श्रावक के मूल व उत्तर गुण निर्देश: Difference between revisions
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<p class="HindiText" id="4"><strong>श्रावक के मूल व उत्तर गुण निर्देश</strong></p> | <p class="HindiText" id="4"><strong>श्रावक के मूल व उत्तर गुण निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.1"><strong> | <p class="HindiText" id="4.1"><strong>1. अष्ट मूलगुण अवश्य धारण करने चाहिए</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">र.क.श्रा./ | <p><span class="SanskritText">र.क.श्रा./66 मद्यमांसमधुत्यागै: सहाणुव्रतपञ्चकम् । अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमा:।66।</span> =<span class="HindiText">मद्य, मांस और मधु के त्याग सहित पाँचों अणुव्रतों को श्रेष्ठ मुनिराज गृहस्थों के मूलगुण कहते हैं।66। (सा.ध.)</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पु.सि.उ./ | <p><span class="SanskritText">पु.सि.उ./61 मद्यं मांसं क्षौद्रं पञ्चोदुम्बरफलानि यत्नेन। हिंसा व्युपरतिकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव।61।</span> =<span class="HindiText">हिंसा त्याग की कामना वाले पुरुषों को सबसे पहले शराब, मांस, शहद, ऊमर, कठूमर आदि पंच उदुम्बर फलों का त्याग करना योग्य है।61। (पं.वि./6/23), (सा.ध./2/2)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">चा.सा./ | <p><span class="SanskritText">चा.सा./30/4 पर उद्धृत - हिंसासत्यस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात् । द्यूतान्मांसानमद्याद्विरतिर्गृहिणोऽष्ट सन्त्यमी मूलगुणा:।</span> =<span class="HindiText">स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल अब्रह्म व स्थूल परिग्रह से विरक्त होना तथा जूआ, मांस और मद्य का त्याग करना ये आठ गृहस्थों के मूलगुण कहलाते हैं। (चा.सा./30/3), (सा.ध./2/3)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">सा.ध./ | <p><span class="SanskritText">सा.ध./2/18 मद्यपलमधुनिशाशन-पञ्चफलीविरति-पञ्चकाप्तनुती। जीवदयाजलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणा:।18।</span> =<span class="HindiText">किसी आचार्य के मत में मद्य, मांस, मधु, रात्रि भोजन व पंच उदम्बर फलों का त्याग, देववन्दना, जीव दया करना और पानी छानकर पीना ये मूलगुण माने गये हैं।18। (सा.ध./पं.लाल राम/फुट नोट पृ.82)।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.2"><strong> | <p class="HindiText" id="4.2"><strong>2. अष्ट मूलगुण निर्देश का समन्वय</strong></p> | ||
<p class="HindiText">रा.वा.हिं./ | <p class="HindiText">रा.वा.हिं./7/20/558 कोई शास्त्र में तो आठ मूलगुण कहे हैं, तामें पाँच अणुव्रत कहे, मद्य, मांस, शहद का त्याग कहा, ऐसे आठ कहे। कोई शास्त्र में पाँच उदुम्बर फल का त्याग, तीन मकार का त्याग, ऐसे आठ कहे। कोई शास्त्र में अन्य प्रकार भी कहा है। यह तो विवक्षा का भेद है, तहाँ ऐसा समझना जो स्थूलपने पाँच पाप ही का त्याग है। पंच उदुम्बर फल में तो त्रस भक्षण का त्याग भया, शिकार के त्याग में त्रस मारने का त्याग भया। चोरी तथा परस्त्री त्याग में दोऊ व्रत भए। द्यूत कर्मादि अति तृष्णा के त्याग तै असत्य का त्याग तथा परिग्रह की अति चाह मिटी। मांस, मद्य, और शहद के त्याग तै त्रस कूं मार करि भक्षण करने का त्याग भया।</p> | ||
<p class="HindiText" id="4.3"><strong> | <p class="HindiText" id="4.3"><strong>3. अष्ट मूलगुण व सप्त व्यसनों के त्याग के बिना नाम से भी श्रावक नहीं</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ दर्शन प्रतिमा#2.5 | दर्शन प्रतिमा - 2.5 ]]पहली प्रतिमा में ही श्रावक को अष्ट मूलगुण व सप्त व्यसन का त्याग हो जाता है।</p> | ||
<p><span class="SanskritText">सा.ध./टिप्पणी/पृ. | <p><span class="SanskritText">सा.ध./टिप्पणी/पृ.82 एतेऽष्टौ प्रगुणा गुणा गणधरैरागारिणां कीर्तिता। एकेनाप्यमुना विना यदि भवेद्भूतो न गेहाश्रमी।</span> = <span class="HindiText">आठ मूलगुण श्रावकों के लिए गणधरदेव ने कहे हैं, इनमें से एक के भी अभाव में श्रावक नहीं कहा जा सकता।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध.उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध.उ./724-728 निसर्गाद्वा कुलाम्नायादायातास्ते गुणा: स्फुटम् । तद्विना न व्रतं यावत्सम्यक्त्वं च तथाङ्गिनाम् ।724। एतावता विनाप्येष श्रावको नास्ति नामत:। किं पुन: पाक्षिको गूढो नैष्ठिक: साधकोऽथवा।725। मद्यमांसमधुत्यागी त्यक्तोदुम्बरपञ्चक:। नामत: श्रावक: ख्यातो नान्यथाऽपि तथा गृही।726। यथाशक्ति विधातव्यं गृहस्थैर्व्यसनोज्झनम् । अवश्यं तद्व्रतस्थैस्तैरिच्छद्भि: श्रेयसीं क्रियाम् ।727। त्यजेद्दोषांस्तु तत्रोक्तान् सूत्रोऽतीचारसंज्ञकान् । अन्यथा मद्यमांसादीन् श्रावक: क: समाचरेत् ।728। | ||
