क्षेत्र 03: Difference between revisions
From जैनकोष
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> गुणस्थानों में सम्भव पदों की अपेक्षा</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1.1" id="3.1.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1.1" id="3.1.1"> मिथ्यादृष्टि</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,2/38/9<span class="PrakritText"> मिच्छाइट्ठिस्स सेस-तिण्णि विसेसणाणि ण संभवंति, तक्कारणसंजमादिगुणाणामभावादो।</span> =<span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि जीवराशि के शेष तीन विशेषण अर्थात् आहारक समुद्घात, तैजस समुद्घात, और केवली समुद्घात सम्भव नहीं हैं, क्योंकि इनके कारणभूत संयमादि गुणों का मिथ्यादृष्टि के अभाव है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1.2" id="3.1.2"> सासादन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1.2" id="3.1.2"> सासादन</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,3/39/9<span class="PrakritText"> सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी-सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदणकसाय-वेउव्वियसमुग्घादपरिणदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे। </span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,3/43/3<span class="PrakritText"> मारणांतिय-उववादगद-सासणसम्मादिट्ठी-असंजदसम्मादिट्ठीणमेवं चेव वत्तव्वं।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,4,4/150/1 <span class="PrakritText">तसजीवविरहिदेसु असंखेज्जेसु समुद्देसु णवरि सासणा णत्थि। वेरियवेंतरदेवेहि घित्ताणमत्थि संभवो, णवरि ते सत्थाणत्था ण होंति, विहारेण परिणत्तादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–1. स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषाय समुद्घात और वैक्रियक समुद्घात रूप से परिणत हुए सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने क्षेत्र में होते हैं? <strong>उत्तर</strong>—लोक के असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्र में। अर्थात् सासादनगुणस्थान में यह पाँच होने सम्भव हैं। 2. मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टियों का इसी प्रकार कथन करना चाहिए। अर्थात् इस गुणस्थान में ये दो पद भी सम्भव है। (विशेष देखें [[ सासादन ]]।1।10) 3. त्रस जीवों से विरहित (मानुषोत्तर व स्वयंप्रभ पर्वतों के मध्यवर्ती) असंख्यात समुद्रों में सासादन सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते। यद्यपि वैर भाव रखने वाले व्यन्तर देवों के द्वारा हरण करके ले जाये गये जीवों की वहाँ सम्भावना है। किन्तु वे वहाँ पर स्वस्थान स्वस्थान नहीं कहलाते हैं क्योंकि उस समय वे विहार रूप से परिणत हो जाते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1.3" id="3.1.3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1.3" id="3.1.3"> सम्यग्मिथ्यादृष्टि </strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,3/44/5 <span class="PrakritText">सम्मामिच्छाइट्ठियस्स मारणंतिय-उववादा णत्थि, तग्गुणस्स तदुहयविरोहित्तादो।</span>=<span class="HindiText">सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद नहीं होते हैं, क्योंकि, इस गुणस्थान का इन दोनों प्रकार की अवस्थाओं के साथ विरोध है। <strong>नोट</strong>—स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय व वैक्रियक समुद्घात ये पाँचों पद यहाँ होने सम्भव है। दे0–ऊपर सासादन के अन्तर्गत प्रमाण नं01।</span></li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="3.1.4" id="3.1.4"> असंयत | <li class="HindiText"><strong name="3.1.4" id="3.1.4"> असंयत सम्यग्दृष्टि</strong><br /> | ||
( | (स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियक व मारणान्तिक समुद्घात तथा उपपाद, यह सातों ही पद यहाँ सम्भव हैं–देखें [[ ऊपर सासादन के अन्तर्गत ]]प्रमाण नं01)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1.5" id="3.1.5"> संयतासंयत</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1.5" id="3.1.5"> संयतासंयत</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,3/44/6<span class="PrakritText"> एवं संजदासंजदाणं। णवरि उववादो णत्थि, अपज्जत्तकाले संजमासंजमगुणस्स अभावादो।...संजदासंजदाणं कधं वेउव्वियसमुग्घादस्स संभवो। ण, ओरालियसरीरस्स विउव्वणप्पयस्स विण्हुकुमारादिसु दंसणादो।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,4,8/169/7 <span class="PrakritText">कधं संजदासंजदाणं सेसदीव-समुद्देसु संभवो। ण, पुव्वववेरियदेवेहि तत्थ घित्ताणं संभवं पडिविरोधाभावा।</span>=<span class="HindiText">1. इसी प्रकार (असंयत सम्यग्दृष्टिवत्) संयतासंयतों का क्षेत्र जानना चाहिए। इतना विशेष है कि संयतासंयतों के उपपाद नहीं होता है, क्योंकि अपर्याप्त काल में संयमासंयम गुणस्थान नहीं पाया जाता है।...<strong>प्रश्न</strong>—संयता-संयतों के वैक्रियक समुद्घात कैसे सम्भव है? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, विष्णुकुमार मुनि आदि में विक्रियात्मक औदारिक शरीर देखा जाता है। 2. <strong>प्रश्न</strong>—मानुषोत्तर पर्वत से परभागवर्ती व स्वयंप्रभाचल से पूर्वभागवर्ती शेष द्वीप समुद्रों में संयतासंयत जीवों की संभावना कैसे है?<strong> उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि पूर्व भव के वैरी देवों के द्वारा वहाँ ले जाये गये तिर्यंच संयतासंयत जीवों की सम्भावना की अपेक्षा कोई विरोध नहीं है। (ध.1/1,1,158/402/1); (ध.6/1,9-9,18/426/10)<br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="3.1.6" id="3.1.6"> प्रमत्तसंयत</strong><br /> | <li class="HindiText"><strong name="3.1.6" id="3.1.6"> प्रमत्तसंयत</strong><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,3/45-47/सारार्थ—प्रमत्त संयतों में अप्रमत्तसंयत की अपेक्षा आहारक व तैजस समुद्घात अधिक है, केवल इतना अन्तर है। अत: दे0—अगला ‘अप्रमत्तसंयत’<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1.7" id="3.1.7"> अप्रमत्तसंयत </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1.7" id="3.1.7"> अप्रमत्तसंयत </strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,3/47/4 <span class="PrakritText">अप्पमत्तसंजदा सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणत्था केवडिखेत्ते,...