विहार: Difference between revisions
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<p class="HindiText">एक स्थान पर रहने से राग बढ़ता है इसलिए साधु जन नित्य विहार करते हैं। वर्षायोग के अतिरिक्त अधिक काल एक स्थान पर नहीं ठहरते। संघ में ही विहार करते हैं, क्योंकि इस काल में अकेले विहार करने का निषेध है। | <p class="HindiText">एक स्थान पर रहने से राग बढ़ता है इसलिए साधु जन नित्य विहार करते हैं। वर्षायोग के अतिरिक्त अधिक काल एक स्थान पर नहीं ठहरते। संघ में ही विहार करते हैं, क्योंकि इस काल में अकेले विहार करने का निषेध है। भगवान् का विहार इच्छा रहित होता है। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> एकल विहारी साधु का स्वरूप–देखें | <li class="HindiText"> एकल विहारी साधु का स्वरूप–देखें [[ एकल विहारी ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> एकाकी विहार व स्थान का निषेध</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> एकाकी विहार व स्थान का निषेध</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./गा.<span class="PrakritGatha">स्वच्छंदगदागदसयणणिसियणादाणभिक्खवोसरणे। स्वच्छंदजंपरोचि य मा मे सत्तुरिव | मू.आ./गा.<span class="PrakritGatha">स्वच्छंदगदागदसयणणिसियणादाणभिक्खवोसरणे। स्वच्छंदजंपरोचि य मा मे सत्तुरिव एगागी।150। गुरुपरिवादो सुदवोछेदो तित्थस्स मइलणा जउदा। भेंभलकुसीलपासत्थदा य उस्सारकप्पम्हि।151। कंटयखण्णुयपडिणियसाणागेणादिसप्पमेच्छेहिं। पावइ आदविवत्ती विसेण व विसूइया चेव।152। गारविओ गिद्धीओ माइल्ली अलसलुद्धणिद्धम्मो। गच्छेवि संवंसतो णेच्छइ संघाडयं मंदो।153। आणा अणवत्था विय मिच्छत्ताराहणादणासो य। संजमविराहणा वि य एदे दु णिकाइया ठाणा। 154। तत्थ ण कप्पइ वासो जत्थ इमे णत्थि पञ्च आधारा। आइरियउवज्झायापवत्तथेरा गणधरा य।155 आइरियकुलं मुच्चा विहरदि समणो य जो दु एगागी। ण य गेण्हदि उवदेसं पावसमणोत्ति वुच्चदि दु।959। आयरियत्तण तुरिओ पुव्वं सिस्सत्तणं अकाऊण। हिंडइ ढंढायरिओ णिरंकुसो मत्तहत्थिव्वं।960।</span> = <span class="HindiText">सोना, बैठना, ग्रहण करना, भिक्ष, मल त्याग करना, इत्यादि कार्यों के समय जिसका स्वच्छन्द गमनागमन है, स्वेच्छा से ही बिना अवसर बोलने में अनुरक्त है, ऐसा एकाकी मेरा वैरी भी न हो।150। गण को छोड़ अकेले विहार करने में इतने दोष होते हैं–दीक्षागुरु की निन्दा, श्रुत का विनाश, जिनशासन में कलंक (जैसे-सब साधु ही ऐसे होंगे), मूर्खता, विह्वलता, कुशीलपना, पार्श्वस्थता।151। जो स्वच्छन्द विहार करता है वह काँटे, स्थाणु, क्रोध से आये हुए कुत्ते, बैल आदि, सर्प, म्लेच्छ, विष, अजीर्णइनके द्वारा मरण व दुःख पाता है।152। शिथिलाचारी मुनि ऋद्धि आदि गौरववाला, भोगों की इच्छा वाला, कुटिल स्वभावी, उद्यम रहित, लोभी, पापबुद्धि, होता हुआ मुनि समूह में रहते हुए भी दूसरे को नहीं चाहता।153 । एकाकी स्वच्छन्द विहारी साधु को आज्ञाकोप, अतिप्रसंग, मिथ्यात्व की आराधना, अपने सम्यग्दर्शनादि गुणों का घात, संयम का घात, ये पापस्थान अवश्य होते हैं।154। ऐसे गुरुकुल में रहना ठीक नहीं, जहाँ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पाँच मुनिराज संघ के आधारभूत न हों।155। जो श्रमण संघ को छोड़कर संघ रहित अकेला विहार करता है और दिये उपदेश को ग्रहण नहीं करता है वह पापश्रमण कहा जाता है।959। जो पहिले शिष्यपना न करके आचार्यपना करने को वेगवान है वह पूर्वापर विवेक रहित ढोढाचार्य है, जैसे अंकुशरहित मतवाला हाथी।960। <br /> | ||
