शुद्धि: Difference between revisions
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<p><span class="HindiText">जैनाम्नाय में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भोजनादि आदि रूप अनेक प्रकार की शुद्धियों का निर्देश है जिनका विवेक यथायोग्य प्रत्येक धर्मानुष्ठान में रखना योग्य है।</span></p> | <p><span class="HindiText">जैनाम्नाय में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भोजनादि आदि रूप अनेक प्रकार की शुद्धियों का निर्देश है जिनका विवेक यथायोग्य प्रत्येक धर्मानुष्ठान में रखना योग्य है।</span></p> | ||
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<strong class="HindiText"> | <strong class="HindiText">1. शुद्धि सामान्य का लक्षण</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText">स.सा./ता.वृ./ | <span class="SanskritText">स.सा./ता.वृ./306-307/388/13 दोषे सति प्रायश्चित्तं गृहीत्वा विशुद्धिकारणं शुद्धि:।</span> = | ||
<span class="HindiText">दोष होने पर प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि करना शुद्धि कहलाती है।</span></p> | <span class="HindiText">दोष होने पर प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि करना शुद्धि कहलाती है।</span></p> | ||
<p><strong class="HindiText"> | <p><strong class="HindiText">2. शुद्धि के भेद</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText">1. संयम की आठ शुद्धियाँ</p> | ||
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<span class="SanskritText">रा.वा./ | <span class="SanskritText">रा.वा./9/6/16/596/1 अपहृतसंयमस्य प्रतिपादनार्थ: शुद्धयष्टकोपदेशो द्रष्टव्य:। तद्यथा, अष्टौ शुद्धय:-भावशुद्धि:, कायशुद्धि:, विनयशुद्धि:, ईर्यापथशुद्धि:, भिक्षाशुद्धि:, प्रतिष्ठापनशुद्धि:, शयनासनशुद्धि:, वाक्यशुद्धिश्चेति।</span> = | ||
<span class="HindiText">इस अपहृत संयम के प्रतिपादन के लिए ही इन आठ शुद्धियों का उपदेश दिया गया है-भाव शुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापथ शुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापन शुद्धि, शयनासनशुद्धि और वाक्यशुद्धि। (रा.वा./ | <span class="HindiText">इस अपहृत संयम के प्रतिपादन के लिए ही इन आठ शुद्धियों का उपदेश दिया गया है-भाव शुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापथ शुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापन शुद्धि, शयनासनशुद्धि और वाक्यशुद्धि। (रा.वा./8/1/30/564/29); (चा.सा./76/1); (अन.ध./6/49)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText">2. सल्लेखना सम्बन्धी अन्तरंग व बहिरंग शुद्धियाँ</p> | ||
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<span class="SanskritText">भ.आ./मू./ | <span class="SanskritText">भ.आ./मू./166-167/379-380 आलोयणाए सेज्जसंथारुवहीण भत्तपाणस्स। वेज्जावच्चकराण य सुद्धी खलु पंचहा होइ।166। अहवा दंसणणाणचरित्तसुद्धी य विणयसुद्धी य। आवासयसुद्धी वि य पंच वियप्पा हवदि सुद्धी।167। | ||
</span>= <span class="HindiText">आलोचना की शुद्धि, शय्या और संस्तर की शुद्धि, उपकरणों की शुद्धि, भक्तपान शुद्धि, इस प्रकार वैयावृत्त्यकरण शुद्धि पाँच प्रकार की | </span>= <span class="HindiText">आलोचना की शुद्धि, शय्या और संस्तर की शुद्धि, उपकरणों की शुद्धि, भक्तपान शुद्धि, इस प्रकार वैयावृत्त्यकरण शुद्धि पाँच प्रकार की है।166। अथवा दर्शनशुद्धि, ज्ञानशुद्धि, चारित्रशुद्धि, विनयशुद्धि और आवश्यक शुद्धि ऐसी पाँच प्रकार की है।167। =(अन.ध./8/42)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText">3. स्वाध्याय सम्बन्धी चार शुद्धियाँ</p> | ||
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<span class="SanskritText">ध. | <span class="SanskritText">ध.9/4,1,54/253/1 एत्थ वक्खणंतेहि सुणंतेहि वि दव्व-खेत्त-काल-भावसुद्धीहि वक्खाण-पढणवावारो कायव्वो।</span> = | ||
<span class="HindiText">यहाँ व्याख्यान करने वाले और सुनने वालों को भी द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भावशुद्धि से व्याख्यान करने में या पढ़ने में प्रवृत्ति करना चाहिए। (विशेष- देखें | <span class="HindiText">यहाँ व्याख्यान करने वाले और सुनने वालों को भी द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भावशुद्धि से व्याख्यान करने में या पढ़ने में प्रवृत्ति करना चाहिए। (विशेष-देखें [[ स्वाध्याय#2 | स्वाध्याय - 2]]); (अन.ध./9/4/847)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText">4. लिंग व व्रत की 10 शुद्धियाँ</p> | ||
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<span class="SanskritText">मू.आ./ | <span class="SanskritText">मू.आ./769 लिंगं वदं च सुद्धी वसदि विहारं च भिक्खणाणं च। उज्झणसुद्धी य पुणो वक्कं च तवं तधा झाणं।769।</span> = | ||
<span class="HindiText">लिंगशुद्धि, व्रतशुद्धि, वसतिशुद्धि, विहारशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, ज्ञानशुद्धि, उज्झणशुद्धि, वाक्यशुद्धि, तपशुद्धि और ध्यानशुद्धि।</span></p> | <span class="HindiText">लिंगशुद्धि, व्रतशुद्धि, वसतिशुद्धि, विहारशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, ज्ञानशुद्धि, उज्झणशुद्धि, वाक्यशुद्धि, तपशुद्धि और ध्यानशुद्धि।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText">5. लौकिक आठ शुचियाँ</p> | ||
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<span class="HindiText">देखें | <span class="HindiText">देखें [[ शुचि ]]। काल, अग्नि, भस्म, मृतिका, गोबर, जल, ज्ञान और निर्विचिकित्सा के भेद से आठ प्रकार की लौकिक शुचि है।</span></p> | ||
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<strong class="HindiText"> | <strong class="HindiText">3 मन, वचन व काय शुद्धियों का लक्षण</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText">भ.आ./वि./ | <span class="SanskritText">भ.आ./वि./167/380/13 दृष्टफलानपेक्षिता विनयशुद्धि:। तस्यां सत्यामुपकरणादिलोभो निरस्तो भवति।</span> = | ||
