निक्षेप 7: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="7.1" id="7.1"> भावनिक्षेप | <li><span class="HindiText"><strong name="7.1" id="7.1"> भावनिक्षेप सामान्य का लक्षण</strong></span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/5/17/6 <span class="SanskritText">वर्तमानतत्पर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भाव:।</span> =<span class="HindiText">वर्तमानपर्याय से युक्त द्रव्य को भाव कहते हैं। (रा.वा./1/5/8/29/12); (श्लो.वा.2/1/5/श्लो.67/276); (ध.1/1,1,1/14/3 व 29/7); (ध.9/4,1,48/242/7); (त.सा./1/13)।</span><br /> | ||
ध. | ध.5/1,7,1/187/9 <span class="PrakritText">दव्वपरिणामो पुव्वारकोडिवदिरित्तवट्टमाणपरिणामुवलक्खियदव्वं वा।</span> =<span class="HindiText">द्रव्य के परिणाम को अथवा पूर्वा पर कोटि से व्यतिरिक्त वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भाव कहते हैं।<br /> | ||
देखें [[ नय#I.5.3 | नय - I.5.3 ]](भाव निक्षेप से आत्मा पुरुष के समान प्रवर्तती स्त्री की भांति पर्यायोल्लासी है)। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="7.2" id="7.2"> भावनिक्षेप के भेद</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="7.2" id="7.2"> भावनिक्षेप के भेद</strong></span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/5/18/7 <span class="SanskritText">भावजीवो द्विविध:–आगमभावजीवो नोआगमभावजीवश्चेति।</span> =<span class="HindiText">भाव जीव के दो भेद हैं–आगम-भावजीव और नोआगम-भावजीव। (रा.वा./1/5/9/29/15); (श्लो.वा.2/1/5/श्लो.67); (ध.1/1,1,1/29/7;83/6); (ध.4/1,3,1/7/9); (गो.क./मू./64/59); (न.च.वृ./276)।</span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,1/29/9 <span class="PrakritText">णो-आगमदो भावमंगलं दुविहं, उपयुक्तस्तत्परिणत इति।</span> =<span class="HindiText">नोआगम भाव मंगल, उपयुक्त और तत्परिणत के भेद से दो प्रकार का है।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="7.3" id="7.3"> आगम व नोआगम भाव के भेद व उदाहरण</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="7.3" id="7.3"> आगम व नोआगम भाव के भेद व उदाहरण</strong></span><br /> | ||
ष.खं. | ष.खं.13/5,5/सू.139-140/390-391 <span class="PrakritText">जा सा आगमदो भावपयढ़ी णाम तिस्से इमो णिद्देसो-ठिदं जिदं परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं अत्थसमं गंथसमं णामसमं घोससमं। जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा अणुपेहणा वा थय-थुदि-धम्मकहा वा जेचामण्णे एवमादिया उवजोगा भावे त्ति कट्टुजावदिया उवजुत्ता भावा सा सव्वा आगमदो भावपयडी णाम।139। जा सा णोआगमदो भावपयडी णाम सा अणेयविहा। तं जहा-सुर-असुर-णाग-सुवण्ण-किण्णर-किंपुरिस-गरुड-गंधव्व-जक्खारक्ख-मणुअ-महोरग-मिय-पसु-पक्खि-दुवय-चउप्पय-जलचर-थलचर-खगचर-देव-मणुस्स-तिरिक्ख-णेरइय-णियगुणा पयडी सा सव्वा णोआगमदो भावपयडी णाम।140। </span>=<span class="HindiText">जो आगम-भावप्रकृति है, उसका यह निर्देश है–स्थित, जित, परिचित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम, और घोषसम। तथा इनमें जो वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा तथा इनको आदि लेकर और जो उपयोग हैं वे सब भाव हैं; ऐसा समझकर जितने उपयुक्त भाव हैं वह सब आगम भाव कृति है।139। <br /> | ||
