निर्विचिकित्सा: Difference between revisions
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<p> सम्यग्दर्शन का तीसरा अंग । इसमें शारीरिक मैल से मलिन किन्तु गुणशाली योगियों के प्रति मन, वचन और काय से ग्लानि का त्याग किया जाता है । शरीर को अत्यन्त अशुचि मानकर उसमें शुचित्व के मिथ्या संकल्प को छोड़ दिया जाता है । महापुराण 63. 315-316, हरिवंशपुराण 18.165, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.65</p> | == सिद्धांतकोष से == | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1" id="1"> दो प्रकार की विचिकित्सा</strong></span> <br>मू.आ./252 <span class="PrakritText">विदिगिच्छा वि य दुविहा दव्वे भावे य होइ णायव्वा। </span>=<span class="HindiText">विचिकित्सा दो प्रकार है–द्रव्य व भाव। </span> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.1.1" id="1.1.1"></a>साधु व धर्मात्माओं के शरीरों की अपेक्षा</strong></span><br>मू.आ./253 <span class="PrakritGatha">उच्चारं पस्सवणं खेलं सिंधाणयं च चम्मट्ठी। पूयं च मंससोणिदवंतं जल्लादि साधूणं।253।</span> =<span class="HindiText">साधुओं के शरीर के विष्ठामल, मूत्र, कफ, नाक का मल, चाम, हाड़, राधि, मांस, लोही, वमन, सर्व अंगों का मल, लार इत्यादि मलों को देखकर ग्लानि करना द्रव्य विचिकित्सा है (तथा ग्लानि न करना द्रव्य निर्विचिकित्सा है।)</span> (अन.ध./2/80/207) र.क.श्रा./13 <span class="SanskritGatha">स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते। निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सता।13।</span> =<span class="HindiText">स्वभाव से अपवित्र और रत्नत्रय से पवित्र ऐसे धर्मात्माओं के शरीर में ग्लानि न करना और उनके गुणों में प्रीति करना सम्यग्दर्शन का निर्विचिकित्सा अंग माना गया है। (का.अ./मू./417)।</span><br> | |||
द्र.सं./टी./41/172/9 <span class="SanskritText">भेदाभेदरत्नत्रयाराधकभव्यजीवानां दुर्गन्धवीभत्सादिकं दृष्ट्वा धर्मबुद्धया कारुण्यभावेन वा यथायोग्यं विचिकित्सापरिहरणं द्रव्यनिर्विचिकित्सागुणो भण्यते। </span>=<span class="HindiText">भेदाभेद रत्नत्रय के आराधक भव्यजीवों की दुर्गन्धी तथा आकृति आदि देखकर धर्मबुद्धि से अथवा करुणाभाव से यथायोग्य विचिकित्सा (ग्लानि) को दूर करना द्रव्य निर्विचिकित्सा गुण है। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.1.2" id="1.1.2"></a>जीव सामान्य के शरीरों व सर्वपदार्थों की अपेक्षा</strong></span><br> मू.आ./252 <span class="PrakritText">उच्चारादिसु दव्वे...।252।</span> =<span class="HindiText">विष्टा आदि पदार्थों में ग्लानि का होना द्रव्य विचिकित्सा है। (वह नहीं करनी चाहिए पु.सि.उ./ (पु.सि.उ./25)। </span>स.सा./मू./231 <span class="PrakritGatha">जो ण करेदि जुगुप्पं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं। सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिटि्ठी मुणेयव्वो।231।</span> =<span class="HindiText">जो चेतयिता सभी धर्मों या वस्तुस्वभावों के प्रति जुगुप्सा (ग्लानि) नहीं करता है, उसको निश्चय से निर्विचिकित्स सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।</span><br> | |||