</span> = <span class="HindiText">आठों मूलगुण स्वभाव से अथवा कुल परम्परा से भी आते हैं। यह स्पष्ट है कि मूलगुण के बिना जीवों के सब प्रकार का व्रत और सम्यक्त्व नहीं हो | </span> = <span class="HindiText">आठों मूलगुण स्वभाव से अथवा कुल परम्परा से भी आते हैं। यह स्पष्ट है कि मूलगुण के बिना जीवों के सब प्रकार का व्रत और सम्यक्त्व नहीं हो सकता।724। मूलगुणों के बिना जीव नाम से भी श्रावक नहीं हो सकता तो फिर पाक्षिक, गूढ नैष्ठिक अथवा साधक श्रावक कैसे हो सकता है।725। मद्य, मांस मधु व पंच उदुम्बर फलों का त्याग करने वाला गृहस्थ नाम से श्रावक कहलाता है, किन्तु मद्यादि का सेवन करने वाला गृहस्थ नाम से भी श्रावक नहीं है।726। गृहस्थों को यथाशक्ति व्यसनों का त्याग करना चाहिए, तथा कल्याणप्रद क्रियाओं के करने की इच्छा करनी चाहिए। व्रती गृहस्थ को अवश्य ही व्यसनों का त्याग करना चाहिए।727। और मूलगुणों के लगने वाला अतिचार नामक दोषों को भी अवश्य छोड़ना चाहिए अन्यथा साक्षात् रूप से मद्य, मांस आदि को कौन-सा श्रावक खाता है।728। (ला.सं./2/6-9), (ला.सं./3/129-130)।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.4"><strong> | <p class="HindiText" id="4.4"><strong>4. अष्ट मूलगुण व्रती अव्रती दोनों को होते हैं</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./723 तत्र मूलगुणाश्चाष्टौ गृहिणां व्रतधारिणाम् । क्वचिदव्रतिनां यस्मात् सर्वसाधारणा इमे।723।</span> = | ||
<span class="HindiText">उनमें जिस कारण से व्रती गृहस्थों के जो आठ मूलगुण हैं वे कहीं-कहीं पर अव्रती गृहस्थों के भी पाये जाते हैं इसलिए ये आठों ही मूलगुण साधारण | <span class="HindiText">उनमें जिस कारण से व्रती गृहस्थों के जो आठ मूलगुण हैं वे कहीं-कहीं पर अव्रती गृहस्थों के भी पाये जाते हैं इसलिए ये आठों ही मूलगुण साधारण हैं।723। (ला.सं./3/127-128)।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.5"><strong> | <p class="HindiText" id="4.5"><strong>5. साधु को पूर्ण और श्रावक को एकदेश होते हैं</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./722 मूलोत्तरगुणा: सन्ति देशतो वेश्मवर्तिनाम् । तथानगारिणां न स्यु: सर्वत: स्यु: परेऽथ ते।722।</span> = | ||
<span class="HindiText">जैसे गृहस्थों के मूल और उत्तरगुण होते हैं वैसे मुनियों के एकदेश रूप से नहीं होते हैं किन्तु वे मूलगुण तथा उत्तरगुण सर्व देश रूप से ही होते हैं। (विशेष | <span class="HindiText">जैसे गृहस्थों के मूल और उत्तरगुण होते हैं वैसे मुनियों के एकदेश रूप से नहीं होते हैं किन्तु वे मूलगुण तथा उत्तरगुण सर्व देश रूप से ही होते हैं। (विशेष देखें [[ व्रत#2.4 | व्रत - 2.4]])।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.6"><strong> | <p class="HindiText" id="4.6"><strong>6. श्रावक के अनेकों उत्तर गुण</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.6.1"> | <p class="HindiText" id="4.6.1">1. श्रावक के 2 कर्तव्य</p> | ||
<p><span class="SanskritText">र.सा./ | <p><span class="SanskritText">र.सा./11 दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा।</span> = | ||
<span class="HindiText">चार प्रकार का दान देना और देवशास्त्र गुरु की पूजा करना श्रावक का मुख्य कर्तव्य है, इनके बिना वह श्रावक नहीं है।</span></p> | <span class="HindiText">चार प्रकार का दान देना और देवशास्त्र गुरु की पूजा करना श्रावक का मुख्य कर्तव्य है, इनके बिना वह श्रावक नहीं है।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.6.2"> | <p class="HindiText" id="4.6.2">2. श्रावक के 4 कर्तव्य</p> | ||
<p><span class="SanskritText">क.पा./ | <p><span class="SanskritText">क.पा./82/100/2 दाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो।</span> = | ||
<span class="HindiText">दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावक के धर्म हैं। (अ.ग.श्रा./ | <span class="HindiText">दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावक के धर्म हैं। (अ.ग.श्रा./9/1), (सा.ध./7/51), (सा.ध./पं.लालाराम/फुटनोट पृ.95)।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.6.3"> | <p class="HindiText" id="4.6.3">3. श्रावक के 5 कर्तव्य</p> | ||
<p><span class="SanskritText">कुरल./ | <p><span class="SanskritText">कुरल./5/3 गृहिण: पञ्च कर्माणि स्वोन्नतिर्देवपूजनम् । बन्धु साहाय्यमातिथ्यं पूर्वेषां कीर्तिरक्षणम् ।3।</span> = | ||
<span class="HindiText">पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा, देवपूजन, अतिथि सत्कार, बन्धु-बान्धवों की सहायता और आत्मोन्नति ये गृहस्थ के पाँच कर्तव्य | <span class="HindiText">पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा, देवपूजन, अतिथि सत्कार, बन्धु-बान्धवों की सहायता और आत्मोन्नति ये गृहस्थ के पाँच कर्तव्य हैं।3।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.6.4"> | <p class="HindiText" id="4.6.4">4. श्रावक के 6 कर्तव्य</p> | ||
<p><span class="SanskritText">चा.सा./ | <p><span class="SanskritText">चा.सा./43/1 गृहस्थस्येज्या, वार्ता, दत्ति:, स्वाध्याय:, संयम:, तप इत्यार्यषट्‌कर्माणि भवन्ति।</span> = | ||
<span class="HindiText">इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, और दान ये छह गृहस्थों के आर्य कर्म कहलाते हैं।</span></p> | <span class="HindiText">इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, और दान ये छह गृहस्थों के आर्य कर्म कहलाते हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.वि./ | <p><span class="SanskritText">पं.वि./6/7 देवपूजा गुरूपास्ति: स्वाध्याय: संयमस्तप:। दानं चेति गृहस्थानां षट्‌कर्माणि दिने दिने।7।</span> = | ||
<span class="HindiText">जिनपूजा, गुरु की सेवा, स्वाध्याय, संयम और तप ये छह कर्म गृहस्थ के लिए प्रतिदिन के करने योग्य आवश्यक कार्य | <span class="HindiText">जिनपूजा, गुरु की सेवा, स्वाध्याय, संयम और तप ये छह कर्म गृहस्थ के लिए प्रतिदिन के करने योग्य आवश्यक कार्य हैं।7।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">अ.ग.श्रा./ | <p><span class="SanskritText">अ.ग.श्रा./8/29 सामायिकं स्तव: प्राज्ञैर्वन्दना सप्रतिक्रमा। प्रत्याख्यानं तनूत्सर्ग: षोढावश्यकमीरितम् ।29।</span> = | ||
