मतिज्ञान: Difference between revisions
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<p class="HindiText">इन्द्रियज्ञान की ही ‘मति या अभिनिबोध’ यह संज्ञा है। यह दर्शनपूर्वक अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के क्रम से उत्पन्न होता है। चारों के ही उत्पन्न होने का नियम | == सिद्धांतकोष से == | ||
<p class="HindiText">इन्द्रियज्ञान की ही ‘मति या अभिनिबोध’ यह संज्ञा है। यह दर्शनपूर्वक अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के क्रम से उत्पन्न होता है। चारों के ही उत्पन्न होने का नियम नहीं।1,2 या 3 भी होकर छूट सकते हैं। धारणा के पश्चात् क्रम से स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क या व्याप्ति ज्ञान उत्पन्न होता है। इन सबों की भी मतिज्ञान संज्ञा है। धारणा के पहलेवाले ज्ञान पंचेन्द्रियों के निमित्त से और उससे आगे के ज्ञान मन के निमित्त से होते हैं। तर्क के पश्चात् अनुमान का नम्बर आता है जो श्रुतज्ञान में गर्भित है। एक, अनेक, ध्रुव, अध्रुव आदि 12 प्रकार के अर्थ इस मतिज्ञान के विषय होने से यह अनेक प्रकार का हो जाता है।</p> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> भेद व लक्षण</strong><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> भेद व लक्षण</strong><br /> | ||
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<li class="HindiText">मति का | <li class="HindiText">मति का निरुक्त्यर्थ।<br /> | ||
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<li class="HindiText">अभिनिबोध या मति का अर्थ इन्द्रियज्ञान।<br /> | <li class="HindiText">अभिनिबोध या मति का अर्थ इन्द्रियज्ञान।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> उपलब्धि, भावना व | <li class="HindiText"> उपलब्धि, भावना व उपयोग।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मतिज्ञान को | <li class="HindiText"> मतिज्ञान को कथंचित् दर्शन संज्ञा।–देखें [[ दर्शनो#8 | दर्शनो - 8]]<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ज्ञान की सत्ता इन्द्रियों से निरपेक्ष | <li class="HindiText"> ज्ञान की सत्ता इन्द्रियों से निरपेक्ष है।–देखें [[ ज्ञान#I.2 | ज्ञान - I.2]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मति व श्रुतज्ञान परोक्ष हैं–देखें | <li class="HindiText"> मति व श्रुतज्ञान परोक्ष हैं–देखें [[ परोक्ष ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मतिज्ञान की | <li class="HindiText"> मतिज्ञान की कथंचित् प्रत्यक्षता व परोक्षता।–देखें [[ श्रुतज्ञान#I.5 | श्रुतज्ञान - I.5]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मतिज्ञान की | <li class="HindiText"> मतिज्ञान की कथंचित् निर्विकल्पता।–देखें [[ विकल्प ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मतिज्ञान निसर्गज है।–देखें | <li class="HindiText"> मतिज्ञान निसर्गज है।–देखें [[ अधिगम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मोक्षमार्ग में मतिज्ञान की | <li class="HindiText"> मोक्षमार्ग में मतिज्ञान की कथंचित् प्रधानता।–देखें [[ श्रुतज्ञान#I.2 | श्रुतज्ञान - I.2]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> मतिज्ञान के स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान, जीवसमास आदि | <li class="HindiText"> मतिज्ञान के स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान, जीवसमास आदि 20 प्ररूपणाएँ।–देखें [[ सत् ]]। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> मतिज्ञान सम्बन्धी | <li class="HindiText"> मतिज्ञान सम्बन्धी सत् संख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अन्तर भाव व अल्पबहुत्व रूप 8 प्ररूपणाएँ–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें | <li class="HindiText"> सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें [[ मार्गणा ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अवग्रह ईहा आदि व स्मृति तर्क आदि के | <li class="HindiText"> अवग्रह ईहा आदि व स्मृति तर्क आदि के लक्षण।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अवग्रह आदि में परस्पर कार्यकारण | <li class="HindiText"> अवग्रह आदि में परस्पर कार्यकारण भाव।–देखें [[ मतिज्ञान#3.1 | मतिज्ञान - 3.1 ]]में रा.वा.।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> मतिज्ञान व श्रुतज्ञान में | <li class="HindiText"> मतिज्ञान व श्रुतज्ञान में अन्तर–देखें [[ श्रुतज्ञान#I.3 | श्रुतज्ञान - I.3]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong> मति का निरुक्त्यर्थ</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/9/93/11 <span class="SanskritText">इन्द्रियैर्मनसा च यथासमर्थो मन्यते अनया मनुते मननमात्रं वा मति:।</span> = <span class="HindiText">इन्द्रिय और मन के द्वारा यथायोग्य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किये जाते हैं, जो मन करता है, या मननमात्र मतिकहलाता है।(स.सि./1/13/106/4-मननं मति:);(रा.वा./1/9/1/44/7);(ध.13/5,5,41/244/30 मननं मति:)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> अभिनिबोध या मति का अर्थ इन्द्रियज्ञान </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1.2" id="1.1.2"> अभिनिबोध या मति का अर्थ इन्द्रियज्ञान </strong> </span><br /> | ||
पं.सं./ | पं.सं./1/214 <span class="PrakritText">अहिमुहणियमिय बोहणमाभिणिबोहियमणिंदि-इंदियजं। ... 214। </span>= <span class="HindiText">मन और इन्द्रिय की सहायता से उत्पन्न होने वाले, अभिमुख और नियमित पदार्थ के बोध को आभिनिबोधिकज्ञान कहते हैं। (ध.1/1,1,115/गा.182/359); (ध.13/5,5,21/209/10); (गो.जी./मू./306/658); (ज.प./13/56)।</span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,115/354/1 <span class="SanskritText">पञ्चभिरिन्द्रियैर्मनसा च यदर्थग्रहणं तन्मतिज्ञानम्।</span> =<span class="HindiText"> पाँच इन्द्रियों और मन से जो पदार्थ का ग्रहण होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं।</span><br /> | ||
क.पा. | क.पा.1/101/28/42/4 <span class="PrakritText">इंदियणोइंदिएहि सद्द-रस-परिसरूव-गंधादिविसएसु ओग्गह-ईहावाय-धारणाओ मदिणाणं।</span> = <span class="HindiText">इन्द्रिय और मन के निमित्त से शब्द रस स्पर्श रूप और गन्धादि विषयों मे अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप जो ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान है। (द्र.सं./टी./44/188/1)।</span><br /> | ||
पं.का./त.पृ/ | पं.का./त.पृ/41 <span class="SanskritText">यत्तदावरणक्षयोपशमादिन्द्रियानिन्द्रियावलम्बनाञ्चमूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं विशेषणावबुध्यते, तदाभिनिबोधिकज्ञानम्।</span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./41/81/14 <span class="SanskritText">आभिनिबोधिकं मतिज्ञानं।</span> = <span class="HindiText">मति ज्ञानावरण के क्षयोपशम से और इन्द्रिय मन के अवलम्बन से मूर्त अमूर्त द्रव्य का विकल अर्थात् एकदेशरूप से विशेषत: सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष रूप से (द्र.सं./टी./5/15) जो अवबोध करता है, वह आभिनिबोधिकज्ञान है। आभिनिबोधिकज्ञान को ही मतिज्ञान कहते हैं। (द्र.सं./टी./5/15/4)।</span></li> | ||
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<li class="HindiText" name="1.2.1" id="1.2.1">चार्ट बनेगा <br>उपरोक्त भेदों के भंग–अवग्रहादि की अपेक्षा = | <li class="HindiText" name="1.2.1" id="1.2.1">चार्ट बनेगा <br>उपरोक्त भेदों के भंग–अवग्रहादि की अपेक्षा = 4; पूर्वोक्त 4×6 इन्द्रियाँ = 24; पूर्वोक्त 24+ व्यंजनावग्रह के 4 = 28; पूर्वोक्त 28+अवग्रहादि 4 = 32–में इस प्रकार 24, 28, 32 ये तीन मूल भंग हैं। इन तीनों की क्रम से बहु बहुविध आदि 6 विकल्पों से गुणा करने पर 144, 168 व 192 ये तीन भंग होते हैं। उन तीनों को ही बहु बहुविध आदि 12 विकल्पों से गुणा करने पर 288, 336 व 384 ये तीन भंग होते हैं। इस प्रकार मतिज्ञान के 4, 24, 28, 32, 144, 168, 192, 288, 336 व 384 भेद होते हैं। (ष.खं.13/5,5/सूत्र 22-35/216-234); (त.सू./1/15-19); (पं.सं./प्रा./1/121); (ध.1/1,1,115/गा.182/359); (रा.वा./1/19/9/70/7); (ह.पु./10/145-150); (ध.1/1,1,2/93/3); (ध.6/1,9,1,14/16,19,21); (ध.9/4,1,45/144,149,155); (ध.13/5,5,35/239-241); (क.पा.1/1,1/10/14/1); (ज.प./13/55-56); (गो.जी./मू./306-314/658-672); (त.सा./1/20-23)।</li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2"> उपलब्धि स्मृति आदि की अपेक्षा</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.2" id="1.2.2"> उपलब्धि स्मृति आदि की अपेक्षा</strong> </span><br /> | ||
ष.खं. | ष.खं.13/5,5/सूत्र 41/244 <span class="PrakritText">सण्ण सदी मदी चिंता चेदि।41।</span><br /> | ||
त.सू./ | त.सू./1/13<span class="SanskritText"> मतिस्मृतिसंज्ञाचिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्।13।</span> = <span class="HindiText">मति, स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध ये सब पर्यायवाची नाम हैं।</span><br /> | ||
पं.का.ता.वृ./प्रक्षेपक गाथा/ | पं.का.ता.वृ./प्रक्षेपक गाथा/43-1/85 <span class="PrakritText">मदिणाणं पुण तिविहं उवलद्धो भावणं च उवओगो। </span>= <span class="HindiText">मतिज्ञान तीन प्रकार का है–उपलब्धि, भावना, और उपयोग।</span><br /> | ||
त.सा./ | त.सा./1/19-20 <span class="SanskritText">स्वसंवेदनमक्षोत्थं विज्ञानं स्मरणं तथा। प्रत्यभिज्ञानमूहश्च स्वार्थानुमितिरेव वा।19। बुद्धिमेधादयो याश्च मतिज्ञानभिदा हि ता:।-।20।</span> = <span class="HindiText">स्वसंवेदनज्ञान, इन्द्रियज्ञान, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, स्वार्थानुमान, बुद्धि, मेधा आदि सब मतिज्ञान के प्रकार हैं।</span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./ | पं.का./ता.वृ./43,1/86/3 <span class="SanskritText">तथैवावग्रहेहावायधारणाभेदेन चतुर्विंधं वरकोष्ठबीजपादनुसारिसंभिन्नश्रोतृताबुद्धिभेदेन वा, तच्च मतिज्ञान ...।</span> = <span class="HindiText">वह मति ज्ञान अवग्रह आदि के भेद से अथवा वरकोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारी बुद्धि और सम्भिन्नश्रोतृबुद्धि इन चार ऋृद्धियों के भेद से चार प्रकार का है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="1.2.3" id="1.2.3"> असंख्यात भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2.3" id="1.2.3"> असंख्यात भेद</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.12/4,2,14,5/480/5 <span class="PrakritText">एवमसंखेज्जलोगमेत्ताणि मुदणाणि। मदिणाणि वि एत्तियाणि चेव, सुदणाणस्स मदिणाणपुर गमत्तादो कज्जभेदेण कारणभेदुवलंभादो वा। </span>= <span class="HindiText">श्रुतज्ञान असंख्यात लोकप्रमाण है–देखें [[ श्रुतज्ञान#I.1 | श्रुतज्ञान - I.1]]। मतिज्ञान भी इतने ही हैं, क्योंकि श्रुतज्ञान, मतिज्ञानपूर्वक ही होता है, अथवा कारण के भेद से क्योंकि कार्य का भेद पाया जाता है, अतएव वे भी असंख्यात लोकप्रमाण हैं। (पं.ध./उ./290-292)।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> कुमतिज्ञान का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> कुमतिज्ञान का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
पं.सं./प्रा./ | पं.सं./प्रा./1/118 <span class="PrakritGatha">विसजंतकूडपंजरबंधादिसु अणुवेदसकरणेण। जा खलु पवत्तइ मई मइअण्णाण त्ति णं विंति।118।</span> = <span class="HindiText">परोपदेश के बिना जो विष, यत्र, कूट, पंजर, तथा बन्ध आदि के विषय में बुद्धि प्रवृत्त होती है, उसे ज्ञानीजन मत्यज्ञान कहते हैं। (उपदेशपूर्वक यही श्रुतज्ञान है)। (ध.1/1,115/गा. 179/358); (गो.जो. /मू./303/654)। </span><br /> | ||
पं.का./त.प्र./ | पं.का./त.प्र./41 <span class="SanskritText">मिथ्यादर्शनोदयसहचरितमाभिनिबोधिकज्ञानमेव कुमतिज्ञानम्।</span> = <span class="HindiText">मिथ्यादर्शन के उदय के साथ अभिनिबोधिकज्ञान ही कुमतिज्ञान है।–विशेष देखें [[ ज्ञान#III | ज्ञान - III]]।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">मतिज्ञान दर्शनपूर्वक इन्द्रियों के निमित्त से होता है </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.1" id="2.1"></a>मतिज्ञान दर्शनपूर्वक इन्द्रियों के निमित्त से होता है </strong> </span><br /> | ||
पं.का./ता.वृ./प्रक्षेपक गा./ | पं.का./ता.वृ./प्रक्षेपक गा./43-1/85<span class="SanskritText"> तह एव चदुवियप्पं दंसणपुव्वं हवदि णाणं।</span> = <span class="HindiText">वह चारों प्रकार का मतिज्ञान दर्शनपूर्वक होता है।–विशेष देखें [[ दर्शन#3.1 | दर्शन - 3.1]]।</span><br /> | ||
त.सू./ | त.सू./1/14 <span class="SanskritText">तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्।14। </span>= <span class="HindiText">वह मतिज्ञान इन्द्रिय व मनरूप निमित्त से होता है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> मतिज्ञान का विषय अनन्त पदार्थ व अल्प पर्यायें हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> मतिज्ञान का विषय अनन्त पदार्थ व अल्प पर्यायें हैं</strong> </span><br /> | ||
त.सू./ | त.सू./1/26 <span class="SanskritText">मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु।26।</span> = <span class="HindiText">मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति कुछ पर्यायों से युक्त सब द्रव्यों में होती है। </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/19/9/70/2<span class="SanskritText"> द्रव्यतो मतिज्ञानी सर्वद्रव्याण्यसर्वपर्यायाण्युपदेशेन जानाति। क्षेत्रत उपदेशेन सर्वक्षेत्राणि जानाति। अथवा क्षेत्रं विषय:। ... कालत उपदेशेन सर्वकालं जानाति। भावत उपदेशेन जीवादीनामौदयिकादीन् भावान् जानाति। रा.वा./1/26/3-4/87/16 जीवधर्माधर्माकाशकालपुद्गलाभिधानानि षडत्र द्रव्याणि, तेषां सर्वेषां संग्रहार्थः द्रव्येष्विति बहुत्वनिर्देश: क्रियते।3। ... तानि द्रव्याणि मतिश्रुतयोर्विषयभावमापद्यमानानि कतिपयैरेव पर्यायैर्विषयभावमास्कन्दन्ति न सर्वपर्यायैरनन्तैरपीति। तत्कथम्। इह मति: चक्षुरादिकरणानिमित्ता रूपाद्यालम्बना, सा यस्मिन् द्रव्ये रूपादयो वर्तन्ते न तत्र सर्वान् पर्यायानेव (सर्वानेव पर्यायान्) गृह्णाति, चक्षुरादिविषयानेवालम्बते।</span> = | ||
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<li class="HindiText"> द्रव्य की दृष्टि से मतिज्ञानी सभी द्रव्यों की कुछ पर्यायों को उपदेश से जानता है। इसी प्रकार उपदेश द्वारा वह सभी क्षेत्र को अथवा प्रत्येक इन्द्रिय के प्रतिनियत क्षेत्र | <li class="HindiText"> द्रव्य की दृष्टि से मतिज्ञानी सभी द्रव्यों की कुछ पर्यायों को उपदेश से जानता है। इसी प्रकार उपदेश द्वारा वह सभी क्षेत्र को अथवा प्रत्येक इन्द्रिय के प्रतिनियत क्षेत्र को–देखें [[ इन्द्रिय#3.6 | इन्द्रिय - 3.6]]। सर्वकाल को व सर्व औदयिकादि भावों को जान सकता है।</li> | ||
<li class="HindiText"> सूत्र में ‘द्रव्येषु’ यह बहुवचनान्त प्रयोग सर्वद्रव्यों के संग्रह के लिए है। तहाँ जीव, | <li class="HindiText"> सूत्र में ‘द्रव्येषु’ यह बहुवचनान्त प्रयोग सर्वद्रव्यों के संग्रह के लिए है। तहाँ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं। वे सब द्रव्य मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के विषय भाव को प्राप्त होते हुए कुछ पर्यायों के द्वारा ही विषय भाव को प्राप्त होते हैं, सब पर्यायों के द्वारा नहीं और अनन्त पर्यायों के द्वारा भी नहीं। क्योंकि मतिज्ञान चक्षु आदि इन्द्रियों से उत्पन्न होता है और रूपादि को विषय करता है, अत: स्वभावत: वह रूपी आदि द्रव्यों को जानकर भी उनकी सभी पर्यायों को ग्रहण नहीं करता बल्कि चक्षु आदि की विषयभूत कुछ स्थूल पर्यायों को ही जानता है। (स.सि./1/26/134/1)।<br /> | ||
देखें [[ ऋद्धि#2.2.3 | ऋद्धि - 2.2.3 ]](क्षायोपशमिक होने पर भी मतिज्ञान द्वारा अनन्त अर्थों का जाना जाना सम्भव है)।</li> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> अतीन्द्रिय द्रव्यों में मतिज्ञान के व्यापार सम्बन्धी समन्वय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> अतीन्द्रिय द्रव्यों में मतिज्ञान के व्यापार सम्बन्धी समन्वय</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./मू./ | प्र.सा./मू./40 <span class="PrakritGatha">अत्थं अक्खणिवदिदं ईहापुव्वेहिं जे विजाणंति। तेसिं परोक्खभूदं णादुमसक्कं ति पण्णत्तं।40। </span>=<span class="HindiText">जो इन्द्रियगोचर पदार्थ को ईहा आदि द्वारा जानते हैं, उनके लिए परोक्षभूत पदार्थ को जानना अशक्य है, ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है।</span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/26/134/3 <span class="SanskritText">धर्मास्तिकायादीन्यतीन्द्रियाणि तेषु मतिज्ञानं न प्रवर्तते। अत: सर्वद्रव्येषु मतिज्ञानं वर्तत इत्ययुक्तम्। नैष दोष:। अनिन्द्रियाख्यं करणमस्ति तदालम्बनो नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमलब्धिपूर्वक उपयोगाऽवग्रहादिरूप: प्रागेवोपजायते। ततस्तत्पूर्वं श्रुतज्ञानं तद्विषयेषु स्वयोग्येषु व्याप्रियते।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–धर्मास्तिकाय आदि अतीन्द्रिय हैं। उनमें मतिज्ञान की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अत: ‘सब द्रव्यों में मतिज्ञान की प्रवृत्ति होती है’, यह कहना अयुक्त है। <strong>उत्तर–</strong>यह कोई दोष नहीं, क्योंकि अनिन्द्रिय (मन) नाम का एक करण है। उसके आलम्बन से नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशमरूप लब्धिपूर्वक अवग्रह आदि रूप उपयोग पहले ही उत्पन्न हो जाता है, अत: तत्पूर्वक होने वाला श्रुतज्ञान अपने योग्य इन विषयों में व्यापार करता है। (रा.वा./1/26/5/87/27)।</span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,71/341/1 <span class="PrakritText">णोइंदियमदिंदियं कधं मदिणाणेण घेप्पदे। ण ईहालिंगावट्ठंभबलेण अदिंदिएसु वि अत्थेसु वुत्तिदंसणादो। </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न</strong>–नोइन्द्रिय तो अतीन्द्रिय है, उसका मतिज्ञान के द्वारा कैसे ग्रहण होता है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, ईहारूप लिंग के अवलम्बन के बल से अतीन्द्रिय अर्थों में भी मतिज्ञान की प्रवृत्ति देखी जाती है। (इसलिए मतिज्ञान के द्वारा परकीयमन को जानकर पीछे मन:पर्ययज्ञान के द्वारा तद्गत अर्थ को जानने में विरोध नहीं है)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">मति आदि ज्ञान व अज्ञान क्षायोपशमिक कैसे ?</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="2.4" id="2.4"></a>मति आदि ज्ञान व अज्ञान क्षायोपशमिक कैसे ?</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.14/5,6,19/20/7 <span class="PrakritText">मदिअण्णाणित्ति एदं पि खओवसमियं, मंदिणाणावरणखओवसमेण सुप्पत्तीए। कुदो एदं मदिअण्णाणि त्ति एदं पि तदुभयपच्चयं। मिच्छत्तस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदएण णाणावरणीयस्स देसघादिफद्दयाणमुदएण तस्सेव सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण च मदिअण्णाणित्तुप्पत्तीदो। सुदअण्णाणि ... विहंगणाणि त्ति तदुभयपच्चइयो ...। आभिणिबोहियणाणि त्ति तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो, मदिणाणावरणीयस्स देसघादिफद्दयाणमुदएण तिविहसम्मत्तसहाएण तदुप्पत्तीदो। आभिणिवोहियणाणस्स उदयपच्चइयत्तं घडदे, मदिणाणावरणीयस्स देसघादिफद्दयाणमुदएण समुप्पत्तीरगणोवसमियपच्चइयत्तं, उवसमाणुवलंभादो। ण, णाणावरणीयसव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावेण उव्रसमसण्णिदेण आभिणिबोहियणाणुप्पत्तिदंसणादो। एवं सुदणाणि- ओहिणा- णिमणपज्जवणाणि- चक्खुदंसणि- अचक्खुदंसणि- ओहिदंसणिआदीणं वत्तव्वं, विसेसाभावादो।</span> = | ||
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<li class="HindiText"> मति अज्ञानी भी क्षायोपशमिक है, क्योंकि यह मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता है। <strong>प्रश्न</strong>–मत्यज्ञानित्व तदुभयप्रत्ययिक कैसे है ? <strong>उत्तर</strong>–मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकों का उदय होने से तथा ज्ञानावरणीय के देशघाति स्पर्धकों का उदय होने से, और उसी के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयक्षय होने से मति-अज्ञानित्व की उत्पत्ति होती है, इसलिए वह तदुभयप्रत्ययिक है। श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानी भी इसी प्रकार से तदुभय प्रत्ययिक है। </li> | <li class="HindiText"> मति अज्ञानी भी क्षायोपशमिक है, क्योंकि यह मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता है। <strong>प्रश्न</strong>–मत्यज्ञानित्व तदुभयप्रत्ययिक कैसे है ? <strong>उत्तर</strong>–मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकों का उदय होने से तथा ज्ञानावरणीय के देशघाति स्पर्धकों का उदय होने से, और उसी के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयक्षय होने से मति-अज्ञानित्व की उत्पत्ति होती है, इसलिए वह तदुभयप्रत्ययिक है। श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानी भी इसी प्रकार से तदुभय प्रत्ययिक है। </li> | ||