जो नोआगम भावप्रकृति है वह अनेक प्रकार की है। यथा–सुर असुर, नाग, सुपर्ण, किंनर, किंपुरुष, गरुड़, | जो नोआगम भावप्रकृति है वह अनेक प्रकार की है। यथा–सुर असुर, नाग, सुपर्ण, किंनर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, मनुज, महोरग, मृग, पशु, पक्षी, द्विपद, चतुष्पद, जलचर, स्थलचर, खगचर, देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी; इन जीवों की जो अपनी-अपनी प्रकृति है वह सब नोआगमप्रकृति है। (यहां ‘कर्मप्रकृति’ विषयक प्रकरण है।)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="7.4" id="7.4"> आगम व नोआगम भाव के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="7.4" id="7.4"> आगम व नोआगम भाव के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/5/18/8<span class="SanskritText"> तत्र जीवप्राभृतविषयोपयोगविष्टो मनुष्यजीवप्राभृतविषयोपयोगयुक्तो वा आत्मा आगमभावजीव:। जीवनपर्यायेण मनुष्य जीवत्वपर्यायेण वा समाविष्ट आत्मा नोआगमभावजीव:। </span>=<span class="HindiText">जो आत्मा जीव विषयक शास्त्र को जानता है और उसके उपयोग से युक्त है वह आगम-भाव-जीव कहलाता है। तथा जीवनपर्याय या मनुष्य जीवनपर्याय से युक्त आत्मा नोआगम भाव जीव कहलाता है। (यहां ‘जीव’ विषयक प्रकरण है) (रा.वा./1/5/10-11/16); (श्लो.वा.2/1/5/श्लो.67-68/276); (ध.1/1,1,1/83/6); (ध.5/1,6,1/3/5); (गो.क./मू./65-66/59)।</span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,1/29/8 <span class="SanskritText">आगमदो मंगलपाहुड़जाणओ उवजुत्तो। णोआगमदो भावमंगलं दुविहं, उपयुक्तस्तत्परिणत इति। आगममन्तरेण अर्थोपयुक्त उपयुक्त:। मङ्गलपर्यायपरिणतस्तत्परिणत इति।</span> =<span class="HindiText">जो मंगलविषयक शास्त्र का ज्ञाता होते हुए वर्तमान में उसमें उपयुक्त है उसे आगमभाव मंगल कहते हैं। नोआगम-भाव-मंगल उपयुक्त और तत्परिणत के भेद से दो प्रकार का है। जो आगम के बिना ही मंगल के अर्थ में उपयुक्त है, उसे उपयुक्त नोआगम भाव मंगल कहते हैं, और मंगलरूप अर्थात् जिनेन्द्रदेव आदि की वन्दना भावस्तुति आदि में परिणत जीव को तत्परिणत नोआगमभाव मंगल कहते हैं। (ध.4/1,3,1/7/8)।</span><br /> | ||
न.च.वृ./ | न.च.वृ./276-277 <span class="PrakritText">अरहतसत्थजाणो आगमभावो हु अरहंतो।276। तग्गुणए य परिणदो णोआगमभाव होइ अरहंतो। तग्गुणएई झादा केवलणाणी हु परिणदो भणिओ।277।</span> =<span class="HindiText">अर्हन्त विषयक शास्त्र का ज्ञायक (और उसके उपयोग युक्त आत्मा) आगमभाव अर्हन्त है।276। उसके गुणों से परिणत अर्थात् केवलज्ञानादि अनन्तचतुष्टयरूप परिणत आत्मा नोआगम-भाव अर्हन्त है। अथवा उनके गुणों को ध्याने वाला आत्मा नोआगमभाव अर्हन्त है।277। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7.5" id="7.5"> भावनिक्षेप के लक्षण की सिद्धि</strong></span><br> | <li><span class="HindiText"><strong name="7.5" id="7.5"> भावनिक्षेप के लक्षण की सिद्धि</strong></span><br> श्लो.