प्रत्याख्यान: Difference between revisions
From जैनकोष
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<p class="HindiText">आगामी काल में दोष न करने की प्रतिज्ञा करना प्रत्याख्यान है । अथवा सीमित काल के लिए आहारादि का त्याग करना प्रत्याख्यान है । त्याग प्रारम्भ करते समय प्रत्याख्यान की प्रतिष्ठापना और अवधि पूर्ण होने पर उसकी निष्ठापना की जाती है । वीतराग भाव सापेक्ष किया गया प्रत्याख्यान ही वास्तविक है । <br /> | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="HindiText">आगामी काल में दोष न करने की प्रतिज्ञा करना प्रत्याख्यान है । अथवा सीमित काल के लिए आहारादि का त्याग करना प्रत्याख्यान है । त्याग प्रारम्भ करते समय प्रत्याख्यान की प्रतिष्ठापना और अवधि पूर्ण होने पर उसकी निष्ठापना की जाती है । वीतराग भाव सापेक्ष किया गया प्रत्याख्यान ही वास्तविक है । <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> व्यवहार नयकी अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.1" id="1.1.1"> व्यवहार नयकी अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./27 <span class="PrakritGatha">णामादीणं छण्णं अजोग्गपरिवज्जणं तिकरणेण । पच्चक्खाणं णेयं अणागयं चागमे काले ।27। </span>=<span class="HindiText"> नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छहों में शुभ मन, वचन व काय से आगामी काल के लिए अयोग्य का त्याग करना प्रत्याख्यान जानना ।27।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./6/24/11/530/14 <span class="SanskritText">अनागतदोषापोहनं प्रत्याख्यानम् ।</span> = <span class="HindiText">भविष्यत् में दोष न होने देने के लिए सन्नद्ध होना प्रत्याख्यान है । (भ.आ./वि./116/276/21) (भा.पा./टी.77/221/15) । </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-1,23,44/4<span class="PrakritText">पच्चक्खाणं संजमो महव्वयाइं ति एयट्ठो ।</span> = <span class="HindiText">प्रत्याख्यान, संयम और महाव्रत एक अर्थ वाले हैं । </span><br /> | ||
ध. | ध. 8/3,41/85/1 <span class="PrakritText">महव्वयाणं विणासण-मलारोहणकारणाणि तहा ण होसंति तहा करेमि त्ति मणेणालोचिय चउरासीदिलक्खवदसुद्धिपडिग्गहो पच्चक्खाणं णाम ।</span> = <span class="HindiText">महाव्रतों के विनाश व मलोत्पादन के कारण जिस प्रकार न होंगे वैसा करता हूँ, ऐसी मन से आलोचना करके चौरासी लाख व्रतों की शुद्धि के प्रतिग्रह का नाम प्रत्याख्यान है ।</span><br /> | ||
नि.सा./ता.वृ./ | नि.सा./ता.वृ./95 <span class="SanskritText">व्यवहारनयादेशात् मुनयो भुक्त्वा दैनं दैनं पुनर्योग्यकालपर्य्यन्तं प्रत्यादिष्टान्नपानखाद्यलेह्यरुचयः, एतद् व्यवहारप्रत्याख्यानस्वरूपम् । </span>=<span class="HindiText"> मुनि दिन-दिन में भोजन करके फिर योग्य काल पर्यन्त अन्न, पान, खाद्य और लेह्य की रुचि छोड़ते हैं यह व्यवहार प्रत्याख्यान का स्वरूप है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> निश्चय नय की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> निश्चय नय की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./384<span class="PrakritText"> कम्मं जं सुहमसुहं जम्हि य भावम्हि वज्झइ भविस्सं तत्तो णियत्तए जो सो पच्चक्खाणं हवइ चेया ।384।</span> = <span class="HindiText">भविष्यत् काल का शुभ व अशुभ कर्म जिस भाव में बन्धता है, उस भाव से जो आत्मा निवृत्त होता है, वह आत्मा प्रत्याख्यान है ।384।</span><br /> | ||
नि.सा./मू./गा. <span class="PrakritGatha">मोत्तूण सयलजप्पमणागयसुहमसुहवारणं किच्चा । अप्पाणं जो झायदि पच्चक्खाणं हवे तस्स | नि.सा./मू./गा. <span class="PrakritGatha">मोत्तूण सयलजप्पमणागयसुहमसुहवारणं किच्चा । अप्पाणं जो झायदि पच्चक्खाणं हवे तस्स ।95। णियभावं णवि मुच्चइ परभावं णेव गेण्हए केइं । जाणदि पस्सदि सव्वं सोहं इदि चिंतए णाणी ।97। सम्मं मे सव्वभूदेसु वेरं मझ्झं ण केणवि । आसाए वोसरित्ता णं समाहिपडिवज्जए ।104।</span> =<span class="HindiText"> समस्त जल्प को छोड़कर और अनागत शुभ व अशुभ का निवारण करके जो आत्मा को ध्याता है, उसे प्रत्याख्यान कहते हैं ।95। जो निजभाव को नहीं छोड़ता, किंचित् भी परभाव को ग्रहण नहीं करता, सर्व को जानता-देखता है, वह मैं हूँ - ऐसा ज्ञानी चिंतवन करता है ।97। सर्व जीवों के प्रति मुझे समता है, मुझे किसी के साथ वैर नहीं है; वास्तव में आशा को छोड़कर मैं समाधि को प्राप्त करता हूँ ।104।</span><br /> | ||
यो.सा.अ. | यो.सा.अ.5/51 <span class="SanskritGatha">आगम्यागोनिमित्तानां भावानां प्रतिषेधनं । प्रत्याख्यानं समादिष्टं विविक्तात्मविलोकिन):।51।</span> = <span class="HindiText">जो महापुरुष समस्त कर्मजनित वासनाओं से रहित आत्मा को देखने वाले हैं, उनके जो पापों के आने में कारणभूत भावों का त्याग है, उसे प्रत्याख्यान कहते हैं ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.3" id="1.1.3">द्वादशांगका एक अंग</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.3" id="1.1.3">द्वादशांगका एक अंग</strong> <br /> | ||
द्वादशांग के | द्वादशांग के 14 पूर्वों में से एक पूर्व है । देखें [[ श्रुतज्ञान#III.1.3.3 | श्रुतज्ञान - III.1.3.3]]<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1">सामान्य भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.1" id="1.2.1">सामान्य भेद</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./637-639 <span class="PrakritGatha">अणागदसदिकंतं कोडीसदिदं णिखंडिदं चेव । सागारमणागारं परिमाणागदं अपरिसेसं ।637। अद्धाणगदं णवमं दसमं तु सहेदुगं वियाणाहि । पच्चक्खाणवियप्पा णिरुत्तिजुत्ता जिणमदह्मि । 638। विणय तहाणुभासा हवदि य अणुपालणाय परिणामे । एदं पच्चक्खाणं चदुव्विधं होदि णादव्वं । </span>= <span class="HindiText">भविष्यत् काल में उपवास आदि करना जैसे चौदस का उपवास तेरस को वह </span> | ||
