दर्शनावरण: Difference between revisions
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<li><strong class="HindiText" name="1" id="1"> दर्शनावरण | <li><strong class="HindiText" name="1" id="1"> दर्शनावरण सामान्य का लक्षण</strong> <BR> | ||
स.सि./ | स.सि./8/3/378/10 <span class="SanskritText">दर्शनावरणस्य का प्रकृति:। अर्थानालोकनम् ।</span><BR> | ||
स.सि./ | स.सि./8/4/380/3 <span class="SanskritText">आवृणोत्याव्रियतेऽनेनेति वा ज्ञानावरणम् । </span>=<span class="HindiText">दर्शनावरण कर्म की क्या प्रकृति है ? अर्थ का आलोकन नहीं होना। जो आवृत करता है या जिसके द्वारा आवृत किया जाता है वह आवरण कहलाता है। (रा.वा./8/3/2/567)। </span>ध.1/1,1,131/381/8 <span class="SanskritText">अन्तरङ्गार्थविषयोपयोगप्रतिबन्धकं दर्शनावरणीयम् । </span>=<span class="HindiText">अन्तरंग पदार्थ को विषय करने वाले उपयोग का प्रतिबन्धक दर्शनावरण कर्म है।</span><BR>ध.6/1,9-1,7/10/3 <span class="PrakritText">एदं दंसणमावारेदि त्ति दंसणावरणीयं। जो पोग्गलक्खंधो...जीवसमवेदो दंसणगुणपडिबंधओ सो दंसणावरणीयमिदि घेत्तव्वो। </span>=<span class="HindiText">जो दर्शनगुण को आवरण करता है, वह दर्शनावरणीय कर्म है। अर्थात् जो पुद्गल स्कन्ध...जीव के साथ समवाय संबन्ध को प्राप्त है और दर्शनगुण का प्रतिबन्ध करने वाला है, वह दर्शनावरणीय कर्म है।</span> गो.क./जी.प्र./20/13/12 <span class="SanskritText">दर्शनमावृणोतीति दर्शनावरणीयं तस्य का प्रकृति:। दर्शनप्रच्छादनता। किंवत् । राजद्वारप्रतिनियुक्तप्रतीहारवत् । </span>=<span class="HindiText">दर्शन को आवरै सो दर्शनावरणीय है। याकी यह प्रकृति है जैसे राजद्वारविषै तिष्ठता राजपाल राजाकौ देखने दे नाहीं तैसे दर्शनावरण दर्शन को आच्छादै है। (द्र.सं./टी./33/91/1)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> दर्शनावरण के | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> दर्शनावरण के 9 भेद</strong></span><BR> | ||
प.खं. | प.खं.6/1,9-1/सू.16/31 <span class="PrakritGatha">णिद्दाणिद्दा पयलापयला थीणगिद्धी णिद्दा पयला य, चक्खुदंसणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं ओहिदंसणावरणीयं केवलदंसणावरणीयं चेदि।16।</span> =<span class="HindiText">निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा और प्रचला; तथा चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय ये नौ दर्शनावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियां है।16। (प.खं.13/5,5/सू.84/353) (त.सू./8/7) (मू.आ./1225) (पं.सं./प्रा./4/45/8) (मं.ब./प्र.1/5/28/1) (त.सा./3/25-26,321) (गो.क./जी.