वा.2/1/5/69/278/10 <span class="SanskritText">नन्वेवमतीतस्यानागतस्य च पर्यायस्य भावरूपताविरोधाद्वर्तमानस्यापि सा न स्यात्तस्य पूर्वापेक्षयानागतत्वात् उत्तरापेक्षयातीतत्वादतो भावलक्षणस्याव्याप्तिरसंभवो वा स्यादिति चेन्न। अतीतस्यानागतस्य च पर्यायस्य स्वकालापेक्षया सांप्रतिकत्वाद्भावरूपतोपपत्तेरननुयायिन: परिणामस्य सांप्रतिकत्वोपगमादुक्तदोषाभावात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–भूत और भविष्य पर्यायों को, इस लक्षण के अनुसार, भाव निक्षेपपने का विरोध हो जाने के कारण वर्तमानकाल की पर्याय को भी वह भावरूपपना न हो सकेगा। क्योंकि वर्तमानकाल की पर्याय भूतकाल की पर्याय की अपेक्षा से भविष्यत्काल में है और उत्तरकाल की अपेक्षा वही पर्याय भूतकाल की है। अत: भावनिक्षेप के कथित लक्षण में अव्याप्ति या असम्भव दोष आता है? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, भूत व भविष्यत् काल की पर्यायें भी अपने अपने काल की अपेक्षा वर्तमान की ही हैं; अत: भावरूपता बन जाती है। जो पर्याय आगे पीछे की पर्यायों में अनुगम नहीं करती हुई केवल वर्तमान काल में ही रहती है, वह वर्तमान काल की पर्याय भावनिक्षेप का विषय मानी गयी है। अत: पूर्वोक्त लक्षण में कोई दोष नहीं है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7.6" id="7.6"> आगमभावनिक्षेप में भावनिक्षेपपने की सिद्धि</strong> </span><br> | <li><span class="HindiText"><strong name="7.6" id="7.6"> आगमभावनिक्षेप में भावनिक्षेपपने की सिद्धि</strong> </span><br>श्लो.वा.2/1/5/69/278/16 <span class="SanskritText">कथं पुनरागमो जीवादिभाव इति चेत्, प्रत्ययजीवादिवस्तुन: सांप्रतिकपर्यायत्वात् । प्रत्ययात्मका हि जीवादय: प्रसिद्धा: एवार्थाभिधानात्मकजीवादिवत् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–ज्ञानरूप आगम को जीवादिभाव निक्षेपपना कैसे है ? <strong>उत्तर</strong>–ज्ञानस्वरूप जीवादि वस्तुओं को वर्तमानकाल की पर्यायपना है, जिस कारण से कि जीवादिपदार्थ ज्ञानस्वरूप होते हुए प्रसिद्ध हो ही रहे हैं, जैसे कि अर्थ और शब्द रूप जीव आदि हैं (देखें [[ नय#I.4.1 | नय - I.4.1]])।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7.7" id="7.7"> आगम व नोआगमभाव में | <li><span class="HindiText"><strong name="7.7" id="7.7"> आगम व नोआगमभाव में अन्तर</strong></span><br> श्लो.वा.2/1/5/69/278/17 <span class="SanskritText">तत्र जीवादिविषयोपयोगाख्येन तत्प्रत्ययेनाविष्ट: पुमानेव तदागम इति न विरोध:, ततोऽन्यस्य जीवादिपर्यायाविष्टस्यार्थादेर्नोआगमभावजीवत्वेन व्यवस्थापनात् ।</span>=<span class="HindiText">जीवादि विषयों के उपयोग नामक ज्ञानों से सहित आत्मा तो उस उस जीवादि आगमभावरूप कहा जाता है; और उससे भिन्न नोआगम भाव है जो कि जीव आदि पर्यायों से आविष्ट सहकारी पदार्थ आदि स्वरूप व्यवस्थित हो रहा है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="7.8" id="7.8"> | <li><span class="HindiText"><strong name="7.8" id="7.8"> द्रव्य व भावनिक्षेप में अन्तर</strong> </span><br>रा.