<span class="HindiText">सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान ऐसे छह प्रकार के आवश्यक पण्डितों के द्वारा कहे गये | <span class="HindiText">सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान ऐसे छह प्रकार के आवश्यक पण्डितों के द्वारा कहे गये हैं।29।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.6.5"> | <p class="HindiText" id="4.6.5">5. श्रावक की 53 क्रियाएँ</p> | ||
<p><span class="SanskritText">र.सा./ | <p><span class="SanskritText">र.सा./153 गुणवयतवसमपडिमादाणं जलगालण अणत्थमियं। दंसणणाणचरित्तं किरिया तेवण्ण सावया भणिया।153।</span> = | ||
<span class="HindiText">गुणव्रत | <span class="HindiText">गुणव्रत 3, अणुव्रत 5, शिक्षाव्रत 4, तप 12, ग्यारह प्रतिमाओं का पालन 11, चार प्रकार का दान देना 4, पानी छानकर पीना 1, रात में भोजन नहीं करना 1, रत्नत्रय को धारण करना 3, इनको आदि लेकर शास्त्रों में श्रावकों की तिरेपन क्रियाएँ निरूपण की हैं उनका जो पालन करता है वह श्रावक है।153।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.7"><strong> | <p class="HindiText" id="4.7"><strong>7. श्रावक के अन्य कर्तव्य</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">त.सू./ | <p><span class="SanskritText">त.सू./7/22 मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता।22। | ||
</span>= <span class="HindiText">तथा वह (श्रावक) मारणान्तिक सल्लेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाला होता | </span>= <span class="HindiText">तथा वह (श्रावक) मारणान्तिक सल्लेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाला होता है।22। (सा.ध./7/57)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">वसु.श्रा./ | <p><span class="SanskritText">वसु.श्रा./319 विणओ विज्जाविच्चं कायकिलेसो य पुज्जणविहाणं। सत्तीए जहजोग्गं कायव्वं देसविरएहिं।319।</span> = | ||
<span class="HindiText">देशविरत श्रावकों को अपनी शक्ति के अनुसार यथायोग्य विनय, वैयावृत्य, कायक्लेश और पूजन विधान करना | <span class="HindiText">देशविरत श्रावकों को अपनी शक्ति के अनुसार यथायोग्य विनय, वैयावृत्य, कायक्लेश और पूजन विधान करना चाहिए।319।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.वि./ | <p><span class="SanskritText">पं.वि./6/25,29,42,59 पर्वस्वथ यथाशक्ति भुक्तित्यागादिकं तप:। वस्त्रपूतं पिबेतोयं...।25। विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्य: परमेष्ठिषु। दृष्टिबोधचरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितै:।29। द्वादशापि चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभि:...।42। आद्योत्तमक्षमा यत्र यो धर्मो दशभेदभाक् । श्रावकैरपि सेव्योऽसौ यथाशक्ति यथागमम् ।59।</span> = | ||
<span class="HindiText">पर्व के दिनों में यथाशक्ति भोजन के त्यागरूप अनशनादि तपों को करना चाहिए। तथा वस्त्र से छना जल पीना | <span class="HindiText">पर्व के दिनों में यथाशक्ति भोजन के त्यागरूप अनशनादि तपों को करना चाहिए। तथा वस्त्र से छना जल पीना चाहिए।25। श्रावकों को जिनागम के आश्रित होकर पंच परमेष्ठियों तथा रत्नत्रय के धारकों की यथायोग्य विनय करनी चाहिए।29। महात्मा पुरुषों को अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करना चाहिए।42। श्रावकों को भी यथाशक्ति और आगम के अनुसार दशधर्म का पालन करना चाहिए।59।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">सा.ध./टिप्पणी/ | <p><span class="SanskritText">सा.ध./टिप्पणी/2/24/पृ.95 आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिके प्रीतिरुच्चै:। पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारुण्यबुद्धया। तत्त्वाभ्यास: स्वकीयव्रतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यम् । तद्‌गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दु:खदो मोहपाश:।</span> = | ||
<span class="HindiText">जिनेन्द्रदेव की आराधना, गुरु के समीप विनय, धर्मात्मा लोगों पर प्रेम, सत्पात्रों को दान, विपत्तिग्रस्त लोगों पर करुणा, बुद्धि से दुख दूर करना, तत्त्वों का अभ्यास, अपने व्रतों में लीन होना और निर्मल सम्यग्दर्शन का होना, ये क्रियाएँ जहाँ त्रिकरण से चलती हैं वही गृहस्थधर्म विद्वानों को मान्य है, इससे विपरीत गृहस्थ लोक और परलोक में दुख देने वाला है।</span></p> | <span class="HindiText">जिनेन्द्रदेव की आराधना, गुरु के समीप विनय, धर्मात्मा लोगों पर प्रेम, सत्पात्रों को दान, विपत्तिग्रस्त लोगों पर करुणा, बुद्धि से दुख दूर करना, तत्त्वों का अभ्यास, अपने व्रतों में लीन होना और निर्मल सम्यग्दर्शन का होना, ये क्रियाएँ जहाँ त्रिकरण से चलती हैं वही गृहस्थधर्म विद्वानों को मान्य है, इससे विपरीत गृहस्थ लोक और परलोक में दुख देने वाला है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">सा.ध./ | <p><span class="SanskritText">सा.ध./7/55,59 स्वाध्यायमुत्तमं कुर्यादनुप्रेक्षाश्च भावयेत् । यस्तु मन्दायते तत्र, स्वकार्ये स: प्रमाद्यति।55। यत्प्रागुक्तं मुनीन्द्राणां, वृत्तं तदपि सेव्यताम् । सम्यङ्‌निरूप्य पदवीं, शक्तिं च स्वामुपासकै:।59।</span> = | ||