मारणंतिय-अप्पमत्ताणं पमत्तसंजदभंगो। अपमत्ते सेसपदा णत्थि।</span>=<span class="HindiText">स्वस्थान स्वस्थान और विहारवत् स्वस्थान रूप से परिणत अप्रमत्त संयत जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं।...मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त हुए अप्रमत्त संयतों का क्षेत्र प्रमत्त संयतों के समान होता है। अप्रमत्त गुणस्थान में उक्त तीन स्थान को छोड़कर शेष स्थान नहीं होते।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1.8" id="3.1.8"> चारों उपशामक</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1.8" id="3.1.8"> चारों उपशामक</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,3/47/6 <span class="PrakritText">चदुण्हमुवसमा सत्थाणसत्थाण-मारणंतियपदेसु पमत्तसमा...णत्थि वुत्तसेसपदाणि।</span>=<span class="HindiText">उपशम श्रेणी के चारों गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव स्वस्थानस्वस्थान और मारणान्तिक समुद्घात, इन दोनों पदों में प्रमत्तसंयतों के समान होते हैं।...(इन जीवों में) उक्त स्थानों के अतिरिक्त शेष स्थान नहीं होते हैं। [स्वस्थान स्वस्थान सम्बन्धी शंका समाधान देखें [[ अगला क्षपक ]]]<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1.9" id="3.1.9"> चारों क्षपक</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1.9" id="3.1.9"> चारों क्षपक</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,3/47/7<span class="PrakritText"> चदुण्हं खवगाणं...सत्थाणसत्थाणं पमत्तसमं। खवगुवसामगाणं णत्थि वुत्तसेसपदाणि। खवगुवसामगाणं ममेदंभावविरहिदाणं कधं सत्थाणसत्थाणपदस्स संभवो। ण एस दोसो, ममेदंभावसमण्णिदगुणेसु तहा गहणादो। एत्थ पुण अवट्ठाणमेत्तगहणादो।</span>=<span class="HindiText">क्षपक श्रेणी के चार गुणस्थानवर्ती क्षपक जीवों का स्वस्थान स्वस्थान प्रमत्तसंयतों के समान होता है। क्षपक और उपशामक जीवों के उक्त गुणस्थानों के अतिरिक्त शेष स्थान नहीं होते हैं। <strong>प्रश्न</strong>—यह मेरा है, इस प्रकार के भाव से रहित क्षपक और उपशामक जीवों के स्वस्थानस्वस्थान नाम का पद कैसे सम्भव है? <strong>उत्तर</strong>—यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, जिन गुणस्थानों में ‘यह मेरा है’ इस प्रकार का भाव पाया जाता है, वहाँ वैसा ग्रहण किया है। परन्तु यहाँ पर तो अवस्थान मात्र का ग्रहण किया है। <br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-8,11/245/9 मणुसेसुप्पण्णा कधं समुद्देसु दंसणमोहक्खवणं पट्ठवेंति। ण, विज्जादिवसेण तत्थागदाणं दंसणमोहक्खवणसंभवादो। =<strong>प्रश्न</strong>—मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवसमुद्रों में दर्शनमोहनीय की क्षपणा का कैसे प्रस्थापन करते हैं? <strong>उत्तर</strong>—नहीं, क्योंकि, विद्या आदि के वश से समुद्रों में आये हुए जीवों के दर्शनमोह का क्षपण होना संभव है।</span></li> | ||
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<ol start="13"> | <ol start="13"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.11.3" id="3.11.3"> सयोगी केवली</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.11.3" id="3.11.3"> सयोगी केवली</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,4/48/3<span class="PrakritText"> एत्थ सजोगिकेवलियस्स सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणाणं पमत्तमंगो। दंडगदोकेवली (पृ048)...कवाइगदो केवली पृ.49...पदरगदो केवली (पृ.50)...लोगपूरणगदो केवली (पृ056) केवडि खेत्ते।</span>=<span class="HindiText">सयोग केवली का स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान क्षेत्र प्रमत्त संयतों के समान होता है। दण्ड समुद्घातगत केवली...कपाट समुद्घातगत केवली...प्रतर समुद्घातगत केवली...और लोकपूरण समुद्घातगत केवली कितने क्षेत्र में रहते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.11.4" id="3.11.4"> अयोग केवली</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.11.4" id="3.11.4"> अयोग केवली</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,57/120/9 <span class="PrakritText">सेसपदसंभवाभावादो सत्थाणे पदे।</span>=<span class="HindiText">अयोग केवली के विहारवत् स्वस्थानादि शेष अशेष पद सम्भव न होने से वे स्वस्थानस्वस्थानपद में रहते हैं।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,57/121/1 <span class="PrakritText">ण च ममेदंबुद्धीए पडिगहिपदेसो सत्थाणं, अजोगिम्हि खीणमोहम्हि ममेदंबुद्धिए अभावादो त्ति। ण एस दोसो, वीदरागाणं अप्पणो अच्छिदपदेसस्सेव सत्थाणववएसादो। ण सरागाणमेस णाओ, तत्थ ममेदंभावसंभवादो।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>—स्वस्थानपद अयोग केवली में नहीं पाया जाता, क्योंकि क्षीणमोही अयोगी भगवान् में ममेदंबुद्धि का अभाव है, इसलिए अयोगिकेवली के स्वस्थानपद नहीं बनता है? <strong>उत्तर</strong>—यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, वीतरागियों के अपने रहने के प्रदेशों को ही स्वस्थान नाम से कहा गया है। किन्तु सरागियों के लिए यह न्याय नहीं है। क्योंकि, इनमें ममेदं भाव संभव है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> गति मार्गणा में | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> गति मार्गणा में सम्भव पदों की अपेक्षा </strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2.1" id="3.2.1"> नरक गति</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2.1" id="3.2.1"> नरक गति</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,5/64/12 <span class="PrakritText">सासणस्स। णवरि उववादो णत्थि।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,6/65/9 <span class="PrakritText">ण विदियादिपंचपुढवीणं परूवणा ओघप्ररूवणाए पदंपडितुल्ला, तत्थ असंजदसम्माइट्ठीणं उववादाभावादो। ण सत्तमपुढविपरूवणा वि णिरओघपरूवणाए तुल्ला, सासणसम्माइट्ठिमारणंतियपदस्स असंजदसम्माइट्ठिमारणंतिय उववादपदाणं च तत्थ अभावादो।