क्षुल्लक: Difference between revisions
From जैनकोष
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<p class="HindiText"> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="HindiText">क्षुल्लक ‘शब्द का अर्थ छोटा है। छोटे साधु को क्षुल्लक कहते हैं। अथवा श्रावक को 11 भूमिकाओं में सर्वोत्कृष्ट भूमिका का नाम क्षुल्लक है। उसके भी दो भेद हैं—एक क्षुल्लक और दूसरा ऐल्लक। दोनों ही साधुवत् भिक्षावृत्ति से भोजन करते हैं, पर क्षुल्लक के पास एक कोपीन व एक चादर होती है, और ऐलक के पास केवल एक कोपीन। क्षुल्लक बर्तनों में भोजन कर लेता है पर ऐलक साधुवत् पाणिपात्र में ही करता है। क्षुल्लक केशलौंच भी कर लेता है और कैंची से भी बाल कटवा लेता है पर ऐलक केशलौंच ही करता है। साधु व ऐलक में लंगोटीमात्र का अन्तर है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> | <li><span class="HindiText"><strong> क्षुल्लक निर्देश</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> क्षुल्लक शब्द का अर्थ छोटा।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा का लक्षण।–देखें [[ उद्दिष्ट ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> उत्कृष्ट श्रावक के दो भेदों का निर्देश।–देखें [[ श्रावक#1 | श्रावक - 1]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> शूद्र को | <li class="HindiText"> शूद्र को क्षुल्लक दीक्षा सम्बन्धी।–देखें [[ वर्ण व्यवस्था#4 | वर्ण व्यवस्था - 4]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> क्षुल्लक का स्वरूप।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> क्षुल्लक को श्वेत वस्त्र रखना चाहिए, रंगीन नहीं।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> क्षुल्लक को शिखा व यज्ञोपवीत रखने का निर्देश।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> क्षुल्लक को मयूरपिच्छ का निषेध।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> क्षुल्लक घर में भी रह सकता है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> क्षुल्लक गृहत्यागी ही होता है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> पाणिपात्र में वा पात्र में भी भोजन करता है।<br /> | <li class="HindiText"> पाणिपात्र में वा पात्र में भी भोजन करता है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> क्षुल्लक की केश उतारने की विधि।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> क्षुल्लक को एकभुक्ति व पर्वोपवास का नियम।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> क्षुल्लक-श्रावक के भेद।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> एकगृहभोजी | <li class="HindiText"> एकगृहभोजी क्षुल्लक का स्वरूप।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अनेकगृहभोजी | <li class="HindiText"> अनेकगृहभोजी क्षुल्लक का स्वरूप।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अनेकगृहभोजी को आहारदान का निर्देश<br /> | <li class="HindiText"> अनेकगृहभोजी को आहारदान का निर्देश<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> क्षुल्लक को पात्र प्रक्षालनादि क्रिया के करने का विधान।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> क्षुल्लक को भगवान् की पूजा करने का निर्देश।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> साधनादि | <li class="HindiText"> साधनादि क्षुल्लकों का निर्देश व स्वरूप।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> क्षुल्लक के दो भेदों का इतिहास व समन्वय।</li> | ||
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<li class="HindiText"> ऐलक का | <li class="HindiText"> ऐलक का स्वरूप।–देखें [[ ऐलक ]]।</li> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText">क्षुल्लक व ऐलक रूप दो भेदों का इतिहास व समन्वय।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> क्षुल्लक शब्द का अर्थ छोटा</strong></span><br /> | ||
अमरकोष/ | अमरकोष/342/16<span class="SanskritText"> विवर्ण: पामरो नीच: प्राकृतश्च पृथग्जन:। निहीनोऽपसदो जाल्म: क्षुल्लकश्चेतरश्च स:।</span>=<span class="HindiText">विवर्ण:, पामर, नीच, प्राकृत और पृथग्जन, निहीन, अपसद, जाल्म और क्षुल्लक ये एकार्थवाची शब्द हैं।</span><br /> | ||