स.सा./ता.वृ./231/313/12 <span class="PrakritText">यश्चेतयिता आत्मा परमात्मतत्त्वभावनाबलेन जुगुप्सां निन्दां दोषं द्वेषं विचिकित्सान्न करोति, केषां संबन्धित्वेन। सर्वेषामेव वस्तुधर्माणां स्वभावानां, दुर्गन्धादिविषये वा स सम्यग्दृष्टि: निर्विचिकित्स: खलु स्फुटं मन्तव्यो। </span>=<span class="HindiText">जो आत्मा परमात्म तत्त्व की भावना के बल से सभी वस्तुधर्मों या स्वभावों में अथवा दुर्गन्ध आदि विषयों में ग्लानि या जुगुप्सा नहीं करता, न ही उनकी निन्दा करता है, न उनसे द्वेष करता है, वह निर्विचिकित्स सम्यग्दृष्टि है, ऐसा मानना चाहिए। </span>पं.ध./उ./580 <span class="SanskritGatha">दुर्दैवात् दु:खिते पुंसि तीव्रासाताघृणास्पदे। यन्नासूयापरं चेत: स्मृतो निर्विचिकित्सक: ।580।</span> =<span class="HindiText">दुर्दैव वश तीव्र असाता के उदय से किसी पुरुष के दु:खित हो जाने पर; उससे घृणा नहीं करना निर्विचिकित्सा गुण है।(ला.सं./4/102)।</span></li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> भाव निर्विचिकित्सा का लक्षण</strong> <strong> </strong> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.2.1" id="1.2.1"></a>परीषहों में ग्लानि न करना</strong></span><br>मू.आ./252 <span class="PrakritText">खुदादिए भावविदिगिंछा। </span>=<span class="HindiText">क्षुधादि 22 परीषहों में संक्लेश परिणाम करना भावविचिकित्सा है। (उसका न होना सो निर्विचिकित्सा गुण है–पु.सि.उ.); (पु.सि.उ./25)।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong> <a name="1.2.2" id="1.2.2"></a>असत् व दूषित संकल्प विकल्पों का निरास</strong></span><br>रा.वा./6/24/1/529/10 <span class="SanskritText">शरीराद्यशुचिस्वभावमवगम्य शचीति मिथ्यासंकल्पापनय:, अर्हत्प्रवचने वा इदमयुक्तं घोरं कष्टं न चेदिदं सर्वमुपपन्नमित्यशुभभावनाविरह: निर्विचिकित्सता।</span> =<span class="HindiText">शरीर को अत्यन्त अशुचि मानकर उसमें शुचित्व के मिथ्या संकल्प को छोड़ देना, अथवा अर्हन्त के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन में यह अयुक्त है, ‘घोर कष्ट है, यह सब नहीं बनता’ आदि प्रकार की अशुभ भावनाओं से चित्त विचिकित्सा नहीं करना अर्थात् ऐसे भावों का विरह: निर्विचिकित्सा है।</span> (म.पु./63/315-316); (चा.सा./4/5)। द्र.