</span><span class="HindiText"> 1. इसी प्रकार (मिथ्यादृष्टिवत् ही) सासादन सम्यग्दृष्टि नारकियों के भी स्वस्थानस्वस्थानादि समझना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उनके उपपाद नहीं पाया जाता है। (अर्थात् यहाँ केवल स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियक व मारणान्तिक समुद्घात रूप छ: पद ही सम्भव हैं। 2. द्वितीयादि पाँच पृथिवियों की प्ररूपणा ओघ अर्थात् नरक सामान्य की प्ररूपणा के समान नहीं है, क्योंकि इन पृथिवियों में असंयत सम्यग्दृष्टियों का उपपाद नहीं होता है। सातवीं पृथिवी की प्ररूपणा भी नारक सामान्य प्ररूपणा के तुल्य नहीं है, क्योंकि सातवीं पृथिवी में सासादन सम्यग्दृष्टियों सम्बन्धी मारणान्तिक पद का और असंयत सम्यग्दृष्टि सम्बन्धी मारणान्तिक और उपपाद (दोनों) पद का अभाव है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2.2" id="3.2.2"> तिर्यंच गति</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2.2" id="3.2.2"> तिर्यंच गति</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,85/327/1 <span class="SanskritText">न तिर्यक्षूत्पन्ना अपि क्षायिकसम्यग्दृष्टयोऽणुव्रतान्यादधते भोगभूमावुत्पन्नानां तदुपादानानुपपत्ते:। </span><span class="HindiText">तिर्यंचों में उत्पन्न हुए भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव यदि तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं तो भोगभूमि में ही उत्पन्न होते हैं; और भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रतों का ग्रहण करना बन नहीं सकता। (ध.1/1,1,159/402/9)।</span><br /> | ||
ष.खं. | ष.खं.4/1,3/सू.10/76 <span class="PrakritText">पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता...।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,10/73/5 <span class="PrakritText">विहारवदिसत्थाणं वेउव्वियसमुग्घादो य णत्थि।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,9/72/8<span class="PrakritText"> णवरि जोणिणीसु असंजदसम्माइट्ठीणं उववादो णत्थि।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,21/87/3 <span class="PrakritText">सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्घादगदपंचिंदियअपज्जत्ता...मारणांतियउववादगदा।</span>=<span class="HindiText">1-2. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीवों के विहारवत् स्वस्थान और वैक्रियक समुद्घात नहीं पाया जाता (73)। 3. योनिमति तिर्यंचों में असंयत सम्यग्दृष्टियों का उपपाद नहीं होता है। 4. स्वस्थानस्वस्थान, वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात तथा उपपादगत पंचेन्द्रिय अपर्याप्त (परन्तु वैक्रियक समुद्घात नहीं होता)। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2.3" id="3.2.3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2.3" id="3.2.3"> मनुष्य गति</strong></span><br /> | ||
ष.खं. | ष.खं.4/1,3/सू.13/76 <span class="PrakritText">मणुसअपज्जता केयडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदि भागे।13।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,13/76/2 <span class="PrakritText">सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्घादेहि परिणदा-मारणंतियसमुग्घादो।...एवमुववादस्सावि।</span>=<span class="HindiText">अपर्याप्त मनुष्य स्वस्थानस्वस्थान, वेदना व कषाय समुद्घात से परिणत, मारणान्तिक समुद्घातगत तथा उपपाद में भी होते हैं। (इसके अतिरिक्त अन्य पदों में नहीं होते)।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,12/75/7 <span class="PrakritText">मणुसिणीसु असंजदसम्मादिट्ठीणं उववादो णत्थि। पमत्ते तेजाहारसमुग्घादो णत्थि।</span>=<span class="HindiText">मनुष्यनियों में असंयत सम्यग्दृष्टियों के उपपाद नहीं पाया जाता है। इसी प्रकार उन्हीं के प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तैजस व आहारक समुद्घात नहीं पाया जाता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2.4" id="3.2.4"> देव गति</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2.4" id="3.2.4"> देव गति</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,15/79/3 <span class="PrakritText">णवरि असंजदसम्माइट्ठीणं उववादो णत्थि। वाणवेंतर-जोइसियाणं देवोधभंगो। णवरि असंजदसम्माइट्ठीणं उववादो णत्थि।</span>=<span class="HindiText">असंयत सम्यग्दृष्टियों का भवनवासियों में उपपाद नहीं होता। वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवों का क्षेत्र देव सामान्य के क्षेत्र के समान है। इतनी विशेषता है कि असंयत सम्यग्दृष्टियों को वानव्यन्तर और ज्योतिषियों में उपपाद नहीं होता है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong> इन्द्रिय आदि शेष मार्गणाओं में सम्भव पदों की अपेक्षा</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.3.1" id="3.3.1"> इन्द्रिय मार्गणा</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3.1" id="3.3.1"> इन्द्रिय मार्गणा</strong></span><br /> | ||
ष.खं. | ष.खं. 4/1,3/सू. 18/84-<span class="PrakritText">तीइंदिय-वीइंदिय चउरिंदिया...तस्सेव पज्जत्ता अपज्जतां...।18।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,18/85/1<span class="PrakritText"> सत्थाणसत्थाण...वेदण-कसाय समुग्घादपरिणदा...मारणांतिय उववादगदा।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,17/84/6<span class="PrakritText"> बादरेइंदियअपज्जत्ताणं बादरेइंदियभंगो। णवरि वेउव्वियपदं णत्थि। सुहुमेइंदिया तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ता य सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणांतिय उववादगदा सव्वलोगे।</span>=<span class="HindiText">1.2. दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा उनके पर्याप्त व अपर्याप्त जीव स्वस्थानस्वस्थान, वेदना व कषायसमुद्घात तथा मारणान्तिक व उपपाद (पद में होते हैं। वैक्रियक समुद्घात से परिणत नहीं होते)। 3. बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकों का क्षेत्र बादर एकेन्द्रिय (सामान्य) के समान है। इतनी विशेषता है कि बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकों के वैक्रियक समुद्घात पद नहीं होता है। (तैजस, आहारक, केवली व वैक्रियक समुद्घात तथा विहारवत्स्वस्थान के अतिरिक्त सर्वपद होते हैं) स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद को प्राप्त हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव और उन्हीं के पर्याप्त जीव सर्व लोक में रहते हैं।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.3.2" id="3.3.2"> काय मार्गणा</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3.2" id="3.3.2"> काय मार्गणा</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,22/92/2 <span class="PrakritText">एवं बादरतेउकाइयाणं तस्सेव अपज्जत्ताणं च। णवरि वेउव्वियपदमत्थि।...एवं वाउकाइयाणं तेसिमपज्जत्ताणं च।...सव्व अपज्जत्तेसु वेउव्वियपदं णत्थि।</span>=<span class="HindiText">इसी प्रकार (अर्थात् बादर अप्कायिक व इनही के अपर्याप्त जीवों के समान, बादर तैजसकायिक और उन्हीं के अपर्याप्त जीवों की (स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना व कषाय समुद्घात, मारणान्तिक व उपपाद पद सम्बन्धी) प्ररूपणा करनी चाहिए।...इतनी विशेषता है कि बादर तैजस कायिक जीवों के वैक्रियक समुद्घात पद भी होता है।...इसी प्रकार बादर वायुकायिक और उन्हीं के अपर्याप्त जीवों के पदों का कथन करना चाहिए। सर्व अपर्याप्तक जीवों में वैक्रियक समुद्घात पद नहीं होता।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="3.3.3" id="3.3.3"><strong> योग मार्गणा</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.3.3" id="3.3.3"><strong> योग मार्गणा</strong></span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,29/103/1 <span class="PrakritText">मणवचिजोगेसु उववादो णत्थि।</span>=<span class="HindiText">मनोयोगी और वचनयोगी जीवों में उपपाद पद नहीं होता।</span><br /> | ||
ष.खं. | ष.खं.4/1,3/सू.33/104 <span class="PrakritText">ओरालियकाजोगीसु मिच्छाइट्ठी ओघं।33।</span>..<span class="HindiText">.उववादो णत्थि (धवला टी॰)।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,34/105/3<span class="PrakritText"> ओरालियकायजोगे...सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमुववादो णत्थि। पमत्ते आहारसमुग्घादो णत्थि।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,36/106/4 <span class="PrakritText">ओरालियमिस्सजोगिमिच्छाइट्ठी सव्वलोगे। विहारवदिसत्थाण-वेउव्वियसमुग्घादा णत्थि, तेण तेसिं विरोहादो।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,36/107/7 <span class="PrakritText">ओरालियमिस्सम्हि ट्ठिदाणमोरालियमिस्सकायजोगेसु उववादाभावादो। अधवा उववादो अत्थि, गुणेण सह अक्कमेण उपात्तभवसरीरपढमसमए उवलंभादो, पंचावत्थावदिरित्तओरालियमिस्सजीवाणमभावादो च।</span>=<span class="HindiText">1. औदारिक काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र मूल ओघ के समान सर्वलोक है।33।...किन्तु उक्त जीवों के उपपाद पद नहीं होता है। 2. औदारिक काययोग में...सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों के उपपाद पद नहीं होता है। प्रमत्तगुणस्थान में आहारक समुद्घात पद नहीं होता है। 3. औदारिक मिश्र काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सर्व लोक में रहते हैं। यहाँ पर विहारवत् स्वस्थान और वैक्रियक स्वस्थान ये दो पद नहीं होते हैं, क्योंकि औदारिक मिश्र काययोग के साथ इन पदों का विरोध है। 4. औदारिक-मिश्रकाययोग में स्थित जीवों का पुन: औदारिकमिश्र काययोगियों में उपपाद नहीं हो है। (क्योंकि अपर्याप्त जीव पुन: नहीं मरता) अथवा उपपाद होता है, क्योंकि, सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान के साथ अक्रम से उपात्त भव शरीर के प्रथम समय में (अर्थात् पूर्व भव के शरीर को छोड़कर उत्तर भव के प्रथम समय में) उसका सद्भाव पाया जाता है। दूसरी बात यह है, कि स्वस्थान-स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, केवलिसमुद्घात और उपपाद इन पाँच अवस्थाओं के अतिरिक्त औदारिकमिश्र काययोगी जीवों का अभाव है। </span><br /> | ||
ष.खं. | ष.खं.7/2,6/59,61/343 <span class="PrakritText">वेउव्वियकायजोगी सत्थाणेण समुग्घादेण केवडि खेत्ते।59। उववादो णत्थि।61।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,37/109/3 <span class="PrakritText">(वेउव्वियकायजोगीसु) सव्वत्थ उववादो णत्थि।</span><br /> | ||
ध. | ध.7/2,3,64/344/9<span class="PrakritText"> वेउव्वियमिस्सेण सह-मारणांतियउववादेहि सह विरोहो।</span> <span class="HindiText">1. वैक्रियक काययोगी जीवों के उपपाद पद नहीं होता है। 2. वैक्रियक काययोगियों में सभी गुणस्थानों में उपपाद नहीं होता है। 3. वैक्रियक मिश्रयोग के साथ मारणान्तिक व उपपाद पदों का विरोध है।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/2,3,39/110/3 <span class="PrakritText">आहारमिस्सकायजोगिणो पमत्तसंजदा....सत्थाणगदा...।</span><br /> | ||
ध. | ध.7/2,6,65/345/10 <span class="PrakritText">(आहारकायजोगी)–सत्थाण-विहारवदि सत्था णपरिणदा...मारणंतियसमुग्घादगदा।</span> <span class="HindiText">1. आहारक मिश्रकाययोगी स्वस्थानस्वस्थान गत (ही है। अन्य पदों का निर्देश नहीं है)। 2. आहारककाययोगी स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान से परिणत तथा मारणान्तिक समुद्घातगत (से अतिरिक्त अन्यपदों का निर्देश नहीं है।)</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,40/110/7 <span class="PrakritText">सत्थाण-वेदण-कसाय-उववादगदाकम्मइयकायजोगिमिच्छादिट्ठिणो।</span> =<span class="HindiText">स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, और उपपाद इन पदों को प्राप्त कार्माण काययोगी मिथ्यादृष्टि (तथा अन्य गुणस्थानवर्ती में भी इनसे अतिरिक्त अन्यपदों में पाये जाने का निर्देश नहीं मिलता)। <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.3.4" id="3.3.4"><strong> वेद मार्गणा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.3.4" id="3.3.4"><strong> वेद मार्गणा</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,343/111/8 <span class="PrakritText">इत्थिवेद...असंजदसम्मादिट्ठिम्हि उववादो णत्थि। पमत्तसंजदे ण होंति तेजाहारा।</span><br /> | ||