स्व.स्तो./5 <span class="SanskritGatha">स विश्वचक्षुर्वृषभोऽर्चित: सतां, समग्रविद्यात्मवपुर्निरंजन:। पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनौ, जिनोऽजितक्षुल्लक–वादि शासन:।5।</span>=<span class="HindiText">जो सम्पूर्ण कर्म शत्रुओं को जीतकर ‘जिन’ हुए, जिनका शासन क्षुल्लकवादियों के द्वारा अजेय और जो सर्वदर्शी है, सर्व विद्यात्म शरीर हैं, जो सत्पुरुषों से पूजित हैं, जो निरंजन पद को प्राप्त हैं। वे नाभिनन्दन श्री ऋषभदेव मेरे अन्त:करण को पवित्र करें।<br /> | |||
<strong>* | <strong>* उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा का लक्षण—</strong>देखें [[ उद्दिष्ट ]]।<br /> | ||
<strong>* | <strong>* उत्कृष्ट श्रावक के दो भेदों का निर्देश—</strong>देखें [[ श्रावक#1 | श्रावक - 1]]।<br /> | ||
<strong>* शूद्र की | <strong>* शूद्र की क्षुल्लक दीक्षा सम्बन्धी—</strong>देखें [[ वर्ण व्यवस्था#4 | वर्ण व्यवस्था - 4]] <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> क्षुल्लक का स्वरूप</strong></span><br /> | ||
सा.ध./ | सा.ध./7/38...<span class="SanskritText">कौपीनसंख्यान (धर:)</span>=<span class="HindiText">पहला (श्रावक) क्षुल्लक लँगोटी और कोपीन का धारक होता है।</span><br /> | ||
ला.सं./ | ला.सं./7/63 <span class="SanskritText">क्षुल्लक: कोमलाचार: ...। एकवस्त्रं सकोपीनं ...।</span>=<span class="HindiText">क्षुल्लक श्रावक ऐलक की अपेक्षा कुछ सरल चारित्र पालन करता है...एक वस्त्र, तथा एक कोपीन धारण करता है। (भावार्थ–एक वस्त्र रखने का अभिप्राय खण्ड वस्त्र से है। दुपट्टा के समान एक वस्त्र धारण करता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> | <li><span class="HindiText" name="3" id="3"><strong> क्षुल्लक को श्वेत वस्त्र रखना चाहिए, रंगीन नहीं</strong></span><br /> | ||
प.पु./ | प.पु./100/36<span class="SanskritText"> अंशुकेनोपवीतेन सितेन प्रचलात्मना। मृणालकाण्डजालेन नागेन्द्र इव मन्थर:।36।</span> =<span class="HindiText">(वह क्षुल्लक) धारण किये हुए सफेद चञ्चल वस्त्र से ऐसा जान पड़ता था मानो मृणालों के समूह से वेष्टित मन्द-मन्द चलने वाला गजराज ही हो।</span><br /> | ||
सा.ध./ | सा.ध./7/38...।<span class="SanskritText"> सितकौपीनसंख्यान: ...।38।</span>=<span class="HindiText">पहला क्षुल्लक केवल सफेद लँगोटी व ओढ़नी रखता है। (जसहर चरित्र (पुष्पदन्तकृता)/85); (धर्मसंग्रहश्रा./8/61)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> क्षुल्लक को शिखा व यज्ञोपवीत रखने का निर्देश</strong> </span><br /> | ||
ला.सं./ | ला.सं./7/63<span class="SanskritText"> क्षुल्लक: कोमलाचार: शिखासूत्राङ्कितो भवेत् ।</span>=<span class="HindiText">यह क्षुल्लक श्रावक चोटी और यज्ञोपवीत को धारण करता है।63। [दशवीं प्रतिमा में यदि यज्ञोपवीत व चोटी को रखा है तो क्षुल्लक अवस्था में भी नियम से रखनी होंगी। अन्यथा इच्छानुसार कर लेता है। ऐसा अभिप्राय है। (ला.सं./7/63 का भावार्थ)]<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> | <li><span class="HindiText" name="5" id="5"><strong> क्षुल्लक के लिए मयूरपिच्छका निेषेध</strong> </span><br /> | ||
सा.ध./ | सा.ध./7/39 <span class="SanskritText">स्थानादिषु प्रतिलिखेद्, मृदूपकरणेन स:।39।</span>=<span class="HindiText">वह प्रथम उत्कृष्ट श्रावक प्राणियों को बाधा नहीं पहुँचाने वाले कोमल वस्त्रादिक उपकरण से स्थानादिक में शुद्धि करे।39।</span><br /> | ||
ला.सं./ | ला.सं./7/63...।..<span class="SanskritText">.वस्त्रपिच्छकमण्डलुम् ।63।</span>=<span class="HindiText">वह क्षुल्लक श्रावक वस्त्र की पीछी रखता है। [वस्त्र का छोटा टुकड़ा रखता है उसी से पीछी का सब काम लेता है। पीछी का नियम ऐलक अवस्था से है इसलिए क्षुल्लक को वस्त्र की ही पीछी रखने को कहा है। (ला.सं./7/63 का भावार्थ)]<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong> | <li><span class="HindiText" name="6" id="6"><strong> क्षुल्लक घर में भी रह सकता है</strong> </span><br /> | ||
म.पु./ | म.पु./10/158 <span class="SanskritText">नृपस्तु सुविधि: पुत्रस्नेहाद् गार्हस्थ्यमत्यजन् । उत्कृष्टोपसकस्थाने तपस्तेपे सुदुश्चरम् ।158।</span>=<span class="HindiText">राजा सुविधि (ऋषभ भगवान् का पूर्व का पाँचवाँ भाव) केशव पुत्र के स्नेह से गृहस्थ अवस्था का परित्याग नहीं कर सका था, इसलिए श्रावक के उत्कृष्ट पद में स्थित रहकर कठिन तप तपता था।158। (सा.ध./7/26 का विशेषार्थ)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="7" id="7"><strong> | <li><span class="HindiText" name="7" id="7"><strong> क्षुल्लक गृहत्यागी ही होता है</strong></span><br /> | ||