सू.पा./मू./ | सू.पा./मू./9 उक्किट्ठसीहचरियं बहुपरियम्भो य गरुय भारो य। जो विरहि सच्छंदं पावं गच्छंदि होदि मिच्छत्तं।9। = जो मुनि होकर उत्कृष्ट सिंहवृत्ति रूप प्रवर्तता है, बहुत तपश्चरण आदि से संयुक्त है, बड़ा पदधारी है, परन्तु स्वच्छन्द प्रवर्तता है, वह पाप व मिथ्यात्व को ही प्राप्त होता है।1। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> एकाकी स्थान में रहने की विधि–देखें | <li class="HindiText"> एकाकी स्थान में रहने की विधि–देखें [[ विविक्त शय्यासन ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> एक स्थान में ठहरने की अवधि</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> एक स्थान में ठहरने की अवधि</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./785<span class="PrakritGatha"> गामेयरादिवासी णयरे पञ्चाहवासिणो धीरा। सवणा फासुविहारी विवित्तएगंतवासी य।785। </span>=<span class="HindiText"> जो ग्राम में एक रात और नगर में पाँच दिन तक रहते हैं वे साधु धैर्यवान् प्रासुक विहारी हैं, स्त्री आदि रहित एकान्त जगह में रहते हैं–देखें [[ वसतिका ]]। </span><br /> | ||
बो.पा./टी./ | बो.पा./टी./42/107/1 <span class="SanskritText">वसिते वा ग्रामनगरादौ वा स्थातव्यं, नगरे पञ्चरात्रे स्थातव्यं, ग्रामे विशेषेण न स्थातव्यं।</span> =<span class="HindiText"> अथवा, वसतिका या ग्राम नगर आदि में ठहरना चाहिए। नगर में पाँच रात ठहरना चाहिए और ग्राम में विशेष नहीं ठहरना चाहिए। <br /> | ||
देखें | देखें [[ मासैकवासता ]]–(वसंतादि छहों ऋतुओं में से एक ऋतु में एक एक मास पर्यंत ही एक स्थान में मुनि निवास करें, अधिक नहीं)। <br /> | ||
देखें | देखें [[ पाद्य स्थिति कलप ]]–[वर्षाकाल में आषाढ शु.10 से कार्तिक शु. पूर्णिमातक एक स्थान में रहते हैं। प्रयोजनवश अधिक भी रहते हैं। परिस्थितिवश इस काल में हानि वृद्धि भी होती है।] <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> साधु को अनियत विहारी होना चाहिए</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> साधु को अनियत विहारी होना चाहिए</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./वि./उत्थानिका/ | भ.आ./वि./उत्थानिका/142/324/8 <span class="SanskritText">योग्यस्य गृहीतमुक्त्युपायलिंगस्य श्रुतशिक्षापारस्य पञ्चविधविनयवृत्तेः स्वव-शीकृतमनसः अनियतवासो युक्तः। </span>= <span class="HindiText">जो समाधिमरण के लिए योग्य है, जिसने मुक्ति के उपायभूत लिंग को धारण किया है, जो शास्त्राध्ययन करने में तत्पर है; पाँच प्रकार का विनय करने वाले, अपने मन को वश करने वाले, ऐसे मुनियों के लिए ग्राम नगर आदिक अनियत क्षेत्र में निवास करना है। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong | <li><span class="HindiText"><strong> अनियत विहार का महत्त्व</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./मू./ | भ.आ./मू./142-150/324-344<span class="PrakritGatha"> दंसणसोधी ठिदिकरणभावणा, अदियत्तकुसलत्तं। खेपरिमग्गणावि य अणियदवासे गुणा होंति।142। जम्मण अभिणिक्खवणं णाणुप्पत्ती य तित्थणिसहीओ। पासंतस्स विजाणं सुविसुद्धं दंसणं होदि।143। संविग्गं संविग्गाणं जणयदि सुविहिदो। सुविहिदाणं जुत्तो आउत्तणं विसुद्धलेस्सो सुलेस्साणं।144।</span> = <span class="HindiText">अनियत बिहारी साधु को सम्यग्दर्शन की शुद्धि, स्थितिकरण, रत्नत्रय की भावना व अभ्यास, शास्त्र-कौशल, तथा समाधिमरण के योग्य क्षेत्र की मार्गणा, इतनी बातें प्राप्त होती हैं।142। अनियत बिहारी को तीर्थंकरों के जन्म, निष्क्रमण, ज्ञान आदि के स्थानों का दर्शन होने से उसके सम्यग्दर्शन में निर्मलता होती है।143। अन्य मुनि भी उसके संवेग वैराग्य, शुद्ध लेश्या, तप आदि को देखकर वैसे ही बन जाते हैं, इसलिए उसे स्थितिकरण होता है ।144।[तथा अन्य साधुओं के गुणों को देखकर वह स्वयं भी अपना स्थितिकरण करता है।