<span class="HindiText">श्रावक आत्महितकारक स्वाध्याय को करे, बारह भावनाओं को भावे। परन्तु जो श्रावक इन कार्यों में आलस्य करता है वह हित कार्यों में प्रमाद करता | <span class="HindiText">श्रावक आत्महितकारक स्वाध्याय को करे, बारह भावनाओं को भावे। परन्तु जो श्रावक इन कार्यों में आलस्य करता है वह हित कार्यों में प्रमाद करता है।55। पहले अनगार धर्मामृत में कथित मुनियों का जो चारित्र, उसको भी अपनी शक्ति व पद को समझकर श्रावकों के द्वारा सेवन किया जाय।59।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./ | <p><span class="SanskritText">पं.ध./उ./736-740 जिनचैत्यगृहादीनां निर्माणे सावधानतया। यथासंपद्विधेयास्ति दूष्या नावद्यलेशत:।736। अथ तीर्थादियात्रासु विदध्यात्सोद्यतं मन:। श्रावक: स तत्रापि संयमं न विराधयेत् ।738। संयमो द्विविधश्चैवं विधेयो गृहमेधिभि:। विनापि प्रतिमारूपं व्रतं यद्वा स्वशक्तित:।740।</span> = | ||
<span class="HindiText">अपनी सम्पत्ति के अनुसार मन्दिर बनवाने में भी सावधानता करनी चाहिए, क्योंकि थोड़ा सा भी पाप इन कार्यों में निंद्य नहीं | <span class="HindiText">अपनी सम्पत्ति के अनुसार मन्दिर बनवाने में भी सावधानता करनी चाहिए, क्योंकि थोड़ा सा भी पाप इन कार्यों में निंद्य नहीं है।736। और वह श्रावक तीर्थादिक की यात्रा में भी मन को तत्पर करे, परन्तु उस यात्रा में अपने संयम को विराधित न करे।738। गृहस्थों को अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिमा रूप से वा बिना प्रतिमारूप से दोनों प्रकार का संयम पालन करना चाहिए।740।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ला.सं./ | <p><span class="SanskritText">ला.सं./5/185 यथा समितय: पञ्च सन्ति तिस्रश्च गुप्तय:। अहिंसाव्रतरक्षार्थं कर्तव्या देशतोऽपि तै:।185।</span> = | ||
<span class="HindiText">अहिंसाणुव्रत की रक्षा के लिए पाँच समिति तथा तीन गुप्तियों का भी एकदेशरूप से पालन करना | <span class="HindiText">अहिंसाणुव्रत की रक्षा के लिए पाँच समिति तथा तीन गुप्तियों का भी एकदेशरूप से पालन करना चाहिए।185।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText"> देखें | <p><span class="HindiText">देखें [[ व्रत#2.4 | व्रत - 2.4]] महाव्रत की भावनाएँ भानी चाहिए।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText"> देखें | <p><span class="HindiText">देखें [[ पूजा#2.1 | पूजा - 2.1 ]]अर्हन्तादि पंच परमेष्ठी की प्रतिमाओं की स्थापना करावें। तथा नित्य जिनबिम्ब महोत्सव आदि क्रियाओं में उत्साह रखे।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText"> देखें | <p><span class="HindiText">देखें [[ चैत्यचैत्यालय#2.8 | चैत्यचैत्यालय - 2.8 ]]औषधालय, सदाव्रतशालाएँ तथा प्याऊ खुलवावे। तथा जिनमन्दिर में सरोवर व फुलवाड़ी आदि लगवावे।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.8"><strong> | <p class="HindiText" id="4.8"><strong>8. आवश्यक क्रियाओं का महत्त्व</strong></p> | ||
<p><span class="HindiText"> देखें | <p><span class="HindiText">देखें [[ दान#4 | दान - 4 ]]चारों प्रकार का दान अत्यन्त महत्त्वशाली है।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">र.सा./ | <p><span class="SanskritText">र.सा./12-13 दाणुण धम्मुण चागुण भोगुण बहिरप्पो पयंगो सो। लोहकसायग्गिमुहे पडिउमरिउण संदेहो।12। जिण पूजा मुणिदाणं करेइ जो देइ सत्तिरूवेण। सम्माइट्ठी सावय धम्मी सो होइ मोक्खमग्गरओ।13।</span> = | ||
<span class="HindiText">जो श्रावक सुपात्र को दान नहीं देता, न अष्टमूलगुण, गुणव्रत, संयम पूजा आदि धर्म का पालन करता है, न नीतिपूर्वक भोग भोगता है वह मिथ्यादृष्टि है। जैन धर्म धारण करने पर भी लोभ की तीव्र अग्नि में पतंगे के समान उड़कर मरता है। जो श्रावक अपनी शक्ति अनुसार प्रतिदिवस देव, शास्त्र, गुरु पूजा तथा सुपात्र में दान देता है, वह सम्यग्दृष्टि श्रावक इससे मोक्षमार्ग में शीघ्र गमन करता | <span class="HindiText">जो श्रावक सुपात्र को दान नहीं देता, न अष्टमूलगुण, गुणव्रत, संयम पूजा आदि धर्म का पालन करता है, न नीतिपूर्वक भोग भोगता है वह मिथ्यादृष्टि है। जैन धर्म धारण करने पर भी लोभ की तीव्र अग्नि में पतंगे के समान उड़कर मरता है। जो श्रावक अपनी शक्ति अनुसार प्रतिदिवस देव, शास्त्र, गुरु पूजा तथा सुपात्र में दान देता है, वह सम्यग्दृष्टि श्रावक इससे मोक्षमार्ग में शीघ्र गमन करता है।12-13।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">म.पु./ | <p><span class="SanskritText">म.पु./39/99-101 ततोऽधिगतसज्जाति: सद्‌गृहित्वमसौ भजेत् । गृहमेधी भवनार्यषट्‌कर्माण्यनुपालयन् ।99। यदुक्तं गृहचर्यायाम् अनुष्ठानं विशुद्धिमतम् । तदाप्तविहितं कृत्स्नम् अतन्द्रालु: समाचरेत् ।100। जिनेन्द्राल्लब्धसज्जन्मा गणेन्द्ररनुशिक्षित:। स धत्ते परमं ब्रह्मवर्चसं द्विजसत्तम:।101।</span> = | ||