र.क.श्रा./ | र.क.श्रा./147 <span class="SanskritGatha">गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य। भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधर:।147।</span>=<span class="HindiText">जो घर से निकलकर मुनिवन को प्राप्त होकर गुरु से व्रत धारण कर तप तपता हुआ भिक्षाचारी होता है और वह खण्डवस्त्र का धारक उत्कृष्ट श्रावक होता है।</span><br /> | ||
सा.ध./ | सा.ध./7/47 <span class="SanskritText">वसेन्मुनिवने नित्यं, शुश्रूषेत गुरुश्चरेत् । तपो द्विधापि दशधा, वैयावृत्यं विशेषत:।</span> =<span class="HindiText">क्षुल्लक सदा मुनियों के साथ उनके निवास भूत वन में निवास करे। तथा गुरुओं को सेवे, अन्तरंग व बहिरंग दोनों प्रकार तप को आचरे। तथा खासकर दश प्रकार वैयावृत्य को आचरण करे।47।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="8" id="8"><strong> पाणिपात्र में या पात्र में भी भोजन कर सकता है</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="8" id="8"><strong> पाणिपात्र में या पात्र में भी भोजन कर सकता है</strong></span><br /> | ||
सू.पा./मू./ | सू.पा./मू./21...। <span class="PrakritText">भिक्खं भमेइ पत्ते समिदीभासेण मोणेण।2।</span>=<span class="HindiText">उत्कृष्ट श्रावक भ्रम करि भोजन करै है, बहुरि पत्ते कहिये पात्रमैं भोजन करै तथा हाथ मैं करै बहुरि समितिरूप प्रवर्त्तता भाषा समितिरूप बोले अथवा मौनकरि प्रवर्त्तै। (व.सु.श्रा./303); (सा.ध./7/40)</span><br /> | ||
ला.सं./ | ला.सं./7/64 <span class="SanskritGatha">भिक्षापात्रं च गृह्णीयात्कांस्यं यद्वाप्ययोमयम् । एषणादोषर्निमुक्तं भिक्षाभोजनमेकश: ।64।</span>=<span class="HindiText">यह क्षुल्लक श्रावक भिक्षा के लिए काँसे का अथवा लोहे का पात्र रखता है तथा शास्त्रों में जो भोजन के दोष बताये हैं, उन सबसे रहित एक बार भिक्षा भोजन करता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="9" id="9"><strong> | <li><span class="HindiText" name="9" id="9"><strong> क्षुल्लक की केश उतारने की विधि</strong></span><br /> | ||
म.पु./ | म.पु./100/34<span class="SanskritText"> प्रशान्तवदनो धीरो लुञ्चरञ्जितमस्तक:।...।34।</span>=<span class="HindiText">लव, कुश का विद्या गुरु सिद्धार्थ नामक क्षुल्लक, प्रशान्त मुख था, धीर-वीर था, केशलुंच करने से उसका मस्तक सुशोभित था।</span><br /> | ||
व.सु.श्रा./ | व.सु.श्रा./302 <span class="PrakritGatha">धम्मिल्लाणं चयणं करेइ कत्तरि छुरेण वा पढमो। ठाणाइसु पडिलेहइ उवयरणेण पयडप्पा।302।</span>=<span class="HindiText">प्रथम उत्कृष्ट श्रावक (जिसे क्षुल्लक कहते हैं) धम्मिल्लों का चयन अर्थात्, हजामत कैंची से अथवा उस्तरे से कराता है।...।302। (सा.ध./7/38); (ला.सं./7/65) <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="10" id="10"><strong> | <li><span class="HindiText" name="10" id="10"><strong> क्षुल्लक को एकभुक्ति व पर्वोपवास का नियम</strong></span><br /> | ||
वसु.श्रा./ | वसु.श्रा./303 <span class="PrakritGatha">भुंजेइ पाणिपत्तम्मि भायणे वा सइ समुवइट्ठो। उववासं पुण णियमा चउव्विहं कुणइ पव्वेसु।303।</span>=<span class="HindiText">क्षुल्लक एक बार बैठकर भोजन करता है किन्तु पर्वों में नियम से उपवास करता है।<br /> | ||
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<li class="HindiText" name="11" id="11"><strong> | <li class="HindiText" name="11" id="11"><strong> क्षुल्लक श्रावक के भेद</strong><br /> | ||
सा.ध./ | सा.ध./7/40-46 भावार्थ, क्षुल्लक भी दो प्रकार का है, एक तो एकगृहभोजी और दूसरा अनेकगृह भोजी। (ला.सं./7/65)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="12" id="12"><strong> एकगृहभोजी | <li><span class="HindiText" name="12" id="12"><strong> एकगृहभोजी क्षुल्लक का स्वरूप</strong> </span><br /> | ||
वसु.श्रा./ | वसु.श्रा./309-310 <span class="PrakritGatha">जइ एवं ण रअज्जो काउंरिसगिहम्मि चरियाए। पविसति एतभिक्ख पवित्तिणियमणं ता कुज्जा।309। गंतूण गुरुसमीवं पञ्चक्खाणं चउव्विहं विहिणा। गहिऊण तओ सव्वं आलोचेज्जा पयत्तेण।310।</span>=<span class="HindiText">यदि किसी को अनेक गृहगोचरी न रुचे, तो वह मुनियों की गोचरी जाने के पश्चात् चर्या के लिए प्रवेश करे, अर्थात् एक भिक्षा के नियमवाला उत्कृष्ट श्रावक चर्या के लिए किसी श्रावक जन के घर जावे और यदि इस प्रकार भिक्षा न मिले तो उसे प्रवृत्तिनियमन करना चाहिए।309। पश्चात् गुरु के समीप जाकर विधिपूर्वक चतुर्विध प्रत्याख्यान ग्रहणकर पुन: प्रयत्न के साथ सर्व दोषों की आलोचना करे।310। (सा.ध./7/46) और भी देखें [[ शीर्षक नं#0 7 | शीर्षक नं - 0 7]]।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="13" id="13"><strong> अनेकगृहभोजी | <li><span class="HindiText" name="13" id="13"><strong> अनेकगृहभोजी क्षुल्लक का स्वरूप</strong> </span><br /> | ||
