वयं अन्य द्रव्य रूप परिणमन करता नहीं, न ही अन्य द्रव्य को अपने रूप परिणमाता है। नाना प्रकार परिणामों रूप से द्रव्य जब स्वयं परिणमन करते हैं, तिनकौ हेतु होता है अर्थात् उदासीनरूप से निमित्त मात्र होता है।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./82 <span class="SanskritText">जीवपुद्गलयो: परस्पर व्याप्यव्यापकभावाभावाज्जीवस्य पुद्गलपरिणामानां पुद्गलकर्मणापि जीवपरिणामानां कर्तृकर्मत्वासिद्धौ निमित्तनैमित्तिकभावमात्रस्याप्रतिषिद्धत्वादितरेतरनिमित्तमात्रीभावेनैव द्वयोरपि परिणाम:।</span>=<span class="HindiText">जीव और पुद्गल में परस्पर व्याप्यव्यापकभाव का अभाव होने से जीव को पुद्गल परिणामों के साथ और पुद्गल कर्म को जीव परिणामों के साथ, कर्ताकर्मपने की असिद्धि होनेसे, मात्र निमित्तनैमित्तिकभाव का निषेध न होनेसे, परस्पर निमित्तमात्र होने से ही दोनों के परिणाम (होता है)।</span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./576 <span class="SanskritText">इदमत्र समाधानं कर्ता य: कोऽपि स: स्वभावस्य। परभावस्य न कर्ता भोक्ता वा तन्निमित्तमात्रेऽपि।</span>=<span class="HindiText">जो कोई भी कर्ता है वह अपने स्वभाव का ही कर्ता है किन्तु परभाव में निमित्त होने पर भी, परभाव का न कर्ता है और न भोक्ता।</span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./1072-1073 <span class="SanskritGatha">अन्तर्दृष्ट्या कषायाणां कर्मणां च परस्परम्। निमित्तनैमित्तिको भाव: स्यान्न स्याज्जीवकर्मणो:।1072। यतस्तत्र स्वयं जीवे निमित्ते सति कर्मणाम्। नित्या स्यात्कर्तृंता चेति न्यायान्मोक्षो न कस्यचित्।1073।</span>=<span class="HindiText">अन्तर्दृष्टि से कषायों का और कर्मों का परस्पर में निमित्तनैमित्तिकभाव है किन्तु जीव (द्रव्य) तथा कर्म का नहीं है।1072। क्योंकि उनमें से जीव को कर्मों का निमित्त मानने पर जीव में सदैव ही कर्तृत्व का प्रसंग आवेगा और फिर ऐसा होने पर कभी भी किसी जीव को मोक्ष नहीं होगा।1073।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.5" id="3.5"><strong>निमित्त भी | <li><span class="HindiText" name="3.5" id="3.5"><strong>निमित्त भी द्रव्यरूप से तो कर्ता है ही नहीं पर्याय रूप से हो तो हो</strong></span><br /> | ||
स. सा./आ./ | स. सा./आ./100 <span class="SanskritText">यत्किल घटादि क्रोधादि वा परद्रव्यात्मकं कर्म तदयमात्मा तन्मयत्वानुषङ्गाद् व्याप्यव्यापकभावेन तावन्न करोति, नित्यकर्तृत्वानुषङ्गान्निमित्तनैमित्तिकभावेनापि न तत्कुर्यात्। अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारौ। </span>= <span class="HindiText">वास्तव में जो घटादिक तथा क्रोधादिक परद्रव्य स्वरूप कर्म हैं उन्हें आत्मा (द्रव्य) व्याप्यव्यापकभाव से नहीं करता, क्योंकि यदि ऐसा करे तो तन्मयता का प्रसंग आ जावे, तथा वह निमित्त नैमित्तिक भाव से भी (उनको) नहीं करता; क्योंकि, यदि ऐसा करे तो नित्यकर्तृत्व (सर्व अवस्थाओं में कर्तृत्व होने का) प्रसंग आ जायेगा। अनित्य (जो सर्व अवस्थाओं में व्याप्त नहीं होते ऐसे) योग और उपयोग ही निमित्त रूप से उसके (परद्रव्यस्वरूप कर्म के) कर्ता हैं। (पं.ध./उ./1073)</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./162 <span class="SanskritText">न चापि तस्य कारणद्वारेण कर्तृद्वारेण कर्तृप्रयोजकद्वारेण कर्त्रनुमन्तृद्वारेण वा शरीरस्य कर्ताहमस्मि, मम...अनेकपरमाणुपिण्डपरिणामात्मकशरीरकर्तृत्वस्य सर्वथा विरोधात्। </span>= <span class="HindiText">उस शरीर के कारण द्वारा या कर्ता के प्रयोजक द्वारा या कर्ता के अनुमोदक द्वारा शरीर का कर्ता मैं नहीं हूँ। क्योंकि मेरे अनेक परमाणु द्रव्यों के एक पिण्ड पर्यायरूप परिणामात्मक शरीर का कर्ता होने में सर्वथा विरोध है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.6" id="3.6"><strong>निमित्त किसी के परिणामों के उत्पादक नहीं हैं</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.6" id="3.6"><strong>निमित्त किसी के परिणामों के उत्पादक नहीं हैं</strong></span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/2/11/20/5 <span class="SanskritText">स्यादेतत्-स्वपरनिमित्त उत्पादो दृष्टो...; तन्न; किं कारणम्। उपकरणमात्रत्वात्। उपकरणमात्रं हि बाह्यसाधनम्।</span> =<span class="HindiText">प्रश्न—उत्पत्ति स्व व पर निमित्तों से होती देखी जाती है, जैसे कि मिट्टी व दण्डादि से घड़े की उत्पत्ति। उत्तर—नहीं, क्योंकि निमित्त तो उपकरण मात्र होते हैं अर्थात् केवल बाह्य साधन होते हैं। (अत: सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में आत्मपरिणमन ही मुख्य है निमित्त नहीं) </span>स.सा./आ./372 <span class="SanskritText">एवं च सति सर्वद्रव्याणां न निमित्तभूतद्रव्यान्तराणि स्वपरिणामस्योत्पादकान्येव।</span> =<span class="HindiText">ऐसा होने पर, सब द्रव्यों के, निमित्तभूत अन्यद्रव्य अपने (अर्थात् उन सर्वद्रव्यों के) परिणामों के उत्पादक हैं ही नहीं।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./185 <span class="SanskritText">यो हि यस्य परिणमयिता दृष्ट: स न तदुत्पादहानशून्यो दृष्ट, यथाग्निरय:पिण्डस्य।... ततो न स पुद्गलानां कर्मभावेन परिणमयिता स्यात्।</span>= <span class="HindiText">जो जिसका परिणमन करानेवाला देखा जाता है वह उसके ग्रहण त्याग से रहित नहीं देखा जाता; जैसे अग्नि लोहे के गोले में ग्रहण त्याग से रहित है। इसलिए वह (आत्मा) पुद्गलों का कर्मभाव से परिणमित करने वाला नहीं है।</span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./354=355 <span class="SanskritGatha">अर्था: स्पर्शादय: स्वैरं ज्ञानमुत्पादयन्ति चेत्। घटादौ ज्ञानशून्ये च तत्किं नोत्पादयन्ति ते।354। अथ चेच्चेतने द्रव्ये ज्ञानस्योत्पादका: क्वचित्। चेतनत्वात्स्वयं तस्य किं तत्रोत्पादयन्ति वा।355।</span>=<span class="HindiText"> यदि स्पर्शादिक विषय स्वतन्त्र बिना आत्मा के ज्ञान उत्पन्न करते होते तो वे ज्ञानशून्य घटादिकों में भी वह ज्ञान क्यों उत्पन्न नहीं करते हैं।354। और यदि यह कहा जाय कि चेतन द्रव्य में कहीं पर ये ज्ञान को उत्पन्न करते हैं, तो उस आत्मा के स्वयं चेतन होने के कारण, वहाँ वे नवीन क्या उत्पन्न करेंगे।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7"> स्वयं परिणमनेवाले द्रव्य को निमित्त बेचारा क्या परिणमावे</strong> </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./116 <span class="SanskritText">किं स्वयमपरिणममानं परिणममानं वा जीव: पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयेत्। न तावत्तत्स्वयमपरिणममानं परेण परिणमयितं पार्येत्; न हि स्वतोऽसती शक्ति: कर्तुमन्येन पार्यते। स्वयं परिणममानं तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत; न हि वस्तुशक्तय: परमपेक्षन्ते। तत: पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभावं स्वयमेवास्तु।</span>=<span class="HindiText">क्या जीव स्वयं न परिणमते हुए पुद्गलद्रव्य को कर्मभावरूप से परिणमाता है या स्वयं परिणमते हुए को ? स्वयं अपरिणमते हुए को दूसरे के द्वारा नहीं परिणमाया जा सकता, क्योंकि जो शक्ति (वस्तु में) स्वयं न हो उसे अन्य कोई नहीं उत्पन्न कर सकता। और स्वयं परिणमते हुए को अन्य परिणमानेवाले की अपेक्षा नहीं होती, क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं रखतीं। अत: पुद्गल द्रव्य परिणमनस्वभाववाला स्वयं हो। (पं.ध./उ./62) (ध.1/1.1,1,163/404/1) (स्या.म./5/30/11) </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./67 <span class="SanskritText">एवमस्यात्मन: संसारे मुक्तौ वा स्वयमेव सुखतया परिणममानस्य सुखसाधनधिया अबुधैर्मुधाध्यास्यमाना अपि विषया: किं हि नाम कुर्यु:। </span>=<span class="HindiText">यद्यपि अज्ञानी जन ‘विषय सुख के साधन हैं’ ऐसी बुद्धि के द्वारा व्यर्थ ही विषयों का अध्यास आश्रय करते हैं, तथापि संसार में या मुक्ति में स्वयमेव सुखरूप परिणमित इस आत्मा का विषय क्या कर सकते हैं। (पं.ध./उ./353)</span><br /> | ||
पं.का./त.प्र./ | पं.का./त.प्र./62<span class="SanskritText"> स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकान्तरमपेक्षन्ते।</span>=<span class="HindiText">स्वयमेव षट्कारकोरूप से वर्तता हुआ। (पुद्गल या जीव) अन्य कारक की अपेक्षा नहीं रखता।</span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./571 <span class="SanskritText">अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनैमित्तिकत्वमस्ति मिथ:। न यत: स्वतो स्वयं वा परिणममानस्य किं निमित्ततया।</span>=<span class="HindiText">यदि कदाचित् यह कहा जाये कि इन दोनों (आत्मा व शरीर में) परस्पर निमित्तनैमित्तिकपना अवश्य है तो इस प्रकार का कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि स्वयं अथवा स्वत: परिणममान वस्तु के निमित्तकारण से क्या प्रयोजन है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.8" id="3.8"> एक को दूसरे का कर्ता कहना | <li><span class="HindiText"><strong name="3.8" id="3.8"> एक को दूसरे का कर्ता कहना व्यवहार व उपचार है परमार्थ नहीं</strong></span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./105-107 <span class="SanskritGatha">जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणामं। जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमत्तेण।105। जोधेहिं कधे जुद्धे राएण कदंति जंपदे लोगो। ववहारेण तह कदं णाणावरणादि जीवेण।106। उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गिण्हदि य। आदा पुग्गलदव्वं ववहारणयस्स वत्तव्वं।107।</span>=<span class="HindiText">जीव निमित्तभूत होने पर कर्मबन्ध का परिणाम होता हुआ देखकर ‘जीव ने कर्म किया’ इस प्रकार उपचारमात्र से कहा जाता है।105। योद्धाओं के द्वारा युद्ध किये जाने पर राजा ने युद्ध किया’ इस प्रकार लोक (व्यवहार से) कहते हैं। उसी प्रकार ‘ज्ञानावरणादि कर्म जीव ने किया’ ऐसा व्यवहार से कहा जाता है।106। ‘आत्मा पुद्गल द्रव्य को उत्पन्न करता है, बाँधता है, परिणमन कराता है और ग्रहण करता है’—यह व्यवहार नय का कथन है।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./105 <span class="SanskritText">इह खलु पौद्गलिककर्मण: स्वभावादनिमित्तभूतेऽप्यात्मन्यनादेरज्ञानात्तन्निमित्तभूतेनाज्ञानभावेन परिणमनान्निमित्तीभूते सति संपद्यम नत्वात् पौद्गलिकं कर्मात्मना कृतमिति निर्विकल्पविज्ञानघनभ्रष्टानां विकल्पपरायणानां परेषामस्ति विकल्प:। स तूपचार एव न तु परमार्थ:।</span> =<span class="HindiText">इस लोक में वास्तव में आत्मा स्वभाव से पौद्गलिक कर्म का निमित्तभूत न होने पर भी, अनादि अज्ञान के कारण पौद्गलिक कर्म को निमित्तरूप होते हुए अज्ञानभाव में परिणमता होने से निमित्तभूत होने पर, पौद्गलिक कर्म उत्पन्न होता है, इसलिए ‘पौद्गलिक कर्म आत्मा ने किया’ ऐसा निर्विकल्प विज्ञानघन से भ्रष्ट, विकल्पपरायण अज्ञानियों का विकल्प है; वह विकल्प उपचार ही है, परमार्थ नहीं।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./355<span class="SanskritText"> ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यव्यवहार:।.</span>..=<span class="HindiText">इसलिए निमित्तनैमित्तिक भावमात्र से ही वहाँ कर्तृकर्म और भोक्तृभोग्य का व्यवहार है।</span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./121 <span class="SanskritText">तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृत्वाद् द्रव्यकर्मकर्ताप्युपचारात्। </span>=<span class="HindiText">आत्मा भी अपने परिणाम का कर्ता होने से द्रव्यकर्म का कर्ता भी उपचार से है।<br /> | ||