वा./1/5/13/29/25 <span class="SanskritText">द्रव्यभावयोरेकत्वम् अव्यतिरेकादिति चेत्; न; कथंचित् संज्ञास्वालक्षण्यादिभेदात् तद्भेदसिद्धे:।</span><br>रा.वा./1/5/23/31/1 <span class="SanskritText">तथा द्रव्यं स्याद्भाव: भावद्रव्यार्थादेशात् न भाव पर्यायार्थादेशाद् द्रव्यम् । भावस्तु द्रव्यं स्यान्न वा, उभयथा दर्शनात् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–द्रव्य व भावनिक्षेप में अभेद है, क्योंकि इनकी पृथक् सत्ता नहीं पायी जाती ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, संज्ञा लक्षण आदि की दृष्टि से इनमें भेद है। अथवा–द्रव्य तो भाव अवश्य होगा क्योंकि उसकी उस योग्यता का विकास अवश्य होगा, परन्तु भावद्रव्य हो भी और न भी हो, क्योंकि उस पर्याय में आगे अमुक योग्यता रहे भी न भी रहे।</span> श्लो.वा.2/1/5/69/279/9 <span class="SanskritText">नापि द्रव्यादनर्थान्तरमेव तस्याबाधितभेदप्रत्ययविषयत्वात्, अन्यथान्वयविषयत्वानुषङ्गाद् द्रव्यवत् । </span>=<span class="HindiText">वर्तमान की विशेष पर्याय को ही विषय करने वाला वह भावनिक्षेप निर्बाध भेदज्ञान का विषय हो रहा है, अन्यथा द्रव्यनिक्षेप के समान भावनिक्षेप को भी तीनों काल के पदार्थों का ज्ञान करने वाले अन्वयज्ञान की विषयता का प्रसंग होवेगा। भावार्थ–अन्वयज्ञान का विषय द्रव्यनिक्षेप है और विशेषरूप भेद के ज्ञान का विषय भावनिक्षेप है। भूतभविष्यत् पर्यायों का संकलन द्रव्यनिक्षेप से होता है, और केवल वर्तमान पर्यायों का भावनिक्षेप से आकलन होता है।</span></li></ol></li> | ||
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Revision as of 21:42, 5 July 2020
- भावनिक्षेप निर्देश व शंका आदि
- भावनिक्षेप सामान्य का लक्षण
स.सि./1/5/17/6 वर्तमानतत्पर्यायोपलक्षितं द्रव्यं भाव:। =वर्तमानपर्याय से युक्त द्रव्य को भाव कहते हैं। (रा.वा./1/5/8/29/12); (श्लो.वा.2/1/5/श्लो.67/276); (ध.1/1,1,1/14/3 व 29/7); (ध.9/4,1,48/242/7); (त.सा./1/13)।
ध.5/1,7,1/187/9 दव्वपरिणामो पुव्वारकोडिवदिरित्तवट्टमाणपरिणामुवलक्खियदव्वं वा। =द्रव्य के परिणाम को अथवा पूर्वा पर कोटि से व्यतिरिक्त वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्य को भाव कहते हैं।
देखें नय - I.5.3 (भाव निक्षेप से आत्मा पुरुष के समान प्रवर्तती स्त्री की भांति पर्यायोल्लासी है)।
- भावनिक्षेप के भेद
स.सि./1/5/18/7 भावजीवो द्विविध:–आगमभावजीवो नोआगमभावजीवश्चेति। =भाव जीव के दो भेद हैं–आगम-भावजीव और नोआगम-भावजीव। (रा.वा./1/5/9/29/15); (श्लो.वा.2/1/5/श्लो.67); (ध.1/1,1,1/29/7;83/6); (ध.4/1,3,1/7/9); (गो.क./मू./64/59); (न.च.वृ./276)।
ध.1/1,1,1/29/9 णो-आगमदो भावमंगलं दुविहं, उपयुक्तस्तत्परिणत इति। =नोआगम भाव मंगल, उपयुक्त और तत्परिणत के भेद से दो प्रकार का है।
- आगम व नोआगम भाव के भेद व उदाहरण