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<li class="HindiText"> अनागत प्रत्याख्यान है । </li> | <li class="HindiText"> अनागत प्रत्याख्यान है । </li> | ||
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<li class="HindiText"> अपरिशेष, </li> | <li class="HindiText"> अपरिशेष, </li> | ||
<li class="HindiText"> अध्वगत, </li> | <li class="HindiText"> अध्वगत, </li> | ||
<li><span class="HindiText"> सहेतुक प्रत्याख्यान है । इस प्रकार सार्थक प्रत्याख्यान के दस भेद जिनमत में जानने चाहिए | <li><span class="HindiText"> सहेतुक प्रत्याख्यान है । इस प्रकार सार्थक प्रत्याख्यान के दस भेद जिनमत में जानने चाहिए ।637-638। | ||
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<li class="HindiText"> अनुभाषाकार, </li> | <li class="HindiText"> अनुभाषाकार, </li> | ||
<li class="HindiText"> अनुपालनकर, </li> | <li class="HindiText"> अनुपालनकर, </li> | ||
<li class="HindiText"> परिणामकर शुद्ध यह प्रत्याख्यान चार प्रकार भी है | <li class="HindiText"> परिणामकर शुद्ध यह प्रत्याख्यान चार प्रकार भी है ।639।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2">नाम स्थापनादि भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2">नाम स्थापनादि भेद</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./116/276/21<span class="SanskritText"> तच्च (प्रत्याख्यानं) नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकाल- भावविकल्पेन षड्विधं ।</span> = <span class="HindiText">यह प्रत्याख्यान नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव ऐसे विकल्प से छः प्रकार का है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3.1" id="1.3.1">सामान्य भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3.1" id="1.3.1">सामान्य भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./640-643<span class="PrakritGatha"> कदियम्मं उवचारिय विणओ तह णाण-दंसणचरित्ते । पंचविधविणयजुत्तं विणयसुद्धं हवदि तंतु ।640। अणुभासदि गुरुवयणं अक्खरपदवंजणं कमविसुद्धं घोसविसुद्धी सुद्धं एदं अणुभासणासुद्धं ।641। आदं के उवसग्गे समे य दुब्भिक्खवुत्ति कंतारे । जं पालिदं ण भग्गं एदं अणुपालणासुद्धं ।642। रागेण व दोसेण व मणपरिणामे ण दूसिदं जं तु । तं पुण पच्चाक्खाणं भावविशुद्धं तु णादव्वं ।643।</span> = | ||
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<li class="HindiText"> सिद्ध भक्ति आदि सहित कायोत्सर्ग तपरूप विनय, व्यवहार-विनय, ज्ञान-विनय, दर्शन व चारित्र-विनय- इस तरह पाँच प्रकार के विनय सहित प्रत्याख्यान वह विनयकर शुद्ध होता है | <li class="HindiText"> सिद्ध भक्ति आदि सहित कायोत्सर्ग तपरूप विनय, व्यवहार-विनय, ज्ञान-विनय, दर्शन व चारित्र-विनय- इस तरह पाँच प्रकार के विनय सहित प्रत्याख्यान वह विनयकर शुद्ध होता है ।640। </li> | ||
<li class="HindiText"> गुरु जैसा कहे उसी तरह प्रत्याख्यान के अक्षर, पद व व्यञ्जनों का उच्चारण करे, वह अक्षरादि क्रम से पढ़ना, शुद्ध गुरु लघु आदि उच्चारण शुद्ध होना वह अनुभाषणा शुद्ध है | <li class="HindiText"> गुरु जैसा कहे उसी तरह प्रत्याख्यान के अक्षर, पद व व्यञ्जनों का उच्चारण करे, वह अक्षरादि क्रम से पढ़ना, शुद्ध गुरु लघु आदि उच्चारण शुद्ध होना वह अनुभाषणा शुद्ध है ।641। </li> | ||
<li class="HindiText"> रोग में, उपसर्ग में, भिक्षा की प्राप्ति के अभाव में, वन में प्रत्याख्यान पालन क्रिया भग्न न हो वह अनुपालना शुद्ध है | <li class="HindiText"> रोग में, उपसर्ग में, भिक्षा की प्राप्ति के अभाव में, वन में प्रत्याख्यान पालन क्रिया भग्न न हो वह अनुपालना शुद्ध है ।642। </li> | ||
<li class="HindiText"> राग परिणाम से अथवा द्वेष परिणाम से मन के विकारकर जो प्रत्याख्यान दूषित न हो वह प्रत्याख्यान भावविशुद्ध है ।<br /> | <li class="HindiText"> राग परिणाम से अथवा द्वेष परिणाम से मन के विकारकर जो प्रत्याख्यान दूषित न हो वह प्रत्याख्यान भावविशुद्ध है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3.2" id="1.3.2">निक्षेप रूप भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3.2" id="1.3.2">निक्षेप रूप भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./116/276/22 <span class="SanskritText">अयोग्यं नाम नोच्चारयिष्यामीति चिन्ता नामप्रत्याख्यानं । आप्ताभासानां प्रतिमा न पूजयिष्यामीति, योगत्रयेण त्रसस्थावरस्थापनापीड़ां न करिष्यामीति प्रणिधानं मनसः स्थापनाप्रत्याख्यानं । अथवा अर्हदादीनां स्थापनां न विनशयिष्यामि, नैवानादरं तत्र करिष्यामीति वा । अयोग्याहारोपकरणद्रव्याणि न ग्रहीष्यामीति चिन्ताप्रबन्धो द्रव्यप्रत्याख्यानं । अयोग्यानि वानिष्टप्रयोजनानि, संयमहानिं संक्लेशं वा संपादयन्ति यानि क्षेत्राणि तानि त्यक्ष्यामि इति क्षेत्रप्रत्याख्यानं। कालस्य दुःपरिहार्यत्वात् कालसंध्यायां क्रियायां परिहृतायां काल एवं प्रत्याख्यातो भवतीति ग्राह्यं । तेन संध्याकालादिष्वध्ययनगमनादिकं न संपादयिष्यामीति चेतःकालप्रत्याख्यानं । भावोऽशुभपरिणामः तं न निर्वर्तयिष्यामि इति संकल्पकरणं भावप्रत्याख्यानं तद्द्विविधं मूलगुणप्रत्याख्यानमुत्तरणगुणप्रत्याख्यानामिति ।</span> = | ||
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<li class="HindiText">अयोग्य नाम का मैं उच्चारण नहीं करूँगा ऐसे संकल्प को नाम प्रत्याख्यान कहते हैं । </li> | <li class="HindiText">अयोग्य नाम का मैं उच्चारण नहीं करूँगा ऐसे संकल्प को नाम प्रत्याख्यान कहते हैं । </li> | ||