प्र./33/27/9)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> दर्शनावरण के | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> दर्शनावरण के असंख्यात भेद</strong></span><BR> ध.12/4,2,14,4/479/3<span class="PrakritText"> णाणावरणीयस्स दंसणावरणीयस्स च कम्मस्स पयडीओ सहावा सत्तीओ असंखेज्जलोगमेत्ता। कुदो एत्तियाओ होंति त्ति णव्वदे। आवरणिज्जणाण-दंसणाणमसंखेज्जलोगमेत्तभेदुवलंभादो। </span>=<span class="HindiText">चूंकि आवरण के योग्य ज्ञान व दर्शन के असंख्यात लोकमात्र भेद पाये जाते हैं। अतएव उनके आवरक उक्त कर्मों की प्रकृतियां भी उतनी ही होनी चाहिए।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> चक्षु अचक्षु दर्शनावरण के | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> चक्षु अचक्षु दर्शनावरण के असंख्यात भेद हैं</strong></span><BR> ध.12/4,2,15,4/501/13 <span class="PrakritText">चक्खु-अचक्खुदंसणावरणीयपयडीओ च पुधपुध असंखेज्जलोगमेत्ताओ होदूण। </span>=<span class="HindiText">चक्षु व अचक्षु दर्शनावरणीय की प्रकृतियां पृथक्-पृथक् असंख्यात लोकमात्र हैं।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> अवधि दर्शनावरण के | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> अवधि दर्शनावरण के असंख्यात भेद</strong> </span><BR> | ||
ध. | ध.12/4,2,15,4/501/11 <span class="PrakritText">ओहिदंसणावरणीयपयडीओ च पुध पुध असंखेज्जलोगमेत्ता होदूण। </span>=<span class="HindiText">अवधिदर्शनावरण की प्रकतियां पृथक्-पृथक् असंख्यात लोकमात्र हैं।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> केलदर्शनावरण की केवल एक प्रकृति है</strong> </span><BR> | <li><span class="HindiText"><strong name="6" id="6"> केलदर्शनावरण की केवल एक प्रकृति है</strong> </span><BR> | ||
ध. | ध.12/4,2,15,4/502/9 <span class="PrakritText">केवलदंसणस्स एक्का पयडी अत्थि।</span> =<span class="HindiText">केवलदर्शनावरणीय की एक प्रकृति है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7" id="7"> चक्षुरादि दर्शनावरण के लक्षण</strong> </span><BR> | <li><span class="HindiText"><strong name="7" id="7"> चक्षुरादि दर्शनावरण के लक्षण</strong> </span><BR> | ||
रा.वा./ | रा.वा./8/8/12-16/573 <span class="SanskritText">चक्षुरक्षुर्दर्शनावरणोदयात् चक्षुरादीन्द्रियालोचनविकल:।12। ...पञ्चेन्द्रियत्वेऽप्युपहतेन्द्रियालोचनसामर्थ्यश्च भवति। अवधिदर्शनावरणोदयादवधिदर्शनविप्रमुक्त:।13। केवलदर्शनावरणोदयादाविर्भूतकेवलदर्शन:।14। निद्रा-निद्रानिद्रोदयात्तमोमहातमोऽवस्था।15। प्रचला-प्रचलोदयाच्चलनातिचलनभाव:।16। </span>=<span class="HindiText">चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरण के उदय से आत्मा के चक्षुरादि इन्द्रियजन्य आलोचन नहीं हो पाता। इन इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान के पहिले जो सामान्यालोचन होता है उस पर इन दर्शनावरणों का असर होता है। अवधिदर्शनावरण के उदय से अवधिदर्शन और केवलदर्शनावरण के उदय से केवलदर्शन नहीं हो पाता। निद्रा के उदय से तमअवस्था और निद्रा-निद्रा के उदय से महातम अवस्था होती है। प्रचला के उदय से बैठे-बैठे ही घूमने लगता है, नेत्र और शरीर चलने लगते हैं, देखते हुए भी देख नहीं पाता। प्रचला प्रचला के उदय से अत्यन्त ऊंघता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="8" id="8"> चक्षुरादि दर्शनावरण व निद्रादि दर्शनावरण में | <li><span class="HindiText"><strong name="8" id="8"> चक्षुरादि दर्शनावरण व निद्रादि दर्शनावरण में अन्तर</strong></span><BR> स.