वसु.श्रा./ | वसु.श्रा./304-308 <span class="PrakritText">पक्खालिऊण पत्तं पविसइ चरियाय पंगणे ठिच्चा। भणिऊण धम्मलाहं जायइ भिक्खं सयं चेव।304। सिग्घं लाहालाहे अदीणवयणो णियत्तिऊण तओ। अण्णमि गिहे वच्चइ दरिसइ मोणेण कायं वा।305। जइ अद्धवहे कोइ वि भणइ पत्थेइ भोयणं कुणह। भोत्तूण णियमिभिक्खं तस्सएण भुंजए सेसं।306। अहं ण भणइ तो भिक्खं भमेज्ज णियपोट्टपूरणपमाणं। पच्छा एयम्मि गिहे जाएज्ज पासुगं सलिलं।307। जं किं पि पडिय भिक्खं भुंजिज्जो सोहिऊण जत्तेण। पक्खालिऊण पत्तं गच्छिज्जो गुरुसयासम्मि।308।</span>=<span class="HindiText">(अनेक गृहभोजी उत्कृष्टश्रावक) पात्र को प्रक्षालन करके चर्या के लिए श्रावक के घर में प्रवेश करता है, और आँगन में ठहरकर ‘धर्म लाभ’ कहकर (अथवा अपना शरीर दिखाकर) स्वयं भिक्षा माँगता है।304। भिक्षा-लाभ के अलाभ में अर्थात् भिक्षा न मिलने पर, अदीन मुख हो वहाँ से शीघ्र निकलकर दूसरे घर में जाता है और मौन से अपने शरीर को दिखलाता है।305। यदि अर्ध-पथ में—यदि मार्ग के बीच में ही कोई श्रावक मिले और प्रार्थना करे कि भोजन कर लीजिए तो पूर्व घर से प्राप्त अपनी भिक्षा को खाकर, शेष अर्थात् जितना पेट खाली रहे, तत्प्रमाण उस श्रावक के अन्न को खाये।306। यदि कोई भोजन के लिए न कहे, तो अपने पेट को पूरण करने के प्रमाण भिक्षा प्राप्त करने तक परिभ्रमण करे, अर्थात् अन्य-अन्य श्रावकों के घर जावे। आवश्यक भिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् किसी एक घर में जाकर प्रासुक जल माँगे।307। जो कुछ भी भिक्षा प्राप्त हुई हो, उसे शोधकर भोजन करे और यत्न के साथ अपने पात्र को प्रक्षालन कर गुरु के पास जावे।308। (प.पु./100/33-41); (सा.ध./7/40-43); (ल.सं.7)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="14" id="14"><strong> अनेकगृहभोजी को आहारदान का निर्देश</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="14" id="14"><strong> अनेकगृहभोजी को आहारदान का निर्देश</strong></span><br /> | ||
ला.स./ | ला.स./67-68 <span class="SanskritText">तत्राप्यन्यतमगेहे दृष्ट्वा प्रासुकमम्बुकम् । क्षणं चातिथिभागाय संप्रक्ष्याध्वं च भोजयेत् ।67। दैवात्पात्रं समासाद्य दद्याद्दानं गृहस्थवत् । तच्छेषं यत्स्वयं भुङ्क्ते नोचेत्कुर्यादुपोषितम् ।68।</span>=<span class="HindiText">वह क्षुल्लक उन पाँच घरों में से ही किसी एक घर में जहाँ प्रासुक जल दृष्टिगोचर हो जाता है, उसी घर में भोजन के लिए ठहर जाता है तथा थोड़ी देर तक वह किसी मुनिराज को आहारदान देने के लिए प्रतीक्षा करता है, यदि आहार दान देने का किसी मुनिराज का समागम नहीं मिला तो फिर वह भोजन कर लेता है।67। यदि दैवयोग से आहार दान देने के लिए किसी मुनिराज का समागम मिल जाये अथवा अन्य किसी पात्र का समागम मिल जाये, तो वह क्षुल्लक श्रावक गृहस्थ के समान अपना लाया हुआ भोजन उन मुनिराज को दे देता है। पश्चात् जो कुछ बचा रहता है उसको स्वयं भोजन कर लेता है, यदि कुछ न बचे तो उस दिन नियम से उपवास करता है।68।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="15" id="15"><strong> | <li><span class="HindiText" name="15" id="15"><strong> क्षुल्लक को पात्रप्रक्षालनादि क्रिया के करने का विधान</strong> </span><br /> | ||
सा.ध./ | सा.ध./7/44 <span class="SanskritGatha">आकाङ्क्षन्संयमं भिक्षा-पात्रप्रक्षालनादिषु। स्वयं यतेत चादर्प:, परथासंयमो महान् ।44।</span>=<span class="HindiText">वह क्षुल्लक संयम की इच्छा करता हुआ, अपने भोजन के पात्र को धोने आदि के कार्य में अपने तप और विद्या आदि का गर्व नहीं करता हुआ स्वयं ही यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करे नहीं तो बड़ा भारी असंयम होता है।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="16" id="16"><strong> | <li><span class="HindiText" name="16" id="16"><strong> क्षुल्लक को भगवान् की पूजा करने का निर्देश</strong></span><br /> | ||