ध. | ध.4/1,3,44/113/1<span class="PrakritText"> (णवुंसयवेदेसु) पमत्ते तेजाहारपदं णत्थि।</span>=<span class="HindiText">1. असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में स्त्रीवेदियों के उपपाद पद नहीं होता है। तथा प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तैजस समुद्घात नहीं होते हैं। 2. प्रमत्तसंयत गुणस्थान में नपुंसकवेदियों के तैजस आहारक समुद्घात ये दो पद नहीं होते हैं। (असंयत सम्यग्दृष्टि में उपपाद पद का यहाँ निषेध नहीं किया गया है।)<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.3.5" id="3.3.5"><strong> ज्ञान मार्गणा</strong></span><strong><br> | <li><span class="HindiText" name="3.3.5" id="3.3.5"><strong> ज्ञान मार्गणा</strong></span><strong><br> | ||
</strong>ध. | </strong>ध.4/1,3,53/118/9...<span class="PrakritText">विभंगण्णाणी मिच्छाइट्ठी...उववाद पदं णत्थि। सासणसम्मदिट्ठी...वि उववादो णत्थि।</span> =<span class="HindiText">विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों में उपपाद पद नहीं होता। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.3.6" id="3.3.6"><strong> संयम मार्गणा</strong></span><strong><br></strong>ध./ | <li><span class="HindiText" name="3.3.6" id="3.3.6"><strong> संयम मार्गणा</strong></span><strong><br></strong>ध./4/1,61/123/7 (<span class="PrakritText">परिहारविसुद्धिसंजदेसु </span><span class="HindiText">(मूलसूत्र में)</span> <span class="PrakritText">पमत्तसंजदे तेजाहारं णत्थि।</span>=<span class="HindiText">परिहार विशुद्धि संयतों में प्रमत्त गुणस्थानवर्ती को तैजस समुद्घात और आहारक समुद्घात यह दो पद नहीं होते हैं। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText" name="3.3.7" id="3.3.7"><strong> | <li><span class="HindiText" name="3.3.7" id="3.3.7"><strong> सम्यक्त्व मार्गणा</strong> </span><br>ध.4/1,3,82/135/6 <span class="PrakritText">पमत्तसंजदस्स उवसमसम्मत्तेण तेजाहारं णत्थि।</span>=<span class="HindiText">प्रमत्त संयत के उपशम सम्यक्त्व के साथ तैजस समुद्घात और आहारक समुद्घात नहीं होते हैं। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.3.8" id="3.3.8"> आहारक मार्गणा</strong></span><br>ष.खं. | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3.8" id="3.3.8"> आहारक मार्गणा</strong></span><br>ष.खं.4/1,3/सू.88/137 <span class="PrakritText">आहाराणुवादेण...।88।</span> ध.4/1,3,89/137/6 <span class="PrakritText">सजोगिकेवलिस्स वि पदर-लोग-पूरणसमुग्घादा वि णत्थि, आहारित्ताभावादो।</span>=<span class="HindiText">आहारक सयोगीकेवली के भी प्रतर और लोकपूरण समुद्घात नहीं होते हैं; क्योंकि, इन दोनों अवस्थाओं में केवली के आहारपने का अभाव है।</span><br> | ||
ष.खं./ | ष.खं./4/3/सू.90/137 <span class="PrakritText">अणाहारएसु...।90।</span> ध.4/1,3/92/138 <span class="PrakritText">पदरगतो सजोगिकेवली...लोकपूरणे-पुणभवदि।</span>=<span class="HindiText">अनाहारक जीवों में प्रतर समुद्घातगत सयोगिकेवली तथा लोकपूरण समुद्घातगत भी होते हैं।</span></li> | ||
</ol> | </ol> | ||
</li> | </li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> मारणान्तिक समुद्घात के क्षेत्र | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> मारणान्तिक समुद्घात के क्षेत्र सम्बन्धी दृष्टिभेद</strong> </span><br>ध.11/4,2,5,12/22/7<span class="PrakritText"> के वि आइरिया एवं होदि त्ति भणंति। तं जहाअवरदिसादो मारणंतियसमुग्घादं कादूण पुव्वदिसमागदो जाव लोगणालीए अंतं पत्तो त्ति। पुणो विग्गहं करिय हेट्ठा छरज्जुपमाणं गंतूण पुणरवि विग्गहं करिय वारुणदिसाए अद्घरज्जुपमाणं गंतूण अवहिट्ठाणम्मि उप्पण्णस्स खेत्तं होदि त्ति। एदं ण घडदे, उववादट्ठाणं बोलेदूण गमणं णत्थि त्ति पवाइज्जंत उवदेसेण सिद्धत्तादो।</span>=<span class="HindiText">ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं—यथा पश्चिम दिशा से मारणान्तिक समुद्घात को करके लोकनाली का अन्त प्राप्त होने तक पूर्व दिशा में आया। फिर विग्रह करके नीचे छह राजू मात्र जाकर पुन: विग्रह करके पश्चिम दिशा में (पूर्व <img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0036.gif" alt="" width="66" height="29" /> पश्चिम) (इस प्रकार) आध राजू प्रमाण जाकर अवधिस्थान नरक में उत्पन्न होने पर उसका (मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त महा मत्स्य का) उत्कृष्ट क्षेत्र होता है। किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि, वह ‘उपपादस्थान का अतिक्रमण करके गमन नहीं करता’ इस परम्परागत उपदेश से सिद्ध है।</span></li> | ||
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Revision as of 21:40, 5 July 2020
- क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ नियम
- गुणस्थानों में सम्भव पदों की अपेक्षा
- मिथ्यादृष्टि
ध.4/1,3,2/38/9 मिच्छाइट्ठिस्स सेस-तिण्णि विसेसणाणि ण संभवंति, तक्कारणसंजमादिगुणाणामभावादो। =मिथ्यादृष्टि जीवराशि के शेष तीन विशेषण अर्थात् आहारक समुद्घात, तैजस समुद्घात, और केवली समुद्घात सम्भव नहीं हैं, क्योंकि इनके कारणभूत संयमादि गुणों का मिथ्यादृष्टि के अभाव है।
- सासादन
ध.4/1,3,3/39/9 सासणसम्मादिट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी-सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदणकसाय-वेउव्वियसमुग्घादपरिणदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे।
ध.4/1,3,3/43/3 मारणांतिय-उववादगद-सासणसम्मादिट्ठी-असंजदसम्मादिट्ठीणमेवं चेव वत्तव्वं।