सं./टी./41/172/11 <span class="SanskritText">यत्पुनर्जैनसमये सर्वं समीचीनं परं किन्तु वस्त्राप्रवरणं जलस्नानादिकं च न कुर्वन्ति तदेव दुषणमित्यादिकुत्सितभावस्य विशिष्टविवेकबलेन परिहरणं सा निर्विचिकित्सा भण्यते। </span>=<span class="HindiText">’जैनमत में सब अच्छी बातें हैं, परन्तु वस्त्र के आवरण से रहितता अर्थात् नग्नपना और जलस्नान आदि का न करना यही एक दूषण है’ इत्यादि बुरे भावों को विशेष ज्ञान के बल से दूर करना, वह निर्विचिकित्सा कहलाती है। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.3" id="1.2.3"> ऊंच-नीच के अथवा प्रशंसा निन्दा आदि के भावों का निरास</strong></span><br> पं.ध./उ./578-584 <span class="SanskritGatha">आत्मन्यात्मगुणोत्कर्षबुद्धयां स्वात्मप्रशंसनात् । परत्राप्यपकर्षेषु बुद्धिर्विचिकित्सता स्मृता।578। नैतत्तन्मनस्यज्ञानमस्म्यहं संपदां पदम् । नासावस्मत्समो दीनो बराको विपदां पदम् ।581। प्रत्युत ज्ञानमेवैतत्तत्र कर्मविपाकजा:। प्राणिन: सदृशा: सर्वे त्रसस्थावरयोनय:।582। </span>=<span class="HindiText">अपने में अपनी प्रशंसा द्वारा अपने गुणों की उत्कर्षता के साथ-साथ जो अन्य गुणों के अपकर्ष में बुद्धि होती है उसको विचिकित्सा कहते हैं। ऐसी बुद्धि न होना सो निर्विचिकित्सा है।578। सम्यग्दृष्टि के मन में यह अज्ञान नहीं होता कि मैं सम्पत्तियों का आस्पद हूं और यह दीन गरीब विपत्तियों का आस्पद है, इसलिए हमारे समान नहीं है।581। बल्कि उस निर्विचिकित्सक के तो ऐसा ज्ञान होता है कि कर्मों के उदय से उत्पन्न त्रस स्थवर योनिवाले सर्व जीव सदृश हैं।582। (ला.सं./4/100-105)। </span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.4" id="1.2.4"> निश्चय निर्विचिकित्सा निर्देश</strong></span><br> द्र.सं./टी./41/173/2<span class="SanskritText"> निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिर्विचिकित्सागुणस्य बलेन समस्तद्वेषादिविकल्परूपकल्लोलमालात्यागेन निर्मलात्मानुभूतिलक्षणे निजशुद्धात्मनि व्यवस्थानं निर्विचिकित्सा गुण इति।</span> <span class="HindiText">निश्चय से तो इसी (पूर्वोक्त) निर्विचिकित्सा गुण के बल से जो समस्त राग-द्वेष आदि विकल्परूप तरंगों का त्याग करके निर्मल आत्मानुभव लक्षण निज शुद्धात्मा में स्थिति करना निर्विचिकित्सा गुण हे।</span></li> | |||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.5" id="1.2.5"> इसे सम्यक्त्व का अतिचार कहने का कारण</strong></span><br> भ.आ./वि./44/144/1 <span class="SanskritText">विचिकित्सा जुगुप्सा मिथ्यात्वासंयमादिषु जुगुप्साया: प्रवृत्तिरतिचार: स्यादिति चेत् इहापि नियतविषया जुगुप्सेति मतातिचारत्वेन। रत्नत्रयाणामन्यतमे तद्वति वा कोपादिनिमित्ता जुगुप्सा इह गृहीता। ततस्तस्य दर्शनं, ज्ञानं, चरणं, वाशोभनमिति। यस्य हि इदं भद्रं इति श्रद्धानं स तस्य जुगुप्सा करोति। ततो रत्नत्रयमाहात्म्यारुचिर्युज्यते अतिचार:। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–विचिकित्सा या जुगुप्सा को यदि अतिचार कहोगे तो मिथ्यात्व असंयम इत्यादिकों में जो जुगुप्सा होती है, उसे भी सम्यग्दर्शन का अतिचार मानना पड़ेगा ? <strong>उत्तर</strong>–यहां पर जुगुप्सा का विषय नियत समझना चाहिए। रत्नत्रय में से किसी एक में अथवा रत्नत्रयाराधकों में कोपादि वश जुगुप्सा होना ही सम्यग्दर्शन का अतिचार है। क्योंकि, इसके वशीभूत मनुष्य अन्य सम्यग्दृष्टि जीव के ज्ञान, दर्शन व आचरण का तिरस्कार करता है। तथा निरतिचार सम्यग्दृष्टि का तिरस्कार करता है। अत: ऐसी जुगुप्सा से रत्नत्रय के माहात्म्य में अरुचि होने से इसको अतिचार समझना चाहिए। (अन.ध./2/79/207)।</span></li> | |||
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== पुराणकोष से == | |||
<p> सम्यग्दर्शन का तीसरा अंग । इसमें शारीरिक मैल से मलिन किन्तु गुणशाली योगियों के प्रति मन, वचन और काय से ग्लानि का त्याग किया जाता है । शरीर को अत्यन्त अशुचि मानकर उसमें शुचित्व के मिथ्या संकल्प को छोड़ दिया जाता है । <span class="GRef"> महापुराण 63. 315-316, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 18.165, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 6.65 </span></p> | |||
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Revision as of 21:43, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- दो प्रकार की विचिकित्सा
मू.आ./252 विदिगिच्छा वि य दुविहा दव्वे भावे य होइ णायव्वा। =विचिकित्सा दो प्रकार है–द्रव्य व भाव।- द्रव्य निर्विचिकित्सा का लक्षण
- <a name="1.1.1" id="1.1.1"></a>साधु व धर्मात्माओं के शरीरों की अपेक्षा
मू.आ./253 उच्चारं पस्सवणं खेलं सिंधाणयं च चम्मट्ठी। पूयं च मंससोणिदवंतं जल्लादि साधूणं।253। =साधुओं के शरीर के विष्ठामल, मूत्र, कफ, नाक का मल, चाम, हाड़, राधि, मांस, लोही, वमन, सर्व अंगों का मल, लार इत्यादि मलों को देखकर ग्लानि करना द्रव्य विचिकित्सा है (तथा ग्लानि न करना द्रव्य निर्विचिकित्सा है।) (अन.ध./2/80/207) र.क.श्रा./13 स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते। निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सता।13। =स्वभाव से अपवित्र और रत्नत्रय से पवित्र ऐसे धर्मात्माओं के शरीर में ग्लानि न करना और उनके गुणों में प्रीति करना सम्यग्दर्शन का निर्विचिकित्सा अंग माना गया है। (का.अ./मू./417)।
द्र.सं./टी./41/172/9 भेदाभेदरत्नत्रयाराधकभव्यजीवानां दुर्गन्धवीभत्सादिकं दृष्ट्वा धर्मबुद्धया कारुण्यभावेन वा यथायोग्यं विचिकित्सापरिहरणं द्रव्यनिर्विचिकित्सागुणो भण्यते। =भेदाभेद रत्नत्रय के आराधक भव्यजीवों की दुर्गन्धी तथा आकृति आदि देखकर धर्मबुद्धि से अथवा करुणाभाव से यथायोग्य विचिकित्सा (ग्लानि) को दूर करना द्रव्य निर्विचिकित्सा गुण है। - <a name="1.1.2" id="1.1.2"></a>जीव सामान्य के शरीरों व सर्वपदार्थों की अपेक्षा
