विपर्यय: Difference between revisions
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स.सि./ | स.सि./1/31/137/3 <span class="SanskritText">विपर्ययो मिथ्येत्यर्थः। </span>= <span class="HindiText">विपर्यय का अर्थ मिथ्या है। (रा.वा./1/31/-91/28)। </span><br /> | ||
न्या. दो./ | न्या. दो./1/9/9/9 <span class="SanskritText">विपरीतैककोटिनिश्चयो विपर्ययः यथा शुक्तिकायामिदं रजतमिति ज्ञानम्।</span> =<span class="HindiText"> विपरीत एक पक्ष का निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते हैं। जैसे–सीप में ‘यह चाँदी है’ इस प्रकार का ज्ञान होना। </span><br /> | ||
न्या.वि./वृ./ | न्या.वि./वृ./1/5/130/25<span class="SanskritText"> विवक्षिते विषये विविधं परि समन्तादयनं गमनं विपर्ययः सर्वः संसारव्यवहार इत्यर्थः।</span> = <span class="HindiText">विवक्षित विषय में विविध रूप से सब ओर से गमन करने वाले विपर्यय कहते हैं। अर्थात् विपर्यय का अर्थ सर्व लोक व्यवहार है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> विपर्यय मिथ्यात्व सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> विपर्यय मिथ्यात्व सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./8/1/375/6 <span class="SanskritText">सग्रन्थो निर्ग्रन्थः, केवली कवलाहारी, स्त्री सिध्यतोत्येवमादिः विपर्ययः। </span>= <span class="HindiText">सग्रन्थ को निर्ग्रन्थ मानना, केवली को कवलाहारी मानना और स्त्री सिद्ध होती है इत्यादि मानना विपर्यय मिथ्यादर्शन है। (रा.वा./8/1/28/564/20); (त.सा./5/6)। </span><br /> | ||
ध. | ध.8/3, 6/20/6 <span class="PrakritText">हिंसालियवयण-चोज्जमेहुणपरिग्गहरागदोसमोहण्णाणेहि चेव ण्णिव्वुई होइ त्ति अहिणिवेसो विवरीय मिच्छत्तं।</span> = <span class="HindiText">हिंसा अलोक वचन, चौर्य, मैथुन, परिग्रह, राग, द्वेष, मोह और अज्ञान, इनसे ही मुक्ति होती है, ऐसा अभिनिवेश विपरीत मिथ्यात्व कहलाता है। </span><br /> | ||
अन.ध./ | अन.ध./2/7/124 <span class="SanskritText">येन प्रमाणतः क्षिप्तां श्रद्दधानाः श्रुतिं रसात्। चरन्ति श्रेयसे हिंसां स हिंस्या मोहराक्षसः।</span> = <span class="HindiText">मोहरूपी राक्षस का ही वध करना उचित है कि जिसके वश में पड़कर प्राणी, प्रमाण से खण्डित किया जाने पर भी उस श्रुति (वेदों) का ही श्रद्धान करते हैं और पुण्यार्थ हिंसा (यज्ञादि) का आचरण करते हैं। </span><br /> | ||
गो.जी./जी./प्र./ | गो.जी./जी./प्र./16/41/3 <span class="SanskritText">याज्ञिक ब्राह्मणादयः विपरीत मिथ्यादृष्टयः ।</span> = <span class="HindiText">याज्ञिकब्राह्मण आदि विपरीत मिथ्यादृष्टि हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> विपरीत मत की उत्पत्ति का इतिहास</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> विपरीत मत की उत्पत्ति का इतिहास</strong> </span><br /> | ||
द.सा./ | द.सा./16-17 <span class="PrakritGatha">सुव्वतित्थे उज्झो खरिकदंवुत्ति सुद्धसम्मत्ते। सीसो तस्स य दुट्ठो पुत्तो वि य पव्वओ वक्को।16। विवरीयमयं किच्चा विणासियं सच्चसंजमं लोए। ततो पत्त सव्वे सत्तमणरयं महाघोरं।17।</span> = <span class="HindiText">मुनिसुव्रत नाथ के समय में एक क्षीरकदम्ब नाम का उपाध्याय था। वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि था। उसका (राजा वसु नाम का एक) दुष्ट शिष्य था और पर्वत नाम का वक्र पुत्र था।16। उन्होंने विपरीत मत बनाकर संसार से सच्चे संयम को नष्ट कर दिया और इसके फल से वे घोर सप्तम नरक में जा पड़े। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> विपर्यय मिथ्यात्व के भेद व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> विपर्यय मिथ्यात्व के भेद व उनके लक्षण</strong> </span><br /> | ||
