मधु: Difference between revisions
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देखें [[ मांस#2 | मांस - 2 ]]नवनीत, मद्य, मांस व मधु ये चार महाविकृतियाँ हैं।</span><br /> | |||
पु.सि.उ./ | पु.सि.उ./69-70 <span class="SanskritGatha">मधुशकलमपि प्रायो मधुरकरहिंसात्मको भवति लोके। भजति मधुमूढधीको य: स भवति हिंसकोऽत्यन्तकम्।69। स्वयमेव विगलितं यो गृह्णोयाद्वा छलेन मधुगोलात्। तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात्।70।</span> = <span class="HindiText">मधु की बूँद भी मधुमक्खी की हिंसारूप ही होती है, अत: जो मन्दमति मधु का सेवन करता है, वह अत्यन्त हिंसक है।69। स्वयमेव चूए हुए अथवा छल द्वारा मधु के छत्ते से लिये हुए मधु का ग्रहण करने से भी हिंसा होती है, क्योंकि इस प्रकार उसके आश्रित रहने वाले अनेकों क्षुद्रजीवों का घात होता है।</span><br /> | ||
यो.सा./अ/ | यो.सा./अ/8/32 <span class="SanskritGatha">बहुजीवप्रघातोत्थं बहुजीवोद्भवास्पदम्। असंयमविभीतेन त्रेधा मध्वपि वर्ज्यते।62।</span> = <span class="HindiText">संयम की रक्षा करने वालों को बहुत जीवों के घात से उत्पन्न तथा बहुत जीवों की उत्पत्ति के स्थानभूत मधु को मन वचन काय से छोड़ देना चाहिए।</span><br /> | ||
अ.ग.श्रा./ | अ.ग.श्रा./5/32 <span class="SanskritGatha">योऽत्ति नाम भेषजेच्छया, सोऽपि याति लघु दुःखमुल्वणम्। किं न नाशयति जीवितेच्छया, भक्षितं झटिति जीवितं विषम्।32। </span>= <span class="HindiText">जो औषध की इच्छा से भी मधु खाता है, सो भी तीव्र दुःख को शीघ्र प्राप्त होता है, क्योंकि, जीने की इच्छा से खाया हुआ विष, क्या शीघ्र ही जीवन का नाश नहीं कर देता है।</span><br /> | ||
सा.ध./ | सा.ध./2/11 <span class="SanskritGatha">मधुकृद्व्रातघातोत्थं मध्वशुच्यपि बिन्दुश:। खादन् बध्नात्यघं सप्तग्रामदाहांहसोऽधिकम्।32।</span> = <span class="HindiText">मधु को उपार्जन करने वाले प्राणियों के समूह के नाश से उत्पन्न होने वाली तथा अपवित्र, ऐसी मधु की एक बूँद भी खानेवाला पुरुष सात ग्रामों को जलाने से भी अधिक पाप को बाँधता है।</span><br /> | ||
ला.सं./ | ला.सं./2/72-74 <span class="SanskritGatha">माक्षिकं मक्षिकानां हि मांसासृक् पीडनोद्भवम्। प्रसिद्धं सर्वलोके स्यादागमेष्वपि सूचितम्।72 न्यायात्तद्भक्षणे नूनं पिशिताशनदूषणम्। त्रसास्ता मक्षिका यस्मादामिषं तत्कलेवरम्।73। किञ्च तत्र निकोतादि जीवा: संसर्गजा क्षणात्। संमूर्च्छिमा न मुञ्चन्ति तत्सनं जातु क्रव्यवत्।74।</span> = <span class="HindiText">मधु की उत्पत्ति मक्खियों के मांस रक्त आदि के निचोड़ से होती है, यह बात समस्त संसार में प्रसिद्ध है, तथा शात्रों में भी यही बात बतलायी है।72। इस प्रकार न्याय से भी यह बात सिद्ध हो जाती है कि मधु के खाने में मांस-भक्षण का दोष आता है, क्योंकि मक्खियाँ त्रस जीव होने से उनका कलेवर मांस कहलाता है।73। इसके सिवाय एक बात यह भी है कि जिस प्रकार मांस में सूक्ष्म निगोदराशि उत्पन्न होती रहती है, उसी प्रकार जिस किसी भी अवस्था में रहते हुए भी मधु में सदा जीव उत्पन्न होते रहते हैं। उन जीवों से रहित मधु कभी नहीं होता है।74।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> मधुत्याग के अतिचार</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> मधुत्याग के अतिचार</strong> </span><br /> | ||