146। परीषह सहन करने की शक्ति प्राप्त करता है।147। देश-देशान्तरों की भाषाओं आदि का ज्ञान प्राप्त होता है।148। अनेक आचार्यों के उपदेश सुनने के कारण सूत्र का विशेष अर्थ व अर्थ करने की अनेक पद्धतियों का परिज्ञान होता है।149। अनेक मुनियों का संयोग प्राप्त होने से साधु के आचार-बिहार आदि की विशेष जानकारी हो जाती है।150।] <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> वीतराग सर्वदा अनियत विहारी है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> वीतराग सर्वदा अनियत विहारी है</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./मू./ | भ.आ./मू./153/350 <span class="PrakritGatha">वसधीसु य उवधीसु य गामे णयरे गणे य सण्णिजणे। सव्वत्थ अपडिबद्धो समासदो अणियद-विहारो।153। </span>=<span class="HindiText"> वसतिका, उपकरण, गाँव, नगर, स्वसंघ, श्रावकलोक, इन सबों में जो ममत्व रहित है, वह साधु भी अनियत विहारी है; ऐसा संक्षेप में जानना चाहिए।153। <br /> | ||
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<li class="HindiText"> चातुर्मास में व अन्य कालों में विहार करने सम्बन्धी कुछ | <li class="HindiText"> चातुर्मास में व अन्य कालों में विहार करने सम्बन्धी कुछ नियम–देखें [[ विहार#1.2 | विहार - 1.2]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> विहार विधि योग्य कृतिकर्म</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> विहार विधि योग्य कृतिकर्म</strong> </span><br /> | ||
भ.आ./वि./ | भ.आ./वि./150/344/9 <span class="SanskritText">स्वावासदेशदेशान्निर्गन्तुमिच्छता शीतलादुष्णाद्वा देशाच्छरीरप्रमार्जनं कार्यं, तथा विश-तापि। किमर्थं। शीतोष्णजन्तूनामाबाधापरिहारार्थं अथवा श्वेतरक्तगुणासु भूमिषु अन्यस्या निःक्रमेण अन्यस्याश्च प्रवेशने प्रमार्जनं कटिप्रदेशादधः कार्यं। अन्यथा विरुद्धयोनिसंक्रमेण पृथिवीकायिकानां तद्भूमिभागोत्पन्नानां त्रसानां चाबाधा स्यात्। तथा जलं प्रविशता सचित्ताचित्तरजसोः पदादिषु लग्नयोन्निरासः। यावच्च पादौ शुष्यतस्तावन्न गच्छेज्जलान्तिक एव तिष्ठेत्। महतीनां नदीनां उत्तरणे आराद्भागे कृतसिद्धवन्दनः यावत्परकूलप्राप्तिस्तावन्मया सर्व शरीरभोजनमुपकरणं च परित्यक्तमिति गृहीतप्रत्याख्यानः समाहितचित्तो द्रोण्यादिकमारोहेत्। परकूले च कायोत्सर्गेण तिष्ठेत्। तदतिचारव्यपोहार्थं।</span> =<span class="HindiText"> स्व आवासदेश से देशान्तर को जाने का इच्छुक साधु जब शीतल स्थान से उष्ण स्थान में अथवा उष्ण स्थान से शीतल स्थान में, श्वेत भूमि से रक्त भूमि में अथवा रक्त-भूमि से श्वेत भूमि में प्रवेश करता है तब उसे कोमल पीछी से अपने शरीर का प्रमार्जन करना चाहिए अन्यथा विरुद्ध योनि संक्रम द्वारा क्षुद्र पृथिवीकायिक व त्रस जीवों को बाधा होगी। जल में प्रवेश करने के पूर्व साधु को पाँव आदि अवयवों से सचित्त व अचित्त धूलि को दूर करना चाहिए और जल से बाहर आने पर जब तक पाँव न सूख जाय तब तक जल के समीप ही खड़ा रहे। बड़ी नदियों की उल्लंघन करते समय प्रथम तट पर सिद्ध वन्दना कर दूसरे तट की प्राप्ति होने तक के लिए शरीर आहार आदि का प्रत्याख्यान करना चाहिए। प्रत्याख्यान करके नौका वगैरह पर आरूढ़ होवे। और दूसरे तट पर पहुँचकर अतिचार दूर करने के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए। (भ.आ./वि./96/234/8; 1206/1204/6)। </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText">अवसर पड़ने पर नौका का ग्रहण–देखें | <li><span class="HindiText">अवसर पड़ने पर नौका का ग्रहण–देखें [[ ऊपर वाला शीर्षक ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> साधु के विहार योग्य क्षेत्र व मार्ग</strong></span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> साधु के विहार योग्य क्षेत्र व मार्ग</strong></span><br /> | ||