<li class="HindiText"> आप्ताभास के हरिहरादिकों की प्रतिमाओंकी मैं पूजा नहीं करूँगा, मन से, वचन से और काय से त्रस और स्थावर जीवों की स्थापना मैं पीड़ित नहीं करूँगा; ऐसा जो मानसिक संकल्प वह स्थापना प्रत्याख्यान है । अथवा अर्हदादि परमेष्ठियों की स्थापना - उनकी प्रतिमाओं का मैं नाश नहीं करूँगा, अनादर नहीं करूँगा, यह भी स्थापना प्रत्याख्यान है । </li> | <li class="HindiText"> आप्ताभास के हरिहरादिकों की प्रतिमाओंकी मैं पूजा नहीं करूँगा, मन से, वचन से और काय से त्रस और स्थावर जीवों की स्थापना मैं पीड़ित नहीं करूँगा; ऐसा जो मानसिक संकल्प वह स्थापना प्रत्याख्यान है । अथवा अर्हदादि परमेष्ठियों की स्थापना - उनकी प्रतिमाओं का मैं नाश नहीं करूँगा, अनादर नहीं करूँगा, यह भी स्थापना प्रत्याख्यान है । </li> | ||
<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> अयोग्य आहार, उपकरण वगैरह पदार्थों को ग्रहण मैं न करूँगा ऐसा संकल्प करना, यह द्रव्य प्रत्याख्यान है । </li> | ||
<li class="HindiText"> अयोग्य व जिनसे अनिष्ट प्रयोजन की उत्पत्ति होगी, जो संयम की हानि करेंगे, अथवा संक्लेश परिणामों को उत्पन्न करेंगे, ऐसे क्षेत्रों को मैं त्यागूँगा, ऐसा संकल्प करना क्षेत्र प्रत्याख्यान है ।</li> | <li class="HindiText"> अयोग्य व जिनसे अनिष्ट प्रयोजन की उत्पत्ति होगी, जो संयम की हानि करेंगे, अथवा संक्लेश परिणामों को उत्पन्न करेंगे, ऐसे क्षेत्रों को मैं त्यागूँगा, ऐसा संकल्प करना क्षेत्र प्रत्याख्यान है ।</li> | ||
<li class="HindiText"> काल का त्याग करना शक्य ही नहीं है, इसलिए उस काल में होने वाली क्रियाओं को त्यागने से काल का ही त्याग होता है, ऐसा यहाँ समझना चाहिए । | <li class="HindiText"> काल का त्याग करना शक्य ही नहीं है, इसलिए उस काल में होने वाली क्रियाओं को त्यागने से काल का ही त्याग होता है, ऐसा यहाँ समझना चाहिए । अर्थात् संध्याकाल रात्रिकाल वगैरह समय में अध्ययन करना, आना-जाना इत्यादि कार्य मैं नहीं करूँगा, ऐसा संकल्प करना काल प्रत्याख्यान है । </li> | ||
<li class="HindiText"> भाव | <li class="HindiText"> भाव अर्थात् अशुभ परिणाम उनका मैं त्याग करूँगा ऐसा संकल्प करना वह भाव प्रत्याख्यान है . इसके दो भेद हैं मूलगुण प्रत्याख्यान और उत्तरगुण प्रत्याख्यान । (इनके लक्षण देखें [[ प्रत्याख्यान#3 | प्रत्याख्यान - 3]]) ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong> मन, वचन, काय प्रत्याख्यान के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./506/728/15 <span class="SanskritText">मनसातिचारादीन्न करिष्यामि इति मनःप्रत्याख्यानं । वचसा तन्नाचरिष्यामि इति उच्चारणं । कायेन तन्नाचरिष्यामि इत्यंगीकारः </span>. = | ||
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<li><span class="HindiText"> मन से मैं अतिचारों को | <li><span class="HindiText"> मन से मैं अतिचारों को भविष्यत् काल में नहीं करूँगा ऐसा विचार करना यह मनःप्रत्याख्यान है । </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> अतिचार मैं | <li><span class="HindiText"> अतिचार मैं भविष्यत् में नहीं करूँगा ऐसा बोलना (कहना) यह वचन प्रत्याख्यान है । </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> शरीर के द्वारा | <li><span class="HindiText"> शरीर के द्वारा भविष्यत् काल में अतिचार नहीं करना यह काय प्रत्याख्यान है । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापना व निष्ठापना विधि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापना व निष्ठापना विधि</strong> </span><br /> | ||
अन.ध./ | अन.ध./9/36 <span class="SanskritGatha">प्राणयात्राचिकीर्षायां प्रत्याख्यानमुपोषितम् । न वा निष्ठाप्य विधिवद्भुक्त्वा भूय: प्रतिष्ठयेत् ।36।</span> = <span class="HindiText">यदि भोजन करने की इच्छा हो तो पूर्व दिन जो प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण किया था उसकी विधि पूर्वक क्षमापणा (निष्ठापना) करनी चाहिए और उस निष्ठापना के अनंतर शास्त्रोक्त विधि के अनुसार भोजन करके अपनी शक्ति के अनुसार फिर भी प्रत्याख्यान या उपवास की प्रतिष्ठापना करनी चाहिए । (यदि आचार्य पास हों तो उनके समक्ष प्रत्याख्यान की प्रतिष्ठापना वा निष्ठापना करनी चाहिए ।) <br /> | ||
देखें [[ कृतिकर्म#4.2 | कृतिकर्म - 4.2 ]]प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन व निष्ठापन में भक्ति आदि पाठों का क्रम ।) <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">प्रत्याख्यान प्रकरण में कायोत्सर्ग के काल का प्रमाण</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2">प्रत्याख्यान प्रकरण में कायोत्सर्ग के काल का प्रमाण</strong> <br /> | ||
देखें [[ व्युत्सर्ग#1 | व्युत्सर्ग - 1]] ( ग्रन्थादि के प्रारंभ में, पूर्णताकाल में, स्वाध्याय में, वंदना में अशुभ परिणाम होने में जो कायोत्सर्ग उसमें सत्ताईस उच्छ्वास करने योग्य हैं )।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">ज्ञान व विराग ही वास्तव में प्रत्याख्यान हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">ज्ञान व विराग ही वास्तव में प्रत्याख्यान हैं</strong> </span><br /> | ||
स.सा./मू./ | स.सा./मू./34 <span class="PrakritGatha">सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परेत्ति णादूणं । तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेयव्वं ।34। </span>=<span class="HindiText"> जिससे अपने अतिरिक्त सर्वपदार्थों को ‘पर है’ ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है, उससे प्रत्याख्यान ज्ञान ही है, ऐसा नियम से जानना । अपने ज्ञान में त्याग रूप अवस्था ही प्रत्याख्यान है, दूसरा कुछ नहीं ।</span><br /> | ||
नि.सा./मू./ | नि.सा./मू./105-106<span class="PrakritGatha"> णिक्कसायस्स दंतस्स सूरस्स ववसायिणो । संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे ।105। एवं भेदब्भासं जो कुव्वइ जीवकम्मणो णिच्चं । पच्चक्खाणं सक्कदि धरिदें सो संजमो णियमा ।106।</span> = <span class="HindiText">जो निःकषाय है, दान्त है, शूरवीर है, व्यवसायी है और संसार से भयभीत है, उसे सुखमय (निश्चय) प्रत्याख्यान है ।105। इस प्रकार जो सदा जीव और कर्म के भेद का अभ्यासकरता है, वह संयत नियम से प्रत्याख्यान धारण करने को शक्तिमान है ।106।</span><br /> | ||