प्र.सा./ | प्र.सा./118/प. जयचन्द ‘‘कर्म जीव के स्वभाव का पराभव करता है’’ ऐसा कहना सो तो उपचार कथन है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.9" id="3.9"> एक को दूसरे का कर्ता कहना लोकप्रसिद्ध रूढ़ि है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.9" id="3.9"> एक को दूसरे का कर्ता कहना लोकप्रसिद्ध रूढ़ि है</strong></span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./5/22/291/7 <span class="SanskritText">यद्येवं कालस्य क्रियावत्त्वं प्राप्नोति। यथा शिष्योऽधीते, उपाध्यायोऽध्यापयतीति। नैषदोष:, निमित्तमात्रेऽपि हेतुकर्तृ व्यपदेशो दृष्ट:। यथा कारीषोऽग्निरध्यापयति। एवं कालस्य हेतुकर्तृता। </span>=<span class="HindiText">प्रश्न–यदि ऐसा है( अर्थात् द्रव्यों की पर्याय बदलने वाला है) तो काल क्रियावान द्रव्य प्राप्त होता है ? जैसे शिष्य पढ़ता है और उपाध्याय पढ़ाता है, यहाँ उपाध्याय क्रियावान द्रव्य है ? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि निमित्तमात्र में भी हेतुकर्तारूप व्यपदेश देखा जाता है जैसे कण्डे को अग्नि पढ़ाती है। यहाँ कण्डे की अग्नि निमित्तमात्र है। उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/9/11/46/32 <span class="SanskritText">लोके हि करणत्वेन प्रसिद्धस्यासे; तत्प्रशंसापरायामभिधानप्रवृतौ समीक्षितायां ‘तैक्ष्ण्यगौरवकाठिन्याहितविशेषोऽयमेव छिनत्ति’ इति कर्तृधर्माध्यारोप: क्रियते। </span>=<span class="HindiText"> करणरूप से प्रसिद्ध तलवार आदि की तीक्ष्णता आदि गुणों की प्रशंसा में ‘तलवार ने छेद दिया’ इस प्रकार का कर्तृत्वधर्म का अध्यारोपण करके कर्तृसाधन प्रयोग होता है।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./84 <span class="SanskritText">कुलाल: कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढाऽस्ति त:वद्वयवहार:’’</span>=<span class="HindiText">कुम्हार घड़े का कर्ता है और भोक्ता है ऐसा लोगों का अनादि से रूढ़ व्यवहार है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.10" id="3.10"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.10" id="3.10"> वास्तव में एक को दूसरे का कर्ता कहना असत्य है</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./119 <span class="PrakritGatha">अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पुग्गलं दव्वं। जीवो परिणामयदे कम्मं कम्मत्तमिदि मिच्छा।119।</span>=<span class="HindiText">अथवा यदि पुद्गल द्रव्य अपने आप ही कर्मभाव से परिणमन करता है ऐसा माना जाये तो ‘जीव कर्म को अर्थात् पुद्गलद्रव्य को कर्मरूप परिणमन कराता है, यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है।<br /> | ||
प्र.सा./ | प्र.सा./16/पं. जयचन्द=क्योंकि वास्तव में कोई द्रव्य किसी द्रव्य का कर्ता व हर्ता नहीं है, इसलिए व्यवहारकारक असत्य है, अपने को आप ही कर्ता है इसलिए निश्चयकारक सत्य है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.11" id="3.11"> एक को दूसरे का कर्ता मानने में अनेक दोष आते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.11" id="3.11"> एक को दूसरे का कर्ता मानने में अनेक दोष आते हैं</strong> </span><br /> | ||
यो.सा./अ./ | यो.सा./अ./2/30 <span class="SanskritGatha">एवं संपद्यते दोष: सर्वथापि दुरुतर:। चेतनाचेतनद्रव्यविशेषाभावलक्षण:।30।</span>=<span class="HindiText">यदि कर्म को चेतन का और चेतन को कर्म का कर्ता माना जाये तो दोनों एक दूसरे के उपादान बन जाने के कारण(27-29), कौन चेतन और कौन अचेतन यह बात ही सिद्ध न हो सकेगी।30।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./32 <span class="SanskritText">यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन भवन्तमपि दूरत एव तदनुवृत्तेरात्मनो भाव्यस्य व्यावतनेन हठान्मोहं न्यक्कृत्योपरतसमस्तभाव्यभावकसंकरदोषत्वेन टंकोत्कीर्णं...आत्मानं संचेतयते स खलु जितमोहो।</span>=<span class="HindiText">मोहकर्म फल देने की सामर्थ्य से प्रगट उदयरूप होकर भावकपने से प्रगट होता है, तथापि तदनुसार जिसकी प्रवृत्ति है ऐसा जो अपना आत्मा-भाव्य, उसको भेदज्ञान के बल द्वारा दूर से ही अलग करने से इस प्रकार बलपूर्वक मोह का तिरस्कार करके, समस्त भाव्यभावक संकरदोष दूर हो जाने से एकत्व में टंकोत्कीर्ण अपने आत्मा को जो अनुभव करते हैं वे निश्चय से जितमोह हैं।</span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./24/51/5 <span class="SanskritText">अन्यद्रव्यस्य गुणोऽन्यद्रव्यस्य कर्तुं नायाति संकरव्यतिकरदोषप्राप्ते:।</span> =<span class="HindiText">अन्य द्रव्य के गुण अन्य द्रव्य के कर्ता नहीं हो सकते, क्योंकि ऐसा मानने से संकरव्यतिकर दोषों की प्राप्ति होती है।</span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./573-574<span class="SanskritGatha"> नाभासत्वमसिद्धं स्यादपसिद्धान्तो नयस्यास्य। सदनेकत्वे सति किल गुणसंक्रान्ति: कुत: प्रमाणद्वा।273। गुणसंक्रान्तिमृते यदि कर्त्ता स्यात्कर्मणश्च भोक्तात्मा। सर्वस्य सर्वसंकरदोष: स्यात् सर्वशून्यदोषश्च।274।</span>=<span class="HindiText">अपसिद्धान्त होने से इस नय को (कर्म व नोकर्म का व्यवहार से जीव कर्ता व भोक्ता है) नयाभासपना असिद्ध नहीं है क्योंकि सत् को अनेकत्व होने पर और जीव और कर्मों के भिन्न-भिन्न होने पर निश्चय से किस प्रमाण से गुण संक्रमण होगा।573। और यदि गुणसंक्रमण के बिना ही जीव कर्मों का कर्ता तथा भोक्ता होगा तो सब पदार्थों में सर्वसंकरदोष और सर्वशून्यदोष हो जायेगा।574।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.12" id="3.12"> एक को दूसरे का कर्ता माने सो अज्ञानी है--</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.12" id="3.12"> एक को दूसरे का कर्ता माने सो अज्ञानी है--</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./247,253 <span class="PrakritGatha">जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहि। सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो।247। जो अप्पणा दु मण्णदि दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्ते ति। सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो।253।</span>=<span class="HindiText">जो यह मानता है मैं पर जीवों को मारता हूँ और पर जीव मुझे मारते हैं, वह मूढ है, अज्ञानी है। और इससे विपरीत ज्ञानी है।247। जो यह मानता है कि अपने द्वारा मैं जीवों को दुःखी सुखी करता हूँ, वह मूढ है, अज्ञानी है। और इससे विपरीत है वह ज्ञानी है।253।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./79/क. 50 <span class="SanskritGatha">अज्ञानात्कर्तृकर्मभ्रममतिरनयोर्भाति तावन्न यावत्। विज्ञानार्चिश्च कति क्रकचवदयं भेदमुत्पाद्य सद्य:।50।</span>=<span class="HindiText">‘जीव पुद्गल के कर्ताकर्म भाव है’ ऐसी भ्रमबुद्धि अज्ञान के कारण वहाँ तक भासित होती है कि जहाँ तक विज्ञानज्योति करवत की भाँति निर्दयता से जीव पुद्गल का तत्काल भेद उत्पन्न करके प्रकाशित नहीं होती।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./97/क. 62<span class="SanskritGatha"> आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम्। परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम्।62। </span>=<span class="HindiText">आत्मा ज्ञान स्वरूप है, स्वयं ज्ञान ही है; वह ज्ञान के अतिरिक्त अन्य क्या करे ? आत्मा कर्ता, ऐसा मानना सो व्यवहारी जीवों का मोह है।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./320/क.199<span class="SanskritGatha"> ये तु कर्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसा तता:। सामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षताम्।199।</span>=<span class="HindiText">जो अज्ञानांधकार से आच्छादित होते हुए आत्मा को कर्ता मानते हैं वे भले ही मोक्ष के इच्छुक हों तथापि सामान्य जनों की भाँति उनकी भी मुक्ति नहीं होती।199।</span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./111 <span class="SanskritText">अथायं तर्क:--पुद्गलमयमिथ्यात्वादीन् वेदयमानो जीव: स्वयमेव मिथ्यादृष्टिर्भूत्वा पुद्गलकर्म करोति। स किलाविवेक: यतो न खल्वात्मा भाव्यभावकभावात् पुद्-गलद्रव्यमयमिथ्यात्वादिवेदकोऽपि कथं पुन: पुद्गलकर्मण: कर्ता नाम।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–पुद्गलमय मिथ्यात्वादि कर्मों को भोगता हुआ जीव स्वयं ही मिथ्यादृष्टि होकर पुद्गल कर्म को करता है ? =<strong>उत्तर</strong>—यह तर्क वास्तव में अविवेक है, क्योंकि भाव्यभावकभाव का अभाव होने से आत्मा निश्चय से पुद्गलद्रव्यमय मिथ्यात्वादि का भोक्ता भी नहीं है, तब फिर पुद्गल कर्म का कर्ता कैसे हो सकता है ? <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.13" id="3.13"> एक को दूसरे का कर्ता माने सो | <li><span class="HindiText"><strong name="3.13" id="3.13"> एक को दूसरे का कर्ता माने सो मिथ्यादृष्टि है</strong></span><br /> | ||
यो.सा./अ./ | यो.सा./अ./4/13 <span class="SanskritGatha">कोऽपि कस्यापि कर्तास्ति नोपकारापकारयो:। उपकुर्वेऽपकुर्वेऽहं मिथ्येति क्रियते मति:।13।</span>=<span class="HindiText">इस संसार में कोई जीव किसी अन्य जीव का उपकार या अपकार नहीं कर सकता। इसलिए ‘मैं दूसरे का उपकार या अपकार करता हूँ’ यह बुद्धि मिथ्या है।</span><br /> | ||
स./सा./आ./ | स./सा./आ./321, 327 <span class="SanskritText">ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यन्ति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तन्ते; लौकिकानां परमात्मा विष्णु: सुरनारकादिकार्याणि करोति, तेषां तु स्वात्मा करोतीत्यपसिद्धान्तस्य समत्वात्।321। योऽयं परद्रव्ये कर्तृव्यवसाय: स तेषां सम्यग्दर्शनरहितत्वादेव भवति इति सुनिश्चितं जानीयात्।327।</span>=<span class="HindiText">जो आत्मा को कर्ता ही देखते हैं वे लोकोत्तर हों तो भी लौकिकता को अतिक्रमण नहीं करते; क्योंकि, लौकिक जनों के मत में परमात्मा, विष्णु, देव, नारकादि कार्य करता है और उनके मत में अपना आत्मा वह कार्य करता है। इस प्रकार (दोनों में) अपसिद्धान्त की समानता है।321। लोक और श्रमण दोनों में जो यह परद्रव्य में कर्तृत्व का व्यवसाय है वह उनकी सम्यग्दर्शन रहितता के कारण ही है। (स.सा./मूल भी) </span><br /> | ||
पं.ध./पू./ | पं.ध./पू./580-581 <span class="SanskritGatha">अपरे बहिरात्मनो मिथ्यावादं वदन्ति दुर्मतय:। यदबद्धेऽपि परस्मिन् कर्ता भोक्ता परोऽपि भवति यथा।580। सद्वेद्योदयभावान् गृहधनधान्यं कलत्रपुत्रांश्च। स्वमिह करोति जीवो भुनक्ति वा स एव जीवश्च।581।</span>=<span class="HindiGatha">कोई खोटी बुद्धि वाले मिथ्यादृष्टि जीव इस प्रकार मिथ्याकथन का प्रतिपादन करते हैं, जो बन्ध को प्राप्त नहीं होनेवाले पर-पदार्थ के विषय में अन्य पदार्थ कर्ता और भोक्ता होता है।580। जैसे कि साता वेदनीय के उदय से प्राप्त होने वाले घर, धन, धान्य और स्त्री-पुत्र वगैरह को जीव स्वयं करता है तथा वही जीव ही उनका भोग करता है।581।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiGatha"><strong name="3.14" id="3.14"> एक को दूसरे का कर्ता कहने वाला | <li><span class="HindiGatha"><strong name="3.14" id="3.14"> एक को दूसरे का कर्ता कहने वाला अन्यमती है</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./85,116-117 <span class="PrakritGatha">जदि पुग्गलकम्ममिणं कुव्वदि तं चेव वेदयदि आदा। दोकिरियाविदिरित्तो पसजदि सो जिणावमदं।85। जीवे ण सयं बद्ध ण सयं परिणमदि कम्मभावेण। जइ पुग्गलदव्वमिणं अप्परिणामी तदा होदि।116। कम्मइयवरगणासु य अपरिणमंतीसु कम्मभावेण। संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।117।</span>=<span class="HindiText">यदि आत्मा इस पुद्गलकर्म को करे और उसी को भोगे तो वह आत्मा दो क्रियाओं से अभिन्न ठहरे ऐसा प्रसंग आता है, जो कि जिनदेव को सम्मत नहीं हैं।85। ‘यह पुद्गल द्रव्य जीव में स्वयं नहीं बन्धा और कर्मभाव से भी स्वयं नहीं परिणमता’, यदि ऐसा माना जाये तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है; और इस प्रकार कार्मणवर्गणाएँ कर्मभाव से नहीं परिणमती होने से संसार का अभाव (सदा शिववाद) सिद्ध होता है अथवा सांख्यमत का प्रसंग आता है।116-117। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.15" id="3.15"> एक को दूसरे का कर्ता कहने वाले सर्वज्ञ के मत से बाहर हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.15" id="3.15"> एक को दूसरे का कर्ता कहने वाले सर्वज्ञ के मत से बाहर हैं</strong> </span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./85 <span class="SanskritText">वस्तुस्थित्या प्रतपत्यां यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति भाव्यभावकभावेन तमेवानुभवति च जीवस्तथाव्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलकर्मापि यदि कुर्यात् भाव्यभावकभावेन तदेवानुभवेच्च ततोऽयं स्वपरसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायां प्रसजन्त्यां....मिथ्यादृष्टितया सर्वज्ञावमत: स्यात् ।</span> = <span class="HindiText">इस प्रकार वस्तुस्थिति से ही, (क्रिया और कर्ता की अभिन्नता) सदा प्रगट होने से, जैसे जीव व्याप्यव्यापकभाव से अपने परिणाम को करता है और भाव्यभावकभाव से उसी का अनुभव करता है; उसी प्रकार यदि व्याप्यव्यापकभाव से पुद्गलकर्म को भी करे और भाव्यभावकभाव से उसी को भोगे, तो वह जीव अपनी व पर की एकत्रित हुई दो क्रियाओं से अभिन्नता का प्रसंग आने पर मिथ्यादृष्टिता के कारण सर्वज्ञ के मत से बाहर है।</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> निश्चय व्यवहार कर्ता-कर्म भाव का समन्वय </strong> <br /> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1">व्यवहार से ही निमित्त को कर्ता कहा जाता है निश्चय से नहीं</strong></span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./355 क 214 <span class="SanskritGatha">यत्तु वस्तु कुरूतेऽन्यवस्तुन:, किंचनापि परिणामिन: स्वयम्। व्यावहारिकदृशैव तन्मतं, नान्यदस्ति किमपीह निश्चयात्।214।</span>=<span class="HindiText"> एक वस्तु स्वयं परिणमित होती हुई अन्य वस्तु का कुछ भी कर सकती है ऐसा जो माना जाता है, सो व्यवहारदृष्टि से ही माना जाता है। निश्चय से इस लोक में अन्यवस्तु की अन्यवस्तु कुछ भी नहीं है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2"> व्यवहार से ही कर्ता कर्म भिन्न दिखते हैं निश्चय से दोनों अभिन्न हैं</strong></span><br /> | ||