ला.सं./ | ला.सं./7/69 <span class="SanskritGatha">किंच गन्धादिद्रव्याणामुपलब्धौ सधर्मिभि:। अर्हद्विम्बादिसाधूनां पूजा कार्या मुदात्मना।69।</span>=<span class="HindiText">यदि उस क्षुल्लक श्रावक को किसी साधर्मी पुरुष से जल, चन्दन, अक्षतादि पूजा करने की सामग्री मिल जाये तो उसे प्रसन्नचित्त होकर भगवान् अर्हन्तदेव का पूजन करना चाहिए। अथवा सिद्ध परमेष्ठी वा साधु की पूजा कर लेनी चाहिए।69। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="17" id="17"><strong> साधकादि क्षुल्लकों का निर्देश व | <li><span class="HindiText" name="17" id="17"><strong> साधकादि क्षुल्लकों का निर्देश व स्वरूप </strong> </span><br /> | ||
ला.सं./ | ला.सं./7/70-73 <span class="SanskritGatha">किंच मात्र साधका: केचित्केचिद् गूढाह्रया: पुन:। वाणप्रस्थाख्यका: केचित्सर्वे तद्वेषधारिण:।70। क्षुल्लकीवत्क्रिया तेषां नात्युग्रं नातीव मृदु:। मध्यावर्तिव्रतं तद्वत्पञ्चगुर्वात्मसाक्षिकम् ।71। अस्ति कश्चिद्विशेषोऽत्र साधकादिषु कारणात् । अगृहीतव्रता: कुर्युर्व्रताभ्यासं व्रताशया:।72। समभ्यस्तव्रता: केचिद् व्रतं गृह्लन्ति साहसात् । न गृह्लन्ति व्रतं केचिद् गृहे गच्छन्ति कातरा:।73।</span>=<span class="HindiText">क्षुल्लक श्रावकों के भी कितने ही भेद हैं। कोर्इ साधक क्षुल्लक हैं, कोई गूढ क्षुल्लक होते हैं और कोई वाणप्रस्थ क्षुल्लक होते हैं। ये तीनों ही प्रकार के क्षुल्लक क्षुल्लक के समान वेष धारण करते हैं।70। ये तीनों ही क्षुल्लक की क्रियाओं का पालन करते हैं। ये तीनों ही न तो अत्यन्त कठिन व्रतों का पालन करते हैं और न अत्यन्त सरल, किन्तु मध्यम स्थिति के व्रतों का पालन करते हैं तथा पञ्च परमेष्ठी की साक्षीपूर्वक व्रतों का ग्रहण करते हैं।71। इन तीनों प्रकार के क्षुल्लकों में परस्पर विशेष भेद नहीं है। इनमें से जिन्होंने क्षुल्लक व्रत नहीं लिये हैं किन्तु व्रत धारण करना चाहते हैं, वे उन व्रतों का अभ्यास करते हैं।72। तथा जिन्होंने व्रतों को पालन करने का पूर्ण अभ्यास कर लिया है वे साहसपूर्वक उन व्रतों को ग्रहण कर लेते हैं। तथा कोई कातर और असाहसी ऐसे भी होते हैं जो व्रतों का ग्रहण नहीं करते किन्तु घर चले जाते हैं।73। <br /> | ||
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<li class="HindiText" name="18" id="18"><strong> | <li class="HindiText" name="18" id="18"><strong>क्षुल्लक के दो भेदों का इतिहास व समन्वय</strong> <br /> | ||
वसु.श्रा./प्र./पृ. | वसु.श्रा./प्र./पृ.62 जिनसेनाचार्य के पूर्वतक शूद्र को दीक्षा देने या न देने का कोई प्रश्न न था। जिनसेनाचार्य के समक्ष जब यह प्रश्न आया तो उन्होंने अदीक्षार्ह और दीक्षार्ह कुलोत्पन्नों का विभाग किया।...क्षुल्लक को जो पात्र रखने और अनेक घरों से भिक्षा लाकर खाने का विधान किया गया है वह भी सम्भवत: उनके शूद्र होने के कारण ही किया गया प्रतीत होता है।<br /> | ||
<strong> ऐलक का | <strong> ऐलक का स्वरूप—</strong>देखें [[ ऐलक ]]।</li> | ||
<li class="HindiText" name="19" id="19"><strong> | <li class="HindiText" name="19" id="19"><strong> क्षुल्लक व ऐलक रूप दो भेदों का इतिहास व समन्वय <BR> | ||
</strong>वसु./श्रा./प्र./ | </strong>वसु./श्रा./प्र./63 उक्त रूप वाले क्षुल्लकों को किस श्रावक प्रतिमा में स्थान दिया जाये, यह प्रश्न सर्वप्रथम वसुनन्दि के सामने आया प्रतीत होता है, क्योंकि उन्होंने ही सर्वप्रथम ग्यारहवीं प्रतिमा के भेद किये हैं। इनसे पूर्ववर्ती किसी भी आचार्य ने इस प्रतिमा के दो भेद नहीं किये।...14वीं 15वीं शताब्दी तक (वे) प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट रूप से चलते रहे। 16वीं शताब्दी में पं॰ राजमल्लजी ने अपनी लाटी संहिता में सर्वप्रथम उनके लिए क्रमश: क्षुल्लक और ऐलक शब्द का प्रयोग किया।</li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p> दसवीं प्रतिमा का धारक साधु । यह पाँच समितियों और तीन गुप्तियों के साथ पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का पालन करता है । ऐसा व्रती घर पर भी रह सकता है । राजा सुविधि ऐसा ही व्रती था । <span class="GRef"> महापुराण 10. 158-170 </span></p> | |||
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Revision as of 21:40, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
क्षुल्लक ‘शब्द का अर्थ छोटा है। छोटे साधु को क्षुल्लक कहते हैं। अथवा श्रावक को 11 भूमिकाओं में सर्वोत्कृष्ट भूमिका का नाम क्षुल्लक है। उसके भी दो भेद हैं—एक क्षुल्लक और दूसरा ऐल्लक। दोनों ही साधुवत् भिक्षावृत्ति से भोजन करते हैं, पर क्षुल्लक के पास एक कोपीन व एक चादर होती है, और ऐलक के पास केवल एक कोपीन। क्षुल्लक बर्तनों में भोजन कर लेता है पर ऐलक साधुवत् पाणिपात्र में ही करता है। क्षुल्लक केशलौंच भी कर लेता है और कैंची से भी बाल कटवा लेता है पर ऐलक केशलौंच ही करता है। साधु व ऐलक में लंगोटीमात्र का अन्तर है।