<li class="HindiText"> आभिनिबोधिकज्ञानी तदुभयप्रत्ययिक जीवभाव बन्ध है, क्योंकि तीन प्रकार के | <li class="HindiText"> आभिनिबोधिकज्ञानी तदुभयप्रत्ययिक जीवभाव बन्ध है, क्योंकि तीन प्रकार के सम्यक्त्व से युक्त मतिज्ञानावणीय कर्म के देशघाति स्पर्धकों के उदय से इसकी उत्पत्ति होती है। <strong>प्रश्न</strong>–इसके उदयप्रत्यायिकपना तो बन जाता है, क्योंकि मतिज्ञानावरणकर्म के देशघाति स्पर्धकों के उदय से इसकी उत्पत्ति होती है, पर औपशमिक निमित्तकपना नहीं बनता, क्योंकि मतिज्ञानावरण कर्म का उपशम नहीं पाया जाता। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि ज्ञानावरणीय कर्म के सर्वघाति स्पर्धकों के उपशम संज्ञावाले उदयाभाव से आभिनिबोधिक ज्ञान की उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिये इसका औपशमिक निमित्तकपना भी बन जाता है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी, मन: पर्ययज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी आदि का कथन करना चाहिए, क्योंकि उपर्युक्त कथन से इनके कथन में कोई विशेषता नहीं है।</li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> परमार्थ से इन्द्रियज्ञान कोई ज्ञान नहीं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> परमार्थ से इन्द्रियज्ञान कोई ज्ञान नहीं</strong> </span><br /> | ||
प्र.सा./त.प्र./ | प्र.सा./त.प्र./55 <span class="SanskritText">परोक्षं हि ज्ञानमतिदृढतराज्ञानतमोग्रन्थिनुण्ठनात् ... स्वयं परिच्छेत्तुमर्थमसमर्थस्योपात्तानुपात्तपरप्रत्ययसामग्रीमार्गणव्यग्रतयात्यन्तविसंठुलत्वम् ... महामोहमल्लस्य जीवदवस्थत्वात् परपरिणतिप्रवर्तिताभिप्रायमपि पदे पदे प्राप्तविप्रलम्भमनुपलम्भसंभावनामेव परमार्थतोऽर्हति। अतस्तद्धेयम्।</span> = <span class="HindiText">परोक्षज्ञान, अति दृढ़ अज्ञानरूप तमोग्रन्थि द्वारा आवृत हुआ, आत्मपदार्थ को स्वयं जानने के लिए असमर्थ होने के कारण, उपात्त और अनुपात्त सामग्री को ढूँढ़ने की व्यग्रता से अत्यन्त चंचल वर्तता हुआ, महा मोहमल्ल के जीवित होने से पर परिणति का अभिप्राय करने पर भी पद-पद पर ठगाता हुआ, परमार्थत: अज्ञान में गिना जाने योग्य है। इसलिए वह हेय है।</span><br /> | ||
पं.ध./उ./ | पं.ध./उ./286-289,305,953 <span class="SanskritGatha">दिङ्मात्रं षट्सु द्रव्येषु मूर्तस्यैवोपलम्भकात्। तत्र सूक्ष्मेषु नैव स्यादस्ति स्थूलेषु केषुचित्।286। सत्सु ग्राह्येषु तत्रापि नाग्राह्येषु कदाचन। तत्रापि विद्यमानेषु नातीतानागतेषु च।287। तत्रापि संनिधानत्वे संनिकर्षेषु सत्सु च। तत्राप्यवग्रहेहादौ ज्ञानस्यास्तिक्यदर्शनात्।288। समस्तेषु न व्यस्तेषु हेतुभूतेषु सत्स्वपि। कदाचिज्जायते ज्ञानमुपर्युपरि शुद्धित:।289। आस्तामित्यादि दोषाणां संनिपातात्पदं पदम्। ऐन्द्रियं ज्ञानमप्यस्ति प्रदेशचलनात्मकम्।305। प्राकृतं वैकृतं वापि ज्ञानमात्रं तदेव यत्। यावदत्रेन्द्रियायत्तं तत्सर्वं वैकृतं विदुः।953।</span> = <span class="HindiText">इन छह द्रव्यों में मूर्त द्रव्य को ही विषय करता है, उसमें भी स्थूल में प्रवृत्ति करता है सूक्ष्म में नहीं। स्थलूों में भी किन्हीं में ही प्रवृत्त होता है सबमें नहीं। उनमें भी इन्द्रियगाह्य में ही प्रवृत्त होता है इन्द्रिय अग्राह्य में नहीं। उनमें वर्तमानकाल सम्बन्धी को ही ग्रहण करता है, भूत भविष्यत् को नहीं। उनमें भी इन्द्रिय सन्निकर्ष को प्राप्त पदार्थ को विषय करता है, अन्य को नहीं। उनमें अवग्रह ईहा आदि के क्रम से प्रवृत्ति करता है। इतना ही नहीं बल्कि मतिज्ञानावरण व वीर्यान्तराय का क्षयोपशम, इन्द्रियों की पूर्णता, प्रकाश व उपयोग आदि समस्त कारणों के होने पर ही होता है, हीन कारणों में नहीं। इन सर्व कारणों के होने भी ऊपर-ऊपर अधिक-अधिक शुद्धि होने से कदाचित् होता है सर्वदा नहीं। इसलिए वह कहने मात्र को ही ज्ञान है।286-289। इन्द्रियज्ञान व्याकुलता आदि अनेक दोषों का तो स्थान है ही, परन्तु वह प्रदेशचलनात्मक भी होता है।305। यद्यपि प्राकृत या वैकृत सभी प्रकार के ज्ञान ‘ज्ञान’ कहलाते हैं, परन्तु वास्तव में जब तक वह ज्ञान इन्द्रियाधीन रहता है, तब तक वह विकृत ही है।953।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> मतिज्ञान के भेदों को जानने का प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> मतिज्ञान के भेदों को जानने का प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
पं.का./पा.वृ./ | पं.का./पा.वृ./43/86/5 <span class="SanskritText">अत्र निर्विकारशुद्धानुभूत्यभिमुखं यन्मतिज्ञानं तदेवोपादेयभूतानन्तसुखसाधकत्वान्निश्चयेनोपादेयं तत्साधकं बहिरङ्गं पुनर्व्यवहारेणेति तात्पर्यम्।</span> = <span class="HindiText">निर्विकार शुद्धात्मा की अनुभूति के अभिमुख जो मतिज्ञान है, वही उपायदेयभूत अनन्त सुख का साधक होने के कारण निश्चय से उपादेय है और व्यवहार से उस ज्ञान का साधक जो बहिरंग ज्ञान है वह भी उपादेय है।</span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> ईहा आदि को मतिज्ञान व्यपदेश कैसे ?</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1"> ईहा आदि को मतिज्ञान व्यपदेश कैसे ?</strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/15/13/62/1 <span class="SanskritText">ईहादीनाममतिज्ञानप्रसङ्ग:। कुत:। परस्परकार्यत्वात्। अवग्रहकारणम् ईहाकार्यम्, ईहाकारणम् अवाय: कार्यम्, अवाय: कारणम् धारणा कार्यम्। न चेहादीनाम् इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तत्वमस्तीति; नैष दोष:; ईहादीनामनिन्द्रियनिमित्तत्वात् मतिज्ञानव्यपदेश:। यद्येवं श्रुतस्यापि प्राप्तनोति: इन्द्रियगृहीतविषयत्वादीहादीनाम् अनिन्द्रियनिमित्तत्वमप्युपचर्यते, न तु श्रुतस्यायं विधिरस्ति तस्यानिन्द्रियविषयत्वादिति श्रुतास्याप्रसंग:। यद्येवं चक्षुरिन्द्रियेहादिव्यपदेशाभाव इति चेत; न; इन्द्रियशक्तिपरिणतस्य जीवस्य भावेन्द्रियत्वतद्वयापारकार्यत्वात्। इन्द्रियभावपरिणतो हि जीवो भावेन्द्रियमिष्यते, तस्य विषयाकारपरिणामाईहादय इति चक्षुरिन्द्रियेहादिव्यपदेश इति। </span>=<span class="HindiText"> <strong>प्रश्न</strong>–ईहा आदि ज्ञान मतिज्ञान नहीं हो सकते, क्योंक ये एक दूसरे के कारण से उत्पन्न होते हैं। तहाँ अवग्रह के कारण से ईहा, ईहा के कारण से अवाय, और अवाय के कारण से धारणा होती है। उनमें इन्द्रिय व अनिन्द्रिय का निमित्तपना नहीं है। <strong>उत्तर</strong>–यह कोई दोष नहीं है, ईहा आदि को भी अनिन्द्रिय का निमित्त होने से मतिज्ञान व्यपदेश बन जाता है। <strong>प्रश्न</strong>–तब तो श्रुतज्ञान को भी मतिज्ञानपना प्राप्त हो जायेगा। <strong>उत्तर</strong>–ऐसा नहीं है; क्योंकि (अवग्रह द्वारा) इन्द्रियों से ग्रहण कर लिये गये पदार्थों को विषय करने के कारण ईहा आदि को अनिन्द्रिय का निमित्तपना उपचार से कहा जाता है। श्रुतज्ञान की यह विधि नहीं है, क्योंकि, वह तो अनिन्द्रिय के ही निमित्त से उत्पन्न होता है। <strong>प्रश्न</strong>–यदि ऐसा है तो चक्षु इन्द्रिय के ईहा आदि का व्यपदेश न किया जा सकेगा। <strong>उत्तर</strong>–नहीं; क्योंकि इन्द्रियशक्ति से परिणत जीव की भाव इन्द्रिय में, उसके व्यापार का कार्य होता है। इन्द्रियभाव से परिणत जीव को ही भावेन्द्रिय कहा जाता है। उसके विषयाकाररूप परिणाम ही ईहा आदि हैं। इसलिये चक्षु इन्द्रिय के भी ईहा आदि का व्यपदेश बन जाता है। (ध.9/4,1,45/147/29) </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,45/148/2 <span class="SanskritText">नावायज्ञानं मति:, ईहानिर्णीतलिङ्गावष्टम्भबलेनोत्पन्नत्वादनुमानवदिति चेन्न, अवग्रहगृहीतार्थविषयलिङ्गादीहाप्रत्ययविषयीकृतादुत्पन्ननिर्णयात्मकप्रत्ययस्य अवग्रहगृहीतार्थविषयस्य अवायस्य अमतित्वविरोधात्। न चानुमानमवगृहीतार्थ विषयमवग्रहनिर्णीतबलेन तस्यान्यवस्तुनि समुत्पत्ते:। ... तस्मादवग्रहादयो धारणापर्यन्ता मतिरिति सिद्धम्।</span> <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अवायज्ञान मतिज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि, वह ईहा से निर्णीत लिंग के आलम्बन बल से उत्पन्न होता है, जैसे अनुमान। <strong>उत्तर–</strong>ऐसा नहीं है, क्योंकि अवग्रह से गृहीत को विषय करने वाले तथा ईहा प्रत्यय से विषयीकृत लिंग से उत्पन्न हुए निर्णयरूप और अवग्रह से गृहीत पदार्थ को विषय करने वाले अवाय प्रत्यय के मतिज्ञान न होने का विरोध है। और अनुमान अवग्रह से गृहीत पदार्थ को विषय करने वाला नहीं है, क्योंकि वह अवग्रह से निर्णीत लिंग के बल से अन्य वस्तु में उत्पन्न होता है। (तथा अवग्रहादि चारों ज्ञानों की सर्वत्र क्रम से उत्पत्ति का नियम भी नहीं। (देखें [[ शीर्षक नं#3 | शीर्षक नं - 3]])। इसलिए अवग्रह से धारणापर्यन्त चारों ज्ञान मतिज्ञान हैं। यह सिद्ध होता है। (और भी देखें [[ श्रुतज्ञान#I.3 | श्रुतज्ञान - I.3]])।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> अवग्रहादि की अपेक्षा मतिज्ञान का उत्पत्तिक्रम </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> अवग्रहादि की अपेक्षा मतिज्ञान का उत्पत्तिक्रम </strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/15/13/61/26 <span class="SanskritText">अस्ति प्राग् अवग्रहाद्दर्शनम्। तत: शुक्लकृष्णादिरूपविज्ञानसामर्थ्योपेतस्यात्मन: ‘किं शुक्लमुत कृष्णम्’ इत्यादि विशेषाप्रतिपत्ते: संशय:। तत: शुक्लविशेषाकाङ्क्षणं प्रतीहनमीहा। तत: ‘शुक्लमेवेदं न कृष्णम्’ इत्यवायनमवाय:। अवेतस्यार्थस्याविस्मरणं धारणा। एवं श्रोत्रादिषु मनस्यपि योज्यम्।</span> = <span class="HindiText">अवग्रह पहले [विषय विषयी के सन्निपात होने पर (देखें [[ अवग्रह का लक्षण ]])] वस्तुमात्र का सामान्यालोचनरूप दर्शन होता है, (फिर ‘रूप है’ यह अवग्रह होता है)। तदनन्तर ‘यह शुक्ल है या कृष्ण’ यह संशय उत्पन्न होता है। फिर ‘शुक्ल होना चाहिए’ ऐसी जानने की आकांक्षा रूप ईहा होती है। तदनन्तर ‘यह शुक्ल ही है, कृष्ण नहीं’ ऐसा निश्चयरूप अवाय हो जाता है। अवाय से निर्णय किये गये पदार्थ का आगे जाकर अविस्मरण न हो, ऐसा संस्कार उत्पन्न होना धारणा है। इस प्रकार श्रोत्र आदि इन्द्रियों व मन के सम्बन्ध में लगा लेना चाहिए। (देखें [[ क्रमपूर्वक अवग्रह आदि के लक्षण ]]), (श्लो.वा.3/1/15/श्लो.2-4/437), (गो.जी.जी.प्र./308-309/663,665)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> अवग्रहादि सभी भेदों के सर्वत्र होने का नियम नहीं है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3"> अवग्रहादि सभी भेदों के सर्वत्र होने का नियम नहीं है</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-1,14/18/8 <span class="PrakritText">ण च ओग्गहादि चउण्हं पि णाणाणं सव्वत्थ कमेण उत्पत्ती, तहाणुवलंभा। तदो कहिं पि ओग्गहो चेय, कहिं पि ओग्गहो ईहा य दो च्चेय, कहिं पि ओग्गहो ईहा अवाओ तिण्णि वि होंति, कहिं पि ओग्गहो ईहा अवाओ धारणा चेदि चत्तारि वि होंति।</span> = <span class="HindiText">अवग्रह आदि चारों ही ज्ञानों की सर्वत्र क्रम से उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि, उस प्रकार की व्यवस्था पायी नहीं जाती है। इसलिए कहीं तो केवल अवग्रह ज्ञान ही होता है; कहीं अवग्रह और ईहा, ये दो ज्ञान ही होते हैं; कहीं पर अवग्रह ईहा और अवाय, ये तीनों भी ज्ञान होते हैं; और कहीं पर अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों ही ज्ञान होते हैं।</span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,45/148/5 <span class="SanskritText">न चावग्रहादीनां चतुर्णां सर्वत्र क्रमेणोत्पत्तिनियम:, अवग्रहानन्तरं नियमेन संशयोत्पत्त्यदर्शनात्। न च संशयमन्तरेण विशेषाकाङ्क्षास्ति येनावग्रहान्नियमेन ईहोत्पद्यते। न चेहातो नियमेन निर्णय उत्पद्यते, क्वचिन्निर्णयानुत्पादिकाया ईहाया एव दर्शनात्। च चावायाद्धारणा नियमेनोत्पद्यते, तत्रापि व्यभिचारोपलम्भात्।</span> = <span class="HindiText">तथा अवग्रहादिक चारों की सर्वत्र से उत्पत्ति का नियम भी नहीं है, क्योंकि, अवग्रह के पश्चात् नियम से संशय की उत्पत्ति नहीं देखी जाती है और संशय के बिना विशेष की आकांक्षा होती नहीं है, जिससे कि अवग्रह के पश्चात् नियम से ईहा उत्पन्न हो। न ही ईहा से नियमत: निर्णय उत्पन्न होता है, क्योंकि, कहीं पर निर्णय को उत्पन्न न करने वाला ईहा प्रत्यय ही देखा जाता है। अवाय से धारणा भी नियम से नहीं उत्पन्न होती, क्योंकि, उसमें भी व्यभिचार पाया जाता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4">मति स्मृति आदि की एकार्थता सम्बन्धी शंका</strong>-<strong>समाधान</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="3.4" id="3.4"></a>मति स्मृति आदि की एकार्थता सम्बन्धी शंका</strong>-<strong>समाधान</strong> <br /> | ||
देखें [[ मतिज्ञान#1.1.2.2 | मतिज्ञान - 1.1.2.2 ]](मति, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क व आभिनिबोध, ये सब पर्यायवाची नाम हैं)।</span><br /> | |||
स.सि./ | स.सि./1/13/107/1 <span class="SanskritText">सत्यपि प्रकृतिभेदे रूढिबलाभावात् पर्यायशब्दत्वम्। यदा इन्द्र: शक्र: पुरन्दर इति इन्दनादिक्रियाभेदेऽपि शचीपतेरेकस्यैव संज्ञा। समभिरूढनयापेक्षया तेषामर्थान्तरकल्पनायां मत्यादिष्वपि स क्रमो विद्यत तव। किंतु मतिज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्तोपयोगं नातिवर्त्तन्त इति अयमत्रार्थो विवक्षित:। ‘इति’ शब्दः प्रकारार्थ:। एवंप्रकारा अस्य पर्यायशब्दा इति। अभिधेयार्थो वा। मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ता आभिनिबोध इत्येतैर्योऽर्थोऽभिधीयते स एक एव इति।</span> = | ||
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<li class="HindiText"> यद्यपि इन शब्दों को प्रकृति या व्युत्पत्ति अलग-अलग है, तो भी रूढि से ये पर्यायवाची हैं। जैसे–इन्द्र, शक्र और पुरन्दर। इनमें यद्यपि इन्दन आदि क्रियाओं की अपेक्षा भेद है तो भी ये सब एक शचीपति की वाचक संज्ञाएँ हैं। अब यदि समभिरूढ नय की अपेक्षा इन शब्दों का अलग-अलग अर्थ लिया जाता है तो वह क्रम मति स्मृति आदि शब्दों में भी पाया जाता है। </li> | <li class="HindiText"> यद्यपि इन शब्दों को प्रकृति या व्युत्पत्ति अलग-अलग है, तो भी रूढि से ये पर्यायवाची हैं। जैसे–इन्द्र, शक्र और पुरन्दर। इनमें यद्यपि इन्दन आदि क्रियाओं की अपेक्षा भेद है तो भी ये सब एक शचीपति की वाचक संज्ञाएँ हैं। अब यदि समभिरूढ नय की अपेक्षा इन शब्दों का अलग-अलग अर्थ लिया जाता है तो वह क्रम मति स्मृति आदि शब्दों में भी पाया जाता है। </li> | ||
<li class="HindiText"> किन्तु ये मति आदि मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमरूप निमित्त से उत्पन्न हुए उपयोग को उल्लंघन नहीं करते हैं, यह अर्थ यहाँ पर विवक्षित है। </li> | <li class="HindiText"> किन्तु ये मति आदि मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमरूप निमित्त से उत्पन्न हुए उपयोग को उल्लंघन नहीं करते हैं, यह अर्थ यहाँ पर विवक्षित है। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> अथवा प्रकृत में (सूत्र में) ‘इति’ शब्द प्रकारार्थवाची है, जिसका यह अर्थ होता है, कि इस प्रकार ये मति आदि मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्द हैं। अथवा प्रकृत में ‘मति’ शब्द अभिधेयवाची है, जिसके अनुसार यह अर्थ होता है कि मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध इनके द्वारा जो अर्थ कहा जाता है, वह एक ही है। (रा.वा./ | <li><span class="HindiText"> अथवा प्रकृत में (सूत्र में) ‘इति’ शब्द प्रकारार्थवाची है, जिसका यह अर्थ होता है, कि इस प्रकार ये मति आदि मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्द हैं। अथवा प्रकृत में ‘मति’ शब्द अभिधेयवाची है, जिसके अनुसार यह अर्थ होता है कि मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध इनके द्वारा जो अर्थ कहा जाता है, वह एक ही है। (रा.वा./1/13/2-3/58/1;9/59/5 में उपरोक्त तीनों विकल्प हैं)।</span><br /> | ||
रा.वा. | रा.वा.1/13/3-7/58/10-32 <span class="SanskritText">यस्य शब्दभेदोऽर्थभेदे हेतुरिति मतम् तस्य वागादि नवार्थेषु गोशब्दाभेददर्शनाद् वागाद्यर्थानामेकत्वमस्तु। अथ नैतदिष्टम्; न तर्हि शब्दभेदोऽन्यत्वस्य हेतु:। किंच ... मत्यादीनामेकद्रव्यपर्यायादेशात् स्यादेकत्वं प्रतिनियतपर्यायादेशाच्च स्यान्नानात्वम्–मननं मति:, स्मरणं स्मृति ... इति। स्यान्मतम्–मत्यादय अभिनिबोधपर्यायशब्दा नाभिनिबोधस्य लक्षणम्। कथम्। मनुष्यादिवत्। ... तन्न, किं कारणम्। ततोऽनन्यत्वात्। इह पर्यायिणोऽनन्य: पर्यायशब्द:, स लक्षणम्। कथम्। औष्ण्याग्निवत्। तथा पर्यायशब्दा मत्यादय आभिनिबोधिकज्ञानपर्यायिणोऽनन्यत्वेन अभिनिबोधस्य लक्षणम्। अथवा ततोऽनन्यत्वात्। ... मतिस्मृत्यादयोऽसाधारणत्वाद् अन्यज्ञानासंभाविनोऽभिनिबोधादनन्यत्वात्तस्य लक्षणम्। इतश्च पर्यायशब्दो लक्षणम्। कस्मात्। ...का मति:। या स्मृतिरिति। तत: स्मृतिरिति गत्वा बुद्धिः प्रत्यागच्छति। का स्मृति:। या मतिरिति। एवमुत्तरेष्वपि।</span> = </li> | ||
<li> <span class="HindiText">यदि शब्द भेद से अर्थभेद है तो शब्द–अभेद से अर्थ-अभेद भी होना चाहिए। और इस प्रकार पृथिवी आदि ग्यारह शब्द एक ‘गो’ अर्थ के वाचक होने के कारण एक हो जायेंगे। </span></li> | <li> <span class="HindiText">यदि शब्द भेद से अर्थभेद है तो शब्द–अभेद से अर्थ-अभेद भी होना चाहिए। और इस प्रकार पृथिवी आदि ग्यारह शब्द एक ‘गो’ अर्थ के वाचक होने के कारण एक हो जायेंगे। </span></li> | ||
<li class="HindiText"> अथवा मतिज्ञानावरण से उत्पन्न मतिज्ञानसामान्य की अपेक्षा से अथवा एक आत्मद्रव्य की दृष्टि से मत्यादि अभिन्न हैं और प्रतिनियत | <li class="HindiText"> अथवा मतिज्ञानावरण से उत्पन्न मतिज्ञानसामान्य की अपेक्षा से अथवा एक आत्मद्रव्य की दृष्टि से मत्यादि अभिन्न हैं और प्रतिनियत तत्-तत् पर्याय की दृष्टि से भिन्न हैं। जैसे–‘मननं मति:’, ‘स्मरणं स्मृति’ इत्यादि। <strong>प्रश्न</strong>–</li> | ||
<li class="HindiText"> मति आदि आभिनिबोध के पर्यायवाची शब्द हैं। वे उसके लक्षण नहीं हो सकते, जैसे मनुष्य, मानव, मनुज आदि शब्द मनुष्य के लक्षण नहीं हैं। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, वे सब अनन्य हैं। पर्याय पर्यायी से अभिन्न होती है। इसलिए उसका वाचक शब्द उस पर्यायी का लक्षण होता है, जैसे अग्नि का लक्षण उष्णता है। उसी प्रकार मति आदि पर्यायवाची शब्द आभिनिबोधिक सामान्य ज्ञानात्मक मतिज्ञानरूप पर्यायी के लक्षण होते हैं; क्योंकि, वे उससे अभिन्न हैं। </li> | <li class="HindiText"> मति आदि आभिनिबोध के पर्यायवाची शब्द हैं। वे उसके लक्षण नहीं हो सकते, जैसे मनुष्य, मानव, मनुज आदि शब्द मनुष्य के लक्षण नहीं हैं। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, वे सब अनन्य हैं। पर्याय पर्यायी से अभिन्न होती है। इसलिए उसका वाचक शब्द उस पर्यायी का लक्षण होता है, जैसे अग्नि का लक्षण उष्णता है। उसी प्रकार मति आदि पर्यायवाची शब्द आभिनिबोधिक सामान्य ज्ञानात्मक मतिज्ञानरूप पर्यायी के लक्षण होते हैं; क्योंकि, वे उससे अभिन्न हैं। </li> | ||
<li class="HindiText"> ‘मतिज्ञान कौन’ यह प्रश्न होने पर बुद्धि तुरन्त दौड़ती है कि ‘जो स्मृति आदि’ और ‘स्मृति आदि कौन’ ऐसा कहने पर ‘जो मतिज्ञान’ इस प्रकार गत्वा प्रत्यागत न्याय से भी पर्याय शब्द लक्षण बन सकते हैं।</li> | <li class="HindiText"> ‘मतिज्ञान कौन’ यह प्रश्न होने पर बुद्धि तुरन्त दौड़ती है कि ‘जो स्मृति आदि’ और ‘स्मृति आदि कौन’ ऐसा कहने पर ‘जो मतिज्ञान’ इस प्रकार गत्वा प्रत्यागत न्याय से भी पर्याय शब्द लक्षण बन सकते हैं।</li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> स्मृति और प्रत्यभिज्ञान में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5"> स्मृति और प्रत्यभिज्ञान में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
न्या.दी./ | न्या.दी./3/10/57/3 <span class="SanskritText">केचिदाहु:–अनुभवस्मृतिव्यतिरिक्तं प्रत्यभिज्ञानं नास्तीति; तदसत्; अनुभवस्य वर्त्तमानकालवर्त्तिविवर्त्तमात्रप्रकाशकत्वम्, स्मृतेश्चातीतविवर्त्तद्योतकत्वमिति तावद्वस्तुगति:। कथं नाम तयोरतीतवर्त्तमानसंकलितैक्यसादृश्यादिविषयावगाहित्वम्। तस्मादस्ति स्मृत्यनुभवातिरिक्तं तदनन्तरभाविसंकलनज्ञानम्। तदेव प्रत्यभिज्ञानम्। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अनुभव और स्मरण से भिन्न प्रत्यभिज्ञान नहीं है। <strong>उत्तर</strong>–यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनुभव तो वर्तमानकालीन पर्याय को ही विषय करता है और स्मरण भूतकालीन पर्याय का ही द्योतन करता है। इसलिए ये दोनों अतीत और वर्त्तमान पर्यायों में रहने वाली एकता सदृशता आदि को कैसे विषय कर सकते हैं। अत: स्मरण और अनुभव से भिन्न उनके बाद में होने वाला तथा उन एकता सदृशता आदि को विषय करने वाला जो जोड़रूप ज्ञान होता है, वही प्रत्यभिज्ञान है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6">स्मृति आदि की अपेक्षा मतिज्ञान का उत्पत्तिक्रम</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6">स्मृति आदि की अपेक्षा मतिज्ञान का उत्पत्तिक्रम</strong> </span><br /> | ||