सा.ध./ | सा.ध./3/13 <span class="SanskritGatha">प्राय: पुष्पाणि नाश्नीयान्मधुव्रतविशुद्धये। वस्त्यादिष्वपि मध्वादिप्रयोगं नार्हति व्रती।13।</span> = <span class="HindiText">मधुत्याग व्रती के लिए फूलों का खाना तथा वस्तिकर्म आदि (पिण्डदान या औषधि आदि) के लिए भी मधु को खाना वर्जित है। ‘प्राय:’ शब्द से, अच्छी तरह से शोधे जाने योग्य महुआ व नागकेसर आदि के फूलों का अत्यन्त निषेध नहीं किया गया है। (यह अर्थ पं. आशाधर जी ने स्वयं लिखा है )।</span><br /> | ||
ला.सं./ | ला.सं./2/77<span class="SanskritGatha"> प्राग्वदत्राप्यतीचारा: सन्ति केचिज्जिनागमात्। यथा पुष्परस: पीत: पुष्पाणामासवो यथा।77।</span> = <span class="HindiText">मद्य व मांसवत् मधु के अतिचारों का भी शात्रों में कथन किया गया है। जैसे -फूलों का रस या उनसे बना हुआ आसव आदि का पीना। गुलकन्द का खाना भी इसी दोष में गर्भित है। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> मधु नामक पौराणिक पुरुष</strong> <br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> मधु नामक पौराणिक पुरुष</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> म.पु./ | <li class="HindiText"> म.पु./59/88 पूर्वभव में वर्तमान नारायण का धन जुए में जीता था। और वर्तमान भव में तृतीय प्रतिनारायण हुआ। अपर नाम ‘मेरक’ था।–विशेष देखें [[ शलका पुरुष#5 | शलका पुरुष - 5]]। </li> | ||
<li class="HindiText"> प.पु./सर्ग/श्लोक।–मथुरा के राजा हरिवाहन का पुत्र था। ( | <li class="HindiText"> प.पु./सर्ग/श्लोक।–मथुरा के राजा हरिवाहन का पुत्र था। (12/3)। रावण की पुत्री कृतिचित्रा का पति था। (12/18)। रामचन्द्रजी के छोटे भाई शत्रुघ्न के साथ युद्ध करते समय प्रतिबोध को प्राप्त हुआ। (89/96)। हाथी पर बैठे-बैठे दीक्षा धारण कर ली। (89/111)। तदनन्तर समाधिमरण-पूर्वक सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ। (89/115)।</li> | ||
<li class="HindiText"> ह.पु./ | <li class="HindiText"> ह.पु./43/श्लोक–अयोध्या नगरी में हेमनाभ का पुत्र तथा कैटभ का बड़ा भाई था।159। राज्य प्राप्त करके। (160)। राजा वीरसेन की त्री चन्द्राभा पर मोहित हो गया। (165)। बहाना कर दोनों को अपने घर बुलाया तथा चन्द्राभा को रोककर वीरसेन को लौटा दिया। (171-176)। एक बार एक व्यक्ति को परत्रीगमन के अपराध में राजा मधु ने हाथ-पाँव काटने का दण्ड दिया। इस चन्द्रभा ने उसे उसका अपराध याद दिलाया। जिससे उसे वैराग्य आ गया और विमलवाहन मुनि के संघ में भाई कैटभ आदि के साथ दीक्षित हो गया। चन्द्राभा ने भी आर्यिका की दीक्षा ली। (180-202)। शरीर छोड़ आरण अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुआ। (216)। यह प्रद्युम्न कुमार का पूर्व का दूसरा भव है।–देखें [[ प्रद्मुम्न ]]।</li> | ||
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== पुराणकोष से == | |||
<p id="1"> (1) वसन्त ऋतु । <span class="GRef"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>55.29 </span></p> | |||