सि./8/7/383/4 <span class="SanskritText">चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानामिति दर्शनावरणापेक्षया भेदनिर्देश: चक्षुर्दर्शनावरण ...निद्रादिभिर्दर्शनावरणं सामानाधिकरण्येनाभिसंबध्यते निद्रादर्शनावरणं निद्रानिद्रादर्शनावरणमित्यादि। </span>=<span class="HindiText">चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल का दर्शनावरण की अपेक्षा भेदनिर्देश किया है। यथा चक्षुदर्शनावरण इत्यादि।...यहां निद्रादि पदों के साथ दर्शनावरण पद का समानाधिकरण रूप से सम्बन्ध होता है। यथा निद्रादर्शनावरण, निद्रानिद्रादर्शनावरण इत्यादि।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="9" id="9"> निद्रानिद्रा आदि में | <li><span class="HindiText"><strong name="9" id="9"> निद्रानिद्रा आदि में द्वित्व की क्या आवश्यकता</strong></span><BR> | ||
रा.वा./ | रा.वा./8/7/7/572/22 <span class="SanskritText">वीप्साभावात् असति द्वित्वे निद्रानिद्रा प्रचला-प्रचलेति निर्देशो नोपपद्यत इति, तन्न; किं कारणम् । कालादिभेदात् भेदोपपत्ते: वीप्सा युज्यते।...अथवा मुहुर्मुहुर्वृत्तिराभीक्षण्यं तस्य विवक्षायां द्वित्वं भवति यथा गेहमनुप्रवेशमनुप्रवेशमास्त इति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–वीप्सार्थक द्वित्व का अभाव होने से निद्रानिद्रादि निर्देश नहीं बनता है ? <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है; क्योंकि कालभेद से द्वित्व होकर वीप्सार्थक द्वित्व बन जायेगा। अथवा अभीक्ष्ण–सततप्रवृत्ति–बार-बार प्रवृत्ति अर्थ में द्वित्व होकर निद्रा-निद्रा प्रयोग बन जाता है जैसे कि घर में घुस-घुसकर बैठा है अर्थात् बार-बार घर में घुस जाता है यहां।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> | <li><span class="HindiText"><strong> अन्य सम्बन्धित विषय</strong> </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> दर्शनावरण का | <li><span class="HindiText"> दर्शनावरण का उदाहरण—देखें [[ प्रकृति बंध#3 | प्रकृति बंध - 3]]।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText">दर्शनावरण कृतियों का घातिया, सर्व घातिया व देश | <li><span class="HindiText">दर्शनावरण कृतियों का घातिया, सर्व घातिया व देश घातियापना।–देखें [[ अनुभाग#4 | अनुभाग - 4]]। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> दर्शनावरण के बंध | <li><span class="HindiText"> दर्शनावरण के बंध योग्य परिणाम–देखें [[ ज्ञानावरण#5 | ज्ञानावरण - 5]]।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"> दर्शनावरण की | <li><span class="HindiText"> दर्शनावरण की बन्ध, उदय व सत्त्व प्ररूपणा–देखें [[ वह वह नाम ]]।</span></li> | ||
