ब्रह्मचारी: Difference between revisions
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चा.सा./ | चा.सा./42/1 <span class="SanskritText">तत्र ब्रह्मचारिणः पंचविधाः - उपनयावलंबादीक्षागूढनैष्ठिकभेदेन ।</span> =<span class="HindiText"> ब्रह्मचारी पाँच प्रकार के होते हैं - उपनय, अवलंब, अदीक्षा, गूढ और नैष्ठिक । (सा. ध./7/19) ।<br /> | ||
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ध. | ध.9/4,1,10/94/2 <span class="SanskritText">ब्रह्म चारित्रं पंचव्रत-समिति त्रिगुप्त्यात्मकम्, शान्तिपुष्टिहेतुत्वात् । अघोरा शान्तगुणा यस्मिन् तदघोरगुणं, अघोरगुणं ब्रह्म चरन्तीति अघोरगुणब्रह्मचारिणः । तेसिं तवोमहाप्येण डमरीदि - मारि-दुब्भिक्ख ... रोहादिपसमणसत्ती समुप्पण्णा ते अघोरगुणबम्हचारिणो ति उत्तंहोदि ।</span> = <span class="HindiText">1. ब्रह्म का अर्थ पाँच व्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति स्वरूप चारित्र है, क्योंकि वह अघोरगुण है, अघोरगुण ब्रह्म का आचरण करने वाले अघोरगुण ब्रह्मचारी कहलाते हैं। जिनके तप के प्रभाव से डमरादि, रोग, ... रोघ आदि को नष्ट करने की शक्ति उत्पन्न हुई है वे अघोरगुण ब्रह्मचारी हैं ।</span><br /> | ||
चा.सा./ | चा.सा./42/1 <span class="SanskritText">तत्रोपनयब्रह्मचारिणो गणधरसूत्रधारिणः समभ्यस्तागमा गृहधर्मानुष्ठायिनो भवन्ति । अवलम्बब्रह्मचारिणः क्षुल्लकरूपेणागममभ्यस्य परिगृहीतगृहावासा भवन्ति । अदीक्षाब्रह्मचारिणः वेषमन्तरेणाभ्यस्तागमा गृहधर्मनिरता भवन्ति । गूढब्रह्मचारिणः कुमारश्रमणाः सन्तः स्वीकृतागमाभ्यासा बन्धुभिर्दुसहपरीषहैरात्मना नृपतिभिर्वा निरस्तपरमेश्वररूपा गृहवासरता भवन्ति । नैष्ठिकब्रह्मचारिणः समाधिगतशिखालक्षितशिरोलिङ्गाः गणधरसूत्रोपलक्षितोरोलिंगा, शुक्लरक्तवसनखण्डकौपीनलक्षितकटीलिङ्गाः स्नातका भिक्षाव्रतयो देवतार्चनपरा भवन्ति ।</span> = | ||
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<li class="HindiText"> जो क्षुल्लकका रूप धर शास्त्रों का अभ्यास करते हैं और फिर गृहस्थ धर्म स्वीकार करते हैं उन्हें अवलम्ब ब्रह्मचारी कहते हैं ।</li> | <li class="HindiText"> जो क्षुल्लकका रूप धर शास्त्रों का अभ्यास करते हैं और फिर गृहस्थ धर्म स्वीकार करते हैं उन्हें अवलम्ब ब्रह्मचारी कहते हैं ।</li> | ||
<li class="HindiText"> जो बिना ही ब्रह्मचारी का वेष धारण किये शास्त्रों का अभ्यास करते हैं, और फिर गृहस्थधर्म स्वीकार करते हैं उन्हें अदीक्षा ब्रह्मचारी कहते हैं ।</li> | <li class="HindiText"> जो बिना ही ब्रह्मचारी का वेष धारण किये शास्त्रों का अभ्यास करते हैं, और फिर गृहस्थधर्म स्वीकार करते हैं उन्हें अदीक्षा ब्रह्मचारी कहते हैं ।</li> | ||
<li class="HindiText"> जो कुमार अवस्था में ही मुनि होकर शास्त्रों का अभ्यास करते हैं तथा पिता, भाई आदि कुटुम्बियों के आश्रय से अथवा घोर परिषहों के सहन न करने से किंवा राजा की विशेष आज्ञा से अथवा अपने आप ही जो परमेश्वर | <li class="HindiText"> जो कुमार अवस्था में ही मुनि होकर शास्त्रों का अभ्यास करते हैं तथा पिता, भाई आदि कुटुम्बियों के आश्रय से अथवा घोर परिषहों के सहन न करने से किंवा राजा की विशेष आज्ञा से अथवा अपने आप ही जो परमेश्वर भगवान् अरहंत देव की दिगम्बर दीक्षा छोड़कर गृहस्थ धर्म स्वीकार करते हैं उन्हें गूढ़ ब्रह्मचारी कहते हैं । </li> | ||