स.सा./ता.वृ./ | स.सा./ता.वृ./283-285 <span class="SanskritText">निर्विकारस्वसंवित्तिलक्षणं प्रत्याख्यानं </span>=<span class="HindiText"> निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान को प्रत्याख्यान कहते हैं । <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> निश्चय व्यवहार प्रत्याख्यान की मुख्यता गौणता -</strong>देखें | <li><span class="HindiText"><strong> निश्चय व्यवहार प्रत्याख्यान की मुख्यता गौणता -</strong>देखें [[ चारित्र#4 | चारित्र - 4]],5,6 ।<br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
</ul> | </ul> | ||
<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">सम्यक्त्व रहित प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">सम्यक्त्व रहित प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान नहीं</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./116/277/10 <span class="SanskritText">सति सम्यक्त्वे चैतदुभयं प्रत्याख्यानं । </span>= <span class="HindiText">सम्यक्त्व यदि होगा तभी यह दो तरह का (देखें [[ अगला शीर्षक ]]) प्रत्याख्यान गृहस्थ व मुनि को माना जाता है अन्यथा वह प्रत्याख्यान इस नाम को नहीं पाता । <br /> | ||
</span></li> | </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">मूल व उत्तर गुण तथा साधु व गृहस्थ के प्रत्याख्यान में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">मूल व उत्तर गुण तथा साधु व गृहस्थ के प्रत्याख्यान में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./116/277/3 <span class="SanskritText">उत्तरगुणानां कारणत्वान्मूलगुणव्यपदेशो व्रतेषु वर्तते व्रतोत्तरकालभावितत्वादनशनादिकं उत्तरगुण इति उच्यते । ... तत्र संयतानां जीवितावधिकं मूलगुणप्रत्याख्यानं । संयतासंयतानां अणुव्रतानि मूलगुणव्रतव्यपदेशभांजि भवन्ति तेषां द्विविधं प्रत्याख्यानं अल्पकालिकं, जीवितावदिकं चेति । पक्षमास षण्मासादिरूपेण भविष्यत्कालं सावधिकं कृत्वा तत्र स्थूलहिंसानृ-तस्तेयाब्रह्मपरिग्रहान्न चरिष्यामि इति प्रत्याख्यानमल्पकालम् । आमरणमवधिं कृत्वा न करिष्यामि स्थूलहिंसादीनि इति प्रत्याख्यानं जीवितावधिकं च । उत्तरगुणप्रत्याख्यानं संयतसंयतासंयतयोरपि अल्पकालिकं जीवितावधिकं वा । परिगृहीतसंयमस्य सामायिकादिकं अनशनादिकं च वर्तते इति उत्तरगुणत्वं सामायिकादेस्तपसश्च । भविष्यत्कालगोचराशनादित्यागात्मकत्वात्प्रत्याख्यानत्वं ।</span> = | ||
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<li><span class="HindiText"> उत्तरगुणों को कारण होने से व्रतों में मूलगुण यह नाम प्रसिद्ध है, मूलगुण रूप जो प्रत्याख्यान वमूलगुण प्रत्याख्यान है । ... व्रतों के अनंतर जो पाले जाते हैं ऐसे अनशनादि तपों को उत्तरगुण कहते हैं । ... </span></li> | <li><span class="HindiText"> उत्तरगुणों को कारण होने से व्रतों में मूलगुण यह नाम प्रसिद्ध है, मूलगुण रूप जो प्रत्याख्यान वमूलगुण प्रत्याख्यान है । ... व्रतों के अनंतर जो पाले जाते हैं ऐसे अनशनादि तपों को उत्तरगुण कहते हैं । ... </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> मुनियों को मूलगुण प्रत्याख्यान आमरण रहता है । संयतासंयत के अणुव्रतों को मूलगुण कहते हैं । गृहस्थ मूलगुण-प्रत्याख्यान अल्पकालिक और जीवितावधिक ऐसा दो प्रकार कर सकते हैं । पक्ष, मास, छह महीने आदि रूप से | <li><span class="HindiText"> मुनियों को मूलगुण प्रत्याख्यान आमरण रहता है । संयतासंयत के अणुव्रतों को मूलगुण कहते हैं । गृहस्थ मूलगुण-प्रत्याख्यान अल्पकालिक और जीवितावधिक ऐसा दो प्रकार कर सकते हैं । पक्ष, मास, छह महीने आदि रूप से भविष्यत् काल की मर्यादा करके उसमें स्थूल हिंसा, असत्य. चोरी, मैथुनसेवन, और परिग्रह ऐसे पंच पातक मैं नहीं कहूँगा ऐसा संकल्प करना यह अल्पकालिक प्रत्याख्यान है । ‘मैं आमरण स्थूल हिंसादि पापों को नहीं करूँगा ऐसा संकल्प कर त्याग करना यह जीवितावधिक प्रत्याख्यान है । </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> उत्तर गुण प्रत्याख्यान तो मुनि और गृहस्थ जीवितावधिक और अल्पावधिक भी कर सकते हैं । जिसने संयम धारण किया है, उसको सामायिकादि और अनशनादिक भी रहते हैं, अतः सामायिक आदिकों को और तप को उत्तरगुणपना है । भविष्यत्काल को विषय करके अनशनादिकों का त्याग किया जाता है । अतः उत्तरगुण रूप प्रत्याख्यान है, ऐसा माना जाता है । (और भी देखें | <li><span class="HindiText"> उत्तर गुण प्रत्याख्यान तो मुनि और गृहस्थ जीवितावधिक और अल्पावधिक भी कर सकते हैं । जिसने संयम धारण किया है, उसको सामायिकादि और अनशनादिक भी रहते हैं, अतः सामायिक आदिकों को और तप को उत्तरगुणपना है । भविष्यत्काल को विषय करके अनशनादिकों का त्याग किया जाता है । अतः उत्तरगुण रूप प्रत्याख्यान है, ऐसा माना जाता है । (और भी देखें [[ भ ]]आ./वि./116/277/18)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>* प्रत्याख्यान व प्रतिक्रमण में अन्तर -</strong> | <li><span class="HindiText"><strong>* प्रत्याख्यान व प्रतिक्रमण में अन्तर -</strong> देखें [[ प्रतिक्रमण#3.2 | प्रतिक्रमण - 3.2]]<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">प्रत्याख्यान का प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">प्रत्याख्यान का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
अन.ध./ | अन.ध./9/38 <span class="SanskritGatha">प्रत्याख्यानं बिना दैवात् क्षीणायुः स्याद्विधारकः । तदल्पकालमप्यल्पमप्यर्थपृथुचण्डवत् ।38।</span> = <span class="HindiText">प्रत्याख्यानादि के ग्रहण बिना यदि कदाचित् पूर्वबद्ध आयुकर्म के वश से आयु क्षीण हो जाय तो वह साधु विराधक समझना चाहिए । किन्तु इसके विपरीत प्रत्याख्यान सहित तत्काल मरण होने पर थोड़ी देर के लिए और थोड़ा-सा ग्रहण किया हुआ प्रत्याख्यान चण्ड नामक चाण्डाल की तरह महान फल देने वाला है । <br /> | ||