स.सा./आ./ | स.सा./आ./348 क 210<span class="SanskritGatha"> व्यावहारिकदृशैव केवलं, कर्तृकर्म च विभिन्नमिष्यते। निश्चयेन यदि वस्तु चित्यते: कर्तृ कर्म च सदैकमिष्यते।210। </span>=<span class="HindiText">केवल व्यावहारिक दृष्टि से ही कर्ता और कर्म भिन्न माने जाते हैं, यदि निश्चय से वस्तु का विचार किया जाये तो कर्ता और कर्म सदा एक माना जाता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> निश्चय से अपने परिणामों का कर्ता है पर निमित्त की अपेक्षा परपदार्थों का भी कहा जाता है</strong></span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./356-365 <span class="PrakritGatha">जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होइ। तह जाणओ दु ण परस्स जाणओ जाणओ सो दु।356। एवं तु णिच्छयणयस्स भासियं णाणदंसणचरित्ते। सुणु ववहारणयस्स य वत्तव्वं से समासेण।360। जह परदव्वं सेडयदि ह सेडिया अप्पणो सहावेण। तह परदव्वं जाणइ णाया वि सयेण भावेण।361। एवं ववहारस्स दु विणिच्छओ णाणदंसणचरित्ते। भणिओ अण्णेसु वि पज्जएसु एमेव णायव्वा।365। </span>=<span class="HindiText"> जैसे खडिया पर (दीवाल आदि) की नहीं है, खडिया तो खडिया है, उसी प्रकार ज्ञायक (आत्मा) पर का नहीं है, ज्ञायक तो ज्ञायक ही है।356। क्योंकि जो जिस का होता है वह वही होता है, जैसे आत्मा का ज्ञान होने से ज्ञान आत्मा ही है (आ0 ख्याति टीका)। इस प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्र में निश्चय का कथन है। अब उस सम्बंध में संक्षेप से व्यवहार नय का कथन सुनो।360। जैस खडिया अपने स्वभाव से (दीवाल आदि) परद्रव्य को सफेद करती है उसी प्रकार ज्ञाता भी अपने स्वभाव से परद्रव्य को जानता है।361। इस प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्र में व्यवहारनय का निर्णय कहा है। अन्य पर्यायों में भी इस प्रकार जानना चाहिए।365। (यहाँ तात्पर्य यह है कि निश्चय दृष्टि में वस्तुस्वभाव पर ही लक्ष्य होने के कारण तहाँ गुणगुणी अभेद की भाँति कर्ता कर्म भाव में भी परिणाम परिणामी रूप से अभेद देखा जाता है। और व्यवहार दृष्टि में भेद व निमित्त नैमित्तिक सम्बंध पर लक्ष्य होने के कारण तहाँ गुण-गुणी भेद की भाँति कर्ता-कर्म भाव में भी भेद देखा जाता है।) (स.सा./22 की प्रक्षेपक गाथा) </span><br> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./26/54/18 <span class="SanskritText">यथा निश्चयेन पुद्गलपिण्डोपादानकारणेन समुत्पन्नोऽपि घट: व्यवहारेण कुम्भकारनिमित्तेनोत्पन्नत्वात्कुम्भकारेण कृत इति भण्यते तथा समयादिव्यवहारकालो...।</span>= <span class="HindiText">जिस प्रकार निश्चय से पुद्गलपिण्डरूप उपादानकारण से उत्पन्न हुआ भी घट व्यवहार से कुम्हार के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण कुम्हार के द्वारा किया गया कहा जाता है, उसी प्रकार समयादि व्यवहार काल भी ...। (पं.का./त.प्र./68) <strong> </strong></span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> भिन्न कर्ता-कर्म भाव के निषेध का कारण</strong></span><br> | ||
स.सा./मू.व.आ./ | स.सा./मू.व.आ./99 <span class="SanskritText">यदि सो परदव्वाणि य करिज्ज णियमेण तम्मओ होज्ज। जम्हा ण तम्मओ तेण सो ण तेसिं हवदि कत्ता।/9। परिणामपारिणामिभावान्यथानुपपत्तेर्नियमेन तन्मय: स्यात् ।=यदि आत्मा पर द्रव्यों को करे तो वह नियम से तन्मय अर्थात् परद्रव्यमय हो जाये किन्तु तन्मय नहीं है इसलिए वह उनका कर्ता नहीं है। (तन्मयता हेतु देने का भी कारण यह है कि निश्चय से विचार करते हुए परिणामी कर्ता है और उसका परिणाम उसका कर्म) यह परिणामपरिणामीभाव क्योंकि अन्य प्रकार बन नहीं सकता इसलिए उसे नियम से तन्मय हो जाना पड़ेगा। स.सा./आ/75 व्याप्यव्यापकभावाभावात् कर्तृकर्मत्वासिद्धौ।</span> =<span class="HindiText">(भिन्न द्रव्यों में) व्याप्यव्यापकभाव का अभाव होने से कर्ता कर्म भाव की असिद्धि है। </span><br> | ||
सा.सा./आ/ | सा.सा./आ/85 <span class="SanskritText">इह खलु क्रिया हि तावदखिलापि परिणामलक्षणतया न नाम परिणामतोऽस्ति भिन्ना, परिणामोऽपि परिणामपरिणामिनोरभिन्नवस्तुत्वात् परिणामिनो न भिन्नस्ततो या काचन क्रिया किल सकलापि सा क्रियावतो न भिन्नेति क्रियाकर्त्रोरव्यतिरिक्ततायां वस्तुस्थित्या प्रतपत्यां यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति भाव्यभावकभावेन तमेवानुभवति च जीवस्तथा व्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलकर्मापि यदि कुर्यात् भाव्यभावकभावेन तदेवानुभवेच्च ततोऽयं स्वपरसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायां प्रसजन्त्यां स्वपरयो: परस्परविभागप्रत्यस्तमनादनेकात्मकमेकमात्मानमनुभवन्मिथ्यादृष्टितयासर्वज्ञावमत: स्यात् ।</span> =<span class="HindiText">(इस रहस्य को समझने के लिए पहले ही यह बुद्धिगोचर करना चाहिए कि यहाँ निश्चय दृष्टि से मीमांसा की जा रही है व्यवहार दृष्टि से नहीं। और निश्चय में अभेद तत्त्व का विचार करना इष्ट होता है भेद तत्त्व या निमित्त नैमित्तिक सम्बंध का नहीं।) जगत् में जो क्रिया है सो सब ही परिणाम स्वरूप होने से वास्तव में परिणाम से भिन्न नहीं है (परिणाम ही है); परिणाम भी परिणामी (द्रव्य) से भिन्न नहीं है क्योंकि परिणाम और परिणामी अभिन्न वस्तु हैं। इसलिए (यह सिद्ध हुआ) कि जो कुछ क्रिया है वह सब ही क्रियावान् से भिन्न नहीं है। इस प्रकार वस्तुस्थिति से ही क्रिया और कर्ता की अभिन्नता सदा ही प्रगटित होने से, जैसे जीव व्याप्यव्यापकभाव से अपने परिणाम को करता है और भाव्यभावकभाव से उसी का अनुभव करता है—उसी प्रकार यदि व्याप्यव्यापकभाव से पुद्गलकर्म को भी और भाव्यभावकभाव से उसी को भोगे तो वह जीव अपनी व पर की एकत्रित हुई दो क्रियाओं से अभिन्नता का प्रसंग आने पर स्व-पर का परस्पर विभाग अस्त हो जाने से, अनेकद्रव्यस्वरूप एक आत्मा का अनुभव करता हुआ मिथ्यादृष्टिता के कारण सर्वज्ञ के मत से बाहर है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5"> भिन्न कर्ताकर्मभाव के निषेध का प्रयोजन</strong></span><br> | ||
स.सा/आ/ | स.सा/आ/321/क 200-202 <span class="SanskritGatha">नास्ति सर्वोऽपि संबन्ध: परद्रव्यात्मतत्त्वयो:। कर्तृकर्मत्वसंबन्धाभावे तत्कर्तृता कुत:।200। एकस्य वस्तुनो ह्यन्यतरेण सार्घं; सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्ध:। तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे, पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम् ।201। ये तु स्वभावनियमं कलयन्ति नेममज्ञानमग्नमहसो वत ते वराका:। कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्म, कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्य:।202। </span>=<span class="HindiText">परद्रव्य और आत्मा का कोई भी सम्बंध नहीं है तब फिर उनमें कर्ताकर्म सम्बंध कैसे हो सकता है। इस प्रकार जहाँ कर्ताकर्म सम्बंध नहीं है, वहाँ आत्मा के परद्रव्य का कर्तृत्व कैसे हो सकता है ?।।200।। क्योंकि इस लोक में एक वस्तु का अन्य वस्तु के साथ सम्पूर्ण सम्बन्ध ही निषेध किया गया है, इसलिए जहाँ वस्तुभेद हैं अर्थात् भिन्न वस्तुएँ हैं वहाँ कर्ताकर्म घटना नहीं होती। इस प्रकार मुनिजन और लौकिक जन तत्त्व को (वस्तु के यथार्थ स्वरूप को) अकर्ता देखो, (यह श्रद्धा में लाओ कि कोई किसी का कर्ता नहीं है, परद्रव्य परका अकर्ता ही है) ।।201।। जो इस वस्तुस्वभाव से नियम को नहीं जानते वे बेचारे, जिनका तेज (पुरूषार्थ या पराक्रम) अज्ञान में डूब गया है ऐसे, कर्म को करते हैं; इसलिए भाव, कर्म का कर्ता चेतन ही स्वयं होता है, अन्य कोई नहीं।202। <strong> </strong></span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6"> भिन्न कर्ताकर्म व्यपदेश का कारण</strong></span><br> | ||
स.सा./मू/ | स.सा./मू/312-313 <span class="SanskritText">चेया हु उ पयडीअट्ठं उप्पज्जइ विणस्सइ। पयडी वि चेययट्ठं उपज्जइ विणस्सइ।312। एवं बंधो उ दुण्हं वि अण्णोण्णप्पच्चया हवे। अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायए।313।=तत एव च तयो: कर्तृकर्मव्यवहार:। आ.ख्याति. टीका </span>=<span class="HindiText">चेतक अर्थात् आत्मा प्रकृति के निमित्त से उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। तथा प्रकृति भी चेतन के निमित्त से उत्पन्न होती है तथा नष्ट होती है। इस प्रकार परस्पर निमित्त से दोनों ही आत्मा का और प्रकृति का बन्ध होता है। और इससे संसार उत्पन्न हो जाता है।312-313। इसलिए उन दोनों का कर्ताकर्म का व्यवहार है। <strong> </strong></span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> भिन्न कर्ताकर्म व्यपदेश का प्रयोजन</strong></span><br> | ||
द्र.सं./टी./ | द्र.सं./टी./8/22/4 <span class="SanskritText">यतो हि नित्यनिरंजननिष्क्रियनिजात्मभावनारहितस्य कर्मादिकर्तृत्वं व्याख्यातम्, ततस्तत्रैव निजशुद्धात्मनि भावना कर्त्तव्या। </span>=<span class="HindiText">क्योंकि नित्य निरंजन निष्क्रिय ऐसे अपने आत्मस्वरूप की भावना से रहित जीव के कर्मादिक का कर्तृत्व कहा गया है, इसलिए उस निज शुद्धात्मा में ही भावना करनी चाहिए। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="4.8" id="4.8"><strong> कर्ताकर्म भाव निर्देश का मतार्थ व नयार्थ</strong></span><br> | <li><span class="HindiText" name="4.8" id="4.8"><strong> कर्ताकर्म भाव निर्देश का मतार्थ व नयार्थ</strong></span><br> | ||
स.सा./ता.वृ./ | स.सा./ता.वृ./22 की प्रक्षेपक गाथा—<span class="SanskritText">अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयात् पुद्गलद्रव्यकर्मादीनां कर्त्तेति। </span>=<span class="HindiText">अनुपचरित असद्भूत व्यवहार से ही आत्मा पुद्गलद्रव्यका या कर्म आदिकों का कर्ता है। </span>पं.का./ता.वृ./27/61/10 <span class="SanskritText">शुद्धाशुद्धपरिणामकर्तृत्वव्याख्यानं तु नित्याकर्तृत्वैकान्तसांख्यमतानुयायिशिष्यसंबोधनार्थ, भोक्तृत्वव्याख्यानं कर्ता कर्मफलं न भुङ्क्त इति बौद्धमतानुसारिशिष्यप्रतिबोधनार्थम् ।</span> =<span class="HindiText"> शुद्ध व अशुद्ध परिणामों के कर्तापने का व्याख्यान, आत्मा को एकान्त से नित्य अकर्ता माननेवाले सांख्यमतानुसारी शिष्य के सम्बोधनार्थ किया गया है, और भोक्तापने का व्याख्यान, ‘कर्ता स्वयं कर्म के फल को नहीं भोगता’ ऐसा माननेवाले बौद्ध मतानुसारी शिष्य के प्रतिबोधनार्थ है।</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
Line 288: | Line 288: | ||
<p> </p> | <p> </p> | ||
<noinclude> | |||
[[ | [[ कर्तव्य | पूर्व पृष्ठ ]] | ||
[[Category:क]] | [[ कर्तावाद | अगला पृष्ठ ]] | ||
</noinclude> | |||
[[Category: क]] |
Revision as of 21:39, 5 July 2020
यद्यपि लोक में ‘मैं घट, पट आदि का कर्ता हूँ’ ऐसा ही व्यवहार प्रचलित है। परन्तु परमार्थ में प्रत्येक पदार्थ परिणमन स्वभावी होने तथा प्रतिक्षण परिणमन करते रहने के कारण वह अपनी पर्याय का ही कर्ता है। इस प्रकार का उपरोक्त भेद कर्ता कर्म भाव विकल्पात्मक होने के कारण परमार्थ में सर्वत्र निषिद्ध है। अभेद कर्ताकर्मभाव का विचार ही ज्ञाता-द्रष्टाभाव में ग्राह्य है।
- कर्ताकर्म सामान्य निर्देश
- निश्चय कर्ताकारक का लक्षण व निर्देश।
- निश्चय कर्मकारक का लक्षण व निर्देश।
- क्रिया सामान्य का लक्षण व निर्देश।
- कर्मकारक के प्राप्य विकार्य आदि तीन भेदों का लक्षण व निर्देश।
- निश्चय कर्ताकारक का लक्षण व निर्देश।
- आचार्य का कर्ता गुण।–देखें प्रकुर्बी ।
- निश्चय कर्ता कर्म भाव निर्देश
- निश्चय से कर्ता कर्म व अधिकरण में अभेद है।
- निश्चय से कर्ता कर्म व करण में अभेद है।
- निश्चय से कर्ता व करण में अभेद।
- निश्चय से वस्तु का परिणामी परिणाम सम्बन्ध ही उसका कर्ता कर्म भाव है।
- एक ही वस्तु में कर्ता और कर्म दोनो बातें कैसे हो सकती हैं?
