श्रावक सामान्य निर्देश: Difference between revisions
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<p class="HindiText" id="2"><strong>श्रावक सामान्य निर्देश</strong></p> | <p class="HindiText" id="2"><strong>श्रावक सामान्य निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="2.1"><strong> | <p class="HindiText" id="2.1"><strong>1. गृहस्थ धर्म की प्रधानता</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">कुरल./ | <p><span class="SanskritText">कुरल./6,8 गृही स्वस्यैव कर्माणि पालयेद् यत्नतो यदि। तस्य नावश्यका धर्मा भिन्नाश्रमनिवासिनाम् ।6। यो गृही नित्यमुद्युक्त: परेषां कार्यसाधने। स्वयं चाचारसंपन्न: पूतात्मा स ऋषेरपि।8।</span> =<span class="HindiText">यदि मनुष्य गृहस्थ के समस्त कर्तव्यों को उचित रूप से पालन करे, तब उसे दूसरे आश्रमों के धर्मों के पालने की क्या आवश्यकता ?।6। जो गृहस्थ दूसरे लोगों को कर्तव्य पालन में सहायता देता है, और स्वयं भी धार्मिक जीवन व्यतीत करता है, वह ऋषियों से अधिक पवित्र है।8।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText">पं.वि./ | <p><span class="SanskritText">पं.वि./1/12 सन्त: सर्वसुरासुरेन्द्रमहितं मुक्ते: परं कारणं रत्नानां दधति त्रयं त्रिभुवनप्रद्योति काये सति। वृत्तिस्तस्य यदुन्नत: परमया भक्त्यार्पिताज्जायते तेषां सद्गृहमेधिनां गुणवतां धर्मो न कस्य प्रिय:।12।</span> =<span class="HindiText">जो रत्नत्रय समस्त देवेन्द्रों एवं असुरेन्द्रों से पूजित है, मुक्ति का अद्वितीय कारण है तथा तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाला है उसे साधुजन शरीर के स्थित रहने पर ही धारण करते हैं। उस शरीर की स्थिति उत्कृष्ट भक्ति से दिये गये जिन सद्गृहस्थों के अन्न से रहती है उन गुणवान् सद्गृहस्थों का धर्म भला किसे प्रिय न होगा ? अर्थात् सर्व को प्रिय होगा।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="2.2"><strong> | <p class="HindiText" id="2.2"><strong>2. श्रावक धर्म के योग्य पात्र</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">सा.ध./ | <p><span class="SanskritText">सा.ध./1/11 न्यायोपात्तधनो, यजन्गुणगुरून्, सद्गीस्त्रिवर्गं भजन्नन्योन्यानुगुणं, तदर्हगृहिणी-स्थानालयो ह्रीमय:। युक्ताहारविहारआर्यसमिति:, प्राज्ञ: कृतज्ञो वशी, शृण्वन्धर्मविधिं, दयालुरघभी:, सागारधर्मं चरेत् ।11।</span> =<span class="HindiText">न्याय से धन कमाने वाला, गुणों को, गुरुजनों को तथा गुणों में प्रधान व्यक्तियों को पूजने वाला, हित मित और प्रिय का वक्ता, त्रिवर्ग को परस्पर विरोधरहित सेवन करने वाला, त्रिवर्ग के योग्य स्त्री, ग्राम और मकानसहित लज्जावान शास्त्र के अनुकूल आहार और विहार करने वाला, सदाचारियों की संगति करने वाला, विवेकी, उपकार का जानकार, जितेन्द्रिय, धर्म की विधि को सुनने वाला दयावान् और पापों से डरने वाला व्यक्ति सागार धर्म को पालन कर सकता है।11।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="2.3"><strong> | <p class="HindiText" id="2.3"><strong>3. विवेकी गृहस्थ को हिंसा का दोष नहीं</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText">म.पु./ | <p><span class="SanskritText">म.पु./39/143-144,150 स्यादारेका च षट्कर्मजीविनां गृहमेधिनाम् । हिंसादोषोऽनुषङ्गो स्याज्जैनानां च द्विजन्मनाम् ।143। इत्यत्र ब्रूमहे सत्यं अल्पसावद्यसङ्गति:। तत्रास्त्येव तथाप्येषां स्याच्छुद्धि: शास्त्रदर्शिता।144। त्रिष्वेतेषु न संस्पर्शो वधेनार्हद्द्विजन्मनाम् । इत्यात्मपक्षनिक्षिप्तदोषाणां स्यान्निराकृति:।150। | ||