<span class="HindiText">कीर्ति आदर इत्यादि लौकिक फलों की इच्छा छोड़कर साधर्मिक जन, गुरुजन इत्यादिकों का विनय करना विनय शुद्धि है, इसके होने से उपकरण आदि के लोभ का अभाव होता है।</span></p> | <span class="HindiText">कीर्ति आदर इत्यादि लौकिक फलों की इच्छा छोड़कर साधर्मिक जन, गुरुजन इत्यादिकों का विनय करना विनय शुद्धि है, इसके होने से उपकरण आदि के लोभ का अभाव होता है।</span></p> | ||
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नि.सा./मू./ | नि.सा./मू./112 मदमाणमायलोहविवज्जिय भावो दु भावसुद्धि त्ति। परिकहियं भव्वाणं लोयालोयप्पदरिसीहिं। =(आलोचना प्रकरण में) मद, मान, माया और लोभ रहित भाव वह भाव शुद्धि है। ऐसा भव्यों को लोकालोक के द्रष्टाओं ने कहा है।112। (मू.आ./276)।</p> | ||
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<span class="HindiText"> | <span class="HindiText"> | ||
<strong>नोट</strong>―वचनशुद्धि- देखें | <strong>नोट</strong>―वचनशुद्धि-देखें [[ समिति#1 | समिति - 1]]।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText">रा.वा./ | <span class="SanskritText">रा.वा./9/6/16/597/4 तत्र भावशुद्धि: कर्मक्षयोपशमजनिता मोक्षमार्गरुच्याहितप्रसादा रागाद्युपप्लवरहिता। तस्यां सत्यामाचार: प्रकाशते परिशुद्धभित्तिगतचित्रकर्मवत् । कायशुद्धिर्निरावरणाभरणा निरस्तसंस्कारा यथाजातमलधारिणी निराकृताङ्गविकारा सर्वत्र प्रयतवृत्ति: प्रशमसुखं मूर्तिमिव प्रदर्शयन्तीति। तस्यां सत्यां। न स्वतोऽन्यस्य भयमुपजायते नाप्यन्यतस्तस्य। विनयशुद्धि: अर्हदादिषु परमगुरुषु यथार्हं पूजा प्रवणा, ज्ञानादिषु च यथाविधि भक्तियुक्ता गुरो: सर्वत्रानुकूलवृत्ति:, प्रश्नस्वाध्यायवाचनाकथाविज्ञप्त्यादिषु प्रतिपत्तिकुशला, देशकालभावावबोधनिपुणा, आचार्यानुमतचारिणी। तन्मूला: सर्वसंपद: सैषा भूषा पुरुषस्य, सैव नौ: संसारसमुद्रतरणे।</span> = | ||
<span class="HindiText"> <strong>भावशुद्धि</strong>-कर्म के क्षयोपशम से जन्य, मोक्षमार्ग की रुचि से जिसमें विशुद्धि प्राप्त हुई है और जो रागादि उपद्रवों से रहित है वह भावशुद्धि है। इसके होने से आचार उसी तरह चमक उठता है जैसे कि स्वच्छ दिवाल पर आलेखित चित्र। <strong>कायशुद्धि</strong>-यह समस्त आवरण और आभरणों से रहित, शरीर संस्कार से शून्य, यथाजात मल को धारण करने वाली, अंगविकार से रहित, और सर्वत्र यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्तिरूप है। यह मूर्तिमान् प्रशमसुख की तरह है। इसके होने पर न तो दूसरों से अपने को भय होता है और न अपने से दूसरों को। <strong>विनयशुद्धि</strong>-अर्हन्त आदि परम गुरुओं में यथायोग्य पूजा-भक्ति आदि तथा ज्ञान आदि में यथाविधि भक्ति से युक्त गुरुओं में सर्वत्र अनुकूल वृत्ति रखने वाली, प्रश्न स्वाध्याय, वाचना, कथा और विज्ञप्ति आदि में कुशल, देश काल और भाव के स्वरूप को समझने में तत्पर तथा आचार्य के मत का आचरण करने वाली विनयशुद्धि है। समस्त सम्पदाएँ विनयमूलक हैं। यह पुरुष का भूषण है। यह संसार समुद्र से पार उतारने के लिए नौका के समान है।</span></p> | <span class="HindiText"> <strong>भावशुद्धि</strong>-कर्म के क्षयोपशम से जन्य, मोक्षमार्ग की रुचि से जिसमें विशुद्धि प्राप्त हुई है और जो रागादि उपद्रवों से रहित है वह भावशुद्धि है। इसके होने से आचार उसी तरह चमक उठता है जैसे कि स्वच्छ दिवाल पर आलेखित चित्र। <strong>कायशुद्धि</strong>-यह समस्त आवरण और आभरणों से रहित, शरीर संस्कार से शून्य, यथाजात मल को धारण करने वाली, अंगविकार से रहित, और सर्वत्र यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्तिरूप है। यह मूर्तिमान् प्रशमसुख की तरह है। इसके होने पर न तो दूसरों से अपने को भय होता है और न अपने से दूसरों को। <strong>विनयशुद्धि</strong>-अर्हन्त आदि परम गुरुओं में यथायोग्य पूजा-भक्ति आदि तथा ज्ञान आदि में यथाविधि भक्ति से युक्त गुरुओं में सर्वत्र अनुकूल वृत्ति रखने वाली, प्रश्न स्वाध्याय, वाचना, कथा और विज्ञप्ति आदि में कुशल, देश काल और भाव के स्वरूप को समझने में तत्पर तथा आचार्य के मत का आचरण करने वाली विनयशुद्धि है। समस्त सम्पदाएँ विनयमूलक हैं। यह पुरुष का भूषण है। यह संसार समुद्र से पार उतारने के लिए नौका के समान है।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText">ध. | <span class="SanskritText">ध.9/4,1,54/254/10 अवगयराग-दोसाहंकारट्ट-रुद्दज्झाणस्स पंचमहव्वयकलिदस्स तिगुत्तिगुत्तस्स णाण-दंसण-चरणादिचारणवडि्ढदस्स भिक्खुस्स भावसुद्धी होदि।</span> = | ||
<span class="HindiText">राग, द्वेष, अहंकार, आर्त व रौद्र ध्यान से रहित, पाँच महाव्रतों से युक्त, तीन गुप्तियों से रक्षित, तथा ज्ञान दर्शन व चारित्र आदि आचार से वृद्धि को प्राप्त भिक्षु के भावशुद्धि होती है।</span></p> | <span class="HindiText">राग, द्वेष, अहंकार, आर्त व रौद्र ध्यान से रहित, पाँच महाव्रतों से युक्त, तीन गुप्तियों से रक्षित, तथा ज्ञान दर्शन व चारित्र आदि आचार से वृद्धि को प्राप्त भिक्षु के भावशुद्धि होती है।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText">वसु.श्रा./ | <span class="SanskritText">वसु.श्रा./229-230 चइऊण अट्टरुद्दे मणसुद्धी होइ कायव्वा।229। सव्वत्थसंपुडंगस्स होइ तह कायसुद्धी वि।230।</span> = | ||
<span class="HindiText">आर्त, रौद्र ध्यान छोड़कर मन:शुद्धि करना | <span class="HindiText">आर्त, रौद्र ध्यान छोड़कर मन:शुद्धि करना चाहिए।229। सर्व ओर से संपुटित अर्थात् विनीत अंग रखने वाले दातार के कायशुद्धि होती है।</span></p> | ||
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<strong class="HindiText"> | <strong class="HindiText">4. द्रव्य, क्षेत्र व काल शुद्धियों के लक्षण</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText">मू.आ./ | <span class="SanskritText">मू.आ./276 रुहिरादि पूयमंसं दव्वे खेत्ते सदहत्थपरिमाणं।</span> = | ||