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Revision as of 21:42, 5 July 2020
- दर्शनावरण सामान्य का लक्षण
स.सि./8/3/378/10 दर्शनावरणस्य का प्रकृति:। अर्थानालोकनम् ।
स.सि./8/4/380/3 आवृणोत्याव्रियतेऽनेनेति वा ज्ञानावरणम् । =दर्शनावरण कर्म की क्या प्रकृति है ? अर्थ का आलोकन नहीं होना। जो आवृत करता है या जिसके द्वारा आवृत किया जाता है वह आवरण कहलाता है। (रा.वा./8/3/2/567)। ध.1/1,1,131/381/8 अन्तरङ्गार्थविषयोपयोगप्रतिबन्धकं दर्शनावरणीयम् । =अन्तरंग पदार्थ को विषय करने वाले उपयोग का प्रतिबन्धक दर्शनावरण कर्म है।
ध.6/1,9-1,7/10/3 एदं दंसणमावारेदि त्ति दंसणावरणीयं। जो पोग्गलक्खंधो...जीवसमवेदो दंसणगुणपडिबंधओ सो दंसणावरणीयमिदि घेत्तव्वो। =जो दर्शनगुण को आवरण करता है, वह दर्शनावरणीय कर्म है। अर्थात् जो पुद्गल स्कन्ध...जीव के साथ समवाय संबन्ध को प्राप्त है और दर्शनगुण का प्रतिबन्ध करने वाला है, वह दर्शनावरणीय कर्म है। गो.क./जी.प्र./20/13/12 दर्शनमावृणोतीति दर्शनावरणीयं तस्य का प्रकृति:। दर्शनप्रच्छादनता। किंवत् । राजद्वारप्रतिनियुक्तप्रतीहारवत् । =दर्शन को आवरै सो दर्शनावरणीय है। याकी यह प्रकृति है जैसे राजद्वारविषै तिष्ठता राजपाल राजाकौ देखने दे नाहीं तैसे दर्शनावरण दर्शन को आच्छादै है। (द्र.सं./टी./33/91/1)। - दर्शनावरण के 9 भेद
प.खं.6/1,9-1/सू.16/31 णिद्दाणिद्दा पयलापयला थीणगिद्धी णिद्दा पयला य, चक्खुदंसणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं ओहिदंसणावरणीयं केवलदंसणावरणीयं चेदि।16। =निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा और प्रचला; तथा चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय ये नौ दर्शनावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियां है।16। (प.खं.13/5,5/सू.84/353) (त.सू./8/7) (मू.आ./1225) (पं.सं./प्रा./4/45/8) (मं.ब./प्र.1/5/28/1) (त.सा./3/25-26,321) (गो.क./जी.प्र./33/27/9)। - दर्शनावरण के असंख्यात भेद
ध.12/4,2,14,4/479/3 णाणावरणीयस्स दंसणावरणीयस्स च कम्मस्स पयडीओ सहावा सत्तीओ असंखेज्जलोगमेत्ता। कुदो एत्तियाओ होंति त्ति णव्वदे। आवरणिज्जणाण-दंसणाणमसंखेज्जलोगमेत्तभेदुवलंभादो। =चूंकि आवरण के योग्य ज्ञान व दर्शन के असंख्यात लोकमात्र भेद पाये जाते हैं। अतएव उनके आवरक उक्त कर्मों की प्रकृतियां भी उतनी ही होनी चाहिए। - चक्षु अचक्षु दर्शनावरण के असंख्यात भेद हैं
ध.12/4,2,15,4/501/13 चक्खु-अचक्खुदंसणावरणीयपयडीओ च पुधपुध असंखेज्जलोगमेत्ताओ होदूण। =चक्षु व अचक्षु दर्शनावरणीय की प्रकृतियां पृथक्-पृथक् असंख्यात लोकमात्र हैं। - अवधि दर्शनावरण के असंख्यात भेद
ध.12/4,2,15,4/501/11 ओहिदंसणावरणीयपयडीओ च पुध पुध असंखेज्जलोगमेत्ता होदूण। =अवधिदर्शनावरण की प्रकतियां पृथक्-पृथक् असंख्यात लोकमात्र हैं। - केलदर्शनावरण की केवल एक प्रकृति है