<p id="2">(2) एक लेह्य पदार्थ-शहद । इसकी इच्छा, सेवन और अनुमोदना नरक का कारण है । <span class="GRef"> महापुराण 10.21, 25-26 </span></p> | |||
<p id="3">(3) तापस सित तथा तापसी मृगशृंगिणी का पुत्र । एक दिन इसने विनयदत्त द्वारा दत्त आहारदान का माहात्म्य देखकर दीक्षा ले ली थी । अन्त में यह मरकर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ था और वहाँ से चयकर कीचक हुआ । <span class="GRef"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>46.54-55 </span></p> | |||
<p id="4">(4) भरतक्षेत्र का एक पर्वत । इसका अपर नाम धरणोमौलि था । किष्किन्धपुर की रचना हो जाने के बाद यह किष्किन्ध नाम से विख्यात हुआ । <span class="GRef"> पद्मपुराण 1. 58, 5.508-511, 520-521 </span></p> | |||
<p id="5">(5) रत्नपुर नगर का नृप-तीसरा प्रतिनारायण । पूर्वभव में यह राजा बलि था । इसने इस पर्याय में वर्तमान नारायण स्वयंभू के पूर्वभव के जीव सुकेतु का जुए में समस्त धन जीत लिया था । पूर्व जन्म के इस वैर से नारायण स्वयंभू मधु का नाम भी नहीं सुनना चाहता था । वह मधु के लिए प्राप्त किसी भी राजा की भेंट को स्वयं ले लेता था । इससे कुपित होकर मधु ने स्वयंभू को मारने के लिए चक्र चलाया था किन्तु चक्र स्वयंभू की दाहिनी भुजा पर जाकर स्थिर हो गया । इसी से स्वयंभू ने मधु को मारा था वह मरकर सातवें नरक में उत्पन्न हुआ । <span class="GRef"> महापुराण 59. 88-99 </span></p> | |||
<p id="6">(6) प्रद्युम्नकुमार के दूसरे पूर्वभव का जीव― जम्बूद्वीप के कुरू जांगल देश के हस्तिनापुर नगर के राजा अर्हद्दास और उसकी रानी काश्यपा का ज्येष्ठ पुत्र और क्रीडव का बड़ा भाई । अर्हद्दास ने इसे राज्य और क्रीडव को युवराज पद देकर दीक्षा ले ली थी । अमलकण्ठ नगर का राजा कनकरथ इसका सेवक था । एक दिन यह कनकरथ की स्त्री कनकमाला को देखकर उस पर आसक्त हो गया । इसने कनकमाला को अपनी रानी भी बना लिया । अन्त में विमलवाहन मुनि से धर्म-श्रवण कर इसने दुराचार की निन्दा की और भाई क्रीडव के साथ यह संयमी बन गया । आयु के अन्त में विधिपूर्वक आराधना करके दोनों भाई महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्र हुए । यह वहाँ से च्युत होकर रुक्मिणी का पुत्र हुआ <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>में इसे अयोध्या नगरी के राजा हेमनाभ की रानी धरावती का पुत्र कहा है तथा वटपुर नगर के वीरसेन की स्त्री चन्द्राभा पर आसक्त बताया गया है । परस्त्री-सेवी को क्या दण्ड दिया जावे पूछे जाने पर इसने उसके हाथ-पैर और सिर काटकर शारीरिक दण्ड देने के लिए ज्यों ही कहा कि चन्द्राभा ने तुरन्त ही इससे कहा था कि परस्त्रीहरण का अपराध तो इसने भी किया है । यह सुनकर यह विरक्त हुआ और इसने दीक्षा ले ली । इस प्रकार दोनों भाई शरीर-त्याग कर क्रमश: आरण और अच्युत स्वर्ग में इन्द्र और सामानिक देव हुए । इसके पुत्र का नाम कुलवर्धन था । <span class="GRef"> महापुराण 72.38-46, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>43.159-215 </p> | |||