<span class="HindiText">जिसे सज्जाति क्रिया प्राप्त हुई है ऐसा वह भव्य सद्‌गृहित्व क्रिया को प्राप्त होता है। इस प्रकार जो सद्‌गृहित्व होता हुआ आर्य पुरुषों के करने योग्य छह कर्मों का पालन करता है, गृहस्थ अवस्था में करने योग्य जो-जो विशुद्ध आचरण कहे गये हैं अरहन्त भगवान् के द्वारा कहे गये उन-उन समस्त आचरणों का जो आलस्य रहित होकर पालन करता है, जिसने श्री जिनेन्द्रदेव से उत्तम जन्म प्राप्त किया है, गणधर देव ने जिसे शिक्षा दी है ऐसा वह उत्तम द्विज उत्कृष्ट ब्रह्मतेज-आत्मतेज को धारण करता | <span class="HindiText">जिसे सज्जाति क्रिया प्राप्त हुई है ऐसा वह भव्य सद्‌गृहित्व क्रिया को प्राप्त होता है। इस प्रकार जो सद्‌गृहित्व होता हुआ आर्य पुरुषों के करने योग्य छह कर्मों का पालन करता है, गृहस्थ अवस्था में करने योग्य जो-जो विशुद्ध आचरण कहे गये हैं अरहन्त भगवान् के द्वारा कहे गये उन-उन समस्त आचरणों का जो आलस्य रहित होकर पालन करता है, जिसने श्री जिनेन्द्रदेव से उत्तम जन्म प्राप्त किया है, गणधर देव ने जिसे शिक्षा दी है ऐसा वह उत्तम द्विज उत्कृष्ट ब्रह्मतेज-आत्मतेज को धारण करता है।99-101।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.9"><strong> | <p class="HindiText" id="4.9"><strong>9. कुछ निषिद्ध क्रियाएँ</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पु.सि.उ./ | <p><span class="SanskritText">पु.सि.उ./77 स्तोकैकेन्द्रियघाताद्‌गृहिणां संपन्नयोग्यविषयाणाम् । शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ।77।</span> = | ||
<span class="HindiText">इन्द्रियों के विषयों को न्याय पूर्वक सेवन करने वाले श्रावकों को कुछ आवश्यक एकेन्द्रिय के घात के अतिरिक्त अवशेष स्थावर-एकेन्द्रिय जीवों के मारने का त्याग भी अवश्यमेव करने योग्य होता | <span class="HindiText">इन्द्रियों के विषयों को न्याय पूर्वक सेवन करने वाले श्रावकों को कुछ आवश्यक एकेन्द्रिय के घात के अतिरिक्त अवशेष स्थावर-एकेन्द्रिय जीवों के मारने का त्याग भी अवश्यमेव करने योग्य होता है।77।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ सावद्य#2 | सावद्य - 2 ]]खर कर्म आदि सावद्य कर्म नहीं करने चाहिए।</p> | ||
<p><span class="SanskritText">वसु.श्रा./ | <p><span class="SanskritText">वसु.श्रा./312 दिणपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेषु णत्थि अहियारो। सिद्धंत-रहस्साण वि अज्झयणं देसविरदाणं।312। | ||
</span>= <span class="HindiText">दिन में प्रतिमा योग्य धारण करना अर्थात् नग्न होकर कायोत्सर्ग करना, त्रिकालयोग-गर्मी में पर्वतों के ऊपर, बरसात में वृक्ष के नीचे, सर्दी में नदी के किनारे ध्यान करना, वीरचर्या–मुनि के समान गोचरी करना, सिद्धान्त ग्रन्थों का-केवली श्रुतकेवली कथित, गणधर, प्रत्येक बुद्ध और अभिन्न दशपूर्वी साधुओं से निर्मित ग्रन्थों का अध्ययन करना और रहस्य अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्र का भी अध्ययन करना, इतने कार्यों में देश विरतियों का अधिकार नहीं | </span>= <span class="HindiText">दिन में प्रतिमा योग्य धारण करना अर्थात् नग्न होकर कायोत्सर्ग करना, त्रिकालयोग-गर्मी में पर्वतों के ऊपर, बरसात में वृक्ष के नीचे, सर्दी में नदी के किनारे ध्यान करना, वीरचर्या–मुनि के समान गोचरी करना, सिद्धान्त ग्रन्थों का-केवली श्रुतकेवली कथित, गणधर, प्रत्येक बुद्ध और अभिन्न दशपूर्वी साधुओं से निर्मित ग्रन्थों का अध्ययन करना और रहस्य अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्र का भी अध्ययन करना, इतने कार्यों में देश विरतियों का अधिकार नहीं है।312। (सा.ध./7/50)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">सा.ध./ | <p><span class="SanskritText">सा.ध./4/16 गवाद्यैर्नैष्ठिको वृत्तिं, त्यजेद् बन्धादिना विना। भोग्यान् वा तानुपेयात्तं, योजयेद्वा न निर्दयम् ।16।</span> = | ||
<span class="HindiText">नैष्ठिक श्रावक गौ बैल आदि जानवरों के द्वारा अपनी आजीविका को छोड़ें अथवा भोग करने के योग्य उन गौ आदि जानवरों को बन्धन ताड़न आदि के बिना ग्रहण करें, अथवा निर्दयता पूर्वक बन्धन आदि को नहीं | <span class="HindiText">नैष्ठिक श्रावक गौ बैल आदि जानवरों के द्वारा अपनी आजीविका को छोड़ें अथवा भोग करने के योग्य उन गौ आदि जानवरों को बन्धन ताड़न आदि के बिना ग्रहण करें, अथवा निर्दयता पूर्वक बन्धन आदि को नहीं करें।16।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">ला.सं./ | <p><span class="SanskritText">ला.सं./5/224,265 अश्वाद्यारोहणं मार्गे न कार्यं व्रतधारिणाम् । ईर्यासमितिसंशुद्धि: कुत: स्यात्तत्र कर्मणि।224। छेद्यो नाशादिछिद्रार्थ: काष्ठसूलादिभि: कृत:। तावन्मात्रातिरिक्तं तन्निविधेयं प्रतिमान्वितै:।265।</span> = | ||
<span class="HindiText">अणुव्रती श्रावक को घोड़े आदि की सवारी पर चढ़कर चलने में उसके इर्या समिति की शुद्धि किस प्रकार हो सकती | <span class="HindiText">अणुव्रती श्रावक को घोड़े आदि की सवारी पर चढ़कर चलने में उसके इर्या समिति की शुद्धि किस प्रकार हो सकती है।224। प्रतिमा रूप अहिंसा अणुव्रत को पालन करने वाले श्रावकों को नाक छेदने के लिए सूई, सूआ वा लकड़ी आदि से छेद करना पड़ता है, वह भी उतना ही करना चाहिए जितने से काम चल जाये, इससे अधिक छेद नहीं करना चाहिए।265।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="4.10"><strong> | <p class="HindiText" id="4.10"><strong>10. सब क्रियाओं में संयम रक्षणीय है</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> देखें | <p class="HindiText">देखें [[ श्रावक#4.7 | श्रावक - 4.7 ]]में पं.ध.–वह श्रावक तीर्थयात्रादिक में भी अपने मन को तत्पर करे, परन्तु उस यात्रा में अपने संयम को विराधित न करे।</p> | ||
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Revision as of 21:48, 5 July 2020
श्रावक के मूल व उत्तर गुण निर्देश
1. अष्ट मूलगुण अवश्य धारण करने चाहिए
र.क.श्रा./66 मद्यमांसमधुत्यागै: सहाणुव्रतपञ्चकम् । अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमा:।66। =मद्य, मांस और मधु के त्याग सहित पाँचों अणुव्रतों को श्रेष्ठ मुनिराज गृहस्थों के मूलगुण कहते हैं।66। (सा.ध.)