<span class="HindiText">लोही, मल, मूत्र, वीर्य, हाड, पीव, मांसरूप द्रव्य का शरीर से सम्बन्ध करना। उस जगह से चारों दिशाओं में सौ-सौ हाथ प्रमाण स्थान छोड़ना क्रम से द्रव्य व क्षेत्रशुद्धि है।</span></p> | <span class="HindiText">लोही, मल, मूत्र, वीर्य, हाड, पीव, मांसरूप द्रव्य का शरीर से सम्बन्ध करना। उस जगह से चारों दिशाओं में सौ-सौ हाथ प्रमाण स्थान छोड़ना क्रम से द्रव्य व क्षेत्रशुद्धि है।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText">ध. | <span class="SanskritText">ध.9/4,1,54/गा.103-107/256 प्रमितिररत्निशतं स्यादुच्चारविमोक्षणक्षितेरारात् । तनुसलिलमोक्षणेऽपि च पञ्चाशदरत्निरैवात:।103। मानुषशरीरलेशावयवस्याप्यत्र दण्डपञ्चाशत् । संशोध्या तिरश्चां तदर्द्धमात्रैव भूमि: स्यात् ।104। क्षेत्रं संशोध्य पुन: स्वहस्तपादौ विशोध्य शुद्धमना:। प्राशुकदेशावस्थो गृह्णीयाद् वाचनां पश्चात् ।107।</span> = | ||
<span class="HindiText">मल छोड़ने की भूमि से सौ अरत्नि प्रमाण दूर, तनुसलिल अर्थात् मूत्र छोड़ने में भी इस भूमि से पचास अरत्नि दूर, मनुष्य शरीर के लेशमात्र अवयव के स्थान से पचास धनुष तथा तिर्यंचों के शरीर सम्बन्धी अवयव के स्थान से उससे आधी मात्र अर्थात् पच्चीस धनुष प्रमाण भूमि को शुद्ध करना | <span class="HindiText">मल छोड़ने की भूमि से सौ अरत्नि प्रमाण दूर, तनुसलिल अर्थात् मूत्र छोड़ने में भी इस भूमि से पचास अरत्नि दूर, मनुष्य शरीर के लेशमात्र अवयव के स्थान से पचास धनुष तथा तिर्यंचों के शरीर सम्बन्धी अवयव के स्थान से उससे आधी मात्र अर्थात् पच्चीस धनुष प्रमाण भूमि को शुद्ध करना चाहिए।103-104। क्षेत्र की शुद्धि करने के पश्चात् अपने हाथ और पैरों को शुद्ध करके तदनन्तर विशुद्ध मन युक्त होता हुआ प्रासुक देश में स्थित होकर वाचना को ग्रहण करे।107।</span></p> | ||
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<span class="HindiText"> देखें | <span class="HindiText">देखें [[ आहार#II.2.1 | आहार - II.2.1 ]]उद्गम, उत्पादन, अशन, संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम, कारण-इन दोषों से रहित भोजन ग्रहण करना वह आठ प्रकार की पिंड (द्रव्य) शुद्धि है।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText">ध. | <span class="SanskritText">ध.9/4,1,54/253-254/3 तत्र ज्वर-कुक्षि-शिरोरोग-दु:स्वप्न-रुधिर-वण्-मूत्र-लेपातीसार-पूयस्रावादीनां शरीरे अभावो द्रव्यशुद्धि:। व्याख्यातृव्यावस्थितप्रदेशात् चतसृष्वपि दिक्ष्वष्टाविंशतिसहस्रायातासु-विण्मूत्रास्थि-केश नख-त्वगाद्यभाव: षष्ठातीतवाचनात: आरात्पञ्चेन्द्रियशरीरार्द्रास्थि-त्वङ्मांसासृक्संबन्धाभावश्च क्षेत्रशुद्धि:। विद्युदिन्द्रधनुर्ग्रहोपरागाकालवृष्टयभ्रगर्जन-जीमूतव्रातप्रच्छाद-दिग्दाह-धूमिकापात-संन्यास-महोपवास-नन्दीश्वरजिनमहिमाद्यभावकालशुद्धि:। अत्र कालशुद्धिकारणविधानमभिधास्ये। तं जहापच्छियरत्तिसज्झायं खमाविय बहिं णिक्कलिय पासुवे भूमिपदेसे काओसग्गेण पुव्वाहिमुहो ट्ठाइदूण णवगाहापरियट्टणकालेण पुव्वदिस सोहिय पुणो पदाहिणेण पल्लटिय एदेणेव कालेण जम-वरुण-सोम-दिसासु सोहिदासु छत्तीसगाहुच्चारणकालेण (36) अट्ठसदुस्सासकालेण वा कालसुद्धो समप्पदि (108) अवरण्हे वि एवं चेव कालसुद्धी कायव्वा। णवरि एक्केक्काए दिसाए सत्त-सत्तगाहापरियट्टणेण परिच्छिण्णकाला त्ति णायव्वा। एत्थ सव्वगाहापमाणमट्ठावीस (28) चउरासीदि उस्सासा (84) पुणो अणत्थमिदे दिवायरे खेत्तसुद्धिं कादूण अत्थमिदे कालसुद्धिं पुव्वं ब कुज्जा। णवरि एत्थ कालो वीसगाहुच्चारणमेत्तो (20) सट्ठिउस्सासमेत्तो वा (60)</span> =<strong> | ||
<span class="HindiText"> | <span class="HindiText">1.</span></strong> <span class="HindiText"> <strong>द्रव्यशुद्धि</strong>-ज्वर कुक्षिरोग, शिरोरोग, कुत्सित स्वप्न, रुधिर, विष्टा, मूत्र, लेप, अतिसार और पीबका बहना इत्यादिकों का शरीर में न रहना द्रव्यशुद्धि कही जाती है। <strong>2.</strong></span> | ||
<span class="HindiText"> <strong>क्षेत्रशुद्धि</strong>-व्याख्याता से अधिष्ठित प्रदेश से चारों ही दिशाओं में अट्ठाईस हज़ार (धनुष) प्रमाण क्षेत्र में विष्ठा, मूत्र, हड्डी, केश, नख और केश तथा चमड़े आदि के अभाव को; तथा छह अतीत वाचनाओं से (?) समीप में (या दूरी तक) पंचेन्द्रिय जीव के शरीर सम्बन्धी गीली हड्डी, चमड़ा, मांस और रुधिर के सम्बन्ध के अभाव को क्षेत्रशुद्धि कहते हैं (मू.आ./ | <span class="HindiText"> <strong>क्षेत्रशुद्धि</strong>-व्याख्याता से अधिष्ठित प्रदेश से चारों ही दिशाओं में अट्ठाईस हज़ार (धनुष) प्रमाण क्षेत्र में विष्ठा, मूत्र, हड्डी, केश, नख और केश तथा चमड़े आदि के अभाव को; तथा छह अतीत वाचनाओं से (?) समीप में (या दूरी तक) पंचेन्द्रिय जीव के शरीर सम्बन्धी गीली हड्डी, चमड़ा, मांस और रुधिर के सम्बन्ध के अभाव को क्षेत्रशुद्धि कहते हैं (मू.आ./276)। <strong>3.</strong></span> | ||
<span class="HindiText"> <strong>कालशुद्धि</strong>-बिजली, इन्द्रधनुष, सूर्य चन्द्र का ग्रहण, अकाल वृष्टि, मेघगर्जन, मेघों के समूह से आच्छादित दिशाएँ, दिशादाह, धूमिकापात, (कुहरा), संन्यास, महोपवास, नन्दीश्वर महिमा और जिनमहिमा इत्यादि के अभाव को कालशुद्धि कहते हैं। यहाँ कालशुद्धि करने के विधान को कहते हैं। वह इस प्रकार है-पश्चिम रात्रि के सन्धिकाल में क्षमा कराकर बाहर निकल प्रासुक भूमिप्रदेश में कायोत्सर्ग से पूर्वाभिमुख स्थित होकर नौ गाथाओं के उच्चारणकाल से पूर्व दिशा को शुद्ध करके फिर प्रदक्षिणा रूप से पलटकर इतने ही काल से दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशाओं को शुद्ध कर लेने पर | <span class="HindiText"> <strong>कालशुद्धि</strong>-बिजली, इन्द्रधनुष, सूर्य चन्द्र का ग्रहण, अकाल वृष्टि, मेघगर्जन, मेघों के समूह से आच्छादित दिशाएँ, दिशादाह, धूमिकापात, (कुहरा), संन्यास, महोपवास, नन्दीश्वर महिमा और जिनमहिमा इत्यादि के अभाव को कालशुद्धि कहते हैं। यहाँ कालशुद्धि करने के विधान को कहते हैं। वह इस प्रकार है-पश्चिम रात्रि के सन्धिकाल में क्षमा कराकर बाहर निकल प्रासुक भूमिप्रदेश में कायोत्सर्ग से पूर्वाभिमुख स्थित होकर नौ गाथाओं के उच्चारणकाल से पूर्व दिशा को शुद्ध करके फिर प्रदक्षिणा रूप से पलटकर इतने ही काल से दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशाओं को शुद्ध कर लेने पर 36 गाथाओं के उच्चारण काल से अथवा 108 उच्छ्वास काल से कालशुद्धि समाप्त होती है। अपराह्न काल में इस प्रकार ही कालशुद्धि करना चाहिए। विशेष इतना है कि इस समय की कालशुद्धि एक-एक दिशाओं में सात-सात गाथाओं के उच्चारण काल से सीमित है, ऐसा जानना चाहिए। यहाँ सब गाथाओं का प्रमाण 28 अथवा उच्छ्वासों का प्रमाण 84 है। पश्चात् सूर्य के अस्त होने से पहले क्षेत्र शुद्धि करके सूर्य के अस्त हो जाने पर पूर्व के समान कालशुद्धि करना चाहिए। विशेष इतना है कि यहाँ काल बीस 20 गाथाओं के उच्चारण प्रमाण अथवा 60 उच्छ्वास प्रमाण है। (अर्थात् प्रत्येक दिशा में 5 गाथाओं का उच्चारण करे)। (मू.आ./273)।</span></p> | ||