<p id="7">(7) मथुरा नगरी के हरिवंशी राजा हरिवाहन और उसकी रानी माधवी का पुत्र । असुरेन्द्र ने इसे सहस्नान्तक शूलरत्न दिया था । रावण की पुत्री कृतचित्रा इसकी पत्नी थी । शत्रुघ्न ने मथुरा का राज्य लेने के लिए इससे युद्ध किया था युद्ध में अपने पुत्र लवणार्णव के मारे जाने पर इसने अपना अन्त निकट जान लिया था । अत उसी समय दिगम्बर मुनियों के वचन स्मरण करके इसने दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग किया और मुनि होकर केशलोंच किया था अन्त में समाधिपूर्वक शरीर त्याग कर यह सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ । <span class="GRef"> पद्मपुराण 12. 6-18, 53-54, 80, 111, 115, 89.5-6 </span></p> | |||
<p id="8">(8) एक नृप । जरासन्ध ने कृष्ण के पक्षधरों से युद्ध करने के लिए इसके मस्तक पर चर्मपट्ट बांध कर इसे सेना के साथ समरभूमि में भेजा था । इसने कृष्ण का मस्तक काटने और पाण्डवों का विनाश करने की घोषणा की थी पर यह सफल नहीं हुआ । <span class="GRef"> पांडवपुराण 20.304 </span></p> | |||
<p id="9">(9) राम के समय का एक पेय-मदिरा । इसका व्यवहार सैनिकों में होता था । स्त्रियां भी मधु-पान करती थी । <span class="GRef"> पद्मपुराण 73. 139, 102.105 </span></p> | |||
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Revision as of 21:45, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- मधु की अभक्ष्यता का निर्देश―(देखें भक्ष्याभक्ष्य - 2)।
- मधु-निषेध का कारण
देखें मांस - 2 नवनीत, मद्य, मांस व मधु ये चार महाविकृतियाँ हैं।
पु.सि.उ./69-70 मधुशकलमपि प्रायो मधुरकरहिंसात्मको भवति लोके। भजति मधुमूढधीको य: स भवति हिंसकोऽत्यन्तकम्।69। स्वयमेव विगलितं यो गृह्णोयाद्वा छलेन मधुगोलात्। तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात्।70। = मधु की बूँद भी मधुमक्खी की हिंसारूप ही होती है, अत: जो मन्दमति मधु का सेवन करता है, वह अत्यन्त हिंसक है।69। स्वयमेव चूए हुए अथवा छल द्वारा मधु के छत्ते से लिये हुए मधु का ग्रहण करने से भी हिंसा होती है, क्योंकि इस प्रकार उसके आश्रित रहने वाले अनेकों क्षुद्रजीवों का घात होता है।
यो.सा./अ/8/32 बहुजीवप्रघातोत्थं बहुजीवोद्भवास्पदम्। असंयमविभीतेन त्रेधा मध्वपि वर्ज्यते।62। = संयम की रक्षा करने वालों को बहुत जीवों के घात से उत्पन्न तथा बहुत जीवों की उत्पत्ति के स्थानभूत मधु को मन वचन काय से छोड़ देना चाहिए।
अ.ग.श्रा./5/32 योऽत्ति नाम भेषजेच्छया, सोऽपि याति लघु दुःखमुल्वणम्। किं न नाशयति जीवितेच्छया, भक्षितं झटिति जीवितं विषम्।32। = जो औषध की इच्छा से भी मधु खाता है, सो भी तीव्र दुःख को शीघ्र प्राप्त होता है, क्योंकि, जीने की इच्छा से खाया हुआ विष, क्या शीघ्र ही जीवन का नाश नहीं कर देता है।
सा.ध./2/11 मधुकृद्व्रातघातोत्थं मध्वशुच्यपि बिन्दुश:। खादन् बध्नात्यघं सप्तग्रामदाहांहसोऽधिकम्।32। = मधु को उपार्जन करने वाले प्राणियों के समूह के नाश से उत्पन्न होने वाली तथा अपवित्र, ऐसी मधु की एक बूँद भी खानेवाला पुरुष सात ग्रामों को जलाने से भी अधिक पाप को बाँधता है।