ध.4/1,4,4/150/1 तसजीवविरहिदेसु असंखेज्जेसु समुद्देसु णवरि सासणा णत्थि। वेरियवेंतरदेवेहि घित्ताणमत्थि संभवो, णवरि ते सत्थाणत्था ण होंति, विहारेण परिणत्तादो।=प्रश्न–1. स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषाय समुद्घात और वैक्रियक समुद्घात रूप से परिणत हुए सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव कितने क्षेत्र में होते हैं? उत्तर—लोक के असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्र में। अर्थात् सासादनगुणस्थान में यह पाँच होने सम्भव हैं। 2. मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टियों का इसी प्रकार कथन करना चाहिए। अर्थात् इस गुणस्थान में ये दो पद भी सम्भव है। (विशेष देखें सासादन ।1।10) 3. त्रस जीवों से विरहित (मानुषोत्तर व स्वयंप्रभ पर्वतों के मध्यवर्ती) असंख्यात समुद्रों में सासादन सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते। यद्यपि वैर भाव रखने वाले व्यन्तर देवों के द्वारा हरण करके ले जाये गये जीवों की वहाँ सम्भावना है। किन्तु वे वहाँ पर स्वस्थान स्वस्थान नहीं कहलाते हैं क्योंकि उस समय वे विहार रूप से परिणत हो जाते हैं।
- सम्यग्मिथ्यादृष्टि
ध.4/1,3,3/44/5 सम्मामिच्छाइट्ठियस्स मारणंतिय-उववादा णत्थि, तग्गुणस्स तदुहयविरोहित्तादो।=सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद नहीं होते हैं, क्योंकि, इस गुणस्थान का इन दोनों प्रकार की अवस्थाओं के साथ विरोध है। नोट—स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय व वैक्रियक समुद्घात ये पाँचों पद यहाँ होने सम्भव है। दे0–ऊपर सासादन के अन्तर्गत प्रमाण नं01। - असंयत सम्यग्दृष्टि
(स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियक व मारणान्तिक समुद्घात तथा उपपाद, यह सातों ही पद यहाँ सम्भव हैं–देखें ऊपर सासादन के अन्तर्गत प्रमाण नं01)
- संयतासंयत
ध.4/1,3,3/44/6 एवं संजदासंजदाणं। णवरि उववादो णत्थि, अपज्जत्तकाले संजमासंजमगुणस्स अभावादो।...संजदासंजदाणं कधं वेउव्वियसमुग्घादस्स संभवो। ण, ओरालियसरीरस्स विउव्वणप्पयस्स विण्हुकुमारादिसु दंसणादो।
ध.4/1,4,8/169/7 कधं संजदासंजदाणं सेसदीव-समुद्देसु संभवो। ण, पुव्वववेरियदेवेहि तत्थ घित्ताणं संभवं पडिविरोधाभावा।=1. इसी प्रकार (असंयत सम्यग्दृष्टिवत्) संयतासंयतों का क्षेत्र जानना चाहिए। इतना विशेष है कि संयतासंयतों के उपपाद नहीं होता है, क्योंकि अपर्याप्त काल में संयमासंयम गुणस्थान नहीं पाया जाता है।...प्रश्न—संयता-संयतों के वैक्रियक समुद्घात कैसे सम्भव है? उत्तर—नहीं, क्योंकि, विष्णुकुमार मुनि आदि में विक्रियात्मक औदारिक शरीर देखा जाता है। 2. प्रश्न—मानुषोत्तर पर्वत से परभागवर्ती व स्वयंप्रभाचल से पूर्वभागवर्ती शेष द्वीप समुद्रों में संयतासंयत जीवों की संभावना कैसे है? उत्तर—नहीं, क्योंकि पूर्व भव के वैरी देवों के द्वारा वहाँ ले जाये गये तिर्यंच संयतासंयत जीवों की सम्भावना की अपेक्षा कोई विरोध नहीं है। (ध.1/1,1,158/402/1); (ध.6/1,9-9,18/426/10)
- प्रमत्तसंयत
ध.4/1,3,3/45-47/सारार्थ—प्रमत्त संयतों में अप्रमत्तसंयत की अपेक्षा आहारक व तैजस समुद्घात अधिक है, केवल इतना अन्तर है। अत: दे0—अगला ‘अप्रमत्तसंयत’
- अप्रमत्तसंयत
ध.4/1,3,3/47/4 अप्पमत्तसंजदा सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणत्था केवडिखेत्ते,...मारणंतिय-अप्पमत्ताणं पमत्तसंजदभंगो। अपमत्ते सेसपदा णत्थि।=स्वस्थान स्वस्थान और विहारवत् स्वस्थान रूप से परिणत अप्रमत्त संयत जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं।...मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त हुए अप्रमत्त संयतों का क्षेत्र प्रमत्त संयतों के समान होता है। अप्रमत्त गुणस्थान में उक्त तीन स्थान को छोड़कर शेष स्थान नहीं होते।
- चारों उपशामक
ध.4/1,3,3/47/6 चदुण्हमुवसमा सत्थाणसत्थाण-मारणंतियपदेसु पमत्तसमा...णत्थि वुत्तसेसपदाणि।=उपशम श्रेणी के चारों गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव स्वस्थानस्वस्थान और मारणान्तिक समुद्घात, इन दोनों पदों में प्रमत्तसंयतों के समान होते हैं।...(इन जीवों में) उक्त स्थानों के अतिरिक्त शेष स्थान नहीं होते हैं। [स्वस्थान स्वस्थान सम्बन्धी शंका समाधान देखें अगला क्षपक ]
- चारों क्षपक
ध.4/1,3,3/47/7 चदुण्हं खवगाणं...सत्थाणसत्थाणं पमत्तसमं। खवगुवसामगाणं णत्थि वुत्तसेसपदाणि। खवगुवसामगाणं ममेदंभावविरहिदाणं कधं सत्थाणसत्थाणपदस्स संभवो। ण एस दोसो, ममेदंभावसमण्णिदगुणेसु तहा गहणादो। एत्थ पुण अवट्ठाणमेत्तगहणादो।=क्षपक श्रेणी के चार गुणस्थानवर्ती क्षपक जीवों का स्वस्थान स्वस्थान प्रमत्तसंयतों के समान होता है। क्षपक और उपशामक जीवों के उक्त गुणस्थानों के अतिरिक्त शेष स्थान नहीं होते हैं। प्रश्न—यह मेरा है, इस प्रकार के भाव से रहित क्षपक और उपशामक जीवों के स्वस्थानस्वस्थान नाम का पद कैसे सम्भव है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, जिन गुणस्थानों में ‘यह मेरा है’ इस प्रकार का भाव पाया जाता है, वहाँ वैसा ग्रहण किया है। परन्तु यहाँ पर तो अवस्थान मात्र का ग्रहण किया है।
ध.6/1,9-8,11/245/9 मणुसेसुप्पण्णा कधं समुद्देसु दंसणमोहक्खवणं पट्ठवेंति। ण, विज्जादिवसेण तत्थागदाणं दंसणमोहक्खवणसंभवादो। =प्रश्न—मनुष्यों में उत्पन्न हुए जीवसमुद्रों में दर्शनमोहनीय की क्षपणा का कैसे प्रस्थापन करते हैं? उत्तर—नहीं, क्योंकि, विद्या आदि के वश से समुद्रों में आये हुए जीवों के दर्शनमोह का क्षपण होना संभव है।
- सयोगी केवली
ध.4/1,3,4/48/3 एत्थ सजोगिकेवलियस्स सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाणाणं पमत्तमंगो। दंडगदोकेवली (पृ048)...कवाइगदो केवली पृ.49...पदरगदो केवली (पृ.50)...लोगपूरणगदो केवली (पृ056) केवडि खेत्ते।=सयोग केवली का स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान क्षेत्र प्रमत्त संयतों के समान होता है। दण्ड समुद्घातगत केवली...कपाट समुद्घातगत केवली...प्रतर समुद्घातगत केवली...और लोकपूरण समुद्घातगत केवली कितने क्षेत्र में रहते हैं।
- अयोग केवली
ध.4/1,3,57/120/9 सेसपदसंभवाभावादो सत्थाणे पदे।=अयोग केवली के विहारवत् स्वस्थानादि शेष अशेष पद सम्भव न होने से वे स्वस्थानस्वस्थानपद में रहते हैं।
