प्रदोष: Difference between revisions
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गो.क.जी.प्र./ | <p>स.सि./6/10/327/10 <span class="SanskritText">तत्त्वज्ञानस्य मोक्षसाधनस्य कीर्तने कृते कस्यचिदनभिव्याहरतः अन्तःपैशुन्यपरिणामः प्रदोषः ।</span> = <span class="HindiText">तत्त्व-ज्ञान मोक्ष का साधन है, उसका गुणगान करते समय उस समय नहीं बोलने वाले के जो भीतर पैशुन्यरूप परिणाम होता है वह प्रदोष है . (रा.वा./6/10/1/517) (गो. क./जी.प्र./800/979/9) ।</span><br /> | ||
रा.वा.हिं./ | गो.क.जी.प्र./800/979/9 <span class="SanskritText">तत्प्रदोषः तत्त्वज्ञाने हर्षाभावः ।</span> =<span class="HindiText"> तत्त्वज्ञान में हर्ष का अभाव होना प्रदोष है । </span><br /> | ||
रा.वा.हिं./6/10/494-495 <span class="HindiText">कोई पुरुष (किसी अन्य की) प्रशंसा करता होय, ताकूँ कोई सराहै नाहीं, ताकूँ सुनकरि आप मौन राखै अन्तरंग विषै वा सूं अदेखसका भाव करि तथा (वाकूँ) दोष लगावने के अभिप्राय करि वाका साधक न करे ताकै ऐसे परिणाम कूँ प्रदोष कहिए ।</span></p> | |||
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Revision as of 21:44, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
स.सि./6/10/327/10 तत्त्वज्ञानस्य मोक्षसाधनस्य कीर्तने कृते कस्यचिदनभिव्याहरतः अन्तःपैशुन्यपरिणामः प्रदोषः । = तत्त्व-ज्ञान मोक्ष का साधन है, उसका गुणगान करते समय उस समय नहीं बोलने वाले के जो भीतर पैशुन्यरूप परिणाम होता है वह प्रदोष है . (रा.वा./6/10/1/517) (गो. क./जी.प्र./800/979/9) ।
गो.क.जी.प्र./800/979/9 तत्प्रदोषः तत्त्वज्ञाने हर्षाभावः । = तत्त्वज्ञान में हर्ष का अभाव होना प्रदोष है ।
रा.वा.हिं./6/10/494-495 कोई पुरुष (किसी अन्य की) प्रशंसा करता होय, ताकूँ कोई सराहै नाहीं, ताकूँ सुनकरि आप मौन राखै अन्तरंग विषै वा सूं अदेखसका भाव करि तथा (वाकूँ) दोष लगावने के अभिप्राय करि वाका साधक न करे ताकै ऐसे परिणाम कूँ प्रदोष कहिए ।
पुराणकोष से
ज्ञानावरण और दर्शनावरण का आस्रव । हरिवंशपुराण 58.92