- क्षुल्लक निर्देश
- क्षुल्लक शब्द का अर्थ छोटा।
- उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा का लक्षण।–देखें उद्दिष्ट ।
- उत्कृष्ट श्रावक के दो भेदों का निर्देश।–देखें श्रावक - 1।
- शूद्र को क्षुल्लक दीक्षा सम्बन्धी।–देखें वर्ण व्यवस्था - 4।
- क्षुल्लक का स्वरूप।
- क्षुल्लक को श्वेत वस्त्र रखना चाहिए, रंगीन नहीं।
- क्षुल्लक को शिखा व यज्ञोपवीत रखने का निर्देश।
- क्षुल्लक को मयूरपिच्छ का निषेध।
- क्षुल्लक घर में भी रह सकता है।
- क्षुल्लक गृहत्यागी ही होता है।
- पाणिपात्र में वा पात्र में भी भोजन करता है।
- क्षुल्लक की केश उतारने की विधि।
- क्षुल्लक को एकभुक्ति व पर्वोपवास का नियम।
- क्षुल्लक-श्रावक के भेद।
- एकगृहभोजी क्षुल्लक का स्वरूप।
- अनेकगृहभोजी क्षुल्लक का स्वरूप।
- अनेकगृहभोजी को आहारदान का निर्देश
- क्षुल्लक को पात्र प्रक्षालनादि क्रिया के करने का विधान।
- क्षुल्लक को भगवान् की पूजा करने का निर्देश।
- साधनादि क्षुल्लकों का निर्देश व स्वरूप।
- क्षुल्लक के दो भेदों का इतिहास व समन्वय।
- क्षुल्लक शब्द का अर्थ छोटा।
- ऐलक निर्देश
- ऐलक का स्वरूप।–देखें ऐलक ।
- क्षुल्लक व ऐलक रूप दो भेदों का इतिहास व समन्वय।
- क्षुल्लक शब्द का अर्थ छोटा
अमरकोष/342/16 विवर्ण: पामरो नीच: प्राकृतश्च पृथग्जन:। निहीनोऽपसदो जाल्म: क्षुल्लकश्चेतरश्च स:।=विवर्ण:, पामर, नीच, प्राकृत और पृथग्जन, निहीन, अपसद, जाल्म और क्षुल्लक ये एकार्थवाची शब्द हैं।
स्व.स्तो./5 स विश्वचक्षुर्वृषभोऽर्चित: सतां, समग्रविद्यात्मवपुर्निरंजन:। पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनौ, जिनोऽजितक्षुल्लक–वादि शासन:।5।=जो सम्पूर्ण कर्म शत्रुओं को जीतकर ‘जिन’ हुए, जिनका शासन क्षुल्लकवादियों के द्वारा अजेय और जो सर्वदर्शी है, सर्व विद्यात्म शरीर हैं, जो सत्पुरुषों से पूजित हैं, जो निरंजन पद को प्राप्त हैं। वे नाभिनन्दन श्री ऋषभदेव मेरे अन्त:करण को पवित्र करें।
* उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा का लक्षण—देखें उद्दिष्ट ।
* उत्कृष्ट श्रावक के दो भेदों का निर्देश—देखें श्रावक - 1।
* शूद्र की क्षुल्लक दीक्षा सम्बन्धी—देखें वर्ण व्यवस्था - 4
- क्षुल्लक का स्वरूप
सा.ध./7/38...कौपीनसंख्यान (धर:)=पहला (श्रावक) क्षुल्लक लँगोटी और कोपीन का धारक होता है।
ला.सं./7/63 क्षुल्लक: कोमलाचार: ...। एकवस्त्रं सकोपीनं ...।=क्षुल्लक श्रावक ऐलक की अपेक्षा कुछ सरल चारित्र पालन करता है...एक वस्त्र, तथा एक कोपीन धारण करता है। (भावार्थ–एक वस्त्र रखने का अभिप्राय खण्ड वस्त्र से है। दुपट्टा के समान एक वस्त्र धारण करता है।
- क्षुल्लक को श्वेत वस्त्र रखना चाहिए, रंगीन नहीं
प.पु./100/36 अंशुकेनोपवीतेन सितेन प्रचलात्मना। मृणालकाण्डजालेन नागेन्द्र इव मन्थर:।36। =(वह क्षुल्लक) धारण किये हुए सफेद चञ्चल वस्त्र से ऐसा जान पड़ता था मानो मृणालों के समूह से वेष्टित मन्द-मन्द चलने वाला गजराज ही हो।
सा.ध./7/38...। सितकौपीनसंख्यान: ...।38।=पहला क्षुल्लक केवल सफेद लँगोटी व ओढ़नी रखता है। (जसहर चरित्र (पुष्पदन्तकृता)/85); (धर्मसंग्रहश्रा./8/61)
- क्षुल्लक को शिखा व यज्ञोपवीत रखने का निर्देश
ला.सं./7/63 क्षुल्लक: कोमलाचार: शिखासूत्राङ्कितो भवेत् ।=यह क्षुल्लक श्रावक चोटी और यज्ञोपवीत को धारण करता है।63। [दशवीं प्रतिमा में यदि यज्ञोपवीत व चोटी को रखा है तो क्षुल्लक अवस्था में भी नियम से रखनी होंगी। अन्यथा इच्छानुसार कर लेता है। ऐसा अभिप्राय है। (ला.सं./7/63 का भावार्थ)]
- क्षुल्लक के लिए मयूरपिच्छका निेषेध
सा.ध./7/39 स्थानादिषु प्रतिलिखेद्, मृदूपकरणेन स:।39।=वह प्रथम उत्कृष्ट श्रावक प्राणियों को बाधा नहीं पहुँचाने वाले कोमल वस्त्रादिक उपकरण से स्थानादिक में शुद्धि करे।39।
ला.सं./7/63...।...वस्त्रपिच्छकमण्डलुम् ।63।=वह क्षुल्लक श्रावक वस्त्र की पीछी रखता है। [वस्त्र का छोटा टुकड़ा रखता है उसी से पीछी का सब काम लेता है। पीछी का नियम ऐलक अवस्था से है इसलिए क्षुल्लक को वस्त्र की ही पीछी रखने को कहा है। (ला.सं./7/63 का भावार्थ)]
- क्षुल्लक घर में भी रह सकता है
म.पु./10/158 नृपस्तु सुविधि: पुत्रस्नेहाद् गार्हस्थ्यमत्यजन् । उत्कृष्टोपसकस्थाने तपस्तेपे सुदुश्चरम् ।158।=राजा सुविधि (ऋषभ भगवान् का पूर्व का पाँचवाँ भाव) केशव पुत्र के स्नेह से गृहस्थ अवस्था का परित्याग नहीं कर सका था, इसलिए श्रावक के उत्कृष्ट पद में स्थित रहकर कठिन तप तपता था।158। (सा.ध./7/26 का विशेषार्थ)
- क्षुल्लक गृहत्यागी ही होता है