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<span class="HindiText">क्रिया कोष/प्रथम रसोई के स्थान चक्की उखरी द्वय त्रय जान। चौथी अनाज सोधने काज जमीन चौका पंचम माढ। छठ में आटा छनने सोय सप्तम थान सयन का होय। पानी थान सु अष्टम जान सामायिक का नवमों थान।</span></p> | <span class="HindiText">क्रिया कोष/प्रथम रसोई के स्थान चक्की उखरी द्वय त्रय जान। चौथी अनाज सोधने काज जमीन चौका पंचम माढ। छठ में आटा छनने सोय सप्तम थान सयन का होय। पानी थान सु अष्टम जान सामायिक का नवमों थान।</span></p> | ||
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<strong class="HindiText"> | <strong class="HindiText">5. दर्शन ज्ञान व चारित्र शुद्धियों के लक्षण</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText">मू.आ./गाथा सं. चलचवलचवलजीविदमिणं णाऊण माणुसत्तणमसारं। णिव्विण्णकामभोगा धम्मम्मि | <span class="SanskritText">मू.आ./गाथा सं. चलचवलचवलजीविदमिणं णाऊण माणुसत्तणमसारं। णिव्विण्णकामभोगा धम्मम्मि उवट्ठिदमदीया।773। णिम्मालियसुमिणावियधणकणयसमिद्धबंधवजणं च। पयहंति वीरपुरिसा विरत्तकामा गिहावासे।774। उच्छाहणिच्छिदमदी ववसिदववसायबद्धकच्छा य। भावाणुरायरत्ता जिणपण्णत्तम्मि धम्मम्मि।777। अपरिग्गहा अणिच्छा संतुट्ठा सुट्ठिदा चरित्तम्मि। अवि णीएवि सरीरे ण करंति मुणी ममत्तिं ते।783। ते लद्धणाण चक्खू णाणुज्जोएण दिट्ठपरमट्ठा। णिस्संकिदणिव्विदिणिंछादबलपरक्कमा साधू।828। उवलद्धपुण्णपावा जिणसासणगहितमुणिदपज्जाला। करचरणसंवुडंगा झाणुवजुत्ता मुणी होंति।835। ते छिण्णणेहबंधा णिण्णेहा अप्पणो सरीरम्मि। ण करंति किंचि साहू परिसंठप्पं सरीरम्मि।836। उप्पण्णम्मि य वाही सिरवेयण कुक्खिवेयणं चेव। अधियासिंति सुधिदिया कायतिगिंछ ण इच्छंति।839। णिच्चं च अप्पमत्ता संजमसमिदीसु झाणजोगेसु। तवचरणकरणजुत्ता हवंति सवणा समिदपावा।862। विसएसु पधावंता चवला चंडा तिदंडगुत्तेहिं। इंदियचोरा घोरा वसम्मि ठविदा ववसिदेहिं।873। ण च एदि विणिस्सरिदुं मणहत्थी झाण वारिबंधणीदो। बद्धो य पयडंडो विरायरज्जूहिं धीरेहिं।876। एदे इंदियतुरया पयदीदोसेण चोइया संता। उम्मग्गं णेंति रहं करेइ मणपग्गहं बलियं।879।</span> =<strong> | ||
<span class="HindiText"> | <span class="HindiText">1. लिंग शुद्धि</span></strong><span class="HindiText">-अस्थिर नाश सहित इस जीवन को और परमार्थ रहित इस मनुष्य जन्म को जानकर त्री आदि उपभोग तथा भोजन आदि भोगों से अभिलाषा रहित हुए, निर्ग्रन्थादि स्वरूप चारित्र में दृढ़ बुद्धिवाले, घर के रहने से विरक्त चित्त वाले ऐसे वीर पुरुष भोग में आये फूलों की तरह गाय, घोड़ा आदि-धन-सोना इनसे परिपूर्ण ऐसे बान्धव जनों को छोड़ देते हैं।773-774। तप में तल्लीन होने में जिनकी बुद्धि निश्चित है जिन्होंने पुरुषार्थ किया है, कर्म के निर्मूल करने में जिन्होंने कमर कसी है, और जिनदेव कथित धर्म में परमार्थभूत भक्ति उसके प्रेमी हैं, ऐसे मुनियों के लिंगशुद्धि होती है।777। <strong>2.</strong></span> | ||
<span class="HindiText"> <strong>व्रतशुद्धि</strong>-आश्रय रहित, आशा रहित, सन्तोषी, चारित्र में तत्पर ऐसे मुनि अपने शरीर में ममत्व नहीं | <span class="HindiText"> <strong>व्रतशुद्धि</strong>-आश्रय रहित, आशा रहित, सन्तोषी, चारित्र में तत्पर ऐसे मुनि अपने शरीर में ममत्व नहीं करते।783। <strong>3. ज्ञानशुद्धि</strong>-जिन्होंने ज्ञान नेत्र पा लिया है, ऐसे साधु हैं, ज्ञानरूपी प्रकाश से जिन्होंने सब लोक का सार जान लिया है, पदार्थों में शंका रहित, अपने बल के समान जिनके पराक्रम हैं ऐसे साधु हैं।828। जिन्होंने पुण्य-पाप का स्वरूप जान लिया है, जिनमत में स्थित सब इन्द्रियों का स्वरूप जिन्होंने जान लिया है, हाथ, पैर, कर से ही जिनका शरीर ढँका हुआ है और ध्यान में उद्यमी हैं।835। <strong>4. उज्झणशुद्धि</strong>-पुत्र-स्त्री आदि में जिनने प्रेमरूपी बन्धन काट दिया है और अपने शरीर में भी ममता रहित ऐसे साधु शरीर में कुछ भी-स्नानादि संस्कार नहीं करते।836। ज्वर रोगादिक उत्पन्न होने पर भी मस्तक में पीड़ा, उदर में पीड़ा होने पर भी चारित्र में दृढ़ परिणाम वाले वे मुनि पीड़ा को सहन कर लेते हैं, परन्तु शरीर का उपचार करने की इच्छा नहीं करते।839। <strong>5. तपशुद्धि</strong>-वे मुनीश्वर सदा संयम, समिति, ध्यान और योगों में प्रमाद रहित होते हैं और तपश्चरण तथा तेरह प्रकार के करणों में उद्यमी हुए पापों के नाश करने वाले होते हैं।862। <strong>6. ध्यानशुद्धि</strong>-रूप, रसादि विषयों में दौड़ते चंचल क्रोध को प्राप्त हुए भयंकर ऐसे इन्द्रियरूपी चोर मन वचन काय गुप्तिवाले चारित्र में उद्यमी साधुजनों ने अपने वश में कर लिये हैं।873। जैसे मस्त हाथी बारिबन्धकर रोका गया निकलने को समर्थ नहीं होता, उसी तरह मन रूपी हाथी ध्यानरूपी बारिबन्ध को प्राप्त हुआ धीर अति प्रचण्ड होने पर भी मुनियों कर वैरागरूपी रस्से कर संयम बन्ध को प्राप्त हुआ निकलने में समर्थ नहीं हो सकता।876। ये इन्द्रिय रूपी घोड़े स्वाभाविक राग-द्वेष कर प्रेरे हुए धर्मध्यान रूपी रथ को विषयरूपी कुमार्ग में ले जाते हैं, इसलिए एकाग्र मनरूपी लगाम को बलवान करो।</span></p> | ||
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<span class="SanskritText">भ.आ./वि./ | <span class="SanskritText">भ.आ./वि./167/380/1 काले पठनमित्यादिका ज्ञानशुद्धि:, अस्यां सत्यां अकालपठनाद्या: क्रिया ज्ञानावरणमूला: परित्यक्ता भवन्ति। पञ्चविंशति भावनाश्चारित्रशुद्धि: सत्यां तस्यां अनिगृहीतमन:प्रचारादिशुभपरिणामोऽभ्यन्तरपरिग्रहस्त्यक्तो भवति।...मनसावद्ययोगनिवृत्ति: जिनगुणानुराग: वन्द्यमानश्रुतादिगुणानुवृत्ति: कृतापराधविषया निन्दा, मनसा प्रत्याख्यानं, शरीरासारानुपकारित्वभावना, चेत्यावश्यकशुद्धिरस्यां सत्यां अशुभयोगो जिनगुणाननुराग: श्रुतादिमाहात्म्येऽनादर:, अपराधाजुप्सा, अप्रत्याख्यानं शरीरममता चेत्यमी दोषा परिग्रहनिराकृता भवन्ति।</span> =<strong> | ||
