पुष्पदन्त: Difference between revisions
From जैनकोष
m (Vikasnd moved page पुष्पदन्त to पुष्पदन्त without leaving a redirect: RemoveZWNJChar) |
(Imported from text file) |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<p id="1"> (1) धातकीखण्ड में पूर्व भरतक्षेत्र की अयोध्या नगरी का चक्रवर्ती राजा । इसकी प्रीतिंकरी रानी और सुदत्त पुत्र था । महापुराण 71.256-257</p> | <p id="1"> (1) धातकीखण्ड में पूर्व भरतक्षेत्र की अयोध्या नगरी का चक्रवर्ती राजा । इसकी प्रीतिंकरी रानी और सुदत्त पुत्र था । <span class="GRef"> महापुराण 71.256-257 </span></p> | ||
<p id="2">(2) राजपुर नगर निवासी धनी मालाकार । महापुराण 75.526-527</p> | <p id="2">(2) राजपुर नगर निवासी धनी मालाकार । <span class="GRef"> महापुराण 75.526-527 </span></p> | ||
<p id="3">(3) श्रुत को ग्रन्थारूढ करने वाले एक आचार्य । तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के पश्चात् छ: सौ तिरासी वर्ष बीत जाने पर काल दोष से श्रुतज्ञान की हीनता होने लगी । तब इन्होंने आचार्य भूतबलि के साथ अवशिष्ट श्रुत को पुस्तकारूढ़ किया और सब संघों के साथ ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन उसकी महापूजा की । वीरवर्द्धमान चरित्र 1. 41-55</p> | <p id="3">(3) श्रुत को ग्रन्थारूढ करने वाले एक आचार्य । तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के पश्चात् छ: सौ तिरासी वर्ष बीत जाने पर काल दोष से श्रुतज्ञान की हीनता होने लगी । तब इन्होंने आचार्य भूतबलि के साथ अवशिष्ट श्रुत को पुस्तकारूढ़ किया और सब संघों के साथ ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन उसकी महापूजा की । <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 1. 41-55 </span></p> | ||
<p id="4">(4) क्षीरवर द्वीप का एक रक्षक व्यन्तर देव । हरिवंशपुराण 5.641</p> | <p id="4">(4) क्षीरवर द्वीप का एक रक्षक व्यन्तर देव । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.641 </span></p> | ||
<p id="5">(5) एक क्षुल्लक । विष्णुकुमार मुनि के गुरु ने मुनियों पर हस्तिनापुर में बलि द्वारा किये जाते हुए उपसर्ग को जानकर दु:ख प्रकट किया था । क्षुल्लक ने उनसे यह जानकर कि विक्रिया ऋद्धि धारक विष्णुकुमार मुनि इस उपसर्ग को दूर कर सकते हैं ये उनके पास पहुँचे । इनके द्वारा प्राप्त सन्देश से विष्णुकुमार ने गुरु की आज्ञा के अनुसार इस उपसर्ग का निवारण किया । हरिवंशपुराण 20. 25-60</p> | <p id="5">(5) एक क्षुल्लक । विष्णुकुमार मुनि के गुरु ने मुनियों पर हस्तिनापुर में बलि द्वारा किये जाते हुए उपसर्ग को जानकर दु:ख प्रकट किया था । क्षुल्लक ने उनसे यह जानकर कि विक्रिया ऋद्धि धारक विष्णुकुमार मुनि इस उपसर्ग को दूर कर सकते हैं ये उनके पास पहुँचे । इनके द्वारा प्राप्त सन्देश से विष्णुकुमार ने गुरु की आज्ञा के अनुसार इस उपसर्ग का निवारण किया । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 20. 25-60 </span></p> | ||
<p id="6">(6) अवसर्पिणी काल के चौथे दु:षमा-सुषमा काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं नौवें तीर्थङ्कर । अपरनाम सुविधिनाथ चन्द्रप्रभ तीर्थङ्कर के पश्चात् | <p id="6">(6) अवसर्पिणी काल के चौथे दु:षमा-सुषमा काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं नौवें तीर्थङ्कर । अपरनाम सुविधिनाथ चन्द्रप्रभ तीर्थङ्कर के पश्चात् नव्वे करोड़ सागर का समय निकल जाने पर ये फाल्गुन कृष्ण नवमी के दिन भरतक्षेत्र में स्थित काकन्दी नगरी के स्वामी सुग्रीव की महारानी जयरामा के गर्भ में आये और मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा के दिन जैत्रयोग में इनका जन्म हुआ । जन्माभिषेक के पश्चात् इन्द्र ने इन्हें यह नाम दिया । इनकी आयु दो लाख पूर्व की थी और शरीर सौ धनुष ऊँचा था । इनका पचास हजार पूर्व का समय कुमारावस्था में बीता । पचास हजार पूर्व अट्ठाईस पूर्वांग वर्ष इन्होंने राज्य किया । उल्कापात देखकर ये प्रबोध को प्राप्त हुए । तब इन्होंने अपने पुत्र सुमति को राज्य सौंप दिया और सूर्यप्रभा नाम की शिविका में बैठकर ये पुष्पक बन गये । वहाँ ये मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के दिन अपराह्न में षष्ठोपवास का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए । दीक्षित होते ही इन्हें मन: पर्ययज्ञान हो गया शैलपुर नगर के राजा पुण्यमित्र के यहाँ प्रथम पारणा हुई । छद्मस्थ अवस्था में तप करते हुए चार वर्ष बीत जाने पर कार्तिक शुक्ला द्वितीया को सायं बेला में मूल नक्षत्र में दो दिन का उपवास लेकर नागवृक्ष के नीचे स्थित हुए । वहाँ इन्होंने घातिया कर्मों का नाश करके अनन्त चतुष्टय प्राप्त किया । इनके संघ में विदर्भ आदि अठासी गणधर, दो लाख मुनि, तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकाएँ थीं । आर्य देशों में विहार करके भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि की अपराह्न बेला में, मूल नक्षत्र में एक हजार मुनियों के साथ इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । दूसरे पूर्वभव में थे पुण्डरीकिणी नगरी के महापद्म नामक नृप थे, पहले पूर्वभव में ये प्राणत स्वर्ग में इन्द्र हुए । वहीं से च्युत होकर इस भव में ये तीर्थंकर हुए । <span class="GRef"> महापुराण 2. 