<strong>प्रत्याख्यानावरण -</strong>मोहनीय प्रकृति के उत्तर भेद रूप यह एक कर्म विशेष है, जिसके उदय होने पर जीव विषयों का त्याग करने को समर्थ नहीं हो सकता ।<br /> | <strong>प्रत्याख्यानावरण -</strong>मोहनीय प्रकृति के उत्तर भेद रूप यह एक कर्म विशेष है, जिसके उदय होने पर जीव विषयों का त्याग करने को समर्थ नहीं हो सकता ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.4.1" id="3.4.1">प्रत्याख्यानावरण का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4.1" id="3.4.1">प्रत्याख्यानावरण का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./8/9/386/9 <span class="SanskritText">यदुदयाद्विरतिं कृत्स्नां संयमाख्यां न शक्नोति कर्तुं ते कृत्स्नं प्रत्याख्यानमावृण्वन्तः प्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोभाः ।</span> =<span class="HindiText"> जिसके उदय से संयम नामवाली परिपूर्ण विरति को यह जीव करने में समर्थ नहीं होता है वे सकल प्रत्याख्यान को आवृत करने वाले प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ हैं । (रा.वा./8/9/5/575/2) (षं. सं./प्रा.1/110,115)(गो.क.मू./283) (गो.जी./मू.45) ।</span><br /> | ||
ध. | ध. 13/5,5,95/360/11 <span class="PrakritText">पच्चक्खाणं महव्वयाणि तेसिमावारयं कम्मंपच्चक्खाणावरणीयं । तं चउव्विहं कोह-माण-माया-लोहभेएण ।</span> = <span class="HindiText">प्रत्याख्यान का अर्थ महाव्रत है । उनका आवरण करने वाला कर्म प्रत्याख्यानावरणीय है । वह क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से चार प्रकार का है । (ध. 6/1,9-1,23/44/4) (गो.जी./जी.प्र./283/608/15) । (गो.क./जी.प्र./33/28/4) (गो.क./जी.प्र./45/46/13) ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.4.2" id="3.4.2"> प्रत्याख्यानावरण में भी | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4.2" id="3.4.2"> प्रत्याख्यानावरण में भी कथंचित् सम्यक्त्व घातक शक्ति</strong> </span><br /> | ||
गो.क./जी.प्र./ | गो.क./जी.प्र./546/708/19 <span class="SanskritText">अनन्तानुबन्धिना तदुदयसहचरिताप्रत्याख्यानादीनां च चारित्रमोहत्वेऽपि सम्यक्त्वसंयमघातकत्वमुक्तं तेषां तदा तच्छक्तेवोदयात् । अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानोदयरहितप्रत्याख्यानसंज्वलनोदयाः सकलसंयमं (घ्नंति) ।</span> = <span class="HindiText">अनंतानुबन्धी के और इसके उदय के साथ अप्रत्याख्यानादिक के चारित्रमोहपना होते हुए भी सम्यक्त्व और संयम घातकपना कहा है ।... अनंतानुबन्धी और अप्रत्याख्यान के उदय रहित, प्रत्याख्यान और संज्वलनका उदय है तो वह सकल संयम को घातती है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.4.3" id="3.4.3">प्रत्याख्यानावरण कषाय का वासना काल</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.4.3" id="3.4.3">प्रत्याख्यानावरण कषाय का वासना काल</strong> </span><br /> | ||
गो.क./मू.व.टी./ | गो.क./मू.व.टी./46/47/10<span class="SanskritText"> उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो वासनाकालः स च ... प्रत्याख्यानावरणानामेकपक्षः ।</span> = <span class="HindiText">उदय का अभाव होते हुए भी कषायों का संस्कार जितने काल रहे, उसको वासना काल कहते हैं । उसमें प्रत्याख्यानावरण का वासना काल एक पक्ष है ।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>प्रत्याख्यानावरण प्रकृतिकी बन्ध-उदय-सत्त्व-प्ररूपणा, तत्सम्बन्धी नियम व शंका-समाधान आदि ।</strong> | <li><span class="HindiText"><strong>प्रत्याख्यानावरण प्रकृतिकी बन्ध-उदय-सत्त्व-प्ररूपणा, तत्सम्बन्धी नियम व शंका-समाधान आदि ।</strong> देखें [[ वह वह नाम ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>कषायों की तीव्रता-मन्दता में प्रत्याख्यानावरण नहीं बल्कि लेश्या कारण है ।</strong> - | <li><span class="HindiText"><strong>कषायों की तीव्रता-मन्दता में प्रत्याख्यानावरण नहीं बल्कि लेश्या कारण है ।</strong> - देखें [[ कषाय#3.5 | कषाय - 3.5 ]]<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>प्रत्याख्यानावण में दशोंकरण सम्भव हैं . </strong>- | <li><span class="HindiText"><strong>प्रत्याख्यानावण में दशोंकरण सम्भव हैं . </strong>- देखें [[ करण#2 | करण - 2 ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong>प्रत्याख्यानावरण का सर्वघातीपना</strong> - देखें | <li><span class="HindiText"><strong>प्रत्याख्यानावरण का सर्वघातीपना</strong> -देखें [[ अनुभाग#4 | अनुभाग - 4 ]]<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong> प्रत्याख्यानावरणी भाषा </strong>- | <li><span class="HindiText"><strong> प्रत्याख्यानावरणी भाषा </strong>- देखें [[ भाषा#5 | भाषा - 5]]</span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p id="1"> (1) पूर्वोपार्जित कर्मों की निन्दा करना और आगामी दोषों का निराकरण करना । <span class="GRef"> पद्मपुराण 89. 107, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 34.146 </span></p> | |||
<p id="2">(2) नौवाँ पूर्व । इसमें चौरासी लाख पद है और परिमित द्रव्यप्रत्याख्यान और अपरिमित भावप्रत्याख्यान का निरूपण है । यह पूर्व मुनिधर्म को बढ़ाने वाला है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.99,10.111-112 </span></p> | |||
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Revision as of 21:44, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
आगामी काल में दोष न करने की प्रतिज्ञा करना प्रत्याख्यान है । अथवा सीमित काल के लिए आहारादि का त्याग करना प्रत्याख्यान है । त्याग प्रारम्भ करते समय प्रत्याख्यान की प्रतिष्ठापना और अवधि पूर्ण होने पर उसकी निष्ठापना की जाती है । वीतराग भाव सापेक्ष किया गया प्रत्याख्यान ही वास्तविक है ।
