केवलज्ञान निर्देश: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> केवलज्ञान निरपेक्ष व असहाय है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> केवलज्ञान निरपेक्ष व असहाय है</strong></span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/9/94/7 <span class="SanskritText">असहायमिति वा।</span>=<span class="HindiText">केवल शब्द असहायवाची है, इसलिए असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। मो.पा./टी.6/308/13 (श्लो.वा./3/1/9/8/5)</span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-1,14/29/5 <span class="PrakritText">केवलमसहायमिंदियालोयणिरवेक्खं तिकालगोयराणं तपज्जायसमवेदाणं तवत्थुपरिमसंकुडियमसवत्तं केवलणाणं।</span>=<span class="HindiText">केवल असहाय को कहते हैं। जो ज्ञान असहाय अर्थात् इन्द्रिय और आलोक की अपेक्षा रहित है, त्रिकालगोचर अनन्तपर्यायों से समवायसम्बन्ध को प्राप्त अनन्त वस्तुओं को जानने वाला है, असंकुटित अर्थात् सर्व व्यापक है और असपत्न अर्थात् प्रतिपक्षी रहित है उसे केवलज्ञान कहते हैं। (ध.13/5,5,21/213/4)</span><br /> | ||
क.पा./ | क.पा./1/1,1/15/21,23<span class="SanskritText"> केवलमसहायं इन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्षत्वात्। ... आत्मार्थव्यतिरिक्तसहायनिरपेक्षत्वाद्वा केवलमसहायम्। केवलं च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानम्।</span>=<span class="HindiText">असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनस्कार अर्थात् मनोव्यापार की अपेक्षा से रहित है। अथवा केवलज्ञान आत्मा और अर्थ से अतिरिक्त किसी इन्द्रियादिक सहायक की अपेक्षा से रहित है, इसलिए भी वह केवल अर्थात् असहाय है। इस प्रकार केवल अर्थात् असहाय जो ज्ञान है उसे केवलज्ञान कहते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> केवलज्ञान एक ही प्रकार का है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> केवलज्ञान एक ही प्रकार का है</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.12/4,2,14,5/480/7 <span class="PrakritText">केवलणाणमेयविधं, कम्मक्खएण उप्पज्जमाणत्तादो।</span>=<span class="HindiText">केवलज्ञान एक प्रकार का है, क्योंकि, वह कर्म क्षय से उत्पन्न होने वाला है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> केवलज्ञान गुण नहीं पर्याय है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> केवलज्ञान गुण नहीं पर्याय है</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-1,17/34/3 <span class="SanskritText">पर्यायस्य केवलज्ञानस्य पर्यायाभावात: सामर्थ्यद्वयाभावात्।</span> =<span class="HindiText">केवलज्ञान स्वयं पर्याय है और पर्याय के दूसरी पर्याय होती नहीं है। इसलिए केवलज्ञान के स्व व पर की जानने वाली दो शक्तियों का अभाव है।</span><br /> | ||
ध. | ध.7/2,1,46/88/11<span class="PrakritText"> ण पारिणामिएण भावेण होदि, सव्वजीवाणं केवलणाणुप्पत्तिप्पसंगादो।</span>=<span class="HindiText"><strong> प्रश्न</strong>—जीव केवलज्ञानी कैसे होता है? (सूत्र 46)। <strong>उत्तर</strong>—पारिणामिक भाव से तो होता नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो सभी जीवों के केवलज्ञान की उत्पत्ति का प्रसंग आ जाता।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> यह मोह व ज्ञानावरणीय के क्षय से | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> यह मोह व ज्ञानावरणीय के क्षय से उत्पन्न होता है</strong></span><br /> | ||
त.सू./ | त.सू./10/1 <span class="SanskritText">मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्।</span><span class="HindiText">=मोह का क्षय होने से तथा ज्ञानावरण दर्शनावरण व अन्तराय कर्म का क्षय होने से केवलज्ञान प्रगट होता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> केवलज्ञान का मतार्थ</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> केवलज्ञान का मतार्थ</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-9,216/490/4<span class="SanskritText"> केवलज्ञाने समुत्पन्नेऽपि सर्व न जानातीति कपिलो ब्रूते।<br /> | ||
तत्र तन्निराकरणार्थं | तत्र तन्निराकरणार्थं बुद्धयन्त इत्युच्यते।</span>=<span class="HindiText">कपिल का कहना है कि केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भी सब वस्तुस्वरूप का ज्ञान नहीं होता। किंतु ऐसा नहीं है, अत: इसी का निराकरण करने के लिए ‘बुद्ध होते हैं’ यह पद कहा गया है।</span><br /> | ||