- व्यवहार से भिन्न वस्तुओं में भी कर्ता कर्म व्यपदेश किया जाता है।
- षट्-द्रव्यों में परस्पर उपकार्य उपकारक भाव।–देखें कारण - III 1।
- षट्-द्रव्यों में कर्ता अकर्ता विभाग।–देखें द्रव्य - 1 ।
- निश्चय से कर्ता कर्म व अधिकरण में अभेद है।
- निश्चय व्यवहार कर्ताकर्मभाव की कथंचित् सत्यार्थता असत्यार्थता।
- वास्तव में व्याप्यव्यापकरूप ही कर्ता कर्म भाव अध्यात्म में इष्ट हैं।
- निश्चय से प्रत्येक पदार्थ अपने ही परिणाम का कर्ता है दूसरे का नही।
- एक दूसरे के परिणाम का कर्ता नहीं हो सकता।
- निमित्त न दूसरे को अपने रूप परिणमन करा सकता है, न स्वयं दूसरे रूप से परिणमन कर सकता है, न किसी में अनहोनी शक्ति उत्पन्न कर सकता है बल्कि निमित्त के सद्भाव में उपादान स्वयं परिणमन करता है।–देखें कारण - II.1 ।
- एक द्रव्य दूसरे को निमित्त हो सकता है पर कर्ता नहीं।
- निमित्त नैमित्तिक भाव ही कर्ताकर्म भाव है।–देखें कारण - III.1.4
- निमित्त भी द्रव्य रूप से कर्ता है ही नहीं, पर्याय रूप से हो तो हो।
- निमित्त किसी के परिणामों के उत्पादक नहीं होते।
- स्वयं परिणमन वाले द्रव्य को निमित्त बेचारा क्या परिणमावे।
- एक को दूसरे का कर्ता कहना उपचार या व्यवहार है परमार्थ नहीं
- एक को दूसरे का कर्ता कहना लोकप्रसिद्ध रूढि है।
- वास्तव में एक को दूसरे का कर्ता कहना असत्य है।
- एक को दूसरे का कर्ता मानने में अनेक दोष आते हैं।
- एक को दूसरे का कर्ता माने सो अज्ञानी है।
- एक को दूसरे का कर्ता माने सो मिथ्यादृष्टि है।
- एक को दूसरे का कर्ता माने सो अन्यमती है।
- एक को दूसरे का कर्ता माने सो सर्वज्ञ के मत से बाहर है।
- वास्तव में व्याप्यव्यापकरूप ही कर्ता कर्म भाव अध्यात्म में इष्ट हैं।
- निश्चय व्यवहार कर्ता कर्म भाव का समन्वय
- व्यवहार से ही निमित्त को कर्ता कहा जाता है निश्चय से नहीं।
- व्यवहार से ही कर्ता व कर्म भिन्न दिखते हैं, निश्चय से दोनों अभिन्न हैं।
- निश्चय से अपने परिणामों का कर्ता है पर निमित्त की अपेक्षा पर पदार्थों का भी कहा जाता है।
- भिन्न कर्ताकर्म भाव के निषेध का कारण।
- भिन्न कर्ताकर्म भाव के निषेध का प्रयोजन।
- भिन्न कर्ता कर्म व्यपदेश का कारण।
- भिन्न कर्ता कर्म व्यपदेश का प्रयोजन।
- कर्ता कर्म भाव निर्देश का नयार्थ व मतार्थ।
- जीव ज्ञान व कर्म चेतना के कारण ही अकर्ता या कर्ता होता है।- देखें चेतना - 3।
- व्यवहार से ही निमित्त को कर्ता कहा जाता है निश्चय से नहीं।
- कर्ता व कर्म सामान्य निर्देश
- निश्चय कर्ता कारक निर्देश
स.सा./आ./86/क.51 य: परिणमति स कर्ता।=जो परिणमन करता है, वही अपने परिणमन का कर्ता होता है।
प्र.सा./त.प्र./184 स तं च–स्वतन्त्र: कुर्वाणस्तस्य कर्ताऽवश्यं स्यात्।=वह (आत्मा) उसको (स्व-भाव को) स्वतन्त्रतया करता हुआ उसका कर्ता अवश्य है।
प्र.सा./ता.वृ./16 अभिन्नकारकचिदानन्दैकस्वभावेन स्वतन्त्रत्वात् कर्ता भवति।=अभिन्नकारक भाव को प्राप्त चिदानन्दरूप चैतन्य स्व-स्वभाव के द्वारा स्वतंत्र होने से अपने आनन्द का कर्ता होता है।
- निश्चय कर्मकारक निर्देश
स.सि./6/1/318/4 कर्म क्रिया इत्यनर्थान्तरम्।=कर्म और क्रिया ये एकार्थवाची नाम हैं।
रा.वा./6/1/4/504/16 कर्तु: क्रियया आप्तुमिष्टतमं कर्म। =कर्ता को क्रिया के द्वारा जो प्राप्त करने योग्य इष्ट होता है उसे कर्म कहते हैं।
(स.सा./परि/शक्ति नं.41)।
भ.आ./वि./20/71/9 कर्तु: क्रियाया व्याप्यत्वेन विवक्षितमपि कर्म, यथा कर्मणि द्वितीयेति। तथा क्रिया वचनोऽपि अस्ति, किं कर्म करोषि। कां क्रियामित्यर्थ:। इह क्रियावाची गृहीत:। =कर्ता की होनेवाली क्रिया के द्वारा जो व्याप्त होता है, उसको कर्मकारक कहते हैं। कर्म की व्याकरण शास्त्र में द्वितीया (विभक्ति) होती है। जैसे ‘कर्मणि द्वितीया’ यह सूत्र है। कर्म शब्द का ‘क्रिया’ ऐसा भी अर्थ है। यहाँ कर्म शब्द क्रियावाची समझना।
स.सा./आ./86/क. 51 य: परिणामी भवेत्तु तत्कर्म।=(परिणमित होने वाले कर्ता रूप द्रव्यका) जो परिणाम है सो उसका कर्म है।
प्र.सा./त.प्र./16 शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् कर्मत्वं कलयन्। =शुद्ध अनन्तशक्तियुक्त ज्ञानरूप से परिणमित होने के स्वभाव के कारण स्वयं ही प्राप्य होने से (आत्मा) कर्मत्व का अनुभव करता है।
प्र.सा./त.प्र. 117 क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात्कर्म। =क्रिया वास्तव में आत्मा के द्वारा प्राप्त होने से कर्म है। (प्र.सा./त.प्र./184)
प्र.सा./ता.वृ./16 नित्यानन्दैकस्वभावेन स्वयं प्राप्यत्वात् कर्मकारकं भवति।=नित्यानन्दरूप एक स्वभाव के द्वारा स्वयं प्राप्य होने से (आत्मा ही) कर्म कारक होता है। - क्रिया सामान्य निर्देश
स.सि./6/1/318/4 कर्म क्रिया इत्यनर्थान्तरम्।=कर्म और क्रिया एकार्थवाची नाम हैं।
स.सा./आ./86/क. 51 या परिणति: क्रिया। =(परिणमित होनेवाले कर्ता रूप द्रव्यकी) जो परिणति है सो उसकी क्रिया है।
प्र.सा./त.प्र./122 यश्च तस्य तथाविधपरिणाम: सा जीवमय्येव क्रिया सर्वद्रव्याणां परिणामलक्षणं क्रियाया आत्ममयत्वाभ्युपगमात्।=जो उस (आत्मा) का तथाविध परिणाम है वह जीवमयी ही क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्यों की परिणाम लक्षण क्रिया आत्ममयता से स्वीकार की गयी है।
प्र.सा./त.प्र./1962 क्रिया हि तावच्चेतनस्य पूर्वोत्तरदशाविशिष्टचैतन्यपरिणामात्मिका। =(आत्माकी) क्रिया चेतन की पूर्वोत्तर दशा से विशिष्ट चैतन्य परिणाम स्वरूप होती है। - कर्म कारक के प्राप्य विकार्य आदि तीन भेदों का निर्देश
रा.वा./6/1/4/504/17 तत्त्रिविधं निर्वर्त्यं विकार्यं प्राप्यं चेति। तत् त्रितयमपि कर्तुरन्यत्।=यह कर्म कारक निर्वर्त्य, विकार्य और प्राप्य तीन प्रकार का होता है। ये तीनों कर्म कर्ता से भिन्न होते हैं।
स.सा./आ./76 यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं पुद्गलपरिणामं कर्मपुद्गलद्रव्येण स्वयमन्तर्व्यापकेन भूत्वादिमध्यान्तेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं...। =प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा, व्याप्यलक्षणवाला पुद्गल का परिणाम स्वरूप कर्म (कर्ता का कार्य) उसमें पुद्गल द्रव्य स्वयं अन्तर्व्यापक होकर, आदि मध्य और अन्त में व्याप्त होकर उसे ग्रहण करता हुआ, उस रूप परिणमन करता हुआ, और उस रूप उत्पन्न होता हुआ, उस पुद्गल परिणाम को करता है। भावार्थ पं. जयचन्द्र―सामान्यतया कर्ता का कर्म तीन प्रकार का कहा गया है – निर्वर्त्य, विकार्य और प्राप्य। कर्ता के द्वारा जो पहिले न हो ऐसा नवीन कुछ उत्पन्न किया जाये सो कर्ता का निर्वर्त्य कर्म है (जैसे घट बनाना) कर्ता के द्वारा, पदार्थ में विकार (परिवर्तन) करके जो कुछ किया जाये वह कर्ता का विकार्य कार्य है (जैसे दूध से दही बनाना) कर्ता जो नया उत्पन्न नहीं करता, तथा विकार करके भी नहीं करता, मात्र जिसे प्राप्त करता है (अर्थात् स्वयं उसकी पर्याय) वह कर्ता का प्राप्य कर्म है।
टिप्पणी–अन्य प्रकार से भी इन तीनों का अर्थ भासित होता है–द्रव्य की पर्याय दो प्रकार की होती है –स्वाभाविक व विभाविक। विभाविक भी दो प्रकार की होती है–प्रदेशात्म द्रव्यपर्याय तथा भावात्मक गुणपर्याय। स्वाभाविक एक ही प्रकार की होती है–षट्गुण हानिवृद्धिरूपा तहाँ प्रदेशात्म विभावद्रप्स पर्याय द्रव्य का निर्वर्त्य कर्म है, क्योंकि निर्वर्तना का व्यवहार पदार्थ के आकार व संस्थान आदि बनाने में होता है जैसे घट बनाना। विभाव गुण पर्याय द्रव्य का विकार्य कर्म है, क्योंकि अन्य द्रव्य के साथ संयोग होनेपर गुण जो अपने स्वभाव से च्युत हो जाते हैं उसे ही विकार कहा गया है –जैसे दूध से दही बनाना। और स्वभाव पर्याय को प्राप्य कर्म कहते हैं, क्योंकि प्रतिक्षण वे स्वत: द्रव्य को प्राप्त होती रहती हैं। न उनमें कुछ प्रदेशात्मक परिस्पन्दन की आवश्यकता होती है और न अन्य द्रव्यों के संयोग की अपेक्षा होती है।
- निश्चय कर्ता कारक निर्देश
- निश्चय व व्यवहार कर्ता कर्म भाव निर्देश
- निश्चय से कर्ता कर्म व अधिकरण में अभेद
स.सा./आ./85 इह खलु क्रिया हि तावदखिलापि परिणामलक्षणतया न परिणामतोऽस्ति भिन्ना, परिणामोऽपि परिणामपरिणामिनोरभिन्नवस्तुत्वात्परिणामिनो न भिन्नस्ततो या काचन क्रिया किल सकलापि सा क्रियावती न भिन्नेति।=जगत् में जो क्रिया है सो सब ही परिणामस्वरूप होने से वास्तव में परिणाम से भिन्न नहीं है। परिणाम भी परिणामी से भिन्न नहीं है, क्योंकि, परिणाम और परिणामी अभिन्न वस्तु हैं, इसलिए जो कुछ क्रिया है वह सब ही क्रियावान से भिन्न नहीं है।
प्र.सा./त.प्र./96 यथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा कार्तस्वरात् पृथगनुपलभ्यमानै: कर्तृकरणाधिकरणरूपेण पीततादिगुणानां कुण्डलादिपर्यायाणां च स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य यदस्तित्वं कार्तस्वरस्य स स्वभाव: तथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा द्रव्यात्पृथगनुपलभ्यमानै: कर्तृकरणाधिकरणरूपेण गुणानां पर्यायाणां च स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य...यदस्तित्वं द्रव्यस्य स स्वभाव:।=जैसे द्रव्य क्षेत्र काल या भाव से स्वर्ण से जो पृथक् दिखाई नहीं देते; कर्ता-करण अधिकरण रूप से पीतत्वादि गुणों के और कुण्डलादि पर्यायों के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान सुवर्ण का जो अस्तित्व है वह उसका स्वभाव है; इसी प्रकार द्रव्यसे, क्षेत्रसे, काल से या भाव से जो द्रव्य से पृथक् दिखाई नहीं देते, कर्ताकरण अधिकरण रूप से गुणों के और पर्यायों के स्वरूप को धारण करके प्रवर्तमान जो द्रव्य का अस्तित्व है। वह स्वभाव है।
प्र.सा./त.प्र./113 तत: परिणामान्यत्वेन निश्चीयते पर्यायस्वरूपकर्तृकरणाधिकरणभूतत्वेन पर्यायेभ्योऽपृथग्भूतस्य द्रव्यस्यासदुत्पाद:।=इसलिए पर्यायों के (व्यतिरेकी रूप) अन्यता के द्वारा द्रव्य का – जो कि पर्यायों के स्वरूप का कर्ता, करण और अधिकरण होने से अपृथक् है, असत् उत्पाद निश्चित होता है। - निश्चय से कर्ता कर्म व करण में अभेद
प्र.सा./मू./126 कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो। परिणमदि णेव अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्धं।126।=यदि श्रमण ‘कर्ता, कर्म, करण और फल आत्मा है’ ऐसा निश्चय वाला होता हुआ, अन्य रूप परिणमित नहीं ही हो तो वह शुद्ध आत्मा को उपलब्ध करता है।
प्र.सा./त.प्र./15 समस्तज्ञेयान्तर्वर्तिज्ञानस्वभावमात्मानमात्मा शुद्धोपयोगप्रसादादेवासादयति।=समस्त ज्ञेयों के भीतर प्रवेश को प्राप्त ज्ञान जिसका स्वभाव है, ऐसे आत्मा को आत्मा शुद्धोपयोग के ही (आत्मा के ही) प्रसाद से प्राप्त करता है।
प्र.सा./त.प्र./30 संवेदनमप्यात्मनोऽभिन्नत्वात् कर्त्रंशेनात्मतामापन्नं करणांशेन ज्ञानतामापन्नेन करणभूतानामर्थानां कार्यभूतान् समस्तज्ञेयाकारानभिव्याप्य वर्तमानं कार्यकारणत्वेनोपचर्यं ज्ञानमर्थानभिभूय वर्तत इत्युच्यमानं न विप्रतिषिध्यते।=संवेदन (शुद्धोपयोग) भी आत्मा से अभिन्न होने से कर्ता अंश से आत्मता को प्राप्त होता हुआ ज्ञानरूप करण अंश के द्वारा कारणभूत पदार्थों के कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारों में व्याप्त हुआ वर्तता है, इसलिए कार्य में कारण का (ज्ञेयाकारों में पदार्थोंका) उपचार करके यह कहने में विरोध नहीं आता कि ज्ञान पदार्थों में व्याप्त होकर वर्तता है।
स.सा./आ./294 आत्मबन्धयोर्द्विधाकरणे कार्ये कर्तुरात्मन: करणमीमांसायां निश्चयत: स्वतो भिन्नकरणासंभवात् भगवती प्रज्ञैव छेदनात्मकं करणं।=आत्मा और बन्ध के द्विधा करनेरूप कार्य में कर्ता जो आत्मा उसकी करण सम्बन्धी मीमांसा करनेपर, निश्चयत: अपने से भिन्न करण का अभाव होने से भगवती प्रज्ञा ही छेदनात्मक करण है। - निश्चय से कर्ता व करण में अभेद
रा.वा./1/1/5/4/26 कर्तृकरणयोरन्यत्वादन्यत्वमात्मज्ञानादीनां परश्वादिवदिति चेत्; न; तत्परिणामादग्निवत्।=प्रश्न–कर्ता व करण तो देवदत्त व परशु की भाँति अन्य होते हैं। इसी प्रकार आत्मा व ज्ञान आदि में अन्यत्व सिद्ध होता है। उत्तर–नहीं, जैसे अग्नि से उसका परिणाम अभिन्न है उसी प्रकार आत्मा से उसका परिणाम जो ज्ञानादि वे भी अभिन्न हैं।
प्र.सा./त.प्र./35 अपृथग्भूतकर्तृकरणत्वशक्तिपारमैश्वर्ययोगित्वादात्मनो य एव स्वयमेव जानाति स एव ज्ञानमन्तर्लीनसाधकतयोष्णत्वशक्ते: स्वतन्त्रस्य जातवेदसो दहनक्रियाप्रसिद्धेरुष्णव्यपदेशवत्। =आत्मा अपृथग्भूत कर्तृत्व और करणत्व की शक्तिरूप पारमैश्वर्यवान है, इसलिए जो स्वयमेव जानता है (ज्ञायक है) वही ज्ञान है। जैसे –जिसमें साधकतम (करणरूप) उष्णत्व शक्ति अन्तर्लीन है ऐसी स्वतन्त्र अग्नि के दहनक्रिया की प्रसिद्धि होने से उष्णता कही जाती है। - निश्चय से वस्तु का परिणामी परिणाम सम्बन्ध ही उसका कर्ता कर्म भाव है
रा.वा./2/7/13/112/3 कर्तृत्वमपि साधारणं क्रियानिष्पत्तौ सर्वेषां स्वातन्त्र्यात्। ननु च जीवपुद्गलानां क्रियापरिणामयुक्तानां कर्तृत्वं युक्तम्, धर्मादीनां कथम्।तेषामपि अस्त्यादिक्रियाविषयमस्ति कर्तृत्वम्।=कर्तृत्व नाम का धर्म भी साधारण है क्योंकि क्रिया की निष्पत्ति में सभी द्रव्य स्वतन्त्र हैं। प्रश्न–क्रिया परिणाम युक्त होने के कारण जीव व पुद्गल में कर्तृत्व धर्म कहना युक्त है, परन्तु धर्मादि द्रव्यों में वह कैसे घटित होता है ? उत्तर–उनमें भी अस्ति आदि क्रियाओं का (अर्थात् षट्गुणहानि वृद्धिरूप उत्पाद व्यय का) अस्तित्व है ही।
स.सा./आ./86/क. 51 य: परिणमति स कर्ता य: परिणामो भवेत्तु तत्कर्म। या परिणति: क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया।51।=जो परिणमित होता है सो कर्ता है, (परिणमित होने वाले का) जो परिणाम है सो कर्म है और जो परिणति है सो क्रिया है। ये तीनों वस्तुरूप से भिन्न नहीं हैं।
स.सा./आ. 311 सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामै: सह तादात्म्यात् कङ्कणादिपरिणामै: काञ्चनवत्।...सर्वद्रव्याणां द्रव्यान्तरेण सहोत्पाद्योत्पादकभावाभावात्-कर्तृकर्मणोरनन्यापेक्षसिद्धत्वात् जीवस्याजीवकर्तृत्वं न सिंध्यति।=जैसे सुवर्ण का कंकण आदि पर्यायों के साथ तादात्म्य है उसी प्रकार सर्व द्रव्यों का अपने परिणामों के साथ तादात्म्य है। क्योंकि सर्व द्रव्यों का अन्य द्रव्य के साथ उत्पाद्य-उत्पादक भाव का अभाव है, इसलिए कर्ता कर्म की अन्य निरपेक्षता सिद्ध होने से जीव के अजीव का कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता है।
स.सा./आ./349-355 तत: परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चय:।=इसलिए परिणाम-परिणामीभाव से वही (एक ही द्रव्यमें) कर्ताकर्मपन का और भोक्तृभोग्यपन का निश्चय है।
पं.का./ता.वृ./27/चूलिका/57।17 अशुद्धनिश्चयेन...शुभाशुभपरिणामानां परिणमनमेव कर्तृत्वं सर्वत्र ज्ञातव्यमिति। पुद्गलादीनां पञ्चद्रव्याणां च स्वकीयस्वकीयपरिणामेन परिणमनमेव कर्तृत्वं। वस्तुवृत्त्या पुन: पुण्यपापादिरूपेणाकर्तृत्वमेव।=अशुद्ध निश्चय नय से शुभाशुभ परिणामों का परिणमन ही कर्तापना है। सर्वत्र ऐसा ही जानना चाहिए। पुद्गलादि पाँच द्रव्यों के भी अपने-अपने परिणामों के द्वारा परिणमन करना ही कर्तृत्व है। वस्तुवृत्ति से अर्थात् शुद्ध निश्चय नय से तो पुण्यपाप का अकर्तापना ही है। (द्र.सं./अधिकार 2 की चूलिका/78/9)।
पं.ध./उ./152 तद्यथा नव तत्त्वानि केवलं जीवपुद्गलौ। स्वद्रव्याद्यैरनन्यत्वाद्वस्तुत: कर्तृकर्मणो:।152।=ये नव तत्त्व केवल जीव व पुद्गल रूप हैं, क्योंकि वास्तव में अपने द्रव्य क्षेत्रादि के द्वारा कर्ता तथा कर्म में अनन्यत्व होता है। - एक ही वस्तु में कर्ता व कर्म दोनों बातें कैसे हो सकती है ?