मू.आ./252 उच्चारादिसु दव्वे...।252। =विष्टा आदि पदार्थों में ग्लानि का होना द्रव्य विचिकित्सा है। (वह नहीं करनी चाहिए पु.सि.उ./ (पु.सि.उ./25)। स.सा./मू./231 जो ण करेदि जुगुप्पं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं। सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिटि्ठी मुणेयव्वो।231। =जो चेतयिता सभी धर्मों या वस्तुस्वभावों के प्रति जुगुप्सा (ग्लानि) नहीं करता है, उसको निश्चय से निर्विचिकित्स सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए।
स.सा./ता.वृ./231/313/12 यश्चेतयिता आत्मा परमात्मतत्त्वभावनाबलेन जुगुप्सां निन्दां दोषं द्वेषं विचिकित्सान्न करोति, केषां संबन्धित्वेन। सर्वेषामेव वस्तुधर्माणां स्वभावानां, दुर्गन्धादिविषये वा स सम्यग्दृष्टि: निर्विचिकित्स: खलु स्फुटं मन्तव्यो। =जो आत्मा परमात्म तत्त्व की भावना के बल से सभी वस्तुधर्मों या स्वभावों में अथवा दुर्गन्ध आदि विषयों में ग्लानि या जुगुप्सा नहीं करता, न ही उनकी निन्दा करता है, न उनसे द्वेष करता है, वह निर्विचिकित्स सम्यग्दृष्टि है, ऐसा मानना चाहिए। पं.ध./उ./580 दुर्दैवात् दु:खिते पुंसि तीव्रासाताघृणास्पदे। यन्नासूयापरं चेत: स्मृतो निर्विचिकित्सक: ।580। =दुर्दैव वश तीव्र असाता के उदय से किसी पुरुष के दु:खित हो जाने पर; उससे घृणा नहीं करना निर्विचिकित्सा गुण है।(ला.सं./4/102)।
- <a name="1.1.1" id="1.1.1"></a>साधु व धर्मात्माओं के शरीरों की अपेक्षा
- भाव निर्विचिकित्सा का लक्षण
- <a name="1.2.1" id="1.2.1"></a>परीषहों में ग्लानि न करना
मू.आ./252 खुदादिए भावविदिगिंछा। =क्षुधादि 22 परीषहों में संक्लेश परिणाम करना भावविचिकित्सा है। (उसका न होना सो निर्विचिकित्सा गुण है–पु.सि.उ.); (पु.सि.उ./25)। - <a name="1.2.2" id="1.2.2"></a>असत् व दूषित संकल्प विकल्पों का निरास
रा.वा./6/24/1/529/10 शरीराद्यशुचिस्वभावमवगम्य शचीति मिथ्यासंकल्पापनय:, अर्हत्प्रवचने वा इदमयुक्तं घोरं कष्टं न चेदिदं सर्वमुपपन्नमित्यशुभभावनाविरह: निर्विचिकित्सता। =शरीर को अत्यन्त अशुचि मानकर उसमें शुचित्व के मिथ्या संकल्प को छोड़ देना, अथवा अर्हन्त के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन में यह अयुक्त है, ‘घोर कष्ट है, यह सब नहीं बनता’ आदि प्रकार की अशुभ भावनाओं से चित्त विचिकित्सा नहीं करना अर्थात् ऐसे भावों का विरह: निर्विचिकित्सा है। (म.पु./63/315-316); (चा.सा./4/5)। द्र.सं./टी./41/172/11 यत्पुनर्जैनसमये सर्वं समीचीनं परं किन्तु वस्त्राप्रवरणं जलस्नानादिकं च न कुर्वन्ति तदेव दुषणमित्यादिकुत्सितभावस्य विशिष्टविवेकबलेन परिहरणं सा निर्विचिकित्सा भण्यते। =’जैनमत में सब अच्छी बातें हैं, परन्तु वस्त्र के आवरण से रहितता अर्थात् नग्नपना और जलस्नान आदि का न करना यही एक दूषण है’ इत्यादि बुरे भावों को विशेष ज्ञान के बल से दूर करना, वह निर्विचिकित्सा कहलाती है। - ऊंच-नीच के अथवा प्रशंसा निन्दा आदि के भावों का निरास
