त्याग: Difference between revisions
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<p class="HindiText">वीतराग | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="HindiText">वीतराग श्रेयस्मार्ग में त्याग का बड़ा महत्त्व है इसीलिए इसका निर्देश गृहस्थों के लिए दान के रूप में तथा साधुओं के लिए परिग्रह त्यागव्रत व त्यागधर्म के रूप में किया गया है। अपनी शक्ति को न छिपाकर इस धर्म की भावना करने वाला तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करता है।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong> त्याग सामान्य का लक्षण</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">निश्चय त्याग का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
वा.अ./ | वा.अ./78 <span class="PrakritGatha">णिव्वेगतियं भावइ मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु। जो तस्स हवेच्चागो इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं।78। </span>=<span class="HindiText">जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है कि, जो जीव सारे परद्रव्यों के मोह छोड़कर संसार, देह और भोगों से उदासीन रूप परिणाम रखता है, उससे त्याग धर्म होता है।</span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./9/26/443/10<span class="SanskritText"> व्युत्सर्जनं व्युत्सर्गस्त्याग:। </span>=<span class="HindiText">व्युत्सर्जन करना व्युत्सर्ग है। जिसका अर्थ त्याग होता है।<br /> | ||
स.सा./भाषा/ | स.सा./भाषा/34 पं.जयचन्द–पर भाव को पर जानना, और फिर परभाव का ग्रहण न करना सो यही त्याग है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.2" id="1.2"></a>व्यवहार त्याग का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./9/6/413/1 <span class="SanskritText">संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्याग:। </span>=<span class="HindiText">संयत के योग्य ज्ञानादि का दान करना त्याग कहलाता है। (रा.वा./9/6/20/598/13); (त.सा./6/19/345)।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./9/6/18/598/5 <span class="SanskritText">परिग्रहस्य चेतनाचेतनलक्षणस्य निवृत्तिस्त्याग इति निश्चीयते। </span>=<span class="HindiText">सचेतन और अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते हैं।</span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./46/154/16 <span class="SanskritText">संयतप्रायोग्याहारदिदानं त्याग:।</span> =<span class="HindiText">मुनियों के लिए योग्य ऐेसे आहारादि चीजें देना सो त्यागधर्म है।</span><br /> | ||
पं.वि./ | पं.वि./1/101/40 <span class="SanskritText">व्याख्या यत् क्रियते श्रुतस्य यतये यद्दीयते पुस्तकं, स्थानं संयमसाधनादिकमपि प्रीत्या सदाचारिणा। स त्यागो...।101।</span> =<span class="HindiText">सदाचारी पुरुष के द्वारा मुनि के लिए जो प्रेमपूर्वक आगम का व्याख्यान किया जाता है, पुस्तक दी जाती है, तथा संयम की साधनभूत पीछी आदि भी दी जाती है उसे त्यागधर्म कहा जाता है। (अन.ध./6/52-53/106)।</span><br /> | ||