स.सि./1/1/6/2 नन्वेवं स एव कर्ता स एव करणमित्यायातम्। तच्च विरुद्धम्। सत्यं स्वपरिणामपरिणामिनोर्भेदविवक्षायां तथाभिधानात्। यथाग्निर्दहतीन्धनं दाहपरिणामेन।=प्रश्न–दर्शन आदि शब्दों की इसप्रकार व्युत्पत्ति करनेपर कर्त्ता और करण एक हो जाता है। किन्तु यह बात विरुद्ध है ?= उत्तर–यद्यपि यह कहना सही है, तथापि स्वपरिणाम और परिणामी में भेद की विवक्षा होनेपर उक्त प्रकार से कथन किया गया है। जैसे ‘अग्नि दाह परिणाम के द्वारा ईंधन को जलाती है’। यह कथन भेद-विवक्षा के होने पर बनता है।
रा.वा./1/29/2/88/30 द्रव्यस्य पर्यायाणां च कथंचिद्भेदे सति उक्त: कर्तृकर्मव्यपदेश: सिद्ध्यति।=एक ही द्रव्य स्वयं कर्ता भी होता है और कर्म भी, क्योंकि उसका अपनी पर्यायों के साथ कथंचित् भेद है।
श्लो.वा. 2/1/6/28-29/378/3 ननु यदेवार्थस्य ज्ञानक्रियायां ज्ञानं करणं सैव ज्ञानक्रिया, तत्र कथं क्रियाकरणव्यवहार: प्रातीतिक: स्याद्विरोधादिति चेन्न, कथंचिद्भेदात्। प्रमातुरात्मनो हि वस्तुपरिच्छित्तौ साधकतमत्वेन व्यापृतं रूपं करणम्, निर्व्यापारं तु क्रियोच्यते, स्वातन्त्र्येण पुनर्व्याप्रियमाण: कर्तात्मेति निर्णीतप्रायम्। तेन ज्ञानात्मक एवात्मा ज्ञानात्मनार्थं जानातीति कर्तृकरणक्रियाविकल्प: प्रतीतिसिद्ध एव। तद्वत्तत्र कर्मव्यवहारोऽपि ज्ञानात्मात्मानमात्मना जानीतीति घटते। सर्वथा कर्तृकरणकर्मक्रियानामभेदानभ्युपगमात्, तासां कर्तृत्वादिशक्तिनिमित्तत्वात् कथंचिद्भेदसिद्धे:।=प्रश्न–जो ही अर्थ की ज्ञान क्रिया करने में करण है वही तो ज्ञान क्रिया है। फिर उसमें क्रियापने और करणपने का व्यवहार कैसे प्रतीत हो सकता है। इसमें तो विरोध दीख रहा है ? उत्तर–नहीं, इन दोनों में कथंचित् भेद है। प्रमिति को करनेवाले आत्मा के वस्तु की ज्ञप्ति करने में साधकतमरूप से व्यापृत को करणज्ञान कहते हैं।और व्यापार रहित शुद्ध ज्ञानरूप धात्वर्थ को ज्ञप्ति क्रिया कहते हैं। स्वतन्त्रता से व्यापार करने में लगा हुआ आत्मा कर्ता है। इस प्रकार ज्ञानात्मक ही आत्मा अपने ज्ञानस्वभाव करके अर्थ को ज्ञानस्वरूपपने जानता है। इस प्रकार कर्ता कर्म और क्रिया के आकारों का विकल्प करना प्रतीतियों से सिद्ध ही है। तिनही के समान उस ज्ञान में कर्मपने का व्यवहार भी प्रतीतिसिद्ध समझ लेना चाहिए। सर्वथा कर्ता करण कर्म और क्रियापन का अभेद हम स्वीकार नहीं करते हैं, क्योंकि उनका न्यारी-न्यारी कर्तृत्वादि शक्तियों के निमित्त से किसी अपेक्षा भेद भी सिद्ध हो रहा है।
ध.13/6,3,9/1 कधमेक्कम्हि कम्म-कत्तारभावो जुज्जदे। ण सुज्जेदुखज्जोअ-जलण-मणि-णक्खतादिसु उभयभाबुवलंभादो।=प्रश्न–एक ही स्पर्श शब्द में कर्मत्व व कर्तृत्व दोनों कैसे बन सकते हैं ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, लोक में सूर्य, चन्द्र, खद्योत, अग्नि, मणि और नक्षत्र आदि ऐसे अनेक पदार्थ हैं जिनमें उभय भाव देखा है। उसी प्रकार प्रकृत में जानना चाहिए। - व्यवहार से भिन्न वस्तुओं में भी कर्ता कर्म व्यपदेश किया जाता है
स.सा./मू./98 ववहारेण दु आदा करेदि घडपडरथाणि दव्वाणि। करणाणि य कम्माणि य णोकम्माणीहि विविहाणि।98।=व्यवहार से अर्थात् लोक में आत्मा घट, पट, रथ इत्यादि वस्तुओं को, इन्द्रियों को, अनेक प्रकार के क्रोधादि द्रव्य कर्मों को और शरीरादि नोकर्मों को करता है। (द्र.सं./मू./8)।
न.च.वृ./124-125 देहजुदो सो भुत्ता भुत्ता सो चेव होइ इह कत्ता। कत्ता पुण कम्मजुदो जीओ संसारिओ भणिओ।124। कम्मं दुविहवियप्पं भावसहावं च दव्वसब्भावं। भावे सो णिच्छयदो कत्ता ववहारदो दव्वे।125। =देहधारी जीव भोक्ता होता है और जो भोक्ता होता है वही कर्ता भी होता है। जो कर्ता होता है वह कर्म संयुक्त होता है। ऐसे जीव को संसारी कहा जाता है।124। वह कर्म दो प्रकार का है – भाव-कर्म और द्रव्यकर्म। निश्चय से वह भावकर्म का कर्ता है और व्यवहार से द्रव्यकर्मका/125/(द्र.सं./मू./8) (और भी देखो कारण/III/5)।
प्र.सा./त.प्र./30 संवेदनमपि...कारणभूतानामर्थानां कार्यभूतान् समस्तज्ञेयाकारानभिव्याप्य वर्तमानं कार्यकारणत्वेनोपचर्य ज्ञानमर्थानभिभूय वर्तत इत्युच्यमानं न विप्रतिषिध्यते।=संवेदन (ज्ञान) भी कारणभूत पदार्थों के कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारों में व्याप्त हुआ वर्तता है, इसलिए कार्य में कारण का उपचार करके यह कहने में विरोध नहीं आता कि ज्ञान पदार्थों में व्याप्त होकर वर्तता है।
पं.का./त.प्र./27/58 व्यवहारेणात्मपरिणामनिमित्तपौद्गलिककर्मणां कर्तृत्वात्कर्ता।=व्यवहार से जीव आत्मपरिणामों के निमित्त से होनेवाले कर्मों को करने से कर्ता है।
- निश्चय से कर्ता कर्म व अधिकरण में अभेद
- निश्चय व्यवहार कर्ता कर्म भाव की कथंचित् सत्यार्थता असत्यार्थता
- वास्तव में व्याप्यव्यापकरूप ही कर्ता कर्म भाव अध्यात्म में इष्ट है
स.सा./आ./75/क79 व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृकर्मस्थिति:।=व्याप्यव्यापकभाव के अभाव में कर्ता कर्म की स्थिति कैसी ?
प्र.सा./त.प्र./185 यो हि यस्य परिणामयिता दृष्ट: स न तदुपादानहानशून्यो दृष्ट:, यथाग्निरय:पिण्डस्य।=जो जिसका परिणमन करनेवाला देखा जाता है, वह उसके ग्रहण त्याग से रहित नहीं देखा जाता है। जैसे–अग्नि लोहे के गोले में ग्रहण त्याग रहित होती है। (और भी देखें कर्ता - 2.4) - निश्चय से प्रत्येक पदार्थ अपने ही परिणाम का कर्ता है दूसरे का नहीं―
प्र.सा./मू./184 कुव्वं सभावमादा हवदि कित्ता सगस्स भावस्स। पोग्गलदव्वमयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाण।184।=अपने भाव को करता हुआ आत्मा वास्तव में अपने भाव का कर्ता है, परन्तु पुद्गलद्रव्यमय सर्व भावों का कर्ता नहीं है।
प्र.सा./त.प्र./122 ततस्तस्य परमार्थादात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्म ण एव कर्ता, न तु पुद्गलपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण:।...परमार्थात् पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य द्रव्यकर्मण एव कर्ता न तु आत्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मण:।=इसलिए (अर्थात् अपने परिणामोंरूप कर्म से अभिन्न होने के कारण) आत्मा परमार्थत: अपने परिणामस्वरूप भावकर्म का ही कर्ता है, किन्तु पुद्गलपरिणामात्मक द्रव्य कर्म का नहीं। इसी प्रकार परमार्थ से पुद्गल अपने परिणामस्वरूप द्रव्यकर्म का ही कर्ता है किन्तु आत्मा के परिणामस्वरूप भावकर्म का नहीं।
स./सा./आ./86 यथा किल कुलाल: कलशसंभवानुकूलमात्मव्यापारपरिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्तम्...क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभाति, न पुन: कलशकरणाहंकारनिर्भरोऽपि...कलश-परिणामं मृत्तिकाया: अव्यतिरिक्तं...क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभाति; तथात्मापि पुद्गलकर्मपरिणामानुकूलमज्ञानादात्मपरिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्तम्...क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभातु, मा पुन: पुद्गलपरिणामकरणाहंकारनिर्भरोऽपि स्वपरिणामानुरूपं पुद्गलस्य परिणामं पुद्गलादव्यतिरिक्तं क्रियमाणं कुर्वाण: प्रतिभातु।=जैसे कुम्हार घड़े की उत्पत्ति में अनुकूल अपने व्यापार परिणाम को जो कि अपने से अभिन्न है, करता हुआ प्रतिभासित होता है, परन्तु घड़ा बनाने के अहंकार से भरा हुआ होने पर भी अपने व्यापार के अनुरूप मिट्टी से अभिन्न मिट्टी के घट परिणाम को करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता; उसी प्रकार आत्मा भी अज्ञान के कारण पुद्गल कर्मरूप परिणाम के अनुकूल, अपने से अभिन्न, अपने परिणाम को करता हुआ प्रतिभासित हो, परन्तु पुद्गल के परिणाम को करने के अहंकार से भरा हुआ होते हुए भी, अपने परिणाम के अनुरूप पुद्गल के परिणाम को जो कि पुद्गल से अभिन्न है, करता हुआ प्रतिभासित न हो। (स.सा./आ./82)
स.सा./आ./86/क 53-54 नोभौ परिणामत: खलु परिणामो नोभयो: प्रजायेत। उभयोर्न परिणति: स्याद्यदनेकमनेकमेव सदा।53। नैकस्य हि कर्तारौ द्वौ स्तो द्वे कर्मणी न चैकस्य। नैकस्य च क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात्।54।=जो दो वस्तुएँ हैं वे सर्वथा भिन्न ही हैं, प्रदेश भेद वाली ही हैं; दोनों एक होकर परिणमित नहीं होतीं, एक परिणाम को उत्पन्न नहीं करतीं और उनकी एक क्रिया नहीं होती, ऐसा नियम है। यदि दो द्रव्य एक होकर परिणमित हों तो सर्व द्रव्यों का लोप हो जाये।53। एक द्रव्य के दो कर्ता नहीं होते और एक द्रव्य के दो कर्म नहीं होते, तथा एक द्रव्य की दो क्रियाएँ नहीं होतीं, क्योंकि एक द्रव्य अनेक द्रव्यरूप नहीं होता।54। - एक द्रव्य दूसरे के परिणामों का कर्ता नहीं हो सकता
स.सा./मू./103 जो जम्हि गुणे दव्वे सो अण्णम्हि दु ण संकमदि दव्वे। सो अण्णमसंकंतो कह तं परिणामए दव्वं।103।=जो वस्तु जिस द्रव्य में और गुण में वर्तती है वह अन्य द्रव्य में तथा गुण में संक्रमण को प्राप्त नहीं होती (बदलकर उसमें नहीं मिल जाती)। और अन्य रूप से संक्रमण को प्राप्त न होती हुई वह अन्य वस्तु को कैसे परिणमन करा सकती है।103। (स.सा./आ/104)
क.पा./1/283/318/4 तिण्हं सद्दणयाणं...ण कारणस्स होदि; सगसरूवादो उप्पण्णस्स अण्णेहिंतो उप्पत्तिविरोहादो।=तीनों शब्द नयों की अपेक्षा कषायरूप कार्य कारण का नहीं होता, अर्थात् कार्यरूप भाव-कषाय के स्वामी उसके कारण जीवद्रव्य और कर्मद्रव्य कहे जा सकते हैं, सो भी बात नहीं है, क्योंकि कोई भी कार्य अपने स्वरूप से उत्पन्न होता है। इसलिए उसकी अन्य से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है।
यो.सा./अ./2/18 पदार्थानां निमग्नानां स्वरूपं परमार्थत:। करोति कोऽपि, कस्यापि न किंचन कदाचन।18।
यो.सा./अ./3/16 नान्यद्रव्यपरिणाममन्यद्रव्यं प्रपद्यते। स्वान्यद्रव्यव्यवस्थेयं परस्य घटते कथम्।16।=संसार में समस्त पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में मग्न हैं। निश्चयनय से कोई भी कभी कुछ भी उनके स्वरूप को नवीन नहीं बना सकता।18। जो परिणाम एक द्रव्य का है वह दूसरे द्रव्य का परिणाम नहीं हो सकता। अन्यथा संकर दोष आ जाने से निजद्रव्य और अन्य द्रव्य की व्यवस्था ही न बन सकेगी।16।