न्या.दी./ | न्या.दी./3/3/53 <span class="SanskritText">तत् पञ्चविधम्–स्मृति:, प्रत्यभिज्ञानम्, तर्क:, अनुमानम् आगमश्चेति। पञ्चविधस्याप्यस्य परोक्षस्य प्रत्ययान्तरसापेक्षत्वेनैवोत्पत्ति:। तद्यथा–स्मरणस्य प्रावतनानुभवापेक्षा, प्रत्यभिज्ञानस्य स्मरणानुभवापेक्षा, तर्कस्यानुभवस्मरणप्रत्यभिज्ञानापेक्षा, अनुमानस्य च लिङ्गदर्शनाद्यपेक्षा।</span><br /> | ||
न्या.दी./ | न्या.दी./3/नं./पृष्ठ नं. <span class="SanskritText">अवग्रहाद्यनुभूतेऽपि धारणाया अभावे स्मृतिजननायोगात्। ... तदेतद्धारणाविषये समुत्पन्नं तत्तोल्लेखिज्ञानं स्मृतिरिति सिद्धम्।(4/53)। अनुभवस्मृतिहेतुकं संकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम्।(8/56)। अत्र सर्वत्राप्यनुभवस्मृतिसापेक्षत्वात्तद्वेतुकत्वम्।(9/57)। स्मरणम् प्रत्यभिज्ञानम्, भूयोदर्शनरूपं प्रत्यक्षं च मिलित्वा तादृशमेकं ज्ञानं जनयन्ति यद्वयाप्तिग्रहणसमर्थमिति, तर्कश्च स एव। (15/64)। तद्वल्लिङ्गज्ञानं व्याप्तिस्मरणादिसहकृतमनुमानोत्पत्तौ निबन्धनमित्येतत्सुसङ्गतमेव।(17/67)</span> = <span class="HindiText">परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं- स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम। ये पाँचों ही परोक्ष प्रमाण ज्ञानान्तर की अपेक्षा से उत्पन्न होते हैं। स्मरण में पूर्व अनुभव की अपेक्षा होती है, प्रत्यभिज्ञान में स्मरण और अनुभव की, तर्क में अनुभव स्मरण और प्रत्यभिज्ञान की और अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरण आदि की अपेक्षा होती है। पदार्थ में अवग्रह आदि ज्ञान हो जाने पर भी (देखें [[ मतिज्ञान#3.2 | मतिज्ञान - 3.2]]) धारणा के अभाव में स्मृति उत्पन्न नहीं होती। इसलिये धारणा के विषय में उत्पन्न हुआ ‘वह’ शब्द से उल्लिखित होने वाला यह ज्ञान स्मृति है, यह सिद्ध होता है। अनुभव और स्मरणपूर्वक होने वाले जोड़रूप ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। सभी प्रत्यभिज्ञानों में अनुभव और स्मरण की अपेक्षा होने से उन्हें अनुभव और स्मरण हेतुक माना जाता है। स्मरण प्रत्यभिज्ञान और अनेकों बार का हुआ प्रत्यक्ष ये तीनों मिलकर एक वैसे ज्ञान को उत्पन्न करते हैं, जो व्याप्ति के ग्रहण करने में समर्थ है, और वही तर्क है। उसी प्रकार व्याप्तिस्मरण आदि से सहित होकर लिंगज्ञान अनुमान की उत्पत्ति में कारण होता है। भावार्थ–(विषय-विषयी के सन्निपात के अनन्तर क्रम से उस विवक्षित इन्द्रिय सम्बन्धी दर्शन, अवग्रह, ईहा और अवायपूर्वक उस विषय सम्बन्धी धारणा उत्पन्न हो जाती है, जो कालान्तर में उस विषय के स्मरण का कारण होता है। किसी समय उसी विषय का या वैसे ही विषय का प्रत्यक्ष होने पर तत्सम्बन्धी स्मृति को साथ लेकर ‘यह वही है’ या ‘यह वैसा ही है’ ऐसा प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता है। पुन: पुन: इसी प्रकार अनेकों बार उसी विषय का प्रत्यभिज्ञान हो जाने पर एक प्रकार का व्याप्तिज्ञान उत्पन्न हो जाता है, जिसे तर्क कहते हैं। जैसे ‘जहाँ जहाँ धूम होगा वहाँ अग्नि अवश्य ही होगी’, ऐसा ज्ञान। पीछे किसी समय इसी प्रकार का कोई लिंग देखकर उस तर्क के आधार पर लिंगी को जान लेना अनुमान है। जैसे पर्वत में धूम देखकर ‘यहाँ अग्नि अवश्य है’ ऐसा निर्णयात्मक ज्ञान हो जाता है। उपरोक्त सर्व विकल्पों में अवग्रह से तर्क पर्यन्त के सर्व विकल्प मतिज्ञान के भेद हैं, जो उपरोक्त क्रम से ही उत्पन्न होते हैं, अक्रम से नहीं। तर्कपूर्वक उत्पन्न होने वाला अन्तिम विकल्प अनुमान श्रुतज्ञान के अधीन है। इसी प्रकार किसी शब्द को सुनकर वाच्यवाचक की पूर्व गृहीत व्याप्ति के आधार पर उस शब्द के वाच्य का ज्ञान हो जाना भी श्रुतज्ञान है।)<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> बहु व बहुविध ज्ञानों के लक्षण </strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1"> बहु व बहुविध ज्ञानों के लक्षण </strong></span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/16/112/5 <span class="SanskritText">बहुशब्दस्य संख्यावैपुल्यवाचिनो ग्रहणमविशेषात्। संख्यावाची यथा एको द्वौ बहव इति। वैपुल्यवाची यथा, बहुरोदनो बहुसूप इति। ‘विधशब्द: प्रकारवाची’।</span> = <span class="HindiText">‘बहु’ शब्द संख्यावाची और वैपुल्यवाची दोनों प्रकार का है। इन दोनों का यहाँ ग्रहण किया है, क्योंकि उनमें कोई विशेषता नहीं है। संख्यावाची ‘बहु’ शब्द यथा–एक, दो बहुत। वैपुल्यवाची बहु शब्द यथा–बहुत भात, बहुत दाल। ‘विध’ शब्द प्रकारवाची है। (जैसे बहुत प्रकार के घोड़े, गाय, हाथी आदि–ध./6, ध/9, ध/13 गो.जी.) (रा.वा./1/16/1/62/12,9/63/14); (ध.6/1,1-1,14/19/3-20/1); (ध.9/4,1,45/149/1,151/4); (ध.13/5,5,35/235/1,237/1); (गो.जी./जी.प्र./311/667/11)।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/16/16/63/28 <span class="SanskritText">प्रकृष्ट ... क्षयोपशम ... उपष्टम्भात् ... युगपत्ततविततघनसुषिरादिशब्दश्रवणाद् बहुशब्दमवगृह्णाति। ... ततादिशब्दविकल्पस्य प्रत्येकमेकद्वित्रिचतु:संख्येयासंख्येयानन्तगुणस्यावग्राहकत्वात् बहुविधमवगृह्णाति। ... (एवं घ्राणाद्यवग्रहेष्वपि योज्यम्/65/9)। </span>=<span class="HindiText"> श्रोत्रेन्द्रावरणादिका प्रकृष्ट क्षयोपशम होने पर युगपत् तत, वित, घन, सुषिर आदि बहुत शब्दों को सुनता है, तथा तत आदि शब्दों के एक दो तीन चार संख्यात असंख्यात अनन्त प्रकारों को ग्रहण कर बहुविध शब्दों को जानता है। इसी प्रकार घ्राणादि अन्य इन्द्रियों में भी लागू करना चाहिए। (ध.13/5,5,35/237/2)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2">बहु व बहुविध ज्ञानों में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2">बहु व बहुविध ज्ञानों में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/16/113/7<span class="SanskritText"> बहुबहुविधयो: क: प्रतिविशेष:; यावता बहुष्वपि बहुत्वमस्ति बहुविधेष्वपि बहुत्मस्ति; एकप्रकारानेकप्रकारकृतो विशेष:।<br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/16/64/16 उच्यते–न, विशेषदर्शनात्। यथा कश्चित् बहूनि शात्राणि मौलेन सामान्यार्थेनाविशेषितेन व्याचष्टे न तु बहुभिर्विशेषितार्थै:, कश्चिच्च तेषामेव बहूनां शात्राणां बहुभिरर्थै: परस्परातिशययुक्तैर्बहुविकल्पैर्व्याख्यानं करोति, तथा ततादिशब्दग्रहणाविशेषेऽपि यत्प्रत्येकं ततादिशब्दानाम् एकद्वित्रिचतु:संख्येयासंख्येयानन्तगुणपरिणतानां ग्रहणं तद् बहुविधग्रहणम्, यत्ततादीनां सामान्यग्रहणं तद् बहुग्रहणम्।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–बहु और बहुविध में क्या अन्तर है, क्योंकि, बहु और बहुविध इन दोनों में बहुतपना पाया जाता है? <strong>उत्तर</strong>–इनमें एक प्रकार और नाना प्रकार की अपेक्षा अन्तर है। अर्थात् बहु में प्रकारभेद इष्ट नहीं है और बहुविध में प्रकारभेद इष्ट है। जैसे कोई बहुत शात्रों का सामान्यरूप से व्याख्यान करता है परन्तु उसके बहुत प्रकार के विशेष अर्थों से नहीं; और दूसरा उन्हीं शात्रों की बहुत प्रकार के अर्थों द्वारा परस्पर में अतिशययुक्त अनेक विकल्पों में व्याख्याएँ करता है; उसी प्रकार तत आदि शब्दों के ग्रहण में विशेषता न होते हुए भी जो उनमें से प्रत्येक तत आदि एक दो तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनन्त गुणरूप से परिणत शब्दोंका ग्रहण है सो बहुविध ग्रहण है; और उन्हीं का जो सामान्य ग्रहण है, वह बहुग्रहण है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> बहु विषयक ज्ञान की सिद्धि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> बहु विषयक ज्ञान की सिद्धि</strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./116/2-7/62/15<span class="SanskritText"> बह्ववग्रहाद्यभाव: प्रत्यर्थवशवर्तित्वादिति चेत्; न; सर्वदैकप्रत्ययप्रसङ्गात्।2। ... अतश्चानेकार्थग्राहिविज्ञानस्यात्यन्तासंभवात् नगरवनस्कन्धावारप्रत्ययनिवृति:। नैता: संज्ञा ह्येकार्थनिवेशिन्य:, तस्माल्लोकसंव्यवहारनिवृत्ति:। किंच, नानार्थप्रत्ययाभावात्।3। ... यथैकं मनोऽनेकप्रत्ययारम्भकं तथैकप्रत्ययोऽनेकार्थो भविष्यति, अनेकस्य प्रत्ययस्यैककालसंभवात्। ... ननु सर्वथैकार्थमेकमेव ज्ञानमिति, अत: ‘इदमस्मादन्यत्’ इत्येष व्यवहारो न स्यात्। ... किंच, आपेक्षिकसंव्यवहारविनिवृत्ते:।4। ... मध्यमाप्रदेशिन्योर्युगपदनुपलम्भात् तद्विषयदीर्घह्नस्वव्यवहारो विनिवर्तेत। .. किंच, संशयाभावप्रसङ्गात्।5। एकार्थविषयवर्तिनि विज्ञाने, स्थाणौ पुरुषे वा प्राक्प्रत्ययजन्म स्यात्, नोभयो: प्रतिज्ञातविरोधात्। ... किंच, ईप्सितनिष्पत्त्यनियमात्।6। ... चैत्रस्य पूर्णकलशमालिखत: ... अनेकविज्ञानोत्पादनिरोधक्रमे सति अनियमेन निष्पत्ति: स्यात्। ... किंच, द्वित्र्यादिप्रत्ययाभावाच्च।7। ... यतो नैकं विज्ञानं द्वित्राद्यर्थानां ग्राहकमिति।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–जब एक ज्ञान एक ही अर्थ को ग्रहण करता है, तब बहु आदि विषयक अवग्रह नहीं हो सकता। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, इस प्रकार सदा एक ही प्रत्यय होने का प्रसंग आता है। | ||
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<li class="HindiText"> अनेकार्थग्राही ज्ञान का अत्यन्ताभाव होने पर नगर, वन, सेना आदि बहुविषयक ज्ञान नहीं हो सकेंगे। ये संज्ञाएँ एकार्थविषयक नहीं हैं, अत: समुदायविषयक समस्त लोकव्यवहारों का लोप ही हो जायेगा। </li> | <li class="HindiText"> अनेकार्थग्राही ज्ञान का अत्यन्ताभाव होने पर नगर, वन, सेना आदि बहुविषयक ज्ञान नहीं हो सकेंगे। ये संज्ञाएँ एकार्थविषयक नहीं हैं, अत: समुदायविषयक समस्त लोकव्यवहारों का लोप ही हो जायेगा। </li> | ||
<li class="HindiText"> जिस प्रकार (आप बौद्धों के यहाँ) एक मन अनेक ज्ञानों को उत्पन्न कर सकता है, उसी तरह एक ज्ञान को अनेक अर्थों को विषय करने वाला मानने में | <li class="HindiText"> जिस प्रकार (आप बौद्धों के यहाँ) एक मन अनेक ज्ञानों को उत्पन्न कर सकता है, उसी तरह एक ज्ञान को अनेक अर्थों को विषय करने वाला मानने में क्या आपत्ति है। </li> | ||
<li class="HindiText"> यदि ज्ञान एकार्थग्राही ही माना जायेगा तो ‘यह इससे अन्य है’ इस प्रकार का व्यवहार न हो सकेगा। </li> | <li class="HindiText"> यदि ज्ञान एकार्थग्राही ही माना जायेगा तो ‘यह इससे अन्य है’ इस प्रकार का व्यवहार न हो सकेगा। </li> | ||
<li class="HindiText"> एकार्थग्राहिविज्ञानवाद में मध्यमा और प्रदेशिनी अंगुलियों में होने वाले ह्रस्व, दीर्घ आदि समस्त व्यवहारों का लोप हो जायगा। </li> | <li class="HindiText"> एकार्थग्राहिविज्ञानवाद में मध्यमा और प्रदेशिनी अंगुलियों में होने वाले ह्रस्व, दीर्घ आदि समस्त व्यवहारों का लोप हो जायगा। </li> | ||
<li class="HindiText"> संशयज्ञान के अभाव का प्रसंग आयेगा, क्योंकि या तो स्थाणु का ज्ञान होगा या पुरुष का ही। एक साथ दोनों का ज्ञान न हो सकेगा। </li> | <li class="HindiText"> संशयज्ञान के अभाव का प्रसंग आयेगा, क्योंकि या तो स्थाणु का ज्ञान होगा या पुरुष का ही। एक साथ दोनों का ज्ञान न हो सकेगा। </li> | ||
<li class="HindiText"> किसी भी इष्ट अर्थ की सम्पूर्ण उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। पूर्ण कलश का चित्र बनाने वाला चित्रकार उस चित्र को न बना सकेगा, क्योंकि | <li class="HindiText"> किसी भी इष्ट अर्थ की सम्पूर्ण उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। पूर्ण कलश का चित्र बनाने वाला चित्रकार उस चित्र को न बना सकेगा, क्योंकि युगपत् दो तीन ज्ञानों के बिना वह उत्पन्न नहीं होता। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> इस पक्ष में दो तीन आदि बहुसंख्या विषयक प्रत्यय न हो सकेंगे, क्योंकि वैसा मानने पर कोई भी ज्ञान दो तीन आदि समूहों को जान ही न सकेगा। उपरोक्त सर्व विकल्प (ध. | <li><span class="HindiText"> इस पक्ष में दो तीन आदि बहुसंख्या विषयक प्रत्यय न हो सकेंगे, क्योंकि वैसा मानने पर कोई भी ज्ञान दो तीन आदि समूहों को जान ही न सकेगा। उपरोक्त सर्व विकल्प (ध.9/4,1,45/149/3); (ध.13/5,5,35/235/3)।</span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,35/236/6 <span class="SanskritText">यौगपद्येन बह्ववग्रहाभावात् योग्यप्रदेशस्थितमङ्गुलिपञ्चकं न प्रतिभासेत। न परिच्छिद्यमानार्थभेदाद्विज्ञानभेद:, नानास्वभावस्यैकस्यैव त्रिकोटिपरिणन्तुर्विज्ञानस्योपलम्भात्। न शक्तिभेदो वस्तुभेदस्य कारणम् पृथक् पृथगर्थक्रियाकर्तृत्वाभावात्तेषां वस्तुत्वादनुपपत्ते:, </span>=</li> | ||
<li class="HindiText"> एक साथ बहुत का ज्ञान नहीं हो सकने के कारण | <li class="HindiText"> एक साथ बहुत का ज्ञान नहीं हो सकने के कारण योग्य प्रदेशों में स्थित अंगुलिपंचक का ज्ञान नहीं हो सकता। (ध.6/1,9-1,14/19/3)। </li> | ||
<li class="HindiText"> ‘जाने गये अर्थ में भेद होने से विज्ञान में भी भेद है’, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि नाना स्वभाववाला एक ही त्रिकोटिपरिणत विज्ञान उपलब्ध होता है। </li> | <li class="HindiText"> ‘जाने गये अर्थ में भेद होने से विज्ञान में भी भेद है’, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि नाना स्वभाववाला एक ही त्रिकोटिपरिणत विज्ञान उपलब्ध होता है। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> ‘शक्तिभेद वस्तुभेद का कारण है’, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, अलग-अलग अर्थ क्रिया न होने से उन्हें वस्तुभूत नहीं माना जा सकता।–(अत: बहुत पदार्थों का एक ज्ञान के द्वारा अवग्रह होना सिद्ध है)।</span><br /> | <li><span class="HindiText"> ‘शक्तिभेद वस्तुभेद का कारण है’, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, अलग-अलग अर्थ क्रिया न होने से उन्हें वस्तुभूत नहीं माना जा सकता।–(अत: बहुत पदार्थों का एक ज्ञान के द्वारा अवग्रह होना सिद्ध है)।</span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,45/151/1 <span class="SanskritText">प्रतिद्रव्यभिन्नानां प्रत्ययानां कथमेकत्वमिति चेन्नाक्रमेणैकजीवद्रव्यवर्तिनां परिच्छेद्यभेदेन बहुत्वमादधानानामेकत्वाविरोधात्।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–</span></li> | ||
<li class="HindiText"> प्रत्येक द्रव्य में भेद को प्राप्त हुए प्रत्ययों के एकता कैसे सम्भव है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, | <li class="HindiText"> प्रत्येक द्रव्य में भेद को प्राप्त हुए प्रत्ययों के एकता कैसे सम्भव है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, युगपत् एक जीव द्रव्य में रहने वाले और ज्ञेय पदार्थों के भेद से प्रचुरता को प्राप्त हुए प्रत्ययों की एकता में कोई विरोध नहीं है।</li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> एक व एकविधि ज्ञानों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.4" id="4.4"> एक व एकविधि ज्ञानों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/16/16/63/30 <span class="SanskritText">अल्पश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमपरिणाम आत्मा ततशब्दादीनामन्यतममल्पं शब्दमवगृह्णाति। ... तदादि शब्दानामेकविधावग्रहणात् एकविधमवगृह्णाति। ... (एवं घ्राणाद्यवग्रहेष्वपियोज्यम्)।</span> = <span class="HindiText">अल्प श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशम से परिणत आत्मा तत आदि शब्दों में से अन्यतम शब्द को ग्रहण करता है, तथा उनमें से एक प्रकार के शब्द को ही सुनता है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों में भी लागू कर लेना।</span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-1,14/पृ./पंक्ति <span class="PrakritText">एक्कस्सेव वत्थुवलंभो एयावग्गहो।(19/4)। एयपयारग्गहणमेयविहावग्गहो। (20/1)।</span> = <span class="HindiText">एक ही वस्तु के उपलम्भ को एक अवग्रह कहते हैं और एक प्रकार के पदार्थ का ग्रहण करना एकविध अवग्रह है। (ध.9/4,1,45/151/3,152/3); (ध.13/5,5,35/236/10,237/8); (गो.जी./जी.प्र./311/667/12)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5">एक व एकविध ज्ञानों में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.5" id="4.5">एक व एकविध ज्ञानों में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-1,14/20/2 <span class="PrakritText">एय-एयविहाणं को विसेसो। उच्चदे–एगस्स गहणं एयावग्गहो, एगजाईए ट्ठिदएयस्स बहूणं वा गहणमेयविहावग्गहो।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–एक और एकविध में क्या भेद है ? <strong>उत्तर</strong>–एक व्यक्तिरूप पदार्थ का ग्रहण करना एक अवग्रह है और एक जाति में स्थित एक पदार्थ का अथवा बहुत पदार्थों का ग्रहण करना एकविध अवग्रह है। (ध.9/4,1,45/152/3); (ध.13/5,5,35/237/8)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.6" id="4.6">एक विषयक ज्ञान की सिद्धि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="4.6" id="4.6"></a>एक विषयक ज्ञान की सिद्धि</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-1,14/19/4 <span class="PrakritText">अणेयंतवत्थुवलंभा एयावग्गहो णत्थि। अह अत्थि, एयंतसिद्धिपसज्जदे एयंतग्गाहयपमाणस्सुवलंभा इदि चे, ण एस दोसो, एयवत्थुग्गाहओ अववोहो एयावग्गहो उच्चदि। ण च विहिपडिसेहधम्माणं वत्थुतमत्थि जे तत्थ अणेयावग्गहो होज्ज। किन्तु विहिपडिसेहारद्धमेयं वत्थू, तस्स उवलंभो एयावग्गहो। अणेयवत्थुविसओ अवबोहो अणेयावग्गहो। पडिहासो पुण सव्वो अणेयंतविसओ चेय, विहिपडिसेहाणमण्णदरस्सेव अणुवलंभा।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–वस्तु अनेक धर्मात्मक है, इसलिए एक अवग्रह नहीं होता। यदि होता है तो एक धर्मात्मक वस्तु की सिद्धि प्राप्त होती है, क्योंकि एक धर्मात्मक वस्तु को ग्रहण करने वाला प्रमाण पाया जाता है। <strong>उत्तर</strong>– | ||
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<li class="HindiText"> यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एक वस्तु का ग्रहण करने वाला ज्ञान एक अवग्रह कहलाता है तथा विधि और प्रतिषेध धर्मों के वस्तुपना नहीं है, जिससे उनमें अनेक अवग्रह हो सकें। किन्तु विधि और प्रतिषेध धर्मों के समुदायात्मक एक वस्तु होती है, उस प्रकार की वस्तु के उपलम्भ को एक अवग्रह कहते हैं। </li> | <li class="HindiText"> यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एक वस्तु का ग्रहण करने वाला ज्ञान एक अवग्रह कहलाता है तथा विधि और प्रतिषेध धर्मों के वस्तुपना नहीं है, जिससे उनमें अनेक अवग्रह हो सकें। किन्तु विधि और प्रतिषेध धर्मों के समुदायात्मक एक वस्तु होती है, उस प्रकार की वस्तु के उपलम्भ को एक अवग्रह कहते हैं। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> अनेक वस्तुविषयक ज्ञान को अनेक अवग्रह कहते हैं, किन्तु प्रतिभास तो सर्व ही अनेक धर्मों का विषय करने वाला होता है, क्योंकि, विधि और प्रतिषेध इन दोनों में से किसी एक ही धर्म का अनुपलम्भ है, | <li><span class="HindiText"> अनेक वस्तुविषयक ज्ञान को अनेक अवग्रह कहते हैं, किन्तु प्रतिभास तो सर्व ही अनेक धर्मों का विषय करने वाला होता है, क्योंकि, विधि और प्रतिषेध इन दोनों में से किसी एक ही धर्म का अनुपलम्भ है, अर्थात् इन दोनों में से एक को छोड़कर दूसरा नहीं पाया जाता, दोनों ही प्रधान-अप्रधानरूप से साथ-साथ पाये जाते हैं। </span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,35/236/10 <span class="SanskritText">ऊर्ध्वाधो–मध्यभागाद्यवयवगतानेकत्वानुगतैकत्वोपलम्भान्नैक: प्रत्ययोऽस्तीति चेत्–न, एवं विधस्यैव जात्यन्तरीभूतस्यात्रैकत्वस्य ग्रहणात्। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–</span></li> | ||
<li class="HindiText"> चूँकि ऊर्ध्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग आदि रूप अवयवों में रहने वाली अनेकता से अनुगत एकता पायी जाती है, अतएव वह एक प्रत्यय नहीं है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यहाँ इस प्रकार की ही जात्यन्तरभूत एकता का ग्रहण किया है।</li> | <li class="HindiText"> चूँकि ऊर्ध्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग आदि रूप अवयवों में रहने वाली अनेकता से अनुगत एकता पायी जाती है, अतएव वह एक प्रत्यय नहीं है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, यहाँ इस प्रकार की ही जात्यन्तरभूत एकता का ग्रहण किया है।</li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> क्षिप्र व अक्षिप्र ज्ञानों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.7" id="4.7"> क्षिप्र व अक्षिप्र ज्ञानों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/16/112/7 <span class="SanskritText">क्षिप्रग्रहणमचिरप्रतिपत्त्यर्थं। </span>=<span class="HindiText"> क्षिप्र शब्द का ग्रहण जल्दी होने वाले ज्ञान को जतलाने के लिए है। (रा.वा./1/16/10/63/16)। </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/16/16/64/2 <span class="SanskritText">प्रकृष्टश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमादिपारिणामिकत्वात् क्षिप्रं शब्दमवगृह्णाति। अल्पश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमपारिणामिकत्वात् चिरेण शब्दमवगृह्णाति।</span> = <span class="HindiText">प्रकृष्ट श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशम आदि परिणाम के कारण शीघ्रता से शब्दों को सुनता है और क्षयोपशमादि की न्यूनता में देरी से शब्दों को सुनता है। (इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों पर भी लागू कर लेना )। </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-1,14/20/3 <span class="PrakritText">आसुग्गहणं खिप्पावग्गहो, सणिग्गहणमखिप्पावग्गहो। </span>= <span class="HindiText">शीघ्रतापूर्वक वस्तु को ग्रहण करना क्षिप्र अवग्रह है और शनै: शनै: ग्रहण करना अक्षिप्र अवग्रह है। (ध.9/4,1,45/152/4); (ध.13/5,5,35/237/9)।</span><br /> | ||
गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./311/667/14 <span class="SanskritText">क्षिप्र: शीघ्रपतञ्जलधाराप्रवाहादि:। ... अक्षिप्र: मन्दं गच्छन्नश्वादि:।</span> = <span class="HindiText">शीघ्रता से पड़ती जलधारा आदि का ग्रहण क्षिप्र है और मन्दगति से चलते हुए घोड़े आदि का अक्षिप्र अवग्रह है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8"> नि:सृत व अनि:सृत ज्ञानों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.8" id="4.8"> नि:सृत व अनि:सृत ज्ञानों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/16/112/7 <span class="SanskritText">अनि:सृतग्रहणं असकलपुद्गलोद्गमार्थम्।</span> = <span class="HindiText">(अनि:सृत अर्थात् ईषत् नि:सृत) कुछ प्रगट और कुछ अप्रगट, इस प्रकार वस्तु के कुछ भागों का ग्रहण होना और कुछ का न होना, अनि:सृत अवग्रह है। (रा.वा./1/16/11/63/18)।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/16/16/64/4<span class="SanskritText"> सुविशुद्धश्रोत्रादिपरिणामात् साकल्येनानुचारितस्य ग्रहणात् अनि:सृतमवगृह्णाति। नि:सृतं प्रतीतम्।</span> =<span class="HindiText"> क्षयोपशम की विशुद्धि में पूरे वाक्य का उच्चारण न होने पर भी उसका ज्ञान कर लेना अनि:सृत अवग्रह है और क्षयोपशम की न्यूनता में पूरे रूप से उच्चारित शब्द का ही ज्ञान करना नि:सृत अवग्रह है। </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-1,14/20/4 <span class="PrakritText">अहिमुहअत्थग्गहणं णिसियावग्गहो, अणहिमुहअत्थग्गहणं अणिसियावग्गहो। अहवा उवमाणोवमेयभावेण ग्गहण णिसियावग्गहो, जहा कमलदलणयणा त्ति। तेण विणा गहणं अणिसियावग्गहो।</span> = <span class="HindiText">अभिमुख अर्थ का ग्रहण करना नि:सृत अवग्रह है और अनभिमुख अर्थ का ग्रहण करना अनि:सृत अवग्रह है। अथवा, उपमान-उपमेय भाव के द्वारा ग्रहण करना नि:सृत अवग्रह है। जैसे–कमलदल-नयना अर्थात् इस त्री के नयन कमलदल के समान हैं। उपमान-उपमेय भाव के बिना ग्रहण करना अनि:सृत अवग्रह है। </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,45/पृष्ठ/पंक्ति- <span class="PrakritText">वस्त्वेकदेशमवलम्ब्य साकल्येन वस्तुग्रहणं वस्त्वेकदेशं समस्तं वा अवलम्ब्य तत्रासन्निहितवस्त्वन्तरविषयोऽप्यनि:सृतप्रत्य:।(152/5)। ...एतत्प्रतिपक्षो नि:सृतप्रत्य:, तथा क्वचित्कदाचिदुपलभ्यते च वस्त्वेकदेशे आलम्बनीभूते प्रत्ययस्य वृत्ति:। (153/8) ।</span> = <span class="HindiText">वस्तु के एकदेश का अवलम्बन करके पूर्ण रूप से वस्तु को ग्रहण करने वाला, तथा वस्तु के एकदेश अथवा समस्त वस्तु का अवलम्बन करके वहाँ अविद्यमान अन्य वस्तु को विषय करने वाला भी अनि:सृत प्रत्यय है। इसका प्रतिपक्षभूत नि:सृत प्रत्यय है, क्योंकि, कहीं पर किसी काल में आलम्बनीभूत वस्तु के एकदेश में उतने ही ज्ञान का अस्तित्व पाया जाता है। (गो.जी./मू./312/669)।</span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,35/पृष्ठ/पंक्ति― <span class="SanskritText">वस्त्वेकदेशस्य आलम्बनीभूतस्य ग्रहणकाले एकवस्तुप्रतिपत्ति: वस्त्वेकदेशप्रतिपत्तिकाल एव वा दृष्टान्तमुखेन अन्यथा वा अनवलम्बितवस्तुप्रतिपत्ति: अनुसंधानप्रत्यय: प्रत्यभिज्ञानप्रत्ययश्च अनि:सृतप्रत्यय:।(237/11)। ... एतत्प्रतिपक्षो नि:सृतप्रत्यय:, क्वचित्कदाचिद्वस्त्वेकदेश एवं प्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भात्।(238/11)।</span> = <span class="HindiText">आलम्बनीभूत वस्तु के एकदेश ग्रहण के समय में ही एक (पूरी) वस्तु का ज्ञान होना; या वस्तु के एकदेश के ज्ञान के समय में ही दृष्टान्तमुखेन या अन्य प्रकार से अनवलम्बित वस्तु का ज्ञान होना; तथा अनुसंधान प्रत्यय और प्रत्यभिज्ञान प्रत्यय–ये सब अनि:सृत प्रत्यय हैं। इससे प्रतिपक्षभूत नि:सृतप्रत्यय है, क्योंकि, कहीं पर किसी काल में वस्तु के एकदेश के ज्ञान की ही उत्पत्ति देखी जाती है।</span><br /> | ||
गो.जी./मू./ | गो.जी./मू./313/669 <span class="PrakritGatha">पुक्खरगहणे काले हत्थिस्स य वदणगवयगहणे वा। वत्थंतरचंदस्स य धेणुस्स य वोहणं च हवे।313। </span>= <span class="HindiText">तालाब में जलमग्न हस्ती की सूँड देखने पर पूरे हस्ती का ज्ञान होना; अथवा किसी त्री का मुख देखने पर चन्द्रमा का या ‘इसका मुख चन्द्रमा के समान है’ ऐसी उपमा का ज्ञान होना; अथवा गवय को देखकर गाय का ज्ञान होना, ये सब अनि:सृत अवग्रह हैं।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.9" id="4.9"> अनि:सृत ज्ञान और अनुमान में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.9" id="4.9"> अनि:सृत ज्ञान और अनुमान में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,35/238/3 <span class="SanskritText">अर्वाग्भागावष्टम्भबलेन अनालम्बितपरभागादिषूत्पपद्यमान: प्रत्यय: अनुमान किन्न स्यादिति चेत्–न, तस्य लिङ्गादभिन्नार्थविषयत्वात्। न तावदर्वाग्भागप्रत्ययसमकालभावी परभागप्रत्ययोऽनुमानम्, तस्यावग्रहरूपत्वात्। न भिन्नकालभाव्यप्यनुमानम्, तस्य ईहापृष्ठभाविन: अवायप्रत्ययेऽन्तर्भावात्।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अर्वाग्भाग के आलम्बन से अनालम्बित परभागादिकों का होने वाला ज्ञान अनुमानज्ञान क्यों नहीं होगा? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, अनुमानज्ञान लिंग से भिन्न अर्थ को विषय करता है। अर्वाग्भाग के ज्ञान के समान काल में होने वाला परभाग का ज्ञान तो अनुमान ज्ञान हो नहीं सकता, क्योंकि, वह अवग्रह स्वरूप ज्ञान है। भिन्न काल में होने वाला भी उक्त ज्ञान अनुमानज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि ईहा के पश्चात् उत्पन्न होने से उसका अवायज्ञान में अन्तर्भाव होता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.10" id="4.10"> अनि:सृत विषयक ज्ञान की सिद्धि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.10" id="4.10"> अनि:सृत विषयक ज्ञान की सिद्धि</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,45/152/7 <span class="SanskritText">न चायमसिद्ध:, घटार्वाग्भागमवलम्ब्य क्वचिद्घटप्रत्ययस्य उत्पत्त्युपलम्भात् क्वचिदर्वाग्भागैकदेशमवलम्ब्य तदुत्पत्त्युपलम्भात् क्वचिद् गौरव गवय इत्यन्यथा वा एकवस्त्ववलम्ब्य तत्रासंनिहितवस्त्वन्तविषयप्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भात् क्वचिदर्वादर्वाग्भागग्रहणकाल एव परभागग्रहणोपलम्भात्। न चायमसिद्ध:, वस्तुविषयप्रत्ययोत्पत्त्यन्यथानुपपत्ते:। न चार्वाग्भागमात्रं वस्तु, तत एव अर्थ क्रियाकृर्तत्वानुपलम्भात्। क्वचिदेकवर्णश्रवणकाल एव अभिधास्यमानवर्णविषयप्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भात्, क्वचित्स्वाभ्यस्तप्रदेशे एकस्पर्शोपलम्भकाल एव स्पर्शान्तरविशिष्टतद्वस्तुप्रदेशान्तरोपलम्भात क्वचिदेकरसग्रहणकाल एव तत्प्रदेशासंनिहितरसान्तरविशिष्टवस्तूपलम्भात्। नि:सृतमित्यपरे पठन्ति। तैरुपमाप्रत्यय एक एव संगृहीत: स्यात्, ततोऽसौ नेष्यते।</span> = | ||
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<li class="HindiText"> यह प्रत्यय असिद्ध नहीं है, क्योंकि, घट के अर्वाग्भाग का अवलम्बन करके कहीं घटप्रत्यय की उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर अर्वाग्भाग के एकदेश का अवलम्बन करके उक्त प्रत्यय की उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर, ‘गाय के समान गवय होता है’ इस प्रकार अथवा अन्य प्रकार से एक वस्तु का अवलम्बन करके वहाँ समीप में न रहने वाली अन्य वस्तु को विषय करने वाल प्रत्यय की उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर अर्वाग्भाग के ग्रहणकाल में ही परभाग का ग्रहण पाया जाता है; और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि अन्यथा वस्तु विषयक प्रत्यय की उत्पत्ति बन नहीं सकती; तथा अर्वाग्भागमात्र वस्तु हो नहीं सकती, क्योंकि, उतने मात्र से अर्थक्रियाकारित्व नहीं पाया जाता। कहीं पर एक वर्ण के श्रवणकाल में ही उच्चारण किये जाने वाले वर्णों को विषय करने वाले प्रत्यय की उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर अपने अभ्यस्त प्रदेश में एक स्पर्श के ग्रहण काल में ही अन्य स्पर्श विशिष्ट उस वस्तु के प्रदेशान्तरों का ग्रहण होता है। तथा कहीं पर एक रस के ग्रहण काल में ही उन प्रदेशों में नहीं रहने वाले रसान्तर से विशिष्ट वस्तु का ग्रहण होता है। दूसरे आचार्य ‘नि:सृत’ ऐसा पढ़ते हैं। उनके द्वारा उपमा प्रत्यय एक ही संग्रहीत होगा, अत: वह इष्ट नहीं है। (ध. | <li class="HindiText"> यह प्रत्यय असिद्ध नहीं है, क्योंकि, घट के अर्वाग्भाग का अवलम्बन करके कहीं घटप्रत्यय की उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर अर्वाग्भाग के एकदेश का अवलम्बन करके उक्त प्रत्यय की उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर, ‘गाय के समान गवय होता है’ इस प्रकार अथवा अन्य प्रकार से एक वस्तु का अवलम्बन करके वहाँ समीप में न रहने वाली अन्य वस्तु को विषय करने वाल प्रत्यय की उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर अर्वाग्भाग के ग्रहणकाल में ही परभाग का ग्रहण पाया जाता है; और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि अन्यथा वस्तु विषयक प्रत्यय की उत्पत्ति बन नहीं सकती; तथा अर्वाग्भागमात्र वस्तु हो नहीं सकती, क्योंकि, उतने मात्र से अर्थक्रियाकारित्व नहीं पाया जाता। कहीं पर एक वर्ण के श्रवणकाल में ही उच्चारण किये जाने वाले वर्णों को विषय करने वाले प्रत्यय की उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर अपने अभ्यस्त प्रदेश में एक स्पर्श के ग्रहण काल में ही अन्य स्पर्श विशिष्ट उस वस्तु के प्रदेशान्तरों का ग्रहण होता है। तथा कहीं पर एक रस के ग्रहण काल में ही उन प्रदेशों में नहीं रहने वाले रसान्तर से विशिष्ट वस्तु का ग्रहण होता है। दूसरे आचार्य ‘नि:सृत’ ऐसा पढ़ते हैं। उनके द्वारा उपमा प्रत्यय एक ही संग्रहीत होगा, अत: वह इष्ट नहीं है। (ध.13/5,5,35/237/13)।</li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.11" id="4.11"> अनि:सृत विषयक व्यंजनावग्रह की सिद्धि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.11" id="4.11"> अनि:सृत विषयक व्यंजनावग्रह की सिद्धि</strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/19/9/70/14 <span class="SanskritText">अथानि:सृते कथम्। तत्रापि ये च यावन्तश्च पुद्गला: सूक्ष्मा: नि:सृताः सन्ति, सूक्ष्मास्तु साधाराणैर्न गृह्यन्ते, तेषामिन्द्रियस्थानावगाहनम् अनि:सृतव्यञ्जनावग्रह:। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–अनि:सृत ग्रहण में व्यंजनावग्रह कैसे सम्भव है ? <strong>उत्तर</strong>–जितने सूक्ष्म पुद्गल प्रगट हैं उनसे अतिरिक्त का ज्ञान भी अव्यक्तरूप से हो जाता है। उन सूक्ष्म पूद्गलों का साधारण इन्द्रियों द्वारा तो ग्रहण नहीं होता है, परन्तु उनका इन्द्रियदेश में आ जाना ही उनका अव्यक्त ग्रहण है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.12" id="4.12"> उक्त</strong>-<strong>अनुक्त ज्ञानों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.12" id="4.12"> उक्त</strong>-<strong>अनुक्त ज्ञानों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/16/113/1 <span class="SanskritText">अनुक्तमभिप्रायेण ग्रहणम्।</span> = <span class="HindiText">जो कही या बिना कही वस्तु अभिप्राय से जानी जाती है उसके ग्रहण करने के लिए ‘अनुक्त’ पद दिया है। (रा.वा./1/16/12/63/20)।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/16/16/64/5 <span class="SanskritText">प्रकृष्टविशुद्धिश्रोत्रेन्द्रियादिपरिणामकारणत्वात्। एकवर्णानिर्गमेऽपि अभिप्रायेणैव अनुच्चारितं शब्दमवगृह्णाति ‘इमं भवान् शब्दं वक्ष्यति’ इति। अथवा, स्वरसंचारणात् प्राक्तत्रीद्रव्यातोद्याद्यामर्शनेनैव अवादिम्। अनुक्तमेव शब्दमभिप्रायेणावगृह्य आचष्टे ‘भवानिमं शब्दं वादयिष्यति’ इति। उक्तं प्रतीतम्।</span> = <span class="HindiText">श्रोत्रेन्द्रिय के प्रकृष्ट क्षयोपशम के कारण एक भी शब्द का उच्चारण किये बिना अभिप्राय मात्र से अनुक्त शब्द को जान लेता है, कि आप यह कहने वाले हैं। अथवा वीणा आदि के तारों को सम्हालते समय ही यह जान लेना कि ‘इसके द्वारा यह राग बजाया जायेगा’ अनुक्त ज्ञान है। उक्त अर्थात् कहे गये शब्द को जानना। (इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों में भी लागू करना)।</span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-1,14/20/6 <span class="PrakritText">णियमियगुणविसिट्ठअत्थग्गहणं उत्तावग्गहो। जधा चक्खिंदिएण धवलत्थग्गहणं, घाणिंदिएण सुअंधदव्वग्गहणमिच्चादि। अणियमियगुणविसिट्ठदव्वग्गहणमउत्तावग्गहो, जहा चक्खिंदिएण गुडादीणं रसस्सग्गहणं, घाणिंदिएण दहियादीणं रसग्गहणमिच्चादि।</span> = <span class="HindiText">नियमित गुणविशिष्ट अर्थ का ग्रहण करना उक्त अवग्रह है। जैसे–चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा धवल अर्थ का ग्रहण करना और घ्राण इन्द्रिय के द्वारा सुगन्ध द्रव्य का ग्रहण करना इत्यादि। अनियमित गुणविशिष्ट द्रव्य का ग्रहण करना अनुक्त अवग्रह है। जैसे चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा रूप देखकर गुड़ आदि के रस का ग्रहण करना अथवा घ्राणेन्द्रिय के द्वारा दही के गन्ध के ग्रहणकाल में ही उसके रस का ग्रहण करना। (ध.1/1,1,115/357/5); (ध.9/4,1,45/153/9); (ध.13/5,5,35/238/12)।</span><br /> | ||
गो.जी./जी.प्र./ | गो.जी./जी.प्र./311/667/14 <span class="SanskritText">अनुक्त: अकथित: अभिप्रायगत:। ... उक्त: अयं घट: इति कथितो दृश्यमान:।</span> = <span class="HindiText">बिना कहे अभिप्राय मात्र से जानना अनुक्त है और कहे हुए पदार्थ को जानना उक्त अवग्रह है। जैसे–‘यह घट है’ ऐसा कहने पर घट को जानना।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.13" id="4.13"> उक्त और नि:सृत ज्ञानों में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.13" id="4.13"> उक्त और नि:सृत ज्ञानों में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/16/113/8 <span class="SanskritText">उक्तनि:सृतयो: क: प्रतिविशेष:; यावता सकलनि:सरणान्नि:सृतम्। उक्तमप्येवंविधमेव। अयमस्ति विशेष:, अन्योपदेशपूर्वकं ग्रहणमुक्तम्। स्वत: एव ग्रहणं नि:सृतम्। अपरेषां क्षिप्रनि:सृत इति पाठ:। त एवं वर्णयन्ति श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दमवगृह्यमाणं मयूरस्य वा कुररस्य वेति कश्चित्प्रतिपद्यते। अपर: स्वरूपमेवाश्रित्य इति।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–उक्त और नि:सृत में क्या अन्तर है–क्योंकि, वस्तु का पूरा प्रगट होना नि:सृत है और उक्त भी इसी प्रकार है? <strong>उत्तर</strong>–इन दोनों में यह अन्तर है–अन्य के उपदेशपूर्वक वस्तु का ग्रहण करना उक्त है, और स्वत: ग्रहण करना नि:सृत’ है। कुछ आचार्यों के मत से सूत्र में ‘क्षिप्रानि:सृत’ के स्थान में ‘क्षिप्रनि:सृत’ ऐसा पाठ है। वे ऐसा व्याख्यान करते हैं, कि श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा शब्द को ग्रहण करते समय वह मयूर का है अथवा कुरर का है ऐसा कोई जानता है। दूसरा स्वरूप के आश्रय से ही जानता है। (रा.वा./1/16/16/64/21)।</span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,45/154/5 <span class="SanskritText">नि:सृतोक्तयो: को भेदश्चेन्न, उक्तस्य नि:सृतानि:सृतोभयरूपस्य तेनैकत्वविरोधात्। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–नि:सृत और उक्त में क्या भेद है। <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, उक्त प्रत्यय नि:सृत और अनि:सृत दोनों रूप है। अत: उसका नि:सृत के साथ एकत्व होने का विरोध है। (ध.13/5,5,35/239/2)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.14" id="4.14"> अनुक्त और अनि:सृत ज्ञानों में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.14" id="4.14"> अनुक्त और अनि:सृत ज्ञानों में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-1,14/20/9 <span class="PrakritText">णायमणिस्सिदस्स अंतो पददि, एयवत्थुग्गहणकाले चेय तदो पुधभूदवत्थुस्स, ओवरिमभाग्गगहणकाले चेय परभागस्स य, अंगुलिगहणकाले चेय देवदत्तस्स य गहणस्स अणिस्सिदवदेसादो। </span>= <span class="HindiText">अनुक्त अवग्रह अनि:सृत अवग्रह के अन्तर्गत नहीं है, क्योंकि, एक वस्तु के ग्रहणकाल में ही, उससे पृथग्भूत वस्तु का, उपरिम भाग के ग्रहण काल में ही परभाग का और अंगुलि के ग्रहणकाल में ही देवदत्त का ग्रहण करना अनि:सृत अवग्रह है (और रूप का ग्रहण करके रस का ग्रहण करना अनुक्त है।)</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.15" id="4.15"> अनुक्त विषयक ज्ञान की सिद्धि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.15" id="4.15"> अनुक्त विषयक ज्ञान की सिद्धि</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,45/154/1 <span class="SanskritText">न चायमसिद्ध:, चक्षुषालवण-शर्कराखण्डोपलम्भकाल एव कदाचित्तद्रसोपलम्भात्, दध्नो गन्धग्रहणकाल एव तद्रसावगते:, प्रदीपस्य रूपग्रहणकाल एव कदाचित्तत्स्पर्शोपलम्भादिहितसंस्कारस्य, कस्यचिच्छब्दग्रहणकाल एव तद्रसादिप्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भाच्च। </span>= <span class="HindiText">यह (अनुक्त अवग्रह) असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि चक्षु से लवण, शक्कर व खाण्ड के ग्रहण काल में ही कभी उनके रस का ज्ञान हो जाता है; दही के गन्ध के ग्रहणकाल में ही उसके रस का ज्ञान हो जाता है; दीपक के रूप के ग्रहणकाल में ही कभी उसके स्पर्श का ग्रहण हो जाता है, तथा शब्द के ग्रहणकाल में ही संस्कार युक्त किसी पुरुष के उसके रसादिविषयक प्रत्यय की उत्पत्ति भी पायी जाती है। (ध.13/5,5,35/238/13)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.16" id="4.16"> मन सम्बन्धी अनुक्त ज्ञान की सिद्धि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.16" id="4.16"> मन सम्बन्धी अनुक्त ज्ञान की सिद्धि</strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.9/4,1,45/154/6 <span class="SanskritText">मनसोऽनुक्तस्य को विषयश्चेददृष्टमश्रुतं च। न च तस्य तत्र वृत्तिरसिद्धा, उपदेशमन्तरेण द्वादशाङ्गश्रुतावगमान्यथानुपपत्तितस्तस्य तत्सिद्धे:। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–मन से अनुक्त का क्या विषय है ? <strong>उत्तर</strong>–अदृष्ट और अश्रुत पदार्थ उसका विषय है। और उसका वहाँ पर रहना असिद्ध नहीं है, क्योंकि, उपदेश के बिना अन्यथा द्वादशांग श्रुतका ज्ञान नहीं बन सकता; अतएव उसका अदृष्ट व अश्रुत पदार्थ में रहना सिद्ध है। (ध. 13/5,5,35/239/6)।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.17" id="4.17">अप्राप्यकारी इन्द्रियों सम्बन्धी अनि:सृत व अनुक्त ज्ञानों की सिद्धि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong> <a name="4.17" id="4.17"></a>अप्राप्यकारी इन्द्रियों सम्बन्धी अनि:सृत व अनुक्त ज्ञानों की सिद्धि</strong> </span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/16/17-20/65/11 <span class="SanskritText">कश्चिदाहश्रोत्रघ्राणस्पर्शनरसनचतुष्टयस्य प्राप्यकारित्वात् अनि:सृतानुक्तशब्दाद्यवग्रहेहावायधारणा न युक्ता इति; उच्यते–अप्राप्ततत्त्वात्।17। कथम्। पिपीलिकादिवत्।18। यथा पिपीलिकादीनां घ्राणरसनदेशाप्राप्तेऽपि गुडादिद्रव्ये गन्धरसज्ञानम्, तच्च यैश्च यावद्भिश्चास्मादाद्यप्रत्यक्षसूक्ष्मगुडावयवै: पिपीलिकादिघ्राणरसनेन्द्रिययो: परस्परानपेक्षा प्रवृत्तिस्ततो न दोष:। अस्मदादीनां तद्भाव इति चेत्; न; श्रुतापेक्षत्वात्।19।... परोपदेशापेक्षत्वात् ...। किंच, लब्ध्यक्षरत्वात्।20। ... ‘चक्षु:श्रोत्रघ्राणरसनस्पर्शनमनोलब्धसक्षरम्’ इत्यार्ष उपदेश:। अत: ... लब्ध्यक्षरसानिध्यात् एतत्सिध्यति अनि:सृतानुक्तानामपि शब्दानीनां अवग्रहादिज्ञानम्।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र ये चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं (देखें [[ इन्द्रिय#2 | इन्द्रिय - 2]]), अत: इनसे अनि:सृत और अनुक्त ज्ञान नहीं हो सकते ? <strong>उत्तर</strong>–इन इन्द्रियों से किसी न किसी रूप में पदार्थ का सम्बन्ध अवश्य हो जाता है, जैसे कि चींटी आदि को घ्राण व रसना इन्द्रिय के प्रदेश को प्राप्त न होकर भी गुड आदि द्रव्यों के रस व गन्ध का जो ज्ञान होता है, वह गुड़ आदि के प्रत्यक्ष अवयवभूत सूक्ष्म परमाणुओं के साथ उसकी घ्राण व रसना इन्द्रियों का सम्बन्ध होने के कारण ही होता है। <strong>प्रश्न</strong>–हम लोगों को तो वैसा ज्ञान नहीं होता है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, श्रुतज्ञान की अपेक्षा हमें भी वैसा ज्ञान पाया जाता है, क्योंकि, उसमें परोपदेश की अपेक्षा रहती है। दूसरी बात यह भी है, कि आगम में श्रुतज्ञान के भेद-प्रभेद के प्रकरण में लब्ध्यक्षर के चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना, स्पर्शन और मन के भेद से छह भेद किये हैं (देखें [[ श्रुतज्ञान#II.2 | श्रुतज्ञान - II.2]]); इसलिए इन लब्ध्यक्षरूप श्रुतज्ञानों से उन-उन इन्द्रियों द्वारा अनि:सृत और अनुक्त आदि विशिष्ट अवग्रह आदि ज्ञान होता रहता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.18" id="4.18"> ध्रुव व अध्रुव ज्ञानों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.18" id="4.18"> ध्रुव व अध्रुव ज्ञानों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/16/113/1 <span class="SanskritText">ध्रुवं निरन्तरं यथार्थग्रहणम्।</span> = <span class="HindiText">जो यथार्थ ग्रहण निरन्तर होता है, उसके जताने के लिए ध्रुव पद दिया है। (और भी देखें [[ अगला शीर्षक नं#19 | अगला शीर्षक नं - 19]])। (रा.वा./1/16/13/63/21)।</span><br /> | ||