स.सि./ | स.सि./1/32/139/2<span class="SanskritText"> कश्चिन्मिथ्यादर्शनपरिणाम आत्मन्यवस्थितो रूपाद्युपलब्धौ सत्यामपि कारणविपर्यासं भेदा-भेदविपर्यासं स्वरूपविपर्यासं च जनयति। कारणविपर्यासस्तावत्–रूपादीनामेकं कारणममूर्त्तं नित्यामिति केचित्कल्पयन्ति। अपरे पृथिव्यादिजातिभिन्नाः परमाणवश्चतुस्त्रिद्वयेकगुणास्तुल्यजातीयानां कार्याणामारम्भका इति। अन्ये वर्णयन्ति–पृथिव्यादीनि चत्वारि भूतानि, भौतिकधर्मा वर्णगन्धरसस्पर्शाः, एतेषां समुदायो रूपपरमाणुरष्टक इत्यादि। इतरे वर्णयन्ति-पृथिव्यप्तेजोवायवः काठिन्यादिद्रवत्वाद्युष्णत्वादीरणत्वादिगुणा जातिभिन्नाः परमाणवः कार्यस्यारम्भकाः। भेदाभेदविपर्यासः कारणात्कार्यमर्थान्तरभूतमेवेति अनर्थान्तरभूतमेवेति च परिकल्पना। स्वरूपविपर्यासो रूपादयो निर्विकल्पाः सन्ति न सन्त्येव वा। तदाकारपरिणतं विज्ञानमेव। न च तदालम्बनं वस्तु बाह्यमिति।</span> = <span class="HindiText">आत्मा में स्थित कोई मिथ्यादर्शनरूप परिणाम रूपादिक की उपलब्धि होने पर भी कारणविपर्यास, भेदाभेद विपर्यास और स्वरूप विपर्यांस को उत्पन्न करता रहता है। कारण विपर्यास यथा–कोई (सांख्य) मानते हैं कि रूपादि का एक कारण (प्रकृति) है, जो अमूर्त और नित्य है। कोई (वैशेषिक) मानते हैं कि पृथिवी आदि के परमाणु भिन्न-भिन्न जाति के हैं। तिनमें पृथिवीपरमाणु चार गुण वाले, जलपरमाणु तीन गुण वाले, अग्निपरमाणु दो गुण वाला और वायुपरमाणु केवल एक स्पर्श गुण वाला होता है। ये परमाणु अपने-अपने समान जातीय कार्य को ही उत्पन्न करते हैं। कोई (बौद्ध) कहते हैं कि पृथिवी आदि चार भूत हैं और इन भूतों के वर्ण गन्ध रस और स्पर्श ये भौतिक धर्म हैं। इन सबके समुदाय को एक रूप परमाणु या अष्टक कहते हैं। कोई कहते हैं कि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ये क्रम से काठिन्यादि, द्रवत्वादि, उष्णत्वादि और ईरणत्वादि गुण वाले अलग-अलग जाति के परमाणु होकर कार्य को उत्पन्न करते हैं। भेदाभेद विपर्यास यथा–कारण के कार्य को सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न मानना। स्वरूपविपर्यास यथा–रूपादिक निर्विकल्प हैं, या रूपादिक हैं ही नहीं, या रूपादिक के आकार रूप से परिणत हुआ विज्ञान ही है; उसका आलम्बनभूत और कोई बाह्य पदार्थ नहीं है (बौद्ध)। (गो.जी./जी.प्र./18/43/2)। </span></li> | ||
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Revision as of 21:47, 5 July 2020
- विपययज्ञान का लक्षण
स.सि./1/31/137/3 विपर्ययो मिथ्येत्यर्थः। = विपर्यय का अर्थ मिथ्या है। (रा.वा./1/31/-91/28)।
न्या. दो./1/9/9/9 विपरीतैककोटिनिश्चयो विपर्ययः यथा शुक्तिकायामिदं रजतमिति ज्ञानम्। = विपरीत एक पक्ष का निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते हैं। जैसे–सीप में ‘यह चाँदी है’ इस प्रकार का ज्ञान होना।
न्या.वि./वृ./1/5/130/25 विवक्षिते विषये विविधं परि समन्तादयनं गमनं विपर्ययः सर्वः संसारव्यवहार इत्यर्थः। = विवक्षित विषय में विविध रूप से सब ओर से गमन करने वाले विपर्यय कहते हैं। अर्थात् विपर्यय का अर्थ सर्व लोक व्यवहार है।
- विपर्यय मिथ्यात्व सामान्य का लक्षण
स.सि./8/1/375/6 सग्रन्थो निर्ग्रन्थः, केवली कवलाहारी, स्त्री सिध्यतोत्येवमादिः विपर्ययः। = सग्रन्थ को निर्ग्रन्थ मानना, केवली को कवलाहारी मानना और स्त्री सिद्ध होती है इत्यादि मानना विपर्यय मिथ्यादर्शन है। (रा.वा./8/1/28/564/20); (त.सा./5/6)।