<span class="HindiText"> | <span class="HindiText">1.</span></strong> <span class="HindiText"> <strong>ज्ञानशुद्धि</strong>-योग्य | ||
काल में अध्ययन करना, जिससे अध्ययन किया है ऐसे गुरु का और शास्त्र का नाम न छिपाना इत्यादि रूप ज्ञानशुद्धि है। यह शुद्धि आत्मा में होने से अकाल पठनादिक क्रिया जो कि ज्ञानावरण कर्मास्रव का कारण है त्यागी जाती है। <strong> | काल में अध्ययन करना, जिससे अध्ययन किया है ऐसे गुरु का और शास्त्र का नाम न छिपाना इत्यादि रूप ज्ञानशुद्धि है। यह शुद्धि आत्मा में होने से अकाल पठनादिक क्रिया जो कि ज्ञानावरण कर्मास्रव का कारण है त्यागी जाती है। <strong>2.</strong></span> | ||
<span class="HindiText"> <strong>चारित्रशुद्धि</strong>-प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ हैं, पाँच व्रतों की पच्चीस भावनाएँ हैं इनका पालन करना यह चारित्रशुद्धि है। इन भावनाओं का त्याग होने से मन स्वच्छन्दी होकर अशुभ परिणाम होते हैं। ये परिणाम अभ्यन्तर परिग्रह रूप हैं। व्रतों की पाँच भावनाओं से अभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग होता है। <strong> | <span class="HindiText"> <strong>चारित्रशुद्धि</strong>-प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ हैं, पाँच व्रतों की पच्चीस भावनाएँ हैं इनका पालन करना यह चारित्रशुद्धि है। इन भावनाओं का त्याग होने से मन स्वच्छन्दी होकर अशुभ परिणाम होते हैं। ये परिणाम अभ्यन्तर परिग्रह रूप हैं। व्रतों की पाँच भावनाओं से अभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग होता है। <strong>3.</strong></span> | ||
<span class="HindiText"> <strong>आवश्यक</strong></span> | <span class="HindiText"> <strong>आवश्यक</strong></span> | ||
<span class="HindiText"> <strong>शुद्धि</strong>-सावद्य योगों का त्याग, जिन गुणों पर प्रेम, वंद्यमान आचार्यादि के गुणों का अनुसरण करना, किये हुए अपराधों की निन्दा करना, मन से अपराधों का त्याग करना, शरीर की असारता और अपकारीपने का विचार करना यह सब आवश्यकशुद्धि है। यह शुद्धि होने पर अशुभ योग, जिन गुणों पर अप्रेम, आगम, आचार्यादि पूज्य पुरुषों के गुणों में अप्रीति, अपराध करने पर भी मन में पश्चात्ताप न होना, अपराध का त्याग न करना, और शरीर पर ममता करना ये दोष परिग्रह का त्याग करने से नष्ट होते हैं।</span></p> | <span class="HindiText"> <strong>शुद्धि</strong>-सावद्य योगों का त्याग, जिन गुणों पर प्रेम, वंद्यमान आचार्यादि के गुणों का अनुसरण करना, किये हुए अपराधों की निन्दा करना, मन से अपराधों का त्याग करना, शरीर की असारता और अपकारीपने का विचार करना यह सब आवश्यकशुद्धि है। यह शुद्धि होने पर अशुभ योग, जिन गुणों पर अप्रेम, आगम, आचार्यादि पूज्य पुरुषों के गुणों में अप्रीति, अपराध करने पर भी मन में पश्चात्ताप न होना, अपराध का त्याग न करना, और शरीर पर ममता करना ये दोष परिग्रह का त्याग करने से नष्ट होते हैं।</span></p> | ||
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<strong class="HindiText"> | <strong class="HindiText">6. सल्लेखना सम्बन्धी शुद्धियों के लक्षण</strong></p> | ||
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<span class="SanskritText">भ.आ./वि./ | <span class="SanskritText">भ.आ./वि./166/379/2 मायामृषारहितता आलोचना शुद्धि:।...उद्गमोत्पादनैषणादोषरहितता ममेदं इत्यपरिग्राह्यता च वसतिसंस्तरयो: शुद्धिस्तामुपगतेन उद्गमादिदोषोपहतयोर्वसतिसंस्तरयोस्त्याग: कृत इति भवत्युपधित्याग:। उपकरणादीनामपि उद्गमादिरहितता शुद्धिस्तस्यां सत्यां उद्गमादिदोषदुष्टानां असंयमसाधनानां ममेदं भावमूलानां परिग्रहाणां त्यागोऽस्त्येव। संयतवैयावृत्यक्रमज्ञता वैयावृत्यकारिशुद्धि: सत्यां तस्यां असंयता अक्रमज्ञाश्च न मम वैयावृत्यकरा इति स्वीक्रियमाणास्त्यक्ता भवन्ति।</span> =<strong> | ||
<span class="HindiText"> | <span class="HindiText">1.</span></strong> <span class="HindiText"> <strong>आलोचना शुद्धि</strong>-माया और असत्य भाषण का त्याग करना यह आलोचना शुद्धि है। <strong>2. शय्या व</strong></span> | ||
<span class="HindiText"> <strong>संस्तर शुद्धि</strong>-उद्गम, उत्पादन, ऐषणा दोषों से रहित यह मेरा है ऐसा भाव वसतिका में और संस्तर में होना यह वसति-संस्तरशुद्धि है। इस शुद्धि को जिसने धारण किया है उसने उद्गम उत्पादनादि दोषयुक्त वसतिका का त्याग किया है, ऐसा समझना चाहिए। इसलिए इसमें उपधि का भी त्याग सिद्ध हुआ समझना चाहिए। <strong> | <span class="HindiText"> <strong>संस्तर शुद्धि</strong>-उद्गम, उत्पादन, ऐषणा दोषों से रहित यह मेरा है ऐसा भाव वसतिका में और संस्तर में होना यह वसति-संस्तरशुद्धि है। इस शुद्धि को जिसने धारण किया है उसने उद्गम उत्पादनादि दोषयुक्त वसतिका का त्याग किया है, ऐसा समझना चाहिए। इसलिए इसमें उपधि का भी त्याग सिद्ध हुआ समझना चाहिए। <strong>3. उपकरण शुद्धि</strong>-पिछी, कमण्डलु वगैरह उपकरण भी उद्गमादि दोष रहित हों तो वे शुद्ध हैं, उद्गम आदि दोषों से अशुद्ध उपकरण असंयम के साधन हो जाते हैं। उसमें ये मेरा है ऐसा भाव उत्पन्न होता है अत: वे परिग्रह हैं, उनका त्याग करना यह उपकरणशुद्धि है। <strong>4.</strong></span> | ||
<span class="HindiText"> <strong>वैयावृत्यकरण शुद्धि</strong>-साधु जन की वैयावृत्य की पद्धति जान लेना यह वैयावृत्य करने वालों की शुद्धि है यह शुद्धि होने से असंयत लोक अक्रमज्ञ लोग मेरा वैयावृत्य करने वाले नहीं हैं ऐसा समझकर त्याग किया जाता है।</span></p> | <span class="HindiText"> <strong>वैयावृत्यकरण शुद्धि</strong>-साधु जन की वैयावृत्य की पद्धति जान लेना यह वैयावृत्य करने वालों की शुद्धि है यह शुद्धि होने से असंयत लोक अक्रमज्ञ लोग मेरा वैयावृत्य करने वाले नहीं हैं ऐसा समझकर त्याग किया जाता है।</span></p> | ||