पु.सि.उ./61 मद्यं मांसं क्षौद्रं पञ्चोदुम्बरफलानि यत्नेन। हिंसा व्युपरतिकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव।61। =हिंसा त्याग की कामना वाले पुरुषों को सबसे पहले शराब, मांस, शहद, ऊमर, कठूमर आदि पंच उदुम्बर फलों का त्याग करना योग्य है।61। (पं.वि./6/23), (सा.ध./2/2)।
चा.सा./30/4 पर उद्धृत - हिंसासत्यस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात् । द्यूतान्मांसानमद्याद्विरतिर्गृहिणोऽष्ट सन्त्यमी मूलगुणा:। =स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल अब्रह्म व स्थूल परिग्रह से विरक्त होना तथा जूआ, मांस और मद्य का त्याग करना ये आठ गृहस्थों के मूलगुण कहलाते हैं। (चा.सा./30/3), (सा.ध./2/3)।
सा.ध./2/18 मद्यपलमधुनिशाशन-पञ्चफलीविरति-पञ्चकाप्तनुती। जीवदयाजलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणा:।18। =किसी आचार्य के मत में मद्य, मांस, मधु, रात्रि भोजन व पंच उदम्बर फलों का त्याग, देववन्दना, जीव दया करना और पानी छानकर पीना ये मूलगुण माने गये हैं।18। (सा.ध./पं.लाल राम/फुट नोट पृ.82)।
2. अष्ट मूलगुण निर्देश का समन्वय
रा.वा.हिं./7/20/558 कोई शास्त्र में तो आठ मूलगुण कहे हैं, तामें पाँच अणुव्रत कहे, मद्य, मांस, शहद का त्याग कहा, ऐसे आठ कहे। कोई शास्त्र में पाँच उदुम्बर फल का त्याग, तीन मकार का त्याग, ऐसे आठ कहे। कोई शास्त्र में अन्य प्रकार भी कहा है। यह तो विवक्षा का भेद है, तहाँ ऐसा समझना जो स्थूलपने पाँच पाप ही का त्याग है। पंच उदुम्बर फल में तो त्रस भक्षण का त्याग भया, शिकार के त्याग में त्रस मारने का त्याग भया। चोरी तथा परस्त्री त्याग में दोऊ व्रत भए। द्यूत कर्मादि अति तृष्णा के त्याग तै असत्य का त्याग तथा परिग्रह की अति चाह मिटी। मांस, मद्य, और शहद के त्याग तै त्रस कूं मार करि भक्षण करने का त्याग भया।
3. अष्ट मूलगुण व सप्त व्यसनों के त्याग के बिना नाम से भी श्रावक नहीं
देखें दर्शन प्रतिमा - 2.5 पहली प्रतिमा में ही श्रावक को अष्ट मूलगुण व सप्त व्यसन का त्याग हो जाता है।
सा.ध./टिप्पणी/पृ.82 एतेऽष्टौ प्रगुणा गुणा गणधरैरागारिणां कीर्तिता। एकेनाप्यमुना विना यदि भवेद्भूतो न गेहाश्रमी। = आठ मूलगुण श्रावकों के लिए गणधरदेव ने कहे हैं, इनमें से एक के भी अभाव में श्रावक नहीं कहा जा सकता।
पं.ध.उ./724-728 निसर्गाद्वा कुलाम्नायादायातास्ते गुणा: स्फुटम् । तद्विना न व्रतं यावत्सम्यक्त्वं च तथाङ्गिनाम् ।724। एतावता विनाप्येष श्रावको नास्ति नामत:। किं पुन: पाक्षिको गूढो नैष्ठिक: साधकोऽथवा।725। मद्यमांसमधुत्यागी त्यक्तोदुम्बरपञ्चक:। नामत: श्रावक: ख्यातो नान्यथाऽपि तथा गृही।726। यथाशक्ति विधातव्यं गृहस्थैर्व्यसनोज्झनम् । अवश्यं तद्व्रतस्थैस्तैरिच्छद्भि: श्रेयसीं क्रियाम् ।727। त्यजेद्दोषांस्तु तत्रोक्तान् सूत्रोऽतीचारसंज्ञकान् । अन्यथा मद्यमांसादीन् श्रावक: क: समाचरेत् ।728। = आठों मूलगुण स्वभाव से अथवा कुल परम्परा से भी आते हैं। यह स्पष्ट है कि मूलगुण के बिना जीवों के सब प्रकार का व्रत और सम्यक्त्व नहीं हो सकता।724। मूलगुणों के बिना जीव नाम से भी श्रावक नहीं हो सकता तो फिर पाक्षिक, गूढ नैष्ठिक अथवा साधक श्रावक कैसे हो सकता है।725। मद्य, मांस मधु व पंच उदुम्बर फलों का त्याग करने वाला गृहस्थ नाम से श्रावक कहलाता है, किन्तु मद्यादि का सेवन करने वाला गृहस्थ नाम से भी श्रावक नहीं है।726। गृहस्थों को यथाशक्ति व्यसनों का त्याग करना चाहिए, तथा कल्याणप्रद क्रियाओं के करने की इच्छा करनी चाहिए। व्रती गृहस्थ को अवश्य ही व्यसनों का त्याग करना चाहिए।727। और मूलगुणों के लगने वाला अतिचार नामक दोषों को भी अवश्य छोड़ना चाहिए अन्यथा साक्षात् रूप से मद्य, मांस आदि को कौन-सा श्रावक खाता है।728। (ला.सं./2/6-9), (ला.सं./3/129-130)।
4. अष्ट मूलगुण व्रती अव्रती दोनों को होते हैं
पं.ध./उ./723 तत्र मूलगुणाश्चाष्टौ गृहिणां व्रतधारिणाम् । क्वचिदव्रतिनां यस्मात् सर्वसाधारणा इमे।723। = उनमें जिस कारण से व्रती गृहस्थों के जो आठ मूलगुण हैं वे कहीं-कहीं पर अव्रती गृहस्थों के भी पाये जाते हैं इसलिए ये आठों ही मूलगुण साधारण हैं।723। (ला.सं./3/127-128)।
5. साधु को पूर्ण और श्रावक को एकदेश होते हैं
पं.ध./उ./722 मूलोत्तरगुणा: सन्ति देशतो वेश्मवर्तिनाम् । तथानगारिणां न स्यु: सर्वत: स्यु: परेऽथ ते।722। = जैसे गृहस्थों के मूल और उत्तरगुण होते हैं वैसे मुनियों के एकदेश रूप से नहीं होते हैं किन्तु वे मूलगुण तथा उत्तरगुण सर्व देश रूप से ही होते हैं। (विशेष देखें व्रत - 2.4)।
6. श्रावक के अनेकों उत्तर गुण
1. श्रावक के 2 कर्तव्य
र.सा./11 दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा। = चार प्रकार का दान देना और देवशास्त्र गुरु की पूजा करना श्रावक का मुख्य कर्तव्य है, इनके बिना वह श्रावक नहीं है।
2. श्रावक के 4 कर्तव्य