स.सा./आ./104 यथा...कलशकार:, द्रव्यान्तरसंक्रममन्तरेणान्यस्य वस्तुन: परिणमयितुमशक्यत्वात् तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानो न तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभाति तथा पुद्गलमयज्ञानावरणादौ कर्मणि...वात्मा न खल्वाधत्ते-द्रव्यान्तरसंक्रममन्तरेणान्यस्य वस्तुन: परिणमयितुमशक्यत्वादुभयं तु तस्मिन्ननादधान: कथं नु तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभायात्। तत: स्थितं खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता।=जैसे कुम्हार द्रव्यान्तर रूप में संक्रमण प्राप्त किये बिना अन्य वस्तु को परिणमन करना अशक्य होने से अपने द्रव्य और गुण दोनों को उस घटरूपी कर्म में न डालता हुआ परमार्थ से उसका कर्ता प्रतिभासित नहीं होता। इसीप्रकार पुद्गलमयी ज्ञानावरणादि कर्मोंका, द्रव्यान्तररूप में संक्रमण किये बिना अन्य वस्तु को परिणमित करना अशक्य होने से अपने द्रव्य और गुण दोनों को उन ज्ञानावरणादि कर्मों में न डालता हुआ वह आत्मा परमार्थ से उसका कर्ता कैसे हो सकता है ? इसलिए आत्मा पुद्गल कर्मों का अकर्ता सिद्ध हुआ (स.सा./आ./75, 83 )
स.सा./आ./372 एवं च सति मृत्तिकाया,स्वस्वभावानतिक्रमान्न कुम्भकार: कुम्भस्योत्पादक एव; मृत्तिकैव कुम्भकारस्वभावमस्पृशन्ती स्वस्वभावेन कुम्भभावेनोत्पद्यते।..एवं च सति सर्वद्रव्याणां न निमित्तभूतद्रव्यान्तराणि स्वपरिणामस्योत्पादकान्येव; सर्वद्रव्याण्येव निमित्तभूतद्रव्यान्तरस्वभावमस्पृशन्ति स्वस्वभावेन स्वपरिणामभावेनोत्पद्यन्ते। अतो न परद्रव्यं जीवस्य रागादीनामुत्पादकमुत्पश्यामो यस्मै कुप्याम:। =मिट्टी अपने स्वभाव को उल्लंघन नहीं करती इसलिए कुम्हार घड़े का उत्पादक है ही नहीं; मिट्टी ही कुम्हार के स्वभाव को स्पर्श न करती हुई अपने स्वभाव से कुम्भभाव से उत्पन्न हुई। इसीप्रकार सर्वद्रव्यों के निमित्तभूत अन्यद्रव्य अपने परिणामों के (अर्थात् उन सर्व द्रव्यों के परिणामोंके) उत्पादक हैं ही नहीं; सर्वद्रव्य ही निमित्तभूत अन्यद्रव्य के स्वभाव को स्पर्श न करते हुए अपने स्वभाव से अपने परिणामभाव से उत्पन्न होते हैं। इसलिए हम जीव के रागादि का उत्पादक परद्रव्य को नहीं देखते, कि जिस पर कोप करें।
स.सा./आ./262 य एव हिनस्मीत्यहकाररसनिर्भरो हिंसायामध्यवसाय: स एव निश्चयतस्तस्य बन्धहेतु:, निश्चयेन परभावस्य प्राणव्यपरोपस्य परेण कर्तुमशक्यत्वात्।= ‘मैं मारता हूँ’ ऐसा अहंकार रस से भरा हुआ हिंसा का अध्यवसाय ही निश्चय से उसके बन्ध का कारण है, क्योंकि निश्चय से पर का भाव जो प्राणों का व्यपरोप वह दूसरे से किया जाना अशक्य है।
स.सा./आ./355/क 213 वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो, येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत्। निश्चयोऽयमपरो परस्य क:, किं करोति हि बहिर्लुठन्नपि।213।=इस लोक में एक वस्तु अन्य वस्तु की नहीं है, इसलिए वास्तव में वस्तु वस्तु ही है – यह निश्चय है। ऐसा होने से कोईअन्य वस्तु अन्य वस्तु के बाहर लोटती हुई भी उसका क्या कर सकती है।
स.सा./आ./78-79 प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य सुखदु:खादिरूपं पुद्गलकर्मफलं जानतोऽपि ज्ञानिन: पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभाव:।78।...जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाजानत: पुद्गलद्रव्यस्य जीवेन सह न कर्तृकर्मभाव:।79।=प्राप्य विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्य लक्षणवाला परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करनेवाले उस ज्ञानीका, पुद्गलकर्म के फल को जानते हुए भी कर्ताकर्मभाव नहीं है।78। (और इसीप्रकार) अपने परिणामको, जीव के परिणाम को तथा अपने परिणाम के फल को नहीं जानते हुए भी पुद्गल द्रव्य का जीव के साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है।79।
स.सा./आ./323/क 200 नास्ति सर्वोऽपि संबन्ध: परद्रव्यात्मतत्त्वयो:। कर्तृकर्मत्वसंबन्धाभावे तत्कर्तृता कुत:।200।=परद्रव्य और आत्मद्रव्य का (कोई भी) सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार कर्तृकर्मत्व के सम्बन्ध का अभाव होने से आत्मा के परद्रव्य का कर्तृत्व कहाँ से हो सकता है ?
पं./का./त.प्र./62 कर्म खलु...स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानं न कारकान्तरमपेक्षते। एवं जीवोऽपि...स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकान्तरमपेक्षते। अत: कर्मण: कर्तुर्नास्ति जीव: कर्ता, जीवस्य कर्तुर्नास्ति कर्मकर्तृनिश्चयेनेति।=कर्म वास्तव में षट्कारकी रूप से वर्तता हुआ अन्य कारक की अपेक्षा नहीं रखता। उसी प्रकार जीव भी स्वयमेव षट्कारक रूप से वर्तता हुआ अन्य कारक की अपेक्षा नहीं रखता। इसलिए निश्चय से कर्मरूप कर्ता को जीवकर्ता नहीं है और जीवरूप कर्ता को कर्मकर्ता नहीं है। - एक द्रव्य दूसरे को निमित्त हो सकता है पर कर्ता नहीं
पं.का./मू./60 भावो कम्मणिमित्तो कम्मं पुण भवकारणं भवदि। ण दु तेसिं खलु कत्ताण विणा भूदा दु कत्तारं।60। =जीवभाव का कर्म निमित्त है और कर्म का जीव भाव निमित्त है। परन्तु वास्तव में एक दूसरे के कर्ता नहीं हैं। कर्ता के बिना होते हों ऐसा भी नहीं है। (क्योंकि आत्मा स्वयं अपने भाव का कर्ता है और पुद्गल कर्म स्वयं अपने भाव का 61-62)।
गो.जी./मू./570/1015/1 ण य परिणमदि सयं सो ण या परिणामेइ अण्णमण्णेहिं। विविहपरिणामियाणं हवदि हु कालो सयं हेदू।570।=काल द्रव्य स्वयं अन्य द्रव्य रूप परिणमन करता नहीं, न ही अन्य द्रव्य को अपने रूप परिणमाता है। नाना प्रकार परिणामों रूप से द्रव्य जब स्वयं परिणमन करते हैं, तिनकौ हेतु होता है अर्थात् उदासीनरूप से निमित्त मात्र होता है।
स.सा./आ./82 जीवपुद्गलयो: परस्पर व्याप्यव्यापकभावाभावाज्जीवस्य पुद्गलपरिणामानां पुद्गलकर्मणापि जीवपरिणामानां कर्तृकर्मत्वासिद्धौ निमित्तनैमित्तिकभावमात्रस्याप्रतिषिद्धत्वादितरेतरनिमित्तमात्रीभावेनैव द्वयोरपि परिणाम:।=जीव और पुद्गल में परस्पर व्याप्यव्यापकभाव का अभाव होने से जीव को पुद्गल परिणामों के साथ और पुद्गल कर्म को जीव परिणामों के साथ, कर्ताकर्मपने की असिद्धि होनेसे, मात्र निमित्तनैमित्तिकभाव का निषेध न होनेसे, परस्पर निमित्तमात्र होने से ही दोनों के परिणाम (होता है)।
पं.ध./पू./576 इदमत्र समाधानं कर्ता य: कोऽपि स: स्वभावस्य। परभावस्य न कर्ता भोक्ता वा तन्निमित्तमात्रेऽपि।=जो कोई भी कर्ता है वह अपने स्वभाव का ही कर्ता है किन्तु परभाव में निमित्त होने पर भी, परभाव का न कर्ता है और न भोक्ता।
पं.ध./उ./1072-1073 अन्तर्दृष्ट्या कषायाणां कर्मणां च परस्परम्। निमित्तनैमित्तिको भाव: स्यान्न स्याज्जीवकर्मणो:।1072। यतस्तत्र स्वयं जीवे निमित्ते सति कर्मणाम्। नित्या स्यात्कर्तृंता चेति न्यायान्मोक्षो न कस्यचित्।1073।=अन्तर्दृष्टि से कषायों का और कर्मों का परस्पर में निमित्तनैमित्तिकभाव है किन्तु जीव (द्रव्य) तथा कर्म का नहीं है।1072। क्योंकि उनमें से जीव को कर्मों का निमित्त मानने पर जीव में सदैव ही कर्तृत्व का प्रसंग आवेगा और फिर ऐसा होने पर कभी भी किसी जीव को मोक्ष नहीं होगा।1073। - निमित्त भी द्रव्यरूप से तो कर्ता है ही नहीं पर्याय रूप से हो तो हो
स. सा./आ./100 यत्किल घटादि क्रोधादि वा परद्रव्यात्मकं कर्म तदयमात्मा तन्मयत्वानुषङ्गाद् व्याप्यव्यापकभावेन तावन्न करोति, नित्यकर्तृत्वानुषङ्गान्निमित्तनैमित्तिकभावेनापि न तत्कुर्यात्। अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारौ। = वास्तव में जो घटादिक तथा क्रोधादिक परद्रव्य स्वरूप कर्म हैं उन्हें आत्मा (द्रव्य) व्याप्यव्यापकभाव से नहीं करता, क्योंकि यदि ऐसा करे तो तन्मयता का प्रसंग आ जावे, तथा वह निमित्त नैमित्तिक भाव से भी (उनको) नहीं करता; क्योंकि, यदि ऐसा करे तो नित्यकर्तृत्व (सर्व अवस्थाओं में कर्तृत्व होने का) प्रसंग आ जायेगा। अनित्य (जो सर्व अवस्थाओं में व्याप्त नहीं होते ऐसे) योग और उपयोग ही निमित्त रूप से उसके (परद्रव्यस्वरूप कर्म के) कर्ता हैं। (पं.ध./उ./1073)
प्र.सा./त.प्र./162 न चापि तस्य कारणद्वारेण कर्तृद्वारेण कर्तृप्रयोजकद्वारेण कर्त्रनुमन्तृद्वारेण वा शरीरस्य कर्ताहमस्मि, मम...अनेकपरमाणुपिण्डपरिणामात्मकशरीरकर्तृत्वस्य सर्वथा विरोधात्। = उस शरीर के कारण द्वारा या कर्ता के प्रयोजक द्वारा या कर्ता के अनुमोदक द्वारा शरीर का कर्ता मैं नहीं हूँ। क्योंकि मेरे अनेक परमाणु द्रव्यों के एक पिण्ड पर्यायरूप परिणामात्मक शरीर का कर्ता होने में सर्वथा विरोध है।
- निमित्त किसी के परिणामों के उत्पादक नहीं हैं
रा.वा./1/2/11/20/5 स्यादेतत्-स्वपरनिमित्त उत्पादो दृष्टो...; तन्न; किं कारणम्। उपकरणमात्रत्वात्। उपकरणमात्रं हि बाह्यसाधनम्। =प्रश्न—उत्पत्ति स्व व पर निमित्तों से होती देखी जाती है, जैसे कि मिट्टी व दण्डादि से घड़े की उत्पत्ति। उत्तर—नहीं, क्योंकि निमित्त तो उपकरण मात्र होते हैं अर्थात् केवल बाह्य साधन होते हैं। (अत: सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में आत्मपरिणमन ही मुख्य है निमित्त नहीं) स.सा./आ./372 एवं च सति सर्वद्रव्याणां न निमित्तभूतद्रव्यान्तराणि स्वपरिणामस्योत्पादकान्येव। =ऐसा होने पर, सब द्रव्यों के, निमित्तभूत अन्यद्रव्य अपने (अर्थात् उन सर्वद्रव्यों के) परिणामों के उत्पादक हैं ही नहीं।
प्र.सा./त.प्र./185 यो हि यस्य परिणमयिता दृष्ट: स न तदुत्पादहानशून्यो दृष्ट, यथाग्निरय:पिण्डस्य।... ततो न स पुद्गलानां कर्मभावेन परिणमयिता स्यात्।= जो जिसका परिणमन करानेवाला देखा जाता है वह उसके ग्रहण त्याग से रहित नहीं देखा जाता; जैसे अग्नि लोहे के गोले में ग्रहण त्याग से रहित है। इसलिए वह (आत्मा) पुद्गलों का कर्मभाव से परिणमित करने वाला नहीं है।
पं.ध./उ./354=355 अर्था: स्पर्शादय: स्वैरं ज्ञानमुत्पादयन्ति चेत्। घटादौ ज्ञानशून्ये च तत्किं नोत्पादयन्ति ते।354। अथ चेच्चेतने द्रव्ये ज्ञानस्योत्पादका: क्वचित्। चेतनत्वात्स्वयं तस्य किं तत्रोत्पादयन्ति वा।355।= यदि स्पर्शादिक विषय स्वतन्त्र बिना आत्मा के ज्ञान उत्पन्न करते होते तो वे ज्ञानशून्य घटादिकों में भी वह ज्ञान क्यों उत्पन्न नहीं करते हैं।354। और यदि यह कहा जाय कि चेतन द्रव्य में कहीं पर ये ज्ञान को उत्पन्न करते हैं, तो उस आत्मा के स्वयं चेतन होने के कारण, वहाँ वे नवीन क्या उत्पन्न करेंगे।
- स्वयं परिणमनेवाले द्रव्य को निमित्त बेचारा क्या परिणमावे