का.अ./मू./ | का.अ./मू./1401 <span class="SanskritText">जो चयदि मिट्ठ-भोज्जं उवयरणं राय-दोस-संजणयं। वसदिं ममत्तहेदुं चाय-गुणो सो हवे तस्स।</span> =<span class="HindiText">जो मिष्ट भोजन को, रागद्वेष को उत्पन्न करने वाले उपकरण को, तथा ममत्वभाव के उत्पन्न होने में निमित्त वसति को छोड़ देता है उस मुनि के त्यागधर्म होता है।</span><br /> | ||
प्र.सा./ता.वृ./ | प्र.सा./ता.वृ./239/332/13 <span class="SanskritText">निजशुद्धात्मपरिग्रहं कृत्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहनिवृत्तिस्त्याग:।</span> =<span class="HindiText">निज शुद्धात्मा को ग्रहण करके बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह की निवृत्ति सो त्याग है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="2" id="2"></a>त्याग के भेद</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./9/26/443/10<span class="SanskritText"> स द्विविध:–बाह्योपधित्यागोऽभ्यन्तरोपधित्यागश्चेति।</span> =<span class="HindiText">त्याग दो प्रकार का है–बाह्यउपधि का त्याग और आभ्यन्तरउपधि का त्याग।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./9/26/5/624/35 <span class="SanskritText">स पुनर्द्विविध:–नियतकालो यावज्जीवं चेति। </span>=<span class="HindiText">आभ्यन्तर त्याग दो प्रकार का है–यावत् जीवन न नियत काल।</span><br /> | ||
पु.सि.उ./ | पु.सि.उ./76<span class="SanskritText"> कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधा। औत्सर्गिकी निवृत्तिर्विचित्ररूपापवादिकी त्वेषा। </span>=<span class="HindiText">उत्सर्ग रूप निवृत्ति त्याग कृत, कारित अनुमोदनारूप मन, वचन व काय करके नवप्रकार की कही है और यह अपवाद रूप निवृत्ति तो अनेक रूप है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> | <li><span class="HindiText"><strong> बाह्याभ्यन्तर त्याग के लक्षण–देखें [[ उपधि ]]।</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> एकदेश व सकलदेश | <li><span class="HindiText"><strong> एकदेश व सकलदेश त्याग के लक्षण–देखें [[ संयम#1.6 | संयम - 1.6]]।</strong><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> शक्तितस्त्याग या साधुप्रासुक परित्यागता का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./6/24/6/529/27 <span class="SanskritText">परप्रीतिकरणातिसर्जनं त्याग:।6। आहारो दत्त: पात्राय तस्मिन्नहनि तत्प्रीतिहेतुर्भवति, अभयदानमुपपादितमेकभवव्यसननोदनम् , सम्यग्ज्ञानदानं पुन: अनेकभवशतसहस्रदु:खोत्तरणकारणम् । अत एतित्त्रविधं यथाविधि प्रतिपद्यमानं त्यागव्यपदेशभाग्भवति।</span> <span class="HindiText">=पर की प्रीति के लिए अपनी वस्तु को देना त्याग है। आहार देने से पात्र को उस दिन प्रीति होती है। अभयदान से उस भव का दु:ख छूटता है, अत: पात्र को सन्तोष होता है। ज्ञानदान तो अनेक सहस्र भवों के दु:ख से छुटकारा दिलाने वाला है। ये तीनों दान यथाविधि दिये गये त्याग कहलाते हैं (स.सि./6/24/338/11); (चा.सा./53/6)।</span><br /> | ||