भ.आ./मू.व वि./ | भ.आ./मू.व वि./152/349 <span class="PrakritText">संजदजणस्स य जहिं फासुविहारो य सुलभवुत्ती य। तं खेत्तं विहरं तो णाहिदि सल्लेहणाजोग्गं।152। फासुविहारो य प्रासुकं विहरणं जीवबाधारहितं गमनं अत्रसहरितवहुलत्वादप्रचुरोदककर्दमत्वाच्च क्षेत्रस्य। सुलभवुत्ती य सुखेनाक्लेशेन लभ्यते वृत्तिराहारो यस्मिन्क्षेत्रे। तं खेत्तं तं क्षेत्रं। </span>= <span class="HindiText">संयमी मुनि को प्रासुक और सुलभ वृत्ति योग्य क्षेत्रों का अवलोकन करना योग्य है। जहाँ गमन करने से जीवों को बाधा न हो, जो त्रस जीवों व वनस्पतियों से रहित हो, जहाँ बहुत पानी व कीचड़ न हो वह क्षेत्र प्रासुक है। मुनियों के विहार के योग्य है। जिस क्षेत्र में मुनियों को सुलभता से आहार मिलेगा वह क्षेत्र अपने को व अन्य मुनियों को सल्लेखना के योग्य है। </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./304-306 <span class="PrakritGatha">सयडं जाणं जुग्गं वा रहो वा एवमादिया। बहुसो जेण गच्छंति सो मग्गो फासुओ हवे।304। हत्थी अस्सो खरोट्ठो वा गोमहिसगवेलया। बहुसो जेण गच्छंति सो मग्गो फासुओ हवे।305। इच्छी पुंसादि गच्छंति आदावेण य जं हदं। सत्थपरिणदो चेव सो मग्गो फासुओ हवे।306 ।</span> = <span class="HindiText">बैलगाड़ी, हाथी की अंबारी, डोली आदि, रथ इत्यादिक बहुत बार जिस मार्ग से चलते हों वह मार्ग प्रासुक है।304। हाथी, घोड़ा, ऊँट, गाय, भैंस, बकरी आदि जीव बहुत बार जिस मार्ग से गये हों, वह मार्ग प्रासुक है।305। स्त्री, पुरुष, जिस मार्ग में तेजी से गमन करें और जो सूर्य आदि के आताप से व्याप्त हो, तथा हलादि से जोता गया हो, वह मार्ग प्रासुक है। ऐसे मार्ग से चलना योग्य है।306। </span></li> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> अर्हंत | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> अर्हंत भगवान् की विहार चर्या</strong> | ||
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<li><span class="HindiText"> | <li><span class="HindiText"> भगवान् का विहार इच्छा रहित है–देखें [[ दिव्यध्वनि#1.2 | दिव्यध्वनि - 1.2]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> आकाश में पदविक्षेप द्वारा गमन होता है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> आकाश में पदविक्षेप द्वारा गमन होता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="SanskritText">स्व.स्तो./ | <span class="SanskritText">स्व.स्तो./108......। भूरपि रम्या प्रतिपदमासीज्जातविकोशाम्बुजमृदुहासा।108। </span>= <span class="HindiText">हे मल्लिनाथ जिन ! आपके विहार के समय पृथिवी भी पद-पद पर विकसित कमलों से मृदु हास्य को लिये हुए रमणीक हुई थी। </span><br /> | ||
ह.पु./ | ह.पु./3/24 <span class="SanskritGatha">पादपद्मं जिनेन्द्रस्य सप्तपद्मैः पदे पदे। भुवेव नभसागच्छदुद्गच्छद्भिः प्रपूजितम्।24।</span> = <span class="HindiText">भगवान् पृथिवी के समान आकाश मार्ग से चल रहे थे, तथा उनके चरण कमल पद-पद पर खिले हुए सात-सात कमलों से पूजित हो रहे थे।24। (चैत्यभक्ति/1 की टीका)। </span><br /> | ||
एकीभावस्तोत्र/ | एकीभावस्तोत्र/7 <span class="SanskritText">पादन्यासादपि च पुनतो यात्रया ते त्रिलोकीं, हेमाभासो, भवति सुरभिः श्रीनिवासश्च पद्मः।....।</span> = <span class="HindiText">हे भगवन् ! आपके पादन्यास से यह त्रिलोक की पृथिवी स्वर्ण सरीखी हो गयी। </span><br /> | ||
भक्तामर स्तोत्र/ | भक्तामर स्तोत्र/36 <span class="SanskritText">पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र धत्तः पद्मानि तत्र विबुधाः षरिकल्पयन्ति।36। </span>= <span class="HindiText">हे जिनेन्द्र ! आप जहाँ अपने दोनों चरण रखते हैं वहाँ ही देव जन कमलों की रचना कर देते हैं। <br /> | ||