- भेद व लक्षण
- प्रत्याख्यान सामान्य का लक्षण
- व्यवहार नयकी अपेक्षा
मू.आ./27 णामादीणं छण्णं अजोग्गपरिवज्जणं तिकरणेण । पच्चक्खाणं णेयं अणागयं चागमे काले ।27। = नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छहों में शुभ मन, वचन व काय से आगामी काल के लिए अयोग्य का त्याग करना प्रत्याख्यान जानना ।27।
रा.वा./6/24/11/530/14 अनागतदोषापोहनं प्रत्याख्यानम् । = भविष्यत् में दोष न होने देने के लिए सन्नद्ध होना प्रत्याख्यान है । (भ.आ./वि./116/276/21) (भा.पा./टी.77/221/15) ।
ध.6/1,9-1,23,44/4पच्चक्खाणं संजमो महव्वयाइं ति एयट्ठो । = प्रत्याख्यान, संयम और महाव्रत एक अर्थ वाले हैं ।
ध. 8/3,41/85/1 महव्वयाणं विणासण-मलारोहणकारणाणि तहा ण होसंति तहा करेमि त्ति मणेणालोचिय चउरासीदिलक्खवदसुद्धिपडिग्गहो पच्चक्खाणं णाम । = महाव्रतों के विनाश व मलोत्पादन के कारण जिस प्रकार न होंगे वैसा करता हूँ, ऐसी मन से आलोचना करके चौरासी लाख व्रतों की शुद्धि के प्रतिग्रह का नाम प्रत्याख्यान है ।
नि.सा./ता.वृ./95 व्यवहारनयादेशात् मुनयो भुक्त्वा दैनं दैनं पुनर्योग्यकालपर्य्यन्तं प्रत्यादिष्टान्नपानखाद्यलेह्यरुचयः, एतद् व्यवहारप्रत्याख्यानस्वरूपम् । = मुनि दिन-दिन में भोजन करके फिर योग्य काल पर्यन्त अन्न, पान, खाद्य और लेह्य की रुचि छोड़ते हैं यह व्यवहार प्रत्याख्यान का स्वरूप है ।
- निश्चय नय की अपेक्षा
स.सा./मू./384 कम्मं जं सुहमसुहं जम्हि य भावम्हि वज्झइ भविस्सं तत्तो णियत्तए जो सो पच्चक्खाणं हवइ चेया ।384। = भविष्यत् काल का शुभ व अशुभ कर्म जिस भाव में बन्धता है, उस भाव से जो आत्मा निवृत्त होता है, वह आत्मा प्रत्याख्यान है ।384।
नि.सा./मू./गा. मोत्तूण सयलजप्पमणागयसुहमसुहवारणं किच्चा । अप्पाणं जो झायदि पच्चक्खाणं हवे तस्स ।95। णियभावं णवि मुच्चइ परभावं णेव गेण्हए केइं । जाणदि पस्सदि सव्वं सोहं इदि चिंतए णाणी ।97। सम्मं मे सव्वभूदेसु वेरं मझ्झं ण केणवि । आसाए वोसरित्ता णं समाहिपडिवज्जए ।104। = समस्त जल्प को छोड़कर और अनागत शुभ व अशुभ का निवारण करके जो आत्मा को ध्याता है, उसे प्रत्याख्यान कहते हैं ।95। जो निजभाव को नहीं छोड़ता, किंचित् भी परभाव को ग्रहण नहीं करता, सर्व को जानता-देखता है, वह मैं हूँ - ऐसा ज्ञानी चिंतवन करता है ।97। सर्व जीवों के प्रति मुझे समता है, मुझे किसी के साथ वैर नहीं है; वास्तव में आशा को छोड़कर मैं समाधि को प्राप्त करता हूँ ।104।
यो.सा.अ.5/51 आगम्यागोनिमित्तानां भावानां प्रतिषेधनं । प्रत्याख्यानं समादिष्टं विविक्तात्मविलोकिन):।51। = जो महापुरुष समस्त कर्मजनित वासनाओं से रहित आत्मा को देखने वाले हैं, उनके जो पापों के आने में कारणभूत भावों का त्याग है, उसे प्रत्याख्यान कहते हैं ।
- द्वादशांगका एक अंग
द्वादशांग के 14 पूर्वों में से एक पूर्व है । देखें श्रुतज्ञान - III.1.3.3
- व्यवहार नयकी अपेक्षा
- प्रत्याख्यान के भेद
- सामान्य भेद
मू.आ./637-639 अणागदसदिकंतं कोडीसदिदं णिखंडिदं चेव । सागारमणागारं परिमाणागदं अपरिसेसं ।637। अद्धाणगदं णवमं दसमं तु सहेदुगं वियाणाहि । पच्चक्खाणवियप्पा णिरुत्तिजुत्ता जिणमदह्मि । 638। विणय तहाणुभासा हवदि य अणुपालणाय परिणामे । एदं पच्चक्खाणं चदुव्विधं होदि णादव्वं । = भविष्यत् काल में उपवास आदि करना जैसे चौदस का उपवास तेरस को वह- अनागत प्रत्याख्यान है ।
- अतिक्रान्त,
- कोटीसहित,
- निखंडित,
- साकार,
- अनाकार,
- परिमाणगत,
- अपरिशेष,
- अध्वगत,
- सहेतुक प्रत्याख्यान है । इस प्रकार सार्थक प्रत्याख्यान के दस भेद जिनमत में जानने चाहिए ।637-638।
- विनयकर,
- अनुभाषाकार,
- अनुपालनकर,
- परिणामकर शुद्ध यह प्रत्याख्यान चार प्रकार भी है ।639।
- नाम स्थापनादि भेद
भ.आ./वि./116/276/21 तच्च (प्रत्याख्यानं) नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकाल- भावविकल्पेन षड्विधं । = यह प्रत्याख्यान नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव ऐसे विकल्प से छः प्रकार का है ।
- सामान्य भेद
- प्रत्याख्यान के भेदों के लक्षण
- सामान्य भेदों के लक्षण
मू.आ./640-643 कदियम्मं उवचारिय विणओ तह णाण-दंसणचरित्ते । पंचविधविणयजुत्तं विणयसुद्धं हवदि तंतु ।640। अणुभासदि गुरुवयणं अक्खरपदवंजणं कमविसुद्धं घोसविसुद्धी सुद्धं एदं अणुभासणासुद्धं ।641। आदं के उवसग्गे समे य दुब्भिक्खवुत्ति कंतारे । जं पालिदं ण भग्गं एदं अणुपालणासुद्धं ।642। रागेण व दोसेण व मणपरिणामे ण दूसिदं जं तु । तं पुण पच्चाक्खाणं भावविशुद्धं तु णादव्वं ।643। =- सिद्ध भक्ति आदि सहित कायोत्सर्ग तपरूप विनय, व्यवहार-विनय, ज्ञान-विनय, दर्शन व चारित्र-विनय- इस तरह पाँच प्रकार के विनय सहित प्रत्याख्यान वह विनयकर शुद्ध होता है ।640।
- गुरु जैसा कहे उसी तरह प्रत्याख्यान के अक्षर, पद व व्यञ्जनों का उच्चारण करे, वह अक्षरादि क्रम से पढ़ना, शुद्ध गुरु लघु आदि उच्चारण शुद्ध होना वह अनुभाषणा शुद्ध है ।641।
- रोग में, उपसर्ग में, भिक्षा की प्राप्ति के अभाव में, वन में प्रत्याख्यान पालन क्रिया भग्न न हो वह अनुपालना शुद्ध है ।642।
- राग परिणाम से अथवा द्वेष परिणाम से मन के विकारकर जो प्रत्याख्यान दूषित न हो वह प्रत्याख्यान भावविशुद्ध है ।
- निक्षेप रूप भेदों के लक्षण
भ.आ./वि./116/276/22 अयोग्यं नाम नोच्चारयिष्यामीति चिन्ता नामप्रत्याख्यानं । आप्ताभासानां प्रतिमा न पूजयिष्यामीति, योगत्रयेण त्रसस्थावरस्थापनापीड़ां न करिष्यामीति प्रणिधानं मनसः स्थापनाप्रत्याख्यानं । अथवा अर्हदादीनां स्थापनां न विनशयिष्यामि, नैवानादरं तत्र करिष्यामीति वा । अयोग्याहारोपकरणद्रव्याणि न ग्रहीष्यामीति चिन्ताप्रबन्धो द्रव्यप्रत्याख्यानं । अयोग्यानि वानिष्टप्रयोजनानि, संयमहानिं संक्लेशं वा संपादयन्ति यानि क्षेत्राणि तानि त्यक्ष्यामि इति क्षेत्रप्रत्याख्यानं। कालस्य दुःपरिहार्यत्वात् कालसंध्यायां क्रियायां परिहृतायां काल एवं प्रत्याख्यातो भवतीति ग्राह्यं । तेन संध्याकालादिष्वध्ययनगमनादिकं न संपादयिष्यामीति चेतःकालप्रत्याख्यानं । भावोऽशुभपरिणामः तं न निर्वर्तयिष्यामि इति संकल्पकरणं भावप्रत्याख्यानं तद्द्विविधं मूलगुणप्रत्याख्यानमुत्तरणगुणप्रत्याख्यानामिति । =- अयोग्य नाम का मैं उच्चारण नहीं करूँगा ऐसे संकल्प को नाम प्रत्याख्यान कहते हैं ।