रा.वा./ | रा.वा./1/16/16/64/8 <span class="SanskritText">संक्लेशपरिणामनिरुत्सुकस्य यथानुरुपश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमादिपरिणामकारणावस्थितत्वात् यथा प्राथमिकं शब्दग्रहणं तथावस्थितमेव शब्दमवगृह्णाति नोनं नाभ्यधिकम्। पौन:पुन्येन संक्लेशविशुद्धिपरिणामकारणापेक्षस्यात्मनो यथानुरूपपरिणामोपात्तश्रोत्रेन्द्रियसांनिध्येऽपि तदावरणस्येषदीषदाविर्भावात् पौन:पुनिकं प्रकृष्टावकृष्टश्रोत्रेन्द्रियावरणादिक्षयोपशमपरिणामत्वाच्च अध्रुवमवगृह्णाति शब्दम्–क्वचिद् बहु क्वचिदल्पं क्वचिद् बहुविधं क्वचिदेकविधं क्वचित् क्षिप्रं क्वचिच्चिरेण क्वचिदनि:सृतं क्वचिन्निसृतं क्वचिदुक्तं क्वचिदनुक्तम्।</span> = <span class="HindiText">संक्लेश परिणामों के अभाव में यथानुरूप ही श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशमादि परिणामरूप कारणों के अवस्थित रहने से, जैसा प्रथम समय में शब्द का ज्ञान हुआ था आगे भी वैसा ही ज्ञान होता रहता है। न कम होता है और न अधिक। यह ‘ध्रुव’ ग्रहण है। परन्तु पुन: पुन: संक्लेश और विशुद्धि में झूलने वाले आत्मा को यथानुरूप श्रोत्रेन्द्रिय का सान्निध्य रहने पर भी उसके आवरण का किंचित् उदय रहने के कारण, पुन: पुन: प्रकृष्ट व अप्रकृष्ट श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशमरूप परिणाम होने से शब्द का अध्रुव ग्रहण होता है, अर्थात् कभी बहुत शब्दों को जानता है और कभी एक अल्प को, कभी बहुत प्रकार के शब्दों को जानता है और कभी एक प्रकार के शब्दों को, कभी शीघ्रता से शब्द को जान लेता है और कभी देर से, कभी प्रगट शब्द को ही जानता है और कभी अप्रगट को भी, कभी उक्त को ही जानता है और कभी अनुक्त को भी।</span><br /> | ||
ध. | ध.6/1,9-1,14/21/1 <span class="PrakritText">णिच्चत्ताए गहणं धुवावग्गहो, तव्विवरीयगहणमद्धुवावग्गहो।</span> =<span class="HindiText"> नित्यता से अर्थात् निरन्तर रूप से ग्रहण करना ध्रुव-अवग्रह है और उससे विपरीत ग्रहण करना अध्रुव अवग्रह है।</span><br /> | ||
ध. | ध.1/1,1,115/357/6 <span class="SanskritText">सोऽयमित्यादि ध्रुवावग्रह:। न सोऽयमित्याद्यध्रुवावग्रह:।</span> = <span class="HindiText">‘वह यही है’ इत्यादि प्रकार से ग्रहण करने को ध्रुवावग्रह कहते हैं और ‘वह यह नहीं है’ इस प्रकार से ग्रहण करने को अध्रुवावग्रह कहते हैं। (ध.9/4,1,45/154/6)।</span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,35/239/4 <span class="SanskritText">नित्यत्वविशिष्टस्तम्भादिप्रत्यय: स्थिर:। ... विद्युत्प्रदीपज्वालादौ उत्पादविनाशविशिष्टवस्तुप्रत्यय: अध्रुव:। उत्पाद-व्यय ध्रौव्यविशिष्टवस्तुप्रत्ययोऽपि अध्रुव:, ध्रुवात्पृथग्भूतत्वात्।</span> =<span class="HindiText"> नित्यत्वविशिष्ट स्तम्भ आदि का ज्ञान स्थिर अर्थात् ध्रुवप्रत्यय है और बिजली, दीपक की लौ आदि में उत्पाद-विनाश युक्त वस्तु का ज्ञान अध्रुव प्रत्यय है। उत्पाद व्यय और ध्रौव्य युक्त वस्तु का ज्ञान भी अध्रुव प्रत्यय है; क्योंकि, यह ज्ञान ध्रुव ज्ञान से भिन्न है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.19" id="4.19"> ध्रुवज्ञान व धारणा में अन्तर</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.19" id="4.19"> ध्रुवज्ञान व धारणा में अन्तर</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/16/114/4<span class="SanskritText"> ध्रुवावग्रहस्य धारणायाश्च क: प्रतिविशेष:। उच्यते; क्षयोपशमप्राप्तिकाले विशुद्धपरिणामसंतत्या प्राप्तात्क्षयोपशमात्प्रथमसमये यथावग्रहस्तथैव द्वितीयादिष्वपि समयेषु नोनो नाभ्यधिक इति ध्रुवावग्रह इत्युच्यते। यदा पुनर्विशुद्धपरिणामस्य संक्लेशपरिणामस्य च मिश्रणात्क्षयोपशमो भवति तत उत्पद्यमानोऽवग्रह: कदाचिद् बहूनां कदाचिदल्पस्य कदाचिद् बहुविधस्य कदाचिदेकविधस्य वेति न्यूनाधिकभावादध्रुवावग्रह इत्युच्यते। धारणा पुनर्गृहीतार्थाविस्मरणकारणमिति महदनयोरन्तरम्।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–ध्रुवावग्रह और धारणा में क्या आन्तर है? <strong>उत्तर</strong>–क्षयोपशम की प्राप्ति के समय विशुद्ध परिणामों की परम्परा के कारण प्राप्त हुए क्षयोपशम से प्रथम समय जैसा अवग्रह होता है, वैसा ही द्वितीय आदि समयों में भी होता है, न न्यून होता है और न अधिक, वह ध्रुवावग्रह है। किन्तु जब विशुद्ध परिणाम और संक्लेश परिणामों के मिश्रण से क्षयोपशम होकर उससे अवग्रह होता है, तब वह कदाचित् बहुत का होता है, कदाचित् अल्प का होता है, कदाचित् बहुविध का होता है और कदाचित् एकविध का होता है। तात्पर्य यह कि उसमें न्यूनाधिक भाव होता रहता है, इसलिए वह अध्रुवावग्रह कहलाता है। किन्तु धारणा तो गृहीत अर्थ के नहीं भूलने के कारणभूत ज्ञान को कहते हैं, अत: ध्रुवावग्रह और धारणा में बड़ा अन्तर है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="4.20" id="4.20"> ध्रुवज्ञान एकान्तरूप नहीं </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.20" id="4.20"> ध्रुवज्ञान एकान्तरूप नहीं </strong> </span><br /> | ||
ध. | ध.13/5,5,35/239/4<span class="SanskritText"> न च स्थिरप्रत्यय: एकान्त इति प्रत्यवस्थातुं युक्तम्, विधिनिषेधादिद्वारेण अत्रापि अनेकान्तविषयत्वदर्शनात्। </span>= <span class="HindiText">स्थिर (ध्रुव) ज्ञान एकान्तरूप है, ऐसा निश्चय करना युक्त नहीं है, क्योंकि, विधि-निषेध के द्वारा यहाँ पर भी अनेकान्त की विषयता देखी जाती है।</span></li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p> पाँच प्रकार के ज्ञान में प्रथम ज्ञान । यह पाँच इन्द्रियों तथा मन की सहायता से प्रकट होता है । यद्यपि यह परोक्ष ज्ञान है परन्तु इन्द्रियों की अपेक्षा से उत्पन्न होने के कारण सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहलाता है । यह अन्तरंग कारण मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखता है । इसके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद है । यह ज्ञान पाँच इन्द्रियों और मन इन छ: साधनों से होता है । अत: उक्त चारों भेदों में प्रत्येक के छ: छ: भेद कर देने से इसके चौबीस भेद हो जाते हैं । इन भेदों में शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श ये व्यंजनावग्रह के चार भेद मिला देने से अट्ठाईस भेद और इनमें अवग्रह आदि चार मूल भेद मिला देने से बत्तीस भेद हो जाते हैं । इस प्रकार इस ज्ञान के चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीस ये तीन मूल भेद है । इनमें क्रम से बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनि:सृत, अनुक्त ध्रुव इन छ: का गुणा करने पर क्रमश: एक सौ चवालीस, एक सो अड़सठ और एक सौ बानवे भेद हो जाते हैं । बहु आदि छ: और इनके विपरीत एक आदि छ: इन बारह भेदों का उक्त तीनों राशियों चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीस में गुणा करने से इस ज्ञान के क्रमश: दो सौ अठासी, तीन सौ छत्तीस और तीन सौ चौरासी भेद हो जाते हैं मिथ्यादृष्टि जीवों को प्राप्त यह ज्ञान कुमतिज्ञान कहलाता है । यह ज्ञान पदार्थ-चिन्तन में सहायक तथा कोष्ठबुद्धि आदि ऋद्धियों का साधक भी होता है । <span class="GRef"> महापुराण 36.142, 146, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 10. 145-151 </span></p> | |||
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Revision as of 21:45, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
इन्द्रियज्ञान की ही ‘मति या अभिनिबोध’ यह संज्ञा है। यह दर्शनपूर्वक अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के क्रम से उत्पन्न होता है। चारों के ही उत्पन्न होने का नियम नहीं।1,2 या 3 भी होकर छूट सकते हैं। धारणा के पश्चात् क्रम से स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क या व्याप्ति ज्ञान उत्पन्न होता है। इन सबों की भी मतिज्ञान संज्ञा है। धारणा के पहलेवाले ज्ञान पंचेन्द्रियों के निमित्त से और उससे आगे के ज्ञान मन के निमित्त से होते हैं। तर्क के पश्चात् अनुमान का नम्बर आता है जो श्रुतज्ञान में गर्भित है। एक, अनेक, ध्रुव, अध्रुव आदि 12 प्रकार के अर्थ इस मतिज्ञान के विषय होने से यह अनेक प्रकार का हो जाता है।
- भेद व लक्षण
- मतिज्ञान सामान्य का लक्षण
- मति का निरुक्त्यर्थ।
- अभिनिबोध या मति का अर्थ इन्द्रियज्ञान।
- मति का निरुक्त्यर्थ।
- मतिज्ञान के भेद-प्रभेद।
- अवग्रह आदि की अपेक्षा।
- उपलब्धि स्मृति आदि की अपेक्षा।
- असंख्यात भेद।
- अवग्रह आदि की अपेक्षा।
- उपलब्धि, भावना व उपयोग।–देखें वह वह नाम ।
- कुमतिज्ञान का लक्षण।
- मतिज्ञान सामान्य का लक्षण
- मतिज्ञान सामान्य निर्देश
- मतिज्ञान को कथंचित् दर्शन संज्ञा।–देखें दर्शनो - 8
- मतिज्ञान दर्शनपूर्वक इन्द्रियों के निमित्त से होता है।
- ज्ञान की सत्ता इन्द्रियों से निरपेक्ष है।–देखें ज्ञान - I.2।
- मतिज्ञान का विषय अनन्त पदार्थ व अल्प पर्याय है।
- अतीन्द्रिय द्रव्यों में मतिज्ञान के व्यापार सम्बन्धी समन्वय।
- मति व श्रुतज्ञान परोक्ष हैं–देखें परोक्ष ।
- मतिज्ञान की कथंचित् प्रत्यक्षता व परोक्षता।–देखें श्रुतज्ञान - I.5।
- मतिज्ञान की कथंचित् निर्विकल्पता।–देखें विकल्प ।
- मतिज्ञान निसर्गज है।–देखें अधिगम ।
- मति आदि ज्ञान व अज्ञान क्षायोपशयिक कैसे ?
- परमार्थ से इन्द्रियज्ञान कोई ज्ञान नहीं।
- मोक्षमार्ग में मतिज्ञान की कथंचित् प्रधानता।–देखें श्रुतज्ञान - I.2।
- मतिज्ञान के भेदों को जानने का प्रयोजन।
- मतिज्ञान को कथंचित् दर्शन संज्ञा।–देखें दर्शनो - 8
- अवग्रह ईहा आदि व स्मृति तर्क आदि के लक्षण।
- अवग्रह ईहा आदि व स्मृति तर्क आदि के लक्षण।–देखें वह वह नाम ।
- ईहा आदि को मतिज्ञान व्यपदेश कैसे ?
- अवग्रह आदि की अपेक्षा मतिज्ञान का उत्पत्तिक्रम।
- अवग्रह आदि में परस्पर कार्यकारण भाव।–देखें मतिज्ञान - 3.1 में रा.वा.।
- अवग्रह आदि सभी भेदों के सर्वत्र होने का नियम नहीं है।
- मति-स्मृति आदि की एकार्थता सम्बन्धी शंका समाधान।
- स्मृति और प्रत्यभिज्ञान में अन्तर।
- स्मृति आदि की अपेक्षा मतिज्ञान का उत्पत्तिक्रम।
- अवग्रह ईहा आदि व स्मृति तर्क आदि के लक्षण।–देखें वह वह नाम ।
- मतिज्ञान व श्रुतज्ञान में अन्तर–देखें श्रुतज्ञान - I.3।
- एक बहु आदि विषय निर्देश
- बहु व बहुविध ज्ञानों में लक्षण।
- बहु व बहुविध ज्ञानों में अन्तर।
- बहु विषयक ज्ञान की सिद्धि।
- एक व एकविध ज्ञानों के लक्षण।
- एक व एकविध ज्ञानों में अन्तर।
- एक विषयक ज्ञान की सिद्धि।
- क्षिप्र अक्षिप्र ज्ञानों के लक्षण।
- निःसृत-अनिःसृत ज्ञानों के लक्षण।
- अनिःसृतज्ञान और अनुमान में अन्तर।
- अनिःसृत विषयक ज्ञान की सिद्धि।
- अनिःसृत विषयक व्यंजन व ग्रह की सिद्धि।
- उक्त अनुक्त ज्ञानों के लक्षण।
- उक्त और निःसृत ज्ञानों में अन्तर।
- अनुक्त और अनिःसृत ज्ञानों में अन्तर।
- अनुक्त विषयक ज्ञान की सिद्धि।
- मन सम्बन्धी अनुक्त ज्ञान की सिद्धि।
- अप्राप्यकारी इन्द्रियों सम्बन्धी अनिःसृत व अनुक्त ज्ञानों की सिद्धि।
- ध्रुव व अध्रुव ज्ञानों के लक्षण।
- ध्रुवज्ञान व धारणा में अन्तर।
- ध्रुवज्ञान एकान्तरूप नहीं है।
- बहु व बहुविध ज्ञानों में लक्षण।
- भेद व लक्षण
- मतिज्ञान सामान्य का लक्षण
- मति का निरुक्त्यर्थ
स.सि./1/9/93/11 इन्द्रियैर्मनसा च यथासमर्थो मन्यते अनया मनुते मननमात्रं वा मति:। = इन्द्रिय और मन के द्वारा यथायोग्य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किये जाते हैं, जो मन करता है, या मननमात्र मतिकहलाता है।(स.सि./1/13/106/4-मननं मति:);(रा.वा./1/9/1/44/7);(ध.13/5,5,41/244/30 मननं मति:)। - अभिनिबोध या मति का अर्थ इन्द्रियज्ञान
पं.सं./1/214 अहिमुहणियमिय बोहणमाभिणिबोहियमणिंदि-इंदियजं। ... 214। = मन और इन्द्रिय की सहायता से उत्पन्न होने वाले, अभिमुख और नियमित पदार्थ के बोध को आभिनिबोधिकज्ञान कहते हैं। (ध.1/1,1,115/गा.182/359); (ध.13/5,5,21/209/10); (गो.जी./मू./306/658); (ज.प./13/56)।
ध.1/1,1,115/354/1 पञ्चभिरिन्द्रियैर्मनसा च यदर्थग्रहणं तन्मतिज्ञानम्। = पाँच इन्द्रियों और मन से जो पदार्थ का ग्रहण होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं।
क.पा.1/101/28/42/4 इंदियणोइंदिएहि सद्द-रस-परिसरूव-गंधादिविसएसु ओग्गह-ईहावाय-धारणाओ मदिणाणं। = इन्द्रिय और मन के निमित्त से शब्द रस स्पर्श रूप और गन्धादि विषयों मे अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप जो ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान है। (द्र.सं./टी./44/188/1)।
पं.का./त.पृ/41 यत्तदावरणक्षयोपशमादिन्द्रियानिन्द्रियावलम्बनाञ्चमूर्तामूर्तद्रव्यं विकलं विशेषणावबुध्यते, तदाभिनिबोधिकज्ञानम्।
पं.का./ता.वृ./41/81/14 आभिनिबोधिकं मतिज्ञानं। = मति ज्ञानावरण के क्षयोपशम से और इन्द्रिय मन के अवलम्बन से मूर्त अमूर्त द्रव्य का विकल अर्थात् एकदेशरूप से विशेषत: सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष रूप से (द्र.सं./टी./5/15) जो अवबोध करता है, वह आभिनिबोधिकज्ञान है। आभिनिबोधिकज्ञान को ही मतिज्ञान कहते हैं। (द्र.सं./टी./5/15/4)।
- मति का निरुक्त्यर्थ
- मतिज्ञान के भेद-प्रभेद
- चार्ट बनेगा
उपरोक्त भेदों के भंग–अवग्रहादि की अपेक्षा = 4; पूर्वोक्त 4×6 इन्द्रियाँ = 24; पूर्वोक्त 24+ व्यंजनावग्रह के 4 = 28; पूर्वोक्त 28+अवग्रहादि 4 = 32–में इस प्रकार 24, 28, 32 ये तीन मूल भंग हैं। इन तीनों की क्रम से बहु बहुविध आदि 6 विकल्पों से गुणा करने पर 144, 168 व 192 ये तीन भंग होते हैं। उन तीनों को ही बहु बहुविध आदि 12 विकल्पों से गुणा करने पर 288, 336 व 384 ये तीन भंग होते हैं। इस प्रकार मतिज्ञान के 4, 24, 28, 32, 144, 168, 192, 288, 336 व 384 भेद होते हैं। (ष.खं.13/5,5/सूत्र 22-35/216-234); (त.सू./1/15-19); (पं.सं./प्रा./1/121); (ध.1/1,1,115/गा.182/359); (रा.वा./1/19/9/70/7); (ह.पु./10/145-150); (ध.1/1,1,2/93/3); (ध.6/1,9,1,14/16,19,21); (ध.9/4,1,45/144,149,155); (ध.13/5,5,35/239-241); (क.पा.1/1,1/10/14/1); (ज.प./13/55-56); (गो.जी./मू./306-314/658-672); (त.सा./1/20-23)। - उपलब्धि स्मृति आदि की अपेक्षा
ष.खं.13/5,5/सूत्र 41/244 सण्ण सदी मदी चिंता चेदि।41।
त.सू./1/13 मतिस्मृतिसंज्ञाचिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्।13। = मति, स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध ये सब पर्यायवाची नाम हैं।
पं.का.ता.वृ./प्रक्षेपक गाथा/43-1/85 मदिणाणं पुण तिविहं उवलद्धो भावणं च उवओगो। = मतिज्ञान तीन प्रकार का है–उपलब्धि, भावना, और उपयोग।
त.सा./1/19-20 स्वसंवेदनमक्षोत्थं विज्ञानं स्मरणं तथा। प्रत्यभिज्ञानमूहश्च स्वार्थानुमितिरेव वा।19। बुद्धिमेधादयो याश्च मतिज्ञानभिदा हि ता:।-।20। = स्वसंवेदनज्ञान, इन्द्रियज्ञान, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, स्वार्थानुमान, बुद्धि, मेधा आदि सब मतिज्ञान के प्रकार हैं।
पं.का./ता.वृ./43,1/86/3 तथैवावग्रहेहावायधारणाभेदेन चतुर्विंधं वरकोष्ठबीजपादनुसारिसंभिन्नश्रोतृताबुद्धिभेदेन वा, तच्च मतिज्ञान ...। = वह मति ज्ञान अवग्रह आदि के भेद से अथवा वरकोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारी बुद्धि और सम्भिन्नश्रोतृबुद्धि इन चार ऋृद्धियों के भेद से चार प्रकार का है। - असंख्यात भेद
ध.12/4,2,14,5/480/5 एवमसंखेज्जलोगमेत्ताणि मुदणाणि। मदिणाणि वि एत्तियाणि चेव, सुदणाणस्स मदिणाणपुर गमत्तादो कज्जभेदेण कारणभेदुवलंभादो वा। = श्रुतज्ञान असंख्यात लोकप्रमाण है–देखें श्रुतज्ञान - I.1। मतिज्ञान भी इतने ही हैं, क्योंकि श्रुतज्ञान, मतिज्ञानपूर्वक ही होता है, अथवा कारण के भेद से क्योंकि कार्य का भेद पाया जाता है, अतएव वे भी असंख्यात लोकप्रमाण हैं। (पं.ध./उ./290-292)।
- चार्ट बनेगा
- कुमतिज्ञान का लक्षण
पं.सं./प्रा./1/118 विसजंतकूडपंजरबंधादिसु अणुवेदसकरणेण। जा खलु पवत्तइ मई मइअण्णाण त्ति णं विंति।118। = परोपदेश के बिना जो विष, यत्र, कूट, पंजर, तथा बन्ध आदि के विषय में बुद्धि प्रवृत्त होती है, उसे ज्ञानीजन मत्यज्ञान कहते हैं। (उपदेशपूर्वक यही श्रुतज्ञान है)। (ध.1/1,115/गा. 179/358); (गो.जो. /मू./303/654)।
पं.का./त.प्र./41 मिथ्यादर्शनोदयसहचरितमाभिनिबोधिकज्ञानमेव कुमतिज्ञानम्। = मिथ्यादर्शन के उदय के साथ अभिनिबोधिकज्ञान ही कुमतिज्ञान है।–विशेष देखें ज्ञान - III।
- मतिज्ञान सामान्य का लक्षण
- मतिज्ञान सामान्य निर्देश
- <a name="2.1" id="2.1"></a>मतिज्ञान दर्शनपूर्वक इन्द्रियों के निमित्त से होता है
पं.का./ता.वृ./प्रक्षेपक गा./43-1/85 तह एव चदुवियप्पं दंसणपुव्वं हवदि णाणं। = वह चारों प्रकार का मतिज्ञान दर्शनपूर्वक होता है।–विशेष देखें दर्शन - 3.1।
त.सू./1/14 तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्।14। = वह मतिज्ञान इन्द्रिय व मनरूप निमित्त से होता है। - मतिज्ञान का विषय अनन्त पदार्थ व अल्प पर्यायें हैं
त.सू./1/26 मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु।26। = मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति कुछ पर्यायों से युक्त सब द्रव्यों में होती है।
रा.वा./1/19/9/70/2 द्रव्यतो मतिज्ञानी सर्वद्रव्याण्यसर्वपर्यायाण्युपदेशेन जानाति। क्षेत्रत उपदेशेन सर्वक्षेत्राणि जानाति। अथवा क्षेत्रं विषय:। ... कालत उपदेशेन सर्वकालं जानाति। भावत उपदेशेन जीवादीनामौदयिकादीन् भावान् जानाति। रा.वा./1/26/3-4/87/16 जीवधर्माधर्माकाशकालपुद्गलाभिधानानि षडत्र द्रव्याणि, तेषां सर्वेषां संग्रहार्थः द्रव्येष्विति बहुत्वनिर्देश: क्रियते।3। ... तानि द्रव्याणि मतिश्रुतयोर्विषयभावमापद्यमानानि कतिपयैरेव पर्यायैर्विषयभावमास्कन्दन्ति न सर्वपर्यायैरनन्तैरपीति। तत्कथम्। इह मति: चक्षुरादिकरणानिमित्ता रूपाद्यालम्बना, सा यस्मिन् द्रव्ये रूपादयो वर्तन्ते न तत्र सर्वान् पर्यायानेव (सर्वानेव पर्यायान्) गृह्णाति, चक्षुरादिविषयानेवालम्बते। =- द्रव्य की दृष्टि से मतिज्ञानी सभी द्रव्यों की कुछ पर्यायों को उपदेश से जानता है। इसी प्रकार उपदेश द्वारा वह सभी क्षेत्र को अथवा प्रत्येक इन्द्रिय के प्रतिनियत क्षेत्र को–देखें इन्द्रिय - 3.6। सर्वकाल को व सर्व औदयिकादि भावों को जान सकता है।
- सूत्र में ‘द्रव्येषु’ यह बहुवचनान्त प्रयोग सर्वद्रव्यों के संग्रह के लिए है। तहाँ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं। वे सब द्रव्य मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के विषय भाव को प्राप्त होते हुए कुछ पर्यायों के द्वारा ही विषय भाव को प्राप्त होते हैं, सब पर्यायों के द्वारा नहीं और अनन्त पर्यायों के द्वारा भी नहीं। क्योंकि मतिज्ञान चक्षु आदि इन्द्रियों से उत्पन्न होता है और रूपादि को विषय करता है, अत: स्वभावत: वह रूपी आदि द्रव्यों को जानकर भी उनकी सभी पर्यायों को ग्रहण नहीं करता बल्कि चक्षु आदि की विषयभूत कुछ स्थूल पर्यायों को ही जानता है। (स.सि./1/26/134/1)।
देखें ऋद्धि - 2.2.3 (क्षायोपशमिक होने पर भी मतिज्ञान द्वारा अनन्त अर्थों का जाना जाना सम्भव है)।
- अतीन्द्रिय द्रव्यों में मतिज्ञान के व्यापार सम्बन्धी समन्वय
प्र.सा./मू./40 अत्थं अक्खणिवदिदं ईहापुव्वेहिं जे विजाणंति। तेसिं परोक्खभूदं णादुमसक्कं ति पण्णत्तं।40। =जो इन्द्रियगोचर पदार्थ को ईहा आदि द्वारा जानते हैं, उनके लिए परोक्षभूत पदार्थ को जानना अशक्य है, ऐसा सर्वज्ञदेव ने कहा है।
स.सि./1/26/134/3 धर्मास्तिकायादीन्यतीन्द्रियाणि तेषु मतिज्ञानं न प्रवर्तते। अत: सर्वद्रव्येषु मतिज्ञानं वर्तत इत्ययुक्तम्। नैष दोष:। अनिन्द्रियाख्यं करणमस्ति तदालम्बनो नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमलब्धिपूर्वक उपयोगाऽवग्रहादिरूप: प्रागेवोपजायते। ततस्तत्पूर्वं श्रुतज्ञानं तद्विषयेषु स्वयोग्येषु व्याप्रियते। =प्रश्न–धर्मास्तिकाय आदि अतीन्द्रिय हैं। उनमें मतिज्ञान की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अत: ‘सब द्रव्यों में मतिज्ञान की प्रवृत्ति होती है’, यह कहना अयुक्त है। उत्तर–यह कोई दोष नहीं, क्योंकि अनिन्द्रिय (मन) नाम का एक करण है। उसके आलम्बन से नोइन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशमरूप लब्धिपूर्वक अवग्रह आदि रूप उपयोग पहले ही उत्पन्न हो जाता है, अत: तत्पूर्वक होने वाला श्रुतज्ञान अपने योग्य इन विषयों में व्यापार करता है। (रा.वा./1/26/5/87/27)।
ध.13/5,5,71/341/1 णोइंदियमदिंदियं कधं मदिणाणेण घेप्पदे। ण ईहालिंगावट्ठंभबलेण अदिंदिएसु वि अत्थेसु वुत्तिदंसणादो। = प्रश्न–नोइन्द्रिय तो अतीन्द्रिय है, उसका मतिज्ञान के द्वारा कैसे ग्रहण होता है ? उत्तर–नहीं, ईहारूप लिंग के अवलम्बन के बल से अतीन्द्रिय अर्थों में भी मतिज्ञान की प्रवृत्ति देखी जाती है। (इसलिए मतिज्ञान के द्वारा परकीयमन को जानकर पीछे मन:पर्ययज्ञान के द्वारा तद्गत अर्थ को जानने में विरोध नहीं है)। - <a name="2.4" id="2.4"></a>मति आदि ज्ञान व अज्ञान क्षायोपशमिक कैसे ?