स.सा./आ./116 किं स्वयमपरिणममानं परिणममानं वा जीव: पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयेत्। न तावत्तत्स्वयमपरिणममानं परेण परिणमयितं पार्येत्; न हि स्वतोऽसती शक्ति: कर्तुमन्येन पार्यते। स्वयं परिणममानं तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत; न हि वस्तुशक्तय: परमपेक्षन्ते। तत: पुद्गलद्रव्यं परिणामस्वभावं स्वयमेवास्तु।=क्या जीव स्वयं न परिणमते हुए पुद्गलद्रव्य को कर्मभावरूप से परिणमाता है या स्वयं परिणमते हुए को ? स्वयं अपरिणमते हुए को दूसरे के द्वारा नहीं परिणमाया जा सकता, क्योंकि जो शक्ति (वस्तु में) स्वयं न हो उसे अन्य कोई नहीं उत्पन्न कर सकता। और स्वयं परिणमते हुए को अन्य परिणमानेवाले की अपेक्षा नहीं होती, क्योंकि वस्तु की शक्तियाँ पर की अपेक्षा नहीं रखतीं। अत: पुद्गल द्रव्य परिणमनस्वभाववाला स्वयं हो। (पं.ध./उ./62) (ध.1/1.1,1,163/404/1) (स्या.म./5/30/11)
प्र.सा./त.प्र./67 एवमस्यात्मन: संसारे मुक्तौ वा स्वयमेव सुखतया परिणममानस्य सुखसाधनधिया अबुधैर्मुधाध्यास्यमाना अपि विषया: किं हि नाम कुर्यु:। =यद्यपि अज्ञानी जन ‘विषय सुख के साधन हैं’ ऐसी बुद्धि के द्वारा व्यर्थ ही विषयों का अध्यास आश्रय करते हैं, तथापि संसार में या मुक्ति में स्वयमेव सुखरूप परिणमित इस आत्मा का विषय क्या कर सकते हैं। (पं.ध./उ./353)
पं.का./त.प्र./62 स्वयमेव षट्कारकीरूपेण व्यवतिष्ठमानो न कारकान्तरमपेक्षन्ते।=स्वयमेव षट्कारकोरूप से वर्तता हुआ। (पुद्गल या जीव) अन्य कारक की अपेक्षा नहीं रखता।
पं.ध./पू./571 अथ चेदवश्यमेतन्निमित्तनैमित्तिकत्वमस्ति मिथ:। न यत: स्वतो स्वयं वा परिणममानस्य किं निमित्ततया।=यदि कदाचित् यह कहा जाये कि इन दोनों (आत्मा व शरीर में) परस्पर निमित्तनैमित्तिकपना अवश्य है तो इस प्रकार का कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि स्वयं अथवा स्वत: परिणममान वस्तु के निमित्तकारण से क्या प्रयोजन है।
- एक को दूसरे का कर्ता कहना व्यवहार व उपचार है परमार्थ नहीं
स.सा./मू./105-107 जीवम्हि हेदुभूदे बंधस्स दु पस्सिदूण परिणामं। जीवेण कदं कम्मं भण्णदि उवयारमत्तेण।105। जोधेहिं कधे जुद्धे राएण कदंति जंपदे लोगो। ववहारेण तह कदं णाणावरणादि जीवेण।106। उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गिण्हदि य। आदा पुग्गलदव्वं ववहारणयस्स वत्तव्वं।107।=जीव निमित्तभूत होने पर कर्मबन्ध का परिणाम होता हुआ देखकर ‘जीव ने कर्म किया’ इस प्रकार उपचारमात्र से कहा जाता है।105। योद्धाओं के द्वारा युद्ध किये जाने पर राजा ने युद्ध किया’ इस प्रकार लोक (व्यवहार से) कहते हैं। उसी प्रकार ‘ज्ञानावरणादि कर्म जीव ने किया’ ऐसा व्यवहार से कहा जाता है।106। ‘आत्मा पुद्गल द्रव्य को उत्पन्न करता है, बाँधता है, परिणमन कराता है और ग्रहण करता है’—यह व्यवहार नय का कथन है।
स.सा./आ./105 इह खलु पौद्गलिककर्मण: स्वभावादनिमित्तभूतेऽप्यात्मन्यनादेरज्ञानात्तन्निमित्तभूतेनाज्ञानभावेन परिणमनान्निमित्तीभूते सति संपद्यम नत्वात् पौद्गलिकं कर्मात्मना कृतमिति निर्विकल्पविज्ञानघनभ्रष्टानां विकल्पपरायणानां परेषामस्ति विकल्प:। स तूपचार एव न तु परमार्थ:। =इस लोक में वास्तव में आत्मा स्वभाव से पौद्गलिक कर्म का निमित्तभूत न होने पर भी, अनादि अज्ञान के कारण पौद्गलिक कर्म को निमित्तरूप होते हुए अज्ञानभाव में परिणमता होने से निमित्तभूत होने पर, पौद्गलिक कर्म उत्पन्न होता है, इसलिए ‘पौद्गलिक कर्म आत्मा ने किया’ ऐसा निर्विकल्प विज्ञानघन से भ्रष्ट, विकल्पपरायण अज्ञानियों का विकल्प है; वह विकल्प उपचार ही है, परमार्थ नहीं।
स.सा./आ./355 ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यव्यवहार:।...=इसलिए निमित्तनैमित्तिक भावमात्र से ही वहाँ कर्तृकर्म और भोक्तृभोग्य का व्यवहार है।
प्र.सा./त.प्र./121 तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृत्वाद् द्रव्यकर्मकर्ताप्युपचारात्। =आत्मा भी अपने परिणाम का कर्ता होने से द्रव्यकर्म का कर्ता भी उपचार से है।
प्र.सा./118/प. जयचन्द ‘‘कर्म जीव के स्वभाव का पराभव करता है’’ ऐसा कहना सो तो उपचार कथन है।
- एक को दूसरे का कर्ता कहना लोकप्रसिद्ध रूढ़ि है
स.सि./5/22/291/7 यद्येवं कालस्य क्रियावत्त्वं प्राप्नोति। यथा शिष्योऽधीते, उपाध्यायोऽध्यापयतीति। नैषदोष:, निमित्तमात्रेऽपि हेतुकर्तृ व्यपदेशो दृष्ट:। यथा कारीषोऽग्निरध्यापयति। एवं कालस्य हेतुकर्तृता। =प्रश्न–यदि ऐसा है( अर्थात् द्रव्यों की पर्याय बदलने वाला है) तो काल क्रियावान द्रव्य प्राप्त होता है ? जैसे शिष्य पढ़ता है और उपाध्याय पढ़ाता है, यहाँ उपाध्याय क्रियावान द्रव्य है ? उत्तर—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि निमित्तमात्र में भी हेतुकर्तारूप व्यपदेश देखा जाता है जैसे कण्डे को अग्नि पढ़ाती है। यहाँ कण्डे की अग्नि निमित्तमात्र है। उसी प्रकार काल भी हेतुकर्ता है।
रा.वा./1/9/11/46/32 लोके हि करणत्वेन प्रसिद्धस्यासे; तत्प्रशंसापरायामभिधानप्रवृतौ समीक्षितायां ‘तैक्ष्ण्यगौरवकाठिन्याहितविशेषोऽयमेव छिनत्ति’ इति कर्तृधर्माध्यारोप: क्रियते। = करणरूप से प्रसिद्ध तलवार आदि की तीक्ष्णता आदि गुणों की प्रशंसा में ‘तलवार ने छेद दिया’ इस प्रकार का कर्तृत्वधर्म का अध्यारोपण करके कर्तृसाधन प्रयोग होता है।
स.सा./आ./84 कुलाल: कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढाऽस्ति त:वद्वयवहार:’’=कुम्हार घड़े का कर्ता है और भोक्ता है ऐसा लोगों का अनादि से रूढ़ व्यवहार है।
- वास्तव में एक को दूसरे का कर्ता कहना असत्य है
स.सा./मू./119 अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पुग्गलं दव्वं। जीवो परिणामयदे कम्मं कम्मत्तमिदि मिच्छा।119।=अथवा यदि पुद्गल द्रव्य अपने आप ही कर्मभाव से परिणमन करता है ऐसा माना जाये तो ‘जीव कर्म को अर्थात् पुद्गलद्रव्य को कर्मरूप परिणमन कराता है, यह कथन मिथ्या सिद्ध होता है।
प्र.सा./16/पं. जयचन्द=क्योंकि वास्तव में कोई द्रव्य किसी द्रव्य का कर्ता व हर्ता नहीं है, इसलिए व्यवहारकारक असत्य है, अपने को आप ही कर्ता है इसलिए निश्चयकारक सत्य है।
- एक को दूसरे का कर्ता मानने में अनेक दोष आते हैं
यो.सा./अ./2/30 एवं संपद्यते दोष: सर्वथापि दुरुतर:। चेतनाचेतनद्रव्यविशेषाभावलक्षण:।30।=यदि कर्म को चेतन का और चेतन को कर्म का कर्ता माना जाये तो दोनों एक दूसरे के उपादान बन जाने के कारण(27-29), कौन चेतन और कौन अचेतन यह बात ही सिद्ध न हो सकेगी।30।
स.सा./आ./32 यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन भवन्तमपि दूरत एव तदनुवृत्तेरात्मनो भाव्यस्य व्यावतनेन हठान्मोहं न्यक्कृत्योपरतसमस्तभाव्यभावकसंकरदोषत्वेन टंकोत्कीर्णं...आत्मानं संचेतयते स खलु जितमोहो।=मोहकर्म फल देने की सामर्थ्य से प्रगट उदयरूप होकर भावकपने से प्रगट होता है, तथापि तदनुसार जिसकी प्रवृत्ति है ऐसा जो अपना आत्मा-भाव्य, उसको भेदज्ञान के बल द्वारा दूर से ही अलग करने से इस प्रकार बलपूर्वक मोह का तिरस्कार करके, समस्त भाव्यभावक संकरदोष दूर हो जाने से एकत्व में टंकोत्कीर्ण अपने आत्मा को जो अनुभव करते हैं वे निश्चय से जितमोह हैं।
पं.का./ता.वृ./24/51/5 अन्यद्रव्यस्य गुणोऽन्यद्रव्यस्य कर्तुं नायाति संकरव्यतिकरदोषप्राप्ते:। =अन्य द्रव्य के गुण अन्य द्रव्य के कर्ता नहीं हो सकते, क्योंकि ऐसा मानने से संकरव्यतिकर दोषों की प्राप्ति होती है।
पं.ध./पू./573-574 नाभासत्वमसिद्धं स्यादपसिद्धान्तो नयस्यास्य। सदनेकत्वे सति किल गुणसंक्रान्ति: कुत: प्रमाणद्वा।273। गुणसंक्रान्तिमृते यदि कर्त्ता स्यात्कर्मणश्च भोक्तात्मा। सर्वस्य सर्वसंकरदोष: स्यात् सर्वशून्यदोषश्च।274।=अपसिद्धान्त होने से इस नय को (कर्म व नोकर्म का व्यवहार से जीव कर्ता व भोक्ता है) नयाभासपना असिद्ध नहीं है क्योंकि सत् को अनेकत्व होने पर और जीव और कर्मों के भिन्न-भिन्न होने पर निश्चय से किस प्रमाण से गुण संक्रमण होगा।573। और यदि गुणसंक्रमण के बिना ही जीव कर्मों का कर्ता तथा भोक्ता होगा तो सब पदार्थों में सर्वसंकरदोष और सर्वशून्यदोष हो जायेगा।574।
- एक को दूसरे का कर्ता माने सो अज्ञानी है--
स.सा./मू./247,253 जो मण्णदि हिंसामि य हिंसिज्जामि य परेहिं सत्तेहि। सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो।247। जो अप्पणा दु मण्णदि दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्ते ति। सो मूढो अण्णाणी णाणी एतो दु विवरीदो।253।=जो यह मानता है मैं पर जीवों को मारता हूँ और पर जीव मुझे मारते हैं, वह मूढ है, अज्ञानी है। और इससे विपरीत ज्ञानी है।247। जो यह मानता है कि अपने द्वारा मैं जीवों को दुःखी सुखी करता हूँ, वह मूढ है, अज्ञानी है। और इससे विपरीत है वह ज्ञानी है।253।
स.सा./आ./79/क. 50 अज्ञानात्कर्तृकर्मभ्रममतिरनयोर्भाति तावन्न यावत्। विज्ञानार्चिश्च कति क्रकचवदयं भेदमुत्पाद्य सद्य:।50।=‘जीव पुद्गल के कर्ताकर्म भाव है’ ऐसी भ्रमबुद्धि अज्ञान के कारण वहाँ तक भासित होती है कि जहाँ तक विज्ञानज्योति करवत की भाँति निर्दयता से जीव पुद्गल का तत्काल भेद उत्पन्न करके प्रकाशित नहीं होती।
स.सा./आ./97/क. 62 आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम्। परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम्।62। =आत्मा ज्ञान स्वरूप है, स्वयं ज्ञान ही है; वह ज्ञान के अतिरिक्त अन्य क्या करे ? आत्मा कर्ता, ऐसा मानना सो व्यवहारी जीवों का मोह है।
स.सा./आ./320/क.199 ये तु कर्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसा तता:। सामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षताम्।199।=जो अज्ञानांधकार से आच्छादित होते हुए आत्मा को कर्ता मानते हैं वे भले ही मोक्ष के इच्छुक हों तथापि सामान्य जनों की भाँति उनकी भी मुक्ति नहीं होती।199।
स.सा./आ./111 अथायं तर्क:--पुद्गलमयमिथ्यात्वादीन् वेदयमानो जीव: स्वयमेव मिथ्यादृष्टिर्भूत्वा पुद्गलकर्म करोति। स किलाविवेक: यतो न खल्वात्मा भाव्यभावकभावात् पुद्-गलद्रव्यमयमिथ्यात्वादिवेदकोऽपि कथं पुन: पुद्गलकर्मण: कर्ता नाम।=प्रश्न–पुद्गलमय मिथ्यात्वादि कर्मों को भोगता हुआ जीव स्वयं ही मिथ्यादृष्टि होकर पुद्गल कर्म को करता है ? =उत्तर—यह तर्क वास्तव में अविवेक है, क्योंकि भाव्यभावकभाव का अभाव होने से आत्मा निश्चय से पुद्गलद्रव्यमय मिथ्यात्वादि का भोक्ता भी नहीं है, तब फिर पुद्गल कर्म का कर्ता कैसे हो सकता है ?