- आप्ताभास के हरिहरादिकों की प्रतिमाओंकी मैं पूजा नहीं करूँगा, मन से, वचन से और काय से त्रस और स्थावर जीवों की स्थापना मैं पीड़ित नहीं करूँगा; ऐसा जो मानसिक संकल्प वह स्थापना प्रत्याख्यान है । अथवा अर्हदादि परमेष्ठियों की स्थापना - उनकी प्रतिमाओं का मैं नाश नहीं करूँगा, अनादर नहीं करूँगा, यह भी स्थापना प्रत्याख्यान है ।
- अयोग्य आहार, उपकरण वगैरह पदार्थों को ग्रहण मैं न करूँगा ऐसा संकल्प करना, यह द्रव्य प्रत्याख्यान है ।
- अयोग्य व जिनसे अनिष्ट प्रयोजन की उत्पत्ति होगी, जो संयम की हानि करेंगे, अथवा संक्लेश परिणामों को उत्पन्न करेंगे, ऐसे क्षेत्रों को मैं त्यागूँगा, ऐसा संकल्प करना क्षेत्र प्रत्याख्यान है ।
- काल का त्याग करना शक्य ही नहीं है, इसलिए उस काल में होने वाली क्रियाओं को त्यागने से काल का ही त्याग होता है, ऐसा यहाँ समझना चाहिए । अर्थात् संध्याकाल रात्रिकाल वगैरह समय में अध्ययन करना, आना-जाना इत्यादि कार्य मैं नहीं करूँगा, ऐसा संकल्प करना काल प्रत्याख्यान है ।
- भाव अर्थात् अशुभ परिणाम उनका मैं त्याग करूँगा ऐसा संकल्प करना वह भाव प्रत्याख्यान है . इसके दो भेद हैं मूलगुण प्रत्याख्यान और उत्तरगुण प्रत्याख्यान । (इनके लक्षण देखें प्रत्याख्यान - 3) ।
- मन, वचन, काय प्रत्याख्यान के लक्षण
भ.आ./वि./506/728/15 मनसातिचारादीन्न करिष्यामि इति मनःप्रत्याख्यानं । वचसा तन्नाचरिष्यामि इति उच्चारणं । कायेन तन्नाचरिष्यामि इत्यंगीकारः . =- मन से मैं अतिचारों को भविष्यत् काल में नहीं करूँगा ऐसा विचार करना यह मनःप्रत्याख्यान है ।
- अतिचार मैं भविष्यत् में नहीं करूँगा ऐसा बोलना (कहना) यह वचन प्रत्याख्यान है ।
- शरीर के द्वारा भविष्यत् काल में अतिचार नहीं करना यह काय प्रत्याख्यान है ।
- सामान्य भेदों के लक्षण
- प्रत्याख्यान सामान्य का लक्षण
- प्रत्याख्यान विधि
- प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापना व निष्ठापना विधि
अन.ध./9/36 प्राणयात्राचिकीर्षायां प्रत्याख्यानमुपोषितम् । न वा निष्ठाप्य विधिवद्भुक्त्वा भूय: प्रतिष्ठयेत् ।36। = यदि भोजन करने की इच्छा हो तो पूर्व दिन जो प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण किया था उसकी विधि पूर्वक क्षमापणा (निष्ठापना) करनी चाहिए और उस निष्ठापना के अनंतर शास्त्रोक्त विधि के अनुसार भोजन करके अपनी शक्ति के अनुसार फिर भी प्रत्याख्यान या उपवास की प्रतिष्ठापना करनी चाहिए । (यदि आचार्य पास हों तो उनके समक्ष प्रत्याख्यान की प्रतिष्ठापना वा निष्ठापना करनी चाहिए ।)
देखें कृतिकर्म - 4.2 प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन व निष्ठापन में भक्ति आदि पाठों का क्रम ।)
- प्रत्याख्यान प्रकरण में कायोत्सर्ग के काल का प्रमाण
देखें व्युत्सर्ग - 1 ( ग्रन्थादि के प्रारंभ में, पूर्णताकाल में, स्वाध्याय में, वंदना में अशुभ परिणाम होने में जो कायोत्सर्ग उसमें सत्ताईस उच्छ्वास करने योग्य हैं )।
- प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापना व निष्ठापना विधि
- प्रत्याख्यान निर्देश
- ज्ञान व विराग ही वास्तव में प्रत्याख्यान हैं
स.सा./मू./34 सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परेत्ति णादूणं । तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेयव्वं ।34। = जिससे अपने अतिरिक्त सर्वपदार्थों को ‘पर है’ ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है, उससे प्रत्याख्यान ज्ञान ही है, ऐसा नियम से जानना । अपने ज्ञान में त्याग रूप अवस्था ही प्रत्याख्यान है, दूसरा कुछ नहीं ।
नि.सा./मू./105-106 णिक्कसायस्स दंतस्स सूरस्स ववसायिणो । संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे ।105। एवं भेदब्भासं जो कुव्वइ जीवकम्मणो णिच्चं । पच्चक्खाणं सक्कदि धरिदें सो संजमो णियमा ।106। = जो निःकषाय है, दान्त है, शूरवीर है, व्यवसायी है और संसार से भयभीत है, उसे सुखमय (निश्चय) प्रत्याख्यान है ।105। इस प्रकार जो सदा जीव और कर्म के भेद का अभ्यासकरता है, वह संयत नियम से प्रत्याख्यान धारण करने को शक्तिमान है ।106।
स.सा./ता.वृ./283-285 निर्विकारस्वसंवित्तिलक्षणं प्रत्याख्यानं = निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान को प्रत्याख्यान कहते हैं ।
- निश्चय व्यवहार प्रत्याख्यान की मुख्यता गौणता -देखें चारित्र - 4,5,6 ।
- सम्यक्त्व रहित प्रत्याख्यान प्रत्याख्यान नहीं
भ.आ./वि./116/277/10 सति सम्यक्त्वे चैतदुभयं प्रत्याख्यानं । = सम्यक्त्व यदि होगा तभी यह दो तरह का (देखें अगला शीर्षक ) प्रत्याख्यान गृहस्थ व मुनि को माना जाता है अन्यथा वह प्रत्याख्यान इस नाम को नहीं पाता ।
- मूल व उत्तर गुण तथा साधु व गृहस्थ के प्रत्याख्यान में अन्तर
भ.आ./वि./116/277/3 उत्तरगुणानां कारणत्वान्मूलगुणव्यपदेशो व्रतेषु वर्तते व्रतोत्तरकालभावितत्वादनशनादिकं उत्तरगुण इति उच्यते । ... तत्र संयतानां जीवितावधिकं मूलगुणप्रत्याख्यानं । संयतासंयतानां अणुव्रतानि मूलगुणव्रतव्यपदेशभांजि भवन्ति तेषां द्विविधं प्रत्याख्यानं अल्पकालिकं, जीवितावदिकं चेति । पक्षमास षण्मासादिरूपेण भविष्यत्कालं सावधिकं कृत्वा तत्र स्थूलहिंसानृ-तस्तेयाब्रह्मपरिग्रहान्न चरिष्यामि इति प्रत्याख्यानमल्पकालम् । आमरणमवधिं कृत्वा न करिष्यामि स्थूलहिंसादीनि इति प्रत्याख्यानं जीवितावधिकं च । उत्तरगुणप्रत्याख्यानं संयतसंयतासंयतयोरपि अल्पकालिकं जीवितावधिकं वा । परिगृहीतसंयमस्य सामायिकादिकं अनशनादिकं च वर्तते इति उत्तरगुणत्वं सामायिकादेस्तपसश्च । भविष्यत्कालगोचराशनादित्यागात्मकत्वात्प्रत्याख्यानत्वं । =- उत्तरगुणों को कारण होने से व्रतों में मूलगुण यह नाम प्रसिद्ध है, मूलगुण रूप जो प्रत्याख्यान वमूलगुण प्रत्याख्यान है । ... व्रतों के अनंतर जो पाले जाते हैं ऐसे अनशनादि तपों को उत्तरगुण कहते हैं । ...