क.पा./82/100/2 दाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो। = दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावक के धर्म हैं। (अ.ग.श्रा./9/1), (सा.ध./7/51), (सा.ध./पं.लालाराम/फुटनोट पृ.95)।
3. श्रावक के 5 कर्तव्य
कुरल./5/3 गृहिण: पञ्च कर्माणि स्वोन्नतिर्देवपूजनम् । बन्धु साहाय्यमातिथ्यं पूर्वेषां कीर्तिरक्षणम् ।3। = पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा, देवपूजन, अतिथि सत्कार, बन्धु-बान्धवों की सहायता और आत्मोन्नति ये गृहस्थ के पाँच कर्तव्य हैं।3।
4. श्रावक के 6 कर्तव्य
चा.सा./43/1 गृहस्थस्येज्या, वार्ता, दत्ति:, स्वाध्याय:, संयम:, तप इत्यार्यषट्कर्माणि भवन्ति। = इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, और दान ये छह गृहस्थों के आर्य कर्म कहलाते हैं।
पं.वि./6/7 देवपूजा गुरूपास्ति: स्वाध्याय: संयमस्तप:। दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने।7। = जिनपूजा, गुरु की सेवा, स्वाध्याय, संयम और तप ये छह कर्म गृहस्थ के लिए प्रतिदिन के करने योग्य आवश्यक कार्य हैं।7।
अ.ग.श्रा./8/29 सामायिकं स्तव: प्राज्ञैर्वन्दना सप्रतिक्रमा। प्रत्याख्यानं तनूत्सर्ग: षोढावश्यकमीरितम् ।29। = सामायिक, स्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान ऐसे छह प्रकार के आवश्यक पण्डितों के द्वारा कहे गये हैं।29।
5. श्रावक की 53 क्रियाएँ
र.सा./153 गुणवयतवसमपडिमादाणं जलगालण अणत्थमियं। दंसणणाणचरित्तं किरिया तेवण्ण सावया भणिया।153। = गुणव्रत 3, अणुव्रत 5, शिक्षाव्रत 4, तप 12, ग्यारह प्रतिमाओं का पालन 11, चार प्रकार का दान देना 4, पानी छानकर पीना 1, रात में भोजन नहीं करना 1, रत्नत्रय को धारण करना 3, इनको आदि लेकर शास्त्रों में श्रावकों की तिरेपन क्रियाएँ निरूपण की हैं उनका जो पालन करता है वह श्रावक है।153।
7. श्रावक के अन्य कर्तव्य
त.सू./7/22 मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता।22। = तथा वह (श्रावक) मारणान्तिक सल्लेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाला होता है।22। (सा.ध./7/57)।
वसु.श्रा./319 विणओ विज्जाविच्चं कायकिलेसो य पुज्जणविहाणं। सत्तीए जहजोग्गं कायव्वं देसविरएहिं।319। = देशविरत श्रावकों को अपनी शक्ति के अनुसार यथायोग्य विनय, वैयावृत्य, कायक्लेश और पूजन विधान करना चाहिए।319।
पं.वि./6/25,29,42,59 पर्वस्वथ यथाशक्ति भुक्तित्यागादिकं तप:। वस्त्रपूतं पिबेतोयं...।25। विनयश्च यथायोग्यं कर्तव्य: परमेष्ठिषु। दृष्टिबोधचरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितै:।29। द्वादशापि चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभि:...।42। आद्योत्तमक्षमा यत्र यो धर्मो दशभेदभाक् । श्रावकैरपि सेव्योऽसौ यथाशक्ति यथागमम् ।59। = पर्व के दिनों में यथाशक्ति भोजन के त्यागरूप अनशनादि तपों को करना चाहिए। तथा वस्त्र से छना जल पीना चाहिए।25। श्रावकों को जिनागम के आश्रित होकर पंच परमेष्ठियों तथा रत्नत्रय के धारकों की यथायोग्य विनय करनी चाहिए।29। महात्मा पुरुषों को अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करना चाहिए।42। श्रावकों को भी यथाशक्ति और आगम के अनुसार दशधर्म का पालन करना चाहिए।59।
सा.ध./टिप्पणी/2/24/पृ.95 आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिके प्रीतिरुच्चै:। पात्रेभ्यो दानमापन्निहतजनकृते तच्च कारुण्यबुद्धया। तत्त्वाभ्यास: स्वकीयव्रतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यम् । तद्गार्हस्थ्यं बुधानामितरदिह पुनर्दु:खदो मोहपाश:। = जिनेन्द्रदेव की आराधना, गुरु के समीप विनय, धर्मात्मा लोगों पर प्रेम, सत्पात्रों को दान, विपत्तिग्रस्त लोगों पर करुणा, बुद्धि से दुख दूर करना, तत्त्वों का अभ्यास, अपने व्रतों में लीन होना और निर्मल सम्यग्दर्शन का होना, ये क्रियाएँ जहाँ त्रिकरण से चलती हैं वही गृहस्थधर्म विद्वानों को मान्य है, इससे विपरीत गृहस्थ लोक और परलोक में दुख देने वाला है।
सा.ध./7/55,59 स्वाध्यायमुत्तमं कुर्यादनुप्रेक्षाश्च भावयेत् । यस्तु मन्दायते तत्र, स्वकार्ये स: प्रमाद्यति।55। यत्प्रागुक्तं मुनीन्द्राणां, वृत्तं तदपि सेव्यताम् । सम्यङ्निरूप्य पदवीं, शक्तिं च स्वामुपासकै:।59। = श्रावक आत्महितकारक स्वाध्याय को करे, बारह भावनाओं को भावे। परन्तु जो श्रावक इन कार्यों में आलस्य करता है वह हित कार्यों में प्रमाद करता है।55। पहले अनगार धर्मामृत में कथित मुनियों का जो चारित्र, उसको भी अपनी शक्ति व पद को समझकर श्रावकों के द्वारा सेवन किया जाय।59।
पं.ध./उ./736-740 जिनचैत्यगृहादीनां निर्माणे सावधानतया। यथासंपद्विधेयास्ति दूष्या नावद्यलेशत:।736। अथ तीर्थादियात्रासु विदध्यात्सोद्यतं मन:। श्रावक: स तत्रापि संयमं न विराधयेत् ।738। संयमो द्विविधश्चैवं विधेयो गृहमेधिभि:। विनापि प्रतिमारूपं व्रतं यद्वा स्वशक्तित:।740। = अपनी सम्पत्ति के अनुसार मन्दिर बनवाने में भी सावधानता करनी चाहिए, क्योंकि थोड़ा सा भी पाप इन कार्यों में निंद्य नहीं है।736। और वह श्रावक तीर्थादिक की यात्रा में भी मन को तत्पर करे, परन्तु उस यात्रा में अपने संयम को विराधित न करे।738। गृहस्थों को अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिमा रूप से वा बिना प्रतिमारूप से दोनों प्रकार का संयम पालन करना चाहिए।740।