र.क.श्रा./147 गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य। भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधर:।147।=जो घर से निकलकर मुनिवन को प्राप्त होकर गुरु से व्रत धारण कर तप तपता हुआ भिक्षाचारी होता है और वह खण्डवस्त्र का धारक उत्कृष्ट श्रावक होता है।
सा.ध./7/47 वसेन्मुनिवने नित्यं, शुश्रूषेत गुरुश्चरेत् । तपो द्विधापि दशधा, वैयावृत्यं विशेषत:। =क्षुल्लक सदा मुनियों के साथ उनके निवास भूत वन में निवास करे। तथा गुरुओं को सेवे, अन्तरंग व बहिरंग दोनों प्रकार तप को आचरे। तथा खासकर दश प्रकार वैयावृत्य को आचरण करे।47।
- पाणिपात्र में या पात्र में भी भोजन कर सकता है
सू.पा./मू./21...। भिक्खं भमेइ पत्ते समिदीभासेण मोणेण।2।=उत्कृष्ट श्रावक भ्रम करि भोजन करै है, बहुरि पत्ते कहिये पात्रमैं भोजन करै तथा हाथ मैं करै बहुरि समितिरूप प्रवर्त्तता भाषा समितिरूप बोले अथवा मौनकरि प्रवर्त्तै। (व.सु.श्रा./303); (सा.ध./7/40)
ला.सं./7/64 भिक्षापात्रं च गृह्णीयात्कांस्यं यद्वाप्ययोमयम् । एषणादोषर्निमुक्तं भिक्षाभोजनमेकश: ।64।=यह क्षुल्लक श्रावक भिक्षा के लिए काँसे का अथवा लोहे का पात्र रखता है तथा शास्त्रों में जो भोजन के दोष बताये हैं, उन सबसे रहित एक बार भिक्षा भोजन करता है।
- क्षुल्लक की केश उतारने की विधि
म.पु./100/34 प्रशान्तवदनो धीरो लुञ्चरञ्जितमस्तक:।...।34।=लव, कुश का विद्या गुरु सिद्धार्थ नामक क्षुल्लक, प्रशान्त मुख था, धीर-वीर था, केशलुंच करने से उसका मस्तक सुशोभित था।
व.सु.श्रा./302 धम्मिल्लाणं चयणं करेइ कत्तरि छुरेण वा पढमो। ठाणाइसु पडिलेहइ उवयरणेण पयडप्पा।302।=प्रथम उत्कृष्ट श्रावक (जिसे क्षुल्लक कहते हैं) धम्मिल्लों का चयन अर्थात्, हजामत कैंची से अथवा उस्तरे से कराता है।...।302। (सा.ध./7/38); (ला.सं./7/65)
- क्षुल्लक को एकभुक्ति व पर्वोपवास का नियम
वसु.श्रा./303 भुंजेइ पाणिपत्तम्मि भायणे वा सइ समुवइट्ठो। उववासं पुण णियमा चउव्विहं कुणइ पव्वेसु।303।=क्षुल्लक एक बार बैठकर भोजन करता है किन्तु पर्वों में नियम से उपवास करता है।
- क्षुल्लक श्रावक के भेद
सा.ध./7/40-46 भावार्थ, क्षुल्लक भी दो प्रकार का है, एक तो एकगृहभोजी और दूसरा अनेकगृह भोजी। (ला.सं./7/65)
- एकगृहभोजी क्षुल्लक का स्वरूप
वसु.श्रा./309-310 जइ एवं ण रअज्जो काउंरिसगिहम्मि चरियाए। पविसति एतभिक्ख पवित्तिणियमणं ता कुज्जा।309। गंतूण गुरुसमीवं पञ्चक्खाणं चउव्विहं विहिणा। गहिऊण तओ सव्वं आलोचेज्जा पयत्तेण।310।=यदि किसी को अनेक गृहगोचरी न रुचे, तो वह मुनियों की गोचरी जाने के पश्चात् चर्या के लिए प्रवेश करे, अर्थात् एक भिक्षा के नियमवाला उत्कृष्ट श्रावक चर्या के लिए किसी श्रावक जन के घर जावे और यदि इस प्रकार भिक्षा न मिले तो उसे प्रवृत्तिनियमन करना चाहिए।309। पश्चात् गुरु के समीप जाकर विधिपूर्वक चतुर्विध प्रत्याख्यान ग्रहणकर पुन: प्रयत्न के साथ सर्व दोषों की आलोचना करे।310। (सा.ध./7/46) और भी देखें शीर्षक नं - 0 7।
- अनेकगृहभोजी क्षुल्लक का स्वरूप
वसु.श्रा./304-308 पक्खालिऊण पत्तं पविसइ चरियाय पंगणे ठिच्चा। भणिऊण धम्मलाहं जायइ भिक्खं सयं चेव।304। सिग्घं लाहालाहे अदीणवयणो णियत्तिऊण तओ। अण्णमि गिहे वच्चइ दरिसइ मोणेण कायं वा।305। जइ अद्धवहे कोइ वि भणइ पत्थेइ भोयणं कुणह। भोत्तूण णियमिभिक्खं तस्सएण भुंजए सेसं।306। अहं ण भणइ तो भिक्खं भमेज्ज णियपोट्टपूरणपमाणं। पच्छा एयम्मि गिहे जाएज्ज पासुगं सलिलं।307। जं किं पि पडिय भिक्खं भुंजिज्जो सोहिऊण जत्तेण। पक्खालिऊण पत्तं गच्छिज्जो गुरुसयासम्मि।308।=(अनेक गृहभोजी उत्कृष्टश्रावक) पात्र को प्रक्षालन करके चर्या के लिए श्रावक के घर में प्रवेश करता है, और आँगन में ठहरकर ‘धर्म लाभ’ कहकर (अथवा अपना शरीर दिखाकर) स्वयं भिक्षा माँगता है।304। भिक्षा-लाभ के अलाभ में अर्थात् भिक्षा न मिलने पर, अदीन मुख हो वहाँ से शीघ्र निकलकर दूसरे घर में जाता है और मौन से अपने शरीर को दिखलाता है।305। यदि अर्ध-पथ में—यदि मार्ग के बीच में ही कोई श्रावक मिले और प्रार्थना करे कि भोजन कर लीजिए तो पूर्व घर से प्राप्त अपनी भिक्षा को खाकर, शेष अर्थात् जितना पेट खाली रहे, तत्प्रमाण उस श्रावक के अन्न को खाये।306। यदि कोई भोजन के लिए न कहे, तो अपने पेट को पूरण करने के प्रमाण भिक्षा प्राप्त करने तक परिभ्रमण करे, अर्थात् अन्य-अन्य श्रावकों के घर जावे। आवश्यक भिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् किसी एक घर में जाकर प्रासुक जल माँगे।307। जो कुछ भी भिक्षा प्राप्त हुई हो, उसे शोधकर भोजन करे और यत्न के साथ अपने पात्र को प्रक्षालन कर गुरु के पास जावे।308। (प.पु./100/33-41); (सा.ध./7/40-43); (ल.सं.7)।
- अनेकगृहभोजी को आहारदान का निर्देश