ध. | ध.8/3,41/87/3 <span class="PrakritText">साहूणं पासुअपरिच्चागदाए-अणंतणाण-दंसण-वीरियविरइ-खइयसम्मत्तादीणं साहया साहू णाम। पगदा ओसरिदा आसवा जम्हा तं पासुअं, अधवा जं णिरवज्जं तं पासुअं। किं। णाण-दंसण-चरित्तादि। तस्स परिच्चागो विसज्जणं, तस्स भावो पासुअपरिच्चागदा। दयाबुद्धिये साहुणं णाण-दंसण-चरित्तपरिच्चागो दाणं पासुअपरिच्चागदा णाम। </span>=<span class="HindiText">साधुओं के द्वारा विहित प्रासुक अर्थात् निरवद्यज्ञान दर्शनादि के त्याग से तीर्थंकर नामकर्म बन्धता है–अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, विरति और क्षायिक सम्यक्त्वादि गुणों के जो साधक हैं वे साधु कहलाते हैं। जिससे आस्रव दूर हो गये हैं उसका नाम प्रासुक है, अथवा जो निरवद्य हैं उसका नाम प्रासुक है। वह ज्ञान, दर्शन व चारित्रादिक ही तो हो सकते हैं। उनके परित्याग अर्थात् विसर्जन को प्रासुकपरित्याग और इसके भाव को प्रासुकपरित्यागता कहते हैं। अर्थात् दया बुद्धि से साधुओं के द्वारा किये जाने वाले ज्ञान, दर्शन व चारित्र के परित्याग या दान का नाम प्रासुक परित्यागता है।</span><br /> | ||
भा.पा./टी./ | भा.पा./टी./77/221/8 <span class="SanskritText">स्वशक्त्यनुरूपं दानं।</span> =<span class="HindiText">अपनी शक्ति के अनुरूप दान देना सो शक्तित्स्त्याग भावना है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> यह भावना | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> यह भावना गृहस्थों के सम्भव नहीं</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.8/3,41/87/7 <span class="PrakritText">ण चेदं कारणं घरत्थेसु संभवदि, तत्थ चरित्ताभावादो। तिरयणोवदेसो वि ण घरत्थेसु अत्थि, तेसिं दिट्ठिवादादिउवरिमसुत्तोवदेसणे अहियाराभावादो तदो एदं कारणं महेसिणं चेव होदि। </span>=<span class="HindiText">[साधु प्रासुक परित्यागता] गृहस्थों में सम्भव नहीं है, क्योंकि, उनमें चारित्र का अभाव है। रत्नत्रय का उपदेश भी गृहस्थों में सम्भव नहीं है, क्योंकि, दृष्टिवादादिक उपरिमश्रुत के उपदेश देने में उनका अधिकार नहीं है। अतएव यह कारण महर्षियों के ही होता है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> एक | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> एक त्याग भावना में शेष 15 भावनाओं का समावेश</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.8/3,41/87/10<span class="PrakritText"> ण च एत्थ सेसकारणाणमसंभवो। ण च अरहंतादिसु अभत्तिमंते णवपदत्थविसयसद्दहंणेमुम्मुक्के सादिचारसीलव्वदे परिहीणवासए णिरवज्जो णाण-दंसण-चरित्तपरिच्चागो संभवदि, विरोहादो। तदो एदमट्ठं कारणं। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–[शक्तितस्त्याग में शेष भावनाएं कैसे सम्भव हैं?] <strong>उत्तर</strong>–इसमें शेष कारणों की असम्भावना नहीं है। क्योंकि अरहंतादिकों में भक्ति से रहित, नौ पदार्थ विषयक श्रद्धान से उन्मुक्त, सातिचार शीलव्रतों से सहित और आवश्यकों की हीनता से संयुक्त होने पर निरवद्य ज्ञान दर्शन व चारित्र का परित्याग विरोध होने से सम्भव ही नहीं है। इस कारण यह तीर्थंकर नामकर्म बन्ध का आठवां कारण है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> | <li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> त्यागधर्म पालनार्थ विशेष भावनाएं</strong></span><strong> <br></strong>रा.