वासुपूज्य: Difference between revisions
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म.पु./58/श्लोक–पूर्वभव नं. 2 में पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व मेरु सम्बन्धी वत्सकावती देश में रत्नपुर नगर के राजा ‘पद्मोत्तर’ थे।2। पूर्व भव में महाशुक्र स्वर्ग में देव हुए।13। वर्तमानभव में 12वें तीर्थंकर हुए।–देखें [[ तीर्थंकर#5 | तीर्थंकर - 5]]। | |||
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<p>अवसर्पिणीकाल के दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एव बारहवें तीर्थंकर । ये जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में चम्पानगर के राजा वसुपूज्य के पुत्र थे । इनका इक्ष्वाकुवंश और काश्यपगोत्र था । इनकी माँ जयावती थी । ये आषाढ़ कृष्ण षष्ठी के दिन शतभिष नक्षत्र में सोलह स्वप्नपूर्वक गर्भ में आये थे । फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी इनका जन्म दिन था । सौघर्मेन्द्र ने सुमेरु पर्वत पर क्षीरसागर के जल से अभिषेक करके इनका ‘‘वासुपूज्य’’ नाम रखा था । ये सत्तर धनुष ऊँचे थे । बहत्तर लाख वर्ष की इनकी आयु थी । शरीर कुंकुम के समान कान्तिमान था । कुमारकाल के अठारह लाख वर्ष बीत जाने पर संसार से विरक्त होकर जैसे ही इन्होंने तप करने के भाव किये थे कि लौकान्तिक देवों ने आकर इनकी स्तुति की थी इन्होंने इनका दीक्षाकल्याणक मनाया था । पश्चात् पालकी पर बैठकर ये मनोहर नाम के उद्यान में गये थे । वहाँ एक दिन के उपवास का नियम लेकर फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में ये दीक्षित हुए । इनके साथ छ: सौ छिहत्तर राजाओं ने भी बड़े हर्ष से दीक्षा ली थी । राजा सुन्दर ने इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे छद्मस्थ अवस्था का एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर ये मनोहर उद्यान में पुन: आये । वहाँ कदम्ब वृक्ष के नीचे माघशुक्ल द्वितीया के दिन सायंकाल के समय इन्हें केवलज्ञान हुआ । इनके संघ में धर्म को आदि लेकर छियासठ गणधर, बारह सौ पूर्वाधारी, उनतालीस हजार दो सौ शिक्षक, पांच हजार चार सौ अवधिज्ञानी, छ: हजार केवलज्ञानी, दस हजार विक्रियाऋद्धिधारी, छ: हजार मन:पर्ययज्ञानी और चार हजार दो सौ वादी मुनि थे । एक लाख छ: हजार आर्यिकाएं, दो लाख श्रावक, चार लाख श्राविकाएँ और असंख्यात देव-देवियां तथा तिर्यंच थे । ये आर्यक्षेत्र में विहार करते हुए चम्पा नगरी आये थे । यहाँ एक वर्ष रहे । एक मास की आयु शेष रह जाने पर योग निरोध कर रजतमालिका नदी के किनारे मनोहर-उद्यान में ये पर्यकासन से स्थिर हुए । भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में चौरानवे मुनियों के साथ इन्होंने मुक्ति प्राप्त की थी । दूसरे पूर्वभव में ये पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व मेरु संबंधी वत्सकावती देश के रत्नपुर नगर के राजा पद्मोत्तर तथा प्रथम पूर्वभव में महाशुक्र स्वर्ग में देव हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 2.130-134, 58.2-53, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 5.214, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 1.14, 60.394-398, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-106 </span></p> | |||
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Revision as of 21:47, 5 July 2020
== सिद्धांतकोष से == म.पु./58/श्लोक–पूर्वभव नं. 2 में पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व मेरु सम्बन्धी वत्सकावती देश में रत्नपुर नगर के राजा ‘पद्मोत्तर’ थे।2। पूर्व भव में महाशुक्र स्वर्ग में देव हुए।13। वर्तमानभव में 12वें तीर्थंकर हुए।–देखें तीर्थंकर - 5।
पुराणकोष से
अवसर्पिणीकाल के दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल में उत्पन्न शलाकापुरुष एव बारहवें तीर्थंकर । ये जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में चम्पानगर के राजा वसुपूज्य के पुत्र थे । इनका इक्ष्वाकुवंश और काश्यपगोत्र था । इनकी माँ जयावती थी । ये आषाढ़ कृष्ण षष्ठी के दिन शतभिष नक्षत्र में सोलह स्वप्नपूर्वक गर्भ में आये थे । फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी इनका जन्म दिन था । सौघर्मेन्द्र ने सुमेरु पर्वत पर क्षीरसागर के जल से अभिषेक करके इनका ‘‘वासुपूज्य’’ नाम रखा था । ये सत्तर धनुष ऊँचे थे । बहत्तर लाख वर्ष की इनकी आयु थी । शरीर कुंकुम के समान कान्तिमान था । कुमारकाल के अठारह लाख वर्ष बीत जाने पर संसार से विरक्त होकर जैसे ही इन्होंने तप करने के भाव किये थे कि लौकान्तिक देवों ने आकर इनकी स्तुति की थी इन्होंने इनका दीक्षाकल्याणक मनाया था । पश्चात् पालकी पर बैठकर ये मनोहर नाम के उद्यान में गये थे । वहाँ एक दिन के उपवास का नियम लेकर फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में ये दीक्षित हुए । इनके साथ छ: सौ छिहत्तर राजाओं ने भी बड़े हर्ष से दीक्षा ली थी । राजा सुन्दर ने इन्हें आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये थे छद्मस्थ अवस्था का एक वर्ष व्यतीत हो जाने पर ये मनोहर उद्यान में पुन: आये । वहाँ कदम्ब वृक्ष के नीचे माघशुक्ल द्वितीया के दिन सायंकाल के समय इन्हें केवलज्ञान हुआ । इनके संघ में धर्म को आदि लेकर छियासठ गणधर, बारह सौ पूर्वाधारी, उनतालीस हजार दो सौ शिक्षक, पांच हजार चार सौ अवधिज्ञानी, छ: हजार केवलज्ञानी, दस हजार विक्रियाऋद्धिधारी, छ: हजार मन:पर्ययज्ञानी और चार हजार दो सौ वादी मुनि थे । एक लाख छ: हजार आर्यिकाएं, दो लाख श्रावक, चार लाख श्राविकाएँ और असंख्यात देव-देवियां तथा तिर्यंच थे । ये आर्यक्षेत्र में विहार करते हुए चम्पा नगरी आये थे । यहाँ एक वर्ष रहे । एक मास की आयु शेष रह जाने पर योग निरोध कर रजतमालिका नदी के किनारे मनोहर-उद्यान में ये पर्यकासन से स्थिर हुए । भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में चौरानवे मुनियों के साथ इन्होंने मुक्ति प्राप्त की थी । दूसरे पूर्वभव में ये पुष्करार्ध द्वीप के पूर्व मेरु संबंधी वत्सकावती देश के रत्नपुर नगर के राजा पद्मोत्तर तथा प्रथम पूर्वभव में महाशुक्र स्वर्ग में देव हुए थे । महापुराण 2.130-134, 58.2-53, पद्मपुराण 5.214, हरिवंशपुराण 1.14, 60.394-398, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.101-106