ष.खं.13/5,5/सू.139-140/390-391 जा सा आगमदो भावपयढ़ी णाम तिस्से इमो णिद्देसो-ठिदं जिदं परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं अत्थसमं गंथसमं णामसमं घोससमं। जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा अणुपेहणा वा थय-थुदि-धम्मकहा वा जेचामण्णे एवमादिया उवजोगा भावे त्ति कट्टुजावदिया उवजुत्ता भावा सा सव्वा आगमदो भावपयडी णाम।139। जा सा णोआगमदो भावपयडी णाम सा अणेयविहा। तं जहा-सुर-असुर-णाग-सुवण्ण-किण्णर-किंपुरिस-गरुड-गंधव्व-जक्खारक्ख-मणुअ-महोरग-मिय-पसु-पक्खि-दुवय-चउप्पय-जलचर-थलचर-खगचर-देव-मणुस्स-तिरिक्ख-णेरइय-णियगुणा पयडी सा सव्वा णोआगमदो भावपयडी णाम।140। =जो आगम-भावप्रकृति है, उसका यह निर्देश है–स्थित, जित, परिचित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम, और घोषसम। तथा इनमें जो वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा तथा इनको आदि लेकर और जो उपयोग हैं वे सब भाव हैं; ऐसा समझकर जितने उपयुक्त भाव हैं वह सब आगम भाव कृति है।139।
जो नोआगम भावप्रकृति है वह अनेक प्रकार की है। यथा–सुर असुर, नाग, सुपर्ण, किंनर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, मनुज, महोरग, मृग, पशु, पक्षी, द्विपद, चतुष्पद, जलचर, स्थलचर, खगचर, देव, मनुष्य, तिर्यंच और नारकी; इन जीवों की जो अपनी-अपनी प्रकृति है वह सब नोआगमप्रकृति है। (यहां ‘कर्मप्रकृति’ विषयक प्रकरण है।)
- आगम व नोआगम भाव के लक्षण
स.सि./1/5/18/8 तत्र जीवप्राभृतविषयोपयोगविष्टो मनुष्यजीवप्राभृतविषयोपयोगयुक्तो वा आत्मा आगमभावजीव:। जीवनपर्यायेण मनुष्य जीवत्वपर्यायेण वा समाविष्ट आत्मा नोआगमभावजीव:। =जो आत्मा जीव विषयक शास्त्र को जानता है और उसके उपयोग से युक्त है वह आगम-भाव-जीव कहलाता है। तथा जीवनपर्याय या मनुष्य जीवनपर्याय से युक्त आत्मा नोआगम भाव जीव कहलाता है। (यहां ‘जीव’ विषयक प्रकरण है) (रा.वा./1/5/10-11/16); (श्लो.वा.2/1/5/श्लो.67-68/276); (ध.1/1,1,1/83/6); (ध.5/1,6,1/3/5); (गो.क./मू./65-66/59)।
ध.1/1,1,1/29/8 आगमदो मंगलपाहुड़जाणओ उवजुत्तो। णोआगमदो भावमंगलं दुविहं, उपयुक्तस्तत्परिणत इति। आगममन्तरेण अर्थोपयुक्त उपयुक्त:। मङ्गलपर्यायपरिणतस्तत्परिणत इति। =जो मंगलविषयक शास्त्र का ज्ञाता होते हुए वर्तमान में उसमें उपयुक्त है उसे आगमभाव मंगल कहते हैं। नोआगम-भाव-मंगल उपयुक्त और तत्परिणत के भेद से दो प्रकार का है। जो आगम के बिना ही मंगल के अर्थ में उपयुक्त है, उसे उपयुक्त नोआगम भाव मंगल कहते हैं, और मंगलरूप अर्थात् जिनेन्द्रदेव आदि की वन्दना भावस्तुति आदि में परिणत जीव को तत्परिणत नोआगमभाव मंगल कहते हैं। (ध.4/1,3,1/7/8)।
न.च.वृ./276-277 अरहतसत्थजाणो आगमभावो हु अरहंतो।276। तग्गुणए य परिणदो णोआगमभाव होइ अरहंतो। तग्गुणएई झादा केवलणाणी हु परिणदो भणिओ।277। =अर्हन्त विषयक शास्त्र का ज्ञायक (और उसके उपयोग युक्त आत्मा) आगमभाव अर्हन्त है।276। उसके गुणों से परिणत अर्थात् केवलज्ञानादि अनन्तचतुष्टयरूप परिणत आत्मा नोआगम-भाव अर्हन्त है। अथवा उनके गुणों को ध्याने वाला आत्मा नोआगमभाव अर्हन्त है।277। - भावनिक्षेप के लक्षण की सिद्धि