देखें [[ अर्हंत#6 | अर्हंत - 6]]–(‘आकाश गमन’ यह भगवान् के केवलज्ञान के अतिशयों में से एक है)। </span><br /> | |||
चैत्य भक्ति/टीका/ | चैत्य भक्ति/टीका/1 <span class="SanskritText">तेषां वा प्रचारो रचना ‘पादन्या से पद्म’ सप्त पुरः पृष्ठतश्च सप्त’ इत्येवंरूपः तत्र विजृम्भितौ प्रवृत्तौ विलसितौ वा।</span> = <span class="HindiText">[मूल में ‘हेमाम्भोजप्रचारविजम्भिता’ ऐसा पद है। उसका अर्थ करते हैं।] भगवान् के दोनों चरणों का प्रचार अर्थात् रचना। भगवान् के पादन्यास के समय उनके चरणों के नीचे सात-सात कमलों की रचना होती है। उससे उनके चरण शोभित होते हैं। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> आकाश में चरणक्रम रहित गमन होता है </strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> आकाश में चरणक्रम रहित गमन होता है </strong> </span><br /> | ||
चैत्य भक्ति/टीका/ | चैत्य भक्ति/टीका/1 <span class="SanskritText">प्रचारः प्रकृष्टोऽन्यजनासंभवी चरणक्रमसंचाररहितश्चारो गमनं तेन विजृम्भितौ विलसितौ शोभितौ। </span>= <span class="HindiText">[मूल श्लोक में ‘हेमाम्भोजप्रचारविजृम्भितौ’ यह पद दिया है। इसका अर्थ करते हैं प्रचार अर्थात् प्रकृष्ट चार या गमन। अन्य जनों को जो सम्भव नहीं ऐसा चरणक्रम संचार से रहित गमन के द्वारा भगवान् के दोनों चरण शोभित होते हैं। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> कमलासन पर बैठे-बैठे ही विहार होता है</strong> <br /> | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> कमलासन पर बैठे-बैठे ही विहार होता है</strong> <br /> | ||
जिन सहस्रनाम (ज्ञानपीठ प्रकाशन)। पृ. | जिन सहस्रनाम (ज्ञानपीठ प्रकाशन)। पृ.207, 108, 90, 167, 183 का भावार्थ–भगवान् ऋषभदेव का केवलज्ञान काल कुछ कम पूर्वकोटि और भगवान् महावीर का 30 वर्ष प्रमाण था–(देखें [[ तीर्थंकर#5 | तीर्थंकर - 5]])।] -उपरोक्त प्रमाणों में भगवान् की उत्कृष्टतः कुछ कम पूर्वकोटि और जघन्यतः 30 वर्ष प्रमाण काल तक पद्मासन से स्थित रहना बताया है। इस प्रकार अपने सम्पूर्ण केवलज्ञान काल में एक आसन पर स्थित रहते हुए ही विहार व उपदेश आदि देते हैं। अथवा जिस 1000 पाँखुड़ी वाले स्वर्ण कमल पर 4 अंगुल ऊँचे स्थित हैं वही कमालसन या पद्मासन है। ऐसे पद्मासन से ही वे उपदेश व विहार आदि करते हैं। </li> | ||
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Revision as of 21:47, 5 July 2020
एक स्थान पर रहने से राग बढ़ता है इसलिए साधु जन नित्य विहार करते हैं। वर्षायोग के अतिरिक्त अधिक काल एक स्थान पर नहीं ठहरते। संघ में ही विहार करते हैं, क्योंकि इस काल में अकेले विहार करने का निषेध है। भगवान् का विहार इच्छा रहित होता है।
- साधु की विहार चर्या
- एकल विहारी साधु का स्वरूप–देखें एकल विहारी ।
- एकाकी विहार व स्थान का निषेध
मू.आ./गा.स्वच्छंदगदागदसयणणिसियणादाणभिक्खवोसरणे। स्वच्छंदजंपरोचि य मा मे सत्तुरिव एगागी।150। गुरुपरिवादो सुदवोछेदो तित्थस्स मइलणा जउदा। भेंभलकुसीलपासत्थदा य उस्सारकप्पम्हि।151। कंटयखण्णुयपडिणियसाणागेणादिसप्पमेच्छेहिं। पावइ आदविवत्ती विसेण व विसूइया चेव।152। गारविओ गिद्धीओ माइल्ली अलसलुद्धणिद्धम्मो। गच्छेवि संवंसतो णेच्छइ संघाडयं मंदो।153। आणा अणवत्था विय मिच्छत्ताराहणादणासो य। संजमविराहणा वि य एदे दु णिकाइया ठाणा। 154। तत्थ ण कप्पइ वासो जत्थ इमे णत्थि पञ्च आधारा। आइरियउवज्झायापवत्तथेरा गणधरा य।155 आइरियकुलं मुच्चा विहरदि समणो य जो दु एगागी। ण य गेण्हदि उवदेसं पावसमणोत्ति वुच्चदि दु।