वा./6/9/27/599/25 <span class="SanskritText">उपधित्याग: पुरुषहित:। यतो यत: परिग्रहादपेत: ततस्ततोऽस्य खेदो व्यपगतो भवति। निरवद्येमन:प्रणिधानं पुण्यविधानं। परिग्रहाशा बलवती सर्वदोषप्रसवयोनि:। न तस्या उपधिभि: तृप्तिरस्ति सलिलैरिव सलिलनिधेरिह बड़वाया:। अपि च, क: पूरयति दु:पूरमाशागर्तम् । दिने दिने यत्रास्तमस्तमाधेयमाधारत्वाय कल्पते। शरीरादिषु निर्ममत्व: परमनिवृत्तिमवाप्नोति। शरीरादिषु कृताभिष्वङ्गस्य सर्वकालमभिष्वङ्ग एव संसारे। </span>=<span class="HindiText">परिग्रह का त्याग करना पुरुष के हित के लिए है। जैसे जैसे वह परिग्रह से रहित होता है वैसे वैसे उसके खेद के कारण हटते जाते हैं। खेदरहित मन में उपयोग की एकाग्रता और पुण्यसंचय होता है। परिग्रह की आशा बड़ी बलवती है। वह समस्त दोषों की उत्पत्ति का स्थान है। जैसे पानी से समुद्र का बड़वानल शान्त नहीं होता उसी तरह परिग्रह से आशासमुद्र की तृप्ति नहीं हो सकती। यह आशा वा गड्डा दुष्पूर है। इसका भरना बहुत कठिन है। प्रतिदिन जो उसमें डाला जाता है वही समाकर मुंह बाने लगता है। शरीरादि से ममत्वशून्यव्यक्ति परम सन्तोष को प्राप्त होता है। शरीर आदि में राग करने वाले के सदा संसार परिभ्रमण सुनिश्चित है (रा.वा./हिं/9/6/665-666)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7" id="7"> | <li><span class="HindiText"><strong name="7" id="7"> त्याग धर्म की महिमा</strong></span><strong><br> | ||
</strong>कुरल/ | </strong>कुरल/35/1,6<span class="SanskritText"> मन्ये ज्ञानी प्रतिज्ञाय यत् किञ्चित् परिमुञ्यति। तदुत्पन्नमहादु:खान्निजात्मा तेन रक्षित:।1। अहं ममेति संकल्पो गर्वस्वार्थित्वसंभृत:। जेतास्य याति तं लोकं स्वर्गादुपपरिर्वर्तिनम् ।6। </span>=<span class="HindiText">मनुष्य ने जो वस्तु छोड़ दी है उससे पैदा होने वाले दु:ख से उसने अपने को मुक्त कर लिया है।1। ‘मैं’ और ‘मेरे’ के जो भाव हैं, वे घमण्ड और स्वार्थपूर्णता के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। जो मनुष्य उनका दमन कर लेता है वह देवलोक से भी उच्चलोक को प्राप्त होता है।6।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="8" id="8"> | <li><span class="HindiText"><strong name="8" id="8"> अन्य सम्बन्धित विषय</strong> | ||
</span> | </span> | ||
<ol> | <ol> | ||
<li class="HindiText"> अकेले | <li class="HindiText"> अकेले शक्तितस्त्याग भावना से तीर्थंकरत्व प्रकृतिबन्ध की सम्भावना।–देखें [[ भावना#2 | भावना - 2]]।</li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> व्युत्सर्ग तप व त्याग धर्म में अन्तर।–देखें [[ व्युत्सर्ग#2 | व्युत्सर्ग - 2]]। </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> त्याग व शौच धर्म में अन्तर।–देखें [[ शौच ]]। </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> अन्तरंग व बाह्य त्याग समन्वय।–देखें [[ परिग्रह#5.6 | परिग्रह - 5.6]]-7।</li> | ||
<li class="HindiText"> दस धर्म | <li class="HindiText"> दस धर्म सम्बन्धी विशेषताएं।–देखें [[ धर्म#8 | धर्म - 8]]।</li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p id="1"> (1) तीर्थंकर प्रकृति की सोलह कारण-भावनाओं में एक भावना । इसमें औषधि, आहार, अभय और शास्त्र का दान किया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 63.324, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 34.137 </span></p> | |||