प.प्र./टी./ | प.प्र./टी./1/1/7/1 <span class="SanskritText">मुक्तात्मनां सुप्तावस्थावद्वहिर्ज्ञेयविषये परिज्ञानं नास्तीति सांख्या वदन्ति, तन्मतानुसारि शिष्यं प्रति जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसर्वपदार्थयुगपत्परिच्छित्तिरूपकेवलज्ञानस्थापनार्थ ज्ञानमयविशेषणं कृतमिति।</span>=<span class="HindiText">’मुक्तात्माओं के सुप्तावस्था की भाँति बाह्य ज्ञेय विषयों का परिज्ञान नहीं होता’ ऐसा सांख्य लोग कहते हैं। उनके मतानुसारी शिष्य के प्रति जगत्त्रय कालत्रयवर्ती सर्वपदार्थों को युगपत् जानने वाले केवलज्ञान के स्थापनार्थ ‘ज्ञानमय’ यह विशेषण दिया है।<br /> | ||
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Revision as of 21:39, 5 July 2020
- केवलज्ञान निर्देश
- केवलज्ञान का व्युत्पत्ति अर्थ
स.सि./1/9/14/6 बाह्येनाभ्यन्तरेण च तपसा यदर्थमर्थिनो मार्ग केवन्ते सेवन्ते तत्केवलम्।=अर्थीजन जिसके लिए बाह्य और अभ्यन्तर तप के द्वारा मार्ग का केवन अर्थात् सेवन करते हैं वह केवलज्ञान कहलाता है। (रा.वा./1/9/6/44-45) (श्लो.वा./3/1/9/8/5)
- केवलज्ञान निरपेक्ष व असहाय है
स.सि./1/9/94/7 असहायमिति वा।=केवल शब्द असहायवाची है, इसलिए असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। मो.पा./टी.6/308/13 (श्लो.वा./3/1/9/8/5)
ध.6/1,9-1,14/29/5 केवलमसहायमिंदियालोयणिरवेक्खं तिकालगोयराणं तपज्जायसमवेदाणं तवत्थुपरिमसंकुडियमसवत्तं केवलणाणं।=केवल असहाय को कहते हैं। जो ज्ञान असहाय अर्थात् इन्द्रिय और आलोक की अपेक्षा रहित है, त्रिकालगोचर अनन्तपर्यायों से समवायसम्बन्ध को प्राप्त अनन्त वस्तुओं को जानने वाला है, असंकुटित अर्थात् सर्व व्यापक है और असपत्न अर्थात् प्रतिपक्षी रहित है उसे केवलज्ञान कहते हैं। (ध.13/5,5,21/213/4)
क.पा./1/1,1/15/21,23 केवलमसहायं इन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्षत्वात्। ... आत्मार्थव्यतिरिक्तसहायनिरपेक्षत्वाद्वा केवलमसहायम्। केवलं च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानम्।=असहाय ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं, क्योंकि वह इन्द्रिय, प्रकाश और मनस्कार अर्थात् मनोव्यापार की अपेक्षा से रहित है। अथवा केवलज्ञान आत्मा और अर्थ से अतिरिक्त किसी इन्द्रियादिक सहायक की अपेक्षा से रहित है, इसलिए भी वह केवल अर्थात् असहाय है। इस प्रकार केवल अर्थात् असहाय जो ज्ञान है उसे केवलज्ञान कहते हैं।
- केवलज्ञान एक ही प्रकार का है
ध.12/4,2,14,5/480/7 केवलणाणमेयविधं, कम्मक्खएण उप्पज्जमाणत्तादो।=केवलज्ञान एक प्रकार का है, क्योंकि, वह कर्म क्षय से उत्पन्न होने वाला है।
- केवलज्ञान गुण नहीं पर्याय है
ध.6/1,9-1,17/34/3 पर्यायस्य केवलज्ञानस्य पर्यायाभावात: सामर्थ्यद्वयाभावात्। =केवलज्ञान स्वयं पर्याय है और पर्याय के दूसरी पर्याय होती नहीं है। इसलिए केवलज्ञान के स्व व पर की जानने वाली दो शक्तियों का अभाव है।
ध.7/2,1,46/88/11 ण पारिणामिएण भावेण होदि, सव्वजीवाणं केवलणाणुप्पत्तिप्पसंगादो।= प्रश्न—जीव केवलज्ञानी कैसे होता है? (सूत्र 46)। उत्तर—पारिणामिक भाव से तो होता नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो सभी जीवों के केवलज्ञान की उत्पत्ति का प्रसंग आ जाता।
- यह मोह व ज्ञानावरणीय के क्षय से उत्पन्न होता है
त.सू./10/1 मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम्।=मोह का क्षय होने से तथा ज्ञानावरण दर्शनावरण व अन्तराय कर्म का क्षय होने से केवलज्ञान प्रगट होता है।
- केवलज्ञान का मतार्थ
ध.6/1,9-9,216/490/4 केवलज्ञाने समुत्पन्नेऽपि सर्व न जानातीति कपिलो ब्रूते।
तत्र तन्निराकरणार्थं बुद्धयन्त इत्युच्यते।=कपिल का कहना है कि केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भी सब वस्तुस्वरूप का ज्ञान नहीं होता। किंतु ऐसा नहीं है, अत: इसी का निराकरण करने के लिए ‘बुद्ध होते हैं’ यह पद कहा गया है।
प.प्र./टी./1/1/7/1 मुक्तात्मनां सुप्तावस्थावद्वहिर्ज्ञेयविषये परिज्ञानं नास्तीति सांख्या वदन्ति, तन्मतानुसारि शिष्यं प्रति जगत्त्रयकालत्रयवर्तिसर्वपदार्थयुगपत्परिच्छित्तिरूपकेवलज्ञानस्थापनार्थ ज्ञानमयविशेषणं कृतमिति।=’मुक्तात्माओं के सुप्तावस्था की भाँति बाह्य ज्ञेय विषयों का परिज्ञान नहीं होता’ ऐसा सांख्य लोग कहते हैं। उनके मतानुसारी शिष्य के प्रति जगत्त्रय कालत्रयवर्ती सर्वपदार्थों को युगपत् जानने वाले केवलज्ञान के स्थापनार्थ ‘ज्ञानमय’ यह विशेषण दिया है।
- केवलज्ञान का व्युत्पत्ति अर्थ