<li class="HindiText"> समाधि मरण करते समय शिखा (चोटी) धारण करने से जिसके मस्तकका चिह्न प्रकट हो रहा है , यज्ञोपवीत धारण करने से जिसका उरोलिंग (वक्षस्थल चिह्न) प्रगट हो रहा है , सफेद अथवा लालरंग के वस्त्र के टुकड़े की लंगोटी धारण करने से जिसकी कमर का चिह्न प्रगट हो रहा है,जो सदा भिक्षावृत्ति से निर्वाह करता है , जो स्नातक वा व्रती हैं, जो सदा जिन पूजादि में तत्पर रहते हैं उन्हें नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते हैं ।<br /> | <li class="HindiText"> समाधि मरण करते समय शिखा (चोटी) धारण करने से जिसके मस्तकका चिह्न प्रकट हो रहा है , यज्ञोपवीत धारण करने से जिसका उरोलिंग (वक्षस्थल चिह्न) प्रगट हो रहा है , सफेद अथवा लालरंग के वस्त्र के टुकड़े की लंगोटी धारण करने से जिसकी कमर का चिह्न प्रगट हो रहा है,जो सदा भिक्षावृत्ति से निर्वाह करता है , जो स्नातक वा व्रती हैं, जो सदा जिन पूजादि में तत्पर रहते हैं उन्हें नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते हैं ।<br /> | ||
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देखें [[ संस्कार#2.3 | संस्कार - 2.3 ]]में व्रतचर्या क्रिया (जिसने मस्तकपर शिखा धारण की है, श्वेत वस्त्र की कोपीन पहनी है, जिसके शरीर पर एक वस्त्र है, जो भेष और विकार से रहित है, जिसने व्रतों का चिह्नस्वरूप यज्ञोपवीत धारण किया है, उसको ब्रह्मचारी कहते हैं ) ।</span><br /> | |||
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== पुराणकोष से == | |||
<p> मन, वचन, काय, कृत-कारित-अनुमोदना से स्त्री मात्र का त्यागी । (देखें [[ ब्रह्मचर्य ]]) यह श्वेत वस्त्र धारण करता है । अन्य वेष और विकारों से रहित रहकर व्रतचिह्न स्वरूप यज्ञोपवीत धारण करना है । उपनोति क्रिया के समय बालक भी ब्रह्मचारी होता है । <span class="GRef"> महापुराण 38. 39, 94, 95, 104-120 </span></p> | |||
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Revision as of 21:44, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- सामान्य स्वरूप
देखें ब्रह्मचर्य - 1.1 में पं. वि. (जो ब्रह्म में आचरण करता है, और इन्द्रिय विजयी होकर वृद्धा आदि को माता, बहन व पुत्री के समान समझता है वह ब्रह्मचारी होता है ) ।
- ब्रह्मचारी के भेद
चा.सा./42/1 तत्र ब्रह्मचारिणः पंचविधाः - उपनयावलंबादीक्षागूढनैष्ठिकभेदेन । = ब्रह्मचारी पाँच प्रकार के होते हैं - उपनय, अवलंब, अदीक्षा, गूढ और नैष्ठिक । (सा. ध./7/19) ।
- ब्रह्मचारी विशेष के लक्षण