<p id="2">(2) धर्मध्यान सम्बन्धी उत्तम क्षमा आदि दस भावनाओं में एक भावना । इसमें विकार-भावों का त्याग किया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 36. 157-158 </span></p> | |||
<p id="3">(3) दाता का एक गुण― सत्पात्रों को दान देना । यह आहार, औषध, शास्त्र और अभय (वसतिका) के भेद से चार प्रकार का होता है । <span class="GRef"> महापुराण 4.134,15.214,20. 82,84 </span></p> | |||
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[[Category: पुराण-कोष]] | |||
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Revision as of 21:41, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
वीतराग श्रेयस्मार्ग में त्याग का बड़ा महत्त्व है इसीलिए इसका निर्देश गृहस्थों के लिए दान के रूप में तथा साधुओं के लिए परिग्रह त्यागव्रत व त्यागधर्म के रूप में किया गया है। अपनी शक्ति को न छिपाकर इस धर्म की भावना करने वाला तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करता है।
- त्याग सामान्य का लक्षण
- निश्चय त्याग का लक्षण
वा.अ./78 णिव्वेगतियं भावइ मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु। जो तस्स हवेच्चागो इदि भणिदं जिणवरिंदेहिं।78। =जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है कि, जो जीव सारे परद्रव्यों के मोह छोड़कर संसार, देह और भोगों से उदासीन रूप परिणाम रखता है, उससे त्याग धर्म होता है।
स.सि./9/26/443/10 व्युत्सर्जनं व्युत्सर्गस्त्याग:। =व्युत्सर्जन करना व्युत्सर्ग है। जिसका अर्थ त्याग होता है।
स.सा./भाषा/34 पं.जयचन्द–पर भाव को पर जानना, और फिर परभाव का ग्रहण न करना सो यही त्याग है।
- <a name="1.2" id="1.2"></a>व्यवहार त्याग का लक्षण
स.सि./9/6/413/1 संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्याग:। =संयत के योग्य ज्ञानादि का दान करना त्याग कहलाता है। (रा.वा./9/6/20/598/13); (त.सा./6/19/345)।
रा.वा./9/6/18/598/5 परिग्रहस्य चेतनाचेतनलक्षणस्य निवृत्तिस्त्याग इति निश्चीयते। =सचेतन और अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग कहते हैं।
भ.आ./वि./46/154/16 संयतप्रायोग्याहारदिदानं त्याग:। =मुनियों के लिए योग्य ऐेसे आहारादि चीजें देना सो त्यागधर्म है।
पं.वि./1/101/40 व्याख्या यत् क्रियते श्रुतस्य यतये यद्दीयते पुस्तकं, स्थानं संयमसाधनादिकमपि प्रीत्या सदाचारिणा। स त्यागो...।101। =सदाचारी पुरुष के द्वारा मुनि के लिए जो प्रेमपूर्वक आगम का व्याख्यान किया जाता है, पुस्तक दी जाती है, तथा संयम की साधनभूत पीछी आदि भी दी जाती है उसे त्यागधर्म कहा जाता है। (अन.ध./6/52-53/106)।
का.अ./मू./1401 जो चयदि मिट्ठ-भोज्जं उवयरणं राय-दोस-संजणयं। वसदिं ममत्तहेदुं चाय-गुणो सो हवे तस्स। =जो मिष्ट भोजन को, रागद्वेष को उत्पन्न करने वाले उपकरण को, तथा ममत्वभाव के उत्पन्न होने में निमित्त वसति को छोड़ देता है उस मुनि के त्यागधर्म होता है।
प्र.सा./ता.वृ./239/332/13 निजशुद्धात्मपरिग्रहं कृत्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहनिवृत्तिस्त्याग:। =निज शुद्धात्मा को ग्रहण करके बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह की निवृत्ति सो त्याग है।
- निश्चय त्याग का लक्षण