- एक को दूसरे का कर्ता माने सो मिथ्यादृष्टि है
यो.सा./अ./4/13 कोऽपि कस्यापि कर्तास्ति नोपकारापकारयो:। उपकुर्वेऽपकुर्वेऽहं मिथ्येति क्रियते मति:।13।=इस संसार में कोई जीव किसी अन्य जीव का उपकार या अपकार नहीं कर सकता। इसलिए ‘मैं दूसरे का उपकार या अपकार करता हूँ’ यह बुद्धि मिथ्या है।
स./सा./आ./321, 327 ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यन्ति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तन्ते; लौकिकानां परमात्मा विष्णु: सुरनारकादिकार्याणि करोति, तेषां तु स्वात्मा करोतीत्यपसिद्धान्तस्य समत्वात्।321। योऽयं परद्रव्ये कर्तृव्यवसाय: स तेषां सम्यग्दर्शनरहितत्वादेव भवति इति सुनिश्चितं जानीयात्।327।=जो आत्मा को कर्ता ही देखते हैं वे लोकोत्तर हों तो भी लौकिकता को अतिक्रमण नहीं करते; क्योंकि, लौकिक जनों के मत में परमात्मा, विष्णु, देव, नारकादि कार्य करता है और उनके मत में अपना आत्मा वह कार्य करता है। इस प्रकार (दोनों में) अपसिद्धान्त की समानता है।321। लोक और श्रमण दोनों में जो यह परद्रव्य में कर्तृत्व का व्यवसाय है वह उनकी सम्यग्दर्शन रहितता के कारण ही है। (स.सा./मूल भी)
पं.ध./पू./580-581 अपरे बहिरात्मनो मिथ्यावादं वदन्ति दुर्मतय:। यदबद्धेऽपि परस्मिन् कर्ता भोक्ता परोऽपि भवति यथा।580। सद्वेद्योदयभावान् गृहधनधान्यं कलत्रपुत्रांश्च। स्वमिह करोति जीवो भुनक्ति वा स एव जीवश्च।581।=कोई खोटी बुद्धि वाले मिथ्यादृष्टि जीव इस प्रकार मिथ्याकथन का प्रतिपादन करते हैं, जो बन्ध को प्राप्त नहीं होनेवाले पर-पदार्थ के विषय में अन्य पदार्थ कर्ता और भोक्ता होता है।580। जैसे कि साता वेदनीय के उदय से प्राप्त होने वाले घर, धन, धान्य और स्त्री-पुत्र वगैरह को जीव स्वयं करता है तथा वही जीव ही उनका भोग करता है।581।
- एक को दूसरे का कर्ता कहने वाला अन्यमती है
स.सा./मू./85,116-117 जदि पुग्गलकम्ममिणं कुव्वदि तं चेव वेदयदि आदा। दोकिरियाविदिरित्तो पसजदि सो जिणावमदं।85। जीवे ण सयं बद्ध ण सयं परिणमदि कम्मभावेण। जइ पुग्गलदव्वमिणं अप्परिणामी तदा होदि।116। कम्मइयवरगणासु य अपरिणमंतीसु कम्मभावेण। संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।117।=यदि आत्मा इस पुद्गलकर्म को करे और उसी को भोगे तो वह आत्मा दो क्रियाओं से अभिन्न ठहरे ऐसा प्रसंग आता है, जो कि जिनदेव को सम्मत नहीं हैं।85। ‘यह पुद्गल द्रव्य जीव में स्वयं नहीं बन्धा और कर्मभाव से भी स्वयं नहीं परिणमता’, यदि ऐसा माना जाये तो वह अपरिणामी सिद्ध होता है; और इस प्रकार कार्मणवर्गणाएँ कर्मभाव से नहीं परिणमती होने से संसार का अभाव (सदा शिववाद) सिद्ध होता है अथवा सांख्यमत का प्रसंग आता है।116-117।
- एक को दूसरे का कर्ता कहने वाले सर्वज्ञ के मत से बाहर हैं
स.सा./आ./85 वस्तुस्थित्या प्रतपत्यां यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति भाव्यभावकभावेन तमेवानुभवति च जीवस्तथाव्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलकर्मापि यदि कुर्यात् भाव्यभावकभावेन तदेवानुभवेच्च ततोऽयं स्वपरसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायां प्रसजन्त्यां....मिथ्यादृष्टितया सर्वज्ञावमत: स्यात् । = इस प्रकार वस्तुस्थिति से ही, (क्रिया और कर्ता की अभिन्नता) सदा प्रगट होने से, जैसे जीव व्याप्यव्यापकभाव से अपने परिणाम को करता है और भाव्यभावकभाव से उसी का अनुभव करता है; उसी प्रकार यदि व्याप्यव्यापकभाव से पुद्गलकर्म को भी करे और भाव्यभावकभाव से उसी को भोगे, तो वह जीव अपनी व पर की एकत्रित हुई दो क्रियाओं से अभिन्नता का प्रसंग आने पर मिथ्यादृष्टिता के कारण सर्वज्ञ के मत से बाहर है।
- वास्तव में व्याप्यव्यापकरूप ही कर्ता कर्म भाव अध्यात्म में इष्ट है
- निश्चय व्यवहार कर्ता-कर्म भाव का समन्वय
- व्यवहार से ही निमित्त को कर्ता कहा जाता है निश्चय से नहीं
स.सा./आ./355 क 214 यत्तु वस्तु कुरूतेऽन्यवस्तुन:, किंचनापि परिणामिन: स्वयम्। व्यावहारिकदृशैव तन्मतं, नान्यदस्ति किमपीह निश्चयात्।214।= एक वस्तु स्वयं परिणमित होती हुई अन्य वस्तु का कुछ भी कर सकती है ऐसा जो माना जाता है, सो व्यवहारदृष्टि से ही माना जाता है। निश्चय से इस लोक में अन्यवस्तु की अन्यवस्तु कुछ भी नहीं है।
- व्यवहार से ही कर्ता कर्म भिन्न दिखते हैं निश्चय से दोनों अभिन्न हैं
स.सा./आ./348 क 210 व्यावहारिकदृशैव केवलं, कर्तृकर्म च विभिन्नमिष्यते। निश्चयेन यदि वस्तु चित्यते: कर्तृ कर्म च सदैकमिष्यते।210। =केवल व्यावहारिक दृष्टि से ही कर्ता और कर्म भिन्न माने जाते हैं, यदि निश्चय से वस्तु का विचार किया जाये तो कर्ता और कर्म सदा एक माना जाता है।
- निश्चय से अपने परिणामों का कर्ता है पर निमित्त की अपेक्षा परपदार्थों का भी कहा जाता है
स.सा./मू./356-365 जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होइ। तह जाणओ दु ण परस्स जाणओ जाणओ सो दु।356। एवं तु णिच्छयणयस्स भासियं णाणदंसणचरित्ते। सुणु ववहारणयस्स य वत्तव्वं से समासेण।360। जह परदव्वं सेडयदि ह सेडिया अप्पणो सहावेण। तह परदव्वं जाणइ णाया वि सयेण भावेण।361। एवं ववहारस्स दु विणिच्छओ णाणदंसणचरित्ते। भणिओ अण्णेसु वि पज्जएसु एमेव णायव्वा।365। = जैसे खडिया पर (दीवाल आदि) की नहीं है, खडिया तो खडिया है, उसी प्रकार ज्ञायक (आत्मा) पर का नहीं है, ज्ञायक तो ज्ञायक ही है।356। क्योंकि जो जिस का होता है वह वही होता है, जैसे आत्मा का ज्ञान होने से ज्ञान आत्मा ही है (आ0 ख्याति टीका)। इस प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्र में निश्चय का कथन है। अब उस सम्बंध में संक्षेप से व्यवहार नय का कथन सुनो।360। जैस खडिया अपने स्वभाव से (दीवाल आदि) परद्रव्य को सफेद करती है उसी प्रकार ज्ञाता भी अपने स्वभाव से परद्रव्य को जानता है।361। इस प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्र में व्यवहारनय का निर्णय कहा है। अन्य पर्यायों में भी इस प्रकार जानना चाहिए।365। (यहाँ तात्पर्य यह है कि निश्चय दृष्टि में वस्तुस्वभाव पर ही लक्ष्य होने के कारण तहाँ गुणगुणी अभेद की भाँति कर्ता कर्म भाव में भी परिणाम परिणामी रूप से अभेद देखा जाता है। और व्यवहार दृष्टि में भेद व निमित्त नैमित्तिक सम्बंध पर लक्ष्य होने के कारण तहाँ गुण-गुणी भेद की भाँति कर्ता-कर्म भाव में भी भेद देखा जाता है।) (स.सा./22 की प्रक्षेपक गाथा)
पं.का./ता.वृ./26/54/18 यथा निश्चयेन पुद्गलपिण्डोपादानकारणेन समुत्पन्नोऽपि घट: व्यवहारेण कुम्भकारनिमित्तेनोत्पन्नत्वात्कुम्भकारेण कृत इति भण्यते तथा समयादिव्यवहारकालो...।= जिस प्रकार निश्चय से पुद्गलपिण्डरूप उपादानकारण से उत्पन्न हुआ भी घट व्यवहार से कुम्हार के निमित्त से उत्पन्न होने के कारण कुम्हार के द्वारा किया गया कहा जाता है, उसी प्रकार समयादि व्यवहार काल भी ...। (पं.का./त.प्र./68) - भिन्न कर्ता-कर्म भाव के निषेध का कारण
स.सा./मू.व.आ./99 यदि सो परदव्वाणि य करिज्ज णियमेण तम्मओ होज्ज। जम्हा ण तम्मओ तेण सो ण तेसिं हवदि कत्ता।/9। परिणामपारिणामिभावान्यथानुपपत्तेर्नियमेन तन्मय: स्यात् ।=यदि आत्मा पर द्रव्यों को करे तो वह नियम से तन्मय अर्थात् परद्रव्यमय हो जाये किन्तु तन्मय नहीं है इसलिए वह उनका कर्ता नहीं है। (तन्मयता हेतु देने का भी कारण यह है कि निश्चय से विचार करते हुए परिणामी कर्ता है और उसका परिणाम उसका कर्म) यह परिणामपरिणामीभाव क्योंकि अन्य प्रकार बन नहीं सकता इसलिए उसे नियम से तन्मय हो जाना पड़ेगा। स.सा./आ/75 व्याप्यव्यापकभावाभावात् कर्तृकर्मत्वासिद्धौ। =(भिन्न द्रव्यों में) व्याप्यव्यापकभाव का अभाव होने से कर्ता कर्म भाव की असिद्धि है।
सा.सा./आ/85 इह खलु क्रिया हि तावदखिलापि परिणामलक्षणतया न नाम परिणामतोऽस्ति भिन्ना, परिणामोऽपि परिणामपरिणामिनोरभिन्नवस्तुत्वात् परिणामिनो न भिन्नस्ततो या काचन क्रिया किल सकलापि सा क्रियावतो न भिन्नेति क्रियाकर्त्रोरव्यतिरिक्ततायां वस्तुस्थित्या प्रतपत्यां यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति भाव्यभावकभावेन तमेवानुभवति च जीवस्तथा व्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलकर्मापि यदि कुर्यात् भाव्यभावकभावेन तदेवानुभवेच्च ततोऽयं स्वपरसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायां प्रसजन्त्यां स्वपरयो: परस्परविभागप्रत्यस्तमनादनेकात्मकमेकमात्मानमनुभवन्मिथ्यादृष्टितयासर्वज्ञावमत: स्यात् । =(इस रहस्य को समझने के लिए पहले ही यह बुद्धिगोचर करना चाहिए कि यहाँ निश्चय दृष्टि से मीमांसा की जा रही है व्यवहार दृष्टि से नहीं। और निश्चय में अभेद तत्त्व का विचार करना इष्ट होता है भेद तत्त्व या निमित्त नैमित्तिक सम्बंध का नहीं।) जगत् में जो क्रिया है सो सब ही परिणाम स्वरूप होने से वास्तव में परिणाम से भिन्न नहीं है (परिणाम ही है); परिणाम भी परिणामी (द्रव्य) से भिन्न नहीं है क्योंकि परिणाम और परिणामी अभिन्न वस्तु हैं। इसलिए (यह सिद्ध हुआ) कि जो कुछ क्रिया है वह सब ही क्रियावान् से भिन्न नहीं है। इस प्रकार वस्तुस्थिति से ही क्रिया और कर्ता की अभिन्नता सदा ही प्रगटित होने से, जैसे जीव व्याप्यव्यापकभाव से अपने परिणाम को करता है और भाव्यभावकभाव से उसी का अनुभव करता है—उसी प्रकार यदि व्याप्यव्यापकभाव से पुद्गलकर्म को भी और भाव्यभावकभाव से उसी को भोगे तो वह जीव अपनी व पर की एकत्रित हुई दो क्रियाओं से अभिन्नता का प्रसंग आने पर स्व-पर का परस्पर विभाग अस्त हो जाने से, अनेकद्रव्यस्वरूप एक आत्मा का अनुभव करता हुआ मिथ्यादृष्टिता के कारण सर्वज्ञ के मत से बाहर है। - भिन्न कर्ताकर्मभाव के निषेध का प्रयोजन
स.सा/आ/321/क 200-202 नास्ति सर्वोऽपि संबन्ध: परद्रव्यात्मतत्त्वयो:। कर्तृकर्मत्वसंबन्धाभावे तत्कर्तृता कुत:।200। एकस्य वस्तुनो ह्यन्यतरेण सार्घं; सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्ध:। तत्कर्तृकर्मघटनास्ति न वस्तुभेदे, पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम् ।201। ये तु स्वभावनियमं कलयन्ति नेममज्ञानमग्नमहसो वत ते वराका:। कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्म, कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्य:।202। =परद्रव्य और आत्मा का कोई भी सम्बंध नहीं है तब फिर उनमें कर्ताकर्म सम्बंध कैसे हो सकता है। इस प्रकार जहाँ कर्ताकर्म सम्बंध नहीं है, वहाँ आत्मा के परद्रव्य का कर्तृत्व कैसे हो सकता है ?।।200।। क्योंकि इस लोक में एक वस्तु का अन्य वस्तु के साथ सम्पूर्ण सम्बन्ध ही निषेध किया गया है, इसलिए जहाँ वस्तुभेद हैं अर्थात् भिन्न वस्तुएँ हैं वहाँ कर्ताकर्म घटना नहीं होती। इस प्रकार मुनिजन और लौकिक जन तत्त्व को (वस्तु के यथार्थ स्वरूप को) अकर्ता देखो, (यह श्रद्धा में लाओ कि कोई किसी का कर्ता नहीं है, परद्रव्य परका अकर्ता ही है) ।।201।। जो इस वस्तुस्वभाव से नियम को नहीं जानते वे बेचारे, जिनका तेज (पुरूषार्थ या पराक्रम) अज्ञान में डूब गया है ऐसे, कर्म को करते हैं; इसलिए भाव, कर्म का कर्ता चेतन ही स्वयं होता है, अन्य कोई नहीं।202। - भिन्न कर्ताकर्म व्यपदेश का कारण
स.सा./मू/312-313 चेया हु उ पयडीअट्ठं उप्पज्जइ विणस्सइ। पयडी वि चेययट्ठं उपज्जइ विणस्सइ।312। एवं बंधो उ दुण्हं वि अण्णोण्णप्पच्चया हवे। अप्पणो पयडीए य संसारो तेण जायए।313।=तत एव च तयो: कर्तृकर्मव्यवहार:। आ.ख्याति. टीका =चेतक अर्थात् आत्मा प्रकृति के निमित्त से उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। तथा प्रकृति भी चेतन के निमित्त से उत्पन्न होती है तथा नष्ट होती है। इस प्रकार परस्पर निमित्त से दोनों ही आत्मा का और प्रकृति का बन्ध होता है। और इससे संसार उत्पन्न हो जाता है।312-313। इसलिए उन दोनों का कर्ताकर्म का व्यवहार है। - भिन्न कर्ताकर्म व्यपदेश का प्रयोजन
द्र.सं./टी./8/22/4 यतो हि नित्यनिरंजननिष्क्रियनिजात्मभावनारहितस्य कर्मादिकर्तृत्वं व्याख्यातम्, ततस्तत्रैव निजशुद्धात्मनि भावना कर्त्तव्या। =क्योंकि नित्य निरंजन निष्क्रिय ऐसे अपने आत्मस्वरूप की भावना से रहित जीव के कर्मादिक का कर्तृत्व कहा गया है, इसलिए उस निज शुद्धात्मा में ही भावना करनी चाहिए। - कर्ताकर्म भाव निर्देश का मतार्थ व नयार्थ
स.सा./ता.वृ./22 की प्रक्षेपक गाथा—अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयात् पुद्गलद्रव्यकर्मादीनां कर्त्तेति। =अनुपचरित असद्भूत व्यवहार से ही आत्मा पुद्गलद्रव्यका या कर्म आदिकों का कर्ता है। पं.का./ता.वृ./27/61/10 शुद्धाशुद्धपरिणामकर्तृत्वव्याख्यानं तु नित्याकर्तृत्वैकान्तसांख्यमतानुयायिशिष्यसंबोधनार्थ, भोक्तृत्वव्याख्यानं कर्ता कर्मफलं न भुङ्क्त इति बौद्धमतानुसारिशिष्यप्रतिबोधनार्थम् । = शुद्ध व अशुद्ध परिणामों के कर्तापने का व्याख्यान, आत्मा को एकान्त से नित्य अकर्ता माननेवाले सांख्यमतानुसारी शिष्य के सम्बोधनार्थ किया गया है, और भोक्तापने का व्याख्यान, ‘कर्ता स्वयं कर्म के फल को नहीं भोगता’ ऐसा माननेवाले बौद्ध मतानुसारी शिष्य के प्रतिबोधनार्थ है।
- व्यवहार से ही निमित्त को कर्ता कहा जाता है निश्चय से नहीं