ध.9/4,1,10/94/2 ब्रह्म चारित्रं पंचव्रत-समिति त्रिगुप्त्यात्मकम्, शान्तिपुष्टिहेतुत्वात् । अघोरा शान्तगुणा यस्मिन् तदघोरगुणं, अघोरगुणं ब्रह्म चरन्तीति अघोरगुणब्रह्मचारिणः । तेसिं तवोमहाप्येण डमरीदि - मारि-दुब्भिक्ख ... रोहादिपसमणसत्ती समुप्पण्णा ते अघोरगुणबम्हचारिणो ति उत्तंहोदि । = 1. ब्रह्म का अर्थ पाँच व्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति स्वरूप चारित्र है, क्योंकि वह अघोरगुण है, अघोरगुण ब्रह्म का आचरण करने वाले अघोरगुण ब्रह्मचारी कहलाते हैं। जिनके तप के प्रभाव से डमरादि, रोग, ... रोघ आदि को नष्ट करने की शक्ति उत्पन्न हुई है वे अघोरगुण ब्रह्मचारी हैं ।
चा.सा./42/1 तत्रोपनयब्रह्मचारिणो गणधरसूत्रधारिणः समभ्यस्तागमा गृहधर्मानुष्ठायिनो भवन्ति । अवलम्बब्रह्मचारिणः क्षुल्लकरूपेणागममभ्यस्य परिगृहीतगृहावासा भवन्ति । अदीक्षाब्रह्मचारिणः वेषमन्तरेणाभ्यस्तागमा गृहधर्मनिरता भवन्ति । गूढब्रह्मचारिणः कुमारश्रमणाः सन्तः स्वीकृतागमाभ्यासा बन्धुभिर्दुसहपरीषहैरात्मना नृपतिभिर्वा निरस्तपरमेश्वररूपा गृहवासरता भवन्ति । नैष्ठिकब्रह्मचारिणः समाधिगतशिखालक्षितशिरोलिङ्गाः गणधरसूत्रोपलक्षितोरोलिंगा, शुक्लरक्तवसनखण्डकौपीनलक्षितकटीलिङ्गाः स्नातका भिक्षाव्रतयो देवतार्चनपरा भवन्ति । =- जो गणधर-सूत्र को धारण कर अर्थात् यज्ञोपवीत को धारण कर उपासकाध्ययन आदि शास्त्रों का अभ्यास करते हैं और फिर गृहस्थधर्म स्वीकार करते हैं उन्हें उपनय ब्रह्मचारी कहते हैं ।
- जो क्षुल्लकका रूप धर शास्त्रों का अभ्यास करते हैं और फिर गृहस्थ धर्म स्वीकार करते हैं उन्हें अवलम्ब ब्रह्मचारी कहते हैं ।
- जो बिना ही ब्रह्मचारी का वेष धारण किये शास्त्रों का अभ्यास करते हैं, और फिर गृहस्थधर्म स्वीकार करते हैं उन्हें अदीक्षा ब्रह्मचारी कहते हैं ।
- जो कुमार अवस्था में ही मुनि होकर शास्त्रों का अभ्यास करते हैं तथा पिता, भाई आदि कुटुम्बियों के आश्रय से अथवा घोर परिषहों के सहन न करने से किंवा राजा की विशेष आज्ञा से अथवा अपने आप ही जो परमेश्वर भगवान् अरहंत देव की दिगम्बर दीक्षा छोड़कर गृहस्थ धर्म स्वीकार करते हैं उन्हें गूढ़ ब्रह्मचारी कहते हैं ।
- समाधि मरण करते समय शिखा (चोटी) धारण करने से जिसके मस्तकका चिह्न प्रकट हो रहा है , यज्ञोपवीत धारण करने से जिसका उरोलिंग (वक्षस्थल चिह्न) प्रगट हो रहा है , सफेद अथवा लालरंग के वस्त्र के टुकड़े की लंगोटी धारण करने से जिसकी कमर का चिह्न प्रगट हो रहा है,जो सदा भिक्षावृत्ति से निर्वाह करता है , जो स्नातक वा व्रती हैं, जो सदा जिन पूजादि में तत्पर रहते हैं उन्हें नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते हैं ।
- ब्रह्मचारी का वेष
देखें संस्कार - 2.3 में व्रतचर्या क्रिया (जिसने मस्तकपर शिखा धारण की है, श्वेत वस्त्र की कोपीन पहनी है, जिसके शरीर पर एक वस्त्र है, जो भेष और विकार से रहित है, जिसने व्रतों का चिह्नस्वरूप यज्ञोपवीत धारण किया है, उसको ब्रह्मचारी कहते हैं ) ।
- पाँचों ब्रह्मचारियों को स्त्री के ग्रहण सम्बन्धी - देखें ऊपर
पुराणकोष से
मन, वचन, काय, कृत-कारित-अनुमोदना से स्त्री मात्र का त्यागी । (देखें ब्रह्मचर्य ) यह श्वेत वस्त्र धारण करता है । अन्य वेष और विकारों से रहित रहकर व्रतचिह्न स्वरूप यज्ञोपवीत धारण करना है । उपनोति क्रिया के समय बालक भी ब्रह्मचारी होता है । महापुराण 38. 39, 94, 95, 104-120