ध.14/5,6,19/20/7 मदिअण्णाणित्ति एदं पि खओवसमियं, मंदिणाणावरणखओवसमेण सुप्पत्तीए। कुदो एदं मदिअण्णाणि त्ति एदं पि तदुभयपच्चयं। मिच्छत्तस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदएण णाणावरणीयस्स देसघादिफद्दयाणमुदएण तस्सेव सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण च मदिअण्णाणित्तुप्पत्तीदो। सुदअण्णाणि ... विहंगणाणि त्ति तदुभयपच्चइयो ...। आभिणिबोहियणाणि त्ति तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो, मदिणाणावरणीयस्स देसघादिफद्दयाणमुदएण तिविहसम्मत्तसहाएण तदुप्पत्तीदो। आभिणिवोहियणाणस्स उदयपच्चइयत्तं घडदे, मदिणाणावरणीयस्स देसघादिफद्दयाणमुदएण समुप्पत्तीरगणोवसमियपच्चइयत्तं, उवसमाणुवलंभादो। ण, णाणावरणीयसव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावेण उव्रसमसण्णिदेण आभिणिबोहियणाणुप्पत्तिदंसणादो। एवं सुदणाणि- ओहिणा- णिमणपज्जवणाणि- चक्खुदंसणि- अचक्खुदंसणि- ओहिदंसणिआदीणं वत्तव्वं, विसेसाभावादो। =- मति अज्ञानी भी क्षायोपशमिक है, क्योंकि यह मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होता है। प्रश्न–मत्यज्ञानित्व तदुभयप्रत्ययिक कैसे है ? उत्तर–मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्धकों का उदय होने से तथा ज्ञानावरणीय के देशघाति स्पर्धकों का उदय होने से, और उसी के सर्वघाती स्पर्धकों का उदयक्षय होने से मति-अज्ञानित्व की उत्पत्ति होती है, इसलिए वह तदुभयप्रत्ययिक है। श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानी भी इसी प्रकार से तदुभय प्रत्ययिक है।
- आभिनिबोधिकज्ञानी तदुभयप्रत्ययिक जीवभाव बन्ध है, क्योंकि तीन प्रकार के सम्यक्त्व से युक्त मतिज्ञानावणीय कर्म के देशघाति स्पर्धकों के उदय से इसकी उत्पत्ति होती है। प्रश्न–इसके उदयप्रत्यायिकपना तो बन जाता है, क्योंकि मतिज्ञानावरणकर्म के देशघाति स्पर्धकों के उदय से इसकी उत्पत्ति होती है, पर औपशमिक निमित्तकपना नहीं बनता, क्योंकि मतिज्ञानावरण कर्म का उपशम नहीं पाया जाता। उत्तर–नहीं, क्योंकि ज्ञानावरणीय कर्म के सर्वघाति स्पर्धकों के उपशम संज्ञावाले उदयाभाव से आभिनिबोधिक ज्ञान की उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिये इसका औपशमिक निमित्तकपना भी बन जाता है। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी, मन: पर्ययज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी आदि का कथन करना चाहिए, क्योंकि उपर्युक्त कथन से इनके कथन में कोई विशेषता नहीं है।
- परमार्थ से इन्द्रियज्ञान कोई ज्ञान नहीं
प्र.सा./त.प्र./55 परोक्षं हि ज्ञानमतिदृढतराज्ञानतमोग्रन्थिनुण्ठनात् ... स्वयं परिच्छेत्तुमर्थमसमर्थस्योपात्तानुपात्तपरप्रत्ययसामग्रीमार्गणव्यग्रतयात्यन्तविसंठुलत्वम् ... महामोहमल्लस्य जीवदवस्थत्वात् परपरिणतिप्रवर्तिताभिप्रायमपि पदे पदे प्राप्तविप्रलम्भमनुपलम्भसंभावनामेव परमार्थतोऽर्हति। अतस्तद्धेयम्। = परोक्षज्ञान, अति दृढ़ अज्ञानरूप तमोग्रन्थि द्वारा आवृत हुआ, आत्मपदार्थ को स्वयं जानने के लिए असमर्थ होने के कारण, उपात्त और अनुपात्त सामग्री को ढूँढ़ने की व्यग्रता से अत्यन्त चंचल वर्तता हुआ, महा मोहमल्ल के जीवित होने से पर परिणति का अभिप्राय करने पर भी पद-पद पर ठगाता हुआ, परमार्थत: अज्ञान में गिना जाने योग्य है। इसलिए वह हेय है।
पं.ध./उ./286-289,305,953 दिङ्मात्रं षट्सु द्रव्येषु मूर्तस्यैवोपलम्भकात्। तत्र सूक्ष्मेषु नैव स्यादस्ति स्थूलेषु केषुचित्।286। सत्सु ग्राह्येषु तत्रापि नाग्राह्येषु कदाचन। तत्रापि विद्यमानेषु नातीतानागतेषु च।287। तत्रापि संनिधानत्वे संनिकर्षेषु सत्सु च। तत्राप्यवग्रहेहादौ ज्ञानस्यास्तिक्यदर्शनात्।288। समस्तेषु न व्यस्तेषु हेतुभूतेषु सत्स्वपि। कदाचिज्जायते ज्ञानमुपर्युपरि शुद्धित:।289। आस्तामित्यादि दोषाणां संनिपातात्पदं पदम्। ऐन्द्रियं ज्ञानमप्यस्ति प्रदेशचलनात्मकम्।305। प्राकृतं वैकृतं वापि ज्ञानमात्रं तदेव यत्। यावदत्रेन्द्रियायत्तं तत्सर्वं वैकृतं विदुः।953। = इन छह द्रव्यों में मूर्त द्रव्य को ही विषय करता है, उसमें भी स्थूल में प्रवृत्ति करता है सूक्ष्म में नहीं। स्थलूों में भी किन्हीं में ही प्रवृत्त होता है सबमें नहीं। उनमें भी इन्द्रियगाह्य में ही प्रवृत्त होता है इन्द्रिय अग्राह्य में नहीं। उनमें वर्तमानकाल सम्बन्धी को ही ग्रहण करता है, भूत भविष्यत् को नहीं। उनमें भी इन्द्रिय सन्निकर्ष को प्राप्त पदार्थ को विषय करता है, अन्य को नहीं। उनमें अवग्रह ईहा आदि के क्रम से प्रवृत्ति करता है। इतना ही नहीं बल्कि मतिज्ञानावरण व वीर्यान्तराय का क्षयोपशम, इन्द्रियों की पूर्णता, प्रकाश व उपयोग आदि समस्त कारणों के होने पर ही होता है, हीन कारणों में नहीं। इन सर्व कारणों के होने भी ऊपर-ऊपर अधिक-अधिक शुद्धि होने से कदाचित् होता है सर्वदा नहीं। इसलिए वह कहने मात्र को ही ज्ञान है।286-289। इन्द्रियज्ञान व्याकुलता आदि अनेक दोषों का तो स्थान है ही, परन्तु वह प्रदेशचलनात्मक भी होता है।305। यद्यपि प्राकृत या वैकृत सभी प्रकार के ज्ञान ‘ज्ञान’ कहलाते हैं, परन्तु वास्तव में जब तक वह ज्ञान इन्द्रियाधीन रहता है, तब तक वह विकृत ही है।953। - मतिज्ञान के भेदों को जानने का प्रयोजन
पं.का./पा.वृ./43/86/5 अत्र निर्विकारशुद्धानुभूत्यभिमुखं यन्मतिज्ञानं तदेवोपादेयभूतानन्तसुखसाधकत्वान्निश्चयेनोपादेयं तत्साधकं बहिरङ्गं पुनर्व्यवहारेणेति तात्पर्यम्। = निर्विकार शुद्धात्मा की अनुभूति के अभिमुख जो मतिज्ञान है, वही उपायदेयभूत अनन्त सुख का साधक होने के कारण निश्चय से उपादेय है और व्यवहार से उस ज्ञान का साधक जो बहिरंग ज्ञान है वह भी उपादेय है।
- <a name="2.1" id="2.1"></a>मतिज्ञान दर्शनपूर्वक इन्द्रियों के निमित्त से होता है
- अवग्रह आदि व स्मृति आदि ज्ञान निर्देश
- ईहा आदि को मतिज्ञान व्यपदेश कैसे ?
रा.वा./1/15/13/62/1 ईहादीनाममतिज्ञानप्रसङ्ग:। कुत:। परस्परकार्यत्वात्। अवग्रहकारणम् ईहाकार्यम्, ईहाकारणम् अवाय: कार्यम्, अवाय: कारणम् धारणा कार्यम्। न चेहादीनाम् इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तत्वमस्तीति; नैष दोष:; ईहादीनामनिन्द्रियनिमित्तत्वात् मतिज्ञानव्यपदेश:। यद्येवं श्रुतस्यापि प्राप्तनोति: इन्द्रियगृहीतविषयत्वादीहादीनाम् अनिन्द्रियनिमित्तत्वमप्युपचर्यते, न तु श्रुतस्यायं विधिरस्ति तस्यानिन्द्रियविषयत्वादिति श्रुतास्याप्रसंग:। यद्येवं चक्षुरिन्द्रियेहादिव्यपदेशाभाव इति चेत; न; इन्द्रियशक्तिपरिणतस्य जीवस्य भावेन्द्रियत्वतद्वयापारकार्यत्वात्। इन्द्रियभावपरिणतो हि जीवो भावेन्द्रियमिष्यते, तस्य विषयाकारपरिणामाईहादय इति चक्षुरिन्द्रियेहादिव्यपदेश इति। = प्रश्न–ईहा आदि ज्ञान मतिज्ञान नहीं हो सकते, क्योंक ये एक दूसरे के कारण से उत्पन्न होते हैं। तहाँ अवग्रह के कारण से ईहा, ईहा के कारण से अवाय, और अवाय के कारण से धारणा होती है। उनमें इन्द्रिय व अनिन्द्रिय का निमित्तपना नहीं है। उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, ईहा आदि को भी अनिन्द्रिय का निमित्त होने से मतिज्ञान व्यपदेश बन जाता है। प्रश्न–तब तो श्रुतज्ञान को भी मतिज्ञानपना प्राप्त हो जायेगा। उत्तर–ऐसा नहीं है; क्योंकि (अवग्रह द्वारा) इन्द्रियों से ग्रहण कर लिये गये पदार्थों को विषय करने के कारण ईहा आदि को अनिन्द्रिय का निमित्तपना उपचार से कहा जाता है। श्रुतज्ञान की यह विधि नहीं है, क्योंकि, वह तो अनिन्द्रिय के ही निमित्त से उत्पन्न होता है। प्रश्न–यदि ऐसा है तो चक्षु इन्द्रिय के ईहा आदि का व्यपदेश न किया जा सकेगा। उत्तर–नहीं; क्योंकि इन्द्रियशक्ति से परिणत जीव की भाव इन्द्रिय में, उसके व्यापार का कार्य होता है। इन्द्रियभाव से परिणत जीव को ही भावेन्द्रिय कहा जाता है। उसके विषयाकाररूप परिणाम ही ईहा आदि हैं। इसलिये चक्षु इन्द्रिय के भी ईहा आदि का व्यपदेश बन जाता है। (ध.9/4,1,45/147/29)
ध.9/4,1,45/148/2 नावायज्ञानं मति:, ईहानिर्णीतलिङ्गावष्टम्भबलेनोत्पन्नत्वादनुमानवदिति चेन्न, अवग्रहगृहीतार्थविषयलिङ्गादीहाप्रत्ययविषयीकृतादुत्पन्ननिर्णयात्मकप्रत्ययस्य अवग्रहगृहीतार्थविषयस्य अवायस्य अमतित्वविरोधात्। न चानुमानमवगृहीतार्थ विषयमवग्रहनिर्णीतबलेन तस्यान्यवस्तुनि समुत्पत्ते:। ... तस्मादवग्रहादयो धारणापर्यन्ता मतिरिति सिद्धम्। प्रश्न–अवायज्ञान मतिज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि, वह ईहा से निर्णीत लिंग के आलम्बन बल से उत्पन्न होता है, जैसे अनुमान। उत्तर–ऐसा नहीं है, क्योंकि अवग्रह से गृहीत को विषय करने वाले तथा ईहा प्रत्यय से विषयीकृत लिंग से उत्पन्न हुए निर्णयरूप और अवग्रह से गृहीत पदार्थ को विषय करने वाले अवाय प्रत्यय के मतिज्ञान न होने का विरोध है। और अनुमान अवग्रह से गृहीत पदार्थ को विषय करने वाला नहीं है, क्योंकि वह अवग्रह से निर्णीत लिंग के बल से अन्य वस्तु में उत्पन्न होता है। (तथा अवग्रहादि चारों ज्ञानों की सर्वत्र क्रम से उत्पत्ति का नियम भी नहीं। (देखें शीर्षक नं - 3)। इसलिए अवग्रह से धारणापर्यन्त चारों ज्ञान मतिज्ञान हैं। यह सिद्ध होता है। (और भी देखें श्रुतज्ञान - I.3)।
- अवग्रहादि की अपेक्षा मतिज्ञान का उत्पत्तिक्रम
रा.वा./1/15/13/61/26 अस्ति प्राग् अवग्रहाद्दर्शनम्। तत: शुक्लकृष्णादिरूपविज्ञानसामर्थ्योपेतस्यात्मन: ‘किं शुक्लमुत कृष्णम्’ इत्यादि विशेषाप्रतिपत्ते: संशय:। तत: शुक्लविशेषाकाङ्क्षणं प्रतीहनमीहा। तत: ‘शुक्लमेवेदं न कृष्णम्’ इत्यवायनमवाय:। अवेतस्यार्थस्याविस्मरणं धारणा। एवं श्रोत्रादिषु मनस्यपि योज्यम्। = अवग्रह पहले [विषय विषयी के सन्निपात होने पर (देखें अवग्रह का लक्षण )] वस्तुमात्र का सामान्यालोचनरूप दर्शन होता है, (फिर ‘रूप है’ यह अवग्रह होता है)। तदनन्तर ‘यह शुक्ल है या कृष्ण’ यह संशय उत्पन्न होता है। फिर ‘शुक्ल होना चाहिए’ ऐसी जानने की आकांक्षा रूप ईहा होती है। तदनन्तर ‘यह शुक्ल ही है, कृष्ण नहीं’ ऐसा निश्चयरूप अवाय हो जाता है। अवाय से निर्णय किये गये पदार्थ का आगे जाकर अविस्मरण न हो, ऐसा संस्कार उत्पन्न होना धारणा है। इस प्रकार श्रोत्र आदि इन्द्रियों व मन के सम्बन्ध में लगा लेना चाहिए। (देखें क्रमपूर्वक अवग्रह आदि के लक्षण ), (श्लो.वा.3/1/15/श्लो.2-4/437), (गो.जी.जी.प्र./308-309/663,665)। - अवग्रहादि सभी भेदों के सर्वत्र होने का नियम नहीं है
ध.6/1,9-1,14/18/8 ण च ओग्गहादि चउण्हं पि णाणाणं सव्वत्थ कमेण उत्पत्ती, तहाणुवलंभा। तदो कहिं पि ओग्गहो चेय, कहिं पि ओग्गहो ईहा य दो च्चेय, कहिं पि ओग्गहो ईहा अवाओ तिण्णि वि होंति, कहिं पि ओग्गहो ईहा अवाओ धारणा चेदि चत्तारि वि होंति। = अवग्रह आदि चारों ही ज्ञानों की सर्वत्र क्रम से उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि, उस प्रकार की व्यवस्था पायी नहीं जाती है। इसलिए कहीं तो केवल अवग्रह ज्ञान ही होता है; कहीं अवग्रह और ईहा, ये दो ज्ञान ही होते हैं; कहीं पर अवग्रह ईहा और अवाय, ये तीनों भी ज्ञान होते हैं; और कहीं पर अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों ही ज्ञान होते हैं।
ध.9/4,1,45/148/5 न चावग्रहादीनां चतुर्णां सर्वत्र क्रमेणोत्पत्तिनियम:, अवग्रहानन्तरं नियमेन संशयोत्पत्त्यदर्शनात्। न च संशयमन्तरेण विशेषाकाङ्क्षास्ति येनावग्रहान्नियमेन ईहोत्पद्यते। न चेहातो नियमेन निर्णय उत्पद्यते, क्वचिन्निर्णयानुत्पादिकाया ईहाया एव दर्शनात्। च चावायाद्धारणा नियमेनोत्पद्यते, तत्रापि व्यभिचारोपलम्भात्। = तथा अवग्रहादिक चारों की सर्वत्र से उत्पत्ति का नियम भी नहीं है, क्योंकि, अवग्रह के पश्चात् नियम से संशय की उत्पत्ति नहीं देखी जाती है और संशय के बिना विशेष की आकांक्षा होती नहीं है, जिससे कि अवग्रह के पश्चात् नियम से ईहा उत्पन्न हो। न ही ईहा से नियमत: निर्णय उत्पन्न होता है, क्योंकि, कहीं पर निर्णय को उत्पन्न न करने वाला ईहा प्रत्यय ही देखा जाता है। अवाय से धारणा भी नियम से नहीं उत्पन्न होती, क्योंकि, उसमें भी व्यभिचार पाया जाता है। - <a name="3.4" id="3.4"></a>मति स्मृति आदि की एकार्थता सम्बन्धी शंका-समाधान
देखें मतिज्ञान - 1.1.2.2 (मति, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क व आभिनिबोध, ये सब पर्यायवाची नाम हैं)।
स.सि./1/13/107/1 सत्यपि प्रकृतिभेदे रूढिबलाभावात् पर्यायशब्दत्वम्। यदा इन्द्र: शक्र: पुरन्दर इति इन्दनादिक्रियाभेदेऽपि शचीपतेरेकस्यैव संज्ञा। समभिरूढनयापेक्षया तेषामर्थान्तरकल्पनायां मत्यादिष्वपि स क्रमो विद्यत तव। किंतु मतिज्ञानावरणक्षयोपशमनिमित्तोपयोगं नातिवर्त्तन्त इति अयमत्रार्थो विवक्षित:। ‘इति’ शब्दः प्रकारार्थ:। एवंप्रकारा अस्य पर्यायशब्दा इति। अभिधेयार्थो वा। मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ता आभिनिबोध इत्येतैर्योऽर्थोऽभिधीयते स एक एव इति। =- यद्यपि इन शब्दों को प्रकृति या व्युत्पत्ति अलग-अलग है, तो भी रूढि से ये पर्यायवाची हैं। जैसे–इन्द्र, शक्र और पुरन्दर। इनमें यद्यपि इन्दन आदि क्रियाओं की अपेक्षा भेद है तो भी ये सब एक शचीपति की वाचक संज्ञाएँ हैं। अब यदि समभिरूढ नय की अपेक्षा इन शब्दों का अलग-अलग अर्थ लिया जाता है तो वह क्रम मति स्मृति आदि शब्दों में भी पाया जाता है।
- किन्तु ये मति आदि मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमरूप निमित्त से उत्पन्न हुए उपयोग को उल्लंघन नहीं करते हैं, यह अर्थ यहाँ पर विवक्षित है।
- अथवा प्रकृत में (सूत्र में) ‘इति’ शब्द प्रकारार्थवाची है, जिसका यह अर्थ होता है, कि इस प्रकार ये मति आदि मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्द हैं। अथवा प्रकृत में ‘मति’ शब्द अभिधेयवाची है, जिसके अनुसार यह अर्थ होता है कि मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध इनके द्वारा जो अर्थ कहा जाता है, वह एक ही है। (रा.वा./1/13/2-3/58/1;9/59/5 में उपरोक्त तीनों विकल्प हैं)।
रा.वा.1/13/3-7/58/10-32 यस्य शब्दभेदोऽर्थभेदे हेतुरिति मतम् तस्य वागादि नवार्थेषु गोशब्दाभेददर्शनाद् वागाद्यर्थानामेकत्वमस्तु। अथ नैतदिष्टम्; न तर्हि शब्दभेदोऽन्यत्वस्य हेतु:। किंच ... मत्यादीनामेकद्रव्यपर्यायादेशात् स्यादेकत्वं प्रतिनियतपर्यायादेशाच्च स्यान्नानात्वम्–मननं मति:, स्मरणं स्मृति ... इति। स्यान्मतम्–मत्यादय अभिनिबोधपर्यायशब्दा नाभिनिबोधस्य लक्षणम्। कथम्। मनुष्यादिवत्। ... तन्न, किं कारणम्। ततोऽनन्यत्वात्। इह पर्यायिणोऽनन्य: पर्यायशब्द:, स लक्षणम्। कथम्। औष्ण्याग्निवत्। तथा पर्यायशब्दा मत्यादय आभिनिबोधिकज्ञानपर्यायिणोऽनन्यत्वेन अभिनिबोधस्य लक्षणम्। अथवा ततोऽनन्यत्वात्। ... मतिस्मृत्यादयोऽसाधारणत्वाद् अन्यज्ञानासंभाविनोऽभिनिबोधादनन्यत्वात्तस्य लक्षणम्। इतश्च पर्यायशब्दो लक्षणम्। कस्मात्। ...का मति:। या स्मृतिरिति। तत: स्मृतिरिति गत्वा बुद्धिः प्रत्यागच्छति। का स्मृति:। या मतिरिति। एवमुत्तरेष्वपि। = - यदि शब्द भेद से अर्थभेद है तो शब्द–अभेद से अर्थ-अभेद भी होना चाहिए। और इस प्रकार पृथिवी आदि ग्यारह शब्द एक ‘गो’ अर्थ के वाचक होने के कारण एक हो जायेंगे।
- अथवा मतिज्ञानावरण से उत्पन्न मतिज्ञानसामान्य की अपेक्षा से अथवा एक आत्मद्रव्य की दृष्टि से मत्यादि अभिन्न हैं और प्रतिनियत तत्-तत् पर्याय की दृष्टि से भिन्न हैं। जैसे–‘मननं मति:’, ‘स्मरणं स्मृति’ इत्यादि। प्रश्न–
- मति आदि आभिनिबोध के पर्यायवाची शब्द हैं। वे उसके लक्षण नहीं हो सकते, जैसे मनुष्य, मानव, मनुज आदि शब्द मनुष्य के लक्षण नहीं हैं। उत्तर–नहीं, क्योंकि, वे सब अनन्य हैं। पर्याय पर्यायी से अभिन्न होती है। इसलिए उसका वाचक शब्द उस पर्यायी का लक्षण होता है, जैसे अग्नि का लक्षण उष्णता है। उसी प्रकार मति आदि पर्यायवाची शब्द आभिनिबोधिक सामान्य ज्ञानात्मक मतिज्ञानरूप पर्यायी के लक्षण होते हैं; क्योंकि, वे उससे अभिन्न हैं।
- ‘मतिज्ञान कौन’ यह प्रश्न होने पर बुद्धि तुरन्त दौड़ती है कि ‘जो स्मृति आदि’ और ‘स्मृति आदि कौन’ ऐसा कहने पर ‘जो मतिज्ञान’ इस प्रकार गत्वा प्रत्यागत न्याय से भी पर्याय शब्द लक्षण बन सकते हैं।
- स्मृति और प्रत्यभिज्ञान में अन्तर
न्या.दी./3/10/57/3 केचिदाहु:–अनुभवस्मृतिव्यतिरिक्तं प्रत्यभिज्ञानं नास्तीति; तदसत्; अनुभवस्य वर्त्तमानकालवर्त्तिविवर्त्तमात्रप्रकाशकत्वम्, स्मृतेश्चातीतविवर्त्तद्योतकत्वमिति तावद्वस्तुगति:। कथं नाम तयोरतीतवर्त्तमानसंकलितैक्यसादृश्यादिविषयावगाहित्वम्। तस्मादस्ति स्मृत्यनुभवातिरिक्तं तदनन्तरभाविसंकलनज्ञानम्। तदेव प्रत्यभिज्ञानम्। = प्रश्न–अनुभव और स्मरण से भिन्न प्रत्यभिज्ञान नहीं है। उत्तर–यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनुभव तो वर्तमानकालीन पर्याय को ही विषय करता है और स्मरण भूतकालीन पर्याय का ही द्योतन करता है। इसलिए ये दोनों अतीत और वर्त्तमान पर्यायों में रहने वाली एकता सदृशता आदि को कैसे विषय कर सकते हैं। अत: स्मरण और अनुभव से भिन्न उनके बाद में होने वाला तथा उन एकता सदृशता आदि को विषय करने वाला जो जोड़रूप ज्ञान होता है, वही प्रत्यभिज्ञान है। - स्मृति आदि की अपेक्षा मतिज्ञान का उत्पत्तिक्रम
न्या.दी./3/3/53 तत् पञ्चविधम्–स्मृति:, प्रत्यभिज्ञानम्, तर्क:, अनुमानम् आगमश्चेति। पञ्चविधस्याप्यस्य परोक्षस्य प्रत्ययान्तरसापेक्षत्वेनैवोत्पत्ति:। तद्यथा–स्मरणस्य प्रावतनानुभवापेक्षा, प्रत्यभिज्ञानस्य स्मरणानुभवापेक्षा, तर्कस्यानुभवस्मरणप्रत्यभिज्ञानापेक्षा, अनुमानस्य च लिङ्गदर्शनाद्यपेक्षा।
न्या.दी./3/नं./पृष्ठ नं. अवग्रहाद्यनुभूतेऽपि धारणाया अभावे स्मृतिजननायोगात्। ... तदेतद्धारणाविषये समुत्पन्नं तत्तोल्लेखिज्ञानं स्मृतिरिति सिद्धम्।(4/53)। अनुभवस्मृतिहेतुकं संकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम्।(8/56)। अत्र सर्वत्राप्यनुभवस्मृतिसापेक्षत्वात्तद्वेतुकत्वम्।(9/57)। स्मरणम् प्रत्यभिज्ञानम्, भूयोदर्शनरूपं प्रत्यक्षं च मिलित्वा तादृशमेकं ज्ञानं जनयन्ति यद्वयाप्तिग्रहणसमर्थमिति, तर्कश्च स एव। (15/64)। तद्वल्लिङ्गज्ञानं व्याप्तिस्मरणादिसहकृतमनुमानोत्पत्तौ निबन्धनमित्येतत्सुसङ्गतमेव।(17/67) = परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं- स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम। ये पाँचों ही परोक्ष प्रमाण ज्ञानान्तर की अपेक्षा से उत्पन्न होते हैं। स्मरण में पूर्व अनुभव की अपेक्षा होती है, प्रत्यभिज्ञान में स्मरण और अनुभव की, तर्क में अनुभव स्मरण और प्रत्यभिज्ञान की और अनुमान में लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरण आदि की अपेक्षा होती है। पदार्थ में अवग्रह आदि ज्ञान हो जाने पर भी (देखें मतिज्ञान - 3.2) धारणा के अभाव में स्मृति उत्पन्न नहीं होती। इसलिये धारणा के विषय में उत्पन्न हुआ ‘वह’ शब्द से उल्लिखित होने वाला यह ज्ञान स्मृति है, यह सिद्ध होता है। अनुभव और स्मरणपूर्वक होने वाले जोड़रूप ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। सभी प्रत्यभिज्ञानों में अनुभव और स्मरण की अपेक्षा होने से उन्हें अनुभव और स्मरण हेतुक माना जाता है। स्मरण प्रत्यभिज्ञान और अनेकों बार का हुआ प्रत्यक्ष ये तीनों मिलकर एक वैसे ज्ञान को उत्पन्न करते हैं, जो व्याप्ति के ग्रहण करने में समर्थ है, और वही तर्क है। उसी प्रकार व्याप्तिस्मरण आदि से सहित होकर लिंगज्ञान अनुमान की उत्पत्ति में कारण होता है। भावार्थ–(विषय-विषयी के सन्निपात के अनन्तर क्रम से उस विवक्षित इन्द्रिय सम्बन्धी दर्शन, अवग्रह, ईहा और अवायपूर्वक उस विषय सम्बन्धी धारणा उत्पन्न हो जाती है, जो कालान्तर में उस विषय के स्मरण का कारण होता है। किसी समय उसी विषय का या वैसे ही विषय का प्रत्यक्ष होने पर तत्सम्बन्धी स्मृति को साथ लेकर ‘यह वही है’ या ‘यह वैसा ही है’ ऐसा प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता है। पुन: पुन: इसी प्रकार अनेकों बार उसी विषय का प्रत्यभिज्ञान हो जाने पर एक प्रकार का व्याप्तिज्ञान उत्पन्न हो जाता है, जिसे तर्क कहते हैं। जैसे ‘जहाँ जहाँ धूम होगा वहाँ अग्नि अवश्य ही होगी’, ऐसा ज्ञान। पीछे किसी समय इसी प्रकार का कोई लिंग देखकर उस तर्क के आधार पर लिंगी को जान लेना अनुमान है। जैसे पर्वत में धूम देखकर ‘यहाँ अग्नि अवश्य है’ ऐसा निर्णयात्मक ज्ञान हो जाता है। उपरोक्त सर्व विकल्पों में अवग्रह से तर्क पर्यन्त के सर्व विकल्प मतिज्ञान के भेद हैं, जो उपरोक्त क्रम से ही उत्पन्न होते हैं, अक्रम से नहीं। तर्कपूर्वक उत्पन्न होने वाला अन्तिम विकल्प अनुमान श्रुतज्ञान के अधीन है। इसी प्रकार किसी शब्द को सुनकर वाच्यवाचक की पूर्व गृहीत व्याप्ति के आधार पर उस शब्द के वाच्य का ज्ञान हो जाना भी श्रुतज्ञान है।)
- ईहा आदि को मतिज्ञान व्यपदेश कैसे ?