ध.4/1,3,57/121/1 ण च ममेदंबुद्धीए पडिगहिपदेसो सत्थाणं, अजोगिम्हि खीणमोहम्हि ममेदंबुद्धिए अभावादो त्ति। ण एस दोसो, वीदरागाणं अप्पणो अच्छिदपदेसस्सेव सत्थाणववएसादो। ण सरागाणमेस णाओ, तत्थ ममेदंभावसंभवादो।=प्रश्न—स्वस्थानपद अयोग केवली में नहीं पाया जाता, क्योंकि क्षीणमोही अयोगी भगवान् में ममेदंबुद्धि का अभाव है, इसलिए अयोगिकेवली के स्वस्थानपद नहीं बनता है? उत्तर—यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, वीतरागियों के अपने रहने के प्रदेशों को ही स्वस्थान नाम से कहा गया है। किन्तु सरागियों के लिए यह न्याय नहीं है। क्योंकि, इनमें ममेदं भाव संभव है।
- मिथ्यादृष्टि
- गति मार्गणा में सम्भव पदों की अपेक्षा
- नरक गति
ध.4/1,3,5/64/12 सासणस्स। णवरि उववादो णत्थि।
ध.4/1,3,6/65/9 ण विदियादिपंचपुढवीणं परूवणा ओघप्ररूवणाए पदंपडितुल्ला, तत्थ असंजदसम्माइट्ठीणं उववादाभावादो। ण सत्तमपुढविपरूवणा वि णिरओघपरूवणाए तुल्ला, सासणसम्माइट्ठिमारणंतियपदस्स असंजदसम्माइट्ठिमारणंतिय उववादपदाणं च तत्थ अभावादो। 1. इसी प्रकार (मिथ्यादृष्टिवत् ही) सासादन सम्यग्दृष्टि नारकियों के भी स्वस्थानस्वस्थानादि समझना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उनके उपपाद नहीं पाया जाता है। (अर्थात् यहाँ केवल स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियक व मारणान्तिक समुद्घात रूप छ: पद ही सम्भव हैं। 2. द्वितीयादि पाँच पृथिवियों की प्ररूपणा ओघ अर्थात् नरक सामान्य की प्ररूपणा के समान नहीं है, क्योंकि इन पृथिवियों में असंयत सम्यग्दृष्टियों का उपपाद नहीं होता है। सातवीं पृथिवी की प्ररूपणा भी नारक सामान्य प्ररूपणा के तुल्य नहीं है, क्योंकि सातवीं पृथिवी में सासादन सम्यग्दृष्टियों सम्बन्धी मारणान्तिक पद का और असंयत सम्यग्दृष्टि सम्बन्धी मारणान्तिक और उपपाद (दोनों) पद का अभाव है।
- तिर्यंच गति
ध.1/1,1,85/327/1 न तिर्यक्षूत्पन्ना अपि क्षायिकसम्यग्दृष्टयोऽणुव्रतान्यादधते भोगभूमावुत्पन्नानां तदुपादानानुपपत्ते:। तिर्यंचों में उत्पन्न हुए भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव यदि तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं तो भोगभूमि में ही उत्पन्न होते हैं; और भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रतों का ग्रहण करना बन नहीं सकता। (ध.1/1,1,159/402/9)।
ष.खं.4/1,3/सू.10/76 पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता...।
ध.4/1,3,10/73/5 विहारवदिसत्थाणं वेउव्वियसमुग्घादो य णत्थि।
ध.4/1,3,9/72/8 णवरि जोणिणीसु असंजदसम्माइट्ठीणं उववादो णत्थि।
ध.4/1,3,21/87/3 सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्घादगदपंचिंदियअपज्जत्ता...मारणांतियउववादगदा।=1-2. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीवों के विहारवत् स्वस्थान और वैक्रियक समुद्घात नहीं पाया जाता (73)। 3. योनिमति तिर्यंचों में असंयत सम्यग्दृष्टियों का उपपाद नहीं होता है। 4. स्वस्थानस्वस्थान, वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात तथा उपपादगत पंचेन्द्रिय अपर्याप्त (परन्तु वैक्रियक समुद्घात नहीं होता)।
- मनुष्य गति
ष.खं.4/1,3/सू.13/76 मणुसअपज्जता केयडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदि भागे।13।
ध.4/1,3,13/76/2 सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्घादेहि परिणदा-मारणंतियसमुग्घादो।...एवमुववादस्सावि।=अपर्याप्त मनुष्य स्वस्थानस्वस्थान, वेदना व कषाय समुद्घात से परिणत, मारणान्तिक समुद्घातगत तथा उपपाद में भी होते हैं। (इसके अतिरिक्त अन्य पदों में नहीं होते)।
ध.4/1,3,12/75/7 मणुसिणीसु असंजदसम्मादिट्ठीणं उववादो णत्थि। पमत्ते तेजाहारसमुग्घादो णत्थि।=मनुष्यनियों में असंयत सम्यग्दृष्टियों के उपपाद नहीं पाया जाता है। इसी प्रकार उन्हीं के प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तैजस व आहारक समुद्घात नहीं पाया जाता है।
- देव गति
ध.4/1,3,15/79/3 णवरि असंजदसम्माइट्ठीणं उववादो णत्थि। वाणवेंतर-जोइसियाणं देवोधभंगो। णवरि असंजदसम्माइट्ठीणं उववादो णत्थि।=असंयत सम्यग्दृष्टियों का भवनवासियों में उपपाद नहीं होता। वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवों का क्षेत्र देव सामान्य के क्षेत्र के समान है। इतनी विशेषता है कि असंयत सम्यग्दृष्टियों को वानव्यन्तर और ज्योतिषियों में उपपाद नहीं होता है।
- नरक गति
- इन्द्रिय आदि शेष मार्गणाओं में सम्भव पदों की अपेक्षा
- इन्द्रिय मार्गणा
ष.खं. 4/1,3/सू. 18/84-तीइंदिय-वीइंदिय चउरिंदिया...तस्सेव पज्जत्ता अपज्जतां...।18।
ध.4/1,3,18/85/1 सत्थाणसत्थाण...वेदण-कसाय समुग्घादपरिणदा...मारणांतिय उववादगदा।
ध.4/1,3,17/84/6 बादरेइंदियअपज्जत्ताणं बादरेइंदियभंगो। णवरि वेउव्वियपदं णत्थि। सुहुमेइंदिया तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ता य सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणांतिय उववादगदा सव्वलोगे।=1.2. दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा उनके पर्याप्त व अपर्याप्त जीव स्वस्थानस्वस्थान, वेदना व कषायसमुद्घात तथा मारणान्तिक व उपपाद (पद में होते हैं। वैक्रियक समुद्घात से परिणत नहीं होते)। 3. बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकों का क्षेत्र बादर एकेन्द्रिय (सामान्य) के समान है। इतनी विशेषता है कि बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकों के वैक्रियक समुद्घात पद नहीं होता है। (तैजस, आहारक, केवली व वैक्रियक समुद्घात तथा विहारवत्स्वस्थान के अतिरिक्त सर्वपद होते हैं) स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद को प्राप्त हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव और उन्हीं के पर्याप्त जीव सर्व लोक में रहते हैं।
- काय मार्गणा
ध.4/1,3,22/92/2 एवं बादरतेउकाइयाणं तस्सेव अपज्जत्ताणं च। णवरि वेउव्वियपदमत्थि।...एवं वाउकाइयाणं तेसिमपज्जत्ताणं च।...सव्व अपज्जत्तेसु वेउव्वियपदं णत्थि।=इसी प्रकार (अर्थात् बादर अप्कायिक व इनही के अपर्याप्त जीवों के समान, बादर तैजसकायिक और उन्हीं के अपर्याप्त जीवों की (स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना व कषाय समुद्घात, मारणान्तिक व उपपाद पद सम्बन्धी) प्ररूपणा करनी चाहिए।...इतनी विशेषता है कि बादर तैजस कायिक जीवों के वैक्रियक समुद्घात पद भी होता है।...इसी प्रकार बादर वायुकायिक और उन्हीं के अपर्याप्त जीवों के पदों का कथन करना चाहिए। सर्व अपर्याप्तक जीवों में वैक्रियक समुद्घात पद नहीं होता।
- योग मार्गणा