ला.सं./5/185 यथा समितय: पञ्च सन्ति तिस्रश्च गुप्तय:। अहिंसाव्रतरक्षार्थं कर्तव्या देशतोऽपि तै:।185। = अहिंसाणुव्रत की रक्षा के लिए पाँच समिति तथा तीन गुप्तियों का भी एकदेशरूप से पालन करना चाहिए।185।
देखें व्रत - 2.4 महाव्रत की भावनाएँ भानी चाहिए।
देखें पूजा - 2.1 अर्हन्तादि पंच परमेष्ठी की प्रतिमाओं की स्थापना करावें। तथा नित्य जिनबिम्ब महोत्सव आदि क्रियाओं में उत्साह रखे।
देखें चैत्यचैत्यालय - 2.8 औषधालय, सदाव्रतशालाएँ तथा प्याऊ खुलवावे। तथा जिनमन्दिर में सरोवर व फुलवाड़ी आदि लगवावे।
8. आवश्यक क्रियाओं का महत्त्व
देखें दान - 4 चारों प्रकार का दान अत्यन्त महत्त्वशाली है।
र.सा./12-13 दाणुण धम्मुण चागुण भोगुण बहिरप्पो पयंगो सो। लोहकसायग्गिमुहे पडिउमरिउण संदेहो।12। जिण पूजा मुणिदाणं करेइ जो देइ सत्तिरूवेण। सम्माइट्ठी सावय धम्मी सो होइ मोक्खमग्गरओ।13। = जो श्रावक सुपात्र को दान नहीं देता, न अष्टमूलगुण, गुणव्रत, संयम पूजा आदि धर्म का पालन करता है, न नीतिपूर्वक भोग भोगता है वह मिथ्यादृष्टि है। जैन धर्म धारण करने पर भी लोभ की तीव्र अग्नि में पतंगे के समान उड़कर मरता है। जो श्रावक अपनी शक्ति अनुसार प्रतिदिवस देव, शास्त्र, गुरु पूजा तथा सुपात्र में दान देता है, वह सम्यग्दृष्टि श्रावक इससे मोक्षमार्ग में शीघ्र गमन करता है।12-13।
म.पु./39/99-101 ततोऽधिगतसज्जाति: सद्गृहित्वमसौ भजेत् । गृहमेधी भवनार्यषट्कर्माण्यनुपालयन् ।99। यदुक्तं गृहचर्यायाम् अनुष्ठानं विशुद्धिमतम् । तदाप्तविहितं कृत्स्नम् अतन्द्रालु: समाचरेत् ।100। जिनेन्द्राल्लब्धसज्जन्मा गणेन्द्ररनुशिक्षित:। स धत्ते परमं ब्रह्मवर्चसं द्विजसत्तम:।101। = जिसे सज्जाति क्रिया प्राप्त हुई है ऐसा वह भव्य सद्गृहित्व क्रिया को प्राप्त होता है। इस प्रकार जो सद्गृहित्व होता हुआ आर्य पुरुषों के करने योग्य छह कर्मों का पालन करता है, गृहस्थ अवस्था में करने योग्य जो-जो विशुद्ध आचरण कहे गये हैं अरहन्त भगवान् के द्वारा कहे गये उन-उन समस्त आचरणों का जो आलस्य रहित होकर पालन करता है, जिसने श्री जिनेन्द्रदेव से उत्तम जन्म प्राप्त किया है, गणधर देव ने जिसे शिक्षा दी है ऐसा वह उत्तम द्विज उत्कृष्ट ब्रह्मतेज-आत्मतेज को धारण करता है।99-101।
9. कुछ निषिद्ध क्रियाएँ
पु.सि.उ./77 स्तोकैकेन्द्रियघाताद्गृहिणां संपन्नयोग्यविषयाणाम् । शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम् ।77। = इन्द्रियों के विषयों को न्याय पूर्वक सेवन करने वाले श्रावकों को कुछ आवश्यक एकेन्द्रिय के घात के अतिरिक्त अवशेष स्थावर-एकेन्द्रिय जीवों के मारने का त्याग भी अवश्यमेव करने योग्य होता है।77।
देखें सावद्य - 2 खर कर्म आदि सावद्य कर्म नहीं करने चाहिए।
वसु.श्रा./312 दिणपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेषु णत्थि अहियारो। सिद्धंत-रहस्साण वि अज्झयणं देसविरदाणं।312। = दिन में प्रतिमा योग्य धारण करना अर्थात् नग्न होकर कायोत्सर्ग करना, त्रिकालयोग-गर्मी में पर्वतों के ऊपर, बरसात में वृक्ष के नीचे, सर्दी में नदी के किनारे ध्यान करना, वीरचर्या–मुनि के समान गोचरी करना, सिद्धान्त ग्रन्थों का-केवली श्रुतकेवली कथित, गणधर, प्रत्येक बुद्ध और अभिन्न दशपूर्वी साधुओं से निर्मित ग्रन्थों का अध्ययन करना और रहस्य अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्र का भी अध्ययन करना, इतने कार्यों में देश विरतियों का अधिकार नहीं है।312। (सा.ध./7/50)।
सा.ध./4/16 गवाद्यैर्नैष्ठिको वृत्तिं, त्यजेद् बन्धादिना विना। भोग्यान् वा तानुपेयात्तं, योजयेद्वा न निर्दयम् ।16। = नैष्ठिक श्रावक गौ बैल आदि जानवरों के द्वारा अपनी आजीविका को छोड़ें अथवा भोग करने के योग्य उन गौ आदि जानवरों को बन्धन ताड़न आदि के बिना ग्रहण करें, अथवा निर्दयता पूर्वक बन्धन आदि को नहीं करें।16।
ला.सं./5/224,265 अश्वाद्यारोहणं मार्गे न कार्यं व्रतधारिणाम् । ईर्यासमितिसंशुद्धि: कुत: स्यात्तत्र कर्मणि।224। छेद्यो नाशादिछिद्रार्थ: काष्ठसूलादिभि: कृत:। तावन्मात्रातिरिक्तं तन्निविधेयं प्रतिमान्वितै:।265। = अणुव्रती श्रावक को घोड़े आदि की सवारी पर चढ़कर चलने में उसके इर्या समिति की शुद्धि किस प्रकार हो सकती है।224। प्रतिमा रूप अहिंसा अणुव्रत को पालन करने वाले श्रावकों को नाक छेदने के लिए सूई, सूआ वा लकड़ी आदि से छेद करना पड़ता है, वह भी उतना ही करना चाहिए जितने से काम चल जाये, इससे अधिक छेद नहीं करना चाहिए।265।
10. सब क्रियाओं में संयम रक्षणीय है
देखें श्रावक - 4.7 में पं.ध.–वह श्रावक तीर्थयात्रादिक में भी अपने मन को तत्पर करे, परन्तु उस यात्रा में अपने संयम को विराधित न करे।