- एक बहु आदि विषय निर्देश
- बहु व बहुविध ज्ञानों के लक्षण
स.सि./1/16/112/5 बहुशब्दस्य संख्यावैपुल्यवाचिनो ग्रहणमविशेषात्। संख्यावाची यथा एको द्वौ बहव इति। वैपुल्यवाची यथा, बहुरोदनो बहुसूप इति। ‘विधशब्द: प्रकारवाची’। = ‘बहु’ शब्द संख्यावाची और वैपुल्यवाची दोनों प्रकार का है। इन दोनों का यहाँ ग्रहण किया है, क्योंकि उनमें कोई विशेषता नहीं है। संख्यावाची ‘बहु’ शब्द यथा–एक, दो बहुत। वैपुल्यवाची बहु शब्द यथा–बहुत भात, बहुत दाल। ‘विध’ शब्द प्रकारवाची है। (जैसे बहुत प्रकार के घोड़े, गाय, हाथी आदि–ध./6, ध/9, ध/13 गो.जी.) (रा.वा./1/16/1/62/12,9/63/14); (ध.6/1,1-1,14/19/3-20/1); (ध.9/4,1,45/149/1,151/4); (ध.13/5,5,35/235/1,237/1); (गो.जी./जी.प्र./311/667/11)।
रा.वा./1/16/16/63/28 प्रकृष्ट ... क्षयोपशम ... उपष्टम्भात् ... युगपत्ततविततघनसुषिरादिशब्दश्रवणाद् बहुशब्दमवगृह्णाति। ... ततादिशब्दविकल्पस्य प्रत्येकमेकद्वित्रिचतु:संख्येयासंख्येयानन्तगुणस्यावग्राहकत्वात् बहुविधमवगृह्णाति। ... (एवं घ्राणाद्यवग्रहेष्वपि योज्यम्/65/9)। = श्रोत्रेन्द्रावरणादिका प्रकृष्ट क्षयोपशम होने पर युगपत् तत, वित, घन, सुषिर आदि बहुत शब्दों को सुनता है, तथा तत आदि शब्दों के एक दो तीन चार संख्यात असंख्यात अनन्त प्रकारों को ग्रहण कर बहुविध शब्दों को जानता है। इसी प्रकार घ्राणादि अन्य इन्द्रियों में भी लागू करना चाहिए। (ध.13/5,5,35/237/2)। - बहु व बहुविध ज्ञानों में अन्तर
स.सि./1/16/113/7 बहुबहुविधयो: क: प्रतिविशेष:; यावता बहुष्वपि बहुत्वमस्ति बहुविधेष्वपि बहुत्मस्ति; एकप्रकारानेकप्रकारकृतो विशेष:।
रा.वा./1/16/64/16 उच्यते–न, विशेषदर्शनात्। यथा कश्चित् बहूनि शात्राणि मौलेन सामान्यार्थेनाविशेषितेन व्याचष्टे न तु बहुभिर्विशेषितार्थै:, कश्चिच्च तेषामेव बहूनां शात्राणां बहुभिरर्थै: परस्परातिशययुक्तैर्बहुविकल्पैर्व्याख्यानं करोति, तथा ततादिशब्दग्रहणाविशेषेऽपि यत्प्रत्येकं ततादिशब्दानाम् एकद्वित्रिचतु:संख्येयासंख्येयानन्तगुणपरिणतानां ग्रहणं तद् बहुविधग्रहणम्, यत्ततादीनां सामान्यग्रहणं तद् बहुग्रहणम्। =प्रश्न–बहु और बहुविध में क्या अन्तर है, क्योंकि, बहु और बहुविध इन दोनों में बहुतपना पाया जाता है? उत्तर–इनमें एक प्रकार और नाना प्रकार की अपेक्षा अन्तर है। अर्थात् बहु में प्रकारभेद इष्ट नहीं है और बहुविध में प्रकारभेद इष्ट है। जैसे कोई बहुत शात्रों का सामान्यरूप से व्याख्यान करता है परन्तु उसके बहुत प्रकार के विशेष अर्थों से नहीं; और दूसरा उन्हीं शात्रों की बहुत प्रकार के अर्थों द्वारा परस्पर में अतिशययुक्त अनेक विकल्पों में व्याख्याएँ करता है; उसी प्रकार तत आदि शब्दों के ग्रहण में विशेषता न होते हुए भी जो उनमें से प्रत्येक तत आदि एक दो तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनन्त गुणरूप से परिणत शब्दोंका ग्रहण है सो बहुविध ग्रहण है; और उन्हीं का जो सामान्य ग्रहण है, वह बहुग्रहण है। - बहु विषयक ज्ञान की सिद्धि
रा.वा./116/2-7/62/15 बह्ववग्रहाद्यभाव: प्रत्यर्थवशवर्तित्वादिति चेत्; न; सर्वदैकप्रत्ययप्रसङ्गात्।2। ... अतश्चानेकार्थग्राहिविज्ञानस्यात्यन्तासंभवात् नगरवनस्कन्धावारप्रत्ययनिवृति:। नैता: संज्ञा ह्येकार्थनिवेशिन्य:, तस्माल्लोकसंव्यवहारनिवृत्ति:। किंच, नानार्थप्रत्ययाभावात्।3। ... यथैकं मनोऽनेकप्रत्ययारम्भकं तथैकप्रत्ययोऽनेकार्थो भविष्यति, अनेकस्य प्रत्ययस्यैककालसंभवात्। ... ननु सर्वथैकार्थमेकमेव ज्ञानमिति, अत: ‘इदमस्मादन्यत्’ इत्येष व्यवहारो न स्यात्। ... किंच, आपेक्षिकसंव्यवहारविनिवृत्ते:।4। ... मध्यमाप्रदेशिन्योर्युगपदनुपलम्भात् तद्विषयदीर्घह्नस्वव्यवहारो विनिवर्तेत। .. किंच, संशयाभावप्रसङ्गात्।5। एकार्थविषयवर्तिनि विज्ञाने, स्थाणौ पुरुषे वा प्राक्प्रत्ययजन्म स्यात्, नोभयो: प्रतिज्ञातविरोधात्। ... किंच, ईप्सितनिष्पत्त्यनियमात्।6। ... चैत्रस्य पूर्णकलशमालिखत: ... अनेकविज्ञानोत्पादनिरोधक्रमे सति अनियमेन निष्पत्ति: स्यात्। ... किंच, द्वित्र्यादिप्रत्ययाभावाच्च।7। ... यतो नैकं विज्ञानं द्वित्राद्यर्थानां ग्राहकमिति। = प्रश्न–जब एक ज्ञान एक ही अर्थ को ग्रहण करता है, तब बहु आदि विषयक अवग्रह नहीं हो सकता। उत्तर–नहीं, क्योंकि, इस प्रकार सदा एक ही प्रत्यय होने का प्रसंग आता है।- अनेकार्थग्राही ज्ञान का अत्यन्ताभाव होने पर नगर, वन, सेना आदि बहुविषयक ज्ञान नहीं हो सकेंगे। ये संज्ञाएँ एकार्थविषयक नहीं हैं, अत: समुदायविषयक समस्त लोकव्यवहारों का लोप ही हो जायेगा।
- जिस प्रकार (आप बौद्धों के यहाँ) एक मन अनेक ज्ञानों को उत्पन्न कर सकता है, उसी तरह एक ज्ञान को अनेक अर्थों को विषय करने वाला मानने में क्या आपत्ति है।
- यदि ज्ञान एकार्थग्राही ही माना जायेगा तो ‘यह इससे अन्य है’ इस प्रकार का व्यवहार न हो सकेगा।
- एकार्थग्राहिविज्ञानवाद में मध्यमा और प्रदेशिनी अंगुलियों में होने वाले ह्रस्व, दीर्घ आदि समस्त व्यवहारों का लोप हो जायगा।
- संशयज्ञान के अभाव का प्रसंग आयेगा, क्योंकि या तो स्थाणु का ज्ञान होगा या पुरुष का ही। एक साथ दोनों का ज्ञान न हो सकेगा।
- किसी भी इष्ट अर्थ की सम्पूर्ण उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। पूर्ण कलश का चित्र बनाने वाला चित्रकार उस चित्र को न बना सकेगा, क्योंकि युगपत् दो तीन ज्ञानों के बिना वह उत्पन्न नहीं होता।
- इस पक्ष में दो तीन आदि बहुसंख्या विषयक प्रत्यय न हो सकेंगे, क्योंकि वैसा मानने पर कोई भी ज्ञान दो तीन आदि समूहों को जान ही न सकेगा। उपरोक्त सर्व विकल्प (ध.9/4,1,45/149/3); (ध.13/5,5,35/235/3)।
ध.13/5,5,35/236/6 यौगपद्येन बह्ववग्रहाभावात् योग्यप्रदेशस्थितमङ्गुलिपञ्चकं न प्रतिभासेत। न परिच्छिद्यमानार्थभेदाद्विज्ञानभेद:, नानास्वभावस्यैकस्यैव त्रिकोटिपरिणन्तुर्विज्ञानस्योपलम्भात्। न शक्तिभेदो वस्तुभेदस्य कारणम् पृथक् पृथगर्थक्रियाकर्तृत्वाभावात्तेषां वस्तुत्वादनुपपत्ते:, = - एक साथ बहुत का ज्ञान नहीं हो सकने के कारण योग्य प्रदेशों में स्थित अंगुलिपंचक का ज्ञान नहीं हो सकता। (ध.6/1,9-1,14/19/3)।
- ‘जाने गये अर्थ में भेद होने से विज्ञान में भी भेद है’, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि नाना स्वभाववाला एक ही त्रिकोटिपरिणत विज्ञान उपलब्ध होता है।
- ‘शक्तिभेद वस्तुभेद का कारण है’, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, अलग-अलग अर्थ क्रिया न होने से उन्हें वस्तुभूत नहीं माना जा सकता।–(अत: बहुत पदार्थों का एक ज्ञान के द्वारा अवग्रह होना सिद्ध है)।
ध.9/4,1,45/151/1 प्रतिद्रव्यभिन्नानां प्रत्ययानां कथमेकत्वमिति चेन्नाक्रमेणैकजीवद्रव्यवर्तिनां परिच्छेद्यभेदेन बहुत्वमादधानानामेकत्वाविरोधात्। = प्रश्न– - प्रत्येक द्रव्य में भेद को प्राप्त हुए प्रत्ययों के एकता कैसे सम्भव है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, युगपत् एक जीव द्रव्य में रहने वाले और ज्ञेय पदार्थों के भेद से प्रचुरता को प्राप्त हुए प्रत्ययों की एकता में कोई विरोध नहीं है।
- एक व एकविधि ज्ञानों के लक्षण
रा.वा./1/16/16/63/30 अल्पश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमपरिणाम आत्मा ततशब्दादीनामन्यतममल्पं शब्दमवगृह्णाति। ... तदादि शब्दानामेकविधावग्रहणात् एकविधमवगृह्णाति। ... (एवं घ्राणाद्यवग्रहेष्वपियोज्यम्)। = अल्प श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशम से परिणत आत्मा तत आदि शब्दों में से अन्यतम शब्द को ग्रहण करता है, तथा उनमें से एक प्रकार के शब्द को ही सुनता है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों में भी लागू कर लेना।
ध.6/1,9-1,14/पृ./पंक्ति एक्कस्सेव वत्थुवलंभो एयावग्गहो।(19/4)। एयपयारग्गहणमेयविहावग्गहो। (20/1)। = एक ही वस्तु के उपलम्भ को एक अवग्रह कहते हैं और एक प्रकार के पदार्थ का ग्रहण करना एकविध अवग्रह है। (ध.9/4,1,45/151/3,152/3); (ध.13/5,5,35/236/10,237/8); (गो.जी./जी.प्र./311/667/12)। - एक व एकविध ज्ञानों में अन्तर
ध.6/1,9-1,14/20/2 एय-एयविहाणं को विसेसो। उच्चदे–एगस्स गहणं एयावग्गहो, एगजाईए ट्ठिदएयस्स बहूणं वा गहणमेयविहावग्गहो। = प्रश्न–एक और एकविध में क्या भेद है ? उत्तर–एक व्यक्तिरूप पदार्थ का ग्रहण करना एक अवग्रह है और एक जाति में स्थित एक पदार्थ का अथवा बहुत पदार्थों का ग्रहण करना एकविध अवग्रह है। (ध.9/4,1,45/152/3); (ध.13/5,5,35/237/8)। - <a name="4.6" id="4.6"></a>एक विषयक ज्ञान की सिद्धि
ध.6/1,9-1,14/19/4 अणेयंतवत्थुवलंभा एयावग्गहो णत्थि। अह अत्थि, एयंतसिद्धिपसज्जदे एयंतग्गाहयपमाणस्सुवलंभा इदि चे, ण एस दोसो, एयवत्थुग्गाहओ अववोहो एयावग्गहो उच्चदि। ण च विहिपडिसेहधम्माणं वत्थुतमत्थि जे तत्थ अणेयावग्गहो होज्ज। किन्तु विहिपडिसेहारद्धमेयं वत्थू, तस्स उवलंभो एयावग्गहो। अणेयवत्थुविसओ अवबोहो अणेयावग्गहो। पडिहासो पुण सव्वो अणेयंतविसओ चेय, विहिपडिसेहाणमण्णदरस्सेव अणुवलंभा। = प्रश्न–वस्तु अनेक धर्मात्मक है, इसलिए एक अवग्रह नहीं होता। यदि होता है तो एक धर्मात्मक वस्तु की सिद्धि प्राप्त होती है, क्योंकि एक धर्मात्मक वस्तु को ग्रहण करने वाला प्रमाण पाया जाता है। उत्तर–- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एक वस्तु का ग्रहण करने वाला ज्ञान एक अवग्रह कहलाता है तथा विधि और प्रतिषेध धर्मों के वस्तुपना नहीं है, जिससे उनमें अनेक अवग्रह हो सकें। किन्तु विधि और प्रतिषेध धर्मों के समुदायात्मक एक वस्तु होती है, उस प्रकार की वस्तु के उपलम्भ को एक अवग्रह कहते हैं।
- अनेक वस्तुविषयक ज्ञान को अनेक अवग्रह कहते हैं, किन्तु प्रतिभास तो सर्व ही अनेक धर्मों का विषय करने वाला होता है, क्योंकि, विधि और प्रतिषेध इन दोनों में से किसी एक ही धर्म का अनुपलम्भ है, अर्थात् इन दोनों में से एक को छोड़कर दूसरा नहीं पाया जाता, दोनों ही प्रधान-अप्रधानरूप से साथ-साथ पाये जाते हैं।
ध.13/5,5,35/236/10 ऊर्ध्वाधो–मध्यभागाद्यवयवगतानेकत्वानुगतैकत्वोपलम्भान्नैक: प्रत्ययोऽस्तीति चेत्–न, एवं विधस्यैव जात्यन्तरीभूतस्यात्रैकत्वस्य ग्रहणात्। = प्रश्न– - चूँकि ऊर्ध्वभाग, अधोभाग और मध्यभाग आदि रूप अवयवों में रहने वाली अनेकता से अनुगत एकता पायी जाती है, अतएव वह एक प्रत्यय नहीं है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, यहाँ इस प्रकार की ही जात्यन्तरभूत एकता का ग्रहण किया है।
- क्षिप्र व अक्षिप्र ज्ञानों के लक्षण
स.सि./1/16/112/7 क्षिप्रग्रहणमचिरप्रतिपत्त्यर्थं। = क्षिप्र शब्द का ग्रहण जल्दी होने वाले ज्ञान को जतलाने के लिए है। (रा.वा./1/16/10/63/16)।
रा.वा./1/16/16/64/2 प्रकृष्टश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमादिपारिणामिकत्वात् क्षिप्रं शब्दमवगृह्णाति। अल्पश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमपारिणामिकत्वात् चिरेण शब्दमवगृह्णाति। = प्रकृष्ट श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशम आदि परिणाम के कारण शीघ्रता से शब्दों को सुनता है और क्षयोपशमादि की न्यूनता में देरी से शब्दों को सुनता है। (इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों पर भी लागू कर लेना )।
ध.6/1,9-1,14/20/3 आसुग्गहणं खिप्पावग्गहो, सणिग्गहणमखिप्पावग्गहो। = शीघ्रतापूर्वक वस्तु को ग्रहण करना क्षिप्र अवग्रह है और शनै: शनै: ग्रहण करना अक्षिप्र अवग्रह है। (ध.9/4,1,45/152/4); (ध.13/5,5,35/237/9)।
गो.जी./जी.प्र./311/667/14 क्षिप्र: शीघ्रपतञ्जलधाराप्रवाहादि:। ... अक्षिप्र: मन्दं गच्छन्नश्वादि:। = शीघ्रता से पड़ती जलधारा आदि का ग्रहण क्षिप्र है और मन्दगति से चलते हुए घोड़े आदि का अक्षिप्र अवग्रह है। - नि:सृत व अनि:सृत ज्ञानों के लक्षण
स.सि./1/16/112/7 अनि:सृतग्रहणं असकलपुद्गलोद्गमार्थम्। = (अनि:सृत अर्थात् ईषत् नि:सृत) कुछ प्रगट और कुछ अप्रगट, इस प्रकार वस्तु के कुछ भागों का ग्रहण होना और कुछ का न होना, अनि:सृत अवग्रह है। (रा.वा./1/16/11/63/18)।
रा.वा./1/16/16/64/4 सुविशुद्धश्रोत्रादिपरिणामात् साकल्येनानुचारितस्य ग्रहणात् अनि:सृतमवगृह्णाति। नि:सृतं प्रतीतम्। = क्षयोपशम की विशुद्धि में पूरे वाक्य का उच्चारण न होने पर भी उसका ज्ञान कर लेना अनि:सृत अवग्रह है और क्षयोपशम की न्यूनता में पूरे रूप से उच्चारित शब्द का ही ज्ञान करना नि:सृत अवग्रह है।
ध.6/1,9-1,14/20/4 अहिमुहअत्थग्गहणं णिसियावग्गहो, अणहिमुहअत्थग्गहणं अणिसियावग्गहो। अहवा उवमाणोवमेयभावेण ग्गहण णिसियावग्गहो, जहा कमलदलणयणा त्ति। तेण विणा गहणं अणिसियावग्गहो। = अभिमुख अर्थ का ग्रहण करना नि:सृत अवग्रह है और अनभिमुख अर्थ का ग्रहण करना अनि:सृत अवग्रह है। अथवा, उपमान-उपमेय भाव के द्वारा ग्रहण करना नि:सृत अवग्रह है। जैसे–कमलदल-नयना अर्थात् इस त्री के नयन कमलदल के समान हैं। उपमान-उपमेय भाव के बिना ग्रहण करना अनि:सृत अवग्रह है।
ध.9/4,1,45/पृष्ठ/पंक्ति- वस्त्वेकदेशमवलम्ब्य साकल्येन वस्तुग्रहणं वस्त्वेकदेशं समस्तं वा अवलम्ब्य तत्रासन्निहितवस्त्वन्तरविषयोऽप्यनि:सृतप्रत्य:।(152/5)। ...एतत्प्रतिपक्षो नि:सृतप्रत्य:, तथा क्वचित्कदाचिदुपलभ्यते च वस्त्वेकदेशे आलम्बनीभूते प्रत्ययस्य वृत्ति:। (153/8) । = वस्तु के एकदेश का अवलम्बन करके पूर्ण रूप से वस्तु को ग्रहण करने वाला, तथा वस्तु के एकदेश अथवा समस्त वस्तु का अवलम्बन करके वहाँ अविद्यमान अन्य वस्तु को विषय करने वाला भी अनि:सृत प्रत्यय है। इसका प्रतिपक्षभूत नि:सृत प्रत्यय है, क्योंकि, कहीं पर किसी काल में आलम्बनीभूत वस्तु के एकदेश में उतने ही ज्ञान का अस्तित्व पाया जाता है। (गो.जी./मू./312/669)।
ध.13/5,5,35/पृष्ठ/पंक्ति― वस्त्वेकदेशस्य आलम्बनीभूतस्य ग्रहणकाले एकवस्तुप्रतिपत्ति: वस्त्वेकदेशप्रतिपत्तिकाल एव वा दृष्टान्तमुखेन अन्यथा वा अनवलम्बितवस्तुप्रतिपत्ति: अनुसंधानप्रत्यय: प्रत्यभिज्ञानप्रत्ययश्च अनि:सृतप्रत्यय:।(237/11)। ... एतत्प्रतिपक्षो नि:सृतप्रत्यय:, क्वचित्कदाचिद्वस्त्वेकदेश एवं प्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भात्।(238/11)। = आलम्बनीभूत वस्तु के एकदेश ग्रहण के समय में ही एक (पूरी) वस्तु का ज्ञान होना; या वस्तु के एकदेश के ज्ञान के समय में ही दृष्टान्तमुखेन या अन्य प्रकार से अनवलम्बित वस्तु का ज्ञान होना; तथा अनुसंधान प्रत्यय और प्रत्यभिज्ञान प्रत्यय–ये सब अनि:सृत प्रत्यय हैं। इससे प्रतिपक्षभूत नि:सृतप्रत्यय है, क्योंकि, कहीं पर किसी काल में वस्तु के एकदेश के ज्ञान की ही उत्पत्ति देखी जाती है।
गो.जी./मू./313/669 पुक्खरगहणे काले हत्थिस्स य वदणगवयगहणे वा। वत्थंतरचंदस्स य धेणुस्स य वोहणं च हवे।313। = तालाब में जलमग्न हस्ती की सूँड देखने पर पूरे हस्ती का ज्ञान होना; अथवा किसी त्री का मुख देखने पर चन्द्रमा का या ‘इसका मुख चन्द्रमा के समान है’ ऐसी उपमा का ज्ञान होना; अथवा गवय को देखकर गाय का ज्ञान होना, ये सब अनि:सृत अवग्रह हैं। - अनि:सृत ज्ञान और अनुमान में अन्तर
ध.13/5,5,35/238/3 अर्वाग्भागावष्टम्भबलेन अनालम्बितपरभागादिषूत्पपद्यमान: प्रत्यय: अनुमान किन्न स्यादिति चेत्–न, तस्य लिङ्गादभिन्नार्थविषयत्वात्। न तावदर्वाग्भागप्रत्ययसमकालभावी परभागप्रत्ययोऽनुमानम्, तस्यावग्रहरूपत्वात्। न भिन्नकालभाव्यप्यनुमानम्, तस्य ईहापृष्ठभाविन: अवायप्रत्ययेऽन्तर्भावात्। = प्रश्न–अर्वाग्भाग के आलम्बन से अनालम्बित परभागादिकों का होने वाला ज्ञान अनुमानज्ञान क्यों नहीं होगा? उत्तर–नहीं, क्योंकि, अनुमानज्ञान लिंग से भिन्न अर्थ को विषय करता है। अर्वाग्भाग के ज्ञान के समान काल में होने वाला परभाग का ज्ञान तो अनुमान ज्ञान हो नहीं सकता, क्योंकि, वह अवग्रह स्वरूप ज्ञान है। भिन्न काल में होने वाला भी उक्त ज्ञान अनुमानज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि ईहा के पश्चात् उत्पन्न होने से उसका अवायज्ञान में अन्तर्भाव होता है। - अनि:सृत विषयक ज्ञान की सिद्धि