959। आयरियत्तण तुरिओ पुव्वं सिस्सत्तणं अकाऊण। हिंडइ ढंढायरिओ णिरंकुसो मत्तहत्थिव्वं।960। = सोना, बैठना, ग्रहण करना, भिक्ष, मल त्याग करना, इत्यादि कार्यों के समय जिसका स्वच्छन्द गमनागमन है, स्वेच्छा से ही बिना अवसर बोलने में अनुरक्त है, ऐसा एकाकी मेरा वैरी भी न हो।150। गण को छोड़ अकेले विहार करने में इतने दोष होते हैं–दीक्षागुरु की निन्दा, श्रुत का विनाश, जिनशासन में कलंक (जैसे-सब साधु ही ऐसे होंगे), मूर्खता, विह्वलता, कुशीलपना, पार्श्वस्थता।151। जो स्वच्छन्द विहार करता है वह काँटे, स्थाणु, क्रोध से आये हुए कुत्ते, बैल आदि, सर्प, म्लेच्छ, विष, अजीर्णइनके द्वारा मरण व दुःख पाता है।152। शिथिलाचारी मुनि ऋद्धि आदि गौरववाला, भोगों की इच्छा वाला, कुटिल स्वभावी, उद्यम रहित, लोभी, पापबुद्धि, होता हुआ मुनि समूह में रहते हुए भी दूसरे को नहीं चाहता।153 । एकाकी स्वच्छन्द विहारी साधु को आज्ञाकोप, अतिप्रसंग, मिथ्यात्व की आराधना, अपने सम्यग्दर्शनादि गुणों का घात, संयम का घात, ये पापस्थान अवश्य होते हैं।154। ऐसे गुरुकुल में रहना ठीक नहीं, जहाँ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पाँच मुनिराज संघ के आधारभूत न हों।155। जो श्रमण संघ को छोड़कर संघ रहित अकेला विहार करता है और दिये उपदेश को ग्रहण नहीं करता है वह पापश्रमण कहा जाता है।959। जो पहिले शिष्यपना न करके आचार्यपना करने को वेगवान है वह पूर्वापर विवेक रहित ढोढाचार्य है, जैसे अंकुशरहित मतवाला हाथी।960।
सू.पा./मू./9 उक्किट्ठसीहचरियं बहुपरियम्भो य गरुय भारो य। जो विरहि सच्छंदं पावं गच्छंदि होदि मिच्छत्तं।9। = जो मुनि होकर उत्कृष्ट सिंहवृत्ति रूप प्रवर्तता है, बहुत तपश्चरण आदि से संयुक्त है, बड़ा पदधारी है, परन्तु स्वच्छन्द प्रवर्तता है, वह पाप व मिथ्यात्व को ही प्राप्त होता है।1।
- एकाकी स्थान में रहने की विधि–देखें विविक्त शय्यासन ।
- एक स्थान में ठहरने की अवधि
मू.आ./785 गामेयरादिवासी णयरे पञ्चाहवासिणो धीरा। सवणा फासुविहारी विवित्तएगंतवासी य।785। = जो ग्राम में एक रात और नगर में पाँच दिन तक रहते हैं वे साधु धैर्यवान् प्रासुक विहारी हैं, स्त्री आदि रहित एकान्त जगह में रहते हैं–देखें वसतिका ।
बो.पा./टी./42/107/1 वसिते वा ग्रामनगरादौ वा स्थातव्यं, नगरे पञ्चरात्रे स्थातव्यं, ग्रामे विशेषेण न स्थातव्यं। = अथवा, वसतिका या ग्राम नगर आदि में ठहरना चाहिए। नगर में पाँच रात ठहरना चाहिए और ग्राम में विशेष नहीं ठहरना चाहिए।
देखें मासैकवासता –(वसंतादि छहों ऋतुओं में से एक ऋतु में एक एक मास पर्यंत ही एक स्थान में मुनि निवास करें, अधिक नहीं)।
देखें पाद्य स्थिति कलप –[वर्षाकाल में आषाढ शु.10 से कार्तिक शु. पूर्णिमातक एक स्थान में रहते हैं। प्रयोजनवश अधिक भी रहते हैं। परिस्थितिवश इस काल में हानि वृद्धि भी होती है।]
- साधु को अनियत विहारी होना चाहिए
भ.आ./वि./उत्थानिका/142/324/8 योग्यस्य गृहीतमुक्त्युपायलिंगस्य श्रुतशिक्षापारस्य पञ्चविधविनयवृत्तेः स्वव-शीकृतमनसः अनियतवासो युक्तः। = जो समाधिमरण के लिए योग्य है, जिसने मुक्ति के उपायभूत लिंग को धारण किया है, जो शास्त्राध्ययन करने में तत्पर है; पाँच प्रकार का विनय करने वाले, अपने मन को वश करने वाले, ऐसे मुनियों के लिए ग्राम नगर आदिक अनियत क्षेत्र में निवास करना है।
- अनियत विहार का महत्त्व