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<strong class="HindiText">अन्य सम्बन्धित विषय</strong></p> | <strong class="HindiText">अन्य सम्बन्धित विषय</strong></p> | ||
<ol class="HindiText"> | <ol class="HindiText"> | ||
<li>आहार शुद्धि- देखें | <li>आहार शुद्धि-देखें [[ आहार#I.2 | आहार - I.2]]।</li> | ||
<li>भिक्षा शुद्धि- देखें | <li>भिक्षा शुद्धि-देखें [[ भिक्षा#1 | भिक्षा - 1]]।</li> | ||
<li>प्रतिष्ठापन, ईर्यापथ, व वचन शुद्धि- देखें | <li>प्रतिष्ठापन, ईर्यापथ, व वचन शुद्धि-देखें [[ समिति#1 | समिति - 1]]।</li> | ||
<li>शयनाशन शुद्धि-देखें | <li>शयनाशन शुद्धि-देखें [[ वसतिका ]]।</li> | ||
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Revision as of 21:48, 5 July 2020
जैनाम्नाय में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भोजनादि आदि रूप अनेक प्रकार की शुद्धियों का निर्देश है जिनका विवेक यथायोग्य प्रत्येक धर्मानुष्ठान में रखना योग्य है।
1. शुद्धि सामान्य का लक्षण
स.सा./ता.वृ./306-307/388/13 दोषे सति प्रायश्चित्तं गृहीत्वा विशुद्धिकारणं शुद्धि:। = दोष होने पर प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि करना शुद्धि कहलाती है।
2. शुद्धि के भेद
1. संयम की आठ शुद्धियाँ
रा.वा./9/6/16/596/1 अपहृतसंयमस्य प्रतिपादनार्थ: शुद्धयष्टकोपदेशो द्रष्टव्य:। तद्यथा, अष्टौ शुद्धय:-भावशुद्धि:, कायशुद्धि:, विनयशुद्धि:, ईर्यापथशुद्धि:, भिक्षाशुद्धि:, प्रतिष्ठापनशुद्धि:, शयनासनशुद्धि:, वाक्यशुद्धिश्चेति। = इस अपहृत संयम के प्रतिपादन के लिए ही इन आठ शुद्धियों का उपदेश दिया गया है-भाव शुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापथ शुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापन शुद्धि, शयनासनशुद्धि और वाक्यशुद्धि। (रा.वा./8/1/30/564/29); (चा.सा./76/1); (अन.ध./6/49)।
2. सल्लेखना सम्बन्धी अन्तरंग व बहिरंग शुद्धियाँ
भ.आ./मू./166-167/379-380 आलोयणाए सेज्जसंथारुवहीण भत्तपाणस्स। वेज्जावच्चकराण य सुद्धी खलु पंचहा होइ।166। अहवा दंसणणाणचरित्तसुद्धी य विणयसुद्धी य। आवासयसुद्धी वि य पंच वियप्पा हवदि सुद्धी।167। = आलोचना की शुद्धि, शय्या और संस्तर की शुद्धि, उपकरणों की शुद्धि, भक्तपान शुद्धि, इस प्रकार वैयावृत्त्यकरण शुद्धि पाँच प्रकार की है।166। अथवा दर्शनशुद्धि, ज्ञानशुद्धि, चारित्रशुद्धि, विनयशुद्धि और आवश्यक शुद्धि ऐसी पाँच प्रकार की है।167। =(अन.ध./8/42)।
3. स्वाध्याय सम्बन्धी चार शुद्धियाँ
ध.9/4,1,54/253/1 एत्थ वक्खणंतेहि सुणंतेहि वि दव्व-खेत्त-काल-भावसुद्धीहि वक्खाण-पढणवावारो कायव्वो। = यहाँ व्याख्यान करने वाले और सुनने वालों को भी द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भावशुद्धि से व्याख्यान करने में या पढ़ने में प्रवृत्ति करना चाहिए। (विशेष-देखें स्वाध्याय - 2); (अन.ध./9/4/847)।
4. लिंग व व्रत की 10 शुद्धियाँ
मू.आ./769 लिंगं वदं च सुद्धी वसदि विहारं च भिक्खणाणं च। उज्झणसुद्धी य पुणो वक्कं च तवं तधा झाणं।769। = लिंगशुद्धि, व्रतशुद्धि, वसतिशुद्धि, विहारशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, ज्ञानशुद्धि, उज्झणशुद्धि, वाक्यशुद्धि, तपशुद्धि और ध्यानशुद्धि।
5. लौकिक आठ शुचियाँ
देखें शुचि । काल, अग्नि, भस्म, मृतिका, गोबर, जल, ज्ञान और निर्विचिकित्सा के भेद से आठ प्रकार की लौकिक शुचि है।
3 मन, वचन व काय शुद्धियों का लक्षण
भ.आ./वि./167/380/13 दृष्टफलानपेक्षिता विनयशुद्धि:। तस्यां सत्यामुपकरणादिलोभो निरस्तो भवति। = कीर्ति आदर इत्यादि लौकिक फलों की इच्छा छोड़कर साधर्मिक जन, गुरुजन इत्यादिकों का विनय करना विनय शुद्धि है, इसके होने से उपकरण आदि के लोभ का अभाव होता है।
नि.सा./मू./112 मदमाणमायलोहविवज्जिय भावो दु भावसुद्धि त्ति। परिकहियं भव्वाणं लोयालोयप्पदरिसीहिं। =(आलोचना प्रकरण में) मद, मान, माया और लोभ रहित भाव वह भाव शुद्धि है। ऐसा भव्यों को लोकालोक के द्रष्टाओं ने कहा है।112। (मू.आ./276)।
नोट―वचनशुद्धि-देखें समिति - 1।
रा.वा./9/6/16/597/4 तत्र भावशुद्धि: कर्मक्षयोपशमजनिता मोक्षमार्गरुच्याहितप्रसादा रागाद्युपप्लवरहिता। तस्यां सत्यामाचार: प्रकाशते परिशुद्धभित्तिगतचित्रकर्मवत् । कायशुद्धिर्निरावरणाभरणा निरस्तसंस्कारा यथाजातमलधारिणी निराकृताङ्गविकारा सर्वत्र प्रयतवृत्ति: प्रशमसुखं मूर्तिमिव प्रदर्शयन्तीति। तस्यां सत्यां। न स्वतोऽन्यस्य भयमुपजायते नाप्यन्यतस्तस्य। विनयशुद्धि: अर्हदादिषु परमगुरुषु यथार्हं पूजा प्रवणा, ज्ञानादिषु च यथाविधि भक्तियुक्ता गुरो: सर्वत्रानुकूलवृत्ति:, प्रश्नस्वाध्यायवाचनाकथाविज्ञप्त्यादिषु प्रतिपत्तिकुशला, देशकालभावावबोधनिपुणा, आचार्यानुमतचारिणी। तन्मूला: सर्वसंपद: सैषा भूषा पुरुषस्य, सैव नौ: संसारसमुद्रतरणे। = भावशुद्धि-कर्म के क्षयोपशम से जन्य, मोक्षमार्ग की रुचि से जिसमें विशुद्धि प्राप्त हुई है और जो रागादि उपद्रवों से रहित है वह भावशुद्धि है। इसके होने से आचार उसी तरह चमक उठता है जैसे कि स्वच्छ दिवाल पर आलेखित चित्र। कायशुद्धि-यह समस्त आवरण और आभरणों से रहित, शरीर संस्कार से शून्य, यथाजात मल को धारण करने वाली, अंगविकार से रहित, और सर्वत्र यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्तिरूप है। यह मूर्तिमान् प्रशमसुख की तरह है। इसके होने पर न तो दूसरों से अपने को भय होता है और न अपने से दूसरों को। विनयशुद्धि-अर्हन्त आदि परम गुरुओं में यथायोग्य पूजा-भक्ति आदि तथा ज्ञान आदि में यथाविधि भक्ति से युक्त गुरुओं में सर्वत्र अनुकूल वृत्ति रखने वाली, प्रश्न स्वाध्याय, वाचना, कथा और विज्ञप्ति आदि में कुशल, देश काल और भाव के स्वरूप को समझने में तत्पर तथा आचार्य के मत का आचरण करने वाली विनयशुद्धि है। समस्त सम्पदाएँ विनयमूलक हैं। यह पुरुष का भूषण है। यह संसार समुद्र से पार उतारने के लिए नौका के समान है।
ध.9/4,1,54/254/10 अवगयराग-दोसाहंकारट्ट-रुद्दज्झाणस्स पंचमहव्वयकलिदस्स तिगुत्तिगुत्तस्स णाण-दंसण-चरणादिचारणवडि्ढदस्स भिक्खुस्स भावसुद्धी होदि। = राग, द्वेष, अहंकार, आर्त व रौद्र ध्यान से रहित, पाँच महाव्रतों से युक्त, तीन गुप्तियों से रक्षित, तथा ज्ञान दर्शन व चारित्र आदि आचार से वृद्धि को प्राप्त भिक्षु के भावशुद्धि होती है।