- <a name="2" id="2"></a>त्याग के भेद
स.सि./9/26/443/10 स द्विविध:–बाह्योपधित्यागोऽभ्यन्तरोपधित्यागश्चेति। =त्याग दो प्रकार का है–बाह्यउपधि का त्याग और आभ्यन्तरउपधि का त्याग।
रा.वा./9/26/5/624/35 स पुनर्द्विविध:–नियतकालो यावज्जीवं चेति। =आभ्यन्तर त्याग दो प्रकार का है–यावत् जीवन न नियत काल।
पु.सि.उ./76 कृतकारितानुमननैर्वाक्कायमनोभिरिष्यते नवधा। औत्सर्गिकी निवृत्तिर्विचित्ररूपापवादिकी त्वेषा। =उत्सर्ग रूप निवृत्ति त्याग कृत, कारित अनुमोदनारूप मन, वचन व काय करके नवप्रकार की कही है और यह अपवाद रूप निवृत्ति तो अनेक रूप है।
- बाह्याभ्यन्तर त्याग के लक्षण–देखें उपधि ।
- एकदेश व सकलदेश त्याग के लक्षण–देखें संयम - 1.6।
- शक्तितस्त्याग या साधुप्रासुक परित्यागता का लक्षण
रा.वा./6/24/6/529/27 परप्रीतिकरणातिसर्जनं त्याग:।6। आहारो दत्त: पात्राय तस्मिन्नहनि तत्प्रीतिहेतुर्भवति, अभयदानमुपपादितमेकभवव्यसननोदनम् , सम्यग्ज्ञानदानं पुन: अनेकभवशतसहस्रदु:खोत्तरणकारणम् । अत एतित्त्रविधं यथाविधि प्रतिपद्यमानं त्यागव्यपदेशभाग्भवति। =पर की प्रीति के लिए अपनी वस्तु को देना त्याग है। आहार देने से पात्र को उस दिन प्रीति होती है। अभयदान से उस भव का दु:ख छूटता है, अत: पात्र को सन्तोष होता है। ज्ञानदान तो अनेक सहस्र भवों के दु:ख से छुटकारा दिलाने वाला है। ये तीनों दान यथाविधि दिये गये त्याग कहलाते हैं (स.सि./6/24/338/11); (चा.सा./53/6)।
ध.8/3,41/87/3 साहूणं पासुअपरिच्चागदाए-अणंतणाण-दंसण-वीरियविरइ-खइयसम्मत्तादीणं साहया साहू णाम। पगदा ओसरिदा आसवा जम्हा तं पासुअं, अधवा जं णिरवज्जं तं पासुअं। किं। णाण-दंसण-चरित्तादि। तस्स परिच्चागो विसज्जणं, तस्स भावो पासुअपरिच्चागदा। दयाबुद्धिये साहुणं णाण-दंसण-चरित्तपरिच्चागो दाणं पासुअपरिच्चागदा णाम। =साधुओं के द्वारा विहित प्रासुक अर्थात् निरवद्यज्ञान दर्शनादि के त्याग से तीर्थंकर नामकर्म बन्धता है–अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, विरति और क्षायिक सम्यक्त्वादि गुणों के जो साधक हैं वे साधु कहलाते हैं। जिससे आस्रव दूर हो गये हैं उसका नाम प्रासुक है, अथवा जो निरवद्य हैं उसका नाम प्रासुक है। वह ज्ञान, दर्शन व चारित्रादिक ही तो हो सकते हैं। उनके परित्याग अर्थात् विसर्जन को प्रासुकपरित्याग और इसके भाव को प्रासुकपरित्यागता कहते हैं। अर्थात् दया बुद्धि से साधुओं के द्वारा किये जाने वाले ज्ञान, दर्शन व चारित्र के परित्याग या दान का नाम प्रासुक परित्यागता है।
भा.पा./टी./77/221/8 स्वशक्त्यनुरूपं दानं। =अपनी शक्ति के अनुरूप दान देना सो शक्तित्स्त्याग भावना है।
- यह भावना गृहस्थों के सम्भव नहीं
ध.8/3,41/87/7 ण चेदं कारणं घरत्थेसु संभवदि, तत्थ चरित्ताभावादो। तिरयणोवदेसो वि ण घरत्थेसु अत्थि, तेसिं दिट्ठिवादादिउवरिमसुत्तोवदेसणे अहियाराभावादो तदो एदं कारणं महेसिणं चेव होदि। =[साधु प्रासुक परित्यागता] गृहस्थों में सम्भव नहीं है, क्योंकि, उनमें चारित्र का अभाव है। रत्नत्रय का उपदेश भी गृहस्थों में सम्भव नहीं है, क्योंकि, दृष्टिवादादिक उपरिमश्रुत के उपदेश देने में उनका अधिकार नहीं है। अतएव यह कारण महर्षियों के ही होता है।
- एक त्याग भावना में शेष 15 भावनाओं का समावेश