भ.आ./मू./142-150/324-344 दंसणसोधी ठिदिकरणभावणा, अदियत्तकुसलत्तं। खेपरिमग्गणावि य अणियदवासे गुणा होंति।142। जम्मण अभिणिक्खवणं णाणुप्पत्ती य तित्थणिसहीओ। पासंतस्स विजाणं सुविसुद्धं दंसणं होदि।143। संविग्गं संविग्गाणं जणयदि सुविहिदो। सुविहिदाणं जुत्तो आउत्तणं विसुद्धलेस्सो सुलेस्साणं।144। = अनियत बिहारी साधु को सम्यग्दर्शन की शुद्धि, स्थितिकरण, रत्नत्रय की भावना व अभ्यास, शास्त्र-कौशल, तथा समाधिमरण के योग्य क्षेत्र की मार्गणा, इतनी बातें प्राप्त होती हैं।142। अनियत बिहारी को तीर्थंकरों के जन्म, निष्क्रमण, ज्ञान आदि के स्थानों का दर्शन होने से उसके सम्यग्दर्शन में निर्मलता होती है।143। अन्य मुनि भी उसके संवेग वैराग्य, शुद्ध लेश्या, तप आदि को देखकर वैसे ही बन जाते हैं, इसलिए उसे स्थितिकरण होता है ।144।[तथा अन्य साधुओं के गुणों को देखकर वह स्वयं भी अपना स्थितिकरण करता है।146। परीषह सहन करने की शक्ति प्राप्त करता है।147। देश-देशान्तरों की भाषाओं आदि का ज्ञान प्राप्त होता है।148। अनेक आचार्यों के उपदेश सुनने के कारण सूत्र का विशेष अर्थ व अर्थ करने की अनेक पद्धतियों का परिज्ञान होता है।149। अनेक मुनियों का संयोग प्राप्त होने से साधु के आचार-बिहार आदि की विशेष जानकारी हो जाती है।150।]
- वीतराग सर्वदा अनियत विहारी है
भ.आ./मू./153/350 वसधीसु य उवधीसु य गामे णयरे गणे य सण्णिजणे। सव्वत्थ अपडिबद्धो समासदो अणियद-विहारो।153। = वसतिका, उपकरण, गाँव, नगर, स्वसंघ, श्रावकलोक, इन सबों में जो ममत्व रहित है, वह साधु भी अनियत विहारी है; ऐसा संक्षेप में जानना चाहिए।153।
- चातुर्मास में व अन्य कालों में विहार करने सम्बन्धी कुछ नियम–देखें विहार - 1.2।
- विहार विधि योग्य कृतिकर्म
भ.आ./वि./150/344/9 स्वावासदेशदेशान्निर्गन्तुमिच्छता शीतलादुष्णाद्वा देशाच्छरीरप्रमार्जनं कार्यं, तथा विश-तापि। किमर्थं। शीतोष्णजन्तूनामाबाधापरिहारार्थं अथवा श्वेतरक्तगुणासु भूमिषु अन्यस्या निःक्रमेण अन्यस्याश्च प्रवेशने प्रमार्जनं कटिप्रदेशादधः कार्यं। अन्यथा विरुद्धयोनिसंक्रमेण पृथिवीकायिकानां तद्भूमिभागोत्पन्नानां त्रसानां चाबाधा स्यात्। तथा जलं प्रविशता सचित्ताचित्तरजसोः पदादिषु लग्नयोन्निरासः। यावच्च पादौ शुष्यतस्तावन्न गच्छेज्जलान्तिक एव तिष्ठेत्। महतीनां नदीनां उत्तरणे आराद्भागे कृतसिद्धवन्दनः यावत्परकूलप्राप्तिस्तावन्मया सर्व शरीरभोजनमुपकरणं च परित्यक्तमिति गृहीतप्रत्याख्यानः समाहितचित्तो द्रोण्यादिकमारोहेत्। परकूले च कायोत्सर्गेण तिष्ठेत्। तदतिचारव्यपोहार्थं। = स्व आवासदेश से देशान्तर को जाने का इच्छुक साधु जब शीतल स्थान से उष्ण स्थान में अथवा उष्ण स्थान से शीतल स्थान में, श्वेत भूमि से रक्त भूमि में अथवा रक्त-भूमि से श्वेत भूमि में प्रवेश करता है तब उसे कोमल पीछी से अपने शरीर का प्रमार्जन करना चाहिए अन्यथा विरुद्ध योनि संक्रम द्वारा क्षुद्र पृथिवीकायिक व त्रस जीवों को बाधा होगी। जल में प्रवेश करने के पूर्व साधु को पाँव आदि अवयवों से सचित्त व अचित्त धूलि को दूर करना चाहिए और जल से बाहर आने पर जब तक पाँव न सूख जाय तब तक जल के समीप ही खड़ा रहे। बड़ी नदियों की उल्लंघन करते समय प्रथम तट पर सिद्ध वन्दना कर दूसरे तट की प्राप्ति होने तक के लिए शरीर आहार आदि का प्रत्याख्यान करना चाहिए। प्रत्याख्यान करके नौका वगैरह पर आरूढ़ होवे। और दूसरे तट पर पहुँचकर अतिचार दूर करने के लिए कायोत्सर्ग करना चाहिए। (भ.आ./वि./96/234/8; 1206/1204/6)। - अवसर पड़ने पर नौका का ग्रहण–देखें ऊपर वाला शीर्षक ।
- एकल विहारी साधु का स्वरूप–देखें एकल विहारी ।
- साधु के विहार योग्य क्षेत्र व मार्ग
भ.आ./मू.व वि./152/349 संजदजणस्स य जहिं फासुविहारो य सुलभवुत्ती य। तं खेत्तं विहरं तो णाहिदि सल्लेहणाजोग्गं।152। फासुविहारो य प्रासुकं विहरणं जीवबाधारहितं गमनं अत्रसहरितवहुलत्वादप्रचुरोदककर्दमत्वाच्च क्षेत्रस्य। सुलभवुत्ती य सुखेनाक्लेशेन लभ्यते वृत्तिराहारो यस्मिन्क्षेत्रे। तं खेत्तं तं क्षेत्रं। = संयमी मुनि को प्रासुक और सुलभ वृत्ति योग्य क्षेत्रों का अवलोकन करना योग्य है। जहाँ गमन करने से जीवों को बाधा न हो, जो त्रस जीवों व वनस्पतियों से रहित हो, जहाँ बहुत पानी व कीचड़ न हो वह क्षेत्र प्रासुक है। मुनियों के विहार के योग्य है। जिस क्षेत्र में मुनियों को सुलभता से आहार मिलेगा वह क्षेत्र अपने को व अन्य मुनियों को सल्लेखना के योग्य है।