- मुनियों को मूलगुण प्रत्याख्यान आमरण रहता है । संयतासंयत के अणुव्रतों को मूलगुण कहते हैं । गृहस्थ मूलगुण-प्रत्याख्यान अल्पकालिक और जीवितावधिक ऐसा दो प्रकार कर सकते हैं । पक्ष, मास, छह महीने आदि रूप से भविष्यत् काल की मर्यादा करके उसमें स्थूल हिंसा, असत्य. चोरी, मैथुनसेवन, और परिग्रह ऐसे पंच पातक मैं नहीं कहूँगा ऐसा संकल्प करना यह अल्पकालिक प्रत्याख्यान है । ‘मैं आमरण स्थूल हिंसादि पापों को नहीं करूँगा ऐसा संकल्प कर त्याग करना यह जीवितावधिक प्रत्याख्यान है ।
- उत्तर गुण प्रत्याख्यान तो मुनि और गृहस्थ जीवितावधिक और अल्पावधिक भी कर सकते हैं । जिसने संयम धारण किया है, उसको सामायिकादि और अनशनादिक भी रहते हैं, अतः सामायिक आदिकों को और तप को उत्तरगुणपना है । भविष्यत्काल को विषय करके अनशनादिकों का त्याग किया जाता है । अतः उत्तरगुण रूप प्रत्याख्यान है, ऐसा माना जाता है । (और भी देखें भ आ./वि./116/277/18)
- * प्रत्याख्यान व प्रतिक्रमण में अन्तर - देखें प्रतिक्रमण - 3.2
- प्रत्याख्यान का प्रयोजन
अन.ध./9/38 प्रत्याख्यानं बिना दैवात् क्षीणायुः स्याद्विधारकः । तदल्पकालमप्यल्पमप्यर्थपृथुचण्डवत् ।38। = प्रत्याख्यानादि के ग्रहण बिना यदि कदाचित् पूर्वबद्ध आयुकर्म के वश से आयु क्षीण हो जाय तो वह साधु विराधक समझना चाहिए । किन्तु इसके विपरीत प्रत्याख्यान सहित तत्काल मरण होने पर थोड़ी देर के लिए और थोड़ा-सा ग्रहण किया हुआ प्रत्याख्यान चण्ड नामक चाण्डाल की तरह महान फल देने वाला है ।
प्रत्याख्यानावरण -मोहनीय प्रकृति के उत्तर भेद रूप यह एक कर्म विशेष है, जिसके उदय होने पर जीव विषयों का त्याग करने को समर्थ नहीं हो सकता ।
- प्रत्याख्यानावरण का लक्षण
स.सि./8/9/386/9 यदुदयाद्विरतिं कृत्स्नां संयमाख्यां न शक्नोति कर्तुं ते कृत्स्नं प्रत्याख्यानमावृण्वन्तः प्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोभाः । = जिसके उदय से संयम नामवाली परिपूर्ण विरति को यह जीव करने में समर्थ नहीं होता है वे सकल प्रत्याख्यान को आवृत करने वाले प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ हैं । (रा.वा./8/9/5/575/2) (षं. सं./प्रा.1/110,115)(गो.क.मू./283) (गो.जी./मू.45) ।
ध. 13/5,5,95/360/11 पच्चक्खाणं महव्वयाणि तेसिमावारयं कम्मंपच्चक्खाणावरणीयं । तं चउव्विहं कोह-माण-माया-लोहभेएण । = प्रत्याख्यान का अर्थ महाव्रत है । उनका आवरण करने वाला कर्म प्रत्याख्यानावरणीय है । वह क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से चार प्रकार का है । (ध. 6/1,9-1,23/44/4) (गो.जी./जी.प्र./283/608/15) । (गो.क./जी.प्र./33/28/4) (गो.क./जी.प्र./45/46/13) ।
- प्रत्याख्यानावरण में भी कथंचित् सम्यक्त्व घातक शक्ति
गो.क./जी.प्र./546/708/19 अनन्तानुबन्धिना तदुदयसहचरिताप्रत्याख्यानादीनां च चारित्रमोहत्वेऽपि सम्यक्त्वसंयमघातकत्वमुक्तं तेषां तदा तच्छक्तेवोदयात् । अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानोदयरहितप्रत्याख्यानसंज्वलनोदयाः सकलसंयमं (घ्नंति) । = अनंतानुबन्धी के और इसके उदय के साथ अप्रत्याख्यानादिक के चारित्रमोहपना होते हुए भी सम्यक्त्व और संयम घातकपना कहा है ।... अनंतानुबन्धी और अप्रत्याख्यान के उदय रहित, प्रत्याख्यान और संज्वलनका उदय है तो वह सकल संयम को घातती है ।
- प्रत्याख्यानावरण कषाय का वासना काल
गो.क./मू.व.टी./46/47/10 उदयाभावेऽपि तत्संस्कारकालो वासनाकालः स च ... प्रत्याख्यानावरणानामेकपक्षः । = उदय का अभाव होते हुए भी कषायों का संस्कार जितने काल रहे, उसको वासना काल कहते हैं । उसमें प्रत्याख्यानावरण का वासना काल एक पक्ष है ।
- प्रत्याख्यानावरण का लक्षण
- ज्ञान व विराग ही वास्तव में प्रत्याख्यान हैं
- अन्य सम्बन्धित विषय
- प्रत्याख्यानावरण प्रकृतिकी बन्ध-उदय-सत्त्व-प्ररूपणा, तत्सम्बन्धी नियम व शंका-समाधान आदि । देखें वह वह नाम ।
- कषायों की तीव्रता-मन्दता में प्रत्याख्यानावरण नहीं बल्कि लेश्या कारण है । - देखें कषाय - 3.5
- प्रत्याख्यानावण में दशोंकरण सम्भव हैं . - देखें करण - 2 ।
- प्रत्याख्यानावरण का सर्वघातीपना -देखें अनुभाग - 4
- प्रत्याख्यानावरणी भाषा - देखें भाषा - 5
- प्रत्याख्यानावरण प्रकृतिकी बन्ध-उदय-सत्त्व-प्ररूपणा, तत्सम्बन्धी नियम व शंका-समाधान आदि । देखें वह वह नाम ।
पुराणकोष से
(1) पूर्वोपार्जित कर्मों की निन्दा करना और आगामी दोषों का निराकरण करना । पद्मपुराण 89. 107, हरिवंशपुराण 34.146
(2) नौवाँ पूर्व । इसमें चौरासी लाख पद है और परिमित द्रव्यप्रत्याख्यान और अपरिमित भावप्रत्याख्यान का निरूपण है । यह पूर्व मुनिधर्म को बढ़ाने वाला है । हरिवंशपुराण 2.99,10.111-112