ध.12/4,2,15,4/502/9 केवलदंसणस्स एक्का पयडी अत्थि। =केवलदर्शनावरणीय की एक प्रकृति है। - चक्षुरादि दर्शनावरण के लक्षण
रा.वा./8/8/12-16/573 चक्षुरक्षुर्दर्शनावरणोदयात् चक्षुरादीन्द्रियालोचनविकल:।12। ...पञ्चेन्द्रियत्वेऽप्युपहतेन्द्रियालोचनसामर्थ्यश्च भवति। अवधिदर्शनावरणोदयादवधिदर्शनविप्रमुक्त:।13। केवलदर्शनावरणोदयादाविर्भूतकेवलदर्शन:।14। निद्रा-निद्रानिद्रोदयात्तमोमहातमोऽवस्था।15। प्रचला-प्रचलोदयाच्चलनातिचलनभाव:।16। =चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरण के उदय से आत्मा के चक्षुरादि इन्द्रियजन्य आलोचन नहीं हो पाता। इन इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान के पहिले जो सामान्यालोचन होता है उस पर इन दर्शनावरणों का असर होता है। अवधिदर्शनावरण के उदय से अवधिदर्शन और केवलदर्शनावरण के उदय से केवलदर्शन नहीं हो पाता। निद्रा के उदय से तमअवस्था और निद्रा-निद्रा के उदय से महातम अवस्था होती है। प्रचला के उदय से बैठे-बैठे ही घूमने लगता है, नेत्र और शरीर चलने लगते हैं, देखते हुए भी देख नहीं पाता। प्रचला प्रचला के उदय से अत्यन्त ऊंघता है। - चक्षुरादि दर्शनावरण व निद्रादि दर्शनावरण में अन्तर
स.सि./8/7/383/4 चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानामिति दर्शनावरणापेक्षया भेदनिर्देश: चक्षुर्दर्शनावरण ...निद्रादिभिर्दर्शनावरणं सामानाधिकरण्येनाभिसंबध्यते निद्रादर्शनावरणं निद्रानिद्रादर्शनावरणमित्यादि। =चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल का दर्शनावरण की अपेक्षा भेदनिर्देश किया है। यथा चक्षुदर्शनावरण इत्यादि।...यहां निद्रादि पदों के साथ दर्शनावरण पद का समानाधिकरण रूप से सम्बन्ध होता है। यथा निद्रादर्शनावरण, निद्रानिद्रादर्शनावरण इत्यादि। - निद्रानिद्रा आदि में द्वित्व की क्या आवश्यकता
रा.वा./8/7/7/572/22 वीप्साभावात् असति द्वित्वे निद्रानिद्रा प्रचला-प्रचलेति निर्देशो नोपपद्यत इति, तन्न; किं कारणम् । कालादिभेदात् भेदोपपत्ते: वीप्सा युज्यते।...अथवा मुहुर्मुहुर्वृत्तिराभीक्षण्यं तस्य विवक्षायां द्वित्वं भवति यथा गेहमनुप्रवेशमनुप्रवेशमास्त इति। =प्रश्न–वीप्सार्थक द्वित्व का अभाव होने से निद्रानिद्रादि निर्देश नहीं बनता है ? उत्तर–ऐसा नहीं है; क्योंकि कालभेद से द्वित्व होकर वीप्सार्थक द्वित्व बन जायेगा। अथवा अभीक्ष्ण–सततप्रवृत्ति–बार-बार प्रवृत्ति अर्थ में द्वित्व होकर निद्रा-निद्रा प्रयोग बन जाता है जैसे कि घर में घुस-घुसकर बैठा है अर्थात् बार-बार घर में घुस जाता है यहां।
- अन्य सम्बन्धित विषय
- दर्शनावरण का उदाहरण—देखें प्रकृति बंध - 3।
- दर्शनावरण कृतियों का घातिया, सर्व घातिया व देश घातियापना।–देखें अनुभाग - 4।
- दर्शनावरण के बंध योग्य परिणाम–देखें ज्ञानावरण - 5।
- निद्रादि प्रकृतियों सम्बन्धी–देखें निद्रा ।
- निद्रा आदि प्रकृतियों को दर्शनावरण क्यों कहते हैं।–देखें दर्शन - 4.6।
- दर्शनावरण की बन्ध, उदय व सत्त्व प्ररूपणा–देखें वह वह नाम ।