ला.सं./2/72-74 माक्षिकं मक्षिकानां हि मांसासृक् पीडनोद्भवम्। प्रसिद्धं सर्वलोके स्यादागमेष्वपि सूचितम्।72 न्यायात्तद्भक्षणे नूनं पिशिताशनदूषणम्। त्रसास्ता मक्षिका यस्मादामिषं तत्कलेवरम्।73। किञ्च तत्र निकोतादि जीवा: संसर्गजा क्षणात्। संमूर्च्छिमा न मुञ्चन्ति तत्सनं जातु क्रव्यवत्।74। = मधु की उत्पत्ति मक्खियों के मांस रक्त आदि के निचोड़ से होती है, यह बात समस्त संसार में प्रसिद्ध है, तथा शात्रों में भी यही बात बतलायी है।72। इस प्रकार न्याय से भी यह बात सिद्ध हो जाती है कि मधु के खाने में मांस-भक्षण का दोष आता है, क्योंकि मक्खियाँ त्रस जीव होने से उनका कलेवर मांस कहलाता है।73। इसके सिवाय एक बात यह भी है कि जिस प्रकार मांस में सूक्ष्म निगोदराशि उत्पन्न होती रहती है, उसी प्रकार जिस किसी भी अवस्था में रहते हुए भी मधु में सदा जीव उत्पन्न होते रहते हैं। उन जीवों से रहित मधु कभी नहीं होता है।74। - मधुत्याग के अतिचार
सा.ध./3/13 प्राय: पुष्पाणि नाश्नीयान्मधुव्रतविशुद्धये। वस्त्यादिष्वपि मध्वादिप्रयोगं नार्हति व्रती।13। = मधुत्याग व्रती के लिए फूलों का खाना तथा वस्तिकर्म आदि (पिण्डदान या औषधि आदि) के लिए भी मधु को खाना वर्जित है। ‘प्राय:’ शब्द से, अच्छी तरह से शोधे जाने योग्य महुआ व नागकेसर आदि के फूलों का अत्यन्त निषेध नहीं किया गया है। (यह अर्थ पं. आशाधर जी ने स्वयं लिखा है )।
ला.सं./2/77 प्राग्वदत्राप्यतीचारा: सन्ति केचिज्जिनागमात्। यथा पुष्परस: पीत: पुष्पाणामासवो यथा।77। = मद्य व मांसवत् मधु के अतिचारों का भी शात्रों में कथन किया गया है। जैसे -फूलों का रस या उनसे बना हुआ आसव आदि का पीना। गुलकन्द का खाना भी इसी दोष में गर्भित है। - मधु नामक पौराणिक पुरुष
- म.पु./59/88 पूर्वभव में वर्तमान नारायण का धन जुए में जीता था। और वर्तमान भव में तृतीय प्रतिनारायण हुआ। अपर नाम ‘मेरक’ था।–विशेष देखें शलका पुरुष - 5।
- प.पु./सर्ग/श्लोक।–मथुरा के राजा हरिवाहन का पुत्र था। (12/3)। रावण की पुत्री कृतिचित्रा का पति था। (12/18)। रामचन्द्रजी के छोटे भाई शत्रुघ्न के साथ युद्ध करते समय प्रतिबोध को प्राप्त हुआ। (89/96)। हाथी पर बैठे-बैठे दीक्षा धारण कर ली। (89/111)। तदनन्तर समाधिमरण-पूर्वक सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ। (89/115)।
- ह.पु./43/श्लोक–अयोध्या नगरी में हेमनाभ का पुत्र तथा कैटभ का बड़ा भाई था।159। राज्य प्राप्त करके। (160)। राजा वीरसेन की त्री चन्द्राभा पर मोहित हो गया। (165)। बहाना कर दोनों को अपने घर बुलाया तथा चन्द्राभा को रोककर वीरसेन को लौटा दिया। (171-176)। एक बार एक व्यक्ति को परत्रीगमन के अपराध में राजा मधु ने हाथ-पाँव काटने का दण्ड दिया। इस चन्द्रभा ने उसे उसका अपराध याद दिलाया। जिससे उसे वैराग्य आ गया और विमलवाहन मुनि के संघ में भाई कैटभ आदि के साथ दीक्षित हो गया। चन्द्राभा ने भी आर्यिका की दीक्षा ली। (180-202)। शरीर छोड़ आरण अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुआ। (216)। यह प्रद्युम्न कुमार का पूर्व का दूसरा भव है।–देखें प्रद्मुम्न ।
पुराणकोष से
(1) वसन्त ऋतु । हरिवंशपुराण 55.29
(2) एक लेह्य पदार्थ-शहद । इसकी इच्छा, सेवन और अनुमोदना नरक का कारण है । महापुराण 10.21, 25-26
(3) तापस सित तथा तापसी मृगशृंगिणी का पुत्र । एक दिन इसने विनयदत्त द्वारा दत्त आहारदान का माहात्म्य देखकर दीक्षा ले ली थी । अन्त में यह मरकर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ था और वहाँ से चयकर कीचक हुआ । हरिवंशपुराण 46.54-55