वसु.श्रा./229-230 चइऊण अट्टरुद्दे मणसुद्धी होइ कायव्वा।229। सव्वत्थसंपुडंगस्स होइ तह कायसुद्धी वि।230। = आर्त, रौद्र ध्यान छोड़कर मन:शुद्धि करना चाहिए।229। सर्व ओर से संपुटित अर्थात् विनीत अंग रखने वाले दातार के कायशुद्धि होती है।
4. द्रव्य, क्षेत्र व काल शुद्धियों के लक्षण
मू.आ./276 रुहिरादि पूयमंसं दव्वे खेत्ते सदहत्थपरिमाणं। = लोही, मल, मूत्र, वीर्य, हाड, पीव, मांसरूप द्रव्य का शरीर से सम्बन्ध करना। उस जगह से चारों दिशाओं में सौ-सौ हाथ प्रमाण स्थान छोड़ना क्रम से द्रव्य व क्षेत्रशुद्धि है।
ध.9/4,1,54/गा.103-107/256 प्रमितिररत्निशतं स्यादुच्चारविमोक्षणक्षितेरारात् । तनुसलिलमोक्षणेऽपि च पञ्चाशदरत्निरैवात:।103। मानुषशरीरलेशावयवस्याप्यत्र दण्डपञ्चाशत् । संशोध्या तिरश्चां तदर्द्धमात्रैव भूमि: स्यात् ।104। क्षेत्रं संशोध्य पुन: स्वहस्तपादौ विशोध्य शुद्धमना:। प्राशुकदेशावस्थो गृह्णीयाद् वाचनां पश्चात् ।107। = मल छोड़ने की भूमि से सौ अरत्नि प्रमाण दूर, तनुसलिल अर्थात् मूत्र छोड़ने में भी इस भूमि से पचास अरत्नि दूर, मनुष्य शरीर के लेशमात्र अवयव के स्थान से पचास धनुष तथा तिर्यंचों के शरीर सम्बन्धी अवयव के स्थान से उससे आधी मात्र अर्थात् पच्चीस धनुष प्रमाण भूमि को शुद्ध करना चाहिए।103-104। क्षेत्र की शुद्धि करने के पश्चात् अपने हाथ और पैरों को शुद्ध करके तदनन्तर विशुद्ध मन युक्त होता हुआ प्रासुक देश में स्थित होकर वाचना को ग्रहण करे।107।
देखें आहार - II.2.1 उद्गम, उत्पादन, अशन, संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम, कारण-इन दोषों से रहित भोजन ग्रहण करना वह आठ प्रकार की पिंड (द्रव्य) शुद्धि है।
ध.9/4,1,54/253-254/3 तत्र ज्वर-कुक्षि-शिरोरोग-दु:स्वप्न-रुधिर-वण्-मूत्र-लेपातीसार-पूयस्रावादीनां शरीरे अभावो द्रव्यशुद्धि:। व्याख्यातृव्यावस्थितप्रदेशात् चतसृष्वपि दिक्ष्वष्टाविंशतिसहस्रायातासु-विण्मूत्रास्थि-केश नख-त्वगाद्यभाव: षष्ठातीतवाचनात: आरात्पञ्चेन्द्रियशरीरार्द्रास्थि-त्वङ्मांसासृक्संबन्धाभावश्च क्षेत्रशुद्धि:। विद्युदिन्द्रधनुर्ग्रहोपरागाकालवृष्टयभ्रगर्जन-जीमूतव्रातप्रच्छाद-दिग्दाह-धूमिकापात-संन्यास-महोपवास-नन्दीश्वरजिनमहिमाद्यभावकालशुद्धि:। अत्र कालशुद्धिकारणविधानमभिधास्ये। तं जहापच्छियरत्तिसज्झायं खमाविय बहिं णिक्कलिय पासुवे भूमिपदेसे काओसग्गेण पुव्वाहिमुहो ट्ठाइदूण णवगाहापरियट्टणकालेण पुव्वदिस सोहिय पुणो पदाहिणेण पल्लटिय एदेणेव कालेण जम-वरुण-सोम-दिसासु सोहिदासु छत्तीसगाहुच्चारणकालेण (36) अट्ठसदुस्सासकालेण वा कालसुद्धो समप्पदि (108) अवरण्हे वि एवं चेव कालसुद्धी कायव्वा। णवरि एक्केक्काए दिसाए सत्त-सत्तगाहापरियट्टणेण परिच्छिण्णकाला त्ति णायव्वा। एत्थ सव्वगाहापमाणमट्ठावीस (28) चउरासीदि उस्सासा (84) पुणो अणत्थमिदे दिवायरे खेत्तसुद्धिं कादूण अत्थमिदे कालसुद्धिं पुव्वं ब कुज्जा। णवरि एत्थ कालो वीसगाहुच्चारणमेत्तो (20) सट्ठिउस्सासमेत्तो वा (60) = 1. द्रव्यशुद्धि-ज्वर कुक्षिरोग, शिरोरोग, कुत्सित स्वप्न, रुधिर, विष्टा, मूत्र, लेप, अतिसार और पीबका बहना इत्यादिकों का शरीर में न रहना द्रव्यशुद्धि कही जाती है। 2. क्षेत्रशुद्धि-व्याख्याता से अधिष्ठित प्रदेश से चारों ही दिशाओं में अट्ठाईस हज़ार (धनुष) प्रमाण क्षेत्र में विष्ठा, मूत्र, हड्डी, केश, नख और केश तथा चमड़े आदि के अभाव को; तथा छह अतीत वाचनाओं से (?) समीप में (या दूरी तक) पंचेन्द्रिय जीव के शरीर सम्बन्धी गीली हड्डी, चमड़ा, मांस और रुधिर के सम्बन्ध के अभाव को क्षेत्रशुद्धि कहते हैं (मू.आ./276)। 3. कालशुद्धि-बिजली, इन्द्रधनुष, सूर्य चन्द्र का ग्रहण, अकाल वृष्टि, मेघगर्जन, मेघों के समूह से आच्छादित दिशाएँ, दिशादाह, धूमिकापात, (कुहरा), संन्यास, महोपवास, नन्दीश्वर महिमा और जिनमहिमा इत्यादि के अभाव को कालशुद्धि कहते हैं। यहाँ कालशुद्धि करने के विधान को कहते हैं। वह इस प्रकार है-पश्चिम रात्रि के सन्धिकाल में क्षमा कराकर बाहर निकल प्रासुक भूमिप्रदेश में कायोत्सर्ग से पूर्वाभिमुख स्थित होकर नौ गाथाओं के उच्चारणकाल से पूर्व दिशा को शुद्ध करके फिर प्रदक्षिणा रूप से पलटकर इतने ही काल से दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशाओं को शुद्ध कर लेने पर 36 गाथाओं के उच्चारण काल से अथवा 108 उच्छ्वास काल से कालशुद्धि समाप्त होती है। अपराह्न काल में इस प्रकार ही कालशुद्धि करना चाहिए। विशेष इतना है कि इस समय की कालशुद्धि एक-एक दिशाओं में सात-सात गाथाओं के उच्चारण काल से सीमित है, ऐसा जानना चाहिए। यहाँ सब गाथाओं का प्रमाण 28 अथवा उच्छ्वासों का प्रमाण 84 है। पश्चात् सूर्य के अस्त होने से पहले क्षेत्र शुद्धि करके सूर्य के अस्त हो जाने पर पूर्व के समान कालशुद्धि करना चाहिए। विशेष इतना है कि यहाँ काल बीस 20 गाथाओं के उच्चारण प्रमाण अथवा 60 उच्छ्वास प्रमाण है। (अर्थात् प्रत्येक दिशा में 5 गाथाओं का उच्चारण करे)। (मू.आ./273)।
क्रिया कोष/प्रथम रसोई के स्थान चक्की उखरी द्वय त्रय जान। चौथी अनाज सोधने काज जमीन चौका पंचम माढ। छठ में आटा छनने सोय सप्तम थान सयन का होय। पानी थान सु अष्टम जान सामायिक का नवमों थान।
5. दर्शन ज्ञान व चारित्र शुद्धियों के लक्षण
मू.आ./गाथा सं. चलचवलचवलजीविदमिणं णाऊण माणुसत्तणमसारं। णिव्विण्णकामभोगा धम्मम्मि उवट्ठिदमदीया।773। णिम्मालियसुमिणावियधणकणयसमिद्धबंधवजणं च। पयहंति वीरपुरिसा विरत्तकामा गिहावासे।774। उच्छाहणिच्छिदमदी ववसिदववसायबद्धकच्छा य। भावाणुरायरत्ता जिणपण्णत्तम्मि धम्मम्मि।777। अपरिग्गहा अणिच्छा संतुट्ठा सुट्ठिदा चरित्तम्मि। अवि णीएवि सरीरे ण करंति मुणी ममत्तिं ते।783। ते लद्धणाण चक्खू णाणुज्जोएण दिट्ठपरमट्ठा। णिस्संकिदणिव्विदिणिंछादबलपरक्कमा साधू।828। उवलद्धपुण्णपावा जिणसासणगहितमुणिदपज्जाला। करचरणसंवुडंगा झाणुवजुत्ता मुणी होंति।835। ते छिण्णणेहबंधा णिण्णेहा अप्पणो सरीरम्मि। ण करंति किंचि साहू परिसंठप्पं सरीरम्मि।836। उप्पण्णम्मि य वाही सिरवेयण कुक्खिवेयणं चेव। अधियासिंति सुधिदिया कायतिगिंछ ण इच्छंति।839। णिच्चं च अप्पमत्ता संजमसमिदीसु झाणजोगेसु। तवचरणकरणजुत्ता हवंति सवणा समिदपावा।862। विसएसु पधावंता चवला चंडा तिदंडगुत्तेहिं। इंदियचोरा घोरा वसम्मि ठविदा ववसिदेहिं।873। ण च एदि विणिस्सरिदुं मणहत्थी झाण वारिबंधणीदो। बद्धो य पयडंडो विरायरज्जूहिं धीरेहिं।