ध.8/3, 6/20/6 हिंसालियवयण-चोज्जमेहुणपरिग्गहरागदोसमोहण्णाणेहि चेव ण्णिव्वुई होइ त्ति अहिणिवेसो विवरीय मिच्छत्तं। = हिंसा अलोक वचन, चौर्य, मैथुन, परिग्रह, राग, द्वेष, मोह और अज्ञान, इनसे ही मुक्ति होती है, ऐसा अभिनिवेश विपरीत मिथ्यात्व कहलाता है।
अन.ध./2/7/124 येन प्रमाणतः क्षिप्तां श्रद्दधानाः श्रुतिं रसात्। चरन्ति श्रेयसे हिंसां स हिंस्या मोहराक्षसः। = मोहरूपी राक्षस का ही वध करना उचित है कि जिसके वश में पड़कर प्राणी, प्रमाण से खण्डित किया जाने पर भी उस श्रुति (वेदों) का ही श्रद्धान करते हैं और पुण्यार्थ हिंसा (यज्ञादि) का आचरण करते हैं।
गो.जी./जी./प्र./16/41/3 याज्ञिक ब्राह्मणादयः विपरीत मिथ्यादृष्टयः । = याज्ञिकब्राह्मण आदि विपरीत मिथ्यादृष्टि हैं।
- विपरीत मत की उत्पत्ति का इतिहास
द.सा./16-17 सुव्वतित्थे उज्झो खरिकदंवुत्ति सुद्धसम्मत्ते। सीसो तस्स य दुट्ठो पुत्तो वि य पव्वओ वक्को।16। विवरीयमयं किच्चा विणासियं सच्चसंजमं लोए। ततो पत्त सव्वे सत्तमणरयं महाघोरं।17। = मुनिसुव्रत नाथ के समय में एक क्षीरकदम्ब नाम का उपाध्याय था। वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि था। उसका (राजा वसु नाम का एक) दुष्ट शिष्य था और पर्वत नाम का वक्र पुत्र था।16। उन्होंने विपरीत मत बनाकर संसार से सच्चे संयम को नष्ट कर दिया और इसके फल से वे घोर सप्तम नरक में जा पड़े।
- विपर्यय मिथ्यात्व के भेद व उनके लक्षण
स.सि./1/32/139/2 कश्चिन्मिथ्यादर्शनपरिणाम आत्मन्यवस्थितो रूपाद्युपलब्धौ सत्यामपि कारणविपर्यासं भेदा-भेदविपर्यासं स्वरूपविपर्यासं च जनयति। कारणविपर्यासस्तावत्–रूपादीनामेकं कारणममूर्त्तं नित्यामिति केचित्कल्पयन्ति। अपरे पृथिव्यादिजातिभिन्नाः परमाणवश्चतुस्त्रिद्वयेकगुणास्तुल्यजातीयानां कार्याणामारम्भका इति। अन्ये वर्णयन्ति–पृथिव्यादीनि चत्वारि भूतानि, भौतिकधर्मा वर्णगन्धरसस्पर्शाः, एतेषां समुदायो रूपपरमाणुरष्टक इत्यादि। इतरे वर्णयन्ति-पृथिव्यप्तेजोवायवः काठिन्यादिद्रवत्वाद्युष्णत्वादीरणत्वादिगुणा जातिभिन्नाः परमाणवः कार्यस्यारम्भकाः। भेदाभेदविपर्यासः कारणात्कार्यमर्थान्तरभूतमेवेति अनर्थान्तरभूतमेवेति च परिकल्पना। स्वरूपविपर्यासो रूपादयो निर्विकल्पाः सन्ति न सन्त्येव वा। तदाकारपरिणतं विज्ञानमेव। न च तदालम्बनं वस्तु बाह्यमिति। = आत्मा में स्थित कोई मिथ्यादर्शनरूप परिणाम रूपादिक की उपलब्धि होने पर भी कारणविपर्यास, भेदाभेद विपर्यास और स्वरूप विपर्यांस को उत्पन्न करता रहता है। कारण विपर्यास यथा–कोई (सांख्य) मानते हैं कि रूपादि का एक कारण (प्रकृति) है, जो अमूर्त और नित्य है। कोई (वैशेषिक) मानते हैं कि पृथिवी आदि के परमाणु भिन्न-भिन्न जाति के हैं। तिनमें पृथिवीपरमाणु चार गुण वाले, जलपरमाणु तीन गुण वाले, अग्निपरमाणु दो गुण वाला और वायुपरमाणु केवल एक स्पर्श गुण वाला होता है। ये परमाणु अपने-अपने समान जातीय कार्य को ही उत्पन्न करते हैं। कोई (बौद्ध) कहते हैं कि पृथिवी आदि चार भूत हैं और इन भूतों के वर्ण गन्ध रस और स्पर्श ये भौतिक धर्म हैं। इन सबके समुदाय को एक रूप परमाणु या अष्टक कहते हैं। कोई कहते हैं कि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ये क्रम से काठिन्यादि, द्रवत्वादि, उष्णत्वादि और ईरणत्वादि गुण वाले अलग-अलग जाति के परमाणु होकर कार्य को उत्पन्न करते हैं। भेदाभेद विपर्यास यथा–कारण के कार्य को सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न मानना। स्वरूपविपर्यास यथा–रूपादिक निर्विकल्प हैं, या रूपादिक हैं ही नहीं, या रूपादिक के आकार रूप से परिणत हुआ विज्ञान ही है; उसका आलम्बनभूत और कोई बाह्य पदार्थ नहीं है (बौद्ध)। (गो.जी./जी.प्र./18/43/2)।