</span>=<span class="HindiText">यहाँ पर यह शंका हो सकती है कि जो असि-मषी आदि छह कर्मों से आजीविका करने वाले जैन द्विज अथवा गृहस्थ हैं उनके भी हिंसा का दोष लग सकता है परन्तु इस विषय में हम यह कहते हैं कि आपने जो कहा है वह ठीक है, आजीविका के करने वाले जैन गृहस्थों के थोड़ी सी हिंसा की संगति अवश्य होती है, परन्तु शास्त्रों में उन दोषों की शुद्धि भी तो दिखलायी गयी | </span>=<span class="HindiText">यहाँ पर यह शंका हो सकती है कि जो असि-मषी आदि छह कर्मों से आजीविका करने वाले जैन द्विज अथवा गृहस्थ हैं उनके भी हिंसा का दोष लग सकता है परन्तु इस विषय में हम यह कहते हैं कि आपने जो कहा है वह ठीक है, आजीविका के करने वाले जैन गृहस्थों के थोड़ी सी हिंसा की संगति अवश्य होती है, परन्तु शास्त्रों में उन दोषों की शुद्धि भी तो दिखलायी गयी है।143-144। अरहन्तदेव को मानने वाले को द्विजों का पक्ष, चर्या और साधन इन तीनों में हिंसा के साथ स्पर्श भी नहीं होता...।150।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="2.4"><strong> | <p class="HindiText" id="2.4"><strong>4. श्रावक को भव धारण की सीमा</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">व सु.श्रा./ | <p><span class="PrakritText">व सु.श्रा./539 सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमट्ठमए। भुंजिवि सुर-मणुयसुहं पावेइ कमेण सिद्धपयं।539।</span> = <span class="HindiText">(उत्तम रीति से श्रावकों का आचार पालन करने वाला कोई गृहस्थ) तीसरे भव में सिद्ध होता है। कोई क्रम से देव और मनुष्यों के सुखों को भोगकर पाँचवें, सातवें या आठवें भव में सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं।539।</span></p> | ||
<p class="HindiText" id="2.5"><strong> | <p class="HindiText" id="2.5"><strong>5. श्रावक को मोक्ष निषेध का कारण</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">मो.पा./ | <p><span class="PrakritText">मो.पा./12/313 पर उद्धृत-खण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुंभ प्रमार्जनी। पञ्च सूना गृहस्थस्य तेन मोक्षं न गच्छति।</span> = <span class="HindiText">गृहस्थों के उखली, चक्की, चूल्ही, घड़ा और झाडू ये पंचसूना दोष पाये जाते हैं। इस कारण उनको मोक्ष नहीं हो सकता।</span></p> | ||
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Revision as of 21:48, 5 July 2020
श्रावक सामान्य निर्देश
1. गृहस्थ धर्म की प्रधानता
कुरल./6,8 गृही स्वस्यैव कर्माणि पालयेद् यत्नतो यदि। तस्य नावश्यका धर्मा भिन्नाश्रमनिवासिनाम् ।6। यो गृही नित्यमुद्युक्त: परेषां कार्यसाधने। स्वयं चाचारसंपन्न: पूतात्मा स ऋषेरपि।8। =यदि मनुष्य गृहस्थ के समस्त कर्तव्यों को उचित रूप से पालन करे, तब उसे दूसरे आश्रमों के धर्मों के पालने की क्या आवश्यकता ?।6। जो गृहस्थ दूसरे लोगों को कर्तव्य पालन में सहायता देता है, और स्वयं भी धार्मिक जीवन व्यतीत करता है, वह ऋषियों से अधिक पवित्र है।8।