ध.9/4,1,45/152/7 न चायमसिद्ध:, घटार्वाग्भागमवलम्ब्य क्वचिद्घटप्रत्ययस्य उत्पत्त्युपलम्भात् क्वचिदर्वाग्भागैकदेशमवलम्ब्य तदुत्पत्त्युपलम्भात् क्वचिद् गौरव गवय इत्यन्यथा वा एकवस्त्ववलम्ब्य तत्रासंनिहितवस्त्वन्तविषयप्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भात् क्वचिदर्वादर्वाग्भागग्रहणकाल एव परभागग्रहणोपलम्भात्। न चायमसिद्ध:, वस्तुविषयप्रत्ययोत्पत्त्यन्यथानुपपत्ते:। न चार्वाग्भागमात्रं वस्तु, तत एव अर्थ क्रियाकृर्तत्वानुपलम्भात्। क्वचिदेकवर्णश्रवणकाल एव अभिधास्यमानवर्णविषयप्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भात्, क्वचित्स्वाभ्यस्तप्रदेशे एकस्पर्शोपलम्भकाल एव स्पर्शान्तरविशिष्टतद्वस्तुप्रदेशान्तरोपलम्भात क्वचिदेकरसग्रहणकाल एव तत्प्रदेशासंनिहितरसान्तरविशिष्टवस्तूपलम्भात्। नि:सृतमित्यपरे पठन्ति। तैरुपमाप्रत्यय एक एव संगृहीत: स्यात्, ततोऽसौ नेष्यते। =- यह प्रत्यय असिद्ध नहीं है, क्योंकि, घट के अर्वाग्भाग का अवलम्बन करके कहीं घटप्रत्यय की उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर अर्वाग्भाग के एकदेश का अवलम्बन करके उक्त प्रत्यय की उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर, ‘गाय के समान गवय होता है’ इस प्रकार अथवा अन्य प्रकार से एक वस्तु का अवलम्बन करके वहाँ समीप में न रहने वाली अन्य वस्तु को विषय करने वाल प्रत्यय की उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर अर्वाग्भाग के ग्रहणकाल में ही परभाग का ग्रहण पाया जाता है; और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि अन्यथा वस्तु विषयक प्रत्यय की उत्पत्ति बन नहीं सकती; तथा अर्वाग्भागमात्र वस्तु हो नहीं सकती, क्योंकि, उतने मात्र से अर्थक्रियाकारित्व नहीं पाया जाता। कहीं पर एक वर्ण के श्रवणकाल में ही उच्चारण किये जाने वाले वर्णों को विषय करने वाले प्रत्यय की उत्पत्ति पायी जाती है। कहीं पर अपने अभ्यस्त प्रदेश में एक स्पर्श के ग्रहण काल में ही अन्य स्पर्श विशिष्ट उस वस्तु के प्रदेशान्तरों का ग्रहण होता है। तथा कहीं पर एक रस के ग्रहण काल में ही उन प्रदेशों में नहीं रहने वाले रसान्तर से विशिष्ट वस्तु का ग्रहण होता है। दूसरे आचार्य ‘नि:सृत’ ऐसा पढ़ते हैं। उनके द्वारा उपमा प्रत्यय एक ही संग्रहीत होगा, अत: वह इष्ट नहीं है। (ध.13/5,5,35/237/13)।
- अनि:सृत विषयक व्यंजनावग्रह की सिद्धि
रा.वा./1/19/9/70/14 अथानि:सृते कथम्। तत्रापि ये च यावन्तश्च पुद्गला: सूक्ष्मा: नि:सृताः सन्ति, सूक्ष्मास्तु साधाराणैर्न गृह्यन्ते, तेषामिन्द्रियस्थानावगाहनम् अनि:सृतव्यञ्जनावग्रह:। = प्रश्न–अनि:सृत ग्रहण में व्यंजनावग्रह कैसे सम्भव है ? उत्तर–जितने सूक्ष्म पुद्गल प्रगट हैं उनसे अतिरिक्त का ज्ञान भी अव्यक्तरूप से हो जाता है। उन सूक्ष्म पूद्गलों का साधारण इन्द्रियों द्वारा तो ग्रहण नहीं होता है, परन्तु उनका इन्द्रियदेश में आ जाना ही उनका अव्यक्त ग्रहण है। - उक्त-अनुक्त ज्ञानों के लक्षण
स.सि./1/16/113/1 अनुक्तमभिप्रायेण ग्रहणम्। = जो कही या बिना कही वस्तु अभिप्राय से जानी जाती है उसके ग्रहण करने के लिए ‘अनुक्त’ पद दिया है। (रा.वा./1/16/12/63/20)।
रा.वा./1/16/16/64/5 प्रकृष्टविशुद्धिश्रोत्रेन्द्रियादिपरिणामकारणत्वात्। एकवर्णानिर्गमेऽपि अभिप्रायेणैव अनुच्चारितं शब्दमवगृह्णाति ‘इमं भवान् शब्दं वक्ष्यति’ इति। अथवा, स्वरसंचारणात् प्राक्तत्रीद्रव्यातोद्याद्यामर्शनेनैव अवादिम्। अनुक्तमेव शब्दमभिप्रायेणावगृह्य आचष्टे ‘भवानिमं शब्दं वादयिष्यति’ इति। उक्तं प्रतीतम्। = श्रोत्रेन्द्रिय के प्रकृष्ट क्षयोपशम के कारण एक भी शब्द का उच्चारण किये बिना अभिप्राय मात्र से अनुक्त शब्द को जान लेता है, कि आप यह कहने वाले हैं। अथवा वीणा आदि के तारों को सम्हालते समय ही यह जान लेना कि ‘इसके द्वारा यह राग बजाया जायेगा’ अनुक्त ज्ञान है। उक्त अर्थात् कहे गये शब्द को जानना। (इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों में भी लागू करना)।
ध.6/1,9-1,14/20/6 णियमियगुणविसिट्ठअत्थग्गहणं उत्तावग्गहो। जधा चक्खिंदिएण धवलत्थग्गहणं, घाणिंदिएण सुअंधदव्वग्गहणमिच्चादि। अणियमियगुणविसिट्ठदव्वग्गहणमउत्तावग्गहो, जहा चक्खिंदिएण गुडादीणं रसस्सग्गहणं, घाणिंदिएण दहियादीणं रसग्गहणमिच्चादि। = नियमित गुणविशिष्ट अर्थ का ग्रहण करना उक्त अवग्रह है। जैसे–चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा धवल अर्थ का ग्रहण करना और घ्राण इन्द्रिय के द्वारा सुगन्ध द्रव्य का ग्रहण करना इत्यादि। अनियमित गुणविशिष्ट द्रव्य का ग्रहण करना अनुक्त अवग्रह है। जैसे चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा रूप देखकर गुड़ आदि के रस का ग्रहण करना अथवा घ्राणेन्द्रिय के द्वारा दही के गन्ध के ग्रहणकाल में ही उसके रस का ग्रहण करना। (ध.1/1,1,115/357/5); (ध.9/4,1,45/153/9); (ध.13/5,5,35/238/12)।
गो.जी./जी.प्र./311/667/14 अनुक्त: अकथित: अभिप्रायगत:। ... उक्त: अयं घट: इति कथितो दृश्यमान:। = बिना कहे अभिप्राय मात्र से जानना अनुक्त है और कहे हुए पदार्थ को जानना उक्त अवग्रह है। जैसे–‘यह घट है’ ऐसा कहने पर घट को जानना। - उक्त और नि:सृत ज्ञानों में अन्तर
स.सि./1/16/113/8 उक्तनि:सृतयो: क: प्रतिविशेष:; यावता सकलनि:सरणान्नि:सृतम्। उक्तमप्येवंविधमेव। अयमस्ति विशेष:, अन्योपदेशपूर्वकं ग्रहणमुक्तम्। स्वत: एव ग्रहणं नि:सृतम्। अपरेषां क्षिप्रनि:सृत इति पाठ:। त एवं वर्णयन्ति श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दमवगृह्यमाणं मयूरस्य वा कुररस्य वेति कश्चित्प्रतिपद्यते। अपर: स्वरूपमेवाश्रित्य इति। = प्रश्न–उक्त और नि:सृत में क्या अन्तर है–क्योंकि, वस्तु का पूरा प्रगट होना नि:सृत है और उक्त भी इसी प्रकार है? उत्तर–इन दोनों में यह अन्तर है–अन्य के उपदेशपूर्वक वस्तु का ग्रहण करना उक्त है, और स्वत: ग्रहण करना नि:सृत’ है। कुछ आचार्यों के मत से सूत्र में ‘क्षिप्रानि:सृत’ के स्थान में ‘क्षिप्रनि:सृत’ ऐसा पाठ है। वे ऐसा व्याख्यान करते हैं, कि श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा शब्द को ग्रहण करते समय वह मयूर का है अथवा कुरर का है ऐसा कोई जानता है। दूसरा स्वरूप के आश्रय से ही जानता है। (रा.वा./1/16/16/64/21)।
ध.9/4,1,45/154/5 नि:सृतोक्तयो: को भेदश्चेन्न, उक्तस्य नि:सृतानि:सृतोभयरूपस्य तेनैकत्वविरोधात्। = प्रश्न–नि:सृत और उक्त में क्या भेद है। उत्तर–नहीं, क्योंकि, उक्त प्रत्यय नि:सृत और अनि:सृत दोनों रूप है। अत: उसका नि:सृत के साथ एकत्व होने का विरोध है। (ध.13/5,5,35/239/2)। - अनुक्त और अनि:सृत ज्ञानों में अन्तर
ध.6/1,9-1,14/20/9 णायमणिस्सिदस्स अंतो पददि, एयवत्थुग्गहणकाले चेय तदो पुधभूदवत्थुस्स, ओवरिमभाग्गगहणकाले चेय परभागस्स य, अंगुलिगहणकाले चेय देवदत्तस्स य गहणस्स अणिस्सिदवदेसादो। = अनुक्त अवग्रह अनि:सृत अवग्रह के अन्तर्गत नहीं है, क्योंकि, एक वस्तु के ग्रहणकाल में ही, उससे पृथग्भूत वस्तु का, उपरिम भाग के ग्रहण काल में ही परभाग का और अंगुलि के ग्रहणकाल में ही देवदत्त का ग्रहण करना अनि:सृत अवग्रह है (और रूप का ग्रहण करके रस का ग्रहण करना अनुक्त है।) - अनुक्त विषयक ज्ञान की सिद्धि
ध.9/4,1,45/154/1 न चायमसिद्ध:, चक्षुषालवण-शर्कराखण्डोपलम्भकाल एव कदाचित्तद्रसोपलम्भात्, दध्नो गन्धग्रहणकाल एव तद्रसावगते:, प्रदीपस्य रूपग्रहणकाल एव कदाचित्तत्स्पर्शोपलम्भादिहितसंस्कारस्य, कस्यचिच्छब्दग्रहणकाल एव तद्रसादिप्रत्ययोत्पत्त्युपलम्भाच्च। = यह (अनुक्त अवग्रह) असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि चक्षु से लवण, शक्कर व खाण्ड के ग्रहण काल में ही कभी उनके रस का ज्ञान हो जाता है; दही के गन्ध के ग्रहणकाल में ही उसके रस का ज्ञान हो जाता है; दीपक के रूप के ग्रहणकाल में ही कभी उसके स्पर्श का ग्रहण हो जाता है, तथा शब्द के ग्रहणकाल में ही संस्कार युक्त किसी पुरुष के उसके रसादिविषयक प्रत्यय की उत्पत्ति भी पायी जाती है। (ध.13/5,5,35/238/13)। - मन सम्बन्धी अनुक्त ज्ञान की सिद्धि
ध.9/4,1,45/154/6 मनसोऽनुक्तस्य को विषयश्चेददृष्टमश्रुतं च। न च तस्य तत्र वृत्तिरसिद्धा, उपदेशमन्तरेण द्वादशाङ्गश्रुतावगमान्यथानुपपत्तितस्तस्य तत्सिद्धे:। = प्रश्न–मन से अनुक्त का क्या विषय है ? उत्तर–अदृष्ट और अश्रुत पदार्थ उसका विषय है। और उसका वहाँ पर रहना असिद्ध नहीं है, क्योंकि, उपदेश के बिना अन्यथा द्वादशांग श्रुतका ज्ञान नहीं बन सकता; अतएव उसका अदृष्ट व अश्रुत पदार्थ में रहना सिद्ध है। (ध. 13/5,5,35/239/6)। - <a name="4.17" id="4.17"></a>अप्राप्यकारी इन्द्रियों सम्बन्धी अनि:सृत व अनुक्त ज्ञानों की सिद्धि
रा.वा./1/16/17-20/65/11 कश्चिदाहश्रोत्रघ्राणस्पर्शनरसनचतुष्टयस्य प्राप्यकारित्वात् अनि:सृतानुक्तशब्दाद्यवग्रहेहावायधारणा न युक्ता इति; उच्यते–अप्राप्ततत्त्वात्।17। कथम्। पिपीलिकादिवत्।18। यथा पिपीलिकादीनां घ्राणरसनदेशाप्राप्तेऽपि गुडादिद्रव्ये गन्धरसज्ञानम्, तच्च यैश्च यावद्भिश्चास्मादाद्यप्रत्यक्षसूक्ष्मगुडावयवै: पिपीलिकादिघ्राणरसनेन्द्रिययो: परस्परानपेक्षा प्रवृत्तिस्ततो न दोष:। अस्मदादीनां तद्भाव इति चेत्; न; श्रुतापेक्षत्वात्।19।... परोपदेशापेक्षत्वात् ...। किंच, लब्ध्यक्षरत्वात्।20। ... ‘चक्षु:श्रोत्रघ्राणरसनस्पर्शनमनोलब्धसक्षरम्’ इत्यार्ष उपदेश:। अत: ... लब्ध्यक्षरसानिध्यात् एतत्सिध्यति अनि:सृतानुक्तानामपि शब्दानीनां अवग्रहादिज्ञानम्। = प्रश्न–स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र ये चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं (देखें इन्द्रिय - 2), अत: इनसे अनि:सृत और अनुक्त ज्ञान नहीं हो सकते ? उत्तर–इन इन्द्रियों से किसी न किसी रूप में पदार्थ का सम्बन्ध अवश्य हो जाता है, जैसे कि चींटी आदि को घ्राण व रसना इन्द्रिय के प्रदेश को प्राप्त न होकर भी गुड आदि द्रव्यों के रस व गन्ध का जो ज्ञान होता है, वह गुड़ आदि के प्रत्यक्ष अवयवभूत सूक्ष्म परमाणुओं के साथ उसकी घ्राण व रसना इन्द्रियों का सम्बन्ध होने के कारण ही होता है। प्रश्न–हम लोगों को तो वैसा ज्ञान नहीं होता है ? उत्तर–नहीं, श्रुतज्ञान की अपेक्षा हमें भी वैसा ज्ञान पाया जाता है, क्योंकि, उसमें परोपदेश की अपेक्षा रहती है। दूसरी बात यह भी है, कि आगम में श्रुतज्ञान के भेद-प्रभेद के प्रकरण में लब्ध्यक्षर के चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना, स्पर्शन और मन के भेद से छह भेद किये हैं (देखें श्रुतज्ञान - II.2); इसलिए इन लब्ध्यक्षरूप श्रुतज्ञानों से उन-उन इन्द्रियों द्वारा अनि:सृत और अनुक्त आदि विशिष्ट अवग्रह आदि ज्ञान होता रहता है। - ध्रुव व अध्रुव ज्ञानों के लक्षण
स.सि./1/16/113/1 ध्रुवं निरन्तरं यथार्थग्रहणम्। = जो यथार्थ ग्रहण निरन्तर होता है, उसके जताने के लिए ध्रुव पद दिया है। (और भी देखें अगला शीर्षक नं - 19)। (रा.वा./1/16/13/63/21)।
रा.वा./1/16/16/64/8 संक्लेशपरिणामनिरुत्सुकस्य यथानुरुपश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमादिपरिणामकारणावस्थितत्वात् यथा प्राथमिकं शब्दग्रहणं तथावस्थितमेव शब्दमवगृह्णाति नोनं नाभ्यधिकम्। पौन:पुन्येन संक्लेशविशुद्धिपरिणामकारणापेक्षस्यात्मनो यथानुरूपपरिणामोपात्तश्रोत्रेन्द्रियसांनिध्येऽपि तदावरणस्येषदीषदाविर्भावात् पौन:पुनिकं प्रकृष्टावकृष्टश्रोत्रेन्द्रियावरणादिक्षयोपशमपरिणामत्वाच्च अध्रुवमवगृह्णाति शब्दम्–क्वचिद् बहु क्वचिदल्पं क्वचिद् बहुविधं क्वचिदेकविधं क्वचित् क्षिप्रं क्वचिच्चिरेण क्वचिदनि:सृतं क्वचिन्निसृतं क्वचिदुक्तं क्वचिदनुक्तम्। = संक्लेश परिणामों के अभाव में यथानुरूप ही श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशमादि परिणामरूप कारणों के अवस्थित रहने से, जैसा प्रथम समय में शब्द का ज्ञान हुआ था आगे भी वैसा ही ज्ञान होता रहता है। न कम होता है और न अधिक। यह ‘ध्रुव’ ग्रहण है। परन्तु पुन: पुन: संक्लेश और विशुद्धि में झूलने वाले आत्मा को यथानुरूप श्रोत्रेन्द्रिय का सान्निध्य रहने पर भी उसके आवरण का किंचित् उदय रहने के कारण, पुन: पुन: प्रकृष्ट व अप्रकृष्ट श्रोत्रेन्द्रियावरण के क्षयोपशमरूप परिणाम होने से शब्द का अध्रुव ग्रहण होता है, अर्थात् कभी बहुत शब्दों को जानता है और कभी एक अल्प को, कभी बहुत प्रकार के शब्दों को जानता है और कभी एक प्रकार के शब्दों को, कभी शीघ्रता से शब्द को जान लेता है और कभी देर से, कभी प्रगट शब्द को ही जानता है और कभी अप्रगट को भी, कभी उक्त को ही जानता है और कभी अनुक्त को भी।
ध.6/1,9-1,14/21/1 णिच्चत्ताए गहणं धुवावग्गहो, तव्विवरीयगहणमद्धुवावग्गहो। = नित्यता से अर्थात् निरन्तर रूप से ग्रहण करना ध्रुव-अवग्रह है और उससे विपरीत ग्रहण करना अध्रुव अवग्रह है।
ध.1/1,1,115/357/6 सोऽयमित्यादि ध्रुवावग्रह:। न सोऽयमित्याद्यध्रुवावग्रह:। = ‘वह यही है’ इत्यादि प्रकार से ग्रहण करने को ध्रुवावग्रह कहते हैं और ‘वह यह नहीं है’ इस प्रकार से ग्रहण करने को अध्रुवावग्रह कहते हैं। (ध.9/4,1,45/154/6)।
ध.13/5,5,35/239/4 नित्यत्वविशिष्टस्तम्भादिप्रत्यय: स्थिर:। ... विद्युत्प्रदीपज्वालादौ उत्पादविनाशविशिष्टवस्तुप्रत्यय: अध्रुव:। उत्पाद-व्यय ध्रौव्यविशिष्टवस्तुप्रत्ययोऽपि अध्रुव:, ध्रुवात्पृथग्भूतत्वात्। = नित्यत्वविशिष्ट स्तम्भ आदि का ज्ञान स्थिर अर्थात् ध्रुवप्रत्यय है और बिजली, दीपक की लौ आदि में उत्पाद-विनाश युक्त वस्तु का ज्ञान अध्रुव प्रत्यय है। उत्पाद व्यय और ध्रौव्य युक्त वस्तु का ज्ञान भी अध्रुव प्रत्यय है; क्योंकि, यह ज्ञान ध्रुव ज्ञान से भिन्न है। - ध्रुवज्ञान व धारणा में अन्तर
स.सि./1/16/114/4 ध्रुवावग्रहस्य धारणायाश्च क: प्रतिविशेष:। उच्यते; क्षयोपशमप्राप्तिकाले विशुद्धपरिणामसंतत्या प्राप्तात्क्षयोपशमात्प्रथमसमये यथावग्रहस्तथैव द्वितीयादिष्वपि समयेषु नोनो नाभ्यधिक इति ध्रुवावग्रह इत्युच्यते। यदा पुनर्विशुद्धपरिणामस्य संक्लेशपरिणामस्य च मिश्रणात्क्षयोपशमो भवति तत उत्पद्यमानोऽवग्रह: कदाचिद् बहूनां कदाचिदल्पस्य कदाचिद् बहुविधस्य कदाचिदेकविधस्य वेति न्यूनाधिकभावादध्रुवावग्रह इत्युच्यते। धारणा पुनर्गृहीतार्थाविस्मरणकारणमिति महदनयोरन्तरम्। = प्रश्न–ध्रुवावग्रह और धारणा में क्या आन्तर है? उत्तर–क्षयोपशम की प्राप्ति के समय विशुद्ध परिणामों की परम्परा के कारण प्राप्त हुए क्षयोपशम से प्रथम समय जैसा अवग्रह होता है, वैसा ही द्वितीय आदि समयों में भी होता है, न न्यून होता है और न अधिक, वह ध्रुवावग्रह है। किन्तु जब विशुद्ध परिणाम और संक्लेश परिणामों के मिश्रण से क्षयोपशम होकर उससे अवग्रह होता है, तब वह कदाचित् बहुत का होता है, कदाचित् अल्प का होता है, कदाचित् बहुविध का होता है और कदाचित् एकविध का होता है। तात्पर्य यह कि उसमें न्यूनाधिक भाव होता रहता है, इसलिए वह अध्रुवावग्रह कहलाता है। किन्तु धारणा तो गृहीत अर्थ के नहीं भूलने के कारणभूत ज्ञान को कहते हैं, अत: ध्रुवावग्रह और धारणा में बड़ा अन्तर है। - ध्रुवज्ञान एकान्तरूप नहीं
ध.13/5,5,35/239/4 न च स्थिरप्रत्यय: एकान्त इति प्रत्यवस्थातुं युक्तम्, विधिनिषेधादिद्वारेण अत्रापि अनेकान्तविषयत्वदर्शनात्। = स्थिर (ध्रुव) ज्ञान एकान्तरूप है, ऐसा निश्चय करना युक्त नहीं है, क्योंकि, विधि-निषेध के द्वारा यहाँ पर भी अनेकान्त की विषयता देखी जाती है।
- बहु व बहुविध ज्ञानों के लक्षण
पुराणकोष से
पाँच प्रकार के ज्ञान में प्रथम ज्ञान । यह पाँच इन्द्रियों तथा मन की सहायता से प्रकट होता है । यद्यपि यह परोक्ष ज्ञान है परन्तु इन्द्रियों की अपेक्षा से उत्पन्न होने के कारण सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहलाता है । यह अन्तरंग कारण मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा रखता है । इसके अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद है । यह ज्ञान पाँच इन्द्रियों और मन इन छ: साधनों से होता है । अत: उक्त चारों भेदों में प्रत्येक के छ: छ: भेद कर देने से इसके चौबीस भेद हो जाते हैं । इन भेदों में शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श ये व्यंजनावग्रह के चार भेद मिला देने से अट्ठाईस भेद और इनमें अवग्रह आदि चार मूल भेद मिला देने से बत्तीस भेद हो जाते हैं । इस प्रकार इस ज्ञान के चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीस ये तीन मूल भेद है । इनमें क्रम से बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनि:सृत, अनुक्त ध्रुव इन छ: का गुणा करने पर क्रमश: एक सौ चवालीस, एक सो अड़सठ और एक सौ बानवे भेद हो जाते हैं । बहु आदि छ: और इनके विपरीत एक आदि छ: इन बारह भेदों का उक्त तीनों राशियों चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीस में गुणा करने से इस ज्ञान के क्रमश: दो सौ अठासी, तीन सौ छत्तीस और तीन सौ चौरासी भेद हो जाते हैं मिथ्यादृष्टि जीवों को प्राप्त यह ज्ञान कुमतिज्ञान कहलाता है । यह ज्ञान पदार्थ-चिन्तन में सहायक तथा कोष्ठबुद्धि आदि ऋद्धियों का साधक भी होता है । महापुराण 36.142, 146, हरिवंशपुराण 10. 145-151