876। एदे इंदियतुरया पयदीदोसेण चोइया संता। उम्मग्गं णेंति रहं करेइ मणपग्गहं बलियं।879। = 1. लिंग शुद्धि-अस्थिर नाश सहित इस जीवन को और परमार्थ रहित इस मनुष्य जन्म को जानकर त्री आदि उपभोग तथा भोजन आदि भोगों से अभिलाषा रहित हुए, निर्ग्रन्थादि स्वरूप चारित्र में दृढ़ बुद्धिवाले, घर के रहने से विरक्त चित्त वाले ऐसे वीर पुरुष भोग में आये फूलों की तरह गाय, घोड़ा आदि-धन-सोना इनसे परिपूर्ण ऐसे बान्धव जनों को छोड़ देते हैं।773-774। तप में तल्लीन होने में जिनकी बुद्धि निश्चित है जिन्होंने पुरुषार्थ किया है, कर्म के निर्मूल करने में जिन्होंने कमर कसी है, और जिनदेव कथित धर्म में परमार्थभूत भक्ति उसके प्रेमी हैं, ऐसे मुनियों के लिंगशुद्धि होती है।777। 2. व्रतशुद्धि-आश्रय रहित, आशा रहित, सन्तोषी, चारित्र में तत्पर ऐसे मुनि अपने शरीर में ममत्व नहीं करते।783। 3. ज्ञानशुद्धि-जिन्होंने ज्ञान नेत्र पा लिया है, ऐसे साधु हैं, ज्ञानरूपी प्रकाश से जिन्होंने सब लोक का सार जान लिया है, पदार्थों में शंका रहित, अपने बल के समान जिनके पराक्रम हैं ऐसे साधु हैं।828। जिन्होंने पुण्य-पाप का स्वरूप जान लिया है, जिनमत में स्थित सब इन्द्रियों का स्वरूप जिन्होंने जान लिया है, हाथ, पैर, कर से ही जिनका शरीर ढँका हुआ है और ध्यान में उद्यमी हैं।835। 4. उज्झणशुद्धि-पुत्र-स्त्री आदि में जिनने प्रेमरूपी बन्धन काट दिया है और अपने शरीर में भी ममता रहित ऐसे साधु शरीर में कुछ भी-स्नानादि संस्कार नहीं करते।836। ज्वर रोगादिक उत्पन्न होने पर भी मस्तक में पीड़ा, उदर में पीड़ा होने पर भी चारित्र में दृढ़ परिणाम वाले वे मुनि पीड़ा को सहन कर लेते हैं, परन्तु शरीर का उपचार करने की इच्छा नहीं करते।839। 5. तपशुद्धि-वे मुनीश्वर सदा संयम, समिति, ध्यान और योगों में प्रमाद रहित होते हैं और तपश्चरण तथा तेरह प्रकार के करणों में उद्यमी हुए पापों के नाश करने वाले होते हैं।862। 6. ध्यानशुद्धि-रूप, रसादि विषयों में दौड़ते चंचल क्रोध को प्राप्त हुए भयंकर ऐसे इन्द्रियरूपी चोर मन वचन काय गुप्तिवाले चारित्र में उद्यमी साधुजनों ने अपने वश में कर लिये हैं।873। जैसे मस्त हाथी बारिबन्धकर रोका गया निकलने को समर्थ नहीं होता, उसी तरह मन रूपी हाथी ध्यानरूपी बारिबन्ध को प्राप्त हुआ धीर अति प्रचण्ड होने पर भी मुनियों कर वैरागरूपी रस्से कर संयम बन्ध को प्राप्त हुआ निकलने में समर्थ नहीं हो सकता।876। ये इन्द्रिय रूपी घोड़े स्वाभाविक राग-द्वेष कर प्रेरे हुए धर्मध्यान रूपी रथ को विषयरूपी कुमार्ग में ले जाते हैं, इसलिए एकाग्र मनरूपी लगाम को बलवान करो।
भ.आ./वि./167/380/1 काले पठनमित्यादिका ज्ञानशुद्धि:, अस्यां सत्यां अकालपठनाद्या: क्रिया ज्ञानावरणमूला: परित्यक्ता भवन्ति। पञ्चविंशति भावनाश्चारित्रशुद्धि: सत्यां तस्यां अनिगृहीतमन:प्रचारादिशुभपरिणामोऽभ्यन्तरपरिग्रहस्त्यक्तो भवति।...मनसावद्ययोगनिवृत्ति: जिनगुणानुराग: वन्द्यमानश्रुतादिगुणानुवृत्ति: कृतापराधविषया निन्दा, मनसा प्रत्याख्यानं, शरीरासारानुपकारित्वभावना, चेत्यावश्यकशुद्धिरस्यां सत्यां अशुभयोगो जिनगुणाननुराग: श्रुतादिमाहात्म्येऽनादर:, अपराधाजुप्सा, अप्रत्याख्यानं शरीरममता चेत्यमी दोषा परिग्रहनिराकृता भवन्ति। = 1. ज्ञानशुद्धि-योग्य काल में अध्ययन करना, जिससे अध्ययन किया है ऐसे गुरु का और शास्त्र का नाम न छिपाना इत्यादि रूप ज्ञानशुद्धि है। यह शुद्धि आत्मा में होने से अकाल पठनादिक क्रिया जो कि ज्ञानावरण कर्मास्रव का कारण है त्यागी जाती है। 2. चारित्रशुद्धि-प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ हैं, पाँच व्रतों की पच्चीस भावनाएँ हैं इनका पालन करना यह चारित्रशुद्धि है। इन भावनाओं का त्याग होने से मन स्वच्छन्दी होकर अशुभ परिणाम होते हैं। ये परिणाम अभ्यन्तर परिग्रह रूप हैं। व्रतों की पाँच भावनाओं से अभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग होता है। 3. आवश्यक शुद्धि-सावद्य योगों का त्याग, जिन गुणों पर प्रेम, वंद्यमान आचार्यादि के गुणों का अनुसरण करना, किये हुए अपराधों की निन्दा करना, मन से अपराधों का त्याग करना, शरीर की असारता और अपकारीपने का विचार करना यह सब आवश्यकशुद्धि है। यह शुद्धि होने पर अशुभ योग, जिन गुणों पर अप्रेम, आगम, आचार्यादि पूज्य पुरुषों के गुणों में अप्रीति, अपराध करने पर भी मन में पश्चात्ताप न होना, अपराध का त्याग न करना, और शरीर पर ममता करना ये दोष परिग्रह का त्याग करने से नष्ट होते हैं।
6. सल्लेखना सम्बन्धी शुद्धियों के लक्षण
भ.आ./वि./166/379/2 मायामृषारहितता आलोचना शुद्धि:।...उद्गमोत्पादनैषणादोषरहितता ममेदं इत्यपरिग्राह्यता च वसतिसंस्तरयो: शुद्धिस्तामुपगतेन उद्गमादिदोषोपहतयोर्वसतिसंस्तरयोस्त्याग: कृत इति भवत्युपधित्याग:। उपकरणादीनामपि उद्गमादिरहितता शुद्धिस्तस्यां सत्यां उद्गमादिदोषदुष्टानां असंयमसाधनानां ममेदं भावमूलानां परिग्रहाणां त्यागोऽस्त्येव। संयतवैयावृत्यक्रमज्ञता वैयावृत्यकारिशुद्धि: सत्यां तस्यां असंयता अक्रमज्ञाश्च न मम वैयावृत्यकरा इति स्वीक्रियमाणास्त्यक्ता भवन्ति। = 1. आलोचना शुद्धि-माया और असत्य भाषण का त्याग करना यह आलोचना शुद्धि है। 2. शय्या व संस्तर शुद्धि-उद्गम, उत्पादन, ऐषणा दोषों से रहित यह मेरा है ऐसा भाव वसतिका में और संस्तर में होना यह वसति-संस्तरशुद्धि है। इस शुद्धि को जिसने धारण किया है उसने उद्गम उत्पादनादि दोषयुक्त वसतिका का त्याग किया है, ऐसा समझना चाहिए। इसलिए इसमें उपधि का भी त्याग सिद्ध हुआ समझना चाहिए। 3. उपकरण शुद्धि-पिछी, कमण्डलु वगैरह उपकरण भी उद्गमादि दोष रहित हों तो वे शुद्ध हैं, उद्गम आदि दोषों से अशुद्ध उपकरण असंयम के साधन हो जाते हैं। उसमें ये मेरा है ऐसा भाव उत्पन्न होता है अत: वे परिग्रह हैं, उनका त्याग करना यह उपकरणशुद्धि है। 4. वैयावृत्यकरण शुद्धि-साधु जन की वैयावृत्य की पद्धति जान लेना यह वैयावृत्य करने वालों की शुद्धि है यह शुद्धि होने से असंयत लोक अक्रमज्ञ लोग मेरा वैयावृत्य करने वाले नहीं हैं ऐसा समझकर त्याग किया जाता है।
अन्य सम्बन्धित विषय
- आहार शुद्धि-देखें आहार - I.2।
- भिक्षा शुद्धि-देखें भिक्षा - 1।
- प्रतिष्ठापन, ईर्यापथ, व वचन शुद्धि-देखें समिति - 1।
- शयनाशन शुद्धि-देखें वसतिका ।