कालानुयोग 04: Difference between revisions
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<p class="HindiText"><strong> | <p class="HindiText"><strong>4. सम्यक्प्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्व की सत्त्व काल प्ररूपणा</strong><br /> | ||
<strong>प्रमाण | <strong>प्रमाण 1. (क.पा./2,22/2/289-294/253-256); 2. (क.पा./2,22/2/123/205)</strong><br /> | ||
<strong>विशेषों के प्रमाण उस उस विशेष के ऊपर दिये हैं।</strong></p> | <strong>विशेषों के प्रमाण उस उस विशेष के ऊपर दिये हैं।</strong></p> | ||
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उपशम | उपशम सम्यक्त्व सम्मुख जो जीव अन्तरकरण करने के अनन्तर मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति के द्वि चरम समय में सम्यक्त्व प्रकृति की उद्वेलना करके 27 प्रकृति स्थान को प्राप्त होकर 1 समय तक अल्पतर विभक्ति स्थानवाला होता है। अनन्तर मिथ्यादृष्टि के अन्तिम समय में 27 प्रकृति स्थान के साथ 1 समय तक रहकर मिथ्यात्व के उपान्त्य समय से तीसरे समय में सम्य0को प्राप्तकर 28 प्रकृति स्थान वाला हो जाता है। उसके अल्पतर और भुजागर के मध्य में अवस्थित विभक्ति स्थान का जघन्य काल 1 समय देखा जाता है। </p></td> | ||
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<td width="150" valign="top"><p>एकेन्द्रियों में | <td width="150" valign="top"><p>एकेन्द्रियों में सम्यक्प्रकृति 28 प्रकृति स्थान </p></td> | ||
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<td width="252" valign="top"><p>(क.पा. | <td width="252" valign="top"><p>(क.पा.2/2/22/121/104) उद्वेलना के काल में एक समय शेष रहने पर अविवक्षित से विवक्षित मार्गणा में प्रवेश करके उद्वेलना करे </p></td> | ||
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<td width="390" valign="top"><p>(क.पा. | <td width="390" valign="top"><p>(क.पा.2/2,22/123/205) क्योंकि यहा̐ उपशम प्राप्ति की योग्यता नहीं है इसलिए इस काल में वृद्धि नहीं हो सकती। यदि उपशम सम्य0प्राप्त करके पुन: इन प्रकृतियों की नवीन सत्ता बना ले तो क्रम न टूटने से इस काल में वृद्धि हो जाती। तब तो उत्कृष्ट 132सा0 काल बन जाता जैसा कि ऊपर दिखाया है </p></td> | ||
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<td width="150" valign="top"><p>शोक (ध. | <td width="150" valign="top"><p>शोक (ध.14/57/8)</p></td> | ||
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Revision as of 21:39, 5 July 2020
4. सम्यक्प्रकृति व सम्यग्मिथ्यात्व की सत्त्व काल प्ररूपणा
प्रमाण 1. (क.पा./2,22/2/289-294/253-256); 2. (क.पा./2,22/2/123/205)
विशेषों के प्रमाण उस उस विशेष के ऊपर दिये हैं।
नं |
विषय |
प्रमाण नं0 |
जघन्य |
उत्कृष्ट |
||
काल |
विशेष |
काल |
विशेष |
|||
1 |
26 प्रकृति स्थान |
1 |
1 समय |
|
अर्ध पु0परि0 |
|
2 |
27 प्रकृति स्थान |
1 |
अन्तर्मु0 |
|
पल्य/असं0 |
|
3 |
28 प्रकृति स्थान |
1 |
अन्तर्मु0 |
|
साधिक 132 सागर |
(क.पा.2/2,22/118 व 123/100 व 108) मिथ्यात्व से प्रथमोपशम सम्य0के पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त पल्य/असं पश्चात् पुन: उपशम सम्यक्त्वी हुआ। 28 की सत्ता बनायी पश्चात् मिथ्यात्व में जा वेदक सम्य0धारा। 66 सा0रहा। फिर मिथ्यात्व में पल्य/असं0रहकर पुन: उपशम पूर्वक वेदक में 66 सा0 रहकर मिथ्यादृष्टि हो गया और पल्य/असं0में उद्वेलना द्वारा 26 प्रकृति स्थान को प्राप्त। |
4 |
अवस्थित विभक्ति स्थान |
1 |
1 समय |
(क.पा.2/2,22/427/390) |
|
|
|
एकेन्द्रियों में सम्यक्प्रकृति 28 प्रकृति स्थान |
2 |
1 समय |
(क.पा.2/2/22/121/104) उद्वेलना के काल में एक समय शेष रहने पर अविवक्षित से विवक्षित मार्गणा में प्रवेश करके उद्वेलना करे |
पल्य/असं0 |
(क.पा.2/2,22/123/205) क्योंकि यहा̐ उपशम प्राप्ति की योग्यता नहीं है इसलिए इस काल में वृद्धि नहीं हो सकती। यदि उपशम सम्य0प्राप्त करके पुन: इन प्रकृतियों की नवीन सत्ता बना ले तो क्रम न टूटने से इस काल में वृद्धि हो जाती। तब तो उत्कृष्ट 132सा0 काल बन जाता जैसा कि ऊपर दिखाया है |
|
सम्यग्मिथ्यात्व (27 प्रकृति स्थान) |
2 |
1 समय |
|
पल्य/असं0 |
|
2 |
अन्य कर्मों का उदय काल |
|
|
|
||
1 |
शोक (ध.14/57/8) |
|
|
|
छ: मास |
|