130, 50.2-22, 55.23-30, 36-38, 45-59, 62, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 5. 214, 20. 63, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 1. 11, 60.156-190, 341-349, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 1.19, 18.101-106 </span></p> | ||
<noinclude> | <noinclude> | ||
[[ | [[ पुष्पदत्ता | पूर्व पृष्ठ ]] | ||
[[ | [[ पुष्पदन्ता | अगला पृष्ठ ]] | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: पुराण-कोष]] | [[Category: पुराण-कोष]] | ||
[[Category: प]] | [[Category: प]] |
Revision as of 21:43, 5 July 2020
(1) धातकीखण्ड में पूर्व भरतक्षेत्र की अयोध्या नगरी का चक्रवर्ती राजा । इसकी प्रीतिंकरी रानी और सुदत्त पुत्र था । महापुराण 71.256-257
(2) राजपुर नगर निवासी धनी मालाकार । महापुराण 75.526-527
(3) श्रुत को ग्रन्थारूढ करने वाले एक आचार्य । तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के पश्चात् छ: सौ तिरासी वर्ष बीत जाने पर काल दोष से श्रुतज्ञान की हीनता होने लगी । तब इन्होंने आचार्य भूतबलि के साथ अवशिष्ट श्रुत को पुस्तकारूढ़ किया और सब संघों के साथ ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन उसकी महापूजा की । वीरवर्द्धमान चरित्र 1. 41-55
(4) क्षीरवर द्वीप का एक रक्षक व्यन्तर देव । हरिवंशपुराण 5.641
(5) एक क्षुल्लक । विष्णुकुमार मुनि के गुरु ने मुनियों पर हस्तिनापुर में बलि द्वारा किये जाते हुए उपसर्ग को जानकर दु:ख प्रकट किया था । क्षुल्लक ने उनसे यह जानकर कि विक्रिया ऋद्धि धारक विष्णुकुमार मुनि इस उपसर्ग को दूर कर सकते हैं ये उनके पास पहुँचे । इनके द्वारा प्राप्त सन्देश से विष्णुकुमार ने गुरु की आज्ञा के अनुसार इस उपसर्ग का निवारण किया । हरिवंशपुराण 20. 25-60
(6) अवसर्पिणी काल के चौथे दु:षमा-सुषमा काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एवं नौवें तीर्थङ्कर । अपरनाम सुविधिनाथ चन्द्रप्रभ तीर्थङ्कर के पश्चात् नव्वे करोड़ सागर का समय निकल जाने पर ये फाल्गुन कृष्ण नवमी के दिन भरतक्षेत्र में स्थित काकन्दी नगरी के स्वामी सुग्रीव की महारानी जयरामा के गर्भ में आये और मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा के दिन जैत्रयोग में इनका जन्म हुआ । जन्माभिषेक के पश्चात् इन्द्र ने इन्हें यह नाम दिया । इनकी आयु दो लाख पूर्व की थी और शरीर सौ धनुष ऊँचा था । इनका पचास हजार पूर्व का समय कुमारावस्था में बीता । पचास हजार पूर्व अट्ठाईस पूर्वांग वर्ष इन्होंने राज्य किया । उल्कापात देखकर ये प्रबोध को प्राप्त हुए । तब इन्होंने अपने पुत्र सुमति को राज्य सौंप दिया और सूर्यप्रभा नाम की शिविका में बैठकर ये पुष्पक बन गये । वहाँ ये मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के दिन अपराह्न में षष्ठोपवास का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए । दीक्षित होते ही इन्हें मन: पर्ययज्ञान हो गया शैलपुर नगर के राजा पुण्यमित्र के यहाँ प्रथम पारणा हुई । छद्मस्थ अवस्था में तप करते हुए चार वर्ष बीत जाने पर कार्तिक शुक्ला द्वितीया को सायं बेला में मूल नक्षत्र में दो दिन का उपवास लेकर नागवृक्ष के नीचे स्थित हुए । वहाँ इन्होंने घातिया कर्मों का नाश करके अनन्त चतुष्टय प्राप्त किया । इनके संघ में विदर्भ आदि अठासी गणधर, दो लाख मुनि, तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकाएँ, दो लाख श्रावक और पाँच लाख श्राविकाएँ थीं । आर्य देशों में विहार करके भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि की अपराह्न बेला में, मूल नक्षत्र में एक हजार मुनियों के साथ इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । दूसरे पूर्वभव में थे पुण्डरीकिणी नगरी के महापद्म नामक नृप थे, पहले पूर्वभव में ये प्राणत स्वर्ग में इन्द्र हुए । वहीं से च्युत होकर इस भव में ये तीर्थंकर हुए । महापुराण 2. 130, 50.2-22, 55.23-30, 36-38, 45-59, 62, पद्मपुराण 5. 214, 20. 63, हरिवंशपुराण 1. 11, 60.156-190, 341-349, वीरवर्द्धमान चरित्र 1.19, 18.101-106