(4) भरतक्षेत्र का एक पर्वत । इसका अपर नाम धरणोमौलि था । किष्किन्धपुर की रचना हो जाने के बाद यह किष्किन्ध नाम से विख्यात हुआ । पद्मपुराण 1. 58, 5.508-511, 520-521
(5) रत्नपुर नगर का नृप-तीसरा प्रतिनारायण । पूर्वभव में यह राजा बलि था । इसने इस पर्याय में वर्तमान नारायण स्वयंभू के पूर्वभव के जीव सुकेतु का जुए में समस्त धन जीत लिया था । पूर्व जन्म के इस वैर से नारायण स्वयंभू मधु का नाम भी नहीं सुनना चाहता था । वह मधु के लिए प्राप्त किसी भी राजा की भेंट को स्वयं ले लेता था । इससे कुपित होकर मधु ने स्वयंभू को मारने के लिए चक्र चलाया था किन्तु चक्र स्वयंभू की दाहिनी भुजा पर जाकर स्थिर हो गया । इसी से स्वयंभू ने मधु को मारा था वह मरकर सातवें नरक में उत्पन्न हुआ । महापुराण 59. 88-99
(6) प्रद्युम्नकुमार के दूसरे पूर्वभव का जीव― जम्बूद्वीप के कुरू जांगल देश के हस्तिनापुर नगर के राजा अर्हद्दास और उसकी रानी काश्यपा का ज्येष्ठ पुत्र और क्रीडव का बड़ा भाई । अर्हद्दास ने इसे राज्य और क्रीडव को युवराज पद देकर दीक्षा ले ली थी । अमलकण्ठ नगर का राजा कनकरथ इसका सेवक था । एक दिन यह कनकरथ की स्त्री कनकमाला को देखकर उस पर आसक्त हो गया । इसने कनकमाला को अपनी रानी भी बना लिया । अन्त में विमलवाहन मुनि से धर्म-श्रवण कर इसने दुराचार की निन्दा की और भाई क्रीडव के साथ यह संयमी बन गया । आयु के अन्त में विधिपूर्वक आराधना करके दोनों भाई महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्र हुए । यह वहाँ से च्युत होकर रुक्मिणी का पुत्र हुआ हरिवंशपुराण में इसे अयोध्या नगरी के राजा हेमनाभ की रानी धरावती का पुत्र कहा है तथा वटपुर नगर के वीरसेन की स्त्री चन्द्राभा पर आसक्त बताया गया है । परस्त्री-सेवी को क्या दण्ड दिया जावे पूछे जाने पर इसने उसके हाथ-पैर और सिर काटकर शारीरिक दण्ड देने के लिए ज्यों ही कहा कि चन्द्राभा ने तुरन्त ही इससे कहा था कि परस्त्रीहरण का अपराध तो इसने भी किया है । यह सुनकर यह विरक्त हुआ और इसने दीक्षा ले ली । इस प्रकार दोनों भाई शरीर-त्याग कर क्रमश: आरण और अच्युत स्वर्ग में इन्द्र और सामानिक देव हुए । इसके पुत्र का नाम कुलवर्धन था । महापुराण 72.38-46, हरिवंशपुराण 43.159-215
(7) मथुरा नगरी के हरिवंशी राजा हरिवाहन और उसकी रानी माधवी का पुत्र । असुरेन्द्र ने इसे सहस्नान्तक शूलरत्न दिया था । रावण की पुत्री कृतचित्रा इसकी पत्नी थी । शत्रुघ्न ने मथुरा का राज्य लेने के लिए इससे युद्ध किया था युद्ध में अपने पुत्र लवणार्णव के मारे जाने पर इसने अपना अन्त निकट जान लिया था । अत उसी समय दिगम्बर मुनियों के वचन स्मरण करके इसने दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग किया और मुनि होकर केशलोंच किया था अन्त में समाधिपूर्वक शरीर त्याग कर यह सनत्कुमार स्वर्ग में देव हुआ । पद्मपुराण 12. 6-18, 53-54, 80, 111, 115, 89.5-6
(8) एक नृप । जरासन्ध ने कृष्ण के पक्षधरों से युद्ध करने के लिए इसके मस्तक पर चर्मपट्ट बांध कर इसे सेना के साथ समरभूमि में भेजा था । इसने कृष्ण का मस्तक काटने और पाण्डवों का विनाश करने की घोषणा की थी पर यह सफल नहीं हुआ । पांडवपुराण 20.304
(9) राम के समय का एक पेय-मदिरा । इसका व्यवहार सैनिकों में होता था । स्त्रियां भी मधु-पान करती थी । पद्मपुराण 73. 139, 102.105