ध.8/3,41/87/10 ण च एत्थ सेसकारणाणमसंभवो। ण च अरहंतादिसु अभत्तिमंते णवपदत्थविसयसद्दहंणेमुम्मुक्के सादिचारसीलव्वदे परिहीणवासए णिरवज्जो णाण-दंसण-चरित्तपरिच्चागो संभवदि, विरोहादो। तदो एदमट्ठं कारणं। =प्रश्न–[शक्तितस्त्याग में शेष भावनाएं कैसे सम्भव हैं?] उत्तर–इसमें शेष कारणों की असम्भावना नहीं है। क्योंकि अरहंतादिकों में भक्ति से रहित, नौ पदार्थ विषयक श्रद्धान से उन्मुक्त, सातिचार शीलव्रतों से सहित और आवश्यकों की हीनता से संयुक्त होने पर निरवद्य ज्ञान दर्शन व चारित्र का परित्याग विरोध होने से सम्भव ही नहीं है। इस कारण यह तीर्थंकर नामकर्म बन्ध का आठवां कारण है।
- त्यागधर्म पालनार्थ विशेष भावनाएं
रा.वा./6/9/27/599/25 उपधित्याग: पुरुषहित:। यतो यत: परिग्रहादपेत: ततस्ततोऽस्य खेदो व्यपगतो भवति। निरवद्येमन:प्रणिधानं पुण्यविधानं। परिग्रहाशा बलवती सर्वदोषप्रसवयोनि:। न तस्या उपधिभि: तृप्तिरस्ति सलिलैरिव सलिलनिधेरिह बड़वाया:। अपि च, क: पूरयति दु:पूरमाशागर्तम् । दिने दिने यत्रास्तमस्तमाधेयमाधारत्वाय कल्पते। शरीरादिषु निर्ममत्व: परमनिवृत्तिमवाप्नोति। शरीरादिषु कृताभिष्वङ्गस्य सर्वकालमभिष्वङ्ग एव संसारे। =परिग्रह का त्याग करना पुरुष के हित के लिए है। जैसे जैसे वह परिग्रह से रहित होता है वैसे वैसे उसके खेद के कारण हटते जाते हैं। खेदरहित मन में उपयोग की एकाग्रता और पुण्यसंचय होता है। परिग्रह की आशा बड़ी बलवती है। वह समस्त दोषों की उत्पत्ति का स्थान है। जैसे पानी से समुद्र का बड़वानल शान्त नहीं होता उसी तरह परिग्रह से आशासमुद्र की तृप्ति नहीं हो सकती। यह आशा वा गड्डा दुष्पूर है। इसका भरना बहुत कठिन है। प्रतिदिन जो उसमें डाला जाता है वही समाकर मुंह बाने लगता है। शरीरादि से ममत्वशून्यव्यक्ति परम सन्तोष को प्राप्त होता है। शरीर आदि में राग करने वाले के सदा संसार परिभ्रमण सुनिश्चित है (रा.वा./हिं/9/6/665-666)। - त्याग धर्म की महिमा
कुरल/35/1,6 मन्ये ज्ञानी प्रतिज्ञाय यत् किञ्चित् परिमुञ्यति। तदुत्पन्नमहादु:खान्निजात्मा तेन रक्षित:।1। अहं ममेति संकल्पो गर्वस्वार्थित्वसंभृत:। जेतास्य याति तं लोकं स्वर्गादुपपरिर्वर्तिनम् ।6। =मनुष्य ने जो वस्तु छोड़ दी है उससे पैदा होने वाले दु:ख से उसने अपने को मुक्त कर लिया है।1। ‘मैं’ और ‘मेरे’ के जो भाव हैं, वे घमण्ड और स्वार्थपूर्णता के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। जो मनुष्य उनका दमन कर लेता है वह देवलोक से भी उच्चलोक को प्राप्त होता है।6। - अन्य सम्बन्धित विषय
- अकेले शक्तितस्त्याग भावना से तीर्थंकरत्व प्रकृतिबन्ध की सम्भावना।–देखें भावना - 2।
- व्युत्सर्ग तप व त्याग धर्म में अन्तर।–देखें व्युत्सर्ग - 2।
- त्याग व शौच धर्म में अन्तर।–देखें शौच ।
- अन्तरंग व बाह्य त्याग समन्वय।–देखें परिग्रह - 5.6-7।
- दस धर्म सम्बन्धी विशेषताएं।–देखें धर्म - 8।
पुराणकोष से
(1) तीर्थंकर प्रकृति की सोलह कारण-भावनाओं में एक भावना । इसमें औषधि, आहार, अभय और शास्त्र का दान किया जाता है । महापुराण 63.324, हरिवंशपुराण 34.137
(2) धर्मध्यान सम्बन्धी उत्तम क्षमा आदि दस भावनाओं में एक भावना । इसमें विकार-भावों का त्याग किया जाता है । महापुराण 36. 157-158
(3) दाता का एक गुण― सत्पात्रों को दान देना । यह आहार, औषध, शास्त्र और अभय (वसतिका) के भेद से चार प्रकार का होता है । महापुराण 4.134,15.214,20. 82,84