मू.आ./304-306 सयडं जाणं जुग्गं वा रहो वा एवमादिया। बहुसो जेण गच्छंति सो मग्गो फासुओ हवे।304। हत्थी अस्सो खरोट्ठो वा गोमहिसगवेलया। बहुसो जेण गच्छंति सो मग्गो फासुओ हवे।305। इच्छी पुंसादि गच्छंति आदावेण य जं हदं। सत्थपरिणदो चेव सो मग्गो फासुओ हवे।306 । = बैलगाड़ी, हाथी की अंबारी, डोली आदि, रथ इत्यादिक बहुत बार जिस मार्ग से चलते हों वह मार्ग प्रासुक है।304। हाथी, घोड़ा, ऊँट, गाय, भैंस, बकरी आदि जीव बहुत बार जिस मार्ग से गये हों, वह मार्ग प्रासुक है।305। स्त्री, पुरुष, जिस मार्ग में तेजी से गमन करें और जो सूर्य आदि के आताप से व्याप्त हो, तथा हलादि से जोता गया हो, वह मार्ग प्रासुक है। ऐसे मार्ग से चलना योग्य है।306।
- अर्हंत भगवान् की विहार चर्या
- भगवान् का विहार इच्छा रहित है–देखें दिव्यध्वनि - 1.2।
- भगवान् का विहार इच्छा रहित है–देखें दिव्यध्वनि - 1.2।
- आकाश में पदविक्षेप द्वारा गमन होता है
स्व.स्तो./108......। भूरपि रम्या प्रतिपदमासीज्जातविकोशाम्बुजमृदुहासा।108। = हे मल्लिनाथ जिन ! आपके विहार के समय पृथिवी भी पद-पद पर विकसित कमलों से मृदु हास्य को लिये हुए रमणीक हुई थी।
ह.पु./3/24 पादपद्मं जिनेन्द्रस्य सप्तपद्मैः पदे पदे। भुवेव नभसागच्छदुद्गच्छद्भिः प्रपूजितम्।24। = भगवान् पृथिवी के समान आकाश मार्ग से चल रहे थे, तथा उनके चरण कमल पद-पद पर खिले हुए सात-सात कमलों से पूजित हो रहे थे।24। (चैत्यभक्ति/1 की टीका)।
एकीभावस्तोत्र/7 पादन्यासादपि च पुनतो यात्रया ते त्रिलोकीं, हेमाभासो, भवति सुरभिः श्रीनिवासश्च पद्मः।....। = हे भगवन् ! आपके पादन्यास से यह त्रिलोक की पृथिवी स्वर्ण सरीखी हो गयी।
भक्तामर स्तोत्र/36 पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र धत्तः पद्मानि तत्र विबुधाः षरिकल्पयन्ति।36। = हे जिनेन्द्र ! आप जहाँ अपने दोनों चरण रखते हैं वहाँ ही देव जन कमलों की रचना कर देते हैं।
देखें अर्हंत - 6–(‘आकाश गमन’ यह भगवान् के केवलज्ञान के अतिशयों में से एक है)।
चैत्य भक्ति/टीका/1 तेषां वा प्रचारो रचना ‘पादन्या से पद्म’ सप्त पुरः पृष्ठतश्च सप्त’ इत्येवंरूपः तत्र विजृम्भितौ प्रवृत्तौ विलसितौ वा। = [मूल में ‘हेमाम्भोजप्रचारविजम्भिता’ ऐसा पद है। उसका अर्थ करते हैं।] भगवान् के दोनों चरणों का प्रचार अर्थात् रचना। भगवान् के पादन्यास के समय उनके चरणों के नीचे सात-सात कमलों की रचना होती है। उससे उनके चरण शोभित होते हैं।
- आकाश में चरणक्रम रहित गमन होता है
चैत्य भक्ति/टीका/1 प्रचारः प्रकृष्टोऽन्यजनासंभवी चरणक्रमसंचाररहितश्चारो गमनं तेन विजृम्भितौ विलसितौ शोभितौ। = [मूल श्लोक में ‘हेमाम्भोजप्रचारविजृम्भितौ’ यह पद दिया है। इसका अर्थ करते हैं प्रचार अर्थात् प्रकृष्ट चार या गमन। अन्य जनों को जो सम्भव नहीं ऐसा चरणक्रम संचार से रहित गमन के द्वारा भगवान् के दोनों चरण शोभित होते हैं।
- कमलासन पर बैठे-बैठे ही विहार होता है
जिन सहस्रनाम (ज्ञानपीठ प्रकाशन)। पृ.207, 108, 90, 167, 183 का भावार्थ–भगवान् ऋषभदेव का केवलज्ञान काल कुछ कम पूर्वकोटि और भगवान् महावीर का 30 वर्ष प्रमाण था–(देखें तीर्थंकर - 5)।] -उपरोक्त प्रमाणों में भगवान् की उत्कृष्टतः कुछ कम पूर्वकोटि और जघन्यतः 30 वर्ष प्रमाण काल तक पद्मासन से स्थित रहना बताया है। इस प्रकार अपने सम्पूर्ण केवलज्ञान काल में एक आसन पर स्थित रहते हुए ही विहार व उपदेश आदि देते हैं। अथवा जिस 1000 पाँखुड़ी वाले स्वर्ण कमल पर 4 अंगुल ऊँचे स्थित हैं वही कमालसन या पद्मासन है। ऐसे पद्मासन से ही वे उपदेश व विहार आदि करते हैं।