पं.वि./1/12 सन्त: सर्वसुरासुरेन्द्रमहितं मुक्ते: परं कारणं रत्नानां दधति त्रयं त्रिभुवनप्रद्योति काये सति। वृत्तिस्तस्य यदुन्नत: परमया भक्त्यार्पिताज्जायते तेषां सद्गृहमेधिनां गुणवतां धर्मो न कस्य प्रिय:।12। =जो रत्नत्रय समस्त देवेन्द्रों एवं असुरेन्द्रों से पूजित है, मुक्ति का अद्वितीय कारण है तथा तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाला है उसे साधुजन शरीर के स्थित रहने पर ही धारण करते हैं। उस शरीर की स्थिति उत्कृष्ट भक्ति से दिये गये जिन सद्गृहस्थों के अन्न से रहती है उन गुणवान् सद्गृहस्थों का धर्म भला किसे प्रिय न होगा ? अर्थात् सर्व को प्रिय होगा।
2. श्रावक धर्म के योग्य पात्र
सा.ध./1/11 न्यायोपात्तधनो, यजन्गुणगुरून्, सद्गीस्त्रिवर्गं भजन्नन्योन्यानुगुणं, तदर्हगृहिणी-स्थानालयो ह्रीमय:। युक्ताहारविहारआर्यसमिति:, प्राज्ञ: कृतज्ञो वशी, शृण्वन्धर्मविधिं, दयालुरघभी:, सागारधर्मं चरेत् ।11। =न्याय से धन कमाने वाला, गुणों को, गुरुजनों को तथा गुणों में प्रधान व्यक्तियों को पूजने वाला, हित मित और प्रिय का वक्ता, त्रिवर्ग को परस्पर विरोधरहित सेवन करने वाला, त्रिवर्ग के योग्य स्त्री, ग्राम और मकानसहित लज्जावान शास्त्र के अनुकूल आहार और विहार करने वाला, सदाचारियों की संगति करने वाला, विवेकी, उपकार का जानकार, जितेन्द्रिय, धर्म की विधि को सुनने वाला दयावान् और पापों से डरने वाला व्यक्ति सागार धर्म को पालन कर सकता है।11।
3. विवेकी गृहस्थ को हिंसा का दोष नहीं
म.पु./39/143-144,150 स्यादारेका च षट्कर्मजीविनां गृहमेधिनाम् । हिंसादोषोऽनुषङ्गो स्याज्जैनानां च द्विजन्मनाम् ।143। इत्यत्र ब्रूमहे सत्यं अल्पसावद्यसङ्गति:। तत्रास्त्येव तथाप्येषां स्याच्छुद्धि: शास्त्रदर्शिता।144। त्रिष्वेतेषु न संस्पर्शो वधेनार्हद्द्विजन्मनाम् । इत्यात्मपक्षनिक्षिप्तदोषाणां स्यान्निराकृति:।150। =यहाँ पर यह शंका हो सकती है कि जो असि-मषी आदि छह कर्मों से आजीविका करने वाले जैन द्विज अथवा गृहस्थ हैं उनके भी हिंसा का दोष लग सकता है परन्तु इस विषय में हम यह कहते हैं कि आपने जो कहा है वह ठीक है, आजीविका के करने वाले जैन गृहस्थों के थोड़ी सी हिंसा की संगति अवश्य होती है, परन्तु शास्त्रों में उन दोषों की शुद्धि भी तो दिखलायी गयी है।143-144। अरहन्तदेव को मानने वाले को द्विजों का पक्ष, चर्या और साधन इन तीनों में हिंसा के साथ स्पर्श भी नहीं होता...।150।
4. श्रावक को भव धारण की सीमा
व सु.श्रा./539 सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमट्ठमए। भुंजिवि सुर-मणुयसुहं पावेइ कमेण सिद्धपयं।539। = (उत्तम रीति से श्रावकों का आचार पालन करने वाला कोई गृहस्थ) तीसरे भव में सिद्ध होता है। कोई क्रम से देव और मनुष्यों के सुखों को भोगकर पाँचवें, सातवें या आठवें भव में सिद्ध पद को प्राप्त करते हैं।539।
5. श्रावक को मोक्ष निषेध का कारण
मो.पा./12/313 पर उद्धृत-खण्डनी पेषणी चुल्ली उदकुंभ प्रमार्जनी। पञ्च सूना गृहस्थस्य तेन मोक्षं न गच्छति। = गृहस्थों के उखली, चक्की, चूल्ही, घड़ा और झाडू ये पंचसूना दोष पाये जाते हैं। इस कारण उनको मोक्ष नहीं हो सकता।