ला.स./67-68 तत्राप्यन्यतमगेहे दृष्ट्वा प्रासुकमम्बुकम् । क्षणं चातिथिभागाय संप्रक्ष्याध्वं च भोजयेत् ।67। दैवात्पात्रं समासाद्य दद्याद्दानं गृहस्थवत् । तच्छेषं यत्स्वयं भुङ्क्ते नोचेत्कुर्यादुपोषितम् ।68।=वह क्षुल्लक उन पाँच घरों में से ही किसी एक घर में जहाँ प्रासुक जल दृष्टिगोचर हो जाता है, उसी घर में भोजन के लिए ठहर जाता है तथा थोड़ी देर तक वह किसी मुनिराज को आहारदान देने के लिए प्रतीक्षा करता है, यदि आहार दान देने का किसी मुनिराज का समागम नहीं मिला तो फिर वह भोजन कर लेता है।67। यदि दैवयोग से आहार दान देने के लिए किसी मुनिराज का समागम मिल जाये अथवा अन्य किसी पात्र का समागम मिल जाये, तो वह क्षुल्लक श्रावक गृहस्थ के समान अपना लाया हुआ भोजन उन मुनिराज को दे देता है। पश्चात् जो कुछ बचा रहता है उसको स्वयं भोजन कर लेता है, यदि कुछ न बचे तो उस दिन नियम से उपवास करता है।68।
- क्षुल्लक को पात्रप्रक्षालनादि क्रिया के करने का विधान
सा.ध./7/44 आकाङ्क्षन्संयमं भिक्षा-पात्रप्रक्षालनादिषु। स्वयं यतेत चादर्प:, परथासंयमो महान् ।44।=वह क्षुल्लक संयम की इच्छा करता हुआ, अपने भोजन के पात्र को धोने आदि के कार्य में अपने तप और विद्या आदि का गर्व नहीं करता हुआ स्वयं ही यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करे नहीं तो बड़ा भारी असंयम होता है।
- क्षुल्लक को भगवान् की पूजा करने का निर्देश
ला.सं./7/69 किंच गन्धादिद्रव्याणामुपलब्धौ सधर्मिभि:। अर्हद्विम्बादिसाधूनां पूजा कार्या मुदात्मना।69।=यदि उस क्षुल्लक श्रावक को किसी साधर्मी पुरुष से जल, चन्दन, अक्षतादि पूजा करने की सामग्री मिल जाये तो उसे प्रसन्नचित्त होकर भगवान् अर्हन्तदेव का पूजन करना चाहिए। अथवा सिद्ध परमेष्ठी वा साधु की पूजा कर लेनी चाहिए।69।
- साधकादि क्षुल्लकों का निर्देश व स्वरूप
ला.सं./7/70-73 किंच मात्र साधका: केचित्केचिद् गूढाह्रया: पुन:। वाणप्रस्थाख्यका: केचित्सर्वे तद्वेषधारिण:।70। क्षुल्लकीवत्क्रिया तेषां नात्युग्रं नातीव मृदु:। मध्यावर्तिव्रतं तद्वत्पञ्चगुर्वात्मसाक्षिकम् ।71। अस्ति कश्चिद्विशेषोऽत्र साधकादिषु कारणात् । अगृहीतव्रता: कुर्युर्व्रताभ्यासं व्रताशया:।72। समभ्यस्तव्रता: केचिद् व्रतं गृह्लन्ति साहसात् । न गृह्लन्ति व्रतं केचिद् गृहे गच्छन्ति कातरा:।73।=क्षुल्लक श्रावकों के भी कितने ही भेद हैं। कोर्इ साधक क्षुल्लक हैं, कोई गूढ क्षुल्लक होते हैं और कोई वाणप्रस्थ क्षुल्लक होते हैं। ये तीनों ही प्रकार के क्षुल्लक क्षुल्लक के समान वेष धारण करते हैं।70। ये तीनों ही क्षुल्लक की क्रियाओं का पालन करते हैं। ये तीनों ही न तो अत्यन्त कठिन व्रतों का पालन करते हैं और न अत्यन्त सरल, किन्तु मध्यम स्थिति के व्रतों का पालन करते हैं तथा पञ्च परमेष्ठी की साक्षीपूर्वक व्रतों का ग्रहण करते हैं।71। इन तीनों प्रकार के क्षुल्लकों में परस्पर विशेष भेद नहीं है। इनमें से जिन्होंने क्षुल्लक व्रत नहीं लिये हैं किन्तु व्रत धारण करना चाहते हैं, वे उन व्रतों का अभ्यास करते हैं।72। तथा जिन्होंने व्रतों को पालन करने का पूर्ण अभ्यास कर लिया है वे साहसपूर्वक उन व्रतों को ग्रहण कर लेते हैं। तथा कोई कातर और असाहसी ऐसे भी होते हैं जो व्रतों का ग्रहण नहीं करते किन्तु घर चले जाते हैं।73।
- क्षुल्लक के दो भेदों का इतिहास व समन्वय
वसु.श्रा./प्र./पृ.62 जिनसेनाचार्य के पूर्वतक शूद्र को दीक्षा देने या न देने का कोई प्रश्न न था। जिनसेनाचार्य के समक्ष जब यह प्रश्न आया तो उन्होंने अदीक्षार्ह और दीक्षार्ह कुलोत्पन्नों का विभाग किया।...क्षुल्लक को जो पात्र रखने और अनेक घरों से भिक्षा लाकर खाने का विधान किया गया है वह भी सम्भवत: उनके शूद्र होने के कारण ही किया गया प्रतीत होता है।
ऐलक का स्वरूप—देखें ऐलक । - क्षुल्लक व ऐलक रूप दो भेदों का इतिहास व समन्वय
वसु./श्रा./प्र./63 उक्त रूप वाले क्षुल्लकों को किस श्रावक प्रतिमा में स्थान दिया जाये, यह प्रश्न सर्वप्रथम वसुनन्दि के सामने आया प्रतीत होता है, क्योंकि उन्होंने ही सर्वप्रथम ग्यारहवीं प्रतिमा के भेद किये हैं। इनसे पूर्ववर्ती किसी भी आचार्य ने इस प्रतिमा के दो भेद नहीं किये।...14वीं 15वीं शताब्दी तक (वे) प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट रूप से चलते रहे। 16वीं शताब्दी में पं॰ राजमल्लजी ने अपनी लाटी संहिता में सर्वप्रथम उनके लिए क्रमश: क्षुल्लक और ऐलक शब्द का प्रयोग किया।
पुराणकोष से
दसवीं प्रतिमा का धारक साधु । यह पाँच समितियों और तीन गुप्तियों के साथ पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और शिक्षाव्रतों का पालन करता है । ऐसा व्रती घर पर भी रह सकता है । राजा सुविधि ऐसा ही व्रती था । महापुराण 10. 158-170