ध.4/1,3,29/103/1 मणवचिजोगेसु उववादो णत्थि।=मनोयोगी और वचनयोगी जीवों में उपपाद पद नहीं होता।
ष.खं.4/1,3/सू.33/104 ओरालियकाजोगीसु मिच्छाइट्ठी ओघं।33।...उववादो णत्थि (धवला टी॰)।
ध.4/1,3,34/105/3 ओरालियकायजोगे...सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमुववादो णत्थि। पमत्ते आहारसमुग्घादो णत्थि।
ध.4/1,3,36/106/4 ओरालियमिस्सजोगिमिच्छाइट्ठी सव्वलोगे। विहारवदिसत्थाण-वेउव्वियसमुग्घादा णत्थि, तेण तेसिं विरोहादो।
ध.4/1,3,36/107/7 ओरालियमिस्सम्हि ट्ठिदाणमोरालियमिस्सकायजोगेसु उववादाभावादो। अधवा उववादो अत्थि, गुणेण सह अक्कमेण उपात्तभवसरीरपढमसमए उवलंभादो, पंचावत्थावदिरित्तओरालियमिस्सजीवाणमभावादो च।=1. औदारिक काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र मूल ओघ के समान सर्वलोक है।33।...किन्तु उक्त जीवों के उपपाद पद नहीं होता है। 2. औदारिक काययोग में...सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों के उपपाद पद नहीं होता है। प्रमत्तगुणस्थान में आहारक समुद्घात पद नहीं होता है। 3. औदारिक मिश्र काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव सर्व लोक में रहते हैं। यहाँ पर विहारवत् स्वस्थान और वैक्रियक स्वस्थान ये दो पद नहीं होते हैं, क्योंकि औदारिक मिश्र काययोग के साथ इन पदों का विरोध है। 4. औदारिक-मिश्रकाययोग में स्थित जीवों का पुन: औदारिकमिश्र काययोगियों में उपपाद नहीं हो है। (क्योंकि अपर्याप्त जीव पुन: नहीं मरता) अथवा उपपाद होता है, क्योंकि, सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान के साथ अक्रम से उपात्त भव शरीर के प्रथम समय में (अर्थात् पूर्व भव के शरीर को छोड़कर उत्तर भव के प्रथम समय में) उसका सद्भाव पाया जाता है। दूसरी बात यह है, कि स्वस्थान-स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, केवलिसमुद्घात और उपपाद इन पाँच अवस्थाओं के अतिरिक्त औदारिकमिश्र काययोगी जीवों का अभाव है।
ष.खं.7/2,6/59,61/343 वेउव्वियकायजोगी सत्थाणेण समुग्घादेण केवडि खेत्ते।59। उववादो णत्थि।61।
ध.4/1,3,37/109/3 (वेउव्वियकायजोगीसु) सव्वत्थ उववादो णत्थि।
ध.7/2,3,64/344/9 वेउव्वियमिस्सेण सह-मारणांतियउववादेहि सह विरोहो। 1. वैक्रियक काययोगी जीवों के उपपाद पद नहीं होता है। 2. वैक्रियक काययोगियों में सभी गुणस्थानों में उपपाद नहीं होता है। 3. वैक्रियक मिश्रयोग के साथ मारणान्तिक व उपपाद पदों का विरोध है।
ध.4/2,3,39/110/3 आहारमिस्सकायजोगिणो पमत्तसंजदा....सत्थाणगदा...।
ध.7/2,6,65/345/10 (आहारकायजोगी)–सत्थाण-विहारवदि सत्था णपरिणदा...मारणंतियसमुग्घादगदा। 1. आहारक मिश्रकाययोगी स्वस्थानस्वस्थान गत (ही है। अन्य पदों का निर्देश नहीं है)। 2. आहारककाययोगी स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान से परिणत तथा मारणान्तिक समुद्घातगत (से अतिरिक्त अन्यपदों का निर्देश नहीं है।)
ध.4/1,3,40/110/7 सत्थाण-वेदण-कसाय-उववादगदाकम्मइयकायजोगिमिच्छादिट्ठिणो। =स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, और उपपाद इन पदों को प्राप्त कार्माण काययोगी मिथ्यादृष्टि (तथा अन्य गुणस्थानवर्ती में भी इनसे अतिरिक्त अन्यपदों में पाये जाने का निर्देश नहीं मिलता)।
- वेद मार्गणा
ध.4/1,343/111/8 इत्थिवेद...असंजदसम्मादिट्ठिम्हि उववादो णत्थि। पमत्तसंजदे ण होंति तेजाहारा।
ध.4/1,3,44/113/1 (णवुंसयवेदेसु) पमत्ते तेजाहारपदं णत्थि।=1. असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में स्त्रीवेदियों के उपपाद पद नहीं होता है। तथा प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तैजस समुद्घात नहीं होते हैं। 2. प्रमत्तसंयत गुणस्थान में नपुंसकवेदियों के तैजस आहारक समुद्घात ये दो पद नहीं होते हैं। (असंयत सम्यग्दृष्टि में उपपाद पद का यहाँ निषेध नहीं किया गया है।)
- ज्ञान मार्गणा
ध.4/1,3,53/118/9...विभंगण्णाणी मिच्छाइट्ठी...उववाद पदं णत्थि। सासणसम्मदिट्ठी...वि उववादो णत्थि। =विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों में उपपाद पद नहीं होता। - संयम मार्गणा
ध./4/1,61/123/7 (परिहारविसुद्धिसंजदेसु (मूलसूत्र में) पमत्तसंजदे तेजाहारं णत्थि।=परिहार विशुद्धि संयतों में प्रमत्त गुणस्थानवर्ती को तैजस समुद्घात और आहारक समुद्घात यह दो पद नहीं होते हैं। - सम्यक्त्व मार्गणा
ध.4/1,3,82/135/6 पमत्तसंजदस्स उवसमसम्मत्तेण तेजाहारं णत्थि।=प्रमत्त संयत के उपशम सम्यक्त्व के साथ तैजस समुद्घात और आहारक समुद्घात नहीं होते हैं। - आहारक मार्गणा
ष.खं.4/1,3/सू.88/137 आहाराणुवादेण...।88। ध.4/1,3,89/137/6 सजोगिकेवलिस्स वि पदर-लोग-पूरणसमुग्घादा वि णत्थि, आहारित्ताभावादो।=आहारक सयोगीकेवली के भी प्रतर और लोकपूरण समुद्घात नहीं होते हैं; क्योंकि, इन दोनों अवस्थाओं में केवली के आहारपने का अभाव है।
ष.खं./4/3/सू.90/137 अणाहारएसु...।90। ध.4/1,3/92/138 पदरगतो सजोगिकेवली...लोकपूरणे-पुणभवदि।=अनाहारक जीवों में प्रतर समुद्घातगत सयोगिकेवली तथा लोकपूरण समुद्घातगत भी होते हैं।
- इन्द्रिय मार्गणा
- मारणान्तिक समुद्घात के क्षेत्र सम्बन्धी दृष्टिभेद
ध.11/4,2,5,12/22/7 के वि आइरिया एवं होदि त्ति भणंति। तं जहाअवरदिसादो मारणंतियसमुग्घादं कादूण पुव्वदिसमागदो जाव लोगणालीए अंतं पत्तो त्ति। पुणो विग्गहं करिय हेट्ठा छरज्जुपमाणं गंतूण पुणरवि विग्गहं करिय वारुणदिसाए अद्घरज्जुपमाणं गंतूण अवहिट्ठाणम्मि उप्पण्णस्स खेत्तं होदि त्ति। एदं ण घडदे, उववादट्ठाणं बोलेदूण गमणं णत्थि त्ति पवाइज्जंत उवदेसेण सिद्धत्तादो।=ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं—यथा पश्चिम दिशा से मारणान्तिक समुद्घात को करके लोकनाली का अन्त प्राप्त होने तक पूर्व दिशा में आया। फिर विग्रह करके नीचे छह राजू मात्र जाकर पुन: विग्रह करके पश्चिम दिशा में (पूर्व <img src="JSKHtmlSample_clip_image002_0036.gif" alt="" width="66" height="29" /> पश्चिम) (इस प्रकार) आध राजू प्रमाण जाकर अवधिस्थान नरक में उत्पन्न होने पर उसका (मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त महा मत्स्य का) उत्कृष्ट क्षेत्र होता है। किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि, वह ‘उपपादस्थान का अतिक्रमण करके गमन नहीं करता’ इस परम्परागत उपदेश से सिद्ध है।
- गुणस्थानों में सम्भव पदों की अपेक्षा