पं.ध./उ./578-584 आत्मन्यात्मगुणोत्कर्षबुद्धयां स्वात्मप्रशंसनात् । परत्राप्यपकर्षेषु बुद्धिर्विचिकित्सता स्मृता।578। नैतत्तन्मनस्यज्ञानमस्म्यहं संपदां पदम् । नासावस्मत्समो दीनो बराको विपदां पदम् ।581। प्रत्युत ज्ञानमेवैतत्तत्र कर्मविपाकजा:। प्राणिन: सदृशा: सर्वे त्रसस्थावरयोनय:।582। =अपने में अपनी प्रशंसा द्वारा अपने गुणों की उत्कर्षता के साथ-साथ जो अन्य गुणों के अपकर्ष में बुद्धि होती है उसको विचिकित्सा कहते हैं। ऐसी बुद्धि न होना सो निर्विचिकित्सा है।578। सम्यग्दृष्टि के मन में यह अज्ञान नहीं होता कि मैं सम्पत्तियों का आस्पद हूं और यह दीन गरीब विपत्तियों का आस्पद है, इसलिए हमारे समान नहीं है।581। बल्कि उस निर्विचिकित्सक के तो ऐसा ज्ञान होता है कि कर्मों के उदय से उत्पन्न त्रस स्थवर योनिवाले सर्व जीव सदृश हैं।582। (ला.सं./4/100-105)। - निश्चय निर्विचिकित्सा निर्देश
द्र.सं./टी./41/173/2 निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिर्विचिकित्सागुणस्य बलेन समस्तद्वेषादिविकल्परूपकल्लोलमालात्यागेन निर्मलात्मानुभूतिलक्षणे निजशुद्धात्मनि व्यवस्थानं निर्विचिकित्सा गुण इति। निश्चय से तो इसी (पूर्वोक्त) निर्विचिकित्सा गुण के बल से जो समस्त राग-द्वेष आदि विकल्परूप तरंगों का त्याग करके निर्मल आत्मानुभव लक्षण निज शुद्धात्मा में स्थिति करना निर्विचिकित्सा गुण हे। - इसे सम्यक्त्व का अतिचार कहने का कारण
भ.आ./वि./44/144/1 विचिकित्सा जुगुप्सा मिथ्यात्वासंयमादिषु जुगुप्साया: प्रवृत्तिरतिचार: स्यादिति चेत् इहापि नियतविषया जुगुप्सेति मतातिचारत्वेन। रत्नत्रयाणामन्यतमे तद्वति वा कोपादिनिमित्ता जुगुप्सा इह गृहीता। ततस्तस्य दर्शनं, ज्ञानं, चरणं, वाशोभनमिति। यस्य हि इदं भद्रं इति श्रद्धानं स तस्य जुगुप्सा करोति। ततो रत्नत्रयमाहात्म्यारुचिर्युज्यते अतिचार:। =प्रश्न–विचिकित्सा या जुगुप्सा को यदि अतिचार कहोगे तो मिथ्यात्व असंयम इत्यादिकों में जो जुगुप्सा होती है, उसे भी सम्यग्दर्शन का अतिचार मानना पड़ेगा ? उत्तर–यहां पर जुगुप्सा का विषय नियत समझना चाहिए। रत्नत्रय में से किसी एक में अथवा रत्नत्रयाराधकों में कोपादि वश जुगुप्सा होना ही सम्यग्दर्शन का अतिचार है। क्योंकि, इसके वशीभूत मनुष्य अन्य सम्यग्दृष्टि जीव के ज्ञान, दर्शन व आचरण का तिरस्कार करता है। तथा निरतिचार सम्यग्दृष्टि का तिरस्कार करता है। अत: ऐसी जुगुप्सा से रत्नत्रय के माहात्म्य में अरुचि होने से इसको अतिचार समझना चाहिए। (अन.ध./2/79/207)।
- <a name="1.2.1" id="1.2.1"></a>परीषहों में ग्लानि न करना
- द्रव्य निर्विचिकित्सा का लक्षण
पुराणकोष से
सम्यग्दर्शन का तीसरा अंग । इसमें शारीरिक मैल से मलिन किन्तु गुणशाली योगियों के प्रति मन, वचन और काय से ग्लानि का त्याग किया जाता है । शरीर को अत्यन्त अशुचि मानकर उसमें शुचित्व के मिथ्या संकल्प को छोड़ दिया जाता है । महापुराण 63. 315-316, हरिवंशपुराण 18.165, वीरवर्द्धमान चरित्र 6.65