श्लो.वा.2/1/5/69/278/10 नन्वेवमतीतस्यानागतस्य च पर्यायस्य भावरूपताविरोधाद्वर्तमानस्यापि सा न स्यात्तस्य पूर्वापेक्षयानागतत्वात् उत्तरापेक्षयातीतत्वादतो भावलक्षणस्याव्याप्तिरसंभवो वा स्यादिति चेन्न। अतीतस्यानागतस्य च पर्यायस्य स्वकालापेक्षया सांप्रतिकत्वाद्भावरूपतोपपत्तेरननुयायिन: परिणामस्य सांप्रतिकत्वोपगमादुक्तदोषाभावात् । =प्रश्न–भूत और भविष्य पर्यायों को, इस लक्षण के अनुसार, भाव निक्षेपपने का विरोध हो जाने के कारण वर्तमानकाल की पर्याय को भी वह भावरूपपना न हो सकेगा। क्योंकि वर्तमानकाल की पर्याय भूतकाल की पर्याय की अपेक्षा से भविष्यत्काल में है और उत्तरकाल की अपेक्षा वही पर्याय भूतकाल की है। अत: भावनिक्षेप के कथित लक्षण में अव्याप्ति या असम्भव दोष आता है? उत्तर–नहीं, क्योंकि, भूत व भविष्यत् काल की पर्यायें भी अपने अपने काल की अपेक्षा वर्तमान की ही हैं; अत: भावरूपता बन जाती है। जो पर्याय आगे पीछे की पर्यायों में अनुगम नहीं करती हुई केवल वर्तमान काल में ही रहती है, वह वर्तमान काल की पर्याय भावनिक्षेप का विषय मानी गयी है। अत: पूर्वोक्त लक्षण में कोई दोष नहीं है। - आगमभावनिक्षेप में भावनिक्षेपपने की सिद्धि
श्लो.वा.2/1/5/69/278/16 कथं पुनरागमो जीवादिभाव इति चेत्, प्रत्ययजीवादिवस्तुन: सांप्रतिकपर्यायत्वात् । प्रत्ययात्मका हि जीवादय: प्रसिद्धा: एवार्थाभिधानात्मकजीवादिवत् । =प्रश्न–ज्ञानरूप आगम को जीवादिभाव निक्षेपपना कैसे है ? उत्तर–ज्ञानस्वरूप जीवादि वस्तुओं को वर्तमानकाल की पर्यायपना है, जिस कारण से कि जीवादिपदार्थ ज्ञानस्वरूप होते हुए प्रसिद्ध हो ही रहे हैं, जैसे कि अर्थ और शब्द रूप जीव आदि हैं (देखें नय - I.4.1)। - आगम व नोआगमभाव में अन्तर
श्लो.वा.2/1/5/69/278/17 तत्र जीवादिविषयोपयोगाख्येन तत्प्रत्ययेनाविष्ट: पुमानेव तदागम इति न विरोध:, ततोऽन्यस्य जीवादिपर्यायाविष्टस्यार्थादेर्नोआगमभावजीवत्वेन व्यवस्थापनात् ।=जीवादि विषयों के उपयोग नामक ज्ञानों से सहित आत्मा तो उस उस जीवादि आगमभावरूप कहा जाता है; और उससे भिन्न नोआगम भाव है जो कि जीव आदि पर्यायों से आविष्ट सहकारी पदार्थ आदि स्वरूप व्यवस्थित हो रहा है। - द्रव्य व भावनिक्षेप में अन्तर
रा.वा./1/5/13/29/25 द्रव्यभावयोरेकत्वम् अव्यतिरेकादिति चेत्; न; कथंचित् संज्ञास्वालक्षण्यादिभेदात् तद्भेदसिद्धे:।
रा.वा./1/5/23/31/1 तथा द्रव्यं स्याद्भाव: भावद्रव्यार्थादेशात् न भाव पर्यायार्थादेशाद् द्रव्यम् । भावस्तु द्रव्यं स्यान्न वा, उभयथा दर्शनात् । =प्रश्न–द्रव्य व भावनिक्षेप में अभेद है, क्योंकि इनकी पृथक् सत्ता नहीं पायी जाती ? उत्तर–नहीं, संज्ञा लक्षण आदि की दृष्टि से इनमें भेद है। अथवा–द्रव्य तो भाव अवश्य होगा क्योंकि उसकी उस योग्यता का विकास अवश्य होगा, परन्तु भावद्रव्य हो भी और न भी हो, क्योंकि उस पर्याय में आगे अमुक योग्यता रहे भी न भी रहे। श्लो.वा.2/1/5/69/279/9 नापि द्रव्यादनर्थान्तरमेव तस्याबाधितभेदप्रत्ययविषयत्वात्, अन्यथान्वयविषयत्वानुषङ्गाद् द्रव्यवत् । =वर्तमान की विशेष पर्याय को ही विषय करने वाला वह भावनिक्षेप निर्बाध भेदज्ञान का विषय हो रहा है, अन्यथा द्रव्यनिक्षेप के समान भावनिक्षेप को भी तीनों काल के पदार्थों का ज्ञान करने वाले अन्वयज्ञान की विषयता का प्रसंग होवेगा। भावार्थ–अन्वयज्ञान का विषय द्रव्यनिक्षेप है और विशेषरूप भेद के ज्ञान का विषय भावनिक्षेप है। भूतभविष्यत् पर्यायों का संकलन द्रव्यनिक्षेप से होता है, और केवल वर्तमान पर्यायों का भावनिक्षेप से आकलन होता है।
- भावनिक्षेप सामान्य का लक्षण